लोक का वैभव
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बिहार की प्रसिद्ध गायिका शारदा सिन्हा (1/10/1951-5/11/2024) के निधन से लोक कलाओं के इतिहास का एक महत्वपूर्ण अध्याय समाप्त हो गया है. भारतीय संगीत की समृद्ध विरासत में शारदा सिन्हा जैसी गायिका जिन्होंने लोक गीतों और क्षेत्र विशेष की भाषा को अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया, देखा जाए तो उस सबाल्टर्न का पक्ष रचती है जिसे ही विचारक एंटोनियो ग्राम्सी ने सांस्कृतिक आधिपत्य की राजनीति में वह प्रमुख तत्व माना है जिसकी एजेंसी और आवाज़ों को नकारने, मुख्यधारा से विस्थापित करने का अपना इतिहास रहा है.
शारदा सिन्हा की लोकप्रियता इस अर्थ में एक मानीखेज बात है कि यह यश उन्हें उस लोक संस्कृति से जुड़े होने के कारण मिला है जिस पर आभिजात्यता के दबाव हमेशा से रहे हैं पर जिसकी जड़ें आदिम काल तक जाती हैं. मसलन, छठ पर्व जो बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश, झारखंड की विशिष्ट आंचलिकता का एक बड़ा हिस्सा है, वह देखा जाए तो प्रकृति को उसके आदिम रूप में पूजने की ही व्यवस्था है. अस्ताचलगामी सूर्य को अर्घ्य देने की परंपरा शायद इसे उन चंद अनोखे पर्वों में से एक बनाती है जहाँ किसी मूर्त ईश्वर की नहीं बल्कि प्रकृति के एक तत्त्व की उपासना की जाती है. पूर्वांचल के लाखों-करोड़ों निवासियों की सामूहिक आस्था से जुड़े इस पर्व को इसके विशिष्ट लोकगीत और अधिक अनन्य बनाते हैं. और इसी संदर्भ में हमें एक ऐसा लोक कलाकार दिखलाई पड़ता है जिसकी आवाज़ ही इस आस्था का प्रतिनिधित्व करती है.
शारदा के गीतों के बिना पूरे पूर्वांचल के लोक जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती है. उन्होंने बिहार जैसे प्रदेश जो स्वयं मुख्यधारा के विकास से सदैव अलग-थलग पड़ा रहा, की संस्कृति को अपनी एक विशिष्ट आवाज़ और गायकी में ढाल कर लोक की सामूहिक स्मृति का हिस्सा बना दिया. देश के कोने-कोने में फैले पूर्वांचल के प्रवासी श्रमजीवी जब छठ के अवसर पर अपनी जड़ों की ओर वापस लौटते हैं, तो यह प्रक्रिया आस्था के साथ अपनी विशिष्ट क्षेत्रीय पहचान को स्थापित करने की भी प्रक्रिया होती है. एक ऐसी पहचान जो ऐतिहासिक-सांस्कृतिक-आर्थिक-राजनीतिक कारणों से हाशिये पर रहती आई है. और जिसे उभरने का मौका इन कुछ विशेष अवसरों पर ही मिलता है. यह अवसर गुजरात के गरबा और महाराष्ट्र के गणपति उत्सव की तरह नहीं है जहाँ अपेक्षाकृत विशेषाधिकार की स्थिति में रहते आए वर्ग एकजुट होते हैं. यहाँ प्रायः वह निम्न वर्ग है जो ट्रेनों की रेल-पेल में साल भर की जमा-पूंजी संभाले अपने घरों की ओर लौटता है ताकि एक सामूहिकता में जुड़ कर आश्वस्त हो सके. बहरहाल, छठ पर्व में अपने परिजनों से मिलने और त्योहार मनाने के इन भावुक क्षणों को शारदा के गीतों की संवेदनात्मक तीव्रता इस पर्व को उस सांस्कृतिक-भावनात्मक उत्सव में तब्दील कर देती है जिसके लिए सफ़र में उठाई गई तमाम मुश्किलें सार्थक लगने लगती हैं.
एक सूक्ष्म अर्थ में एक क्षेत्रीय पर्व और उसे पहचान देने वाली आवाज़ के उभार की यह पूरी प्रक्रिया हाशिये पर स्थित लघु परंपराओं और गौण आवाज़ों की केंद्र के साथ एंगजमेंट की प्रक्रिया है.
शारदा सिन्हा की प्रसिद्धि का सबसे सशक्त कारण छठ पर्व के बेहद करुण और श्रद्धापूरित लोकगीत हैं, जिन्हें गाकर उन्होंने लोगों की आस्था को एक ठोस मूर्त स्वरूप दिया. पर यह एक वजह उन्हें विशिष्ट बनाने के लिए काफ़ी नहीं हो सकती. क्योंकि ऐसा तो नहीं था कि उनसे पहले लोक भाषाओं के गीत या छठ इत्यादि के गीत गाए ही नहीं जाते थे. बिहार की ही एक प्रमुख लोक कलाकार विंध्यवासिनी देवी (1920-2006) ने भोजपुरी और मैथिली में गीतों की एक समृद्ध विरासत खड़ी की थी और जिन्हें संगीत जगत में उनके योगदान के लिए संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार भी दिया गया था. वह आकाशवाणी और मंच पर गाने वाले प्रारम्भिक कलाकारों में से एक थीं. इसके अतिरिक्त भी देखा जाए तो पूरे पूर्वांचल में लोकगीतों की परंपरा रही है. ये गीत जीवन में उसी तरह घुले-मिले होते हैं जिस प्रकार धमनियों में रक्त घुला रहता है. पर्व-त्योहार, रीति-रिवाज, पारंपरिक-धार्मिक अवसर, यह सब बिना लोकगीतों के कोई मायने ही नहीं रखते. घर-परिवार की स्त्रियाँ मुंह-आँचल ढाँपे, अपने-अपने आँगनों में जब गीतों की हूक उठाती हैं, तो ही समझ आता है कि कोई उत्सव वास्तव में हो रहा है, कोई रीति निबाही जा रही है. छठ जैसे पर्व में भी जहाँ कई दिनों का श्रमसाध्य व्रत किया जाता है और पूजा से संबंधित सैकड़ों नियम श्रद्धा और तत्परता से किए जाते हैं, ऐसे में इस पर्व के गीत सुननेवालों के मानसिक और शारीरिक थकान को दूर करने की दृष्टि से भी निहायत ज़रूरी होते हैं. ऐसे में शारदा सिन्हा को इस एक अर्थ में सबसे बड़ा श्रेय दिया जाना चाहिए कि इन्होंने ही लोकगीतों को घर के आँगन से निकाल कर रिकार्डिंग स्टूडियो तक सबसे पहले-पहल पहुंचाया और उसकी प्रसिद्धि को एक क्षेत्र विशेष की भौगोलिकता से बढ़ाते हुए सार्वजनीन, सार्वभौमिक किया. वरना यह कोई कम आश्चर्य की बात तो नहीं सुदूर विदेशों में भी छठ पर्व की आस्था शारदा सिन्हा के गीतों से छन-छन कर गूँजती है.
एक सामान्य अर्थ में तो यह एक कला रूप को और विस्तृत करने की बात भर लगती है, पर इसके सूक्ष्म अर्थ बहुआयामी हैं. मसलन, बिहार जैसा वंचित और मानवीय विकास सूचकांकों में पिछड़ा हुआ राज्य अपनी सांस्कृतिक विरासत में कितना धनी हो सकता है, इसे आधुनिक संदर्भों में और भी अधिक आकलन करने की ज़रूरत है. एक ज़रूरत जिस पर मृत्युंजय शर्मा की अभी हाल ही में आई किताब ब्रोकन प्रोमिसेस (Broken Promises) और विस्तार से चर्चा करती है. बिहार की सांस्कृतिक विरासत जिसे न केवल राज्य बल्कि देश भी अपने सॉफ़्ट पावर के प्रदर्शन के लिए और राज्य के विकास के लिए उपयोग में ला सकता है. और यह सब तब तक संभव नहीं हो सकता जब तक कि उस विशिष्ट आंचलिक संस्कृति को मुख्यधारा के विमर्श का, बहस का हिस्सा न बनाया जाए, उसकी दृश्यता न बढ़ाई जाए.
बहरहाल, शास्त्रीय संगीत के प्रशिक्षण से पगी और दादरा-ठुमरी के पूर्बी अंग में भी उतनी ही सधी हुई शारदा की आवाज़ ने अपना जौहर सिर्फ छठ के गीतों तक ही नहीं बल्कि मैथिल कोकिल विद्यापति के नचारी गीत, वैवाहिक गीतों, समदौउन (विदाई) गीत, महेंद्र मिश्र, भिखारी ठाकुर जैसे भोजपुरी के लोकप्रचालित कवियों और हिन्दी के कवि गोपाल सिंह नेपाली के साहित्यिक गीतों को गाने में भी दिखलाया था. गोपाल सिंह नेपाली के कई गीतों को उन्होंने अपनी आवाज़ दी मसलन,
“घूँघट घूँघट नैना नाचे, पनघट पनघट छईयां रे
लहर लहर हर नैया नाचे, नैया में खेवैया रे”
या
“तारे चमके तुम भी चमको, पर बीती बात न लौटेगी
एक दिन साजन से मिलने को बारात उठेगी आँगन से
शहनाई फिर बज सकती है, पर वो बारात न लौटेगी”.
शारदा सिन्हा ने अपने कई गीत स्वयं लिखे और संगीत से पिरोया. उनकी ये मौलिक रचनाएँ सबसे अधिक लोकप्रिय हुईं. छठ पूजा का यह गीत
“केलवा के पात पर उगेला सूरज मन झुके झाँकें” में इतनी सुंदर उपमा का प्रयोग है कि गीत अपने आप में साहित्यिक बन पड़ता है. आम तौर पर प्रचलित आवाज़ों से एकदम अलग शारदा की आवाज़ भारी होने के बावजूद भी तार सप्तक में बड़ी आसानी से घूमती कमोबेश सभी प्रकार के गीतों को एक विशिष्ट सहजता से समेट लेती थी. उन्होंने ग़ज़लों का भी एक संग्रह निकाला था हालांकि इस विधा में अधिक न गा पाने का मलाल ताउम्र बना रहा.
मैथिली भाषी होते हुए भी शारदा जी ने प्रमुख रूप से भोजपुरी में गाया और यह राह आसान नहीं थी क्योंकि एक ही प्रदेश की विविध बोलियों के लहजे में भी विभिन्नता और उच्चारण की बारीकियाँ होती हैं, जिसे पकड़ना श्रमसाध्य होता है. उनके शुरुआती भोजपुरी गीतों में उन्हें लहजे की इस बारीकी में दिक्कत आती थी पर सतत अभ्यास ने उन्हें भाषा पर भी सहज अधिकार दे दिया.
उन्होंने गायन की शुरुआत मैथिली से की थी. विवाह के अवसर पर द्वार छेंकाई के लिए गाए जाने वाले गीत जिसमें बहन द्वारा नेग की मांग की जाती है, उसी गीत को उन्होंने एच.एम.वी म्यूजिक कंपनी के ऑडिशन में गाया था. पर ऐसा नहीं था कि सफलता का स्वाद उन्होंने बहुत आसानी से चखा. पहली बार इस चयन में असफल हो जाने के बाद बड़ी मिन्नतों से दूसरा मौका ऑडिशन के लिए पाया था. और इस दूसरे दिन के ऑडिशन में खुद मालिक-ए-ग़ज़ल बेग़म अख्तर निर्णायक थीं और शारदा जी के गायन ने उन्हें न केवल अभिभूत किया बल्कि शायद उन्होंने उनकी काबिलीयत को भांप कर एक भविष्यवाणी सी ही कर दी कि इसी तरह रियाज़ करती रहे तो एक दिन वह बहुत आगे तक जाएंगी. और शारदा सिन्हा न केवल आगे तक गईं बल्कि वैश्विक रूप से उन्होंने लोक भाषा की गायिका के रूप में भाषा और कला दोनों ही को स्थापित किया.
भोजपुरी, मैथिली, मगही, हिन्दी, वज्जिका और अंगिका में 1500 से भी अधिक गीत गाने वाली शारदा के गायन ने रिकॉर्डिंग तकनीक के विकास की भी पूरी यात्रा देखी है जहाँ एकल रिकॉर्ड से शुरू करते हुए लॉन्ग प्ले रिकार्ड, ऑडियो कैसेट, वीडियो कैसेट, सीडी, वीसीडी और फिर सोशल मीडिया के फ़ेसबुक, यूट्यूब और इंस्टाग्राम तक का सफर उनकी गायकी ने तय किया था.
एक ऐसे दौर और एक ऐसे प्रांत में जहाँ स्त्रियों के यूं सार्वजनिक स्थानों पर दिखाई देने के लिए भी कई-कई पाबंदियाँ थीं, शारदा के पिता सुखदेव ठाकुर ने अपने समय से बहुत आगे जाकर अपनी बेटी के कलात्मक रुझान को प्रोत्साहन और संवर्धन दिया. वह उनके गीतों के इतने ही बड़े शौकीन थे कि शारदा के विवाह के बाद होने वाली विदाई से पहले भी यही शर्त रखी कि वह पूरे परिजनों के सामने कोई गीत गा कर सुनायेंगी, तभी वह उन्हें विदा करेंगे. वह बतलाती हैं कि कैसे निमिया तर डोली रख दे कहारों सुन कर सभी परिजनों की आँखें भर आई थीं.
उन्होंने मणिपुरी नृत्य में भी दक्षता हासिल की थी पर यह सामाजिक बंधनों की जकड़न ही थी, जिनके कारण उन्हें अपने इस हुनर को कहीं पीछे छोड़ देना पड़ा. संगीत के प्रति उनके लगाव को भी ऐसी सहज स्वीकृति नहीं हासिल थी पर इसके प्रति उन्होंने विद्रोह किया. अपने कई साक्षात्कारों में वह बतलाती हैं कि कैसे विवाह के बाद भले ही उनके पति ने उनके इस संगीत प्रेम को खुले हृदय से स्वीकार किया पर उनकी सास उनके यूं सार्वजनिक रूप से गाने की प्रबल विरोधी थीं. प्रारंभ में तो स्थिति खाना-पीना छोड़ कर अनशन पर बैठने तक की थी पर शारदा ने हार न मानी. विषम परिस्थितियों में भी संगीत को नहीं छोड़ा, जिसकी साधना वह बचपन से करती आ रही थीं.
उन्होंने पंडित रामचन्द्र झा से अपने विद्यालय में और आगे चल कर सहरसा के पंचगछिया घराने के पंडित रघु झा से शास्त्रीय संगीत की तालीम हासिल की थी. किराना घराना की सुविख्यात गायिका पन्ना देवी से दादरा और ठुमरी का भी तक़रीबन एक साल तक प्रशिक्षण उन्होंने प्राप्त किया था. वैसे तो वह 1973 से आकाशवाणी में अपने गायन के कार्यक्रम प्रस्तुत करने लगी थीं, पर उनकी गायकी का सबसे अहम मोड़ 1983-84 में आया जब उन्होंने छठ के गीतों की रिकॉर्डिंग शुरू की और विद्यापति को समर्पित एक अल्बम “श्रद्धांजलि” लाया. शारदा की गाई हुई विद्यापति की गंगा स्तुति रातों रात मैथिल प्रेमियों ही नहीं बल्कि राजश्री फिल्म्स के ताराचंद बड़जात्या की भी पसंदीदा प्रस्तुति बन गई थी.
कहते हैं
“बड़ सुख सार पाउलों तूअ तीरे, छाड़ि इतै निकट नयन बहै नीरे
करजोरि बिलमओं विमल तरंगे, पुनि दरसन होय पुनमति गंगे”
सुनते-सुनते ताराचंद जी की कैसेट घिस गई थी. इसी तरह आगे चल कर राजश्री फिल्म्स के ही दो लोकचर्चित फिल्मों मैंने प्यार किया (कहे तो से सजना) और हम आपके हैं कौन (बाबुल जो तुमने सिखाया) में भी गायन किया जिसे बहुत प्रसिद्धि मिली. अपने एक साक्षात्कार में वह बतलाती हैं कि कैसे इन दो बड़ी फिल्मों में जहाँ लता मंगेशकर भी गा रही थीं, उनके सामने एक लोक गायक की उपस्थिति का शायद पता भी न चलता, पर जनता की स्मृतियों में उनके द्वारा गाए गए गीत आज भी अमिट हैं. आगे भी उन्होंने अनुराग कश्यप की फिल्म गैंग्स ऑफ वासेपुर में भी विवाह के अवसर पर गाए जाने वाला एक बेहद चर्चित गीत गया था जिसके बोल और शारदा सिन्हा द्वारा उन्हें गाने के अंदाज़ ने फिल्म से अधिक चर्चित इस गीत को बना दिया था.
“तार बिजली से पतले हमारे पिया, ओ री सासू बता तूने ये क्या किया, सूख के हो गए हैं छुहारे पिया, कुछ खाते नहीं हैं हमारे पिया, ओ री सासू बता तूने ये क्या किया”-
यह गीत एक विशिष्ट संस्कृति को दर्शाने वाला है जहाँ पारिवारिक संबंधों के घात-प्रतिघात को बड़े रोचक अंदाज़ से व्यक्त किया गया है.
शारदा सिन्हा से पहले और उनके बाद भी भोजपुरी में गायकों-संगीतज्ञों की एक लंबी पीढ़ी हुई है. छठ पर्व के गीत भी उनके बाद बहुतेरे गायकों ने गाए हैं, पर प्रायः सब उनकी नकल हैं या मौलिक होते हुए भी प्रभावी नहीं हैं. भीड़ में अपनी एक अलग पहचान बनाए रखने का रहस्य जब शारदा से पूछा जाता था तो वह गंभीर हो कर केवल यहीं कहतीं कि
“छठ पर्व या विवाह संस्कारों के जो लोकगीत हैं, वह परंपरा से प्राप्त हुए गीत हैं, जिन्हें गाने के समय में उन्होंने उनकी आत्मा से कोई छेद-छाड़ नहीं की. हाँ उनकी धुनों में भले उन्होंने नए-नए प्रयोग किए पर उसकी पारंपरिकता और विशिष्टता के साथ कभी खिलवाड़ नहीं किया”.
शायद यही वजह है कि उनके गीत अधिक प्रभावी भी हुए और दीर्घजीवी भी. इसमें उनकी शास्त्रीयता ने भी अपना अभिन्न योगदान दिया. चूंकि शास्त्रीय संगीत पर उनकी पकड़ जबरदस्त थी, लोक गीतों के उनके गायन में हम विभिन्न रागों की छाप देख सकते हैं. एक ही पंक्ति को कई-कई तरीक़े से गा कर उनके गायन का स्तर इतना ऊंचा हो जाता है कि उनके गाए लोक गीतों में ठेठ देहात की मिट्टी की खुशबू भी आती है और लहज़े में छन-छन कर आने वाली आभिजात्यता भी दिखाई पड़ती है. केवल इस एक दृष्टि से भी देखा जाए तो शारदा सिन्हा की गायकी अपने समकालीन और बाद में आने वाले भोजपुरी-मैथिली के गायकों से कहीं अधिक विशिष्ट और श्रेष्ठ है.
आगे आने वाले समय में भोजपुरी गीतों में व्यावसायिकता की होड़ में अश्लीलता और फूहड़ता के मिश्रण ने जिस प्रकार इन क्षेत्रीय गीतों को एक विशिष्ट केटेगरी में क़ैद कर दिया, शारदा सिन्हा उसके बर-अक्स लोक गीतों को उसके सबसे विशुद्ध और संस्कारित रूप में प्रस्तुत करने की पक्षधर थीं. क्षणिक सफलता के दबाव में आकर उन्होंने कभी भी अपनी कला से कोई समझौता नहीं किया था इसीलिए आज के समय को देख वह यह कहतीं कि कैसे आज की युवा पीढ़ी के गायकों के लिए सुविधायें इतनी बढ़ गई हैं कि सृजनात्मकता गायब हो गई है. उनके अपने गीतों की विशिष्टता ही इस बात में थी कि
“उन गीतों के चयन में, शब्दों के रख-रखाव में अत्यंत सतर्कता बरती गई, जिन्हें सहज धुनों में पिरो कर गाया गया और यही उनकी लोकप्रियता का भी आधार बना.”
लोकगीतों को, विशेषकर छठ पर्व के गीतों को भी बॉलीवुड के कई लोकप्रिय गायकों जैसे अनुराधा पौडवाल, अलका याग्निक, पलक मूंछल और अन्य भोजपुरी गायकों ने भी गाया है, पर इन गीतों को गाने में जो एक विशिष्ट किस्म का अनगढ़पन, जो एक खुरदरापन चाहिए, वह इनमें नहीं मिलता. शारदा की आवाज़ में जो अपनाइयत है, लोकगीतों को कंठ-से-कंठ प्राप्त करते वक़्त जो अपनी व्याख्या है, वह सिर्फ उनकी अपनी विशिष्टता है. अपने एक साक्षात्कार में उन्होंने इस पर और विस्तार से विचार व्यक्त करते हुए कहा था कि
“लोकगीतों के भविष्य को लेकर एक चिंता यह होती है कि इन गीतों में जो अनगढ़पन है, जो मौलिकता है, वह ही इनकी जान है. उन्हें बहुत परिष्कृत करने की भी ज़रूरत नहीं है. पर आधुनिक समय के दबाव में इनमें अश्लीलता और फूहड़ता मिला कर एक दम नए प्रोडक्ट की तरह बेचा जा रहा है. और संगीत में फूहड़ता भर देने से उसमें वह टिकाऊपन नहीं रहता”.
बहरहाल, बिहार, उत्तर प्रदेश जैसे प्रांत अपनी विशिष्ट औपनिवेशिक इतिहास के लिए भी जाने जाते हैं. दूर ब्रिटिश उपनिवेशों में जहाँ व्यावसायिक खेती के लिए बड़े परिमाण में मजदूरों की आवश्यकता होती थी, वहाँ यह क्षेत्र ही प्रमुख रूप से गिरमिटिया मजदूरों के मुहैया करवाने के स्रोत थे. अपनी जड़ों से हज़ारों मील दूर एक अपरिचित प्रदेश में हाड़ तोड़ मेहनत करने वाले मजदूर पीछे अपने परिवार को छोड़ कर जाते थे और इन प्रदेशों की यह वीरानी सिर्फ भौतिक नहीं बल्कि मानसिक भी थी. आगे चल कर दो-दो विश्वयुद्धों में ब्रिटिश सेना में सैनिकों की भर्ती के लिए भी इन क्षेत्रों से लोग इकट्ठा किए जाते थे. ब्रिटिश पलटन में शामिल पुरुष अपने पीछे परिवार को छोड़ कर जब जाते तो लौटने की उम्मीद भी धुंधली हुआ करती थी. परिवार के इस तरह पीछे छूट जाने की वेदना को लोक गीतों के द्वारा हम सांस्कृतिक स्मृतियों का हिस्सा बनते हुए देख सकते हैं. इन गीतों में एक ऐसे जीवन को चित्रित किया जाता था जहाँ सुदूर परदेस गए परिजनों की राह देखी जाती थी. शारदा के कुछ गीत इसी संवेदना को अभिव्यक्त करते हैं जिनमें एक साथ इस क्षेत्र के इतिहास और स्त्री जीवन की बेहद निजी अभिव्यक्तियाँ देखने को मिलती हैं.
“पनिया के जहाज से पलटनिया बनी अईहै हो, पिया लईले अईहै हो सिंदूर बंगाल के”.
इस गीत में इसी प्रकार पलटानिया बने पति से तमाम शहरों की चीजें लाने की गुहार है. राजस्थान का टीका, पंजाब से झुमके, मुल्तान से चोली, बिहार से नथ ला देने की फरमाइश केवल स्त्री आकांक्षा की नहीं बल्कि उस संस्कृति की झलकियां हैं जहाँ घर-परिवार को पति की अनुपस्थिति में संभालती स्त्रियाँ कम-से-कम सामाजिक स्तर पर इन वस्तुओं से अपना मूल्य बढ़ा सकें. शारदा सिन्हा के स्वर की करुण शैली में वह स्त्री-छवि मानो जीवंत हो उठती है.
जन्म-विवाह इत्यादि संस्कारों के गीत भी इस क्षेत्र को विशिष्ट सांस्कृतिक संवेदना से सम्पन्न बनाते हैं.
“बड़ रे जतन से हम सिया धिया पोसलों, ओहो धिया राम लैने जाए”
जैसे विदाई गीत विवाह के अवसर पर जिस प्रकार की भाव दशा उत्पन्न करते हैं वह शारदा जी की आवाज में और बहुगुणित होता है. उनकी आवाज़ में जो एक करुण भावात्मकता है संभवतः यही वजह है कि मैंने प्यार किया और हम आपके हैं कौन जैसे लोक प्रसिद्ध फिल्मों में मध्य वर्गीय संदर्भों की संवेदनात्मकता को इतना अधिक सटीके से अभिव्यक्त करता है. एक कलाकार के रूप में उनके गीतों के इस चयन पर हम आज के संदर्भों में अवश्य प्रश्न उठा सकते हैं. हमारे लिए यह कह पाना बहुत आसान होगा कि इन फिल्मों के गीत अंततः पितृसत्तात्मक व्यवस्था को ही पुष्ट करते नज़र आते हैं. इनके बोल स्त्री-पुरुष समानता की पूरी लड़ाई को बेमानी बनाते नज़र आएंगे जहाँ परिवार को घर बनाने की अंदरूनी अपेक्षाएँ एक स्त्री से ही की जाती है. यह अपेक्षा की जाती है कि वह बिना प्रश्न किए परंपरा को चाहे वह कितनी भी भेदकारी और अन्यायपूर्ण क्यों न हो , बस निबाहती चली जाए. पर एक कलाकार के रूप में इस स्त्री की छवि को भी शारदा सिन्हा की आवाज़ पूरी प्रामाणिकता के साथ उपस्थित कर देती है.
एक स्त्री के जीवन की तमाम संभावनाओं को उन्होंने स्वयं भरपूर जिया. चार दशकों तक ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय के अंतर्गत समस्तीपुर, बिहार में संगीत विभाग में अध्यापन, लोक गायिका के रूप में मंच और व्यावसायिक गायन के प्रति पूर्ण समर्पण, देश-विदेश में संगीत के कॉन्सर्टस- और इस प्रकार व्यावसायिक और निजी जीवन के बीच संतुलन साधने की एक स्त्री की अपनी कवायद. यह यात्रा आसान तो निस्संदेह नहीं रही होगी. विशेषकर एक ऐसे सांस्कृतिक संदर्भ में जहाँ स्त्री से घर-परिवार को भी सुचारु रूप से चलाए रखने की सामाजिक-पारिवारिक अपेक्षा रहती है. वह स्वयं कहती थीं कि किस तरह अपने छोटे-छोटे बच्चों को अपनी मंचीय प्रस्तुति के समय, रियाज के लंबे-लंबे घंटों के दौरान वह साथ रखती थीं. बाह्य जीवन भी कोई बहुत आसान न था. जिस विश्वविद्यालय में उन्होंने इतना लंबा अरसा पढ़ाया वहाँ उन्हें स्थायी नहीं किया गया और आधी तनख्वाह पर आजीवन पढ़ाया और सेवानिवृत्ति के पाँच साल बाद उनकी पेंशन भी रोक दी गई. विश्वविद्यालय से कानूनी लड़ाइयाँ लड़ने में उनकी सृजनात्मक ऊर्जा का कितना बड़ा अंश खर्च हुआ इसकी तो कल्पना भी नहीं की जा सकती. बिहार सरकार की उपेक्षा की बानगियाँ और भी कई थीं. जिस कलाकार ने अपने राज्य की सांस्कृतिक पहचान बनाने में एक पूरा जीवन खर्च किया उसे स्वयं उसकी मिट्टी से वह दर्ज़ा मिलने में बारम्बार कोताहियाँ हुईं. मसलन बिहार के सौ वर्ष पूरे होने पर पटना में हुए भव्य आयोजन में उन्हें अपनी प्रस्तुति देने के लिए नहीं बुलाया गया. सरकार की यह विस्मृति एक गंभीर प्रश्न हमारी मानसिकता पर भी खड़ा करती है जहाँ अपने कलाकारों को वह सम्मान, वह पहचान नहीं दिया जाता जिनकी बदौलत सरकारें अपनी पहचान बनाती हैं. इसी प्रकार एक साक्षात्कार में वह ज़िक्र करती हैं कि कैसे बिहार के शताब्दी वर्ष के उपलक्ष्य में जो एक गीत उन्होंने किसी स्टेज पर एक दम यूं ही बना कर गाया था
“सौवें बरस में बिहार, सब मिल गाओ मंगलाचार”
वह गीत बिहार सरकार ने अपने कई राजकीय विज्ञापनों में बिना किसी कृतज्ञता ज्ञापन के साथ प्रयोग किया था.
बहरहाल, देखा जाए तो आधुनिकता प्रायः समरूपीकरण के ख़तरे के साथ आती है, जहाँ कला और संस्कृति का भी एक रूढ़ मानकीकरण होने लगता है. लोक कलाएँ इस मानकीकरण के विपक्ष में खड़ी, अपने विविध रूपों और कलेवरों से कला को एक रूढ़ साँचे में ढालने से रोकती हैं. शास्त्रीयता का विरोध न करते हुए भी लोक कलाएँ अपनी महत्ता और अपनी क्षेत्रीय विशिष्टता को रेखांकित करती हैं. यह उस सबाल्टर्न की उपस्थिति, उनके प्रतिनिधित्व को संभव बनाती हैं जिन्हें मुख्यधारा के विमर्शों में शामिल ही नहीं किया जाता. लोक गीतों में जिस प्रकार से किसी क्षेत्र,जाति, धर्म, लिंग की लघु परंपराएँ अपना स्वरूप पाती हैं वह उन्हें उस विशिष्ट और प्रायः उपेक्षित समूहों के अध्ययन का एक महत्त्वपूर्ण उपकरण बना देती हैं.
शारदा सिन्हा के साथ जिस सबाल्टर्न के उभार को हम रेखांकित कर रहे हैं, उसकी अपनी निहित चिंताएँ और अंतर्विरोध भी हैं. चिंताएँ इस अर्थ में कि उनके गीतों की विरासत या मुख्यधारा के साथ उसकी अंतःक्रियाएं कहीं स्वयं सबाल्टर्न के लिए एक रूढ़ और मानकीकृत व्यवस्था न बन जाए, जिसके भीतर ही स्थित रह कर उनकी अपनी कला का या स्वयं उनका प्रतिनिधित्व संभव हो सकेगा. अंतर्विरोध यह कि, पूर्वांचल की जिन लोक कलाओं और गीतों के संदर्भ को हम शारदा के उभार के साथ जोड़ते हैं, उन लोक कलाओं के अपने स्वयं ही सैंकड़ों रूप हैं. इनमें भी अनेकानेक विविधताएँ हैं, अनेकों रंग-रूप-गंध हैं. इसीलिए वह जिस तरह के लोकगीतों या लोककलाओं को मुख्यधारा में ला रही थीं, वह समग्र पूर्वांचल की लोक विविधता का प्रतिनिधित्व नहीं था. ऐसे में एक दूरगामी ख़तरा यह उत्पन्न हो सकता है, जिसकी चिंता हमने पहले भी व्यक्त की कि यह सीमित कला जिसे ही रिकॉर्डिंग कंपनियां लोकरंग की झांकियों के रूप में एक यांत्रिक विचारहीनता के साथ पुनरुत्पादित कर रही है, उनके ही मानकीकृत और रूढ़ हो जाने का अंदरूनी खतरा है. क्योंकि छठ के गीत हों या विवाह इत्यादि संस्कारों के गीत, उनके गायन के अनेकानेक पारंपरिक तरीके हैं. ऐसे में क्या यह सबाल्टर्न का वास्तविक प्रतिनिधित्व या उनका असर्शन है या उन्हें और अधिक हाशिये पर धकेल देने की ही एक प्रक्रिया?
बहरहाल, उपरोक्त चिंता का एक दूसरा किंचित आशावादी आयाम यह हो सकता है कि मुख्यधारा का ऐतिहासिक आधिपत्य (Hegemony) इतना चिरकालिक और प्रबल रहा है कि उसके बरअक्स सबाल्टर्न की एक दस्तक भी अपने आप में एक अर्थवान विजय है, क्योंकि पहला मसला तो उसकी दृश्यता (visibility) का है. आधिपत्य के बहुचक्रीय व्यूह को तोड़ कर अपनी उपस्थिति दिखलाना अपने आप में एक श्रमसाध्य यात्रा है. और यह तब जबकि इस यात्रा में हम उनके स्त्री होने का पक्ष तो जोड़ भी नहीं रहे हैं, जो इस पूरे विमर्श को और अधिक विचारणीय बना देगा. इसलिए शारदा सिन्हा की इस मुख्यधारा के संगीत और कला के आधिपत्यवादी लैंडस्केप में पूर्वांचल की लोककला का प्रतिनिधित्व चाहे वह स्वयं कितना सीमित क्यों न हो, एक विचारणीय और कई अर्थों में एक प्रशंसनीय उपस्थिति भी है. उन समाजों की जिनकी उपेक्षा ऐतिहासिक रही है, वहाँ से निकली कोई भी आवाज़ न केवल उन समाजों के लिए आगे की दिशा दिखलाती है, बल्कि अब तक बरती गई उपेक्षा पर किसी-न-किसी स्तर पर प्रश्न भी उठाती है. शारदा सिन्हा और लोक कलाओं के प्रति उनके अवदान का इसलिए हमें आधिपत्य के इस पूरे विमर्श के परिप्रेक्ष्य में मूल्यांकन करना चाहिए. अपने लोकगीतों से एक बड़े भू-भाग की जन-आकांक्षाओं, उसकी लोक-परंपराओं, उसके लोक-कवियों को जिस तरह से उन्होंने वाणी दी वह आधुनिकता के दबावों के बीच भी लोक संस्कृति की उपस्थिति का प्रमाण है.
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अदिति भारद्वाज दिल्ली विश्वविद्यालय से उत्तर-औपनिवेशिक विमर्श और विभाजन-साहित्य पर शोध कार्य. |
शारदा सिन्हा के बहाने लोक के वैभव को उसके गीतों के जरिये समझने का यह उपक्रम बहुत जरूरी और बहुत सामयिक है। इस प्रस्तुति के लिए बहुत बधाई एवं बहुत साधुवाद।
भावपूर्ण और प्रभावपूर्ण आलेख। अदिति जी ने बिहार की राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक और रूढ़िगत मनोवृत्तियों के बरअक्स शारदा सिन्हा जी की विशिष्ट लोकगायकी और उनके उभार की सम्यक व्याख्या की है। उन्हें बधाई।
सुश्री अदिति भारद्वाज ने शारदा सिन्हा के गायन
और उस समय में प्रचलित सामाजिक बंधनों को बहुत ही बारीकी से निरीक्षण कर उजागर किया। मैं तहेदिल से धन्यवाद करती हूं।
अद्भुत बिश्लेशन किया गया है जिसका प्रसंसा किये बिना मैं नहि सकता हूं। शारदा सिन्हा ने बहुत संघर्ष करके अपने लिए एक अलग पहचान और स्थान हासिल की। यह आपके लेख पढने के बाद ही बिस्तृत रूप से समझने में बहुत आसानी हुई है। आपकी लेख पढने बाद लग रहाहैकी मैं शारदा सिन्हा की प्रतिभा को हरेक पहलू को जानता हूं। बहुत बहुत धन्यावाद।