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Home » राजेन्द्र राजन की कविताएँ

राजेन्द्र राजन की कविताएँ

समय की शिला पर कवि अपना समय भी लिखता है. अनिद्रा वैसे तो अच्छी बात नहीं पर जब हाहाकार उठ रहा हो कोई सो भी कैसे सकता है. ओढ़ी हुई नींद और भी बुरी बात है. कवि जगने और रोने के लिए अभिशप्त हैं. उनका कबीर कह चुका है- ‘जागे अरु रोवे’. राजेन्द्र राजन की ये दसों कविताएँ विकलता और विवशता को कविता की शर्तों पर संभव करती हैं. स्वर देती हैं. ये सुलाने वाली कविताएँ नहीं जगाने वाली हैं. प्रस्तुत है यह अंक.

by arun dev
November 26, 2024
in कविता
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राजेन्द्र राजन की  कविताएँ
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राजेन्द्र राजन की कविताएँ 

 

जंगल में मोर

जंगल में मोर नाचा
किसने देखा?

किसी ने नहीं देखा
सिर्फ जंगल ने देखा

जंगल ने भी कहाँ देखा!
वह तो लीन हो गया था नाच में

सारे वृक्ष नाच रहे थे
सारे झरने
सारी पहाड़ियाँ
सारी पगडंडियाँ
सारी धूप छाँहीं छँटाएँ

जंगल अब भी याद करता है
जब वह एक मोर के संग नाचा था.

 

 

जागरण

वे कहते हैं जागो
मैं अनसुना कर देता हूँ
वे फिर कहते हैं जागो
मैं अब भी खामोश रहता हूँ
पहले वे इक्का-दुक्का आते थे
अब झुंड में आते हैं और जोर से कहते हैं जागो
उनकी आवाज़ और तेज़
और तेज़ होती जाती है
वे घेरकर समवेत स्वर में कहते हैं जागो
हम ख़तरे में हैं
हम सब ख़तरे में हैं
ख़तरा बढ़ता जा रहा है

मैं पूछता हूँ
कहाँ है ख़तरा?
कैसा ख़तरा?

वे एक तस्वीर दिखाते हैं
मैं कहता हूँ यह तो
मेरे पड़ोसी का चेहरा है

वे कहते हैं
हैरानी की बात है
ख़तरा इतना निकट होते हुए भी
तुम अभी तक नहीं जागे!

मैं कहता हूँ
मैं पूरी तरह सजग हूँ
अपने पड़ोसी को बचपन से जानता हूँ
उसके बारे में सबकुछ पता है मुझे
देश-दुनिया का ज्ञान है मुझे
दिशाओं का भान है मुझे
मुझे मालूम है कौन-सा रास्ता
किधर ले जाता है

वे कहते हैं नहीं
तुम अभी जागे हुए नहीं हो
तर्क और विचार
खींचते रहते हैं तुम्हें
तुम बहस में उलझ जाते हो
संशय में पड़ जाते हो
इंसानी खून देखकर डर जाते हो
जागो

मैं कहता हूँ आखिर जागने का क्या मतलब है
कोई है जिसे जागा हुआ कहें?

वे एक भीड़ की तरफ इशारा करते हैं
मैं भीड़ के करीब जाकर देखता हूँ
सबके हाथ में कोई न कोई हथियार है
किसी-किसी के हाथ में अख़बार भी
सबकी ऑंखों में चिनगारियाँ हैं
चेहरों पर नफ़रत का जोश
मुट्ठियाँ कसी हुई हैं इस अंदाज में
मानो उन्होंने दुश्मन की गर्दन दबोच रखी हो
वे जोर-जोर से नारे लगा रहे हैं
अपने पड़ोसियों के ख़िलाफ़

मित्रों, जागने का यही अर्थ है
तो एक बार फिर मैं कहता हूँ
मैं जागा हुआ नहीं हूँ
न मुझे जागना है.

 

 

इतिहास में सेंध

ये हमारे समय के नए योद्धा हैं
इन्होंने कोई लड़ाई नहीं लड़ी
पर ये चाहते हैं इनके नाम
इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखे जाएँ
हम इनकी विरुदावली गाएँ
बच्चों को बताएँ इनकी वीरता की कथाएँ

बहुत खटखटाने पर भी
नहीं खुला इनके लिए इतिहास का दरवाज़ा
निराश होकर अब ये चोरों की तरह
जुट गए हैं इतिहास में सेंध लगाने में

सोता पड़ गया है
आँख खुलेगी तो लोग देखेंगे
नहीं मिल रहा है गांधी का चश्मा
ग़ायब है उनका चरखा
नदारद है उनकी कलम और घड़ी
मिटा दिए गए हैं
सुभाष बोस की रेजीमेंटों के नाम
भगतसिंह ने फेंका था जो परचा सेंट्रल असेंबली में
उसकी जगह कोई और परचा रख दिया गया है
आंबेडकर के हाथ में जो किताब थी
चिंदी चिंदी कर दी गयी है
एक भी चीज सलामत नहीं बची है नेहरू की
पहचान में नहीं आ रही सरदार पटेल की तस्वीर

लोग उठेंगे तो देखेंगे
किधर ले जाते हैं
सेंधमारों के पैरों के निशान.

pinterest से साभार

अनुकूलन

यह कौन है जो आकर मेरे भीतर
पुलिस की तरह बैठ गया है
कभी सख्ती से और कभी
समझाने के अंदाज में कहता है
देखो यह सच बोलने का समय नहीं है
जब इतने लोग ख़ामोश रह सकते हैं
तो तुम भी ख़ामोश रह सकते हो
वरना अंजाम कुछ भी हो सकता है
देखा नहीं!
फैसला सुनाने से पहले उसके साथ क्या हुआ?

मैं कहता हूँ
लेकिन मैं अपने दोस्त के कातिल का नाम जानता हूँ
और इसे हलफनामे से लेकर
कविता तक में उजागर करना चाहता हूँ

वह कहता है
इसीलिए तुम पर नज़र रखी जा रही है
खैरियत चाहते हो तो मेरी बात मान लो
तुम अपने दिवंगत दोस्त के परिवार के प्रति
सहानुभूति जता सकते हो
लेकिन कातिल का नाम भूल जाओ

उसकी समझाइश का असर होता है
अब फूंक-फूंक कर निकलते हैं मेरे शब्द
और आश्चर्य नहीं होगा अगर किसी दिन
मैं कातिल के गले में माला पहनाते देखा जाऊं.

 

 

 

पंक्तियाँ

पहली पंक्ति उभरती है काफी इंतज़ार के बाद
एक अदृश्य कोने से
एक ज़िद के सहारे जद्दोजहद करती हुई
पहल करने की बेचैनी साफ दिखती है उसके माथे पर
अकेले होने की व्यथा को
थामे रहती है एक पागल-सी उम्मीद
वह कुछ देर ठिठकी रहती है सोचती हुई
कहाँ खड़े होकर आवाज़ लगाएँ
उसे अपनी ही प्रतिध्वनि सुनाई देती रहती है
भयानक सन्नाटे में
जब तक दूसरी पंक्ति नहीं आ जाती

ख़मोशी के एक अंतराल को पार करती हुई
आती है दूसरी पंक्ति
उसकी शैली से टपकती रहती है
जिम्मेदारी में हाथ बटाने की तैयारी
और पहली पंक्ति के बगल में होने की ठसक भी

तीसरी पंक्ति पर रुख तय करने का तनाव नहीं होता
लेकिन बात को आगे बढ़ाने का ज्यादा दारोमदार
उसी पर होता है
दरअसल यहाँ से बात बन भी सकती है
बिगड़ भी सकती है

यह नाज़ुक मोड़ पार कर लेने के बाद
पंक्ति-दर-पंक्ति एक सिलसिला शुरू हो जाता है
फिर तो एक लरजती हुई पंक्ति भी
दौड़ी चली आती है पड़ोसन का हाथ थामे

यह सिलसिला कभी-कभी
एक तेज प्रवाह का भी रूप ले लेता है
और उसके साथ कुछ गैर जरूरी
या गँदला भी चला आता है
और इस बाढ़ पर तुम्हारा वश नहीं होता

लेकिन कई बार इसका उलटा भी होता है
कारवाँ बीच राह में रुक जाता है
मानो अचानक कुहरा छा गया हो
रास्ता दीख न रहा हो
या आगे का रास्ता बहुत दुर्गम हो
यहाँ से कठिन चढ़ाई शुरू होती हो

थकते ठहरते सुस्ताते हुए
कभी-कभी तुम इसलिए भी रुक जाते हो
कि तुम्हें सबकुछ अर्थहीन लगने लगता है
और तब तुम ऐसी पंक्ति का सपना देखते हो
जिसमें अर्थ साबुत बचे हों
और तब तुम्हें दीखती हैं कई पुरखिन पंक्तियाँ
कोई सिखावन बांचती हुई तो कोई
किसी ऊंचे आसन के मुकाबले शास्त्रार्थ करती हुई
कोई उस स्वर्ण कलश से आगाह करती हुई
जिसमें मद भरा है
कोई आंसुओं में डूबी हुई तो कोई
लहूलुहान पंक्ति के गिर पड़ने से पहले ही
उससे झंडा अपने हाथ में लेती हुई

सिहरा देने वाली इस स्मृति से बाहर आते ही
तुम पाते हो कि यह ऐसा समय है
जब हर पंक्ति पर नजर रखी जा रही है
और एक एक कर सारी मुखर पंक्तियाँ
ख़ामोश हो चुकी हैं
और लाख कोशिश करने पर भी
कोई नयी पंक्ति नहीं बन पा रही है

इस निराशा के घटाटोप में एक दिन
बिजली की तरह कड़कती हुई आती है
एक अचंभे जैसी पंक्ति
हत्याओं और साजिशों के सुराग उगलती हुई
बेखौफ़
दो टूक
सारी ठहरी हुई इंतजार करती हुई पंक्तियों से
वह कहती है आओ मेरे साथ चलो

उसके साथ चलते हुए सारी पंक्तियाँ देखती हैं
कि अब अंतिम पंक्ति भी उठ खड़ी हुई है
जैसे एक औरत घूँघट हटाकर
उठ खड़ी हुई हो भरी पंचायत में
कुछ कहने के लिए
पहली बार

मुझे कई बार ऐसा लगा है
कि जो अंतिम पंक्ति में है
उसे पहली पंक्ति में होना चाहिए था.

 

 

ग़ुस्सा पर्व

जिसे हर ग़लत चीज पर ग़ुस्सा आता था
वह नायक आजकल नज़र क्यों नहीं आता?
कहाँ चला गया वह?

अब एक सही क़िस्म का ग़ुस्सा क्यों नहीं दीखता?
जबकि बाकी हर तरह का ग़ुस्सा
सब तरफ से घेरे है तुम्हें
तमाम लोग तमाम वक्त ग़ुस्से में हैं
जैसे कोई ग़ुस्सा पर्व चल रहा हो

हवाएँ ग़ुस्से से भरी हैं
दिशाएँ ग़ुस्से में डूबी हैं
रास्ते सड़कें गलियाँ चौराहे
गाड़ियाँ और गंतव्य
लक्ष्य और कर्तव्य
सब ग़ुस्से में हैं

शब्द और अर्थ
छवियाँ और प्रतिमाएँ
पूजा-प्रार्थनाएँ
भावनाएँ और आस्थाएँ
अस्मिताएँ और परिभाषाएँ
बोलियाँ और भाषाएँ
शैलियाँ और विधाएँ
रंग और रेखाएँ
रीतियाँ और नीतियाँ
सफलताएँ और विफलताएँ
दुष्टताएँ और सरलताएँ
सब ग़ुस्से में हैं

तर्क और वितर्क
विचार और आचार
खबरें और चर्चाएँ
बहसें और विमर्श
दर्शन और दृष्टियाँ
धर्म और संस्कृतियाँ
सब ग़ुस्से में हैं

जो ग़ुस्से में है
उसका सही होना स्वयंसिद्ध है
जो ग़ुस्से में नहीं है
वह बुज़दिल है या संदिग्ध है
जो तनिक ठहरकर सोचने लगता है
उसका भरोसा नहीं किया जा सकता

ग़ुस्सा इस वक्त
सशक्तीकरण का सबसे सुलभ
और सबसे आसान उपाय है

ग़ुस्से से भरा हुआ देश
फिलहाल
अपने को
ताकतवर महसूस कर रहा है
अपनी संचित निधियों
और साधी हुई शक्तियों को
खोते हुए भी.

 

 

चलो यहाँ से

यह मैं कहाँ आ गया हूँ
यह कौन सी जगह है जहाँ
चप्पे-चप्पे पर घनघोर उजाला है
कहीं एक ॲंधेरा कोना नहीं
कहीं तनिक धुंधलका तक नहीं
दिन के दोपहर और आधी रात में कोई फर्क नहीं
पता नहीं चलता
कब घिरती है सांझ
कब ढलती है रात
कब फटती है पौ
कब है कृष्ण पक्ष
कब है शुक्ल पक्ष

चलो यहाँ से
जहाँ दिन में दिन हो और रात में रात
जहाँ धीरे धीरे ढलती है दोपहर
जहाँ धीरे धीरे घिरती है साँझ
जहाँ धीरे धीरे ढलती है रात
जहाँ बचा है ब्रह्म मुहूर्त
जहाँ बचा है भिनसार
जहाँ बची है गोधूलि
जहाँ बची है चाँदनी
जहाँ बचा है अमावस
जहाँ रात में तारे टिमटिमाते नजर आते हैं
और राह दिखाते हैं
जहाँ समय का अंदाजा हो जाता है
घड़ी के बगैर भी.

 

 

आसान और मुश्किल

कितना आसान है
किसी और मुल्क में हो रहे
जुल्म के ख़िलाफ़ बोलना
इस पर वे भी बोलते हैं
जो अपने मुल्क में तमाम सितम
चुपचाप देखते रहते हैं
कभी मुँह नहीं खोलते

कितना आसान है
दूसरों को उदारता का पाठ पढ़ाना
इस धर्म के कट्टरपंथी भी
करते रहते हैं
उस धर्म के कट्टरपंथ की निन्दा

कितना आसान है
महापुरुषों की तस्वीरों और प्रतिमाओं पर
फूल चढ़ाकर
अपनी जिम्मेवारियों से बचे रहना
हमारे समय के निठल्ले और कायर भी
गाते हैं पुरखों की वीरता के गीत
सुनाते हैं क्रांतिकारियों के किस्से

कितना आसान है
अतीत के अत्याचारों से लड़ना
हमारे समय के अत्याचारी भी
करते हैं अतीत के अत्याचारों की चर्चा

कितना मुश्किल है
अपने गिरेबां में झॉंकना
खुद को कसौटी पर कसना.

pinterest से साभार

 

आखिरी घड़ी तक

अभी तो मैं अपने कोटर में हूँ
फिर अचानक यह रोशनी कैसी
नहीं, यह वह उजाला नहीं है
जिसमें मैं अपना आहार ढूँढता हूँ
विचरण करता हूँ

यह एक हिंसक रोशनी है
जो मुझे पकड़ने या मारने के इरादे से
जाल की तरह फेंकी गयी है मुझ पर
ताकि मैं सरक कर
उनकी नजरों से ओझल न हो जाऊं

मैं नहीं जानता अब मैं कितनी सांसें ले पाऊंगा
किस घड़ी वे मुझे दबोच लेंगे
किस घड़ी वे मुझे खत्म कर देंगे
हो सकता है जान से न मारें
पर मेरी आज़ादी का खात्मा तो कर ही देंगे
फिर वे मेरे साथ कैसा सलूक करेंगे
कौन सा अंग निकालेंगे कितनी यातना देंगे
कौन जानता है!

मैं अकेला नहीं हूँ
जिसकी जिंदगी और आजादी
चैन और सुकून
उनके निशाने पर हैं

खास हथियारों और दूरबीनों से लैस
जाल और पिंजरे लिये
हेडलाइटों और टार्चों से रोशनियाँ फेंकते
वे घूम रहे हैं दल-के-दल
इस जंगल से उस जंगल
इस पहाड़ी से उस पहाड़ी
इस पठार से उस पठार
इस कछार से उस कछार

वे खोज रहे हैं हमें
हर चट्टान पर हर डाली पर
हर बिल में हर कोटर में
हर गुफा में हर गह्वर में
हर झुरमुट में हर झाड़ी में

उन्हें चाहिए हमारी चमड़ियाँ हमारी खालें हमारे सींग
हमारे अयाल हमारे बाल हमारे रोयें
हमारे जबड़े हमारे दांत हमारे नाखून
हमारे केंचुल हमारे पंख हमारे चोंच
हमारी कलगियाँ हमारी हड्डियाँ

और इसके लिए पृथ्वी के सारे एकांत
रौंद डाले हैं उन्होंने
ॲंधेरा तक छीन लिया है हमसे
हम छिपें तो कहाँ छिपें

तथाकथित सभ्यता के इस संसार में
वे हमें नख-दंत विहीन बना देना चाहते हैं

असहमति और विरोध के हर कोटर पर
सोच-विचार के हर झुरमुट पर
आजादखयाली की हर कुलांच पर
कल्पना की हर उड़ान पर
स्वतंत्र मिजाज के हर व्यक्ति पर
हर अभिव्यक्ति पर
नजर रखी जा रही है

वे रोज कतर रहे हैं हमारी चेतना के पंख
रौंद रहे हैं हमारे अधिकारों को
रोज बेदखल कर रहे हैं हमें
हमारे पुरखों की गाढ़ी कमाई से

उनके डर से दुबकते-दुबकते
हमारी आजादी यहाँ तक सिकुड़ गयी है
कि अपनी पसंद से पढ़ना-लिखना सोचना-समझना
पड़ोसी का हाल पूछना तक निरापद नहीं बचा है

क्या उन्होंने पूरी तरह से घेर लिया है हमें
या हमीं भटक कर
उनकी चपेट में आ गये हैं!

देखो ये रहे उनके पिंजरे उनकी जेलें
दुष्प्रचार का उनका जाल
झूठी एफआईआर का हथियार

अब जब हम उनके रूबरू खड़े हैं
तो अपने वजूद के एक-एक अंग
और अपने होने की हरेक हरकत
और अपनी रूह का एहसास
हम पर तारी है

हमारी नागरिक आजादियाँ
कोई जुमला नहीं हैं साहब
ये हमारे वजूद का हिस्सा हैं
जैसे हमारे दॉंत हमारे नाखून
हमारे रोयें हमारी त्वचाएँ
हमारी नाड़ियाँ और पसलियाँ
हमारे खून की हर बूंद
हमारी हर सांस हर धड़कन

और आखिरी घड़ी तक
हमारे वजूद का यही मतलब रहेगा.

 

 

शांति भंग

रात-भर नींद नहीं आयी
रात-भर कुत्ते भौंकते रहे
रात-भर उन्मादी नारे लगते रहे
रात-भर डरावने बाजे बजते रहे
रात-भर कुछ तोड़े जाने की आवाज़ें आती रहीं

लेकिन तब शांति भंग नहीं हुई
जैसा कि जाँच के बाद बताया गया
शांति तब भंग हुई
जब दूसरे दिन एक लड़के ने
देश के बारे में दर्द-भरा गाना गाया.

_________

राजेन्द्र राजन

जन्म 20 जुलाई 1960 को वाराणसी में. शिक्षा दीक्षा वाराणसी से. अनेक साल समाजवादी विचारों की पत्रिका सामयिक वार्ता के कार्यकारी संपादक रहे. मई 2003 से हिन्दी अखबार जनसत्ता के संपादकीय पेज की जिम्मेदारी संभाली. जुलाई 2018 में जनसत्ता के वरिष्ठ संपादक के पद से सेवानिवृत्त. इस समय सेतु प्रकाशन में मुख्य संपादक. एक कविता संग्रह ‘बामियान में बुद्ध’ नाम से प्रकाशित. इसके अलावा आचार्य नरेन्द्रदेव संचयन और किसान आंदोलन पर लिखी पचास कवियों की कविताओं का संकलन-संपादन. नारायण देसाई की किताब ‘माई गांधी’ का हिन्दी अनुवाद सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के प्रकाशन विभाग से प्रकाशित.
rajendrarajan234@gmail.com 
(M) 9013932963
Tags: 20242024 कविताराजेन्द्र राजन
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Comments 10

  1. कुमार अम्बुज says:
    7 months ago

    ये हमारे समय की कविताएँ हैं।
    और अपने ढंग से प्रभावी हैं।
    यह कवि और कविता की
    गवाही है।

    Reply
  2. सुशील मानव says:
    7 months ago

    मौजूदा समय की राजनीति ने सिर्फ़ राजनीति को ही नहीं, समाज, विचार, संस्कृति, व्यक्ति सब को बहुत बुरी हद तक प्रभावित किया है जिसकी भरपाई करने में पीढ़ियांँ गुज़र जाएंगी.
    राजेंद्र राजन की सूक्ष्म विवेचन दृष्टि और संवेदना से बुनी ये 10 कविताएँ पिछले 10 सालों की विद्रूपताओं का रेशा – रेशा उधेड़ती हैं. ये कविताएँ ‘जंगल में नाचा मोर’ और ‘जागो हिंदू जागो’ जैसे मुहावरों के मायने बदल देती हैं। यही इन कविताओं की सार्थकता है. कई कवियों ने प्रयास किए हैं, लेकिन मौजूदा राजनीति पर इससे बेहतर कविताएंँ कम से कम मेरी नज़रों से तो नहीं गुज़री हैं.

    Reply
  3. शिवदयाल says:
    7 months ago

    अपने समय की विडंबनाओं को इतने प्रामाणिक ढंग से ऐसी ही सादी किन्तु संवेदनशील भाषा और शिल्प में कहा जा सकता है। राजेंद्र राजन इसीलिए विशिष्ट हैं और मेरे प्रिय कवि हैं।
    – शिवदयाल

    Reply
  4. पंकज चौधरी says:
    7 months ago

    बहुत अच्छी कविताएं हैं। वर्तमान की सटीक और अचूक अभिव्यक्ति तथा पड़ताल हम इन कविताओं में पा सकते हैं। भाषा को बरतने की तमीज हम राजेंद्र राजन से सीख सकते हैं। राजन सर कम लिखते हैं लेकिन कमाल और भारी लिखते हैं।

    Reply
  5. ब्रज नंदन says:
    7 months ago

    जीवन यथार्थ से रू ब रू कवि की रचना है, अरुण बाबू! यह साधना कभी आसान नहीं रही है।यथार्थ की ऐसी रवादार अभिव्यक्ति, भाषा और शिल्प का आयासहीन संयोजन ! –बहुत कठिन है ! समादरणीय कवि को मेरा सादर प्रणाम !

    Reply
  6. पवन करण says:
    7 months ago

    उल्लेखनीय कविताएं हैं। महत्वपूर्ण।

    Reply
  7. राम प्रसाद यादव says:
    7 months ago

    कविताएं हमारे समय की गवाही है। आंखों देखी खबर है।

    Reply
  8. दिलीप दर्श says:
    7 months ago

    सारी कविताएँ समय की सचाई को इशारों में बयां कर रही हैं। मैंने उनकी कविताएँ नहीं पढ़ी थीं। ऐसी कविताएँ कम लिखी जा रही हैं। भाषा भी इंडीजीनस सी है। अद्भुत अभिव्यक्ति। समालोचन का धन्यवाद और कवि को वधाई।

    Reply
  9. keshav sharan says:
    7 months ago

    ये जीवन-पर्यावरण और प्रतिरोध की दृष्टि-सम्पन्न कविताएँ हैं। पढ़कर बेहद अच्छा लगा। इनका एहसास बहुत गहरा है और ये बहुत गहरे तक हमें संवेदित करती हैं। बहुत ठोस धरातल पर बहुत क़रीने से रची गई कविताएँ हैं। हार्दिक बधाई राजेंद्र राजन और समालोचन को!

    Reply
  10. साम्ब ढकाल says:
    5 months ago

    समय कि सामयिक गान । जहाँ कविता कि माध्यम से समाज भी गाए गएँ है !

    Reply

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