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समालोचन

Home » सैयद हसन असकरी और उनका इतिहासलेखन :शुभनीत कौशिक

सैयद हसन असकरी और उनका इतिहासलेखन :शुभनीत कौशिक

पटना का इतिहास सैयद हसन असकरी का प्रिय विषय था. वह मध्यकालीन भारत ख़ासकर बिहार के विशेषज्ञ इतिहासकार थे. आज उनकी पुण्यतिथि (जन्म 10 अप्रैल 1901-28 नवंबर 1990) है. उन्हें स्मरण करते हुए उनके इतिहासलेखन की चर्चा कर रहे हैं- शुभनीत कौशिक. सैयद हसन असकरी की स्मृति को जीवित रखने के लिए निर्मित ‘हसन असकरी हिस्टोरियोग्राफ़ी प्रोजेक्ट' की ओर भी इस लेख में ध्यान खींचा गया है.

by arun dev
November 27, 2024
in इतिहास
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सैयद हसन असकरी और उनका इतिहासलेखन :शुभनीत कौशिक
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सैयद हसन असकरी और उनका इतिहासलेखन

शुभनीत कौशिक

सिर पर काली किश्तीदार टोपी, चौड़ा माथा, हल्की मूँछों वाला लम्बा चेहरा, लम्बे कानों पर टिका हुआ गोल फ़्रेम का मोटा चश्मा और उस चश्मे के पीछे चमकती हुई दो पैनी आँखें, जिनके सामने से दुर्लभ पांडुलिपियों और ऐतिहासिक दस्तावेज़ों के लाखों पन्ने गुजरे थे. इकहरे बदन पर ढीला-ढाला कुर्ता-पाजामा और शेरवानी– इतिहासकार सैयद हसन असकरी (1901-1990) का कुछ यही बाना था.

अपनी पुरानी खटारा साइकिल पर सवार होकर असकरी घर से पटना यूनिवर्सिटी, ख़ुदा बख़्श ओरियंटल लाइब्रेरी, पटना के सिनेमा-हॉल और शहर के गली-कूचों का फ़ासला तय करते. यह सब करते हुए लाइब्रेरी या यूनिवर्सिटी से घर लौटते हुए इतिहासकार असकरी अपनी पालतू गाय या बकरी के लिए घास लाना कभी नहीं भूले. कहना न होगा कि सैयद हसन असकरी सरापा उन सूफ़ी दरवेशों की तरह हो चले थे, जिन पर उन्होंने ताज़िंदगी शोध किया था. जहाँ इतिहास के छात्रों, अध्येताओं के लिए असकरी प्रेरणास्रोत थे, वहीं पटना के लोगों के लिए वे एक ‘जीवित किंवदंती’ थे.

सीवान से पटना यूनिवर्सिटी तक का सफ़र

सैयद हसन असकरी का जन्म वर्ष 1901 में बिहार के सीवान ज़िले के कुझवा (खुजवा) गाँव के एक शिया परिवार में हुआ. उस समय तक बिहार एक अलग प्रांत नहीं प्रांत बना था. बचपन में ही असकरी के पिता सैयद रज़ी हसन का निधन हो गया और उनकी शिक्षा और देख-रेख की ज़िम्मेदारी असकरी के बड़े भाई सैयद सुल्तान अली ने संभाली. वर्ष 1912 में बिहार के बंगाल से अलग होने के छह साल बाद छपरा ज़िला स्कूल से असकरी ने मैट्रिक की परीक्षा पहली श्रेणी में उत्तीर्ण की और उन्हें वज़ीफ़ा भी मिला. इसके चार साल बाद उन्होंने मुज़फ़्फ़रपुर के ब्राह्मण भूमिहार कॉलेज (वर्तमान में लंगट सिंह कॉलेज) से स्नातक की उपाधि हासिल की और 1924 में उन्होंने पटना यूनिवर्सिटी से इतिहास में स्नातकोत्तर किया. पटना यूनिवर्सिटी से इतिहास में स्नातकोत्तर की उपाधि हासिल करने वाले पहले बैच में वे शामिल थे, जहाँ उन्हें मध्यकालीन भारत के दिग्गज इतिहासकार यदुनाथ सरकार से पढ़ने का अवसर मिला.

इसी बीच 1921 में ही उनका विवाह भी हो गया. पहली पत्नी की असमय मृत्यु के बाद 1926 में उनकी दूसरी शादी उम्मे सलमा से हुई. उसी बरस न्यू कॉलेज (बाद में पटना कॉलेज) में वे इतिहास के लेक्चरर बने और वर्ष 1950 तक बतौर लेक्चरर वे इतिहास पढ़ाते रहे. वर्ष 1950 से लेकर 1956 तक वे इतिहास के प्रोफ़ेसर रहे. वर्ष 1956 में सेवानिवृत्ति के बाद पटना यूनिवर्सिटी द्वारा उन्हें पुनर्नियुक्त किया गया और वे 1964 तक प्राध्यापक बने रहे.[1]

इतिहास सम्बन्धी शोध की दिशा में उन्हें उन्मुख करने का श्रेय असकरी पटना यूनिवर्सिटी के इतिहास विभाग के तत्कालीन विभागाध्यक्ष डॉ. सुबिमल चंद्र सरकार को देते थे. डॉ. सरकार ने ही सैयद हसन असकरी को इतिहास सम्बन्धी शोध-पत्र लिखने और भारतीय इतिहास कांग्रेस के अधिवेशन में शिरकत करने के लिए प्रोत्साहित किया. उल्लेखनीय है कि भारतीय इतिहास कांग्रेस की स्थापना वर्ष 1935 में इतिहासकार सर शफात अहमद खाँ के प्रयासों से हुई थी और इसका पहला अधिवेशन उसी साल पूना में हुआ था. भारतीय इतिहास कांग्रेस का दूसरा अधिवेशन तीन साल के अंतराल के बाद अक्टूबर 1938 में इलाहाबाद में हुआ. जिसकी अध्यक्षता प्रसिद्ध इतिहासकार डी.आर. भंडारकर ने की थी. इलाहाबाद में हुए इसी अधिवेशन में असकरी ने भारतीय इतिहास कांग्रेस में पहली बार शिरकत की और यहीं उन्होंने शेख़ अली ‘हज़ीन’ के हिंदुस्तान आगमन और उनकी यात्रा के बारे में एक शोधपत्र प्रस्तुत किया, जो इतिहास कांग्रेस की प्रोसिडिंग्स में भी छपा.[2]

असकरी का यह लेख फ़ारसी के प्रसिद्ध शाइर शेख़ मुहम्मद अली लाहिजी के बारे में था. ‘हज़ीन’, उनका तख़ल्लुस था, जो अरबी भाषा का एक शब्द है, जिसका मतलब है रंजीदा. ग़ौरतलब है कि शेख़ ‘हज़ीन’ ईरान और हिंदुस्तान की अदबी दुनिया और तारीख़ को जोड़ने वाली एक ऐसी अहम कड़ी हैं, जिनका अपना जीवन भी अठारहवीं सदी में इन दोनों मुल्कों की तारीख़ और सियासत में हो रही उथल-पुथल से वाबस्ता रहा. दिलचस्प यह भी है कि ईरान का यह शाइर हिंदुस्तान और ख़ासकर बनारस में, जहाँ उन्होंने अपने जीवन के आख़िर दिन गुज़ारे, एक सूफ़ी संत के रूप में अधिक जाना गया.

फ़ारसी के बड़े शाइर और आलिम होने के अलावा शेख़ हज़ीन एक प्रसिद्ध चिकित्सक, काव्य-सिद्धांत के मर्मज्ञ भी थे. उन्नीसवीं सदी में मिर्ज़ा ग़ालिब जैसे शाइरों ने भी शेख़ हज़ीन को फ़ारसी के महानतम विद्वानों में से एक माना था. शेख़ हज़ीन का जन्म 1692 ई. में इस्फ़हान में हुआ था. वही इस्फ़हान जो अपनी तलवारों की धार के लिए कभी दुनिया भर में मशहूर था. शेख़ हज़ीन शेख़ ज़ाहिद गिलानी के वंशज थे. उन्होंने इस्फ़हान और ईरान के मशहूर शहर शिराज़ में साहित्य, दर्शन, विज्ञान, अरबी, फ़ारसी, तर्कशास्त्र की पढ़ाई की, जोकि ईरान की सांस्कृतिक हलचलों का मरकज़ था. अकारण नहीं कि हिंदुस्तान में शर्की शासकों की राजधानी जौनपुर को एक वक़्त में ‘पूरब का शिराज़’ कहा जाता था.

सैयद हसन असकरी अपने उस लेख में बताते हैं कि अठारहवीं सदी का पूर्वार्ध हिंदुस्तान और ईरान दोनों के लिए ही मुश्किल वक़्त साबित हो रहा था. अफ़ग़ान शासकों के हमलों से ईरान और हिंदुस्तान की हुक़ूमतें और उनकी राजधानियाँ हिल उठी थीं. ईसवी सन 1722 में इस्फ़हान पर हुए अफ़ग़ान हमले में शेख़ हज़ीन के परिवार के अधिकांश लोग मारे गए थे. अगला एक दशक शेख़ हज़ीन ने ईरान में दर-ब-दर घूमते हुए बिताया. आख़िरकार 1734 में अपनी जान बचाने के लिए वे सिंध, मुल्तान और लाहौर होते हुए दिल्ली पहुँचे. मगर दिल्ली में भी तब मुग़लों की शक्ति छीज रही थी. विद्वानों, गुणीजनों और कलावंतों के दिल्ली से पलायन का दौर शुरू हो चुका था. उस दौर में उर्दू के प्रसिद्ध विद्वान सिराजुद्दीन अली खाँ ‘आरज़ू’ के साथ शेख़ हज़ीन की वैचारिक प्रतिद्वंद्विता भी रही. मगर दिल्ली शेख़ हज़ीन को रास न आई और उन्होंने दिल्ली छोड़कर 1748 में पटना (अजीमाबाद) का रुख़ किया. पटना में वे बिहार के नायब सूबादार राजा राम नारायण के सम्पर्क में आए और राम नारायण उनके शागिर्द बन गए. राजा राम नारायण से उनके पत्राचार और पटना के साहित्यिक सांस्कृतिक जीवन पर शेख़ हज़ीन के गहरे प्रभाव का विश्लेषण प्रसिद्ध इतिहासकार सैयद हसन असकरी ने अपने एक अन्य लेख में किया है. बाद में शेख़ हज़ीन पटना से बनारस आए, जहाँ वे अपनी आख़िरी साँस तक बने रहे. बनारस में ही वर्ष 1766 में शेख़ हज़ीन का निधन हुआ.

इस तरह भारतीय इतिहास कांग्रेस के इलाहाबाद अधिवेशन में प्रस्तुत किए इस शोध-पत्र से सैयद हसन असकरी की ज़िंदगी में ऐतिहासिक शोध का जो सिलसिला शुरू हुआ, वह आजीवन चलता रहा. उसी साल वे इंडियन हिस्टॉरिकल रेकर्डस कमीशन के भी सदस्य बने और आगे चलकर कमीशन की बैठकों में भी उन्होंने नियमित रूप से हिस्सा लिया और शोध-पत्र प्रस्तुत किए.

इतिहासकार की चिंताएँ : भारतीय इतिहास कांग्रेस का अध्यक्षीय भाषण

वर्ष 1947 – देश आज़ाद तो हुआ मगर विभाजन के दंश को झेलते हुए. उसी साल बम्बई में आयोजित हुए भारतीय इतिहास कांग्रेस के वार्षिक अधिवेशन में सैयद हसन असकरी मुग़लकालीन इतिहास संभाग के अध्यक्ष बने. इतिहास और उसकी प्रविधियों के बारे में, इतिहास और ख़ास तौर पर मध्यकालीन भारतीय इतिहास की पुनर्रचना में सामने वाली चुनौतियों और इतिहास के स्रोतों के बारे में असकरी के विचार जानने हों, तो यह अध्यक्षीय भाषण ज़रूर पढ़ना चाहिए. असकरी ने अपने इस भाषण में मध्यकालीन भारतीय इतिहास के बारे में और इतिहासलेखन सम्बन्धी अपने विचार उपस्थित इतिहासकारों के सामने विस्तार से रखे थे.[3]

उनका कहना था कि मध्यकाल में हिंदुस्तान में जो राजनीतिक एकता और प्रशासनिक सुदृढ़ीकरण संभव हुआ, वह हिंदुस्तानियों की असीम क्षमता, उनकी क़ुव्वत और दिमाग़ का ही नतीजा था. मध्यकाल को समझने पर ज़ोर देते हुए असकरी ने कहा कि ऐसा करते हुए न केवल हम अपने मौजूदा नज़रिए में तब्दीली ला सकते हैं, बल्कि अपने सामाजिक-आर्थिक-धार्मिक हालात में भी बदलाव कर सकते हैं. उनका कहना था कि दिल्ली सल्तनत या मुग़ल साम्राज्य के इतिहास को दिल्ली या आगरा तक ही सीमित नहीं कर लेना चाहिए, बल्कि हिंदुस्तान के सूबों के राजनीतिक इतिहास और वहाँ हो रही सामाजिक-सांस्कृतिक हलचलों पर भी इतिहासकारों को गौर करना चाहिए. उन्होंने मुग़ल सूबों के आर्थिक इतिहास, बिहार और बंगाल में अफ़ग़ान शासकों के इतिहास, मुग़ल साम्राज्य और प्रशासन में राजपूतों की भागीदारी और उनकी ऐतिहासिक भूमिका, मुग़ल काल में दक्कन के सूबों के इतिहास जैसे अहम विषयों पर तवज्जो देने के लिए कहा.

मध्यकालीन इतिहास के स्रोतों की चर्चा करते हुए उन्होंने यह भी जोड़ा कि मध्यकालीन इतिहास को दरबारी लेखकों और यूरोपीय यात्रियों के वृत्तांतों तक ही महदूद न रखा जाए, बल्कि इतिहास के विविध स्रोतों को भी विश्लेषण के दायरे में लाया जाए. ऐसे स्रोतों में उन्होंने फ़ारसी और भारतीय भाषाओं के ऐतिहासिक स्रोतों के साथ ही अंग्रेज़ी, फ़्रेंच, पुर्तगाली, स्पैनिश, डच आदि यूरोपीय भाषाओं में उपलब्ध समकालीन दस्तावेज़ों और फ़ैक्टरी रिकॉर्ड को भी शामिल किया.

मध्यकालीन इतिहास के स्रोत के रूप में उन्होंने हिंदी, उर्दू, बांग्ला आदि भारतीय भाषाओं की साहित्यिक कृतियों को इस्तेमाल करने पर भी ज़ोर दिया. मसलन, उन्होंने भूषण, दयाल दास, केशव दास, मानकवि जय, कवींद्र उदयनाथ, गंजन, सुखदेव मिश्र जैसे कवियों की रचनाओं के ऐतिहासिक महत्त्व को रेखांकित किया. अपने अध्यक्षीय भाषण में वे फुलवारीशरीफ़ के सूफ़ी संत द्वारा लिखी उर्दू मसनवी ‘गौहर जौहरी’ और अब्दुल जलील बिलग्रामी द्वारा लिखी फ़ारसी मसनवी ‘सफ़रनामा-ए-देहली’ के बारे में बताते हैं, जिसमें फ़र्रुखसियर और राजा अजीत सिंह राठौर की पुत्री के विवाह का विवरण मिलता है. बक़ौल असकरी, ये कृतियाँ हमें तत्कालीन हिंदुस्तान की राजनीतिक हलचलों, सैन्य अभियानों, सामाजिक जीवन, रीति-रिवाज, दरबारी आचरण व व्यवहार आदि से जुड़ी बहुमूल्य जानकारियाँ देती हैं.

मध्यकालीन भारतीय इतिहास को समग्रता से समझने के क्रम में वे मुद्राओं, अभिलेखों और विविध कलाओं के गहन अध्ययन पर भी ज़ोर देते हैं. उनके मुताबिक़, जहाँ एक ओर मध्यकालीन इमारतों और ऐतिहासिक स्मारकों से उपलब्ध होने वाले अभिलेख इतिहास के अनछुए पहलुओं की ओर इशारा करते हैं. वहीं ‘तारीख़-ए-तैमूरिया’ या ‘बादशाहनामा’ की सचित्र पांडुलिपियों में मिलने वाले लघु-चित्र (मिनिएचर पेंटिंग) उस समय के पहनावे, रहन-सहन, आचरण, रीति-रिवाज, दरबार की रिवायतों और शिकार आदि के बारे में हमें बहुमूल्य जानकारियाँ देते हैं. इसी क्रम में उन्होंने तज़किरा, मक्तूबात, इंशा (निजी पत्र-संग्रहों), बयाज़ (दैनंदिनी, नोटबुक) आदि के ऐतिहासिक महत्त्व को भी इंगित किया. इन लिखित स्रोतों के साथ ही उन्होंने मौखिक परम्परा और लोकगीतों के संग्रह तैयार करने और इतिहास के स्रोत में उन्हें इस्तेमाल करने भी ज़ोर दिया.

नए अध्ययनों के आलोक में पुराने पड़ चुके निष्कर्षों में फ़ेरबदल, इतिहास सम्बन्धी भ्रांतियों और रूढ़ियों को दूर करने की बात भी उन्होंने कही. इसी क्रम में उन्होंने मध्यकालीन भारत में फ़ारसी में लिखे गए ऐतिहासिक ग्रंथों के इलियट द्वारा किए गए अंग्रेज़ी तर्जुमों की ग़लतियों और जेम्स टॉड द्वारा लिखित राजस्थान के इतिहास की सीमाओं की ओर भी ध्यान खींचा. इतिहासलेखन को असकरी ने एक सामूहिक परियोजना के रूप में देखा, जो परस्पर सहयोग से ही संभव हो सकती है. इसलिए उन्होंने भारत सरकार, भारत के विश्वविद्यालयों के साथ-साथ प्रबुद्ध नागरिकों का भी आह्वान किया कि वे इतिहासलेखन की इस सामूहिक परियोजना में सक्रिय रूप से हिस्सा लें.

राजनीतिक इतिहास

बीसवीं सदी के पूर्वार्ध में इतिहासलेखन के क्षेत्र में सक्रिय होने वाले सैयद हसन असकरी के लेखन का अधिकांश हिस्सा उनके अन्य समकालीन इतिहासकारों की तरह ही राजनीतिक इतिहास से जुड़ा है. फ़ारसी के ऐतिहासिक दस्तावेज़ों के अधिकारी विद्वान असकरी ने ख़ुदा बख़्श ओरियंटल लाइब्रेरी समेत बिहार के दूसरे पुस्तकालयों से तमाम ऐसे दुर्लभ दस्तावेज़ों, पांडुलिपियों, निजी पत्र-संग्रहों को ढूँढ निकाला, जिनसे तब तक इतिहास के अध्येता प्रायः अनभिज्ञ थे.

सैयद हसन असकरी ने अपने समय के हिंदुस्तान और विदेशों की तमाम महत्त्वपूर्ण शोध पत्रिकाओं में लेख लिखे. उनके ये शोध-पत्र इंडियन हिस्टॉरिकल रेकर्ड्स कमीशन और भारतीय इतिहास कांग्रेस की प्रोसिडिंग्स में तो लगातार छपे ही. इसके अलावा उनके लेख इंडियन हिस्टॉरिकल क्वाटरली, जर्नल ऑफ़ बिहार रिसर्च सोसाइटी, पास्ट एंड प्रजेंट (कलकत्ता हिस्टॉरिकल सोसाइटी द्वारा प्रकाशित पत्रिका), जर्नल ऑफ़ हिस्टॉरिकल रिसर्च, दक्कन हिस्ट्री कांग्रेस, इंडो इरानिका, इंडिका, जर्नल ऑफ़ पाकिस्तान हिस्टॉरिकल सोसाइटी, पटना यूनिवर्सिटी जर्नल, अनाल्स ऑफ़ भंडारकर ओरियंटल रिसर्च इंस्टीट्यूट, ख़ुदा बख़्श लाइब्रेरी जर्नल, प्रज्ञा भारती और एनसायक्लोपीडिया इरानिका आदि पत्रिकाओं में भी प्रकाशित हुए.

उन्होंने मध्यकालीन और आरम्भिक आधुनिक बिहार के कुछ ऐसे राजाओं, नवाबों के बारे में लिखा, जिन्होंने बिहार ही नहीं बल्कि हिंदुस्तान की तारीख़ में भी एक अहम भूमिका निभाई थी. असकरी द्वारा लिखी गई ऐसी राजनीतिक जीवनियों में राजा राम नारायण, कल्याण सिंह आशिक़, निज़ाम अली, नादिर जंग, कुँवर सिंह आदि के नाम उल्लेखनीय हैं.

इन शख़्सियतों के निजी पत्राचारों को बतौर ऐतिहासिक स्रोत इस्तेमाल करते हुए असकरी ने उन शख़्सियतों के साथ-साथ तत्कालीन भारतीय इतिहास के तमाम अज्ञात पहलुओं को भी उद्घाटित किया. निजी पत्र-संग्रहों पर आधारित उनके ऐसे लेखों में राजा रामनारायण, राजा राम दास कछवाहा, शाह आलम, सैयद अहमद बरेलवी आदि पर लिखे लेख उल्लेखनीय हैं.

इन राजनीतिक जीवनियों के साथ-साथ उन्होंने सल्तनत काल से लेकर मुग़ल काल के आख़िरी बरसों तक बिहार सूबे के इतिहास में आने वाले उतार-चढ़ावों को भी बख़ूबी दर्ज़ किया. मुग़लकालीन भारत के राज्य-तंत्र, प्रशासनिक व्यवस्था को समझने के क्रम में उन्होंने राज्यों के बीच सम्बन्धों को भी विश्लेषित किया. मसलन, अपने कुछ महत्त्वपूर्ण लेखों में असकरी ने मुग़ल-राजपूत, मुग़ल-मराठा, मुग़ल-अराकान, मुग़ल-अफ़ग़ान, मुग़ल-ईरान सम्बन्धों के बारे में भी विस्तारपूर्वक लिखा. आधुनिक काल की ओर रुख़ करें तो असकरी ने ऐतिहासिक दस्तावेज़ों के आधार पर हैदराबाद के निज़ाम और लॉर्ड कार्नवालिस के सम्बन्धों तथा वारेन हेस्टिंग्ज़ और चेत सिंह के सम्बन्धों पर भी लेख लिखे.

वर्ष 1739 में नादिरशाह का आक्रमण हो या 1857 का विद्रोह – ऐसी किसी महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक घटना को समकालीनों ने कैसे देखा और कैसे अपने अनुभवों को दर्ज़ किया, इसे समझने में भी असकरी की खास दिलचस्पी रही. समकालीन विवरणों पर आधारित असकरी के ये लेख इतिहास के किसी ख़ास लम्हे की आँखों-देखी तस्वीर तो हमारे सामने पेश करते ही हैं, ये उन ऐतिहासिक घटनाओं को समग्रता में समझने में हमारी मदद करते हैं. इसके साथ ही उन्होंने सैन्य इतिहास को भी तवज्जो दी और मुग़लकाल में नौसेना की कमजोर स्थिति और मुग़ल बादशाहों द्वारा नौसेना पर पर्याप्त ध्यान न देने जैसे ऐतिहासिक रूप से अहम मुद्दे पर भी एक विचारोत्तेजक लेख लिखा.[4]

सामाजिक-सांस्कृतिक इतिहास

राजनीतिक इतिहास के साथ-साथ सामाजिक-सांस्कृतिक इतिहास पर भी जिस गहराई से असकरी ने लिखा, वह उन्हें उनके समकालीनों से अलग करता है. एक ऐसे दौर में जब राजनीतिक इतिहास का बोलबाला था, असकरी ने राजनीतिक इतिहास के साथ-साथ सामाजिक-सांस्कृतिक इतिहास को भी बराबर तवज्जो दी. बिहार की ही बात करें तो सूबे के राजनीतिक इतिहास के साथ ही उसके सामाजिक-सांस्कृतिक अतीत की बहुरंगी छवियों को भी असकरी ने अपने लेखों में दर्ज़ किया.

संगीत, चिकित्सा, खान-पान, शिकार का इतिहास हो या फिर अंधविश्वास या मान्यताओं का इतिहास – ये कुछ ऐसे विषय हैं, जिन पर बीसवीं सदी के आख़िर में इतिहासकारों का ध्यान प्रमुखता से गया. धीरे-धीरे इन विषयों पर लिखा जाने लगा और आज तो ख़ूब लिखा जा रहा है. अचरज की बात है कि असकरी ने बीसवीं सदी के पाँचवें-छठे दशक में ही इन तमाम विषयों पर लेख लिखे और इस तरह मध्यकालीन भारत के सामाजिक इतिहास में दिलचस्पी रखने वाले अध्येताओं के लिए वे एक पथ-प्रदर्शक की भूमिका भी बख़ूबी निभाते रहे.

सिख एनसायक्लोपीडिया के लिए लिखते हुए उन्होंने सिख इतिहास पर रोशनी डालने वाले फ़ारसी के ऐतिहासिक ग्रंथों के बारे में लेख लिखे. यही नहीं उन्होंने सिख धर्म के संस्थापक गुरु नानक और सिखों के दसवें और अंतिम गुरु गोविंद सिंह पर भी लेख लिखे.[5]

साहित्येतिहास

सैयद हसन असकरी द्वारा किया गया विपुल इतिहासलेखन अंग्रेज़ी और उर्दू दोनों भाषाओं में उपलब्ध है. उन्होंने मासिर, उर्दू अदब क्वाटरली, नदीम, सनम, सागर जैसे उर्दू रिसालों में भी इतिहास सम्बन्धी लेख लिखे. असकरी ने साहित्य को इतिहास के स्रोत के रूप में इस्तेमाल करने की प्रविधि तो विकसित की ही, उन्होंने साहित्य को बतौर इतिहास देखने का साहस भी दिखलाया. ‘एजाज़-ए-खुसरवी’ सरीखी अमीर खुसरो की कृतियों को आधार बनाकर उन्होंने जो लेख लिखे, उसमें साहित्य को इतिहास के स्रोत के रूप में बरतने की उनकी सलाहियत साफ़ दिखाई पड़ती है. अमीर खुसरो पर लिखे अपने लेखों में उन्होंने ‘तूती-ए-हिन्द’ कहे जाने वाले खुसरो की शख़्सियत के तमाम पहलुओं को उभारा. जिसमें अमीर खुसरो को बतौर इतिहासकार, संगीतज्ञ के रूप में देखना प्रमुखता से शामिल है.

सूफ़ी संतों के मलफूज़ात पर लिखते हुए असकरी ने इन ग्रंथों को सामाजिक-राजनीतिक इतिहास के रूप में देखा. शत्तारी, क़ादिरी, चिश्ती, फ़िरदौसी आदि सिलसिलों से ताल्लुक़ रखने वाले बिहार के तमाम सूफ़ी संतों के मलफूज़ात को आधार बनाकर उन्होंने मध्यकालीन बिहार के इतिहास के तमाम अज्ञात पक्ष उद्घाटित किए. इसी क्रम में उन्होंने सूफ़ी दरगाहों से ज्ञात-अज्ञात लेखकों द्वारा लिखी गई पुस्तकों की दुर्लभ पांडुलिपियाँ खोज निकालीं. इसमें कुछ ऐसी भी पुस्तकों की पांडुलिपियाँ थीं, जो अपनी पूर्णता और पांडुलिपि की पठनीयता के कारण ऐतिहासिक रूप से विशिष्ट हो गईं.

मसलन, मनेरशरीफ़ की दरगाह से मलिक मुहम्मद जायसी कृत पद्मावत और अखरावट की पांडुलिपियाँ खोज निकालने का श्रेय असकरी को जाता है. पद्मावत और अखरावट की पांडुलिपियाँ अन्य जगहों पर भी मिली थीं, मगर मनेरशरीफ़ की प्रति अपनी पूर्णता और पठनीयता के चलते पाठ-निर्धारण से जुड़े विवादों को सुलझाने में बड़ी मददगार साबित हुई.[6]

अनुवाद व सम्पादन

इतिहासलेखन के साथ-साथ ऐतिहासिक दस्तावेज़ों का सम्पादन, प्रकाशन और उनका अनुवाद भी इतिहासकार के प्रमुख दायित्वों में से एक है ताकि वे ऐतिहासिक दस्तावेज इतिहास के अध्येताओं के साथ-साथ इतिहास में दिलचस्पी रखने वाले आम पाठकों तक भी पहुँच सके. अकारण नहीं कि सैयद हसन असकरी की पीढ़ी के इतिहासकारों ने इस काम को बहुत अहमियत दी थी. ख़ुद असकरी ने फ़ारसी के कुछ महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक दस्तावेज़ों के सम्पादन और अंग्रेज़ी में अनुवाद का सराहनीय काम किया. उनके द्वारा अंग्रेज़ी में अनूदित पुस्तकों में शाहनामा मुनव्वर कलाम, तबक़ात-ए-बाबरी, इक़बालनामा, सीरत-ए-फ़ीरोज़शाही आदि शामिल हैं. इनमें जहाँ शिवदास लखनवी द्वारा लिखा गया ‘शाहनामा मुनव्वर कलाम’ फ़र्रुखसियर के शासनकाल के बारे में बताता है. वहीं इक़बालनामा, जिसका लेखक अज्ञात है, मुहम्मद शाह के शासनकाल का इतिहास बताता है. जबकि शेख़ जैनुद्दीन द्वारा फ़ारसी में लिखी गई ‘तबक़ात-ए-बाबरी’ बाबर के जीवनकाल और उसके सैन्य अभियानों के बारे में बताती है. साथ ही, उन्होंने ‘मकतूबात-ए-सदी’ के पॉल जैक्सन द्वारा किए गए अंग्रेज़ी अनुवाद की भूमिका भी लिखी.[7]

असकरी काशी प्रसाद जायसवाल रिसर्च इंस्टीट्यूट के संयुक्त निदेशक भी रहे. इंस्टीट्यूट द्वारा प्रकाशित की जाने वाली ग्रंथमाला का प्रधान सम्पादक रहते हुए उन्होंने पुरातत्व, बौद्ध धर्म व दर्शन व बिहार के इतिहास से जुड़े कुछ अत्यंत महत्त्वपूर्ण ग्रंथ प्रकाशित किए. असकरी ने बिहार के इतिहास पर जायसवाल इंस्टीट्यूट से छपी किताब ‘कांप्रीहेंसिव हिस्ट्री ऑफ़ बिहार’ की दो जिल्दों का भी सम्पादन किया. इसके अलावा उन्होंने ‘फ़ोर्ट विलियम हाउस कॉरेस्पांडेंस’ की एक जिल्द का भी सम्पादन किया, जिसमें अंग्रेज़ी ईस्ट इंडिया कम्पनी, कोर्ट ऑफ़ डायरेक्टर्स और गवर्नर-जनरल की परिषद के बीच 1787 से लेकर 1791 तक हुए पत्राचार का संकलन शामिल है.

पटना का इतिहास और इतिहासकार सैयद हसन असकरी

पटना शहर और मध्यकालीन बिहार के इतिहास के बारे में जितनी गहराई से और जिस परिमाण में सैयद हसन असकरी ने लिखा है, वह बेमिसाल है. नवम्बर 1983 में बयासी साल की उम्र में सैयद हसन असकरी ने दूसरे काशी प्रसाद जायसवाल स्मारक व्याख्यानमाला के अंतर्गत तीन विचारोत्तेजक व्याख्यान दिए थे. उल्लेखनीय है कि काशी प्रसाद जायसवाल शोध संस्थान द्वारा 1982 में शुरू की गई इस महत्त्वपूर्ण व्याख्यानमाला के पहले वक्ता इतिहासकार दिनेश चंद्र सरकार रहे थे, जिन्होंने भारतीय पुरालेखों पर ‘इंडियन एपीग्राफ़ी’ जैसी चर्चित किताब लिखी थी.[8]

सैयद हसन असकरी ने 1983 में दिए अपने उन व्याख्यानों में पटना शहर और उसके विभिन्न इलाक़ों के इतिहास, शहर की चुनिंदा जगहों के नामों की व्युत्पत्ति के दिलचस्प इतिहास पर रोशनी डाली थी. पटना की यह कहानी वे महाजनपद काल में अजातशत्रु द्वारा बसाए गए पाटलि ग्राम से शुरू करते हैं. इसी क्रम में वे उन्नीसवीं सदी के आख़िरी दशक में डॉ. स्पूनर और पी.सी. मुखर्जी और आगे चलकर मैकक्रिंडल, कर्नल वाडेल और एम.आर. घोष जैसे पुराविदों द्वारा पटना के आसपास के इलाक़ों जैसे कुम्हरार, लोहानीपुर, कंकड़बाग, पाँच पहाड़ी, बुलंदी बाग में किए गए पुरातात्विक उत्खननों की भी चर्चा करते हैं. वे मौर्य और गुप्त काल में पाटलिपुत्र (कुसुमपुर, पुष्पपुर) के भाग्य के अपने उत्कर्ष पर पहुँचने और फिर धीरे-धीरे उसके पतन की कहानी भी बताते हैं. वे पाठकों को मेगास्थनीज द्वारा वर्णित ‘पालिबोथरा’ (पाटलिपुत्र) से लेकर चीनी यात्रियों फाहियान, ह्वेन सांग द्वारा वर्णित पाटलिपुत्र (पा-लिएन-फू) की स्थिति से भी अवगत कराते हैं.

अपने इसी व्याख्यान में असकरी जहाँ एक ओर सोलहवीं सदी में शेरशाह सूरी के शासनकाल में पटना के भाग्योदय की विस्तार से चर्चा करते हैं. वहीं वे शेरशाह (तब फ़रीद खाँ) को अपने दरबार में नौकरी देने वाले दरिया खाँ नूहानी के दो अभिलेखों का भी ज़िक्र करते हैं. इसी क्रम में सत्रहवीं सदी में अब्दुल्ला फ़ीरोज़ जंग की सूबेदारी के समय पटना के क़िलेबंद शहर में तब्दील होने और उसकी चारों दिशाओं में हैबत जंग द्वारा विशाल दरवाज़ों और पुलों के निर्माण तथा खाइयाँ खुदवाने की प्रक्रिया को भी वे रेखांकित करते चलते हैं. आगे चलकर औरंगज़ेब के पौत्र और शाह आलम प्रथम के बेटे मोहम्मद अज़ीम (अज़ीम-उस-शान) ने न केवल पटना का नाम ‘अज़ीमाबाद’ रखा, बल्कि शहर को उसने चार हिस्सों में बाँटा – दीवान मुहल्ला, मुग़लपुरा, लोदीकटरा और धवलपुरा.

असकरी अपने इस व्याख्यान में पीटर मंडी, जॉन मार्शल, बुकानन, बिशप हेबर, राल्फ फ़िच और सर्वे व नक़्शानवीसी का काम करने वाले मेजर रेनेल द्वारा वर्णित पटना की भी चर्चा करते हैं. वे पटना के महत्त्वपूर्ण मंदिरों और गुरुद्वारे (बड़ी एवं छोटी पटन देवी, शीतला देवी, हरमंदिर साहिब), मस्जिदों (कनाती मस्जिद, मुल्ला शादमान मस्जिद, पत्थर की मस्जिद, शाही ईदगाह, मिर्ज़ा मासूम मस्जिद, कटरा मस्जिद आदि), दरगाहों (मुस्तफ़ा खाँ रोहिल्ला की दरगाह), मक़बरों (शहीद का मक़बरा, उर्दू शाइर अशरफ़ अली फुग़ाँ का मक़बरा, दाता खड़क शाह का मक़बरा), मदरसों के साथ ही पटना के तमाम इलाक़ों जैसे महेंद्रू, आलमगंज, दीदारगंज, गुलज़ारबाग़ के इतिहास से भी हमें रूबरू कराते हैं.

इतिहासकार की स्मृतियाँ : सैयद हसन असकरी हिस्टोरियोग्राफ़ी ऑनलाइन

इसमें संदेह नहीं कि इतिहासकार समाज की स्मृतियाँ संजोता है, उन्हें आने वाली पीढ़ियों के लिए सहेजता है. मगर यह इतिहास की त्रासदी ही है कि कई मर्तबा ख़ुद वह इतिहासकार ही अपने समाज द्वारा विस्मृत कर दिया जाता है. कुछ भाग्यशाली इतिहासकार ही होते हैं, जिनके जाने के बाद भी उनकी स्मृतियाँ, विचार और उनका लेखन जीवंत बना रहता है. कुछ चुनिंदा इतिहासकारों को उनका समाज याद रखता है. तो कुछ की स्मृतियों और विचारों को ज़िंदा रखने में उसके समकालीन और भावी इतिहासकारों की भूमिका होती है. वहीं इतिहासकार की यादों को ज़िंदा रखने में ख़ुद उसके परिवार की भूमिका को भी कम करके नहीं आंका जा सकता.

यह बात इतिहासकार सैयद हसन असकरी पर भी लागू होती है. उनके परिवार के लोगों ने उनकी स्मृतियों को सँजोने का ऐसा ही दिलचस्प और अनुकरणीय उदाहरण पेश किया है. सैयद हसन असकरी के जीवन और समग्र कृतित्व पर केंद्रित एक वेबसाइट के निर्माण के ज़रिए. इस कमाल की वेबसाइट पर असकरी साहब की सारी पुस्तकों के साथ ही अंग्रेज़ी और उर्दू में उनके लिखे लेखों और उनके सारांश को पढ़ा जा सकता है.

असकरी की कृतियों को ऑनलाइन उपलब्ध कराने और उनके लिखे लेखों की विस्तृत सूची तैयार करने का श्रेय उनके नाती सैयद अहमर रज़ा को जाता है. वे अपने नाना की तमाम उपलब्धियों के बारे में परिवार के बड़े-बुजुर्गों से सुनते थे, उनसे जुड़े क़िस्से सुनकर गर्व महसूस करते थे. मगर तब उन्हें मायूसी होती, जब कोई ठीक-ठीक उन्हें असकरी साहब के योगदान और उनकी ऐतिहासिक कृतियों की महत्ता के बारे में न बता पाता. इसलिए उन्होंने अपने नाना यानी असकरी साहब के समग्र लेखन को जमा करने का बीड़ा उठाया. असकरी साहब की कुछ किताबें तो पटना स्थित ख़ुदा बख़्श ओरिएंटल लाइब्रेरी से छपीं थीं, मगर वे भी लम्बे समय से अनुपलब्ध थीं. यही नहीं उनकी तमाम किताबें और लेख भी अप्राप्य हो चले थे. चालीस के दशक से लेकर विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में छपे उनके लेखों को जमा करना भी एक बड़ी चुनौती थी. संसाधनों की कमी भी थी. यह भी ध्यान रखें कि सैयद अहमर रज़ा पेशेवर इतिहासकार भी नहीं हैं. और मध्यकालीन इतिहास से तो उनका दूर-दूर तक कोई लेना-देना नहीं था.

कैलिफ़ोर्निया (अमेरिका) में रहने वाले सैयद अहमर रज़ा ने दुनिया भर में फैले स्कॉलरों और असकरी साहब के मुरीदों की मदद से हिंदुस्तान, अमेरिका और यूरोप की तमाम लाइब्रेरियों से अंग्रेज़ी-उर्दू की दुर्लभ पत्र-पत्रिकाओं से सैयद हसन असकरी के लेखों को जिस अथक मेहनत से संकलित किया, वह इतिहासकारों को भी मात देने वाला है. समय मिले तो सैयद हसन असकरी साहब पर केंद्रित वेबसाइट देखिए, यह उस महान इतिहासकार के लेखन से वाबस्ता होने के साथ ही सैयद अहमर रज़ा की मेहनत और लगन को सराहने का काम होगा.

सन्दर्भ

[1] सैयद हसन असकरी के जीवन-परिचय के लिए देखें, क़यामुद्दीन अहमद, “सैयद हसन असकरी : ए ब्रीफ़ बायोग्राफ़िकल स्केच”, द जर्नल ऑफ़ द बिहार रिसर्च सोसाइटी, विशेषांक 1968, पृ. i -iv.
[2] सैयद हसन असकरी, “फ़्रेश लाइट ऑन शेख़ अली हज़ीन एंड हिज़ टुअर्स इन ईस्टर्न हिंदुस्तान”, प्रोसिडिंग्स ऑफ़ द इंडियन हिस्ट्री कांग्रेस, खंड 2 (1938), पृ. 382-388.
[3] सैयद हसन असकरी, “अध्यक्षीय भाषण”, प्रोसिडिंग्स ऑफ़ इंडियन हिस्ट्री कांग्रेस, खंड 10 (1947), पृ. 330-340.
[4] सैयद हसन असकरी, “मुग़ल नैवल वीकनेस एंड औरंगज़ेब्स एटीट्यूड टुवर्ड्स द ट्रेडर्स एंड पायरेट्स इन द वेस्टर्न कोस्ट”, प्रोसिडिंग्स ऑफ़ द इंडियन हिस्ट्री कांग्रेस, खंड 24 (1961), पृ. 162-170.
[5] सैयद हसन असकरी, “बाबा नानक इन हिस्ट्री”, प्रज्ञा भारती, खंड 1, भाग 1-3 (1981), पृ. 10-24.
[6] सैयद हसन असकरी, “ए न्यूली डिस्कवर्ड वॉल्यूम ऑफ़ अवधी वर्क्स इनक्लुडिंग पद्मावत एंड अखरावट ऑफ़ मलिक मुहम्मद जायसी”, जर्नल ऑफ़ बिहार रिसर्च सोसाइटी, खंड 39 (1953), पृ. 10-40.
[7] देखें, शरफुद्दीन मनेरी, द हंड्रेड लेटर्स, पॉल जैक्सन (अनु.), (न्यूयॉर्क : पॉलिस्ट प्रेस, 1979), प्राक्कथन.
[8] सैयद हसन असकरी, आसपेक्ट्स ऑफ़ द कल्चरल हिस्ट्री ऑफ़ मिडाइवल बिहार (पटना : काशी प्रसाद जायसवाल रिसर्च इंस्टीट्यूट, 1984).

शुभनीत कौशिक बलिया के सतीश चंद्र कॉलेज में इतिहास के शिक्षक हैं. हाल ही में जवाहरलाल नेहरू और उनके अवदान पर केंद्रित पुस्तक ‘नेहरू का भारत : राज्य, संस्कृति और राष्ट्र-निर्माण’ (संवाद प्रकाशन, 2024) का सह-सम्पादन.
ईमेल : kaushikshubhneet@gmail.com

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Comments 5

  1. पीयूष कुमार says:
    8 months ago

    महत्वपूर्ण लेख है। साहित्य की मुख्य धारा से इतर इसी तरह के विषयों पर भी बात होनी चाहिए।

    Reply
  2. सुजीत कुमार सिंह says:
    8 months ago

    असकरी साहब की यह बात महत्वपूर्ण लगी कि इतिहास के स्रोत के रूप में भारतीय भाषाओं की साहित्यिक कृतियों का भी इस्तेमाल होना चाहिए और लोकगीतों के संग्रह भी तैयार होने चाहिए। अनोखा लेख। शुभनीत जी बधाई के पात्र हैं।

    Reply
  3. premkumar mani says:
    8 months ago

    असकरी साहब पर शोधपरक आलेख. पाटलिपुत्र भारतीय इतिहास का कभी केंद्र रहा था. आधुनिक काल में पटना इतिहास अध्ययन का भी केंद्र रहा. लेखक ने इस ओर ध्यान दिलाया है. विशद और विशिष्ट आलेख केलिए लेखक को बधाई.

    Reply
  4. naveen kumar says:
    8 months ago

    महत्वपूर्ण आलेख। इतिहास के इस नाजुक और धुंधलके मौके पर पुरखे इतिहासकारों के काम को याद करना एक हस्तक्षेप की तरह है। शुभनीत जी को बधाई!
    अस्करी साहेब का नाम पटना के बौद्धिक जगत के हवाओं में फैला है। पटना विश्वविद्यालय विभागाध्यक्षों भारती एस कुमार, इम्तियाज अहमद साहेब जो खुदा बख्श लाइब्रेरी के निदेशक भी रहे और उर्दू साहित्य में काम करने वालों की जबान से कई बार सुना है।

    Reply
  5. कर्मेंदु शिशिर says:
    8 months ago

    अरे,सर को मैंने एक से अधिक बार देखा है।ऐसा संत और सरल व्यक्तित्व कि क्या कहा जाय!साधारण कुर्ता-पैजामा और अपनी बकरी के लिए कुछ कोमल पत्तियों वाली टहनियाँ।उनको याद करते हुए श्रद्धा से मन भर जाता है।अद्भुत विद्वान् थे।आपने बहुत बड़ा काम किया।आपका आभार!

    Reply

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