ऑल वी इमैजिन एज़ लाइट
नील-अंधेरे आसमान में हौसले का टिमक आना
सुदीप सोहनी
दुनिया भर में इन दिनों भारतीय सिनेमा की धूम है. अरसे तक विश्व सिनेमा ने कलात्मक सिनेमा की श्रेणी में भारतीय सिनेमा को अकेले सत्यजित राय के हवाले से दर्ज किया है. कभी-कभार गीत-संगीत और कहानियों में भारतीय दर्शन की सीख देते हिन्दी सहित अन्य भारतीय फ़िल्मकार (और उनकी फ़िल्में) भी इस श्रेणी में आते रहे. लेकिन पश्चिमी कला समीक्षकों ने तत्त्व से अधिक शिल्प पर ज़ोर दिया और भारतीय प्रयासों को कमतर ही आँका. कला के वैश्विक मानक प्रयोग आधारित, तकनीकी रूप से सुदृढ़ और गैर-पारंपरिक सिनेमा को ही तवज्जो देते रहे हैं. लेकिन पिछले कुछ बरसों में अचानक से परिदृश्य बदला है. भारतीय सिनेमा को दुनिया भर में स्वीकार्यता मिल रही है. ऑस्कर सहित बर्लिन, वेनिस, कान सहित कई बड़े फ़िल्म समारोहों में भारतीय सिनेमा ने अपनी मजबूत उपस्थिति दर्ज की है और दुनिया की दिलचस्पी भारतीय सिनेमा में बढ़ी है.
इस साल कान फ़िल्म समारोह में पायल कपाड़िया की फ़िल्म ‘ऑल वी इमैजिन एज़ लाइट’ ने न केवल प्रतियोगिता खंड में अपनी जगह बनाई बल्कि दूसरा सबसे बड़ा पुरस्कार ‘ग्रां प्री’ भी जीता. ऐसा भी नहीं कि वैश्विक सिनेमा में भारतीयता का परचम पहली बार लहरा रहा है. 1946 में हुए पहले कान फ़िल्म समारोह में चेतन आनंद निर्देशित ‘नीचा नगर’ दस अन्य फ़िल्मों के साथ इस समारोह का सबसे बड़ा पुरस्कार पाम द’ओर जीतने वाली पहली भारतीय फ़िल्म थी. बाद में इसी समारोह के अलग-अलग प्रतियोगिता खंडों में बिमल रॉय की ‘दो बीघा ज़मीन’, राज कपूर निर्मित ‘बूट पॉलिश’, सत्यजित राय की ‘पाथेर पांचाली’, मृणाल सेन की ‘खारिज’, मीरा नायर की ‘सलाम बॉम्बे’ सहित अन्य और फ़िल्मों ने भारतीय सिनेमा का प्रतिनिधित्व किया. समय-समय पर दुनिया भर के अन्य फिल्म समारोहों में भी भारतीय प्रतिनिधित्व होता रहा है. मगर वह नाकाफ़ी ही रहा. इसका एक बड़ा कारण जो मुझे समझ आता है वह यह है कि पिछले लगभग पचास बरसों से दुनिया भर में बंबई की हिन्दी फिल्म इंडस्ट्री का सिनेमा ही भारतीय सिनेमा की तरह प्रचारित होता रहा है. आमिर ख़ान निर्मित और आशुतोष गोवारीकर निर्देशित ‘लगान’ ने एक रास्ता नए फ़िल्मकारों को दिखाया. और नई सदी में छोटे समूहों का बड़ा प्रयास स्वतंत्र या इंडीपेंडेंट सिनेमा बनाने वाले फ़िल्मकारों के रूप में अपनी ताक़त के साथ सामने आया. पायल इसी इंडिपेंडेंट सिनेमा का प्रतिनिधि चेहरा बनकर उभरी हैं. इसका एक पक्ष यह भी दिख रहा कि भारत में भी हिन्दी फ़िल्म इंडस्ट्री का रुतबा कम हुआ है और आम दर्शक भी ओटीटी सहित अन्य माध्यमों पर क्षेत्रीय सहित नए फ़िल्मकारों का सिनेमा देख रहे. भारत के लगभग हर शहर में सिनेमा बनाने वाले सैकड़ों फ़िल्मकार उम्मीद की एक नई रोशनी में आने वाले कल के सपने देख रहे. यक़ीनन अपने नाम की तरह पायल कपाड़िया की फिल्म भरोसे की उजली इबारत ही लिख रही.
एक स्वतंत्र सिनेमा निर्माण बतौर शुरू हुई यह फ़िल्म बड़े मंचों पर सराहे जाने के बाद भारत सहित दुनिया भर के सिनेमाघरों में रीलीज़ हुई है. और इसीलिए यह भारतीय सिनेमा इतिहास की एक विशिष्ट घटना है.
पायल कपाड़िया की यह फ़िल्म बहुत सारे स्तरों पर एक साथ चलती है. ‘डॉक्यू-फ़ीचर जॉनर’ पायल का पसंदीदा है. उनकी पिछली फ़िल्म ‘ए नाइट ऑफ नोइंग नथिंग’ भी पत्रों पर लिखे अहसास और जीवन में चल रही कठिनाइयों के दो सिरों के बीच आवा-जाहीकरती है. साथ ही पायल के प्रिय फ़िल्मकारों सत्यजित राय, एग्नेस वार्दा, क्लेरे डेनिस की छाप भी इस पर दिखाई देती है. शहरों की थीम पर कोरिया, जापान, फ्रांस, इटली, जर्मनी, अमेरिका, ईरान आदि के फ़िल्मकारों की एक लंबी फेहरिस्त है. विश्व सिनेमा में एग्नेस वार्दा, फ़्रांस्वां त्रूफ़ो और ज्यां लुक गोदार की पेरिस आधारित फ़िल्में, सत्यजित राय और ऋत्विक घटक की कलकत्ता त्रयी, अब्बास कियारोस्तामी की कोकर त्रयी सहित कई फ़िल्में हैं जो धरोहर के रूप में सिने इतिहास का हिस्सा हैं. पायल की फ़िल्म में अपने इन ‘मास्टर्स’ के प्रति सम्मान और प्रेरणा दिखाई पड़ती है. दर्शक बतौर देखने पर लगता है कि यह एकांत का हासिल है. यह एक बार देख लेने वाली आसान फ़िल्म नहीं है. इसकी कहानी महीन परतों में बुनी हुई है, जो हर गुज़रते दृश्य के साथ खुलती है और असर करती है. इस मामले मे यह फ़िल्म एक उपन्यास की तरह है जो धीमी आँच पर पकती है. कैमरा कई जगह ‘फोकस-आउट ऑफ फ़ोकस’ के बीच घटनाओं को दर्ज करते चलता है. भीड़ भरे बाज़ार, रेलवे स्टेशन और कई अन्य जगहों पर फ़िल्माए गए ‘हैंडहेल्ड’ दृश्य, जो तात्कालिक ज़रूरत को पूरा करते हैं, वह इसलिए अच्छे लगते हैं कि ‘मॉर्डन सिनेमा’ को यही तात्कालिकता परिभाषित करती है.
इस फ़िल्म का कथानक ‘नॉन-लीनियर’ है. एक साथ तीन स्तरों पर कहानी चलती है. लेकिन ध्यान से देखने पर शहर मुंबई भी एक किरदार है, जिसकी अपनी भौतिक उपस्थिति है. मुंबई को सितारों का शहर कहते हैं. लेकिन हर तारा सप्तर्षि या ध्रुव तारा नहीं होता. एक बड़े, उजले, नीले आसमान में कई तारे टिमकते हैं. यह कहानी भी उन्हीं अनाम तारों सरीखे किरदारों की है. मुंबई की पृष्ठभूमि में चलने वाली घटनाएँ भीड़ भरे बाज़ार, ट्रेन, शामें, काम की तलाश में आए और यहाँ बस गए बाहरी लोग, भाषा, और एक के बाद बेतहाशा बनती जा रही इमारतें, पूंजीवाद का प्रभाव आदि कथानक में गूँथा हुआ है. महानगर की चकाचौंध में भागती हुई ज़िंदगी के कुछ ठहरे हुए किरदार अपने हिस्से आए हुए जीवन का हिसाब लगा रहे. इस जगमगाहट के बीच इन चरित्रों के भीतर एक तरह की उदासीनता है. वही आधा छुपा और आधा उजला नीला रंग फ़िल्म की आधी यात्रा में दिपदिपा रहा. मुंबई की घनी आबादी के तीन स्त्री चरित्र जैसे दुनिया भर की स्त्रियों का सच ले कर चल रहे. तीनों स्त्रियाँ हर तरह से साहसी हैं. सकारात्मक हैं. आशावादी है. वे संयम से भी भरी हैं. चुहल भी करती हैं. टूटती भी हैं. निराश भी होती हैं. ख़ुश होना भी जानती हैं. अपनी सीमाएं भी जानती हैं. बिखरना, समेटना और सब कुछ के बाद सिरजना भी जानती हैं. ये सारे अहसास फ़िल्म के कथानक में आते हैं और परदे पर भी थोड़े रहस्य, कुछ जादू, बहुत सारे यथार्थ के बीच आवा-जाही करते हैं.
मुंबई की तेज़ रफ़्तार भरी, भागती दुनिया में कैसे लोग आते गए और इस शहर की भीड़ का हिस्सा बन गए – कहानी यहाँ से शुरू होती है. हम धीरे-धीरे इस शहर में एक अस्पताल में काम कर रही तीन महिला चरित्रों के भीतरी-बाहरी संसार के बीच आवा-जाहीकरते हैं. कहानी का फैलाव बस इतना ही है. लेकिन फ़िल्म माध्यम में जिसे ‘एक्सप्लोर’ करना कहते हैं – उसकी शुरुआत होती है और कैमरा एक पथ-प्रदर्शक की तरह हमें उनके संसार में ले जाता है. हम एक अस्पताल में दो नर्सों प्रभा(कनी कुसृति) और अनु (दिव्या प्रभा) के साथ कैंटीन में काम करने वाली पार्वती (छाया कदम) से मिलते हैं. तीनों चरित्रों के साथ उनकी अपनी एक कहानी चल रही है. और यही कहानियाँ एक-दूसरे के साथ मिलते हुए अपने अंजाम तक पहुँचती है. प्रभा का पति बहुत साल पहले जर्मनी जा चुका है. वह उसके वापस आने की उम्मीद में हर दिन गुज़ार रही है. इस दु:ख ने उसे सहनशील तो बनाया है, ज़िंदगी के प्रति उदासीन भी बना दिया है. उसे कोई अनुभव नहीं रुचता. हालाँकि अपने कर्तव्य का पालन वह डट कर करती है. वहीं प्रभा के उलट, अनु एक मस्तमौला लड़की है जो प्रभा की ‘जूनियर’ है. उसके जीवन में प्रेम का अंकुरण बस हुआ ही है और देह का आकर्षण उसे इस संसार में खींच रहा है. प्रभा और अनु दोनों ही ‘मलयाली’ हैं और इस तरह से इस शहर में ‘माइग्रेंट’. अनु का एक मुस्लिम प्रेमी है शियाज़ (हृदु हारून) और दोनों ही चोरी-छिपे मिलते हैं. प्रभा और अनु साथ काम करने के अलावा एक साथ रहती भी हैं और यहीं से दोनों का जीवन हमारे सामने खुलता है. पार्वती दूर रत्नागिरी से आई है और ‘मराठी’ होते हुए भी इस शहर में ख़ुद को बाहरी महसूस करती है. पार्वती जिस चाल में रहती है वहाँ एक बिल्डर गगनचुंबी इमारत बनाना चाहता है और जिसके लिए वह तरह-तरह के हथकंडे अपना रहा है. बीस साल इस शहर में रहने के बाद भी पार्वती के पास इस जगह पर रहने का कोई प्रमाण या दस्तावेज़ नहीं है.
यह तो हुआ वह ‘बैकग्राउंड’ जो धीरे-धीरे हमारे सामने खुलता है. लेकिन यहीं इन तीनों का ही जीवन एक-दूसरे से टकराता है. प्रभा के घर पर एक दिन तोहफ़े में ‘मेड इन जर्मनी’ का ‘प्रेशर कुकर’ आता है. अनु खुश होती है लेकिन उसकी अनुपस्थिति में प्रभा उस ‘प्रेशर कुकर’ का जिस तरह आलिंगन करती है वह बतौर दर्शक आपको प्रभा की उदासी के साथ जोड़ देता है. साथ काम कर रहा डॉक्टर प्रभा को अपनी संगिनी बनने के लिए निवेदन करता है. उसके भीतर का इंतज़ार और बीती ज़िंदगी उसे रोक रही है. प्रभा अपने मन की बात साझा नहीं कर पा रही. भीड़ भरे शहर में जहाँ पल-पल सब तेज़ी से बदल रहा, रेलें यहाँ से वहाँ गुज़र रही, एक स्टेशन से दूसरे को जोड़ रही – प्रभा के मन के तार किसी से जुड़ नहीं पा रहे. एक ऐसा शहर जहाँ सबको कहीं पहुँचने की जल्दी पड़ी है, प्रभा ठहरी हुई है. दूसरी ओर अनु, यह उसकी ज़िंदगी के जैसे सबसे खुशनुमा पल हैं. वह आज और अभी में ही जी रही. जिसके लिए वह कुछ भी करने को तैयार है. मेट्रो की भीड़ में एक-दूजे से सटे हुए अनु और शियाज़ शारीरिक तड़प और दूरी को जज़्ब कर रहे- यह दृश्य भी एक युवा होते समय में भावनाओं के आलोड़न और कुछ भी कर गुजरने की हद को दर्शाता है. ऐसे में शियाज़ एक दिन उसे मैसेज करता है कि उसके घर पर कोई नहीं है. लेकिन वह बुर्का पहन कर आये ताकि मुहल्ले में किसी को पता न चले. अनु ताबड़तोड़ एक बुर्का खरीदती है, उसके लिए प्रेमी से मिलने के लिए सजने का प्रतीक वह बुर्का बन जाता है. दिन भर हॉस्पिटल मे काम करने की थकान भी उसके चेहरे पर नहीं. वह रेल पकड़ती है और तभी शियाज़ का मैसेज आता है कि बारिश के कारण हार्बर रेल लाइन बंद है, माँ-पिता शादी में नहीं जा रहे, ऐसे में अभी वह न आए. एक तेज़ भागती रेल पार्श्व से गुजरती है और अनु जिस तरह अपना शृंगार उतार कर फेंकती है, वह जीवन की कविता को दृश्य में उतार देना ही है.
अनु और प्रभा दोनों ही तय नहीं कर पा रहीं जीवन में अब आगे करना क्या है? लेकिन तभी पार्वती एक निर्णय पर पहुँचती है. वह हताश नहीं मगर तंत्र से अकेली नहीं लड़ सकती. वह भिड़ना जानती है. लड़ना भी. मगर वह अपना जीवन इस शहर में इसी तरह नहीं बिताना चाहती. मजदूर एकता की सभा में वह सावित्री-ज्योति बा फुले की झाँकती तस्वीर के समक्ष नारे भी लगाती है मगर वह जानती है एक पूरी तरह से सड़ चुकी व्यवस्था को वह रातों-रात नहीं बदल सकती. इधर प्रभा भी अपने जीवन में आने वालो रोशनी की अंतिम किरण अपने सीनियर डॉक्टर के विवाह प्रस्ताव को अस्वीकार कर देती है. उधर अनु भी इच्छा-अनिच्छा के द्वंद्व की जलती-बुझती रोशनी में खुद को सहज नहीं पाती है. प्रभा और पार्वती एक चाइनीज़ रेस्टॉरेंट में साथ गुज़ारे समय और ज़िंदगी का जश्न मनाते हैं. इस शहर में इतने साल रहने के बाद भी पहली बार वे यहाँ आए हैं. वापसी में पार्वती बिल्डर के बड़े से होर्डिंग पर एक पत्थर मारती है. बिलकुल दुष्यंत के तबीयत से उछाले हुए पत्थर की तरह. और बिल्डर का होर्डिंग फट जाता है. यही पार्वती का हौसला है और जीवट भी. और फिर एक यात्रा शुरू होती है प्रभा और अनु की, पार्वती के साथ रत्नागिरी के लिए. यह उन तीनों की ही भीतरी करवट है, एक अनचाही ज़िंदगी से लड़ने के लिए.
यहाँ तक यह अंधेरे से लड़ने की यात्रा है. टिमटिमाते हुए तारों के बीच, दिन भर की आपा-धापी से होते हुए, अपने हिस्से आए हुए समय में जूझने और जुगनू बराबर रोशनी को खोजने की. बस इतना भर ही उजला, नीला रंग पर्दे पर दिखता है इस दौरान. जैसे ज़िंदगी एक अंधेरी सुरंग है और उजाला जल-बुझ का खेल कर रहा. इसके बाद एक धूसर पहाड़ और अंतहीन समुद्र दर्शकों के सामने आता है. दर्शक जैसे इस यात्रा और अनुभव में साझीदार है. लगभग एक घंटे तक पर्दे पर पसरे नीले को देखने के बाद सूरज की रोशनी, हरा, पीला रंग चरित्रों की ज़िंदगी में आता है – यह दर्शक के लिए आश्वस्ति है. पायल ने यहाँ घुटन को उसी तरह दर्ज किया है जैसा स्वीडिश फ़िल्मकार इंगमार बर्गमान टीवी सीरीज़ ‘सीन्स फ्रॉम ए मैरिज’ में करते हैं. विवाह की जकड़न में फँसे दो किरदार वहाँ भी कैमरे के ‘क्लोज़-अप’ में ही दिखते हैं और वह जकड़न दर्शक महसूस करते हैं.
बहुत बाद में एक खिड़की दिखाई देती है और आस-पास के ‘वाइड एंगल शॉट्स’. जैसे घुटना के बाद खुले में दर्शक भी साँस लेने लगता है. यही असर आगे चलकर फेदेरिको गारसिया लोर्का के नाटक पर आधारित गोविंद निहलानी की फ़िल्म ‘रुक्मावती की हवेली’ में महसूस होता है. पार्वती के घर को बसाने की कवायद में प्रभा और अनु की उधड़ी हुई ज़िंदगी की भी तुरपाई हो रही. शियाज़ भी उनके पीछे आया हुआ है और वह अनु को यकीन दिलाता है कि वह उसका सच्चा प्रेमी है. अनु और शियाज़ के बीच की दूरियाँ पिघलती हैं. उनके बीच बने संबंध का फ़िल्मांकन अद्भुत है और अविश्वसनीय रूप से दर्शक को हरियाता है. एक गुत्थी यहाँ सुलझती है. एक शाम प्रभा समुद्र में डूबते हुए अनजान पुरुष की ज़िंदगी बचा लेती है और फिर बाद में नर्स के रूप में अपने कर्तव्य का निर्वहन करते हुए वह उस व्यक्ति और अपने जीवन में साम्य पाती है. जैसे उसका पति ही वापस आ गया है. एक ओर जहाँ अनु ने दैहिक रूप से ख़ुद को प्राप्त कर लिया है वहीं प्रभा काल्पनिक रूप से पर-पुरुष के साथ संवाद और चाहना में अपने भीतर की खाई को पाट लेती है. प्रभा, अनु और पार्वती के जीवन में पसरा हुआ अंधेरा ख़त्म हो जाता है, समंदर की लहरों की तरह जीवन के उतार-चढ़ाव का एक चक्र इस तरह पूरा होता है.
एक ‘एक्सपेरिमेंटल’ फ़िल्म होने के बावजूद यह चौंकाती नहीं है. मगर दर्शक को हर वक़्त चौकन्ना रखने का प्रयास करती है. दृश्य दर दृश्य कथानक अपने अंजाम तक पहुँचाता है और वही महसूस करता है जिसे पायल और रणबीर दास (सिनेमैटोग्राफ़र) ने कविता की तरह बुना है. मगर इस फ़िल्म का कविताई असर चमकीला नहीं खुरदुरे यथार्थ की तरह है. दुनिया के अनगिनत लोगों की सच्चाई भी कहीं न कहीं एक-सी ही है. थोड़ा प्रेम, थोड़ा सम्मान, थोड़ी मुस्कुराहट, और बहुत सारा यक़ीन. और, और की ख़्वाहिश ये किरदार नहीं करते. उन्हें बस अपने हिस्से का सुख चाहिये. और इतना भर ही आसमान भी. पायल की इस फ़िल्म में सुकून और आश्वस्ति की खोज है. और उसे दर्ज करने की असाधारण ललक भी.
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सुदीप सोहनी इन दिनों सुदीप सोहनी फ़िल्म्स के तहत स्वतंत्र फ़िल्म निर्माण. |
यह फिल्म हमने भी देखी, अभी कुछ दिन पहले। सुदीप जी ने फिल्म को अच्छे से खोला है। वाकई फिल्म असरदार है। बहुपरतीय। प्रभा के पति का मिलना सच लगता है, स्वप्न नहीं। पर यह सच संभव कैसे हो सकता है। युवा मन का दैहिक आकर्षण समझ में आता है, पर उसे कम उघड़ा भी रख सकते थे। फिल्म को देखते हुए समांतर सिनेमा की याद आती रही।
पिछले कुछ सालों से मैं सुबह सुबह अख़बार नहीं पढ़ती अपने पसंदीदा समालोचन को पढ़ती हूँ। आज भी सुबह की ब्लैक कॉफ़ी के साथ जब सुदीप का यह आलेख पढ़ना शुरू किया तो एक सांस में पढ़ गई। क्या प्रवाह है। अद्भुत। सुदीप का हर आलेख हर बार सिनेमा पर मुझे और ज़्यादा समृद्ध करता है। इतने विचारोत्तेजक आलेख के लिए बहुत बधाई सुदीप और शुक्रिया अरुण जी।
बहुत सुंदर समीक्षा। फिल्म देखने की इच्छा बलवती हो गई। यह मात्र समीक्षा नही, स्वतंत्र सृजनात्मक आलेख है जहां फिल्म की परतों में जीवन के दृश्यों को शब्दबद्ध किया है। समालोचन और Sudeep Sohni ji को बहुत बधाई।
पायल कपाड़िया की फ़िल्म ‘ऑल वी इमैजिन ऐज़ लाइट’ को लेकर लिखा सुदीप सोहनी का यह आलेख वाक़ई सराहनीय है। फ़िल्म के कथ्य और उससे जुड़े किरदारों के जीवन चरित हमारी आँखों के समक्ष खुलते चले जाते हैं।भारतीय सिनेमा के गौरवपूर्ण अध्यायों से जुड़ी श्रृंखला में एक और नया नाम जुड़ रहा है यह हम सबके लिए सुखद है।सुदीप सोहनी उस सुखद अहसास को हम तक पहुँचाने में सफल रहे हैं।
बाॅलीवुड यानि मायानगरी का जादू अब पहले सा नहीं रहा।
तेज़ी से बदलती दुनिया के रंग से दर्शक चौकस हुआ है। ओटीटी प्लेटफॉर्म पर इतना कुछ है देखने के लिए कि अब फिल्में केवल मनोरंजन का साधन नहीं रह गईं हैं उनमें यथार्थ बोध और जीवन की कटु वास्तविकताओं की छवियां भी अंकित होना आवश्यक हो गया है। ऐसे में ऑल वी इमेजिन एस लाइट जैसी फिल्मों का बनना समय की मांग है।
सुदीप सोहनी जी का पठनीय आलेख।
बहुत जेनेरिक लेख है। फ़िल्म के सकारात्मक और नकारात्मक पहलुओं पर प्रकाश डालने की जगह उसकी कहानी को दुहरा दिया गया है। भारतीय फ़िल्मों का परचम तो ख़ैर कहीं नहीं फहरा रहा है। इक्के दुक्के फिल्मों को छोड़कर हमेशा की तरह सूखा है। लेख में दुनिया भर के फिल्मकारों के नाम भरने से ऐसा लग रहा है मानो समीक्षा के लिए और कोई टूल नहीं बचे, मानो रचना का अपना कोई वस्तुगत सत्य हो ही नहीं। अभिनेत्री के नाम में भी गलती है।