कौन है कोई है जो |
अक्टूबर के शुरुआती दिनों में देवी प्रसाद मिश्र के नये कहानी संग्रह कोई है जो का लखनऊ के पुस्तक मेले के लगभग आख़िरी दिन अखिलेश और वीरेन्द्र यादव ने विमोचन किया. बहुत सादगी से. इस मौक़े पर कहानीकार मनोज पाण्डेय भी उपस्थित थे. यह जानकारी सोशल मीडिया से मिली. मैं ख़ुदको रोक नहीं पाया और इस विमोचन के दो दिन बाद ही राजकमल प्रकाशन के अंसारी रोड वाले कार्यालय पहुँच गया. मैंने कई अन्य किताबों के साथ कोई है जो भी ले ली. पन्ने पलटे तो पता चला इसमें देवी की लम्बी कहानियाँ हैं. मनुष्य होने के संस्मरण मैं पढ़ चुका था और उससे बे-इंतिहा प्रभावित हुआ था. मन में यह डर भी था कि देवी की कविताओं और मनुष्य होने के संस्मरण का तिलिस्म टूट न जाए. (यह सूचित भी कर दूँ कि इस किताब का गणेश विसपुते द्वारा किया मराठी अनुवाद जनवरी में प्रकाशित हो रहा है.)
देवी प्रसाद मिश्र के संग्रह ‘कोई है जो’ की कहानियाँ पढ़ते हुए साफ़ दिखाई देता है कि इनका जन्म खुशहाली की सड़क पर टहलते हुए नहीं हुआ है. ये कहानियाँ जीवन को दूर से नहीं, बहुत नज़दीक जाकर देखती हैं. भारतीय नागरिक के बहुत नज़दीक जाने का मायने होता है दुख और विपत्तियों के नज़दीक जाना. यह तो साफ़ है कि इस हिंदुस्तानी नागरिकता का दायरा बहुत लंबा चौड़ा है जिसमें जिस सहजता से देवी के अपने बहुत जाने भूभाग अवध और क़स्बों– शहरों के रहवासी आते हैं, उसी मानवीय उद्भावना के साथ मुफ़लिस- आदिवासी-बेदख़ल चले आते हैं. तो देवी अपनी कहानियाँ लिखने में स्वानुभूत का ही आश्रय नहीं लेते, वह परानुभूति को भी उतना ही कारगर उपकरण मानते हैं. और जो स्वानुभूत है उसको लेकर वह बहुत क्रिटिकल दिखते हैं. सवर्ण होने का जैसा अपराध बोध देवी के इन आख्यानों में है वह शायद ही किसी और समकालीन कहानीकार में हो.
देवी प्रसाद मिश्र की तीन कहानियों में अवध का ग्रामीण परिवेश मौजूद है- वहाँ की बोली बानी, रहन–सहन, बात-व्यवहार, हँसी-ठट्ठा. ‘सुलेमान कहाँ है’, और ‘भस्म’ के पूर्वार्ध में ग्रामीण जीवन में व्याप्त उत्फुल्लता के स्मरणीय दृश्य हैं. लेकिन अंतत: देवी के लिए अवध वह है जहाँ होता है वध. तो अवध जातिवाद– ब्राह्मण– ठाकुरवाद, स्त्री विद्वेष, दलित दमन, पितृसत्ता, दबंगई, मर्दवाद और नीम रौशन चेतना वाला भूभाग है. ‘पिता के मामा के यहाँ’ अवध का यही हिस्सा एक लंबी कहानी बनता है. इस तरह देखें तो देवी की कहानियों में आयातित विमर्श नहीं है और न ही शाश्वत सत्य को पाने की नक़ली मुहिम. ये कहानियाँ हाशिये पर रह रहे या धकेल दिए गए लोगों की कहानियाँ हैं- उन लोगों की कहानियाँ हैं जो वर्चस्वादी ताक़तों से लड़ते हुए, हारते हुए, विफल होते हुए, मिसफ़िट होते हुए अदृष्ट यातना शिविरों में रहने के लिए अभिशप्त हैं. इनके दुःख, इनकी पीड़ा, इनके प्रतिरोध, इनके संघर्ष, इनके डर, इनकी आशंकाएँ, इनके स्वप्न, इनके मृत्युबोध, मृत्यु से भय और जीने की इनकी इच्छा इतने प्रामाणिक तरीके से लिपिबद्ध हैं कि पाठक को उस सफ़रिंग का हिस्सा होना पड़ता है. किताब के आरंभ में विख्यात कथाकार अखिलेश अपनी सम्मति में शायद इसीलिए इन कहानियों को अद्वितीय कहते हैं.
जैसा मैंने शुरू में कहा, इससे पहले मैं देवी की किताब ‘मनुष्य होने के संस्मरण’ पढ़ चुका था. इन छोटे आकार की कहानियों को देवी ने लघु कथा कहने की जगह ‘अन्य कथाएँ’ कहने की ज़िद की थी. परंपरागत शैली में न लिखी गई इन कथाओं के बारे में देवी ने संग्रह की भूमिका में कहा था कि ये कथाएँ कवितात्मक हैं- कविता के साथ इनका हार्दिक रिश्ता है. कवि, कथाकार, फिल्मकार, चिंतक और प्रयोगधर्मी देवी प्रसाद मिश्र कथा को बिना खोये कवितात्मक हो गये थे. ‘मनुष्य होने के संस्मरण’ की अन्य कथाओं को पढ़ते हुए कई बार यह महसूस होता है कि आप किसी फिल्म की पटकथा के दृश्य देख- पढ़ रहे हों. कहानियाँ कट- टू- कट चलती हैं- दृश्यों की तरह. इस संग्रह की भूमिका में देवी ने एक दिलचस्प बात की कि,
“मैं जानता हूँ कि कावाबाता और काफ़्का ने भी छोटी कहानियाँ लिखीं. कावाबाता का ‘फ़ेबल’ मुझे अपनी ओर नहीं खींच पाया. काफ़्का की छोटी कहानियाँ अमूमन कथा विरुद्ध हैं. वे आख्यायिका नहीं हो पातीं. अवधारणात्मक होना उनकी क्रिएटिव नियति हैं. वे भाषिक अमूर्तन की महनीयताएँ हैं. जब मैंने इन कहानियों को लिखना शुरू किया था तो मुझे यह लगा कि मैं इन महान्लेखकों से प्रेरित नहीं हो पा रहा हूँ.”
‘कोई है जो’ की कहानियों में देवी काव्योन्मुख होने के बावजूद कथात्मक हैं- इन कहानियों में भारतीय विपत्ति के क़िस्से हैं. संग्रह में महज़ छह कहानियाँ हैं. आमतौर पर लम्बी.
‘मैंने पता नहीं कितनी तेज़ या धीरे से दरवाज़ा खटखटाया’ संग्रह की पहली कहानी है. इस के आरंभिक दो वाक्य हैं- पहले मैं पुल से सब कुछ देखता रहा और उसके बाद धीरे-धीरे चलते हुए पुल से उतरकर नदी के किनारे आ गया. पिता नहीं मिल रहे थे. इस कहानी को पढ़ते हुए मुझे बरबस पुर्तगाली लेखक जोआओ ग्विमारोज़ रोसा की एक कहानी ‘नदी का तीसरा किनारा’ याद आ गई. उस कहानी पर पिछली सदी में अथाह बातचीत की गई. देवी की कहानी रोसा की कहानी से नितांत अलग है. लेकिन इसमें रोसा की कहानी की तरह ही परतें और निहितार्थ हैं.
‘मैंने पता नहीं कितनी तेज़ या धीरे-से दरवाज़ा खटखटाया’ में नायक नदी में पिता को खोजने गया है, जो खो गए हैं. शायद पुल से उन्होंने नदी में छलाँग लगा दी है. नायक पुल पर खड़े होकर पिता को देखने की कोशिश करता है, लेकिन पिता दिखाई नहीं देते. पिता कवि थे, डायरियाँ लिखा करते थे, स्कित्सोफ्रीनिया से पीड़ित थे. क्या पिता खुद देवी प्रसाद हैं? देवी इस कहानी में उन सभी सवालों को उठाते हैं, उनसे उलझते हैं, लड़ते हैं, और उनके ख़िलाफ़ खड़े होते हैं, जिन्हें एक विद्रूप व्यवस्था पैदा करती है. क्रूरताओं, विडंबनाओं और हताशा से गुज़रती कहानी में प्रतिरोध की शक्ति के बचने के क्षीण संकेत बने रहते हैं. ‘नदी का तीसरा किनारा’ की तरह ‘मैंने पता नहीं कितनी तेज़ या धीरे-से दरवाज़ा खटखटाया’ गहरे और व्यापक विमर्श की मांग करती है- देवी की कहानी में किस्सागोई, पठनीयता, विचार और राजनीतिक प्रतिबद्धता है. यह कहानी प्रतिष्ठानमूलक सोये आलोचक के जागने का आह्वान तो करती ही है, पाठकों से भी यह उम्मीद भी करती है कि वे हिन्दी कहानी को वैश्विक नज़रिये से देखना और समझना शुरू करें. इसकी संरचना सोशल थ्रिलर की है जिसमें एक साथ निस्सहायता, कविता, नाउम्मीदी और प्रतिरोध एक दूसरे में गुँथे हुए हैं. कहानी संग्रह के आरंभ मे बतौर सम्मति- प्रदाता प्रख्यात कथाकार योगेंद्र आहूजा ने ठीक कहा है कि देवी की कहानियों का शिल्प और विन्यास और कथाविधि अपूर्व और बेजोड़ हैं.
निराले शैलीकार और प्रयोगधर्मी तो वह स्वभाव से हैं ही. देवी कहानी को बेशक अनायास ही किसी भी बिन्दु से शुरू कर देते हैं लेकिन कहानी के साथ जुड़ी उपकथाएँ और स्मृतियाँ, और उस जीवन से जुड़े किरदार बहुत स्वाभाविक तरीके से वैसे ही बीच-बीच में जुडते हैं जैसे कि एक प्रमुख नदी में सहायक नदी आकर मिल जाती है- एक ऐसा रूपक जो देवी को बहुत प्रिय है. इस तरह कथा में नवीनता तो पैदा होता ही है, उसका सामाजिक फलक भी विस्तृत हो जाया करता है. कहानी में कथा तत्त्व बढ़ जाता है सो अलग.
बरसों पहले ‘पहल’ में छपी ‘अन्य कहानियाँ और हेलमेट’ की शुरुआत इस तरह होती है- रेलगाड़ी जब अन्ततः प्लेटफ़ार्म नम्बर सात पर रुक गयी तो मेरे अन्दर बहुत सारी भाप के साथ बप्पा निकला. जब नायक को स्कूटर स्टैंड पर अपना हेलमेट नहीं मिलतातो बस इस छोटी-सी घटना के बाद एक बेहद उलझे हुए कथाक्रम की शुरुआत हो जाती है. नायक के लिए हेलमेट सिर की सुरक्षा का प्रतीक है. हेलमेट का गायब होता उस सुरक्षा का ख़त्म होना है. हेलमेट और रीगल सिनेमा के पास से ख़रीदे ओवरकोट को पहनकर नायक को लगता कि वह कहीं अधिक सुरक्षित है. देवी हेलमेट की तरह ओवरकोट को भी एक रूपक की तरह इस्तेमाल करते हैं. गोगोल का ओवरकोट मनुष्य की बुनियादी ज़रूरतों का प्रतीक है और यह दर्शाता है कि रूसी सरकारी तंत्र कैसे उन्हें पूरा नहीं करता है. यह भौतिक संपत्ति के ज़रिये मनुष्य की स्थिति का भी बिंब है. ऐसे में यदि एक बार संपत्ति चली गई तो सामाजिक मान्यता भी चली जाएगी. देवी के नायक को महानगर में अपनी सुरक्षा के दो उपकरण दिखाई देते हैं-हेलमेट और ओवरकोट.
ओवरकोट नायक को पुस्तकालय की तरह लगता है, जिसकी जेबें बहुत गहरी हैं. इनमें वह क्रांतिधर्मी छोटी-सी पिस्तौल तक रख सकता है बेशक स्वप्न देखने की प्रक्रिया में. इस की सिली जेब से पत्र निकल सकते हैं, यहाँ कविताएँ रखी जा सकती हैं, डायरियाँ, और किताबें तक. इस ओवरकोट में नायक का प्रतिसंसार बंद है. महानगर में एक केमिस्ट के यहाँ नौकरी करते हुए नायक के पास अनेक लोग अपने-अपने दुखों के साथ आते हैं. कोई भीख में दर्द की दवाएँ माँगता है, कोई एड्स की दवा माँगता है, कोई उपन्यासों के लिए नए क़िरदार खोजता हुआ आ जाता है. केमिस्ट की दुक़ान पर आने वाले किरदारों की कई उपकथाएँ खुलती रहती है. इनमें प्रेम, प्रेम की संभावनाएँ, बदलाव का विचार, सेक्स, मृत्यु, लापता होना वग़ैरह सब कुछ इतनी संश्लिष्टता के साथ आते हैं कि उन्हें अलग-अलग देख पाना आसान नहीं होता. लेकिन इन अन्य कहानियों के ज़रिए लेखक एक वैकल्पिक दुनिया, एक बेहतर दुनिया, एक बदली हुई दुनिया बनते हुए देखना चाहता है. ओवरकोट सर्दी से ठिठुर रही एक लड़की को देने के बाद नितांत असुरक्षित नायक की सड़क दुर्घटना में मृत्यु हो जाती है. और क्योंकि उसने हेलमेट नहीं पहन रखा था तो क़ानूनन उसकी पत्नी और बच्चियों को किसी तरह का कोई मुआवज़ा मिलने की बात तक नहीं उठती. पूरे परिवेश, घटनाओं और सघनता के साथ कहानी मृत्यु के क्षणों में भी किसी बड़े सामाजिक विजन की ओर इशारा करती है.
यादगार कहानियों में यह कहानी एक बड़ी जगह बना लेती है. यह दिलचस्प है कि संग्रह की छह में से चार कहानियाँ ऐसी हैं, जिनका नायक कवि या उपन्यासकार है. ‘मैंने पता नहीं कितनी तेज़’ या धीरे-से दरवाज़ा खटखटाया’ में पिता कवि है और बेटा उसकी रचनाओं की संभाल करने वाला– कह लीजिए कस्टोडियन. ‘अन्य कहानियाँ और हेलमेट’ में नायक के पास, केमिस्ट की दुक़ान पर काम करते समय एक ऐसा आदमी आता है जिसने बहुत से काम करने के बावजूद कविता लिखना नहीं छोड़ा. संग्रह की तीसरी कहानी का रहस्यमय पात्र पाँच उपन्यास एक साथ लिख रहा है. मध्यवर्गीय आकांक्षाओं से घिरा लेकिन उनसे बाहर आने के असाध्य प्रयत्न करता नायक पाँच उपन्यासों को लिखने वाले पात्र को अपनी मुक्ति की ललक के साथ देखता है. दोनों के बीच के द्वंद्वात्मक और दुविधाजनक रिश्ते कथा में कितनी ही गांठें और अवगुण्ठन पैदा करते हैं. यह निराला सम्बंध आदिवासियों के इलाके में ढह और बन रहा है जहाँ नायक की मुलाकात डिग्री कॉलेज़ में रिसर्च करती सुनयना से होती है. वह आदिवासियों की कथाओं में विस्थापन के दुःख, भय और प्रतिकार की अन्तर्ध्वनियाँ ढूढ़ रही थी. नायक उस आदमी को डिकोड करना चाह रहा है जो पाँच उपन्यास लिख रहा है. ज़ाहिर है लेखकीय नायक यहाँ अपने फँसे हुए मध्यवर्गीय सेल्फ़ को लेकर गिल्ट में है और वह अपने को मेटामॉरफॉज़ करने के लिए अपने आप से ही मुठभेड़ कर रहा है.
एक दिन नायक देखता है कि ‘वह’ पच्चीस तीस बच्चों के साथ फुटबॉल खेल रहा है. नायक सोचता है, हो सकता है वह फुटबॉल पर ही उपन्यास लिख रहा हो….तभी नायक को पता चलता है कि जहाँ बच्चे फुटबॉल खेला करते थे, उस मैदान को शहर के सांसद, जो एक बड़ा बिल्डर भी था, ने आलू का गोदाम बनाने के लिए ख़रीद लिया है और पता करने पर पता लगा कि वहाँ वाटर पार्क बनना है और उसमें प्रवेश शुल्क 500 रुपए है. पूरी कहानी ‘सेल्फ़ एक्सप्लोरेशन’ है. देवी पाँच उपन्यास लिखने की परियोजना वाले व्यक्ति को तलाश रहे हैं. दरअस्ल देवी अपने भीतर के उस व्यक्ति को खोज रहे हों जो अपने समय की बड़ी अंतर्वस्तु वाली गाथा लिख सके. देवी की आम बातचीत में भी लोकतांत्रिक मूल्यों की वक़ालत, तानाशाही के विरोधी स्वर और वैकल्पिक दुनिया के स्वप्न हमेशा मौज़ूद रहते हैं. ऐसी संश्लिष्ट कहानी में वे अपनी बहसों के साथ मौजूद हैं.
‘भस्म’ का नायक भी एक कवि है जो नियमित डायरियाँ लिखता है. ये डायरियाँ उसके लिए सांघातिक सिद्ध होती हैं क्यों कि उनमें कवि ने अपने आसपास की पतनशीलता के सत्य को अंकित कर दिया है. एक जगह वाचक नायक कवि आत्मकथात्मक शिल्प में कहता है कि
“कविता लिखने ने मेरे जीवन को ऊँट की पीठ बना दिया. उसके बाद मैं अजीब-अजीब से वाक्यों की तलाश में रहने लगा. मुझे लगने लगा कि जो वाक्य व्यवहार में लाये जाते हैं, उनके आसपास छिपे वाक्याभास और जीवन द्वारा ओझल जीवन के संधान में मैं रहने लगा. मैं भाषा के अन्दर की भाषा से विचलित होने लगा और मनुष्य के अन्दर के मनुष्य के आविष्कार में भटकने लगा. मुझे लगा कि जो जीवन जिया जा रहा है, उसके आसपास ही एक न दीखता जीवन है जिसे मैं देखना चाहता हूँ.”
देवी की सभी कहानियों में न दीखते इसी जीवन को देखने की कोशिश है. ‘भस्म’ में नायक रामनाथ एक ऑफ़िस में काम करता है जहाँ साथ के भ्रष्ट सहकर्मियों को पता चल जाता है कि रामनाथ कविता के साथ डायरियां भी लिखता है जिसमें इस पतित तंत्र की चुगली खाई गई है. कमाल का शिल्प अपनाते हुए देवी अपराध की दुनिया को गहरी मार्मिकता और झिंझोड़ देने वाली यातना के साथ अंकित करते हैं.
कदाचार की यह दुनिया कविता की निर्दोष दुनिया के समानांतर चल रही है. यहाँ विरुद्धों का सामंजस्य नहीं होता, उसका मोंताज बनता है. यह कहानी सीधे कहती है कि झूठ और पाखंड और कदाचार के प्रतिरोधक को अग्निकांड के हवाले कर दिया जाएगा. कहानी यह कहने में पूर्ण सक्षम है कि कविता विरुद्ध समाज आपराधिक संरचना है. संग्रह की कहानी ‘पिता के मामा के यहाँ’ कुछ अलहदा ढंग से ही शुरू होती है. वासना, प्रेम, दलित शोषण, विश्व बैंक के इशारों पर किसानों के साथ की जा रही जबरदस्ती, सामन्ती दबंगई के बीच प्रतिकार की कौंध भी यहाँ निरंतर मौजूद है. लेकिन कहानी को जो बात नायाब बनाती हॅ वह है माँ बेटी का सम्बंध जो अवध में फैली कौटुंबिक गुलामी के विरुद्ध अपनी आवाज़ तीक्ष्ण करता चला जाता है. कितनी भी बड़ी जायदाद हो, स्वतंत्रता को गिरवी रखकर वह नहीं चाहिए. यह कहानी स्त्री गरिमा और श्रम का अद्भुत जयगान है. साथ ही यह कहानी सामंती परजीविता की अनुपम हाय हाय भी है.
संग्रह की छठी कहानी ‘सुलेमान कहाँ है’ एक बार फ़िर देवी की मौलिक छाप लिए है. कहानी में बाबा की आँखें ख़राब हो गई हैं और पहले जहाँ उन्हें थोड़ा बहुत दीखता था, वह दिखना भी अब बन्द हो गया है. उन्हें हर तरफ़ अँधेरा दिखाई देता है. वह दुनिया को, खेतों को, पेड़ों को, नदियों को, लोगों को फ़िर से देखना चाहते हैं. उन्हें रोशनी की तलाश है. बहुत आसानी से बाबा रौशनी को खोजने का रूपक बन जाते हैं. वह एक अंधे राष्ट्र के भटकाव की व्यथा, अवसाद और तकलीफ हैं. लेकिन यह कथ्य आता है फोकलोर और लोककथा की बेहद आत्मीय कथाविधि में. बाबा को हर व्यक्ति अपने हिसाब से बहकाता रहता है. एक राहगीर के बताने पर बाबा हकीम सुलेमान की खोज में निकल जाते हैं जो गयी रौशनी को वापस लाने वाले सुरमे को बनाने के लिए मशहूर है. तमाम भटकावों के बाद भी बाबा को न तो हकीम सुलेमान मिलता है और न ही रौशनी. हमारे जातीय जीवन को भी क्या रौशनी मिल पाई है? इसीलिए कहानी के बाबा राम हरख भूख-प्यास से तड़प-तड़पकर मर जाते हैं. बाबा का प्रेत टहलता है और थकी-बदवास आवाज़ों में सुलेमान को पुकारता रहता है.
इस कहानी को पढ़ते हुए मुझे एच जी वेल्स की लगभग 100 से भी अधिक साल पहले लिखी कहानी ‘दि कंट्री ऑफ़ द ब्लाइंड‘ याद आई. इसमें नायक एक ऐसे देश में पहुँच जाता है, जहाँ सब अंधे हैं. जितेन्द्र भाटिया ने इसी रूपक का इस्तेमाल करते हुए एक कहानी लिखी-‘अंधों का देश’. देवी की कहानी को सौ से भी अधिक बरस पुराने उसी रूपक का तीसरा किनारा माना जा सकता है. जितेन्द्र भाटिया की कहानी में नायक कुछ ख़ास परिस्थितियों में एक ऐसे देश पहुँच जाता है, जहाँ सब अंधे हैं. लेकिन उन्हें किसी भी तरह का काम करने में कोई दिक्कत नहीं होती. उन्हें इस बात का अहसास ही नहीं है कि शरीर में आँखों जैसा भी कोई अंग है. नायक जीवो नाम की एक लड़की से मिलता है और प्रेम करने लगता है. वह जीवो को देखने के अर्थ समझाता है. एक प्राकृतिक आपदा के चलते अंधों के देश के सभी लोग मर जाते हैं. केवल नायक जीवो को बचाकर किसी तरह अपने देश ले आता है. यहाँ अंधापन विवेकहीनता है, कट्टरता है, साम्प्रदायिकता है.
नायक-नायिका एक ऐसे समय में प्रवेश करते हैं, जब भारत विभाजन के समय दंगे हो रहे हैं. जितेन्द्र भाटिया की इस कहानी में आपको वर्तमान भारत की स्थितियाँ भी दिखाई देंगी. देवी प्रसाद मिश्र की कहानी ‘सुलेमान कहाँ है’ में सब लोग नायक को आँखें ठीक करने के अलग-अलग उपाय बता रहे हैं जो मिथक से ज्यादा कुछ नहीं है. रोशनी तक पहुँचने का रास्ता किसी के पास नहीं है. ‘कोई है जो’ संग्रह को पढ़ना उन आवाज़ों को सुनना है जो तानाशाही के विरुद्ध, सामंतवाद के विरुद्ध, किसी भी तरह की हिंसा के विरुद्ध, स्त्री स्वतंत्रता के विरुद्ध, आदिवासियों के साथ निरंतर होने वाली लूटपाट के ख़िलाफ़, किसानों पर होने वाले अत्याचारों के विरुद्ध, जातिवाद और ब्राह्मणवाद – ठाकुरवाद के विरुद्ध लगातार उठ रही हैं.
देवी की खूबी यह है कि वह समय के संकट को प्रामाणिक पात्रों और संवेदित करने वाले ढाँचे में ढालते हैं. बेचैनियों में उलटते -पलटते कवि-कथाकार देवी प्रसाद मिश्र हर कहानी में न सुनी आवाज़ों की आवाज़ बनते हैं और लड़ते हुए दिखते हैं एक वैकल्पिक दुनिया बनाने के लिए. देवी के पास मानवीय क़िस्सों की कोई कमी नहीं है. यही कारण है कि कहानियाँ बे-इंतहा अबजॉर्बिंग और ग्रिपिंग हैं. कहीं कोई झोल नहीं. देवी की ये कहानियाँ इस बीच चलती उस बहस का काउंटर भी हैं जो एण्टी स्टोरी टेलिंग का अभियान चलाए हुए हैं. देवी का पक्ष कथा पक्ष है. उनका मानना है कि जब हम कहानी को कथातत्व से काट देते हैं या उसे अमूर्तन का जामा पहना देते हैं तो हम कहानी को उसके परिवेश, उसके किरदारों, घटनाक्रम, स्मृतियों से काट देते हैं.
देवी की इन कहानियों में ठोस कथा-क़िरदार हैं- उनका जादुई यथार्थवाद भारतीय यथार्थ का आनुषंगिक होकर आता है और जादुई यथार्थ की असाधरणता साधारणता को ढँकने नहीं, उसे विश्वसनीय और मानवीय बनाने का काम करती है. देवी की यह ख़ूबी भी ध्यान खींचती है कि वह कहानी में निबंध नहीं लिखते जो समकालीन कहानी के गले की फांस बनती जा रही है. अनुभव के अलावा वह किसी को तरज़ीह नहीं देते.
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सुधांशु गुप्त चार कहानी संग्रह- ‘खाली कॉफ़ी हाउस’, ‘उसके साथ चाय का आख़िरी कप’, ‘स्माइल प्लीज़’ और ‘तेरहवाँ महीना’ प्रकाशित. योगेश गुप्त समग्र (चार खण्डों में) का वरिष्ठ साहित्यकार महेश दर्पण के साथ सम्पादन. कुछ किताबें कुछ बातें-नेपथ्य में विमर्श- आलोचनात्मक पुस्तक प्रकाशित. gupt9sudhanshu@gmail.com |
देवी प्रसाद मिश्र जी की कहानियाँ अपनी प्रयोगधर्मिता की वजह से सहज ही ध्यान खींचती हैं। उनकी भाषा सतत यह स्पर्श देती है कि वे एक कवि की कथाएँ हैं। इन कहानियों में अपूर्व नवीनता है। मैंने गए दिनों देवी जी की अन्य कहानियों की पुस्तक ‘मनुष्य होने के संस्मरण’ पढ़ी है। इन दिनों इस पुस्तक का बांग्ला अनुवाद करने के क्रम में मैंने पाया कि इस प्रकार की कहानियाँ सच में सर्वत्र अन्य कहानियाँ ही हैं।
Devi Sir is, without a hint of question; a genius whose intellect parallels the horizon of creativity. He has always been a delight to be read as a poet, whether in agreement with his views or dissenting against them. Previous year, I had a chance to go through his anthology, मनुष्य होने के संस्मरण. Though the form and contents of those “poetical incidents” was unconventional, they created a desire within to read full length short-stories written by him. People even have tried to mimic his style and language from मनुष्य होने के संस्मरण.
कोई है जो, must be read for it’s still more unconventional and unique style in hindi story. It’s a long tradition of experience that he has brought out in his second anthology of stories, hence, a must read for serious readers…..
सुविवेचित आलेख।
साधुवाद सुधांशु ।
आपके अनिंद्य आलोचक को जो दिनोदिन
ज्ञानाश्रयी बन रहा है।
सुधांशु गुप्त समकालीन हिंदी पर गहरी नजर रखने वाले समीक्षक हैं जो खुद भी एक उम्दा कहानीकार हैं। देवी प्रसाद मिश्र की कहानियों पर उन्होंने सूझ भरा लेख लिखा है। बिना किसी हीनता ग्रंथि के वह देवी की कहानियों पर विश्व कथा साहित्य के संदर्भ में बात करते हैं । वह कथा विरुद्ध वायवीयता का विरोध करते हैं। बहुत अच्छा आलेख ।
देवी प्रसाद मिश्र की कहानियां समकालीन कथा संसार में पढ़ने समझने की भी एक चुनौती है। नितान्त भिन्न लहजे में हमारे समक्ष की तमाम विद्रूपताओं को गहरे आक्रोश, बदलाव की विकट आकांक्षा,साथ ही पाठक के बोध उन्नयन की जिम्मेदारी से भरी है उनकी कहानियां।
सुधांशु जी आपको हार्दिक बधाई,इस अलहदा कथाकार की उन सारी खूबियों को शिद्दत से प्रकट कर लेने के लिए।इन पर लिखना भी एक कड़ी और बड़ी समीक्षकीय चुनौती है जिसे आपने उठाया। और बखूबी निभाया।
सुधांशु जी ने बहुत सुंदर लिखा है। संयोग से संग्रह मैं भी पढ़ गया हूं ,एक रीडिंग। अद्भुत बहुत ही घिसट गया शब्द है फिर भी कहानियां इस शब्द को फिर से कहने को मजबूर कर रही हैं।
ऐसा लग रहा कि आज का वार्ड नंबर – 6 पढ़ा जा रहा है।
समकालीन कथा-बोध की सीमाएं सामने आ जा रहीं कि सबसे वंचित के प्रतिरोध को आज के समय में कैसे बरता जाए !
बदल गये समय को ऐसी चाक्षुष भाषा में पकड़ना और बदले हुए समय में शहरी ग़रीब/आदिवास/वंचितों/खेत-मजदूरों के यातनामय जीवन में आई तब्दीलियों की बारीक शिनाख्त जो देवी की कहानियों में कैसे तो आ गये हैं , आश्चर्य से भर गया मैं। कहानीकार की ज्ञानात्मक संवेदना, सांस्कृतिक-सामाजिक बेचैनी के हासिल हैं ये कहानियां।गतिशील समाज की तब्दीलियां, संवेदनाहंता , विचारहंता स्त्रीहंता आत्महंता परहंता समय-समाज, जनता के हालात , उनकी आकांक्षा, जरूरत और वो कैसा प्रतिरोध करते हैं पैराग्राफ दर पैराग्राफ सिनेमेटिक फ्रेम दर फ्रेम।
बहुत साल पहले देवी प्रसाद मिश्र जी की कहानी ‘सुलेमान कहां है’ पढ़ी थी । पढ़ी थी या देखी थी यह कहना मुश्किल था । कई दिनों तक अंधेरे सपनों में सुलेमान को ढूंढते बाबा दिखते रहे । एक छाया सी , एक उदासी सी जैसे दूर तक पीछा करती रही । तब तक देवी प्रसाद मिश्र जी को मैंने पढ़ा नहीं था । फिर जब मैं कोई अन्य कथा ढूंढने निकली तो मेरे हाथ लगी ‘ पृथ्वी का रफ़ूगर’ कविता । उसे मैंने कई बार पढ़ा । फ़िर तो सिलसिला चल निकला । हर रचना दिव्य लगती । एक के बाद एक कविता पढ़ती और लगता अपने समय को देखने वाला कवि मिल गया है । अपने समय की स्त्री को जानने वाला रचनाकार मिल गया है । इनकी डॉक्यूमेंट्री – द फीमेल न्यूड – देखने के बाद तो लगा देवी प्रसाद मिश्र चाहे जिस रचना क्षेत्र को हाथ लगाएंगे कमाल ही करेंगे । देवी जी की दो कथा पुस्तकें हाथ में हैं । लगता है पूरा भारत हाथ में है । कोने अंतरों की इतनी सच्ची तस्वीर देख कर मन भर आया है ।
सुधांशु गुप्त जी की यह समीक्षा पढ़ कर उनके लेखन की भी मैं कायल हो गई हूं । उनकी नायाब समझ को मेरा प्रणाम । इस सदी के हिंदी के अग्रगण्य रचनाकार देवी प्रसाद मिश्र जी पर इतना सार गर्भित इतना सुंदर लिखने के लिए उन्हें साधुवाद ।
देवी प्रसाद मिश्र ने इस किताब में कहानियों को उपन्यास का विस्तार दिया है। यह किताब कहानी की विधा को नए आयाम देती है। देवी जी को पिछले कुछ वर्षों में लगातार पढ़ने का मौका मिल रहा है। हमारी पीढ़ी को इस किताब से जो मिला है वह साधारण से कॉमेंट में बताना मुश्किल है।
इस किताब को पढ़ने के बाद मैंने जीवन को एक अलग नजरिए से देखने का प्रयत्न प्रारंभ कर दिया है.
देवी प्रसाद मिश्र हिंदी कहानी के लिए अब एक चुनौती हैं.
सुधांशु का ये लिखा हुआ, अब हिंदी कहानियों को नए सिरे से देखने और पढ़ने का प्रयास करने पर मजबूर कर देगा।
देवी प्रसाद मिश्र हमारे समय के संभवत सबसे अनूठे रचनाकार हैं।उनकी कविता और कहानियों ,दोनों में उनके इस अनूठे पन को देखा जा सकता है। सभ्यता में वह जो अनकहा है, वह जो अब तक शब्द नहीं पा पाया है, देवी उसको खोजने की कोशिश करते हैं। इस अनदेखे और अनचीन्हे को जिस मार्मिकता से सुधांशु गुप्त ने उद्घाटित किया है ,वह हमें देवी को और सजकता और सावधानी से पढ़ने को विवश करेगा । मेरा मानना है कि जब एक संवेदनशील रचनाकार, अपने समकालीनों पर अपनी राय रखता है, तो खांटी आलोचकों के मुकाबले, उसका विश्लेषण ज्यादा बेहतर और मौजू होता है । सुधांशु का यह आलेख इसी कारण, रचना में छिपे सघन अर्थ छायाओं को उद्घाटित करते हुए , आगत पाठकों की मदद भी करेगा ।
तो बहुत सुंदर आलेख के लिए साधुवाद सुधांशुजी ।
मैने पता नहीं…को पढ़ने के बाद एक बात कही जा सकती है कि इस पर बना सिनेमा क्या ही कल्ट बनेगा। देवी जी की कुछ डॉक्यूमेंट्री देखी हैं। संयोग से आज ये लेख पढ़ा । और फिर पढ़ी कहानियां। जिसमें सबसे पहली मैने पता नहीं…को पढ़ा। बाकी पढ़कर ज़रूर अपनी बात पूरी करूंगा। फ़िलहाल के लिए सुधांशु दादा को धन्यवाद कि उन्होंने इतनी समग्रता से अपनी बात रखी और देवी सर को पढ़ने वालों को एक नया विचार प्रेषित किया।
हमारे व्हाट्सएप ग्रुप के कई साथियों के कॉमेंट दिख रहे हैं। हालांकि इस लेख का लिंक सुबह ही प्राप्त हो गया था। जो बातें कही जा सकती थीं। उनको रत्नेश जी और आदर्श भाई ने कह दी हैं। मैं किताब पढ़ने की प्रक्रिया में हूं। देवी जी को पढ़ना समाज और समय को जानना होता है। पूरी पुस्तक के बाद अपनी अधूरी बात को पूरा करूंगा। संध्या समय बस सुधांशु दादा को साधुवाद और समालोचन का धन्यवाद्।
सभी साथियों मित्रों का आभार
यक़ीनन सुधाशु जी ने बहुत अच्छा लिखा है। देवी प्रसाद मिश्र के लेखन का क्षेत्र बहुतही व्यापक है। वर्तमान मानवीय जीवन व्यवहार के आपाधापी में उनकी नज़र ठीक वही पहुंचती है, जहां संवेदनशील नजरों ने भी थककर देखना त्यज दिया है। इसलिए मनुष्य जीवन की छोटी-बड़ी असफलताओं, छोटे-बड़े पराजयों की कहानियाँ वे सहजही देख पाते हैं। उनके लो एंगल कैमरे से शहर की नालियों से, उंचे मकानों के नीचे से, विराट अत्याचारों के पैरो तले से जो दृश्य दिखते है, वे अलग कोण- अलग परिप्र्येक्ष प्रस्तुत करते हैं। यहां गद्य में कविता है, एकालाप है जो जागने और सुषुप्ति के बीच के स्वगत जैसे प्रतीत होते हैं।
यह लेखक अपनी रचनाओं के माध्यम से समसामयिक हिंसा, घृणा, शोषण, अन्याय, क्रूर अत्याचारों पर प्रकाश डालता है, लेकिन साथ ही वह एक नई, बेहतर दुनिया का सपना भी देखता है। जहां वे आज प्रचलित मनुष्यता-विरोशहर की नालीयां, ध से भली-भांति परिचित हैं, ठीक वही वे मनुष्य में अत्यधिक कुरूपता के साथ-साथ मनुष्य में बस रही मानवता को भी महत्व देते हैं। और यह अंततः मनुष्य के लिए आशा की गुंजाइश छोड़ता है।
इधर मैं उनकी सौ से ज़्यादा अन्य कथाओं को मूल रूप से पढ़ते और अनुवाद करते समय रुक रुककर, फिरसे पढ़ते हुए सिर्फ दाद दी है और कुछ पलों के लिए वही बैठा रहा हूं। उनकी कहानियों को अनुदित करना वास्तव में एक सुखद अनुभव था।
देवी प्रसाद जी की कहानियों का शिल्प उनका अपना है। अनुठे अनभवों उर्ध्वपातन करने के लिए वे जिस भाषा का उपयोग करते है उसका अपना स्वतंत्र व्याकरण है और इस प्रक्रिया में उनका कहा बहुतही सारगर्भ होता है। भारतीय कहानी में यह अपनी तरह की स्वतंत्र मुहर है।
सुधांशु जी एक कथाकार भी हैं और आलोचक भी । उनका यह लेख उन पाठकों के भीतर देवी भाई का यह कथा संकलन पढ़ने की जिज्ञासा उत्पन्न करता है । सुधांशु जी ने इन कहानियों की विशेषताओं को रेखांकित करते हुए इनके कथ्य और कथा तत्व के निर्वाह का विशेष उल्लेख किया है । अधिकांश कथाओं के नायक कवि हैं यह बात मुझे अच्छी लगी । सुधांशु जी का आभार । अरुण देव जी ने यह व्यवस्था अच्छी की है कि समालोचन से ही पुस्तक आर्डर कर सकते हैं अतः आपका भी धन्यवाद।
कोई जो है…पूरी की पूरी पढ़ी…पूरे इत्मिनान के साथ…कहानियों के इस स्वरूप से पहली बार सामना हुआ…सामाजिक विद्रूपता को शब्दों में बाँधना इस तरह से कि पाठक जुड़ा महसूस करे…अद्भुत अनुभव रहा…पद्य से ज़्यादा गद्य में बातों को कहने की अधिक स्वतन्त्रता रहती है…देवी जी की प्रयोगधर्मिता अत्यंत सराहनीय👏👏👏
कविता हो या कहानी, दोनों ही विधाओं में देवी जी की उपस्थिति मौलिक और मानीखेज है। उनकी कहानियों में इस समय की यातना दर्ज हुई है। उनकी इन बेहद अलग कहानियों पर सुधांशु जी ने डूबकर लिखा है। उन्हें शुक्रिया और साधुवाद।
कवि, कथाकार देवी प्रसाद मिश्र जी के कथा संग्रह ‘कोई है जो’ पर कथा मर्मज्ञ सुधांशु गुप्त जी की लिखी यह गंभीर विवेचना पढ़ना मेरे लिए तब और भी महत्वपूर्ण हो गया है जब यह कहानी संग्रह मेरे हाथ में है।
देवी जी की एक कहानी जो इस संग्रह में है ‘ पिता के मामा के यहां’ मैने पढ़ी थी। उसे याद करते हुए मुझे यह एहसास है कि देवी जी कटु यथार्थ को कहानी में किस तरह बरतते हैं । कहानी यदि वर्षों याद रह गई है तो यह कथ्य और उसके ट्रीटमेंट के शानदार होने के कारण ही। सुधांशु जी ने बाकी की कहानियों के लिए उत्सुकता बढ़ा दी है। पढ़ती हूं। बधाई।