ज्ञानेन्द्रपति
कुछ नयी कविताएँ
याद रखो
बिल्ली ने काट दिया है रास्ता
तो थोड़ी देर रुक जाओ
किसी और को पहले निकल जाने दो
निकले ही हो और किसी ने छींक दिया
तो भी थोड़ी देर रुक जाओ
अशुभ के संकेत पहचानो, बचे रहो मुसीबत से
ऐसे सैकड़ों निर्देश हैं, सब तुम्हारे भले के लिए ही
दिये रखो जगह उन्हें दिमाग में, फालतू दिमाग मत खपाओ
भूल से भी रात को नाखुन मत काटो
नहीं तो कट जायेगा तुम्हारी किस्मत का एक टुकड़ा
याद रखो दिन
मंगल गुरु शनि को केश कतरवाने से बचो
नहीं तो कतरी जायेगी तुम्हारी भाग्यरेखा
खरीदनी हो झाड़ू तो धनतेरस में खरीदो
पितरपख में तो बिलकुल नहीं
याद रखो, दुर्भाग्य अँधेरे में चूहे की तरह बैठा है ताक में
कुतरने को तुम्हारा सुख-सौभाग्य
सावधान रहो, निषेधों का पालन करो
माहवारी के दिनों में मंदिर जाने की सोचो तक नहीं
बेहतर कि रसोई से भी दूर रहो
नियम से चलो, फूलो फलो
पंडितों पुरोहितों बाबाओं पर विश्वास करो
शास्त्र पुराण क्या कहते हैं यह वे ही जानते हैं सही-सही
दक्षिण की ओर माथा कर हरगिज न सोओ, यम की दिशा है
दक्षिणा देने में हाथ खुला रखो
स्कूली पढ़ाई का गुमान मत करो
जहाँ कहा जाये वहाँ मत्था टेको
स्वर्ग जाने की पर्ची अभी ही कटा लो
इहलोक का तो अंत है, परलोक अनंत है
उसकी भी सोचो
इस तरह
सोचने की क्रिया और प्रक्रिया को
मस्तिष्क से बहिष्कृत करने की परियोजना
चल रही है सैकड़ों वर्षों से
सैकड़ों वर्षों से चल रहा है
वैचारिक पालतू बना कर
बुद्धि का वंध्याकरण अभियान
छलिया पूँजी चालित युग में अब उसमें
नये अध्याय जुड़ रहे हैं
संशय संदेह सवाल के होंठों पर
आस्था की जाबी मढ़ने की तकनीक
नये उपकरणों की ताकत से
और भी कारगर है अब
वशीकरण-मंत्रों के पास अधुनातन यंत्रों का जोर है
हर तरफ उत्सवी शोर है
उत्तेजक संगीत का मति को मदमाता ठाठ है
अखण्ड भारत के नक्शे की जिल्द-चढ़ी किताब से
पाखण्ड भारत का सस्वर पाठ है
बौराये दिमागी गुलाम परम्परा के संरक्षक बने फिरते
बखुशी बने जा रहे हैं सर्वग्रासी सत्ता के स्वयंसेवक
धन-धान्य से वंचित-प्रवंचित होते भी
धन्यता-बोध से भरे
झूठे गर्व के बदले सौंपते सर्वस्व
हाल यह कि
नवयुग के मध्य में
लौट आया है
मध्ययुग
पुरानी बाल-कथाओं के
उलटे पैरों वाले भूत-सा
उसके स्वागत-सत्कार में
आयोजनों की धूम मची है
आँखें मिंचती-सी हैं
समझ नहीं आता, यह
हवा में प्रदूषण का कुहासा है या हवन का धुआँ
ऐसे में मैं कहता हूँ
चाहे तुम अभी सुनने की हालत में भी न होओ
डीजे की तेज चीखती धुन पर झूमते,
तुम्हारे कानों के करीब आने की कोशिश करता
कहता हूँ :
याद है तुम्हें
तीस जनवरी, उन्नीस सौ अड़तालीस की वह मनहूस तारीख
जिस दिन, प्रार्थना-सभा में
सत्य के प्रयोग के अभ्यासी विश्वासी
महात्मा गांधी पर दागी गई थीं गोलियाँ
गोडसे के हाथों
और ‘हे राम’ कह वह निर्वैर संत योद्धा
हो गया था ढेर
अहिंसा का व्रती हिंसा से निडर था
अंत-अंत तक निडर
लेकिन स्तब्ध रह गया था देश
विभाजन के लहू से रँगी भी आजादी की जो
थोड़ी-सी खुशी थी
पल-भर में काफूर हो गई थी
जिस उम्मीद का भरोसा था वह सहसा चूर हो गई थी
देश का दिल अब भी ढोता है वह घाव जिसका भरना दूभर
और
देश के इतिहास की वह दूसरी लहूलुहान तारीख भीषण
बीस अगस्त, बीस सौ तेरह
कि जिस दिन
एक उमसीली सुबह, पुणे में
टहलने निकले नरेन्द्र दाभोलकर को
मारी गई थीं गोलियाँ
सिर्फ इसलिए कि अंधश्रद्धा का विरोधी था
वह जन-हितैषी
वैज्ञानिक दृष्टिकोण का पक्षपाती
चमत्कार को दुत्कार
ठगबुद्धि को देता चुनौती
तर्क से तथ्य से
लड़ता असत्य से
साहसी बुद्धिवीर
तोड़ता जनबुद्धि को जकड़ी जंजीर
आह ! अपराध वही
सत्याग्रही होना
ऐसे समय में
जब सत्य की जगह
सश्रद्ध श्रवण के लिए
बाँची जाती है सत्यनारायण की कथा
कि जिसमें भी कहीं नहीं है सत्यनारायण की कथा
जो बाँची गई थी कभी, यदि बाँची गई थी
बस केवल
अनृताचार्यों का मिथ्या माहात्म्य-वर्णन !
चर्वित चर्वण !
दूसरी तरफ
जो सत्य अनाश है, उसका तो
कर दिया गया है सत्यानाश
अर्थ विकृत
छल-बली समय में
सत्य का सत्त हर लिया गया है
ऐसे में
यही कहता हूँ :
याद रखो, याद रखो
उस लम्बे दुर्गम पथ को
जो मनुष्यता का इतिहास है
उसे तय किया है तुमने अपने पुरखों के पाँवों
दुखते पाँवों
अपनी रीढ़ तानी है
माथा उठाया है
हाथों को रचयिता बनाया है
बुद्धि में विवेक को बसाया है
याद रखो, कोशिश करके याद रखो
क्योंकि तुम्हारी याद्दाश्त को मिटाये बगैर तुम्हें
इंसानी शक्लोसूरत वाले जीवित पुतलों में
नहीं बदला जा सकता पूरी तरह
जो उनका अभीष्ट है
और तुम्हारा अनिष्ट
आखिरकार !
छलयुगी पूर्णावतार : एक अपूर्ण कथा
जब तुम अपने को
परमात्मा का दूत या कि पूत बता रहे थे
संचार-माध्यम प्रचार-माध्यम में बदले जा चुके थे
विचारक के वेश में घूमते थे प्रचारक
गुण-कीर्तन करने वाले ही माने जा रहे थे गुणीजन
तुम्हें घोषित किया जा रहा था अवतारी पुरुष
प्रतीक्षित तारणहार
तुम्हारे कृपार्थी दरबारी और लाभार्थी कारोबारी
तुम्हारी स्तुति में लीन थे
स्तुतियों का स्वर इतना ऊँचा, चौतरफ गूँजता
कि सुनाई न दें कराहें
सुनाई न दे हर तरफ से उठता आर्तनाद बहुजनों का
हालाँकि इसमें तो शक नहीं था कि तुममें
देवताओं के कुछ गुण आ चुके थे
तुम्हें पसीना नहीं आता था अब
चारो तरफ से तेज रोशनी में घिरे
तुम परछाईं से मुक्त हो चले थे
तुम्हारे पैरों और धरती के बीच
प्रायः हर वक्त कालीन की एक दरार रहती थी
इन्द्र की ही तरह तुम हो चुके थे सहस्राक्ष
उतने ही कामी और नामी
पुष्प-वर्षा में नहाने के तुम्हारे शौक को पूरा करने में
देश के उद्यानों में खिलने वाले फूल कम पड़ रहे थे
कभी-कभी तो उन्हें परदेश से मँगाना पड़ता था
तुम्हारी दैनिक सज-धज किसी देवता के
वार्षिक शृंगार से कम न थी
अब सब जानते थे कि तुम्हारा हृदय
विलापों से नहीं, स्तुतियों से पसीजता था
इसलिए स्तुतियों की स्रोतस्विनी अविराम बहती रहती थी
तुम्हारे पैर पखारती हुई
तुम्हारा तेज निखारती हुई
लेकिन यह क्या !
भूगर्भ में खलबलाता लावा
अपनी धौंक से
तुम्हारे दमकते चेहरे को
झौंसाना शुरु कर रहा था
सहसा लगने लगा था कल्पांत निकट है, बहुत दूर नहीं
अन्याय के दण्ड पर फहराता तुम्हारा राजध्वज
बदरंग हो गया था अचानक
उसका पानी उतर गया था
भगवा को देर तक अगवा किये रखना
मुमकिन नहीं रह गया था जैसे कि अब और
तुम्हारे मांत्रिकों के वशीकरण-मंत्रों के
उच्चकंठ पाठों को परे करती
समझ सुगबुगाने लगी थी जन-मन में
जनतंत्र को धनतंत्र में बदलने की तुम्हारी योजना का
अधरस्ते दम टूट रहा था
जन-धन के लुटेरों का ठग्गू मुलम्मा छूट रहा था
और यह धनतंत्र
राजतंत्र का नया दौर था
तुम्हें आगे किये, सेंगोल पकड़े
त्रेता और त्राता की सत्ता-लीला रचता
लेकिन मोह-निद्रा से जाग रही जनता
फिर से प्रजा बनने में हिचक रही थी
दृश्य धुंधला था, अपनी आँखें मल रही थी
और
दमन-द्वीप बन चुके देश में
कितने भी दमन को झेलने को तैयार थे आलोचक
मुखर प्रखर आलोचक
उन्हीं के अपने भीतर था पुरखों का वह कोठार
जिसमें सहेजा था साहस अदम्य साहस
हवाएँ आँधियों में बदल कर झिंझोड़ती
उड़ाये दे रही थीं तुम्हारा झलमलाता उत्तरीय
पकड़ से बाहर
मतलबी स्तुतियों के शब्द बिखर रहे थे उधियाते
बेमतलब हुए जा रहे थे
बस एक बालकबुद्धि का स्वर
गूँज रहा था अनवरत :
राजा नंगा है
राजा नंगा है
राजा नंगा है
–प्रतिध्वनियों के आवर्त बनाता
एक बेलौस बेखौफ स्वर.
भेड़िये और भेड़िये और …
कुछ ही दिन बीते
पहाड़ों की तराई के इलाके बहराइच से
भेड़ियों के आतंक की खबरें थीं खून-रँगी
रात-बिरात अगल-बगल के छीजते जंगलों से
गाँव-कस्बे की ओर निकल आते थे
इक्का-दुक्का भेड़िये चोर पाँवों
और औचक किसी बच्चे किसी बूढ़े किसी इकली औरत
को दबोच लेते थे
सामने पड़ने भर की देर में
और हबक लेते थे मांस
कर देते थे लहूलुहान
दूर से तो वे पहचान में भी नहीं आते थे
गाँव के कुत्तों से अलग
वे आदमखोर कहे जाते थे
भुखमरी केवल गाँव-नगरों में ही नहीं फैली थी
दरअस्ल आदमखोरी उनके लिए भुखमरी का आखिरी विकल्प थी
वे लाचार थे
जीना उनके लिए भी जरूरी है आखिर !
दुस्साहसी वैसों के लिए
सरकारबहादुर ने मुकर्रर कर दिये थे निशानेबाज शिकारी
जिन्हें लोकहित में हत्या की छूट थी
वे पकड़े जाते थे, लोहे के पिंजरे में किये जाते थे कैद
वन-विभाग द्वारा जंगलों में दूर छोड़ आने के लिए
या मारे जाते थे
तब इलाका लेता था राहत की एक लम्बी साँस
हालाँकि उनके पकड़े जाने पर लोगों को अफसोस ही होता था
लोग उनकी हत्या के पक्ष में ही रहते थे जियादातर
क्योंकि यह डर भी उन्हें सताता था कि कहीं
वे फिर से न आ जाएँ
उन्होंने देख जो लिया था गाँव का रास्ता
और फिर यह भी था कि अपने खून में लिथड़े उनके शव के
गिर्द भीड़ लगाना रोमांचक था और मजेदार
वे बेशक इसी सजा के हकदार थे
इससे कम कुछ भी नागरिकों के प्रति अन्याय था
यह था सुदृढ़ लोकमत
और अब
उसी बहराइच के इलाके से
आ रही हैं खबरें दिल दहलाती
कि जैसे भेड़ियों के झुण्ड में बदल गये हैं
अधिसंख्य नौजवान बहुसंख्यक नौजवान
तोड़-फोड़ करते
खून-खराबा मचाते
आगजनी करते
घूम रहे हैं झुण्डों में
जलाये दे रहे हैं दुकान-मकान
बरसों की मेहनत से बनाये
किये दे रहे हैं खाक अस्पताल तक अपने क्रोध-ज्वाल में
इलाके के अल्पसंख्यकों पर टूटा है उनका कोप, जिन्हें
वे हिंसक बताते हैं
हिंसा, हाँ हुई है हिंसा, दुखद हिंसा
एक दुर्मति नौजवान की जान गई है
उसकी दिमागी मशीन में भर दी गई थी चाभी
किन्हीं अनदिखते शातिर हाथों, पर जो
वैसे अदृश्य भी नहीं हैं
मति हरने का यह तरीका चुनावी लोकतंत्र में
मत हरने का रास्ता बनाया जा चुका है सफलतापूर्वक
सत्ता की सीढ़ी बना दिये गये हैं धार्मिक आयोजन
जो जितने उपद्रवी हों उतने उत्तम
नहीं तो किसी और के घर में घुस कर
एक रंग का झंडा जब्रिया उतार
दूसरे रंग का झंडा फहरा देना
बुद्धिमानी न भी, बहादुरी जरूर मानी जाये
जुलूस के जोश में पगी
किस शास्ता की सिखावनी है यह
जिसे हम जानते हैं पर पहचान नहीं पाते बहुरूपिये को
कथित धर्म के अधार्मिक वितान में
इस हिंसा-दग्ध बहराइच से
अनतिदूर है श्रावस्ती
रही जो महात्मा बुद्ध की प्रिय रमणस्थली
अपनी चारिकाओं के बीच जहाँ
उन्होंने फिर-फिर बिताये छब्बीस वर्षावासों के चौमासे
बुद्ध–वही
मानवता के ज्ञात इतिहास का महत्तम महाकारुणिक
जिसके यहाँ
आँखों के कोये जैसी उजली अहिंसा
धारे रहती थी आँखों की पुतली की तरह करुणा
जिसमें बिम्बित सिंचित होता था संसार
कि जिसकी चारिकाओं के अमिट चरण-चिह्नों को सहेजे
आज भी पुलकित है धरा
वैदिकी बलि-हिंसा को जिसने टोका रोका
कलिंग-जयी चंडाशोक ने जिसके धम्म के आगे
झुकाया शीश, शरण गही, अपनाया शान्ति-मार्ग
विश्व-शान्ति अभिलाषी
अरे, उसी बहराइच के पड़ोसी श्रावस्ती में कभी
तथागत के चरणों में
खड्ग दूर फेंक अपना दर्पोद्धत माथा टेका था
दस्यु अंगुलिमाल ने
जब जाना था, मानव की हिंसा
दूसरे से पहले खुद को खाती है
हिंसा मानवता की अपमृत्यु है !
श्रावस्ती की ओर से बही आ रही हवा
अपने शीतल करतल में ज्वर-ग्रस्त हाथ गह रही है
बहराइच के उत्तप्त कानों में कुछ कह रही है
भले ही दूर बैठे हों, उसे हम भी सुनें
अपने कान ओड़ कर
अहंकार छोड़ कर.
बृहस्पति उवाच
यदि सच सुनने का साहस है
तो आओ, मेरे सामने बैठो
आँखों में आँखें डाल कर,
आँखें फेर कर तो
कोल्हू के बैल की तरह
घूमते रहोगे गोल-गोल
आजीवन फँसे हुए उसी चक्कर में
उनके मक्कर में
और तुम्हारे जाँगर का तेल
इकट्ठा करते रहेंगे वे अपने पात्रों में
आखिरी बूँद तक
लेकिन नहीं, वहीं तक नहीं
मर कर भी उनसे छुटकारा नहीं
उनसे बचा कर तुमने जो कुछ संचा है
अपने साश्रुनयन परिजनों के लिए
उस पर है उनकी नजर
उन्हें चाहिए पुष्कल दान, भरपूर दक्षिणा,
बहुव्यंजनशाली मृत्यु-भोज
श्राद्ध के नाम पर,
होना तो यह चाहिए
श्रद्धा की जो अमरबेल रोपी है उनने
तुम्हारे मन-मस्तिष्क में
एक बार हिम्मत जुटाओ और उसका श्राद्ध कर दो
सदा के लिए मुक्त हो जाओ
उनके जाल-जंजाल से
सोचो, जिन मंत्रों से
स्वर्गस्थ पितरों तक पहुँचता है कव्य-द्रव्य
पढ़ कर उन्हीं मंत्रों को
प्रवासगामी अपने जन तक पहुँचा तो दो पाथेय
चलो, छोड़ो उतनी दूर
घर में ही ऊपर कोठे पर बैठे किसी बुभुक्षित तक
पहुँचा दो अन्न, कर दो तृप्त
उन मंत्रों से तो जानें
बुझे हुए दीये की बाती को तेल पिलाने से
हो सकता हासिल क्या, सोचो
अरे ! कहाँ है स्वर्ग ?
स्वर्ग का हवामहल
एक ठोस झूठ की तरह
उनकी धूर्तता और तुम्हारी मूर्खता के दो खम्भों पर टिका है
मृत्यु ही है मोक्ष
भस्मीभूत शरीर का कोई पुनरागमन नहीं
क्योंकि आत्मा शरीर में समाहित चैतन्य का नाम है,
उससे अलग कुछ और नहीं
जो उपजता है
क्षिति जल अनिल अनल
इन चार महाभूतों के मेल से स्वभावतः
कि जिससे शरीर बनता है
जिस तरह
किण्वादि के मेल से अन्नादि के खमीर में
मद-शक्ति आ जाती है अनायास
बनते शरीर में उपजता है चैतन्य
जो विघटित शरीर के साथ
महाभूतों में लौट जाता है अंततः
हाँ, चार महाभूत
उनमें आकाश नहीं
आकाश को यहाँ किसने देखा है
प्रत्यक्ष पर विश्वास करो
वही ज्ञान का विश्वसनीय साधन है
अनुमान उपमान आप्त-वचन—इनमें कोई भरोसेमंद नहीं
जिसमें छल-छंद नहीं
कागद की लेखी नहीं, आँखिन देखी
है सच का स्रोत
स्तोत्र मिथ्याभाषी हो सकते हैं
मिथ्यामूर्तियों के रचे
वे मिथ्यामूर्ति ही तो हैं
बुद्धि-पौरुष से हीन
जीविका के लिए भले भोले जनों को ठगने में प्रवीण
अग्निहोत्र, दण्ड, भस्म-लेप से बनाये बानक
सहज विश्वासियों को दबोच लेते अचानक
और चूसते मूसते
उदर-पोषण के लिए, बुद्धि में सेंध लगा
पुरुषार्थियों का करते निरंतर शोषण
उन्हीं में मांसाहार-लोलुप निशाचरी वृत्ति-प्रवृत्ति वाले
यज्ञ में करते बलि का विधान
निहत पशु स्वर्ग पहुँचता तो
निज पिता की बलि क्यों न देता यजमान
सचेत होओ, उनकी जर्भरीतुर्फरी पर न दो कान
जगाओ यथार्थ-ज्ञान !
जाते-जाते सुनो
यह चारु वाक् हो या मिथ्या-माया का चर्वण
लोकायत तो इसे होना ही चाहिए,
पहुँचना चाहिए सब तक
इसे मति में गाँठ बाँध सहेज रखो
स्वयं को सत्य से सतेज रखो
क्योंकि वे हैं ऐसे छलिया
कि अनेक यज्ञों से देवत्व पा
इन्द्र-पद पाने का दावा करने वाले
देवेन्द्र सहित समस्त देवों का
देव-गुरु न घोषित कर दें मुझे कभी
मरने के बाद
मारने के लिए
उन देवों का गुरु
जिनका हाल है इतना बुरा
कि जो शमी आदि के काष्ठ-धूम-भोजी बन जीवित
पत्ते खाने वाले पशुओं से भी बदतर
हाँ, बेशक दूसरों का श्रम-फल हड़पने में तत्पर
वे दानव हों या मानव,
वे ऐसा कहें, रच दें कथाएँ
तब तुम उन पर विश्वास न करना
मुझको अपने पास ही रखना
भीतर के भी भीतर .
______
ज्ञानेन्द्रपति जन्म 1 जनवरी, 1950 को झारखंड के एक गाँव पथरगामा के किसान परिवार में. उच्च शिक्षा पटना में हुई. इस दौरान छात्र-राजनीति और जन-संघर्षों में गहरी सक्रियता रही. बिहार सरकार में लगभग एक दशक अधिकारी के रूप में कार्य करने के उपरांत नौकरी को नकार बनारसी हो गए. तब से जीवन और समय लेखन को समर्पित है. शतरंज और यायावरी से लगाव, विचार में दृढ़ता और स्वभाव में नम्रता, समानता के पक्षघर, जीवन-वैविध्य के आकांक्षी, हृदय की आर्द्रता और उष्णता से संपन्न ज्ञानेन्द्रपति संवाद-विश्वासी हैं. प्रमुख प्रकाशित कृतियों : ‘आँख हाथ बनते हुए’, ‘शब्द लिखने के लिए ही यह कागज बना हे’, ‘गंगातट’, ‘संशयात्मा’, ‘मिनसार’, ‘कवि ने कहा’, ‘मनु को बनाती मनई’, ‘गंगा-बीतीः गंगू तेली की जवानी’, ‘कविता भविता’, प्रतिनिधि कविताएँ, प्रकृति और कृति (ई-बुक) (कविता-संग्रह); ‘एकचक्रानगरी’ (काव्य-नाटक); ‘पढ़ते-गढ़ते’ (कथेतर गय) . ‘संशयात्मा’ के लिए ज्ञानेन्द्रपति को वर्ष 2006 का ‘साहित्य अकादेमी पुरस्कार’ प्रदान किया गया. समग्र लेखन के लिए उन्हें पहन सम्मान’, आदि मिले हैं. |
कितना समकालीन और कितना विदग्ध। ज्ञानेंद्रपति की कविताएं एक सावधान पाठक की मांग करती हैं, जहां आपको ठहरना होता है, उन्हीं कविताओं से ऊर्जा लेते हुए जिसे आप पढ़ रहे हैं। मैंने हमेशा उन्हें उनकी कविताओं के आवर्त में ही पढ़ा है। एक गहरी आवृत्ति और पिछली कविताओं के संदर्भ में ही इन कविताओं को पढ़ा जा सकता है। ये कविताएं बिल्कुल एक रैखिक नहीं बल्कि कई आयामों को अपने भीतर समेटती हैं। कभी अपनी कविता में गांधी और मार्क्स को करुणा की जुड़वा संतानें कहने वाले ज्ञानेंद्रपति इन कविताओं में बुद्ध और गांधी के साथ दाभोलकर को रखते हुए उसी करुणा के पक्ष में खड़े हैं जो जन मन वेदना की जमीन पर खड़ी हैं। इन कविताओं की प्रस्तुति के लिए समालोचन को साधुवाद।
सचमुच छलयुग की कविताएं जिनमें अपने समय की सांस्कृतिक विरूपताओं और कुरूपताओं को बखूबी
पहचाना चीन्हा जा सकता है।
अद्भुत! इन कविताओं से गुजरना एक विरल अनुभव है।
ज्ञानेंद्र पति की कविताएं जिस तरह अपने समय की बेचैनी को रेखांकित करती हैं, वह दुर्लभ है । उन्हें बहुत बहुत बधाई ।
अपने दौर के भयावह सत्य से साक्षात्कार करातीं कविताएं जो सत्ता और सनातनी पाखंड को चीर कर रख देती हैं। अंधविश्वास से सचेत करतीं ये कविताएं प्रत्यक्ष को प्रमाण मानने का सूत्र थमाती हैं और बुद्ध की उस अपनी महान परंपरा को देखने और उससे सीखने को प्रेरित करती हैं जो आज बेहद मौजूं हैं। समाज में निरंतर बढ़ते अंधविश्वास, सांप्रदायिकता और हकमारी और ज्ञानहारी की प्रवृत्तियों पर कवि ने ज़बरदस्त चोट की है। ज्ञानेन्द्रपति शब्दों को बरतने के मामले में जादूगर हैं। उनका यह जादू इन कविताओं में भी दिखता है।
केशव तिवारी
इन कविताओं को पढ़ कर बहुत जल्दी उबरना संभव नहीं है l कवि की दृष्टि कितनी गहरी और ब्यापक है l एक पूरा समकाल उसकी नज़र में है l
आज और अब का भयावह और तिक्त छद्म उजागर करती ज्ञानेंद्र जी की ये कविताएँ उन तमाम
कारकों का जायज़ा लेती हैं जो इस सबके लिए उत्तरदायी हैं।
पहले की कविताओं के स्वभाव से अलग सामयिक हालात को लेकर वर्तमान से परिचित कराते हैं ज्ञानेंद्रपति जी।
संजीव बख्शी
ज्ञानेंद्रपति से विषयों की प्रासंगिकता, दृष्टि और भाषा को लेकर
बहुत कुछ सीखा जा सकता है। बहुत बधाई।
ज्ञानेन्द्रपति जी की कविताएं पढ़ीं । यह ‘चारु वाक’ है आज का। इसमें कवि के एक नये प्रस्थान बिन्दु का संकेत भी है। परम्पराओं में समय की गतिकी की झंकार विन्यस्त करने वाला कवि समय में परम्पराओं को टांकने की ओर बढ़ गया है। यह वर्तमान में पुकारते इतिहास की आवाज है। जन-जन समझ चुका है कि भगवा, धर्म और गतिसील परम्पराओं को जड़ हथियार बनाकर मत बदलने और मत हरने वालों का समय जा रहा है लेकिन कवि अपनी चिंता छिपाता नहीं कि केवल इसलिए तंद्रा में जाने की जरूरत नहीं कि भेड़िये जा चुके हैं। जिनके मुंह गांव- गरीब का रक्त लग गया है, वे फिर लौट सकते हैं। इसलिए सावधानी हमेशा बनाये रखनी होगी। ज्ञानेन्द्रपति जी गंगा के घाटों और बनारस की गलियों से होते हुए उन इलाकों की ओर जाते दिखायी पड़ रहे हैं, जहां गंगा मां के नाम पर छल पसरा हुआ है, जहां ढुबकियां लगाकर अपनी धर्मप्रियता का छद्म करने वाले एक तानाशाह की मनमानियों के छाले लोगों की पीठ पर उभरे हैं, जहां सद्भाव,शांति और साझी विरासत को रौंदते बढ़ते भगवा रथ के पहियों के दर्दनाक निशान है। इन कविताओं में आज की कथा है, आज की कथा का मूढ़ खलनायक है, उसके खूंरेज सिपहसालार हैं लेकिन उनसे दो- दो हाथ करने का संकल्प भी है, उनको पराजित करने के रास्ते भी हैं । ज्ञानेन्द्रपति जी की कविताएं बहुत छिपाने में विश्वास नहीं करती, वे जिस बीहड़ में उतरती हैं, उसका कोना-कोना छान मारती हैं ताकि पाठक को उन्हें डिकोड करने की बहुत जहमत न उठानी पड़े। इसीलिए उनकी कविताओं में सार्थक विस्तार देखा जा सकता है। इनमें भी हैं । यह विस्तार भटकने से रोकता है और बांधे रहता हैं । इन्हें प्रकाशित करने के लिए समालोचन को धन्यवाद।
लेकिन तब फिर डॉ eben alexander और j f newton जैसे neurophysician ,hypnotherapist और शोधार्थियों की पुस्तकें जैसे destiny of souls, journey of souls and proof of heaven का कोई अर्थ नहीं रह जाता।
ये बातें उतनी ही गूढ़ हैं जितनी मृत्यु स्वयं। मृत्यु की परिभाषा क्या है यही नहीं तय हो सका। ये सभी organ systems का failure मात्र है या कुछ ऐसा जो शरीर को छोड़कर निकल जाता है!
इस पर कुछ कहना संभव नहीं क्योंकि मरने के बाद कोई अनुभव बताने नहीं आता। स्वर्ग के हवामहल सत्य हों न हों, मृत्यु के बाद की यात्रा पर बड़ा असमंजस है और ये यूँ ही नहीं है इसके चौंका देने वाले साक्ष्य उपलब्ध हैं जिनसे विज्ञान भी विस्मित है।
मैं अपने प्रिय कवि से सहमत नहीं हूँ किन्तु इस अद्भुत रचना के लिये उनका चरण-स्पर्श करता हूँ। कितना तनाव, कितनी व्याकुलता, कितना तो हठ है इन पंक्तियों में कि तुम जो भी हो, जैसे भी हो, जहाँ भी हो, यही है और अभी यही है।
मैं अपने अग्रज कवि को प्रणाम भेजता हूँ।
मानव की हिंसा
दूसरे से पहले खुद को खाती है
हिंसा मानवता की अपमृत्यु है !
मुझे ज्ञानेंद्रपति की कविता बहुत आकर्षित करती रही है. अभी भी बड़े चाव और तन्मयता से मैंने इन कविताओं को पढ़ा.
उनसे नहीं, लेकिन ख़ुद सहित मेरा बहुत से कवियों से एक प्रश्न पूछने का मन होता है.
वह प्रश्न है विधा का चुनाव.
कभी कभी मुझे लगता है कि कवि को वक़्तन-बेवक़्तन यह प्रश्न ज़रूर पूछना चाहिए कि उसे कुछ विशेष लिखने के लिए, जिसकी विषय वस्तु ऐसी है जिसे आप दम साधे पढ़े बिना नहीं रह सकते… उस *विशेष * को कवि किस विधा में रचे.
मुझे इन कविताओं में अंतरदृष्टि का बाहुल्य याद रहेगा. वह यात्रा भी जिससे गुज़र कर वह अंतरदृष्टि अर्जित हुई है.
ज्ञानेन्द्र के गंगातट पर खड़े होकर अपनी सांस्कृतिक परछाइयाँ देखी जा सकती हैं। कबीर ने आध्यात्मिक अनुभव के स्वीकार और धार्मिक पाखंड के निषेध का मार्ग चुना था। सत्य को अपदस्थ करती सत्यनारायण की कथा उनके तार्किक प्रहार का निमित्त बनती है। लगभग उसी कबीरी ठाट में मंत्र भाषा में ज्ञानेन्द्र पति परम्परा में धंस कर बुद्धि के बन्ध्याकरण की परियोजना का पर्दाफाश करते हैं। नवयुग के मध्य में लौट आए मध्ययुग को उल्टे पांव वाले भूत के रूप में देखते हैं। अतीत गामी और प्रतिगामी प्रवृत्ति के वशीकरण मंत्र को अधुनातन यंत्र का बल मिल गया है। जीवन लीला को शब्द – क्रीड़ा में परावर्तित करने वाले ज्ञानेन्द्र पति ध्वनि – संघात की समस्वरता के माध्यम से जीवनानुभव के अनुलोम – विलोम की प्राणायामी साधना करते हुए गहरी अर्थ – व्यंजना छोड़ जाते हैं। शब्द – संव्यूहन और भाषा का बौद्धिक विन्यास चमत्कार मूलक है। भाषा का अर्थ – गाम्भीर्य समृद्ध सांस्कृतिक अनुभव का संकेतक है। वे निराला से आगे की कविता लिखते हैं। निराला मोक्ष के बजाय पुनर्जन्म की मांग करते हैं और ज्ञानेन्द्र पुनर्जन्म को ही नकार देते हैं। बुद्ध ने ईश्वर को नकार दिया था। परम्परा ने उन्हें ही ईश्वर का अवतार घोषित कर दिया, जिसका भय ज्ञानेन्द्र पति को भी है। सन्दर्भ – बहुलता और मिथकीय अन्विति उनके विराट अध्ययन का सूचक है। किन्तु चारु वाक् या प्रेय की जगह कठोपनिषद् श्रेय का प्रस्ताव पारित करता है। पुराणों में भी कथा – सत्य की जगह कथ्य – सत्य का अन्वेषण ही वांछित है। अनाश सत्य का सत्यानाश कैसे सम्भव है? ज्ञानेन्द्र पति के ‘संशयात्मा’ का आत्मान्वेषण मैंने कभी “नया ज्ञानोदय” में किया था — समालोचक के रूप में।