अरुण कमल |
१९५९ में पहली बार प्रकाशित जनार्दन मिश्र की ‘भारतीय प्रतीक विद्या’ अब जाकर पढ़ी. मुझे लगता है जिस साल आप किसी किताब को पढ़ते हैं आपके लिए वही उसका प्रकाशन वर्ष है. यह किताब अपने जीवन को समझने के लिए बेहद ज़रूरी है. हमारा सारा जीवन प्रतीकों से घिरा है जिनका आरम्भ गुहावासी आदिम मनुष्य के भित्ति-अंकनों से होता है.
साल के शुरू में एक महत्वपूर्ण पुस्तक पढ़ने का सुयोग मिला- तुलसीदास की सादृश्यगर्भ उक्तियों का सौन्दर्य. इसे सियाराम तिवारी ने लिखा. (अभी-अभी खबर मिली कि वे नहीं रहे. मेरा प्रणाम.) यह एक अद्भुत किताब है जो कवि-कर्म को समझने के लिए ज़रूरी है. विनय विश्वास और माधव हाड़ा की किताबें भी तुलसी काव्य को समझने में मदद करती हैं.
दूसरी किताब शंभुनाथ की ‘हिन्दू मिथक’ है जो मिथकों के लौकिक चरित्र को रेखांकित करती है. और तीसरी किताब वागीश शुक्ल की ‘आहोपुरुषिका‘ है जो दाम्पत्य प्रेम की अनूठी कविता है जिसके स्त्रोत वेदों में और लोकाचार में हैं. ये तीनों ही पुस्तकें प्रतीक, मिथक और संस्कृति को जानने समझने तथा कूपमण्डूकों और उन्मादियों से उनकी रक्षा के लिए मुझे बहुत जरूरी जान पड़ीं. कर्मेन्दु शिशिर की ‘भारतीय मुसलमान’ भी इसीलिए मुझे महत्वपूर्ण लगी कि यहाँ अपने समाज को नये तरीक़े से देखने की दृष्टि मिलती है.
फिर से ‘पंचतंत्र’ को पढ़ना (अनुवादः कृष्णदत्त शर्मा) कुआँ उड़ाहने जैसा अनुभव लगा. पंचतंत्र की शुरुआत में कहा गया है- “संसार में ऐसी कोई वस्तु नहीं जो धन से प्राप्त न की जा सके…जिसके पास धन है वहीं संसार में मनुष्य कहलाता है.”
इसमें एक पंक्ति आती है- “सूर्योदय, पान, महाभारत की कथा, पेय, पत्नी और सच्चा मित्र- ये सब नित्य अपूर्व सुख देने वाले होते हैं. इसमें पंचतंत्र को भी जोड़ रहा हूँ.
रज़ा की ‘मुख्तसर मेरी कहानी’ तो एक बहुत बड़ा ख़ज़ाना है जिसकी हर पंक्ति लाल-ओ-गुहर है. रज़ा दो कविताएँ देते हैं- “छैतहिं तै उपजे संसारा” (कबीर) और “मैं कब्र हूँ या ख़ज़ाना यह वो तै करता है जो यहाँ से गुजरता है” (पॉल वेलरी.)
‘नामवर के नोट्स‘ नामवर जी के वे लेख हैं जो उन्होंने कक्षा में पढ़ाते हुए कहे जिन्हें शैलेश कुमार, मधुप और नीलम सिंह ने सहेजे. ये विलक्षण लेख हैं भारतीय काव्यशास्त्र को समझने के लिए. सारा सवाल तो यही है, अच्छी कविता को कैसे पहचानें?
इसी के साथ अशोक वाजपेयी की आलोचना पढ़ते हुए लगा कि पिछली आधी शताब्दी के काव्य और कवि-व्यवहार के आकलन के लिए इनको ध्यान में रखना अपरिहार्य है.
मुक्तिबोध की जीवनी (‘मैं अधूरी दीर्घ कविता’, जय प्रकाश) जीवनी लेखन में एक प्रतिमान है. यह मुक्तिबोध के साथ ही उस पूरे काल खंड की भी विस्तृत जीवनी है. किसानों पर जिन दो विशेषांकों को पढ़ा (देशजः अरुण शीतांश; अभिनव कदम, जयप्रकाश धूमकेतु) उनमें अभिनव कदम का दस्तावेज़ी पहला खंड अत्यंत महत्वपूर्ण और संग्रहणीय है. इन्हीं के साथ तुकडो जी महाराज की ‘ग्रामगीता’ भी पढ़ी जहाँ वे कहते हैं कि मुझे नास्तिक भी स्वीकार है अगर वह ग़रीबों का हितू है.
साल की शुरुआत सुभाष राय द्वारा प्रस्तुत अक्क महादेवी के वचनों से की जो शायद पहली बार हिन्दी में आए हैं. इस साल कुछ महत्वपूर्ण कविता संग्रह भी पढ़े जिनमें सविता सिंह , विष्णु नागर, आशीष त्रिपाठी, विनोद दास, स्वप्निल श्रीवास्तव, हरीशचन्द्र पांडे, नवल शुक्ल, विनय कुमार, आशुतोष दुबे तथा अम्बर पाण्डेय, आलोक वर्मा, विनय सौरभ, श्रीप्रकाश शुक्ल, अनिल विभाकर नरेश अग्रवाल की नयी किताबें शामिल हैं. माधव कौशिक की ग़ज़लों का चयन भी आकर्षक है.
सविता सिंह की कविता पुस्तक “वासना एक नदी का नाम है” भर्तृहरि का स्मरण कराती हुई अनेक दैहिक, जैविक और सामाजिक संस्मरणों का अद्भुत रसायन निर्मित करती है जिसकी भाषा में तनी हुई प्रत्यंचा की टंकार है जबकि विष्णु नागर अपने रुग्ण और हिंस्त्र समय की साहसिक व्याख्या करते हुए प्रतिरोध का नया मुहावरा रचते हैं
और एक भूख बढ़ाने वाली किताब भी पढ़ी— ‘सतरंगी दस्तरख़ान’—लाजवाब! इसकी एक पंक्ति दे रहा हूँ- “मैं जो कुछ लिख रहा हूँ वह ग़लत हो सकता है क्योंकि महाबली भीम भी युद्ध में पराजित हो गए थे” (आशुतोष भारद्वाज)
वीरेन्द्र यादव |
इस वर्ष मेरे द्वारा पढ़ी गयी पुस्तकों में कथात्मक पुस्तकों की तुलना में वैचारिक पुस्तकों की संख्या अधिक रही है. इनका विस्तार साहित्य , समाजशास्त्र से लेकर इतिहास तक है. यह अच्छा है कि इन दिनों हिंदी में गैर-कथात्मक वैचारिक लेखन की पुस्तकों के प्रति आकर्षण बढ़ा है.
1- शिवमूर्ति का उपन्यास ‘अगम बहै दरियाव’ (राजकमल प्रकाशन) पढ़ी गई कथा-साहित्य में मेरी पहली पसंद है. उत्तर भारत विशेषकर अवध के बदलते गांव के कृषि जीवन में आये बदलावों, राजनीति का बदलता स्वरूप और अवध की संस्कृति अपनी समग्रता में इस उपन्यास में दर्ज़ हुई है. आपातकाल लेकर उदारवादी आर्थिक नीति व धर्म की राजनीति का विस्तार लिये यह उपन्यास लगभग चार सदी का विस्तार लिए हुए है. आज के जनतांत्रिक समय में सवर्ण सामंती तत्वों ने अदालत, पुलिस ,पंचायत आदि संस्थाओं का इस्तेमाल कर किस तरह अपने वर्चस्व को बनाए रखा है ,इसको कथात्मक बनाते हुए लेखक ने प्रतिरोध के स्वरों एवं बदलते राजनीतिक परिदृश्य को भी दर्ज़ किया है. उपन्यास की सबसे बड़ी विशेषता इसकी जन पक्षधर जीवन दृष्टि है. हशिये के समाज के पक्ष में ग्रामीण जीवन पर केंद्रित इस दौर का यह महत्वपूर्ण उपन्यास है.
2- मराठी के प्रख्यात दलित रचनाकार और संस्कृतिकर्मी अन्ना भाऊ साठे के उपन्यास ‘फकीरा’ (सेतु प्रकशन) का मराठी से हिंदी अनुवाद दलित जीवन की संघर्षगाथा और प्रतिरोध का प्रामाणिक आख्यान है. यह 1959 में तब लिखा गया था जब न तो दलित पैंथर की आमद थी और न ही दलित साहित्य की. वामपंथी राजनीति और वैचारिकी में रचे-पगे अन्ना भाऊ साठे रूस में इतने लोकप्रिय थे कि वहाँ उनकी प्रतिमा लगी हुई है. इस उपन्यास के माध्यम से हिंदी पाठकों को उनके प्रतिब्द्ध रचनाकर्म की एक बानगी मिलेगी.
3- पाकिस्तानी लेखिका खदीजा मस्तूर के उर्दू उपन्यास ‘आँगन’ (सेतु प्रकाशन) का इसी शीर्षक से हिंदी अनुवाद एक बहुप्रतीक्षित जरूरी पुस्तक है. अंग्रेजी अनुवाद में पढ़े जाने के बावजूद इसका हिंदी रुपांतर उर्दू की चासनी में जिस तरह घुलमिल कर प्रस्तुत हुआ है ,वह इसे अतिरिक्त पठनीयता प्रदान करता है. सीधे सीधे विभाजन पर केंद्रित न होकर भी विभाजन के पूर्व भारत के एक मुस्लिम परिवार की जीवनचर्या और स्त्रीजीवन को कथात्मकता प्रदान करते हुए यह विभाजन की मानसिकता को समझने में मददगार है. यह उपन्यास ‘पर्सनल इज पोलिटिकल’ का बेहतरीन उदाहरण है.
4- आनंद तेलतुम्बडे द्वारा अंग्रेजी में लिखित ‘ICONOCLAST- A Reflective Biography of Dr.Babasaheb Ambedkar’ (पेंगुइन-वाइकिंग) डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर की चिंतनपरक वृहत जीवनी है. 676 पृष्ठों का विस्तार लिये यह जीवनी विशिष्ट और महत्वपूर्ण इसलिए है कि यह आंबेडकर की गौरवगाथा न होकर उनकी वैचारिकी और दर्शन की पड़ताल करते हुए, उनकी निर्मिति और अवदान को समझने का एक उत्कृष्ट बौद्धिक प्रयास है. बौद्धिक साहस व निस्संगता के बिना इसे संभव नहीं किया जा सकता था. दुर्लभ विवरणों और दस्तावेज़ों से समृद्ध यह पुस्तक बाबा साहेब आंबेडकर की व्याख्या के नये गवाक्ष खोलती है. गंभीर अध्ययन की मांग करती यह जीवनी आम्बेडकर साहित्य के जिज्ञासुओं के लिये एक उपहार सरीखी है ,इसे जरूर पढ़ा जाना चहिए.
5-सलमान रुश्दी की अंग्रेजी पुस्तक ‘KNIFE’ नाइफ (पेंगुइन) इस वर्ष की मेरी पसंद की पुस्तकों में इसलिए शामिल है क्योंकि प्राणघातक हमले में अपनी एक आँख गवाने के बाद रुश्दी ने जिस निस्पृह विश्लेषणपरकता के साथ इसे नान-फिक्टिव बनाया है, वह लेखन के प्रति उनके समर्पण व जोखिम उठाने की साहसिकता का परिचायक है. अपने जीवन के कुछ वैयक्तिक प्रसंगों को भी रुश्दी ने इस पुस्तक में शामिल किया है.
6–‘ईस्ट ऑफ़ डेल्ही’ East of Delhi (आक्स्फोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस) फ्रेंचेस्का ओर्सिनी की अंग्रेजी में लिखित नई किताब है, जिसमें उन्होंने उत्तर भारतीय हिंदी क्षेत्र के साहित्य व संस्कृति को स्थानिक बहुभाषीपर्तों के गहन अध्ययन द्वारा विश्लेषित किया है. ‘हिंदी पब्लिक स्फेयर’ के बाद ओर्सिनी का यह एक महत्वपूर्ण अवदान है. कहना न होगा कि देशज भूमि को खंगालते हुए उन्होंने जिस नयी विषय-वस्तु का संधान किया है वह हिंदी बौद्धिकों के लिए एक चुनौती सरीखा है. अभी यह पुस्तक हिंदी बौद्धिक समाज के बीच अचर्चित है, इस पर ध्यान जाना चाहिए.
7 ‘दि शूद्रा रेबेलियन’ The Shudra Rebellion ( साउथ साईड बुक्स) कांचा इल्लय्या शेफर्ड के अंग्रेजी में लिखे गये लेखों का नवीनतम संग्रह है. इसमें उन्होंने देश के श्रमशील उत्पादकवर्गों को नया सांस्कृतिक-ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य प्रदान किया है. यह पुस्तक भारतीय सभ्यता को शूद्र कृषि सभ्यता के रूप में अध्ययन का प्रस्ताव रखती है. सबाल्टर्न चिंतन का विस्तार करते हुए यह नई आवयविक बौद्धिक दृष्टि भी है.
8- ‘भारतीय चिंतन की बहुजन परंपरा’ (सेतु प्रकाशन) ओमप्रकाश कश्यप द्वारा लिखित एक जरूरी पुस्तक इसलिये है कि यह भारतीय चिंतन की उस वैकल्पिक परंपरा को चिन्हित करती है जो अभिजन के बरक्स बहुजन के भौतिकतावादी दर्शन पर आधारित है. यह धर्म ,ब्राह्मणवाद और वर्णाश्रमी व्यवस्था को समस्याग्रस्त करते हुए श्रमशील समाज के पक्ष में सप्रमाण बहस सरीखी है. वर्तमान संदर्भों में जब वर्चस्वशाली चिंतन के बरक्स एक सुसंगत वैकल्पिक सोच की जरूरत दरपेश है, तब यह पुस्तक एक बहुप्रतीक्षित दस्तावेज़ी महत्व की कृति है.
9-‘जिन्ना’ पर पाकिस्तानी लेखक इश्तियाक अहमद की अंग्रेजी में लिखित बहुचर्चित पुस्तक ‘Jinnah: His Successes, Failures and Role in History’ का ‘जिन्ना-उनकी सफलताएँ, विफलताएँ और इतिहास में भूमिका’ (सेतु प्रकाशन) शीर्षक से हिंदी अनुवाद हिंदी पाठकों के लिए एक बडा उपहार है. यह पुस्तक जिन्ना को समझने की नई अंतर्दृष्टि प्रदान करने के साथ साथ भारत-विभाजन की राजनीति पर नया नज़रिया भी पेश करती है. पाकिस्तान में खासी विवादित रही इस पुस्तक की हिंदी में उपलब्धता गंभीर पाठकों के लिये रोचक है.
10- ‘दिगम्बर विद्रोहिणी अक्क महादेवी’ (सेतु प्रकाशन) सुभाष राय द्वारा कन्नड़ की बारहवीं शताब्दी की संत वचनकार और अद्वितीय कवि अक्क महादेवी की निर्मिति, अवदान और उनके द्वारा लिखी गई कविताओं पर आधारित पुस्तक है. कन्नड़,अंग्रेजी व अन्य भारतीय भाषाओं में वीर शैव परंपरा की इस विद्रोहिणी संत कवि पर पर्याप्त ध्यान दिया गया है, लेकिन हिंदी पाठकों का उनके प्रति ध्यानाकर्षण इस पुस्तक के ही माध्यम से हुआ है. अक्क महादेवी के व्यक्तित्व व कृतित्व के साथ साथ इस पुस्तक में भक्ति आंदोलन के इतिहास और उन आंदोलनों में स्त्री सहभागिता की भी पड़ताल की गई है. इस पुस्तक को उत्तर-द्क्षिण के बीच एक संवाद के रूप में भी ग्रहण किया जा सकता है.
कुमार अम्बुज |
2024 में भी अनेक ऐसी किताबों से गुज़रना हुआ, जो इस साल प्रकाशित नहीं हुईं थीं. किताबें अपनी बारी की प्रतीक्षा करती रहती हैं और प्रकाशन वर्ष के अनुसरण में नहीं पढ़ी जातीं. जैसे मैं भी उनकी प्रतीक्षा करता हूँ. सोचता हुआ कि देखो कब और किस दिन मुझे उनका सानिध्य मिले. अकसर वर्षों पहले पढ़ी किताबें भी दुबारा पढ़ता हूँ. इस तरह साल में औसतन पच्चीस-तीस पुस्तकें ही पूरी तरह पढ़ पाता हूँ. बाक़ी पुस्तकों को इधर-उधर से, आधा अधूरा ही उलटना-पलटना हो पाता है. मेरा इतना ही सामर्थ्य है. फिलहाल उनमें से जो उल्लेखनीय लग रही हैं-
हो-चि का कु-चि/सुरेंद्र मनन
सफरनामे अधिक सुंदर हो जाते हैं जब वे मनुष्य की यातनाओं और संघर्ष की कथाएँ कहने लगते हैं. जैसे वियतनाम में यह कु-चि का जंगल है. यहाँ देश की जनता द्वारा अपनी भूमि, अपने स्वाभिमान को बचाने का इतिहास भूमिगत है. यह रेखांकित करता है कि जनता यदि प्रतिरोध पर उतर आए तो कोई महाशक्ति भी किसी देश को गुलाम नहीं बना सकती. तुम हमें हमारी जमीन पर घेर लोगे, फिर आकाश से भी आक्रमण करोगे तो हम आत्मसर्पण नहीं करेंगे. सुरंगें खोदकर वैकल्पिक रणक्षेत्र बना लेंगे और वहाँ से लड़ेंगे. हम बच्चे, वृद्ध, बीमार और जर्जर हैं तो क्या हुआ, हम लड़ेंगे. हमारे जंगल भी तुमसे लड़ेंगे. नदी, घास, पहाड़, हमारे रास्तों की धूल भी तुमसे लड़ेगी.
यहाँ याद आ सकता है कि साम्राज्यवादी सभ्यता के विकास का एक दुखद ध्येय यह भी रहा है कि कम से कम समय में अधिकतम मनुष्यों को कैसे मारा जा सके. कालका-शिमला के बीच दिग्शाई की सुरम्य घाटी में भयावह जेल की कोठरियाँ का एक ही लक्ष्य था कि असहमत या स्वतंत्रचेता इनसान को नष्ट कर दिया जाए. नाथु-ला दर्रे पर पता चलता है कि दो देशों के बीच सीमा रेखा उस तरह नहीं खींची जा सकती जैसे नक्शों पर. एक ‘नो मैंस लैंड’ हमेशा वहाँ पूछेगी कि धरती के किसी भी हिस्से पर पाँव रखकर कोई कैसे कह सकता है कि यह ज़मीन केवल उसकी है.
एथेंस के खंडहर मनुष्य के एकांत और अकेलेपन में अंतर और क्षणभंगुरता का खयाल दिलाएँगे. आर्मीनिया में अरारत पर्वत के सामने जाकर आप जातिसंहार की समस्या से बरी नहीं हो सकते. रचनाकार विलियम सेरोयान की पंक्तियाँ हैं- ‘जब कोई दो जन, इस संसार में कहीं मिलें, तो देखो कहीं वे बसा न लें, एक नया आर्मेनिया. ‘स्लोवाकिया हो या थाईलैंड के विवरण, पाठक जान ही लेगा कि अजायबघरों में हमारे ही लज्जाजनक कारनामों का संग्रह है. ये सृजनात्मक यात्रा संस्मरण दृष्टिसंपन्न हैं. समाज, प्रकृति से संलग्न और चिंतित. प्रेमिल क्षणों से सिंचित. इनकी ताकत सवाल करने में है. महज पर्यटक की तरह नहीं, सजग इंसान की तरह. यहाँ से गुज़रते हुए एक सड़क, एक गली, एक इमारत या एक दीवार भी किसी शहर, देश और पिछले वक्त को समक्ष कर देगी.
समग्र कविताएँ/विष्णु खरे
ये कविताएँ उत्सुकताओं, निश्चयों, संशयों, मिथकों, कामनाओं की अपूर्व कविताएँ हैं. ब्रह्मांड, इतिहास, भविष्य, गोचर-अगोचर, काम-क्रोध-मद-लोभ-ईर्ष्या सहित पंचतत्वों के बड़े दायरे में फैली हैं. लेकिन सब कुछ का लौकिक संस्करण निर्मित करती हैं. अनुभवों को ज्ञानात्मकता और परंपराबोध के साथ रखते हुए. ये असंवेदनशीलता की राख कुरेदकर भीतर दबी चिंगारियाँ सामने ले आती हैं. ये व्यक्ति को आज्ञापालक प्रजा से सचेत नागरिक बन जाने के उपक्रम में शामिल हैं. ये विडंबना, अंतर्विरोध और कटाक्ष को एक ‘खटके’ में बदल देती हैं. याद दिलाती हैं कि सत्य केवल यह जानना चाहता है कि उसके पीछे कोई कितनी दूर तक भटक सकता है.
जैसे यह संचयन एक रेल है जिसमें बैठकर महादेश में वंचितों, शोषितों और अभावों की लंबी झाँकी का दर्शन कर सकते हैं. श्रमशील जीवन की तीर्थयात्रा. नये अर्थ, मार्मिक व्याख्या. अब आप चाहें तो ग़रीबों, मजदूरों की दशा पर फिर से विचार कर सकते है. और इनमें स्त्रियाँ हैं, अपने ही घरों, चौराहों, गलियों में अपमानित. बदनाम. मारी-कूटी और जलाई जा रही हैं. अपराध-बोध से भरी गृहस्थियाँ हैं. विधवाओं, बदनाम औरतों, उपेक्षित बेटियों की पीड़ाओं का संज्ञान है. और यह चिंता कि धार्मिक नारों को नमस्कार में बदला जा रहा है. तब शायद देवभाषा को गूँगों की गों-गों में बेहतर समझा जा सकता है. सिर पर मैला ढोने की प्रथा समाज में किसी न किसी तरह उपस्थित चली आती है. सतयुग, द्वापर, त्रेता से आज तक शूद्रों-जनजातियों के जीवनाधिकारों के अमर सवाल हैं. और यहीं माँ की मृत्यु स्मृति के दुस्वप्न में बदल रही है. बिछुड़े परिजन, छूटी जगहों, व्यतीत की स्मृतियों के बादलों से मनोकाश भर रहा है. सारे सुख-दुख आँसुओं में घुलनशील हैं. लालटेन जलाने की प्रक्रिया जीवन-प्रकिया में बदल गई है. सर्वसत्तावाद के खतरे को पहचानते हुए ‘डर’ कविता का अंत है- न डरो तो डरो कि हुकुम होगा कि डर.
राजनीति, क्रिकेट, पशु-पक्षियों की दुनिया और संसार भर के संगीत-सिनेमा की गूँज हो या असमानता, सांप्रदायिकता, अन्याय, अमीरी और अमानुषिकता की कराह, कोई महत्वपूर्ण विषय, दर्शन, विज्ञान या दिनचर्या का अंग ऐसा नहीं जो इन कविताओं में पैवस्त न हो. उनके विवरण, विश्लेषण, प्रतिवाद, अन्वेषण में गद्य का वैभव और संवेदित करुण संसार कुछ इस तरह निर्मित होता है कि वह सब अद्वितीय कविता हो जाने के लिए बाध्य है. ये आसान नहीं, संश्लिष्ट और मूल्यवान कविताएँ हैं.
आज के अतीत/भीष्म साहनी
आत्मकथा वही बेहतर जिसमें अपने वक्त और ज़माने भर की कथा हो. उस जीवन में उपस्थित तमाम उठापटक की चित्रावली गुथी रहे. वह जितनी अपने को उजागर करे, उससे कहीं ज्यादा अपने परिवेश और दुनिया को. आत्मप्रशंसा की जगह आत्मविश्लेषण हो, पुनर्विचार हो. प्रख्यात लेखक भीष्म साहनी की ‘आज के अतीत’ एक ऐसी ही किताब है. इसका विस्तार आठ दशकों में फैला है. स्वतंत्रता आंदोलन, गाँधी की उपस्थिति सहित भारत विभाजन की विभीषिका का वक्त. आजादी से पहले और उपरांत नेहरू से लेकर मनमोहन सिंह तक का समय. लेकिन यहाँ सबसे ज्यादा शरीक हैं अपने समय के लेखक और साहित्यिक आंदोलन. प्रेमचंद, जैनेन्द्र, पंत, मंटो, रेणु और शैलेंद्र तक. रवींद्रनाथ टैगोर, फ़ैज़ अहमद फ़ैज़, कैफ़ी आज़मी, निर्मल वर्मा, कृष्णा सोबती और नामवर सिंह सहित पच्चीसों लेखक. माँ-पिता, बहनों से लेकर बलराज साहनी और परीक्षित साहनी.
लंबे उथल-पुथल कालखंड से गुजरना एक बात है और उसे लिखना एक दूसरी ही चुनौती. भाषा में सादगी का सौंदर्य और कहन की विनम्रता से निर्मित पठनीयता, भीष्म साहनी की विशेषता है. जो उनके जीने का सूत्र भी बताती है- ‘सादापन जीवन है, सजावट मृत्यु है.‘ यह लेखक बनने की कहानी भी है. आत्मसंघर्ष और जीवन संघर्ष की. धूल भरी गली से वैश्विक फलक तक की यात्रा. सेल्समैन की भूमिका से सम्मानित नाट्यकर्मी, लेखक और संपादक होने का बहुआयामी सफर. इसमें देश के विभाजन, दंगों की विभीषिका, आजादी से मोहभंग, बार-बार का उजड़ना-बसना तो है ही. बड़े भाई बलराज को आदर्श और नायक समझने के बीच अपना रास्ता खोजने में दो भाइयों का बनता हुआ चित्रपट है. आत्मीयता, स्नेह, जीवटता से भरा.
फिर लगातार विस्थापन ही जैसे जीवन का हासिल है. लुटे-पिटे शरणार्थियों की जिजीविषा है. गृहस्थी है कि एक जगह ठिकाने नहीं लगती है. इस दुनिया में ऐसे आदमी हैं जो दूसरे धर्म के आदमी पर झूठा आरोप लगाने से इनकार कर देते हैं. वे लिखते हैं कि श्रेष्ठ साहित्य वही जो सामाजिक भूमिका निबाहे, हस्तक्षेप करे, जनपक्षधर भावनाओं, मनुष्यता और सद्भाव की जरूरत को वाणी दे. मुसीबत में जूझते व्यक्ति को समाज के परिप्रेक्ष्य में रखकर देखे. जगह-जगह संस्थागत धर्म, साम्यवादी व्यवस्था का हासिल और लौह कवच, साहित्य में भाषा, शिल्प, विचार पर सुविचारित टीपें हैं. और फिलीस्तीनी संकट, भूख, अभाव, सामाजिक टूटन, आदर्शवाद आदि मुद्दों पर विमर्श भी. इस कथा में दरअसल विफलताओं, निराशाओं और अँधेरे में अनवरत रोशनी की आशा प्रज्ज्वलित है.
लाईब्रेरी एट नाइट/ एल्बर्टो मंजेल
किताबें आपसे कुछ नहीं चाहतीं. वे आपको चाहती हैं. किताबें आपसे कुछ नहीं माँगती. बल्कि वे अपनी सामर्थ्य का सर्वस्व आपको देना चाहती हैं. आप उद्यत हैं तो वे तत्पर हैं. आप प्रेमी हैं तो वे उदार हैं. फिर आप भविष्य की तरफ़ सजग, दृष्टिसंपन्न व्यक्ति की तरह देख सकते हैं.
अल्बर्तो मंजेल की अद्भुत पुस्तक यही सब कुछ कहती है. दरअसल, यह किताबों की किताब है- ‘लाइब्रेरी एट नाइट’- सैंकड़ों दूसरी किताबों और रचनाकारों के संदर्भों से रत्नजड़ित. ये संदर्भ क़ुतुबनुमा हैं और अदेखे द्वीपों का पता बताते हैं. यह असीमित किताब है. निसृत अनेक कथाएँ. मुहावरे, सूक्तियाँ. क्षेपक और किस्से. लेकिन काल्पिनक कुछ भी नहीं. यह अध्येताओं की अध्येता है. इस महानदी से कई नहरें फूटती हैं जो पाठक के विशाल मानसिक रकबे को सिंचित कर सकती है.
अच्छी किताबें स्वतंत्रता और न्याय के पक्ष में लेकिन दासता और अन्याय के विरोध में रहती हैं. वे जनता को ताार्किक रूप से जागरूक कर सकती हैं. वे सुविचारित प्रतिपक्ष हैं. इसलिए किताबें हमेशा आततायियों के निशाने पर रहती आईं हैं. प्रत्येक तानाशाह सबसे पहले किताबों पर रोक लगाता है, उन्हें नष्ट करता है. किताबों, लेखकों पर फतवों और सैंसर के समाचार आज भी देखे जा सकते है. इसलिए जो भी महत्वपूर्ण किताब पढ़ी जा रही है, सोचें कि वह कितने संभव प्रतिबंधों, वैधानिक संकटों, अड़चनों और आगजनी से बचकर या इनके बावजूद आपके समक्ष है. वे हमारी सामूहिक चेतना हैं. हमारे समय की स्मृति. वे संभव डिमेंशिया से समाज को बचाती हैं. प्रकाशक उन्हें प्राय: व्यावसायिक कारणों से छापते हैं लेकिन जनता उन्हें प्रेम के कारण बचाकर रखती है. आशय उन श्रेष्ठ किताबों से है जो सतही मनोरंजन के विरुद्ध हैं. जो सर्जनात्मक, साहसी, समतावादी, नैतिक, संवेदनशील, बहुलतावादी, कल्पनाशील और रचनात्मक हैं. मनुष्यता की पक्षधर.
यहाँ एक किताब दूसरी किताब को पुकारती है. यह भोजपत्र, पपाइरस से लेकर काग़ज़ और डिजीटल तक की किताब-यात्रा है. ज्ञान बौद्धिक-यात्रा. सर्जना की काँवड़-यात्रा.
सोचो साथ क्या जाएगा/ जितेन्द्र भाटिया
सोचो, साथ क्या जाएगा? कुछ नहीं.
लेकिन आशय पर विचार करें कि साथ क्या रहेगा तो उत्तर आसान है- ज्ञान, साहित्य, विद्या है जो साथ रहेंगे. बेहतर कहानियों की खोज में ‘विश्व साहित्य संकलन’ का शीर्षक तय करते हुए, प्रसिद्ध लेखक जितेन्द्र भाटिया का यही मंतव्य रहा है. ‘कथादेश’ पत्रिका के स्तंभ से शुरू हुई अनुवाद शृंखला, चार पुस्तकों के सेट में प्रकाशित है.
जितेन्द्र भाटिया के ये चयन उस दृष्टि का परिचय देते हैं जो साहित्य को देश-भूगोल-नस्ल की संकीर्णता से परे होकर देख सकती है. दुनिया में मानवता का हर संकट, जिजीविषा, संताप और प्रसन्नता एक-दूसरे से अलहदा नहीं हैं. साहित्य की वैश्विकता अनन्य है. वसुधैव कुटुम्बकम की अवधारणा सबसे ज़्यादा कलाओं और ज्ञान के क्षेत्र में पुष्ट होती है. इन से गुज़रना पूरी धरती का चक्कर लगाने जैसा है, जहाँ हम तमाम महाद्वीपों के समुद्रों, उनके आसमान, ज़मीन, संस्कृति, इतिहास, वेदना और संवेदना से साक्षात्कार करते हैं. और समझ पाते हैं कि मनुष्य की यातना का कहीं कोई अंत नहीं है.
इस राह से चलकर आप कह सकेंगे कि हाँ, अब मैं वियतनाम, जापान, चीन, इजराइल, ईरान, फ़िलीस्तीन, नाईजीरिया, पाकिस्तान आदि को, उनके जन जीवन को, नाना प्रकार की संस्कृतियों को, उनके दुख-सुख को कुछ और क़रीब से जानता हूँ. ऑस्ट्रेलिया सहित यूरोप, अफ़्रीका और लातिन अमेरिका के अनेक देशों के मानस संबंधी अजनबीयत कुछ कम हुई है. अब मैं अपने देश के साहित्य को भी नयी तरह से, नयी रोशनी में देख सकता हूँ. समूची मनुष्यता की कसौटी, बेचैनी का सौंदर्यबोध और कला-संसार का दृश्य मेरे समक्ष कुछ अधिक खुल गया है. मैं फिर अपनी भूमिका, सक्रियता या निष्क्रियता पर पुनर्विचार कर सकता हूँ.
विस्थापन और स्मृति, ये दो चीज़ें श्रेष्ठ साहित्य की नींव के प्रमुख अवयवों की तरह हैं. इनके साथ आशा और स्वप्नशीलता. एक तारामंडल, खुला आकाश, पोखर, एक पेड़, नदी, कोई आत्मीय संबंध, मैदान, संगीत और पहाड़ पीछे छूट चुका है. इस सदी में तो घर से बाहर निकलते ही हम किसी कार्यालय या चमकदार बाज़ार में विस्थापित हो जाते हैं लेकिन इसे विस्थापन मानने से इनकार करते हैं. अब तो घर में भी. लेकिन सबसे बड़ी मुसीबत राजनीतिक और सामाजिक विस्थापन है. संसार का अधिकांश मार्मिक साहित्य इसी बेदख़ली के ख़िलाफ़ या उसे फिर से पाने की असंभव-सी कोशिश और कोशिश के बारे में है. उसकी तकलीफ़देह स्मृति में. यहाँ समाहित उत्कृष्ट रचनाएँ इसका वैश्विक साक्ष्य हैं.
हिंदुस्तानी सिनेमा और संगीत / अशरफ़ अज़ीज़
(अनुवाद- जवरीमल्ल पारख)
यह उल्लेखनीय पुस्तक लोकप्रिय हिंदुस्तानी सिनेमा और संगीत को आज़ादी की लड़ाई, सामाजिक प्रतिरोध, लोकतांत्रिकता के निर्माण और समूची दक्षिण एशियाई संस्कृति से जोड़कर देखने का विचारपूर्ण आग्रह करती है. यह एक अप्रवासी द्वारा लिखी गई दास्तान है जो लिखने के दौरान कभी भारत नहीं आ सके और जिन्होंने पाँचवें से सातवें दशक तक के हिंदुस्तानी सिनेमा और उसके संगीत को सीने से लगाए रखा. उसे व्यापक, मानवीय परिप्रेक्ष्य में समझा कि वह किसी राज्य या भाषा का नहीं, अवाम का सिनेमा है.
संकलित सत्रह लेखों में से ‘जाते हो तो जाओ’ एक ऐसा संस्मरण है जो निबंध है, यात्रा वृतांत है. लघु उपन्यास है. कहानी है, कविता है. फ़लसफ़ा है, जीने का तरीक़ा है. बयान है. त्रासदी है. रेडियो रूपक है. शेष आलेख भी उस मार्मिकता से ओतप्रोत हैं जो अपने अदेखे देश के प्रति बेचैन हार्दिकता और कशिश से पैदा होती है. वे उन लोगों को चुनौती देते हैं जो लोकप्रिय सिनेमा और संगीत को कम कलात्मक कहते हुए उपेक्षा से देखते हैं. बहस-तलब विश्लेषण है कि यह कला तो उस वक़्त हिन्दुस्तान की निरक्षर जनता को भी, एक समावेशी राष्ट्र बनने की प्रक्रिया में शामिल कर रहा था. सिनेमा का यह संगीत शास्त्रीय और लोकगीत के मेल से एक नितांत नयी विधा तैयार कर रहा था जिसका अपना अनोखा जादू था.
इसी वशीकरण में किशोर लेखक अपने भाई के साथ पूर्वी अफ्रीका में 78 आरपीएम रिकॉर्ड पर कुल एक गाना सुनने के लिए सैंकड़ों मील दूर के एक क़स्बे की रोमांचक यात्रा करता है. यह जुनूनी और जीवन का आविष्कार करनेवाली यात्रा है. फ़िल्मी गीतों की नयी विवेचना उसे शिक्षित करती है और एक युवा होते बच्चे के मन में ग़ैर-सांप्रदायिक, समतावादी, अविभाजित, स्वतंत्र और लोकतांत्रिक हिन्दुस्तान की तस्वीर चस्पाँ हो जाती है. अब वह गीतों के बीच चुप्पी की भाषा समझ सकता है. और यह कि अच्छी कहानी और कविता का कोई मज़हब नहीं होता. यह तत्कालीन हिन्दुस्तानी समाज, राजनीति और सभ्यता की नयी, सांगीतिक आलोचना है. मनुष्य को ‘कला और संरचना’ की सार्वभौमिकता में समझने की कोशिश है. यहाँ लेखक अपनी मिट्टी में धँसे उस वृक्ष की तरह दिखता है, जिसकी पत्तियाँ स्मृति की हवाओं के रौशन संगीत में झूमती रहती हैं.
पहला अध्यापक / चिंगीज आइत्मातोव
(अनुवाद- भीष्म साहनी)
एक अच्छी किताब हर बार एक नयी किताब भी होती है. यह दुस्साहस ही होगा कि कोई ऐसे पिछड़े, दूरस्थ, पहाड़ी गाँव में स्कूल खोलने का प्रस्ताव करे, जहाँ सदियों से किसी ने कभी शिक्षा प्राप्त ही न की हो. इस तरह यह एक रूपक है, स्वप्न है और चुनौती.
मेरे अध्यापक! तुमने कहा था- अभी जाओ. एक दिन हम वापस मिलेंगे. लेकिन हम फिर कभी नहीं मिले. इस बीच मैंने जाना, प्रेम और विषाद एक साथ यात्रा करते हैं. प्रेम नहीं, वियोग अमर होता है और जिलाये रखता है. मैं तुमसे प्रेम करती थी लेकिन तुम केवल मेरा उत्थान चाहते थे. अब तुम कहाँ हो? क्या उसी रेलवे स्टेशन पर, जहाँ तुमने मुझे बेहतर पढ़ाई के लिए शहर की तरफ़ विदा किया था. रेल के इंजन से उठती भाप, धुएँ और अपनी आह के बीच तुम गुम हो गए. फिर केवल कल्पना में, स्वप्न और संभ्रम में मुझे मिलते रहे.
अब तुम्हारे रोपे वे दो वृक्ष सहोदर प्रकाश स्तंभ की तरह दिखते हैं, जिन्हें तुमने सींचा. उन्हें देखना भी सुंदर स्मृतियों में श्वास लेना है. उनकी पत्तियों के बीच से झरती रोशनी में रोशन हो जाना है. याद करना है कि कठिन मौसमों से गुज़रकर वृक्ष पल्लवित होते हैं. एक व्यक्तिगत कथा कहना भी सहकारिता है. जिसके सारे अवयव सामाजिक होकर एक-दूसरे से पीठ टिकाकर बैठे रहते हैं.
पहाड़ों में ऐसे झरने भी होते हैं जिन तक जानेवाली पगडंडी को लोग धीरे-धीरे भूल जाते हैं, उसे समय और आपाधापी के झाड़-झंखाड़ ढँक लेते हैं, लेकिन एक संवेदित कहानी पाठक को फिर उस पगडंडी की याद दिला देती है. उस समय की पवित्र निस्तब्धता में हमारा पहला मार्गदर्शक, पहला अध्यापक, पहला संघर्ष, पहला सौंदर्य और पहला प्रेम संरक्षित रहा चला आता है. यह आंतरिक और बाह्य प्रकृति के पुनर्जागरण की कहानी है और उसके पुनरावलोकन की. यह प्रेमकथा जीवन की महिमा है. अपनी बेड़ियों को तोड़कर, बेहतर हासिल करने की यह सौ बरस पुरानी कहानी लेकिन आज के किसी सुदूर गाँव की कहानी भी. यह आँसुओं के नये आस्वाद से परिचित कराती है. और अनश्वर जिजीविषा से.
घने अंधकार में खुलती खिड़की / यादवेन्द्र
एक किताब इस तरह भी बन सकती है कि किसी देश में स्त्रियों की आवाज़ों को एक जि़ल्द में इकट्ठा कर दिया जाए. उनकी तकलीफ़ों, मुश्किलों और इच्छाओं को अँधेरे से रोशनी में लाया जाए. किसी समाज की वास्तविक प्रगति पता करना हो तो स्त्रियों के हालात जान लें. यदि वे बराबरी की हक़दार नहीं हैं, आज़ाद नहीं हैं, लैंगिक भेदभाव की शिकार हैं तो वह समाज पिछड़ा हुआ ही माना जाएगा.
यह पुस्तक अनुवादक यादवेंद्र द्वारा संपादित ईरानी स्त्रियों के प्रतिरोध का, पितृसत्ता, पुरुष वर्चस्व, मज़हबी कट्टर क़ानूनों के खिलाफ सतत संघर्ष का शामिल दस्तावेज़ है. पत्रकारिता, साहित्य, कला, पत्राचार, सिनेमा और ब्लॉग के जरिए लिखी गई ख़ौफ़नाक यथार्थ की एक लंबी इबारत. यह अस्मिता और स्वतंत्रता के पक्ष में नया स्त्रीवाद है. दुख सहकर व्यापक सुखी समाज का स्वप्न देखता हुआ.
ये वे स्त्रियाँ हैं जो जेलों में हैं, जिन्हें बिलावजह कोड़े मारे जा रहे हैं, उनके परिवार को सताया जा रहा है और वे ख़ुद मशीनगनों के सामने हैं लेकिन रिसते हुए घावों के साथ वे कह रही हैं हम भेड़-बकरी नहीं हैं, इनसान हैं और दोयम दर्जे की नागरिक नहीं हैं. वे क़ैदख़ानों में हैं, ज़ुल्म सह रही हैं, शेष दुनिया उन्हें सम्मानित कर रही है लेकिन वे अपने देश के आक़ाओं की अमानवीय यंत्रणाएँ भुगत रही हें. अपने आँसुओं को ईंधन बना रही हैं. उनमें ज़िंदा रहने का हौसला है ताकि एक दिन वे शब्दों से, चित्रों, संगीत और सिनेमा से दुनिया को बता सकें कि यह सरकार किस क़दर निरंकुश, नृशंस है. धार्मिक कठमुल्लेपन से भरी है. तब शायद दूसरे देशों के लोग भी सबक़ लें और अपने यहाँ ऐसी स्थितियाँ निर्मित न होने दें. यह किताब भुक्तभोगी स्त्रियों के बयानों, संस्मरणों और उनकी मर्मस्पर्शी आपबीती से बनी है, जो डॉक्टर हैं, वकील, अध्यापक, पत्रकार, कार्टूनिस्ट, गृहिणी, संगीतकार, लेखक, चित्रकार और फ़िल्मकार हैं.
जो अपनी जीवित क़ब्रों से बाहर निकलकर साहस के साथ कहती हैं कि अनशन करो, आंदोलन करो, अधिकारों के लिए लड़ो, यह जीवन सुंदर है, तुम्हारा है. उनके ख़िलाफ़ लड़ो जो तुम्हें अधूरा मनुष्य मानते हैं, तुम्हारी गवाही को संदिग्ध और तुम्हें केवल वस्तु मानते हैं, जो किसी समयातीत ग्रंथ के हवाले से कहते हैं कि तुम्हारे केवल कर्तव्य हैं, अधिकार नहीं, जो परंपराओं के नाम पर तुम्हें किसी दक़ियानूसी के द्वीप या घर में नज़रबंद करते हैं. तुम्हें अपनी कामनाओं का उपनिवेश बनाते हैं. जो शब्दों पर प्रतिबंध, विचारों पर नियंत्रण चाहते हैं, बोलने-लिखने पर मुक़दमे और लोकशाही के नाम पर तानाशाही करते हैं, वे ही सच्चे गुनहगार हैं.
ये करुणा, संवेदना और आकांक्षा की रचनाएँ हैं. सच्चाई, अनश्वरता, मृत्यु, जीवन पर दार्शनिक दृष्टि के साथ तनी हुई मुट्ठियाँ भी हैं. वे कहती हैं अपने आज़ाद ख़याल सपनों की क़ीमत समझो. जब तक कूपमण्डूकताओं, धार्मिक मतांधता, अंधविश्वासों और अज्ञानता से नहीं लड़ोगे तब तक किसी सुंदर दुनिया की तामीर नहीं हो सकती. संसार में कहीं भी स्त्रियों पर अत्याचार, उत्पीड़न हो, उसके विरुद्ध यह किताब दिशासूचक यंत्र है. चेतनासंपन्न, लोमहर्षक और प्रेरणास्पद.
मेरा दागिस्तान / रसूल हमजातोव (अनुवाद- मदनलाल ‘मधु’)
अपने गाँव, अपने इलाके, अपनी संस्कृति के बारे में लिखी गई यह किताब पूरी दुनिया के बारे में है. जैसे रेखांकित करती है कि स्थानीय हुए बिना आप न राष्ट्रीय हो सकते हैं, न अंतरराष्ट्रीय. यह किताब हर उस व्यक्ति के लिए है जो साक्षर है और पढ़ना-लिखना चाहता है क्योंकि हरेक पाठक एक संभव लेखक होता है. और प्रत्येक लेखक एक अनिवार्य पाठक.
अनगिन मुहावरे, अनुभव, दृष्टांत और कथाएँ यहाँ इस तरह घुली-मिली हैं कि वे समूचे जीवन का विषय हैं. यहाँ पुराने पेड़, चिड़िएँ और बुजुर्ग अपनी हवाओं, चहचहाहट और किस्सों से याद दिलाते हैं कि मुश्किलों का ताला कितना भी बड़ा और भारी क्यों न हो, बस एक छोटी-सी चाबी से खुल जाता है. यह चाबी प्रेम है. वीर व्यक्ति ताक़त के सामने नहीं, केवल दो जगह झुकता है- पानी पीने के लिए, फूल तोड़ने के लिए. आदमी की पहचान इससे भी होती है कि क्या उसे अजनबी जगहों पर, उदासी में अपना गाँव याद आता है. क्या अपना घर छोड़ते समय खिड़की पर रखे लैम्प की रोशनी उसे अब भी राह दिखती है.
बेहतर रचना कैसे लिखी जा सकती है, यह किताब मानो इसका अघोषित प्रशिक्षण है. जो भाषा, रूप, शिल्प, प्रतिभा, संशय, शैली, विचार पर बात करते हुए बताती है कि आदमियों की तरह किताबें बहादुर हो सकती हैं. और कायर भी. यहाँ लेखक यह भी परखता है कि जो लोग घर, परिवार, मित्रों के बीच मानवीय दिखते हैं, वे दफ्तरों की कुर्सियों पर बैठकर रूखे, भावनाहीन और क्रूर तो नहीं हो जाते. और लेखक जानता है कि किताबें बंदिशों या कानून के हिसाब से नहीं लिखी हो सकतीं. वे सपनों और इच्छाओं से ही लिखी हो सकती हैं.
और कवियों के पास ऐसा खूबसूरत पक्षी हो सकता है जो सारे पक्षियों से अलग हो जबकि वास्तव में उसका कोई अस्तित्व ही न हो. मगर पाठक को लगे कि उसने उसे कहीं देखा है. यही रचनाशीलता है, कल्पनाशीलता है. वैकल्पिक यथार्थ है. भाषा में शब्द अर्थहीन नहीं होते इसलिए रचना में भी उनका कोई अर्थ निकलना चाहिए. बिना कारतूस के बंदूक केवल झूठी शान है. रसूल हमजातोव याद दिलाते हैं कि एक रंग का कोई इंद्रधनुष हो नहीं सकता. समाज विशाल बगीचा है जिसमें जितने तरह के फूल होंगे उतना सुंदर होगा. ‘मेरा दागिस्तान’, पढ़े जाने के हर पाँच बरस बाद बदल जाती है. पुनर्नवा हो जाती है. समय के साथ इसके नये-नये मायने निकलते हैं. बढ़ती उम्र के हर पड़ाव पर यह अलग तरह से समझ आती है.
और दसवें क्रम में दो किताबें जो धीरे-धीरे पढ़ी जा रही हैं.
उनके बारे में अभी कुछ संक्षिप्त परिचय-
हम खत्म करेंगे / मोहन मुक्त
भारतीय समाज में दलितों, वंचितों, जनजातियों, श्रमिकों, सीमांत किसानों और ग़रीबों के बारे में एक संचित व्यग्रता, गुस्से और प्रतिवाद को प्रकट करता यह संग्रह अपनी कविताओं से कई सवाल उठाता है. असुविधाजनक और अनिवार्य. यह अभिव्यक्ति का अनुपेक्षणीय रूप है. राजनीतिक और सामाजिक रूप से सजग. सौंदर्यबोध के मयारों को बदलने की माँग करता हुआ. अपनी बेचैनी पाठक में अंतरित करता हुआ. ये वर्ण व्यवस्था, सामंती मूल्यों, पूँजीवाद, लोकतंत्र, समानता को विचार और विवेक की आँख से देखती हुईं, जिरह करती हुईं कविताएँ हैं. कई बार कविता होने, न होने से बेपरवाह. प्रतिरोध और प्रतिवाद की परंपरा को अग्रसर करती हैं. उनका नया संस्करण बनाती हैं और छूटी हुए परिवर्तनकामी संघर्ष को फिर प्रारंभ करने की संजीदा कोशिश में जुटती हैं.
हिचकॉक / फ्राँस्वा त्रुफो
अल्फ्रेड हिचकॉक से त्रुफो की बातचीत की यह किताब करीब साठ साल पहले प्रकाशित हुई लेकिन यह हमेशा एक ताज़ा किताब है. यह जितनी हिचकॉक के सिनेमा पर है उतनी ही हिचकॉक के मनोजगत पर भी. उनके सिनेमा के प्रति जुनून और अनुशासित कलाकर्म पर भी. और मनुष्य जीवन के कुछ मनोवैज्ञानिक, प्रबल पक्षों पर भी. यह हिचकॉक को और पाठक को नया बनाती है. उनके बीच एक घनिष्ठ रिश्ते का सूत्रपात करती है. और त्रुफो मानो उदाहरण पेश करते हैं कि किसी सर्जक से किस तरह और कितनी तैयारी से बात करना चाहिए. और किस क़दर आत्मीयता से. हिचकॉक की लगभग हर फिल्म में मनुष्य के अँधेरे पक्ष या सहज बुराइयों पर एक दार्शनिक टिप्पणी समाहित रहती है. इन सबका उत्खनन जिस तरह इस संवाद में संभव हुआ है, वह अप्रतिम है. यह उन किताबों में से है जो बार-बार पढ़कर भी कभी पूरी नहीं पढ़ी जातीं.
सविता सिंह |
जो लोग लगातार पढ़ने लिखे में लगे रहते हैं उन्हें समय का अहसास कुछ और ही ढंग से होता है. समय बीतता नहीं, वह भीतर जमा होता जाता है. एक साल में कितने दिन और महीने होते हैं यह गुमान भी जाता रहता है. कभी-कभी एक विचार का ही पीछा करते कितनी ही किताबें पढ़ डाली जाती हैं. कही पहुंचने पर बेहद खुशी होती है. जैसे इस साल मुझे समाजशास्त्र की दुनिया में अधिक विचरण करना पड़ा. भारतीय आधुनिकता और इसकी उलझाने वही बौद्धिक और नैतिक समझ को फिर से जांचना पड़ा. मैं लगातार इस विषय पर लिखती पढ़ती रही हूँ.
भारतीय आधुनिकता के विमर्श के कई दौर आए, इस बार हमें पश्चिमी आधुनिकता का वर्चस्व उतना नहीं घेर रहा जितना अपना ही आधुनिक देश जहाँ एक संस्कृति बन गई थी, आधुनिकता की संस्कृति, कि हम लोकतांत्रिक ढंग से एक दूसरे से पेश आयेंगे, दूसरों की स्वतंत्रता को स्वीकार करेंगे, कि यह भी समानता को बरतने का एक ढंग होगा. स्त्रियों के लिए बराबरी का, हिस्सेदारी का तंत्र बनाएंगे, उन्हें किसी भी तरह की हिंसा की आग में नहीं झोंकेंगे. जो तबका उपेक्षित और शोषित है चाहे वह धर्म के आधार पर हो या जाति के आधार पर, उसे इस देश का समान नागरिक समझ उनके उत्पीड़न को समाप्त करेंगे- संविधान में दिए सारे अधिकार उसे दिए जाएंगे. पिछले कुछ वर्षों में हमारी यही संस्कृति बन रही थी. अचानक इस उदारवादी लोकतांत्रिक रहन-सहन के प्रति देश में संदेश पैदा हो गया. एक मोहभंग. यह मोहभंग जवाहरलाल नेहरू के प्रति भी जाहिर किया जाने लगा. उदारवाद जो पूंजीवाद का राजनीतिक फलसफा है, उसके भी मूल्य अब काबिले बर्दाश्त नहीं हैं.
द हिंदू अखबार में राजीव भार्गव ने इसी बौद्धिक क्राइसिस को संबोधित करते हुए कई लेख लिखे जो पुस्तक की शक्ल में पिछले साल आई जिसे ब्लूम्सबरी ने छापा है. शीर्षक है : Between Hope and Despair: 100 Ethical Reflections on Contemporary India. इस किताब का हिंदी अनुवाद अभिषेक श्रीवास्तव ने श्रमपूर्वक किया है, वह इस वर्ष राजकमल प्रकाशन से छपी है. हिंदी में इसका शीर्षक है: राष्ट्र और नैतिकता: नए भारत से उठते 100 सवाल. राजीव भार्गव ने यहाँ यह कहने की कोशिश की है कि हमें इन स्थितियों से निराश नहीं होना है बल्कि बहस करना है, वही बेहतर है. बहस और विमर्श हमें हमारे मनुष्य होने की मौलिक नैतिकता को दर्शाते हैं और इसके बगैर एक सहिष्णु मनुष्य समाज बन भी नहीं सकता है. हमारी मनुष्यता ही हमारे लिए वह मार्मिक चुनौती है जिसपर से हमारा विश्वास शायद ही कभी समाप्त हो.
इसी सिलसिले में साहित्य के खित्ते में पिछले वर्ष देवी प्रसाद मिश्र की छोटे आकार की कहानियों की एक बेमिसाल किताब आई, मनुष्य होने के संस्मरण. यह किताब साहित्य में मनुष्य होने की अवधारणा को, उसके जाते हुए उत्सव को, उसकी समाप्त होती मासूमियत को जिस तरह से रखती है उससे लगता है कि यह विचार समाजशास्त्र में भी शिद्दत से आना चाहिए था. इसकी वैचारिकी इतनी सघन है कि इसे रचने के लिए दर्शन जैसी विधा का ज्ञान जरूरी होता है. एक धड़कती हुई वस्तुनिष्ठता है यहाँ. सेल्फ का एलियनेशन ही कहानियों का विषय वस्तु बन गया है. हम अपने होने को ऐसे याद करते है जैसे हम अब नहीं हैं. इस वर्ष उनकी कहानियों की दूसरी किताब आई है, कोई है जो. इसमें छह लंबी कहानियाँ हैं. अच्छा है ये दोनों लगभग साथ ही आई. लगभग एक साल के अंतराल पर. इन कहानियों के पुरुष नायक अपने मनुष्य होने को अपने मनुष्य में खोज रहा है. यह एक बेहद सोफिस्टिकेटेड प्रक्रिया है. वह अपने को उन खोती गई मनुष्यता की प्रक्रियाओं में खोजता है जिससे वह मनुष्य बना था: समानता, स्वतंत्रता, जीवन के लिए वासना, पितृसत्ता की ढहती हुई मीनारें, इन सब में वह एक क्षरण पाता है. कई कहानियों में सवाल उठा देता है, अपने भस्म किए जाने से डरता नहीं.
जिस नदी में स्वच्छ जल होना चाहिए उसमें तेजाब क्यों बह रहा, सरकारी कर्मचारी भ्रष्ट क्यों है, प्रकृति नष्ट क्यों हो रही है, इत्यादि. उसे खुद्दार, गौरवमई लड़कियाँ पसंद आती है, भ्रष्ट ब्राह्मणवादी पितृसत्ता जबकि उन्हें ऐसा बनने नहीं देती, बल्कि इन्हें नष्ट करने से भी नहीं हिचकती. सबकुछ कितना बर्बर हैं. इन कहानियों में हमारी अपराधी संस्कृति के प्रति गहरी वितृष्णा अभिव्यक्त होती है. सशक्त स्वाभिमानी स्त्रियाँ इनकी कहानियों में एक प्रतिसंसार बनाती हैं हैं परन्तु वे कोई रोमान नहीं रचती. लेखक हर विध्वंस के अपनी कहानियों में लिए तैयार रहता है, हर नियम का उल्लंघन कर सकता है, और इस अर्थ में ही शायद वह एक अवांगार्द लेखक कलाकार हैं.
इधर कवियों को आख्यान की आवश्यकता पड़ रही है. उन्हें जितना कहना है, क्योंकि समय इतना चुनौतीपूर्ण हो चला है, कि कोई आख्यान ही इसकी जटिलता को उसकी भयावहता में प्रस्तुत कर सकता है. कुमार अंबुज का नया संग्रह, मज़ाक़ को भी इसलिए भी पढ़ा जाना चाहिए. कथ्य को एक प्रभावशाली शिल्प भी चाहिए. यह खास बौद्धिक तैयारी से हासिल की जाने वाली दुर्लभता है, जो इस संग्रह की कहानियों को पढ़ते हुए लगता है.
इसी वर्ष चार्ल्स टेलर जिनके साथ मैं मैकगिल यूनिवर्सिटी में पीच. डी. के लिए पढ़ रही थी, उनकी नई किताब आई है जो यूरोप के रोमांटिक कवियों के दार्शनिक परिप्रेक्ष पर है. इस किताब का नाम है, Cosmic Connections : Poetry in the Age of Disenchantment. इसे हार्वर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस ने छापा है. इस किताब में टेलर ने खासकर जर्मन रोमांटिक कविओं के दार्शनिक पक्ष पर विस्तार से लिखा है. उनका मानना है कि यूरोप में रोमांटिसिजम ने जीवन के प्रति गहरी रागात्मकता पैदा की जिससे कला धर्म का विकल्प बन जीवन को व्यर्थता के बोध बचा ले गई. आधुनिक सभ्यता अपने मैकेनिकल रूप में प्रकृति को नष्ट करती हुई, मनुष्य के भीतर के रहस्य को विस्थापित करने लगी थी. उसने जीवन के अर्थ को झीना कर् दिया था. गोयते, नोवेलिस, होल्डरलिन, शेलिंग, शिलर सरीखे दार्शनिको ने अपने लेखन से कला को जीवन को सशक्त करने वाली वह नई उपलब्धि बताने की कोशिश की जिससे उनके अनुसार यह जीवन अपनी सुंदरता में बचा रह सकता है. इसे ही वे आधुनिक युग में मनुष्य जीवन का आधार बनाने की सिफारिश करने लगे थे.
इस किताब के पहले टेलर की एक महाग्रन्थ सरीखी किताब आई थी जिसका नाम है Sources of the Self जिसकी पृष्ठभूमि आधुनिक यूरोपीय सभ्यता ही है. उसके बाद आई A Secular Age जिसमें क्रिश्चियनिटी का किस तरह आधुनिक राष्ट्र राज्य ने विस्थापन किया इसका विस्तृत ऐतिहासिक आख्यान प्रस्तुत किया गया. कॉस्मिक कनेक्शन को इन किताबों की अगली कड़ी के रूप में भी पढ़ सकते है. इस किताब का दुनिया भर में स्वागत हुआ है. बल्कि इसी वर्ष रूथ एबी, जो मेरी मित्र है, और मेरे ही साथ वो भी टेलर के साथ पीच.डी कर रही थीं, उनकी किताब “चार्ल्स टेलर” पिछले वर्ष आई, जिसे इस साल मैं पढ़ सकी. Philosophy Now श्रृंखला में प्रिंसटन यूनिवर्सिटी ने सन 2000 में यह पहले छापा था. नई भूमिका के साथ उसका रूटलेज संस्करण 2023 में आया था.
टेलर विश्व के महत्वपूर्ण दार्शनिकों में से एक है. वे बदलते पश्चिमी संसार के ज्यादा सभ्य चिन्तक हैं जिन्होंने आधुनिक यूरोप का वह दार्शनिक पक्ष उभारा जिससे आनेवाले समय में नष्ट होने से बचा जा सकता है- इनके मूल चिंतन में मनुष्य का एकहरा व्यक्तिवाद , मनुष्य का मात्र व्यक्ति भर होने की प्रेरणा जो पूंजीवादी अर्थव्यवस्था से पैदा होती है, उसका नाकार है. मनुष्य बिना समाज के अपने मनुष्य होने के वैभव को नहीं पा सकता या आत्मसात कर सकता. टेलर पर बहुत ही अच्छी किताब रूथ ने लिखी है. उनके विचारों को सिलसिलेवार ढंग से विश्लेषित करते हुए एक चमक पैदा कर दी है.
एक और किताब जिसे इस साल मैं बहुत ध्यान से पढ़ती रही वह सेतु प्रकाशन से आई मणीन्द्र नाथ ठाकुर की किताब, ज्ञान की राजनीति है. इसे बहुत सराहना मिली है. इस किताब में ने भारतीय ज्ञान परंपरा में किस तरह जीवन की तमाम दार्शनिक, धार्मिक, नैतिक और सामाजिक विषयों को विमर्श का रूप दिया गया है उसका विश्लेषण किया है, खासकर भारतीय आधुनिकता के विमर्श के परिप्रेक्ष्य में. आधुनिक भारतीय बौद्धिकों में एक उद्विग्नता काम करती रही है कि किस तरह हम अपने जीवन-समाज पर स्वायत्त विमर्श कर सकें जो पश्चिम के प्रभाव से मुक्त हो. इस सिलसिले में हम लोगों ने, बौद्धिकों के एक समुदाय ने, इसे ही अपने शोध का विषय बनाया है. यह किताब इस अर्थ में महत्वपूर्ण है कि यह भारतीय सिद्धांत के इस विमर्श में ज्ञान का एक अंश जोड़ती है.
सेतु प्रकाशन से ही हिलाल अहमद ने, जो भारतीय मुस्लिम अस्मिता पर अच्छा काम कर रहे हैं, उनकी एक संपादित किताब सुदीप्त कविराज के हिंदी में अनूदित लेखों की आई है. कविराज भी आजकल भारतीय राजनीतिक सिद्धांत को कैसे विकसित किया गया है इस पर चिंतन कर रहे हैं.
धनंजय राय की किताब जो गांधी के स्वराज पर है, संपूर्ण स्वराज, जिसे पेंगुइन ने छापा है, वह भी इसी चिंतन का हिस्सा है. इन किताबों को हम भारतीय क्रिएटिव थ्योरी ग्रुप, जिसका मैं भी हिस्सा हूँ, की उपलब्धियों के रूप में देखते, मानते है और हर किसी के लिए बौद्धिक रूप से अर्थवान भी समझते हैं.
कविताओं की किताबों की लिस्ट में अविनाश मिश्र की नई किताब, वक्त़ ज़रूरत, उनकी काव्य दृष्टि का पता देती है. उनकी एक कविता बताती है कि भूख मनुष्य के जीवन से कहीं गई नहीं है. न उसे मिटाने की कोशिश देश समाज कर रहा है. यह कवि जब किसी को ठीक से खाते देखता है तो उसे यह देख कर ही खुशी होती है कि कोई अन्न पा रहा है. वह अपने लिए वहीं जीवन और काव्य का सौंदर्य ढूंढता है. जो कभी भूखा न रहा हो, वह इसे अनुभूत नहीं कर सकता. कवि मानता है कि सारी सहमतियाँ, स्वीकृतियाँ और सर्वानुभूतियाँ अब नफ़रत के पक्ष में है, अब अकेले नहीं, समूहों में लोग नफ़रत करते हैं. यह कैसा समय आ गया. मनुष्य ही बदल गया है. इसका पता अविनाश का यह संग्रह पढ़ कर मिलता है. इसी वर्ष इनकी किताब जो नब्बे दशक के कवियों पर है, आई है: नौंवा दशक: नब्बे के दशक की हिंदी कविता पर एकाग्र. इतने प्रखर ढंग से लिखी गई यह आलोचना की किताब अविनाश मिश्र को महत्वपूर्ण युवा बौद्धिक के रूप में भी प्रभावित करती है. कविता की दो और किताबों का जिक्र करना चाहूँगी: शैलजा पाठक का संग्रह “कमाल की औरतें”, और अदनान कफील दरवेश का “नीली बयाज”. दोनों ही किताबें राजकमल से आई है. इनमें हमारे समय का एक आईना चमकता रहता है. कुछ नहीं छिपता. गुम होती ब्याज यानी बही, डायरी, में से मिटती जाती अस्मिता का एक रूपक है अदनान के यहाँ, रोज़मर्रे का हिसाब किताब जहाँ लिखा जाता है और उतने भर से भी यह जीवन बना रहता है. इसे गायब करने वाले से इल्तिजा है कवि की: हमारी कब्रों में अपने खंजर भी दफ्न कर दें.
शैलजा के संग्रह में कर्मठ स्त्रियाँ भरी हुई हैं, इन्हें पहले की तरह नष्ट नहीं किया जा सकता. वे अपने कमाल हासिल करेंगी ही. अच्छी भाषा और सुंदर विचार एक जगह जब जमा हो जाएँ तब कविता अपना रूप पा ही लेती है.
नासिरा शर्मा की किताब, ‘फिलिस्तीन: एक नया कर्बला’, का भी जिक्र जरूर करना चाहूँगी जो फिलिस्तीन की भयावह स्थिति का एक कठोर रूप प्रस्तुत करती है जिसमें फिलिस्तीनी कवियों की कविताएँ संग्रहित की गई हैं तमाम दूसरी बातों के साथ. आज यदि कोई फिलिस्तीन को अपनी संवेदना का हिस्सा नहीं बनाता तो वह दुनिया में कहीं और हो रही क्रूरता के बारे में भी बोलने का नैतिक अधिकार नहीं रखता.
यह वर्ष किताबों के मामले में बहुत समृद्ध करनेवाला रहा. ख़ुदा करे मनुष्य होने के नाते हम अपनी नैतिकता पर कायम रहें, कोई हमारी आत्मा की चोरी न करे, हमें हैवान बनने पर मजबूर न करे. हम किताबें लिखते और पढ़ते रहें.
दिनेश श्रीनेत |
हर साल का लेखा-जोखा जब होता है तो उसमें बहुत सी किताबें, बहुत से लेखक भी शामिल होते हैं. अमूमन खरीदी गई किताबें पढ़ी गई किताबों से कई गुना ज्यादा होती हैं. हर किताब तात्कालिकता के आग्रह में नहीं पढ़ी जाती. मेरा किताबों और फिल्मों का चयन बहुत निजी और बहुत बार मूड पर निर्भर करता है. दूसरी समस्या यह है कि मेरी मुख्यधारा की बजाय हाशिए की चीजों में ज्यादा रुचि है. चाहे वह सिनेमा हो, संगीत या फिर किताबें. तो किताबों का चयन बहुत ही निजी होता है. लिहाजा इस रीडिंग लिस्ट को मेरी अलहदा किस्म की खोजी प्रवृति से ही जोड़ा जाए न कि किसी प्रतिनिधि चयन से. इससे एक अंदाजा यह लग सकता है कि मैं अपने आसपास जो कुछ समेट सका, उनमें मैं किस तरह से दिलचस्पी लेता हूँ. इस साल सिर्फ वही किताबें नहीं पढ़ी गई हैं, जिनका प्रकाशन इस साल हुआ है, ठीक उसी तरह जो किताबें इस साल खरीदी गई हैं, वे शायद अगले या उसके अगले बरस पढ़ी जाएंगी.
1. चाकू/ सलमान रुश्दी
इस साल की किताबों में मुझे सबसे महत्वपूर्ण सलमान रुश्दी की इस किताब का हिंदी अनुवाद लगा. मंजीत ठाकुर ने इसके अनुवाद में सहज पाठ बनाए रखा है. इस किताब में मेरी इस कदर रुचि जगी कि मैंने इसे प्री-ऑर्डर करके मंगाया और घर पर आते ही पढ़ना शुरु कर दिया. ‘चाकू’ की टैगलाइन है, हत्या के प्रयास के बाद की अंतर्यात्रा. यह रुश्दी का कमाल है कि वह अपने ऊपर चाकू से हुए जानलेवा हमले का इस तरह से दस्तावेज़ीकरण करते हैं कि वह घटना विस्तार लेने लगती है. जल में फेंके गए पत्थर की तरह वृत्ताकार लहरें उठती हैं और एक साथ साहित्य, समाज, राजनीति, धर्म को समेटते चले जाते हैं. खुद पर हमले के बाद सलमान रुश्दी लिखते हैं, “अपने खाली रतजगों में मैंने एक विचार के तौर पर चाकू के बारे में बहुत सोचा. भाषा भी एक चाकू है. यह दुनिया को काटकर इसके अर्थ को सामने ला सकती है. यह लोगों की आँखें खोल सकती है. सौंदर्य रच सकती है. भाषा मेरा चाकू थी.” इन दिनों ऐसी किताबें कम लिखी जा रही हैं जो अपने समय को समझने के टूल्स देती हैं. ‘चाकू’ उन उल्लेखनीय किताबों में से एक है.
2. आहोपुरुषिका/ वागीश शुक्ल
इस वर्ष की दूसरी बहुत अलग और साहसिक किताब (लेखक और प्रकाशक दोनों के लिए) वागीश शुक्ल की ‘आहोपुरुषिका’ है. यह साढ़े तीन सौ पृष्ठों में फैला विलाप है. यानी अपनी पत्नी के देहावसान के बाद एक काव्य रसिक विद्वान का शोक गीत. और यह शोक गीत भी कैसा अनोखा ! इस शोक में पतंजलि का महाभाष्य है तो मिर्ज़ा ग़ालिब, परवीन शाकिर और रियाज़ ख़ैराबादी भी हैं. बृहदारण्यकोपनिषद के अंश भी हैं और ज्याँ फ्रांसुआ ल्योतार का लिखा-पढ़ा भी शामिल है. यह ऊपरी सतह पर एक मुश्किल किताब लगती है, इसका कलेवर एक साधारण पाठक को भयभीत कर सकता है मगर वागीश शु्क्ल सब कुछ इतनी सहजता से समेटते जाते हैं कि शुरुआती कुछ पन्नों के बाद आप इस नदी में बहने लगते हैं और सिर्फ कौतुक से देखते हैं कि इस प्रवाह में क्या-क्या बहता चला जा रहा है. अशोक बाजपेयी इस किताब की भूमिका में लिखते हैं, “यह शोकगीत कोई एकांत में विलपता गान नहीं है : वह इतनी सारी यादों और कवियों और ग्रंथों के बीच गाया जा रहा है. कवि अकेला नहीं है- वह एक समवाय का हिस्सा है. यह सीधा-सादा साधारणीकरण नहीं हैः यह एक आवाज को कई आवाजों के साथ, उन्हें अंतर्गुंजित करते हुए अलग सुन पाना है.” इस पुस्तक को सेतु प्रकाशन ने पुरानी टाइपिंग शैली में संयोजित किया है.
3. के विरुद्ध,/अखिलेश
विलक्षण चित्रकार और चिंतक जगदीश स्वामीनाथन को यह एक दूसरे कलाकार की अनूठी श्रद्धांजलि है. जाने माने चित्रकार अखिलेश ने इस किताब में अपने समय के विलक्षण आर्टिस्ट को समझने के लिए एक मुश्किल रास्ता चुना है. यह कोई साधारण जीवनी नहीं है. इसके लिए लेखक ने बाकायदा हिंद स्वराज्य को श्रेय देते हुए पाठक और संपादक वाली शैली चुनी. इन प्रश्नोत्तरों के जरिए वे स्वामीनाथन के जीवन, चिंतन और कला के विविध पहलुओं को खोलते चलते हैं. जब ये पहलू खुलते हैं तो साधारण नैरेटिव काम नहीं आता है. स्वामीनाथन की कलात्मक जटिलताओं को समझने के लिए अखिलेश भी एक मुश्किल रास्ता चुनते हैं. वे कभी संस्मरणों में जाते हैं, कभी वाद-प्रतिवाद में, कभी संशय में, कभी यथार्थ में तो कभी फैंटेसी में. हम इसे पढ़ते हुए कला पर चल रही बहसों के विस्तार की ओर बढ़ते हैं, जहाँ राजा रवि वर्मा भी हैं तो ओक्तावियो पाज़ भी, बुल्ले शाह भी हैं और ग़ालिब भी. कई प्रसंग यथार्थ के हैं तो कई अतियथार्थवाद या जादुई यथार्थवाद को छूते हुए, जैसे बीते समय में बनारस में अखाड़े के तांत्रिकों के साथ स्वामीनाथन की बैठकों का ज़िक्र, जहाँ नचिकेता और यमराज से होते हुए खालिद जावेद की मौत की किताब का भी ज़िक्र चल पड़ता है और बाबा कह उठता है कि अभी तो वह लिखी जानी है. किसी रोलर कोस्टर की तरह ऐसे जाने कितने ऊंचे-नीचे रास्तों का रोमांच पैदा करती यह किताब अंततः स्वामीनाथन को पूरी संपूर्णता के साथ समझने में मदद करती है.
4. नाकोहस/पुरुषोत्तम अग्रवाल
डेढ़ सौ से कुछ ज्यादा पृष्ठों का उपन्यास, जो अपने समय के विद्रूप को देखने के लिए एक नई औपन्यासिक शैली का संधान करता है. इसे प्रकाशित हुए तो करीब आठ-नौ साल हो गए मगर बदलते समय के साथ यह ज्यादा प्रासंगिक होता जा रहा है. यह न तो फैंटेसी, न यथार्थ, न पूरी तरह से व्यंग्य है और न ही एक डार्क थीम पर लिखा गया उपन्यास. अपने नाम की तरह यह अपने नैरेटिव की भी रचना करता है. यह तीन प्रोफेसरों की कहानी है, जो अलग-अलग धर्मों से हैं, लेकिन धर्मनिरपेक्षता और साम्प्रदायिकता के खिलाफ खड़े होने में एकजुट हैं. ये तीनों एक गुप्त सरकारी संगठन नाकोहस (नेशनल कमीशन फॉर हर्ट सेंटीमेंट्स) के निशाने पर आ जाते हैं. उन्हें गिरफ्तार कर प्रताड़ित किया जाता है और बाद में चेतावनी देकर छोड़ दिया जाता है. यह उपन्यास घटनाओं की बजाय उन पर चल रही बहस को केंद्र में रखता है. इस पढ़ते हुए मुझे अलग संदर्भ में दो किताबें याद आती हैं, एक इसकी विषय वस्तु के संदर्भ में काफ़्का की ‘द ट्रायल’, जहाँ बिना किसी अपराध के नायक को एक अभियोग का सामना करना पड़ता है. ‘नाकोहस’ भी किसी झूठी उम्मीद का दिलासा दिए बिना स्थिति की पूरी भयावहता के साथ अपनी बात कहती है. दूसरी इसकी शैली, सत्तर के दशक में ‘किस्सा कुर्सी का’ फ़िल्म की पटकथा की याद दिला देती है. जहाँ घिड़ला नाम का कारोबारी है, नेताओं में अपनी पैठ बनाने वाला संत है, गूंगी जनता है, चूहे मारने पर इनाम रखने वाली सरकार है जो बाद में उसे अपराध घोषित करके चूहे पकड़ने पर जेल में बंद भी कर देती है. कुल मिलाकर यह उपन्यास आहत भावनाओं के फासीवाद पर एक सशक्त टिप्पणी है.
5. दराज़ों में बंद ज़िंदगी/ दिव्या विजय
जब यह किताब आई तो ऐसा लगा कि इसे बाज़ार के दबाव में लिखा गया होगा. यानी कि कुछ वर्षों में सिमटी हुई किसी की निज़ी डायरी का प्रकाशन आखिर क्यों ही हो? जबकि यह माना जा सकता है कि वह अपनी रचनात्मकता के आरंभिक दौर में है. मगर दिव्या विजय की डायरी के पन्नों से गुजरते हुए लगा कि इस पढ़ते हुए आप किसी स्त्री के ‘अपने कोने की तलाश’ को समझ सकते हैं. इस डायरी की तारीखों से गुजरते हुए इस बात शिद्दत से एहसास होता है कि अपना एकांत तलाशना किसी स्त्री के लिए कितना मुश्किल हो सकता है. डायरी के इन पन्नों में स्मृतियाँ हैं, घटनाएं भी हैं, कुछ किरदार हैं और बहुत सारा खालीपन भी है. एक ऐसा अवकाश जो शब्दों से किसी अमूर्त चित्र की तरह आकार लेता है. दिव्या विजय की यह किताब हिंदी के दूसरे युवा लेखकों की तरह तात्कालिक रूप से लोकप्रियता हासिल करने के मोह से बचती है. इसमें विलंबित लय वाले राग सी अनुभूति है. शायद पहले कुछ पन्नों को पलटने से बात नहीं बनेगी. जैसे-जैसे आप इसमें उतरते जाएंगे, वैसे इन शब्दों की तासीर आप पर असर करती जाएगी. एक बानगी, “दोहराव हमें आकर्षित करता है… आनंद का, गहन दुःख के क्षणों का. हम जाने-अनजाने सुख के उन दरवाज़ों पर दस्तक देते हैं पर ख़ाली हाथ और भरभराया दिल लिए लौटते हैं. बीता हुआ अपने होने में ही नहीं बीतता बल्कि हो सकने की संभावनाओं में भी बीतता है.”
6. ये दिल है कि चोर दरवाज़ा/किंशुक गुप्ता
बीते साल जब यह किताब आई तो अपने साथ कई संशय भी लेकर आई थी. इसका सतरंगी वाणी सीरीज से प्रकाशन, अंगरेजी की किताबों की तरह अग्रिम प्रशंसा में हिंदी के जाने-माने लेखकों की टिप्पणी, सारी कहानियाँ समलैंगिक संबंधों के अलग-अलग पहलू पर बात करती हुई. ऐसा लगा कि कहीं यह किताब सिर्फ एक मार्केटिंग स्ट्रेटजी का शिकार न होकर रह जाए. अचानक चमके और बाद के सालों में उसे भुला दिया जाए. अच्छे फिक्शन की चमक साल-दर-साल बढ़ती जाती है. किंशुक की खासियत यह है कि उन्होंने तमाम खतरों को मोल लेते हुए अपने इस संग्रह को पाठकों के सामने प्रस्तुत किया. कुल आठ कहानियाँ रिश्तों के इंद्रधनुषी रंगों की पड़ताल करना चाहती हैं. किंशुक ने उस अनजानी सतह पर कदम रखा, सामान्य लेखकों जिसके आसपास से होकर गुजर गए. अभी यह लेखक का पहला संग्रह है, इन कहानियों की साहित्यिक गुणवत्ता वक्त के साथ तय होगी. लेकिन यह बात तो तय है कि किंशुक के लेखन को आने वाले समय में भारतीय समाज में हो रहे बदलावों को साहित्य में ‘प्रतिबिंबित होने’ की तरह देखा जाएगा. यदि दलित और स्त्री अस्मिता लेखन में अपने तरीके से अपनी बात कह रही है तो किंशुक का यह लेखन ऐसी तमाम अस्मिताओं पर बात करने की पहल कर रहा है, जिसमें आगे ‘प्लस’ का निशान लगा हुआ है.
7. तेरहवां महीना/सुधांशु गुप्त
मध्यवर्गीय और निम्न मध्यवर्गीय जीवन अब कहानियों में नहीं दिखता. जबकि बदलते समय के हाशिए पर आज भी वह मौजूद है. छोटे शहरों और महानगरों के एक-दूसरे से सटे घरों और एलआईजी फ्लैट में रहने वालों की अपनी एक अलग दुनिया होती है. आज के उपभोक्तावादी दौर में यह मध्यवर्ग हाशिए पर चला गया है. छोटी नौकरियाँ करने वाले लोग, छोटी-छोटी बचत से जरूरत की चीजें खरीदने वाले, आर्थिक तंगी के बीच बनते-बिगड़ते रिश्तों के बीच जीने वाले लोगों की कहानियाँ अब बहुत कम कही जाती हैं. सुधांशु गुप्त की कहानियों में यही दुनिया खुलती है. उनकी कहानियों में नाउम्मीद के बीच किसी झूठी उम्मीद के साथ जी रहे लोगों की कहानियाँ मिलती हैं. जैसे कि ‘तेरहवां महीना’ अपने शीर्षक से ही यह स्पष्ट कर देती है कि यह एक असंभव उम्मीद की कहानी है. कथानायक को तेरहवें महीने का इंतज़ार है, जो कभी भी किसी साल का हिस्सा नहीं बनेगा. खुद लेखक के शब्दों में यह प्रेम नहीं प्रेम की संभावना की कहानी है. संग्रह में कुल 20 कहानियाँ हैं. ज्यादातर कहानियों कोई प्लॉट नहीं है, मगर उनमें कहानीपन बरकरार है, लेखक निबंध की तरह कहीं भी अपने विचार नहीं व्यक्त करता, हर कहानी में कुछ किरदार हैं, एक वातावरण है, बाहरी संघर्ष है और उसके बरअक्स चल रहा आत्मसंघर्ष भी है. ‘तेरहवां महीना’ के अलावा इस संग्रह में मेरी सबसे प्रिय कहानी ‘मुखौटे’ है, जो मौजूदा समय को एक भयावह फैंटेसी के जरिए सामने रखती है.
8. एक ख़़ंजर पानी में/खालिद जावेद
‘मौत की किताब’ और ‘नेमत खाना’ की अपार लोकप्रियता के बीच दो साल पहले आई किताब ‘एक ख़ंजर पानी में’ कम चर्चा समेट पाई. इस किताब का उर्दू से अनुवाद रिज़वानुल हक़ ने किया है. खालिद जावेद के उपन्यास और कहानियाँ सामान्य चलन को तोड़ते हैं. वे पाठक को असहज और परेशान करते हैं. सुंदरता और रोमांस के सतही समझ और बोध पर प्रहार करते हैं. वे मनुष्य और जीवन की पेचीदगियों, कुरूपता, बीमारी और गंदगी को प्रस्तुत करते हैं. उनकी कल्पनाएं कभी-कभी समझ से बाहर होती है, मगर हमें अपनी तरफ खींचती भी हैं. यह उपन्यास भी एक महामारी के बहाने बीमारियाँ, गंदगी, मानवीय क्रूरता, अस्तित्व की पीड़ा और मृत्युबोध तक की यात्रा है. इस उपन्यास का राजनीतिक पाठ भी किया जा सकता है और मानवीय चेतना और अस्तित्व के सवालों पर भी बात हो सकती है. इससे पहले के उर्दू फिक्शन में अक्सर महामारियों को कुदरत के कहर की तरह दिखाया गया था. जिसमें यह माना जाता है कि ये सज़ा खुदा ने इंसान को उसकी गलतियों की वजह से दी है. लेकिन इस उपन्यास में ख़ालिद जावेद ने इससे बिल्कुल अलग महामारी को एक अस्तित्ववादी सवाल की तरह देखते हैं और उसे एक बहस में तब्दील कर देते हैं.
9. नो नेशन फॉर वीमेन/प्रियंका दुबे
यह मेरी सूची की इकलौती किताब है जो अंगरेजी में है, मगर इसे शामिल करने की दो बड़ी वजहें हैं. एक तो प्रियंका दुबे को हम हिंदी की रचनाकार के रूप में जानते हैं, दूसरे कोविड से करीब दो साल पहले आई इस किताब को अभी एक लंबा सफ़र तय करना है. यह किताब हमारे व्यापक विमर्श का हिस्सा बननी चाहिए. ‘नो नेशन फॉर वीमेन’ भारत में महिलाओं के खिलाफ अपराधों, खासकर बलात्कार जैसे जघन्य अपराधों की भयावह सच्चाई को सामने लाती है. खासतौर पर ग्रामीण और वंचित समुदायों की महिलाओं की त्रासदियों पर.मुख्यधारा की खबरों में इन्हें लगभग अनदेखा कर दिया जाता है. कुल 13 अध्यायों में बंटी इस पुस्तक में लेखिका ने लगभग 25 मामलों की रिपोर्टिंग की है, जिनमें से अधिकांश दलित, आदिवासी और अल्पसंख्यक समुदायों से हैं. प्रियंका के लेखन की जो सबसे बड़ी खूबी मुझे लगती वह एक साथ संवेदनशीलता और साहस की सतह पर चलते हुए घटनाओं का गहराई से विश्लेषण करना है. वह अपने इन रिपोर्ताज के जरिए यह बताती हैं कि बलात्कार केवल शारीरिक हिंसा नहीं है, बल्कि अक्सर यह शक्ति प्रदर्शन और सामाजिक वर्चस्व का साधन बन जाता है. पुस्तक का नाम, “नो नेशन फॉर वीमेन”, खुद यह सवाल खड़ा करता है कि क्या महिलाओं के लिए कोई ऐसा देश हो सकता है जो उन्हें पूरी तरह सुरक्षा और सम्मान प्रदान करे?
10. भारतीय कला फ़िल्म आंदोलन का इतिहास/डॉ. हरेंद्र नारायण सिंह
सिनेमा में अपनी गहरी दिलचस्पी के चलते मैं अक्सर इस विषय पर लिखी गई हिंदी की किताबों को भी तलाशता रहता हूँ. कुछ साल पहले प्रकाशित यह किताब भारतीय कला फ़िल्म आंदोलन पर आधारित है. यह हरेंद्र नारायण के शोध प्रबंध का पुस्तकीय रूपांतरण है. भारतीय सिनेमा पर गहरा असर डालने वाले समानांतर सिनेमा आंदोलन पर हिंदी में ही अच्छी किताबें नहीं हैं. यह किताब काफी हद तक इस संदर्भ में एक दस्तावेज़ की कमी तो पूरी ही करती है, उसके वैचारिक पक्ष में काफी गहराई तक जाने का प्रयास करती है. इस पढ़ते हुए कला सिनेमा के आंदोलन को उसके ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में समझा जा सकता है. एक किताब के रूप में भी यह पठनीय है. शोध के दौरान पर्याप्त संदर्भ सामग्री का इस्तेमाल किया गया है, जिससे इस विषय के बारे में और पढ़ने-जानने की रुचि बनी रहती है. अंतिम दो अध्याय में भारतीय सिनेमा के इतिहासविद् पीके नायर तथा हाल के दौर में सिनेमा की नई धारा के प्रमुख निर्देशक अनुराग कश्यप से साक्षात्कार भी है. कुल मिलाकर भारतीय कला सिनेमा आंदोलन के ऐतिहासिक तथा वैचारिक परिप्रेक्ष्य की बुनियादी समझ के लिए इस किताब को पढ़ा जा सकता है.
ख़ुर्शीद अकरम |
साल भर में हम कितनी ही किताबें और पत्रिकाएं पढ़ जाते हैं, कुछ पूरी कुछ अधूरी, कुछ रुचि से और कुछ बे-मन से. साल के अंत में उनमें से अच्छी किताबों को चुनना कुछ-कुछ सालाना परीक्षा जैसा हो जाता है. मगर यह है बहुत सुखद.
हिन्दी की कई किताबें पढ़ीं, दो अभी याद आ रहीं हैं. एक: एक विचित्र कारण से और दूसरी विशिष्ट कारण से. सात आठ महीने पहले कंचन भारद्वाज का कविता संग्रह ‘पतंग उड़ाती लड़की’ पढ़ा. बतौर कवयित्री ज्यादा उन्हें जनता नहीं था. लेकिन एक के बाद कविताएँ एक दूसरे ही व्यक्ति से मुझे मिला रही थीं. ‘भीड़ से संवाद’ जैसी कविताएँ अपने समय की हिंसक उत्तेजना के भयावह को बड़े मार्मिक ढँग से उजागर करती हैं. ‘अपशगुन’ और ‘कहानी आसपास’ जैसी कविताएँ परंपरागत शैली में होते हुए भी गहरा प्रभाव छोड़ जाती हैं. औरत इस संग्रह के केंद्र में है, लेकिन ठीक फेमनिस्ट ऐंगल से नहीं. कई कविताएँ कलात्मक रूप से भी बड़ी सम्पन्न और सघन लगीं. रोज किसी से आम दिनचर्या के हिसाब से मिलना और बात होती है और उसके लेखन के माध्यम से मिलना एक बिल्कुल ही दूसरी बात. और ये दूसरी बात जब गहन विचारों के साथ और सूक्ष्म कलात्मकता के साथ हो तो वह बात आम बातों की तरह हवा में उड़ नहीं जाती.
साल के इन आखिरी दिनों में एक और अच्छी किताब हाथ आई. किताब का शीर्षक ही कुछ गैर-परंपरागत लगा: ‘के विरुद्ध’. सुविधा के लिए इसे जे स्वामीनाथन की जीवनी कह सकते हैं, मगर सिर्फ सुविधा के लिए. स्वामीनाथन बहुमुखी प्रतिभा के मालिक थे. चित्रकार, कथाकार, कवि, दार्शनिक और इन सब से अलग एक न समझ में आने वाले व्यक्ति. चित्रकार अखिलेश ने, इसे जीवनी नहीं “उनके बारे में कहा” है. और यह इसलिए कि स्वामीनाथन जैसे जटिल व्यक्ति के बारे में कोई linear बात करना बहुत मुश्किल है. अखिलेश ने, स्वामीनाथन के व्यक्त विचारों के साथ-साथ उनके पीछे के अव्यक्त विचारों तक पहुँच कर और उनमें अपनी कल्पना को भी मकड़ी के जाल की तरह बुना है. केंद्र में स्वामी हैं, और यह कुछ इस तरह है की, पाठक स्वामी को साफ-साफ देख तो सकता है, लेकिन उनतक पहुँच नहीं सकता. किताब पढ़ते हुए दो बातें और भी नोट कीं. एक तो यह की इसमें उर्दू शायरी का खूब (अनेक और सुंदर दोनों!) इस्तेमाल हुआ है. और दूसरी चीज, जिसने बहुत चकित किया, वह है खालिद जावेद के उपन्यास ‘मौत की किताब’ के अंशों का स्वामी के चित्रारथ को उजागर करने के लिए इस्तेमाल.
यह निश्चय ही अखिलेश का किताब से प्रभावित होने का इशारा है, वरना स्वामी की ज़िंदगी में तो यह किताब आई भी नहीं थी. स्वामी मौत के रहस्य को जानना चाहते थे. इसके लिए वह बनारस के जोगियों तक पहुंचते हैं. कई बाबा उन्हें समझाते हैं, लेकिन स्वामी के सवाल अपनी जगह कायम हैं, तो एक जोगी उन्हें कहता है, मौत को समझना है तो जा, खालिद जावेद की किताब ‘मौत की किताब’ पढ़. स्वामी विवश हो कर कहते हैं, ‘वह अभी लिखी जानी बाकी है.‘ ‘पढ़ लेना फिर आना….’ जोगी का जवाब है. साफ है की अखिलेश को स्वामी के सवालों के जवाब मौत की किताब में मिले. किसी उपन्यास का मौत जैसे जघन्य सवाल का कोई संभावित जवाब बन जाना और अपने समय से इस तरह बाहर निकल जाना मेरे विकार में एक गैर मामूली बात है. शायद आगे भी कभी जब किसी की जीवनी पढ़ूँगा, यह किताब अपनी शैली या कथ्य, किसी न किसी रूप में याद आएगी.
उर्दू में साहित्यिक किताबों का वर्चस्व है. यह अच्छा है की नहीं, फिलहाल मैं इस बहस में नहीं पड़ता. अलबत्ता विविधता की कमी और एक तरह की एकरंगी का एहसास जरूर होता है. शायरी और उसमें भी ग़ज़ल की शायरी सर्वप्रिय है. बहुत पहले यह बात कही गई थी कि हमारी बेहतरीन प्रतिभा ग़ज़ल से जुड़ी रही है. ये बात आज भी उतनी ही सही है. यह और बात कि अब की ग़ज़ल फैल तो गई है, मगर उस उच्च शिखर तक पहुँचने में नाकाम रही है, जहाँ तक इसे 60 और 70 की दहाई के शायर- शहरियर, निदा फाजली, बानी, ज़फ़र इकबाल, मुनीर नियाजी, मोहम्मद अलवी आदि ले गए थे. इस समय फरहत एहसास, शहपर रसूल, ऐन तबिश, नोमान शौक, शारिक कैफ़ी, आलम खुर्शीद, अरशद अब्दुल हमीद जैसे शायर सक्रिय हैं, और कहा जा सकता है कि पिछलों से अलग हैं. इस वर्ष मुझे ऐन ताबिश के दो संग्रह ‘जिस दिन अल्बम में आग लगी’ (नज़्में) और ‘रक्स करना ही जों ठहरा’ (ग़ज़लें), अरशद अब्दुल हमीद की नज़मों का संग्रह ‘ मेरे ख्वाबों में रा’शा हो गया है’ और आलम खुर्शीद की ग़ज़लों का संग्रह ‘कोई मसाफ़त बाकी है’ विशेष रूप से अच्छे लगे.
अमीर हमज़ा साकिब की ग़ज़लों की किताब ‘कुंज-ए-सैयारगाँ’ और कौसर मजहरी की किताब ‘रात, समुन्द्र ख्वाब’ भी देर तक जेहन में रहेंगी. शहराम सरमदी की नज़मों की किताब ‘हवाशी’ अपने एक अलग जाइके की वजह से स्मृति में रहेगी. मगर कहा जाता है ना कि ‘गद्य तर्क है, कविता अनुभव है. गद्य की भाषा विस्तार है, कविता की संक्षेप’. …तो मैं यहाँ गद्य की तीन किताबों पर कुछ विस्तार से बात करना चाहूँगा.
इस बरस पढ़ी गई किताबों में सिद्दिक आलम का उपन्यास ‘मर्ग–ए-दवाम’ ((Eternal Death) सर्वश्रेष्ट पठन रहा. सिद्दिक यूं भी समकालीन उर्दू कथा साहित्य के दो सर्वश्रेष्ट लेखकों में से एक हैं. मर्ग-ए-दवाम हमेशा जीवित रहने वाली एक आत्मा (प्रेतात्मा नहीं !) के existential crisis को अद्भुत ढंग से बयान करती है. जब व्यक्ति देख तो सकता है, मगर कुछ कर सकने में असमर्थ असहाय होता है. देखा जाए तो हम सब भी इसी तरह के क्राइसिस में हमेशा जीते हैं. बकौल नुसरती, ‘मुझे यहाँ पड़े रहना है मछली की तरह आँखें खुली और ज़बान बंद’. उपन्यास की दूसरी परत एक बड़े शहर की अन्डर-बेली का मार्मिक चित्रण है. सिद्दिक आलंम पास किस्सागोई की उत्तम कला है. किसी ने अगर उनकी किताबें ‘चीनी कोठी’ और ‘सालिहा सालिहा’ पढ़ी हो तो वह मेरी बात से सहमत हो गा. यह दोनों किताबें पिछले एक दो वर्षों में हिन्दी में प्रकाशित हो चुकी हैं.
नैना आदिल का उपन्यास ‘मुक़द्दस गुनाह’ भी एक अद्भुत अपन्यास है. कहानी कराची की है, मगर केंद्र में पूरे उपमहाद्वीप का कल्चर है. एक कहानी में ही दस पंद्रह कहानियाँ बड़ी कौशलता से गुथी गई हैं. नैना कवीयत्री के रूप में जानी जाती थीं, मगर इस उपन्यास ने पाठकों को चकित किया है. कथ्य और शिल्प दोनों स्तर पर देर तक याद रह जाने वाला उपन्यास है यह.
अश’र नजमी की कहानियों का संग्रह “ख्वाबों की गुमशुदा रिपोर्ट” भी अविस्मरणीय किताबों में से एक है. किताब में कुल दस कहानियों हैं, लेकिन हर कहानी मानवीय त्रुटियों, अस्तित्व, आत्मा और अंतर्आत्मा का गहन पड़ताल करती है. ये कहानियाँ अब तक उर्दू में लिखी जा रही कहानियों से प्रत्यक्ष रूप से अलग हैं. उर्दू में इन दिनों कहानियाँ नहीं लिखी जा रही हैं. मगर यह किताब सामने आई है तो लगता है यह विधा कम से कम उर्दू हिन्दी में नहीं मरेगी.
रखशन्दा जलील की अंग्रेजी पुस्तक Love in the time of Hate: In the mirror of Urdu’ भी लंबे समय तक याद रह जाने वाली किताबों में से है. यह वैसे तो लेखों का संग्रह है, मगर इनमें दो चीजें बड़े स्पष्ट रूप से उभरती हैं : एक तो यह की यह हमारे समय के बीच से गुजरती हैं. इनमें उस भयावह सत्य को उजागर किया गया है, जो राजनीति ने हमारे सामने ला खड़ा किया है. और दूसरी बात हमें यह बताती है कि हताशा तो है, मगर निराशा नहीं है, और यह ताकत लेखक ने उर्दू शायरी के खजाने से हासिल की है.
आशुतोष कुमार |
इस साल हिंदी में कई अच्छे कविता संग्रह प्रकाशित हुए. इनमें तीन संग्रह मुझे विशेष रूप से उल्लेखनीय लगते हैं. एक मोहन मुक्त का संग्रह ‘हम खत्म करेंगे’, दूसरा अदनान कफ़ील दरवेश का ‘नीली बयाज़’ और तीसरा चंद्रमोहन का ‘फूलों की नागरिकता’. इन तीनों संग्रहों में हमें प्रतिरोधमूलक कविता का नया तेवर दिखाई देता है.
नब्बे के आसपास और उसके बाद की हिन्दी कविता को उसके पहले की ‘समकालीन कविता’ से अलग करने के लिए ‘प्रतिरोधमूलक कविता’ कहा जा सकता है. प्रतिरोध इस समूचे काव्यकाल की प्रमुख चेतना है. प्रतिरोध की यह कविता उत्पीडित श्रेणियों, वर्गों, समूहों, समुदायों और समाजों की ओर से प्रभु सत्ताओं को चुनौती दे रही हैं. वह हिन्दी की समूची काव्य-भाषा परम्परा को प्रश्नांकित करने, तोड़ने और बदलने की कोशिश करती हुई दिखाई देती है. यह आसान नहीं है. असहमति, विरोध और विद्रोह की बातें भी बनी बनाई भाषा में व्यक्त होने पर संस्कार की स्थापित संरचनाओं को दुहराने लगती हैं. इन तीन संग्रहों में प्रचलित भाषा के विखंडन और नई भाषा की खोज का उद्यम ठोस रूप लेता दिखाई देता है.
मोहन मुक्त के पहले संग्रह ‘हिमालय दलित है’ में जो आग दिखाई पड़ी थी, वह इस दूसरे संग्रह में और अधिक प्रचंड हुई है. संग्रह की पहली ही कविता ‘बिंब’ भाषा के सामाजिक संस्कारों का सवाल उठाती है –
‘ .. कुतिया हुई गाली
केवल इसलिए कि उसके पास यौन स्वायत्तता थी.’
वह पूर्व कवियों से कहती है – ‘…तुम्हारी भाषा ने उस कविता की हत्या की है, जो रहती थी तुमसे पहले इस धरती पर.’ संग्रह की तमाम कविताएँ मनुष्य की स्वतंत्र चेतना को ‘भाषाओं की कैद’ से आजाद करने को बज़िद नज़र आती हैं. वे उन …. फूलों से बात करती हैं, जिन्हें सबसे ज़्यादा कवियों से डर लगता है…
अदनान कफ़ील दरवेश भी दूसरे संग्रह में कविता के अपने सफर में आगे बढे हुए दिखाई देते हैं. मोहन मुक्त की कविता अगर मजदूर के मजबूत हाथों और कुशल औजारों से काम लेती है तो अदनान, अपने ही शब्दों में, ‘फूल की छेनी से मुजस्समे तराशते’ हैं. उनके यहाँ भी ‘भाषा की कुतिया रोती है बेआवाज़’. यह गाली के रूप में इस्तेमाल किए जाने के विरुद्ध भाषा के प्रतिरोध का एक और रूप है. इस संग्रह की कविताओं में मदफन में बदल चुके मुल्क की गाढ़ी उदासी विचलित करती है, बेचैन बनाती है और बदलाव का संकल्प जगाती है. ये मुश्किल दिनों की तैयारी करती कविताएँ हैं. …आंसुओं को बचा कर रखती हुईं, बच्चों के लिए लोरियाँ याद करती हुईं, और अपनी आँखों को बार बार जांचती हुईं कि उन्हें नुकीले दांत और नाखून साफ़ साफ़ दिखाई देते हैं या नहीं.
कवि चन्द्रमोहन अपने पहले ही संग्रह में ‘फूलों की नागरिकता’ का सवाल उठाते हैं. मोहन मुक्त के फूलों को कवियों से डर लगता है. चन्द्रमोहन पूछते हैं कि जिन फूलों का खाने में उपयोग नहीं होता, जैसे कि कमल का फूल, उन्हें राष्ट्रीय फूल क्यों कहते हैं ! प्याज, गोभी, सरसों, मुरई, आलू जैसे फूलों को नागरिकता क्यों नहीं मिलती. जैसे राजनीति में पिछले दिनों नागरिकता के सवाल को हथियार बनाया गया, वैसे ही कविता में भी बनाया जाता रहा है.
चन्द्रमोहन स्वयं खेत मजदूर हैं, नागर समाज की हिंसा और पाखण्ड को अपने अनुभव से जानते हैं. उनकी कविता में श्रम की स्वानुभूति संस्कृति के आभिजात्य को चुनौती देती है. इन कविताओं में उपेक्षित और बहिष्कृत श्रम की त्रासदी तो है, लेकिन अवसाद, यातना और आत्मकरुणा नहीं.
इनकी जगह श्रम की गरिमा, श्रमिक का स्वाभिमान, अधिकार चेतना, संघर्ष चेतना, युयुत्सु भाव और वह ओजस्वी प्रेम है, जो भूख और मृत्यु की मार सहते हुए भी अपने खेतों और अपने देश को बचा लेना चाहता है.
इसी साल नवारुण प्रकाशन ने आजकल लिखी जा रही फिलिस्तीनी कविताओं का एक संग्रह प्रकाशित किया है – ‘घर लौटने का सपना.’ इन कविताओं का चयन और अनुवाद यादवेन्द्र ने किया है.
इन कविताओं में भी भूख और मृत्यु की मार से अपने देश और अपने बच्चों को बचा लेने की वही तड़प दिखाई देती है, लेकिन उसका मेयार कुछ और ही है.
यहाँ एक दो नहीं, कुल 35 कवियों की कविताएँ संकलित हैं. ये कविताएँ कवि गसन जाकतान के उस गाइड की तरह हैं, जिसके बारे में वे ख़ुद कहते हैं-
“ उसने हमें उंगली से इशारा कर दिखाया
इधर .. इधर
और देखते देखते गुम हो गया
जमींदोज घरों के बीच
धमाके के बाद
दीवारों के अंदर अभी भी
झाँक रही हैं उसकी उंगलियाँ:
इधर…इधर.”
अलका सरावगी की किताब “गांधी और सरला देवी चौधरानी : बारह अध्याय” किसी एक विधा के दायरे में समेटी नहीं जा सकती. यह मोहनदास करमचंद गांधी और सरला देवी चौधरानी की दोस्ती, प्रेम या आध्यात्मिक प्रेम के बारह महीनों की कहानी है. केंद्र में सरला देवी है लेकिन आख्यान दोनों किरदारों के वेंटेज पॉइंट से द्वंद्वात्मक ढंग से आगे बढ़ता है. सरला देवी का जो चरित्र इतिहास में उपेक्षित रहा है उसे फोकस में लाते हुए भी आख्यानपरक प्राथमिकता देने से बचा गया है. किसी को नायक या खलनायक बनाने से बचा गया है. दो विलक्षण व्यक्तित्वों की कहानी होते हुए भी यह किताब भारत के राष्ट्रीय आंदोलन के
वैचारिक, सांस्कृतिक और संवेदनात्मक कशमकश की कहानी भी बन जाती है. गांधी जी के नेतृत्व ने भारतीय स्त्री को किस तरह बदला और इस बदलाव से स्त्री के मन में पैदा हुए सवालों की आंच ने उसे खुद भी किस तरह दग्ध किया, यह सब इस अद्भुत आख्यान में मौजूद है.
किंशुक गुप्ता का कहानी संग्रह “ये दिल है कि चोर दरवाजा” हिंदी कहानी में एक नई खिड़की खोलता हैं. ये कहानियाँ क्वीयर चरित्रों के माध्यम से भारतीय समाज के वर्तमान की अनेक अदेखी गुत्थियों, उलझनों, यातनाओं और सभ्यतामूलक बर्बरताओं को उजागर करती हैं. ये कहानियाँ हमारी समूची सामाजिक सांस्कृतिक दृष्टि को चुनौती देती हैं, केवल एक समुदाय की तरफ ध्यान आकर्षित करने भर का काम नहीं करतीं.
इस दृष्टि से एक नए लेखक शहादत के कहानी संग्रह “कर्फ्यू की रात” का उल्लेख भी जरूरी है. इन कहानियों शिल्प का कच्चापन बाकी है, कहीं कहीं विश्व प्रसिद्ध कहानियों की छाया साफ नजर आती है, लेकिन देश के वर्तमान दौर में मुस्लिम समुदाय के जीवन की जिन भयावह सच्चाइयों को इनमें अंकित किया गया है, उनकी प्रामाणिकता और मार्मिकता पाठक को उन बाधाओं से उबार लेती है.
कथेतर में चंद्रभूषण की किताब “भारत से कैसे गया बुद्ध का धर्म” रुचिकर और रोमांचक रीडिंग है. अपनी जन्मभूमि से बुद्ध धर्म के विलुप्त होने के रहस्य की खोज करती हुई यह किताब एक यात्रा वृतांत की तरह लिखी गई है. यह किताब पाठक को एक तरफ भारत और नेपाल के महत्वपूर्ण बौद्ध स्थलों का जीवंत साक्षात्कार करवाती है, दूसरी तरफ भारत में बौद्ध दर्शन, धर्म और उसके विभिन्न संप्रदायों के जद्दोजहद भरे इतिहास में भी ले जाती है. मूलतः यह न तो इतिहास की पुस्तक है दर्शन की, लेकिन भारत के हजारों वर्षों के इतिहास में प्रबुद्ध जिज्ञासु की गहरी ताक झांक जरूर है. इस पुस्तक से पाठक को किसी सवाल का प्रामाणिक जवाब भले न मिले लेकिन यह उसके मन में सैकड़ो बेचैन करने वाले सवाल जरूर पैदा कर देती है.
विलियम डेलरिंपल की पुस्तक “द गोल्डन रोड: हाउ एंशियंट इंडिया ट्रांसफॉर्म्ड द वर्ल्ड” दुनिया पर प्राचीन भारत के ज्ञान विज्ञान, संस्कृति और दर्शन के प्रभाव का दिलचस्प वृत्तांत है.
लेखक यह स्थापित करने की कोशिश करता है कि चर्चित सिल्क रोड के बर अक्स भारत के समुद्री व्यापार के मार्गों ने मानव सभ्यता के विकास में आरंभिक दौर में अधिक निर्णायक भूमिका निभाई है. यह मुख्यतः भारतीय गणित , बौद्ध धर्म और हिंदू मिथकों के विश्वव्यापी प्रसार की कहानी है. लेखक का निष्कर्ष है कि भारत की श्रेष्ठतम उपलब्धियों के पीछे बहुलता, उदारता, समन्वयशीलता और वैचारिक स्वतंत्रता के मूल्यों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है. किसी संकीर्ण धार्मिक पहचान पर जोर देने की प्रवृत्ति इसके ऐतिहासिक अनुभव के विपरीत है और इसे पीछे ढकेलने वाली है.
21वीं सदी में दुनिया भर में फासीवाद के नए उभरते रूपों को गहराई से समझने के लिए फेडेरिको फिंकलस्तैन की पुस्तक “द वान्ना बी फासिस्ट्स” एक जरूरी किताब है. इसकी सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि इसमें दुनिया भर में विकसित हुए फासीवाद और पॉपुलिज्म के विभिन्न रूपों का गहराई से अध्ययन किया गया है. इस पुस्तक में फासीवाद के चार बुनियादी तत्वों की पहचान की गई है. राजनीति का सैन्यीकरण और राजनीतिक हिंसा. झूठ और मिथ्याप्रचार. घृणा की राजनीति. और तानाशाही.
इस पुस्तक में ट्रंप , बोलसेनारो और मोदी जी जैसे अनेक विश्व नेताओं की राजनीति का विश्लेषण करते हुए दिखाया गया है कि वे निर्णायक रूप से फासीवाद की तरफ बढ़ रहे हैं.
अभी वे भले ही लोकतंत्र को समाप्त कर तानाशाही की स्थापना करने में पूरी तरह सफल नहीं हो पाए हैं, लेकिन अगर उनकी राजनीतिक दिशा की ठीक-ठाक पहचान करते हुए उनका सचेत और सक्रिय प्रतिरोध नहीं किया गया तो उन्हें वहाँ तक जाने से रोका नहीं जा सकेगा.
इसी क्रम में राहुल भाटिया की किताब “द आइडेंटिटी प्रोजेक्ट” भी इस साल की एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है. इस पुस्तक में पिछले एक दशक में हुए भारत के संपूर्ण राजनीतिक कायाकल्प का राजनीतिक और ऐतिहासिक लेखा जोखा लिया गया है. लेखक की स्थापना है कि इसी एक दशक में भारत की आजादी की लड़ाई से उपजाऊ उदार लोकतंत्रवादी समतावादी समाजवादी भारत लगभग अप्रसांगिक बना दिया गया है. लेकिन यह बदलाव रातों-रात घटित नहीं हुआ. यह प्रक्रिया आर्य समाज जैसे पुनरुत्थानवादी आंदोलनों के समय से अत्यंत संगठित और सुचिंतित रूप से धीरे-धीरे आगे बढ़ती रही है. पुस्तक में संबंधित संगठनों की राजनीति, रणनीति और कार्य पद्धतियों का विस्तृत और प्रामाणिक जायजा लिया गया है. अनेक नई अंतर्दृष्टियों से भरी हुई यह पुस्तक हमारे सिर पर मंडलाते हुए खतरों को ठीक से समझने की दृष्टि से एक जरूरी रीडिंग है. भारत में फासीवाद का निर्माण में आधार कार्ड बनाने की परियोजना ने जो महत्वपूर्ण और भयावह भूमिका निभाई है, उसका भी इस पुस्तक में प्रामाणिक ढंग से जायजा लिया गया है.
गिरिराज किराडू |
“मैंने पढ़ पढ़ जितना ढेर लगाया, अंधेरा मेरा उतना ही बढ़ता गया*”
उर्फ़ 2024 की कुछ किताबें
डिस्क्लेमर
१. यह लेख एक रवायती सालाना पाठ है यानि सिर्फ़ उन किताबों के बारे में है जो इस साल (2024) में प्रकाशित हुईं. अगर ऐसा न होता तो मैंने इतनी सारी किताबों के बारे में लिखने की बजाय उस एक किताब के बारे में लिखा होता जिसे मैंने इसी साल ऐसे पढ़ा जैसे मैंने किसी किताब को आज तक नहीं पढ़ा था. करीब तेरह चौदह घंटे रोज़ काम करने और उससे भी ज़्यादा उस काम के साथ रहने के बीच उस किताब– एलेक्ज़ेंडर क्लूगे की ‘ड्रिलिंग थ्रू हार्डबोर्ड्स’– को मैंने कई औचक, वाचाल यात्राओं में, पटना के अपने अकेले फ़्लैट के ड्राइंग रूम में वीडियो शूट करने के हाशिये पर, पप्पू और वैसी कई चाय कॉफ़ी की दुकानों में ऐसे पढ़ा जैसे मैं शिव कुमार गांधी जैसे किसी दोस्त से मिल रहा हूँ, एक असहनीय अरसे बाद, लगभग उसे पूरा भूल और गँवा कर!
२. मैं साल के अंत में ऐसी कारवाई एक युग के बाद कर रहा हूँ. आख़िरी बार मैंने बीबीसी हिंदी के लिए जब यह किया था तो मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री थे और उनके बारे में लोगों की राय, ठोस उन्नीसवीं शताब्दी के उपन्यासों के यथार्थ की तरह रियल हुआ करती थी.
३. यह ज़ाहिर ही साल की बेस्ट किताबों की फ़ेहरिस्त नहीं है. मेरी उस क़वायद में कोई दिलचस्पी नहीं रह गई है. उसके लिए निकटतम मार्केटिंग गुरु या मेरिट पुलिस से संपर्क करें! ये वो किताबें हैं जिनसे मैंने बहस की, दोस्ती और झगड़ा किया और बदले में इन्होंने भी कमोबेश यही सब मेरे साथ किया.
४. इनमें से आधे लेखकों से मैं कभी नहीं मिला, और हैरानी यह है कि इन आधों में चंद्र भूषण और अदनान कफ़ील दरवेश भी शामिल हैं.
५. मेरे पढ़ने में फ़िक्शन कम होता गया है और उसका असर इस लेख में आपको दिखेगा.
६. अनुवाद की सिर्फ़ एक किताब है जबकि अगर मैं पढ़ पाया होता तो अनुवाद में आयी किताबों की अपनी एक सूची होती. हमेशा होनी ही चाहिए.
७. मैं संख्या 10 तक सीमित नहीं रख पाया.
द मैनी लाइव्स ऑफ़ सैयदा एक्स: नेहा दीक्षित
The Many Lives of Syeda X
नेहा दीक्षित का एक पत्रकार के रूप में काम जानता रहा हूँ, फेसबुक पर हम ‘दोस्त’ हैं लेकिन हमारी कभी बात नहीं हुई है, और ना कभी हम मिले हैं. उनके जर्नलिज्म, उसमें उठाये गए खतरों, उनके साहस, और कभी कभी अचानक दिखने वाले अपडेट्स ने शायद इस किताब के लिए, उनकी किताब का पाठक होने के लिए मुझे तैयार किया होगा. किताब के बारे में थोड़ा-बहुत इधर उधर देखकर मैंने उसे मंगवा लिया. और नवंबर में जब मैंने इसे पढ़ा (तब तक मैंने वह ‘क्लूगे’पाठकचर्या वाला काम छोड़ दिया था, और मेरे पास कुछ खाली दिन थे किताबें ऐसे पढ़ने के लिए जैसे मैं शिव कुमार जैसे दोस्त से नहीं अपने ही रोज़मर्रा सेल्फ से मिल रहा हूँ) तो ऐसा लगा मैं वयस्क जीवन को दोबारा जी रहा हूँ. सैयदा और उसके ख़ानदान की कहानी 1992 से शुरू होती है और 2020 महामारी तक आती है.
यह देश के फासिस्ट कैप्चर की कहानी है और उस कैप्चर को उसके लक्ष्य नागरिक की कहानी की तरह कहती है. एक व्यक्ति की कहानी को एक देश की आत्मकथा की तरह कहने को रश्दी ने “द मिडनाइट्स चिल्ड्रेन’ में एक फॉर्मल उड़ान दी थी. नेहा की नज़र और किताब पूरे समय लाइव, ‘पत्रकारीय’ यथार्थ में रहती है. वे इस किताब में ब्रेकिंग न्यूज़/ बड़ी खबर, उसके रियल टाइम फॉल आउट और उसमें फँसी निजी दास्तानों को एक तीन तहों वाली सरंचना की तरह लिखती हैं.
सैयदा आख़िरी पन्ने पर जीवित है. रेशमा और GG शादी कर लेते हैं. 28 बरस. कई दंगे, बल्कि अठाईस बरस लंबा एक दंगा, सहकर सैयदा अकमल का बनाया गाजर का हलवा टिफ़िन में लेकर ट्रॉनिका सिटी जा रही है. इन 28 बरसों ने नया पैसा, नई इमारतें, नई नौकरियाँ, नए ‘काम’ बनाये हैं, यह किताब नयी पूंजी के बनाये उन आकारों की भी समझ बनाती है.
गुजरात अंडर मोदी: क्रिस्तोफ जाफ्रलो
Gujarat Under Modi: Christophe Jaffrelot
यह किताब 2014 के लोकसभा चुनाव के समय तक प्रकाशित होनी थी लेकिन प्रकाशक ने यह कह कर छापने से इनकार कर दिया कि उनके कानूनी सलाहकारों के मुताबिक किताब के कुछ अंश गुजरात के लोगों को आहत कर सकते हैं. जाफ्रलो से कहा गया कि वे किताब के कई अंशों को सम्पादित कर दें तो छप जाएगी जो उन्होंने नहीं किया.
उसके बाद क्रिस्तोफ ने भारत, मोदी, हिंदू राष्ट्रवाद, आपातकाल आदि पर कई किताबें लिखी हैं जो भारत में भी प्रकाशित हुई हैं और एक अर्थ में वे समकालीन भारत के बारे में समझ बनाने के लिए एक ज़रूरी एकेडेमिक बन गए हैं. वे भारत विशेषज्ञों की ओरियेंटलिस्ट और अमेरिकी दक्षिण एशिया विभाग-वादी दोनों तरह की धाराओं से अलग किस्म के भारत विशेषज्ञ हैं. उन्होंने बिना मूल पांडुलिपि को बुनियादी रूप से बदले इस किताब को जब इस साल प्रकाशित किया [अब शायद गुजराती लोग एक किताब के कुछ अंशों से आहत नहीं होने वाले] तो मैंने इसे पढ़ने का फैसला इसलिए किया कि उनकी बाकी सब किताबें पढ़ चुका था, उनकी एक किताब को हिंदी में ऑडियो में प्रोड्यूस कर चुका था, ख़ुद उनसे उसकी रिलीज़ पर बात कर चुका था और मुझे लग रहा था कि यह किताब गुजरात मॉडल के बारे में कुछ नयी इनसाइट्स देगी. क़रीब चार सौ पृष्ठों की यह किताब ऐसा आंशिक रूप से करती है जब यह ‘deeper state’ बनाने का विश्लेषण करती है. जहाँ निष्कर्ष कुछ परिचित लगते हैं वहाँ भी विवरण कोई नया कोण सामने ले आते हैं.
जो किताब 2014 में नहीं छप सकती थी, 2024 में छप गई है. और दस बरस अप्रकाशित रहकर अधिक प्रकाशित हो गई है.
आइकनोक्लास्ट: आनंद तेलतुंबड़े
Iconoclast: Anand Teltumbde
कई साल पहले खैरलांजी पर आनंद की किताब से उनके काम से परिचय हुआ था. तब उनके बारे में यह चीज़ हैरान करती थी कि बड़े कॉर्पोरेट पदों पर काम करने वाला यह व्यक्ति एक समाज विज्ञानी और अकेडमिक के रूप में, सिविल राइट्स एक्टिविस्ट के रूप में इतना स्पष्ट, शार्प और विशद है. बाद में उनकी कुछ किताबें पढ़ीं, कुछ नहीं. लेकिन डॉ अंबेडकर को एक संविधानवादी से अलग एक रेडिकल की तरह समझने का लेंस उनसे ही स्पष्टतर हुआ. 2020 में उनकी गिरफ्तारी ने उनके काम को एक अलग परिप्रेक्ष्य में स्थापित कर दिया है. रिहा होने के दो साल के भीतर उनका यह मैग्नम ओपस आया है. इसे कई बार पढ़ना होगा और कई बार ख़ुद को इसे पढ़ने लायक़ बनाना होगा. यह भारत और दुनिया के बौद्धिक संसार, समतामूलक आंदोलनों, और प्रकाशन जगत के लिए एक बड़ी घटना है. यह किताब भारत और संसार की सब भाषाओं में आनी चाहिए.
द जननायक: संतोष सिंह, आदित्य अनमोल
The Jannayak: Santosh Singh, Aditya Anmol
मैं पत्रकार विष्णु के ठिकाने पर थोड़ा देर से पहुँचा, उनके सामने रखी किताबों में सबसे ऊपर यह थी. मैं अपने काम के सिलसिले में भी बिहार की राजनीति को व्यवस्थित ढंग से समझने की कोशिशें कर रहा था. मैंने विष्णु से कहा, “पढ़ने के लिए ले जा सकता हूँ?” उन्होंने तब के लिए मना कर दिया, वे संतोष सिंह के साथ इस पर वीडियो बातचीत करने के तैयारी कर रहे थे. कर्पूरी ठाकुर के बारे में जनरल नॉलेज टायप चीज़ें पता थीं, उधर उनको भारत रत्न दिया जा चुका था. मैंने किताब ऑर्डर कर दी.
यह एक अनुशासित किताब है जिसमें एक राजनीतिक पत्रकार और एक रिसर्चर ने कर्पूरी ठाकुर के विचारों, कामों, योगदान और राजनीति के बारे में एक ‘समग्र’ पाठ विकसित होता है. किताब में सामाजिक न्याय की राजनीति का ऐतिहासिक एंगल और पिछले तीस-पैंतीस वर्षों की राजनीति से उसके संबंध पर उतना नहीं है जितना शायद मैं चाहता था लेकिन वह शायद एक और किताब का विषय है. हो सकता है कि उत्तर-भारत रत्न दिनों में यह किताब कर्पूरी ठाकुर और उनकी राजनीति के विषय में कई किताबों के लिए एक रेफरेंस बने. यह किताब भी उम्मीद है हिंदी में तो आएगी ही.
पर्सनल इज पॉलिटिकल: अरुणा रॉय
Personal is Political: Aruna Roy
अरुणा ने जिस साल आई ए एस से इस्तीफ़ा दिया था, उस साल मैं पैदा हुआ था. वे और बेयरफुट हमेशा एक लेजेंड थे, लेजेंड के मूल अर्थ में – यानी एक क़िस्सा, बल्कि एक एग्ज़ेम्प्लेरी क़िस्सा जिसे अनेक लोग मिलकर बनाते हैं. जिसमें फ़ैक्ट और फ़िक्शन इस तरह मिल जाते हैं कि एक अर्थ में वह उसमें भाग लेने वाले हर व्यक्ति के लिए ओपेक [opaque] हो जाता है. इस किताब ने उसको मेरे लिए एक्सेसिबल बना दिया है. एन जी ओ के बारे में लेफ्ट की मानक आलोचना से लेकर हर तरह की क्रिटिकल सामाजिक सक्रियता को संदेहास्पद और कठिन बना देने वाले वर्तमान सत्ता द्वारा प्रचारित कॉमन सेंस, और ‘सोरोस’-प्रॉक्सी तक के समय में अरुणा के एक सतत उपस्थिति हमारे सार्वजनिक जीवन में रही है. इस किताब में वे अपनी आवाज़ में अपने निजी को जिस तरह राजनीतिक में खोलती हैं, उससे यह किताब आत्म-समीक्षा बन जाती है.
बाद में मैंने ख़ुद दो बार नॉन-प्रॉफिट संस्थाओं में काम किया और वहाँ के मेरे अनुभवों को भी इस किताब ने समझने में मदद की है.
भारत से कैसे गया बुद्ध का धर्म: चंद्र भूषण
भारतीय इतिहास की एक विराट उलझन के बारे में लिखी गई चंद्र भूषण की इस किताब में कोई फ़ुटनोट्स नहीं हैं, कोई संदर्भ ग्रंथ सूची नहीं है. अपने पढ़े हुए, अपने सोचे हुए, अपनी यात्राओं में देखे हुए को यह किताब एक अनुसंधान की तरह संभव करती है. मुझे नहीं पता इससे हासिल होने वाली ऐतिहासिक जानकारी और इसकी थ्योरी को विशेषज्ञ कैसे जांचेंगे, चुनौती देंगे लेकिन बिना किताब के शीर्षक में प्रश्नचिह्न लगाये और बिना किसी इतिहासकार या समाज विज्ञानी से सम्मति लिए [किताब का ब्लर्ब कवि-संपादक अरुण देव ने लिखा है] चंद्रभूषण ने मुझे इस दिशा में सोचने के लिए एक राह पर तो डाल ही दिया है. यह लिखने के बाद सोच रहा हूँ अब तो किसी दिन उनको कॉल कर ही लिया जाय!
सुंदर के स्वप्न: दलपत सिंह राजपुरोहित
मैं हिंदी विभागों में विद्यार्थी और अध्यापक किसी भी रूप में कभी नहीं रहा. शायद इसी कारण मेरे लिए हिंदी अकादमिक संसार की गुत्थियाँ बेशुमार हैं लेकिन दो शीर्ष-स्थानीय हैं: हिंदी नवजागरण और भक्ति साहित्य को आरंभिक (देशज) आधुनिकता के प्रतिनिधि या आविष्कर्ता की तरह देखना. दोनों मसलों पर जो निजी सिनिसिज़्म है उसको काबू में रखने के लिए पिछले कुछ सालों में रामविलास शर्मा, वीर भारत तलवार, पुरुषोत्तम अग्रवाल, डॉ धर्मवीर, लिंडा हेस आदि के काम को जानने के कोशिश करता रहता हूँ और डॉ मृत्युंजय से बहसें भी.
यह किताब जिस सीरीज़ का हिस्सा है, उसके संपादक पुरुषोत्तम अग्रवाल हैं और कबीर के संदर्भ से ‘आरंभिक (देशज) आधुनिकता’ और लोकवृत्त के बारे में उनके काम के बाद दलपत की किताब को मैंने उससे मिलती जुलती होने की अपेक्षा से पढ़ना शुरू किया. किताब पहचानों की जटिलता पर आग्रह करते हुए और नेटवर्क थ्योरी का इस्तेमाल करते हुए एक अलग रास्ता ले लेती है.
और जैसे ही यह एहसास हुआ मैंने किताब को शोध की राजनीति के साथ-साथ शोध की प्रक्रिया के रूप में पढ़ना सीखा. भारतीय इतिहास के बारे में, मध्यकाल के बारे में, भक्ति कविता के बारे में, देसी आधुनिकता के बारे में मेरे संदेहों को कुछ पुश बैक इस किताब ने दिया और एक ऐसे कवि सुंदर दास के कवित्व को जानने का अवसर भी जिन्हें मैं वैसे शायद नहीं पढ़ता.
फूल बहादुर: जयनाथ पाती
मगही से अनुवाद: अभय के
लगभग पचास पृष्ठों का यह नॉवेला 1928 में मगही में लिखा गया था और मुझे इसके बारे में इसी साल पता चला जब यह अभय के के अंग्रेज़ी अनुवाद में आया. पता चलने का कारण यह था कि “प्रतिलिपि” के दिनों में अभय को प्रकाशित किया था; बाद के सालों में संपर्क न रहने के बावज़ूद वे मेरे एल्गो में हैं और उनकी पोस्ट्स दिखती रहती हैं. स्पॉइलर से बचाना चाहता हूँ लेकिन इस ‘पहले’ मगही ‘उपन्यास’ की अपनी कथा, इसके लेखक की कथा, औपनिवेशिक ब्यूरोक्रेसी पर इसका व्यंग्य, और लेखक की किताबों के बारे में बंगाली भद्रलोक और भूमिहार समुदाय दोनों की प्रतिक्रिया सबने उस दौर में हिंदी पट्टी की देसी भाषाओं में आधुनिक लेखन की शुरुआत के बारे में जिसे मुहाविरे में नयी खिड़की कहते हैं, बाक़ायदा खोली.
क़िस्साग्राम: प्रभात रंजन
फुल डिस्क्लोजर: मैं इस साल से जानकीपुल ट्रस्ट द्वारा स्थापित एक पुरस्कार का जूरी हूँ.
जब हम तीन दोस्तों ने कई साल पहले, अपनी जेब के पैसों से, किताबें प्रकाशित करने का इरादा किया था तो जो तीन किताबें हमने हिंदी में अपने पहले सेट में प्रकाशित की उनमें से एक प्रभात रंजन का कहानी संग्रह “बोलेरो क्लास” था. उनके लेखन में ‘गंभीर’ और ‘लोकप्रिय’ को मिलाने की जो गंभीर कोशिश है उससे मैं एक युग पहले भी मुत्तासिर था और जब इस साल के शुरू में विश्व पुस्तक मेले में ‘किस्साग्राम’ के लोकार्पण में बोलने गया तब भी था. उनकी किस्सागोई में दो बातें बेहद अहम हैं – एक: बहुत सारे नैरेटर्स के द्वारा किस्से को इस तरह परस्पर विरोधी तरीके से बताया जाना कि ‘यथार्थ’ या फ़ैक्ट तक पहुँचना मुश्किल हो जाये और दो: मीडिया को हर किस्से का एक ज़रूरी नैरेटर बना देना, क्यूंकि बिना उसके अब कोई कहानी कही नहीं जा सकती. यह दोनों बातें इस किताब में भी हैं.
प्रभात रंजन की हिंदी में ऐसी उपस्थिति है कि उनके काम को वह उपस्थिति और सक्रियता घेर लेती है. उनका काम अक्सर उनकी सार्वजनिक सक्रियता जो राजनीतिक रूप से सही होने के परवाह नहीं करती के विरोध में जा खड़ा होता है. यह उपन्यास भी ऐसा है – एक धार्मिक मूर्ति के ध्वंस की कथा को इतने अस्थिर नेरेटिव में प्रभात कहते हैं कि पहले पाठ में लगता है थोड़ा और समेटा होता, लेकिन दुबारा पढ़ने पर लगता है यह एक स्थानीय ब्रेकिंग न्यूज़ थी इस पर इतना ही बवाल होना था. महाख्यान आप इसमें ढूँढिये, छकोरी पहलवान की कथा मामूली से आगे इससे ज़्यादा नहीं बढ़ सकती थी.
नाइफ: सलमान रश्दी
Knife: Salman Rushdie
मैं चौदह बरस का था जब सलमान रश्दी पर एक उपन्यास लिखने के लिए फ़तवा जारी हुआ था, उनके क़त्ल के लिए इनाम का ऐलान हुआ था. मैं जिस घर से आया था उसमें धार्मिक के अलावा कोई किताब नहीं थी और फ़िल्म गीतकार भरत व्यास, जो मासी के ससुराल की तरफ़ से रिश्तेदार थे, उनके अलावा मैं किसी लेखक को नहीं जानता था. बहुत बाद में मिडनाइट्स चिल्ड्रेन और हारून पढ़े. तब पता नहीं था ख़बर की तरह जीवन में रहने वाले इस लेखक को मैं जयपुर में लाइव बोलते हुए सुनूँगा. फिर उसी जयपुर में उसी फेस्टिवल में उनके आने को लेकर हुए विवाद को नेपथ्य से अनफोल्ड होते हुए देखूँगा. उनके उपन्यासों को द मूर्स लास्ट साई के बाद पढ़ने का मन नहीं हुआ. उनके भूमिगत जीवन की कहानी, सार्वजनिक जीवन में उनका पुनर्वास, उनका भारतीय और अंतर्राष्ट्रीय लेखन का एक बहुत ताक़तवर सितारा बन जाना, भारत की आज़ादी के पचास बरस होने पर उनके द्वारा किए गए भारतीय लेखन के चयन पर विवाद और ख़ुद उस चयन से नाराज रहना, उनके बहुत-से बुकर नामांकन और बेस्ट ऑफ़ बुकर आदि सब जीवन का हिस्सा रहे. शायद ही कोई लेखक इतने लंबे समय तक जीवन में रहा हो. लेकिन उनकी किताबें पढ़ना छूट गया था. ऐसा लगने लगा था फतवे को अब दुनिया पीछे छोड़ चुकी है, भूल गई है. लेकिन जिन्हें नहीं भूलना था, वे नहीं भूले.
सलमान भी वह करना नहीं भूले जो उन्हें आता है. ‘नाइफ’ साहस और जीवन तथा लेखन से प्यार की कविता है. चाकू इस किताब में एक प्रेमकथा को बाधित करता है और परवान पर भी चढ़ाता है. किताब के अंत की तरफ़ जब एलिजा और सलमान उस संस्थान लौटते हैं जहाँ उन पर हमला हुआ था, जब वे उस जेल के सामने खड़े होते हैं जहाँ ‘वह’, ‘वह हमलावर’ क़ैद है तो यकीन हो जाता है कि रश्दी के शब्द कभी नहीं मरेंगे, दुनिया को किस्सों के जिस समंदर की तरह उन्होंने बनाया है, वह समंदर हमेशा यहीं रहेगा.
अब मैं सलमान की वो सारी किताबें पढ़ रहा हूँ जो नहीं पढ़ी. वो भी जो उन्होंने अभी तक नहीं लिखी.
कविता, अंत से ठीक पहले
कबीर गायन पर आनंद की अंग्रेज़ी किताब ‘नॉटबुक’, शैलेंद्र के गीतों पर यूनुस ख़ान की बेमिसाल किताब ‘उम्मीदों के गीतकार शैलेंद्र’ और तीन हिंदी कविता संग्रह (अदनान कफ़ील दरवेश का ‘नीली बयाज़’, बोधिसत्व का ‘अयोध्या में कालपुरुष’ और अविनाश मिश्र का ‘वक़्त ज़रूरत’) – इन पाँच किताबों पर अलग से, विस्तार से इस लेख के पार्ट 2 में. इसलिए अभी बस इतना ही!
इस पहले ही बहुत लंबे हो गए वर्षांत लेख का समापन एक ऐसी किताब से जिसके प्रकाशन की प्रक्रिया और लोकप्रियता मेरे नज़दीक साल की सबसे ख़ुशनुमा चीज़ थी. लक्ष्मण यादव से उनका काम छीना गया, वे उस अन्याय को मज़बूती से सोशल मीडिया पर समझा रहे थे, उसका प्रतिकार कर रहे थे. और उस क्षण में एक नए हिंदी प्रकाशक (अनबाउंड स्क्रिप्ट) ने, उसकी संपादकीय टीम ने एक किताब की संभावना देखी. अन्याय के अंतरंग दस्तावेजीकरण की संभावना देखी और हिंदी की दुनिया में लगभग असंभव गति से वह किताब छप कर पाठकों तक पहुंची.
उसके बाद जो हुआ, इतिहास है. किताब ने खूब नए पाठक जोड़े. लक्ष्मण किताब को अपने सोशल मीडिया समुदाय तक ले गए, राजनेताओं और सामाजिक- राजनीतिक कार्यकर्ताओं तक ले गए.
लक्ष्मण यादव कभी कोई किताब लिखेंगे ऐसा उनको जानने वालों को, उनका यू ट्यूब चैनल देखने वालों को स्वाभाविक लगता लेकिन 2024 में वे ‘प्रोफेसर की डायरी’ लिखकर बेस्टसेलर लेखक हो जाएँगे – यह लेखक, संपादक, प्रकाशक के सुंदर, तेज-गति तालमेल से हुआ है.
उम्मीद है ऐसे काम और हुआ करेंगे!
यह मैंने कभी हिंदी कवि मोनिका कुमार से सुना था. अभी नाम याद नहीं लेकिन पंजाबी के किसी प्रोफेसर का कहा है: “मैनू पढ़ पढ़ लाया ढेर कुड़े, मेरा वधदा जाय हनेर कुड़े” [यह भी याद से ही उद्धृत है]
विषमता एक पुनर्विवेचन
‘विषमता एक पुनर्विवेचन’, नोबल विजेता और प्रसिद्ध अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन की प्रसिद्ध पुस्तक Inequality Reexamined का हिन्दी अनुवाद है. नरेश ‘नदीम’ द्वारा अनूदित यह पुस्तक सन 2023 में, राजकमल प्रकाशन से आई थी. इस पुस्तक में समानता, स्वतन्त्रता, न्याय और विविधता जैसी अवधारणाओं को अमर्त्य सेन ने अपनी विवेचना से एक दार्शनिक ऊंचाई प्रदान की है. समानतावाद बनाम स्वतंत्रावाद की जो बहस पूरी दुनिया में लगातार चलती रही है, को अमर्त्य सेन इस पुस्तक में ‘किस चीज की समानता?’ के बुनियादी प्रश्न के माध्यम से विस्तार देते हैं. समानता की मांगों की प्रकृति और व्यापकता का सूक्ष्म अन्वेषण करती इस पुस्तक को पढ़ना अर्थ और दर्शन की एक नई और रचनातंक जुगलबंदी का साक्षी होना है.
फिलिस्तीन : एक नया कर्बला
वरिष्ठ कथाकार नासिरा शर्मा की रचनाएँ तरल मानवीय संवेदना और जटिल राजनैतिक यथार्थों को समान रूप से पाठकों के समक्ष रखती रही हैं. लोकभारती प्रकाशन से प्रकाशित उनकी नई पुस्तक ‘फिलिस्तीन ; एक नया कर्बला’ इजरायल और फिलिस्तीन समस्या का जीता-जागता इतिहास है. इजरायल और फिलिस्तीन समस्या को वहाँ की सामाजिक-राजनैतिक पृष्ठभूमि में समग्रता से समझने का ऐसा प्रयास शायद ही पहले कभी हिन्दी साहित्य में हुआ है. रचना और विवेचना के संयुक्त उपकरण यहाँ जिस तरह इजरायल-फिलिस्तीन सघर्षों की संवेदनात्मक परिणतियों को रेखांकित करते हैं, वह इतिहास और साहित्य के बीच स्थित अंतरालों को तो कम करता ही है, वहाँ के राजनैतिक भूगोल को संपूर्णता में समझने का रचनात्मक विवेक भी प्रदान करता है.
अम्बेडकर एक जीवनी
चर्चित सांसद और लेखक शशि थरूर की यह पुस्तक, जिसका अनुवाद अमरेश द्विवेदी ने किया है, वाणी प्रकाशन से प्रकाशित हुई है. गहन शोध, अध्यवसाय और सधी हुई अंतर्दृष्टि के साथ लिखी गई यह किताब बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर के जीवन से तो हमारा परिचय कराती ही है, उनके संघर्षों को समझने का एक सम्यक नजरिया भी प्रदान करती है. अपनी दुरूह अङ्ग्रेज़ी के लिए मशहूर थरूर की भाषा इस पुस्तक में बहुत ही सुलझी और पारदर्शी है. अपने बचपन में जाति की अनभिज्ञता को कभी अपनी परवरिश के वैशिष्टय की तरह रेखांकित करने वाले शशि थरूर इस पुस्तक को लिखते हुये इस निष्कर्ष पर भी पहुँचते हैं कि अपनी जाति के बारे में कुछ भी नहीं जानना दरअसल जातिगत विशेषाधिकार का ही प्रतिबिम्बन है. वर्ष के अंतिम दिनों में जब आज अम्बेडकर भारतीय राजनीति और लोकतन्त्र में जारी विमर्श के केंद्र में खड़े हैं, उनका यह आत्मबोध इस पुस्तक के महत्व को और बढ़ा देता है.
कालजयी उपन्यास
आधार प्रकाशन से प्रकाशित वरिष्ठ आलोचक विनोद शाही की आलोचना पुस्तक कालजयी उपन्यास (भारतीय सभ्यता की जमीन) सन 1888 से 1990 तक के कालजयी उपन्यासों पर केन्द्रित है. सालों से बार-बार पढ़े और सराहे गए उपन्यासों की विवेचना के बहाने यह किताब भारतीय ढंग के उपन्यासों के अंतर्विकास की अवधारणा को स्थापित करने का एक रचनात्मक जतन करती है. आयातित सिद्धांतों के आधार पर कालजयी कृतियों के मूल्याँकन को अपर्याप्त मानते हुये यह पुस्तक भारतीय आलोचना पद्धति के अन्वेषण की प्रस्तावना भी करती है. यद्यपि इस बात से किताब का महत्व कम नहीं हो जाता, लेकिन इस तक पुस्तक में विवेचित ग्यारह महत्त्वपूर्ण उपन्यासों की सूची में एक भी स्त्री कथाकार के उपन्यास का शामिल नहीं किया जाना खटकता है.
दराज़ों में बंद ज़िंदगी
इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक में अपनी पहचान बनाने वाले कहानीकारों में दिव्या विजय का नाम महत्त्वपूर्ण है. ‘अलगोजे की धुन पर’ और ‘सगबग मन’ जैसे उल्लेखनीय कहानी-संग्रहों के बाद इसी वर्ष राजपाल एंड संस से उनकी डायरी ‘दराजों में बंद ज़िंदगी’ प्रकाशित होकर आई है. समय और संसार को एक समर्थ, संवेदनशील और रचनात्मक स्त्री नज़रिये से देखेने की जो ललक इस किताब में दिखाई पड़ती है, वह इसे पठनीय के साथ-साथ संग्रहणीय भी बनाता है. प्रेम, प्रतीक्षा, दुविधा और साहस के संयुक्त रसायन से रची गई इस कृति से गुजरना एक युवा स्त्री की लेखकीय निर्मिति को नजदीक से जानना भी है.
बहुजन साहित्य की सैद्धांतिकी
वैचारिक पत्रकार और चिंतक प्रमोद रंजन के सम्पादन में आई यह किताब, जिसे राधाकृष्ण प्रकाशन ने छापा है, बहुजन साहित्य की अवधारणा और उसकी संश्लिष्टताओं को समझने का प्रयास करनेवाले महत्त्वपूर्ण निबंधों का संग्रह है. अवधारणा, इतिहास और आलोचना नामक तीन खंडों में विभाजित यह किताब बहुजन साहित्य की सैद्धांतिकी और व्यावहारिक आलोचना के बीच बहुजन साहित्य की आवश्यकताओं के ऐतिहासिक कारणों का गहन पड़ताल करती है. यह किताब इस बात को बहुत गहराई से रेखांकित करती है कि अभिजन बनाम बहुजन के द्वंद्व, जिन हितों की टकराहटों के कारण उत्पन्न होते हैं, को समझे बिना बहुजन साहित्य और वैचारिकी की जरूरत को नहीं समझा जा सकता है.
वासवदत्ता
राजा उदयन और राजकुमारी वासवदत्ता की ऐतिहासिक प्रेमकहानी पर आधारित वरिष्ठ कवि-कथाकार-आलोचक महेंद्र मधुकर का उपन्यास ‘वासवदत्ता’ इसी वर्ष सेतु प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है. नाटककार भास और कवि कालिदास की रचनाओं से प्रेरित यह उपन्यास इस बात की भी प्रस्तावना करता है कि प्रेम समस्त ऐश्वर्यों के मूल में निहित होता है. यह जहाँ मनुष्य को जीवन जीने की जिजीविषा देता है, वहीं युद्ध जीतने की ताकत भी. कथानायक उदयन जो हृदय से कलाकार है, किस तरह प्रेम से ऊर्जा ग्रहण कर शौर्य और पराक्रम से युद्ध जीतता है, वही इस उपन्यास में एक रोचक और साहसी प्रेमकथा की तरह पुनर्सृजित हुआ है. इतिहास, प्रेम और युद्ध के त्रिकोण में सांसें लेता यह उपन्यास प्रेम और पीड़ा की ऐसी पारस्परिकता का सृजन करता है, जिसमें परंपरा और आधुनिकता दोनों की आभा दीप्त हो उठती है.
एक मधुर सपना
कवि के रूप में प्रसिद्ध प्रेमरंजन अनिमेष पिछले तीन दशकों से कहानी की दुनिया में भी उतने ही सक्रिय रहे हैं. यही कारण है कि पुस्तकनामा से प्रकाशित उनका प्रथम कहानी-संग्रह ‘एक मधुर सपना’ कहीं से भी पहलेपन का संकेत नहीं देता. न सिर्फ संग्रह की शीर्षक कहानी में बल्कि कमोबेश संग्रह की लगभगा हर कहानी में एक सपना मौजूद है- एक ऐसा सपना जो यथास्थिति के प्रति असंतोष से उत्पन्न होता है. इन सपनों को संप्रेषित और संपोषित करने की छटपटाहटें अनिमेष को बार-बार सत्य, स्वप्न और दुःस्वपन की ऐसी अभिसंधि तक ले जाती हैं, जहाँ से उनकी कहानियों का पता मिलता है.
पटना का सुपरहीरो
रंगमंच और फिल्म की दुनिया से सम्बद्ध निहाल पराशर को कहानीकार के रूप में जानने का पहला मौका कथादेश पत्रिका ने दिया. कथादेश के वार्षिक आयोजन कथा समाख्या में उनकी कहानी ‘रश्क’ चुनी गई थी. उसके बाद वनमाली कथा के युवा कहानी अंक में उनकी कहानी ‘पटना का सुपरहीरो’ प्रकाशित हुई, जो छपने के पहले ही रंगमंच पर कई बार प्रस्तुत होकर दर्शकों के बीच खूब लोकप्रिय हो चुकी थी. पिछले दिनों हिंदयुग्म द्वारा प्रकाशित उनके पहले कहानी संग्रह ‘पटना का सुपरहीरो’ में कुछ अन्य कहानियों के साथ ये दोनों कहानियाँ भी शामिल हैं. आइडेंटिटी क्राइसिस से पीड़ित एक व्यक्ति कालांतर में कैसे सामूहिक आइडेंटिटियों के संघर्ष का सूत्रधार बन जाता है, इसे इन कहानियों में बखूबी देखा जा सकता है. चित्ताकर्षक भाषा और सहयोगी कलानुशासनों के रचनात्मक इस्तेमाल के बीच स्मृतियों के सहारे एक शहर विशेष को किरदार मे बदल डालने का हुनर भी इन कहानियों की खास विशेषता है.
भीलन लूटी गोपिका
पेशे से पुलिस अधिकारी और हृदय से कहानीकार सुमन गुर्जर का पहला कहानी-संग्रह ‘भीलन लूटी गोपिका’ इसी वर्ष सर्वभाषा ट्रस्ट से छप कर आया है. पुलिस सेवा में कार्य करते हुये अर्जित जीवनानुभवों की विविधताएं स्त्री नजरिए से इनकी कहानियों में उपस्थित होती हैं. अनुभव के साथ अंचल की नवीनता इन कहानियों की दूसरी विशेषता है जो पाठकों का ध्यान खींचती है. चंबल के अंचल की संस्कृति और बोली-बानी इन कहानियों में जैसे किरदार की तरह सांसें लेती हैं. स्त्री जीवन में होनेवाले छोटे-छोटे सामाजिक, आर्थिक और व्यावहारिक परिवर्तनों के बहाने लिखी गई ये कहानियाँ कई अर्थों में बड़े राजनैतिक परिवर्तनों की तरफ इशारा करती हैं. कथा-भाषा पर चंबल की छाप का नयापन हिन्दी कहानी के पाठकों के लिए एक नई दुनिया की चुनौतियों से रूबरू होते हुये उसे डिकोड करने की रोमांचक यात्रा पर निकलने जैसा भी है.
स्वधर्म, स्वराज और रामराज्य (विशेष संदर्भ तुलसीदास और महात्मा गांधी)
सुपरिचित आलोचक ज्योतिष जोशी ने अपनी इस पुस्तक में स्वधर्म, स्वराज और रामराज्य की अवधारणा को तुलसीदास और महात्मा गांधी के हवाले से समझने की कोशिश की है. भारतीय चिंतन परंपरा में मनुष्य के महामना और महात्मा होने की बात कही गई है. स्वधर्म, स्वराज और रामराज्य के मूल में भारतीय वाङ्ग्मय का यही मर्म मौजूद है. यह किताब वर्तमान संदर्भों के साथ उस महान चिंतन परंपरा के अर्थ संदर्भों के समकालीन भाष्य का संधान करती है.
पिछले वर्ष की तरह इस वर्ष भी महाभारत पढ़ता रहा. महभारत के आधुनिक अनुवादक बिबेक देबरॉय का निधन भी हो गया. असमय. आखिर मानवीय जीवन होता कितना है? ज्यादा से ज्यादा सौ वर्ष. इसके बाद मनुष्य अपने आपको को भविष्य में जीवित बचाए रखने का उपाय खोजता है. किताब लिखना या लेखक बनना भी उसमें से एक उपाय है. महाभारत व्यास का लिखा बताया जाता है. इसी माध्यम से उन्होंने अपने आपको जीवित रखा है. जब भी महभारत की चर्चा होती है तो व्यास की चर्चा होती है. इसी क्रम में के. एम. मुंशी की कृष्णावतार शृंखला की ‘महामुनि व्यास’ पढ़ी. पुरानी किताब है लेकिन उसे दुबारा पढ़ने पर कुछ नयी बातें कौंधी- मसलन निषादों के बारे में.
महाभारत की स्त्रियों पर दो किताबें पढ़ीं. नृसिंहप्रसाद भादुड़ी की ‘महाभारत अष्टादशी’ (साहित्य अकादेमी, 2024). यह जबरदस्त काम है. मुझे याद नहीं है कि पिछले पचास वर्ष में हिंदी में इस तरह का कोई अध्ययन हुआ हो जिसने महाभारत के स्त्री पात्रों की दुनिया को इतने नजदीक से पेश किया हो. नृसिंहप्रसाद भादुड़ी टिपिकल बंगाली साहित्यकार हैं. उन्होंने बांग्ला में विपुल लेखन किया है. इतना कि आपको पढ़ने में एक दशक लग सकता है. वह रामायण, महाभारत से लेकर संस्कृत साहित्य पर आधारित है लेकिन उसका कलेवर, बिम्ब विधान और वैचारिक झुकाव आधुनिक है. कभी-कभी उत्तर आधुनिक है. यह किताब में महाभारत की 18 स्त्रियों के सौंदर्य, प्रेम, काम-विचार और उनकी बेबसी को उन्होंने रच-रचकर लिखा गया है. उनकी दावेदरियों को जो स्वर भादुड़ी ने दिया है, उस पर टैगोर से लेकर पश्चिम के आधुनिक मनोशास्त्रियों की झलक देखी जा सकती है. इसका अनुवाद रामशंकर द्विवेदी ने किया है. हिंदी इस मामले में सौभाग्यशाली है कि उसके पास उनके जैसा अनुवादक है. हिंदी संसार अनुवादकों को पैसा और सम्मान दोनों नहीं देता है. उसे यह रवैया बदलना चाहिए.
महाभारत पर दूसरी महत्त्वपूर्ण किताब उमा चक्रवर्ती की आयी है. उनके काम से परिचित लोग इसका बेसब्री से इंतज़ार कर रहे थे. उनकी किताब ‘द डाइंग लीनियेज़ : द क्राइसिस ऑफ़ पॉलिटिकल पॉवर इन द महाभारत’ (प्राइमस, 2024) महाभारत की एक सामाजिक व्याख्या है जिसमें जाति, वर्ण और पितृसत्ता की बनावट की एक गझिन पड़ताल तो है ही, इसमें महाभारत के स्त्री पात्रों के तर्कों को भी करीने से पेश किया गया है. अपने जीवन के दूसरे हिस्से में उमा जी फिल्मकार भी रही हैं. इस कारण से उनकी भाषा में एक दृश्यात्मक आस्वाद समाया रहता है. अम्बिका, अम्बालिका और माधवी पर लिखे हुए अध्याय किसी भी सामान्य पाठक को लंबे समय तक बाँधे रखने की क्षमता रखते हैं.
वागीश शुक्ल की प्रतिष्ठा एक ऐसे स्कॉलर की रही है जो शास्त्र के उसके सटीक अर्थ तक जानना चाहता है. इस प्रक्रिया में वे आधुनिक विश्वविद्यालयी शिक्षा से पोषित मन को उद्दिग्न करने लगते हैं लेकिन उन्हें पढ़ना भी एक लंबी तैयारी की माँग करता है. अपनी किताब ‘आहोपुरुषिका‘ (सेतु, 2024) को उन्होंने अपनी पत्नी की याद में लिखा है. इस किताब का आंतरिक स्वर उनकी याद में भीगा है, यह आर्द्रता उनके कवि और निबंधकार रूप को सुंदर और ज्ञानी बनाती है. पत्नी की याद में प्रायः लोग लिखते हैं, यह बात नई नहीं है. उन्होंने उनकी याद के बहाने शास्त्र और उससे उपजे उन कर्मकांडों की पड़ताल की है जो विवाह और उसके उत्तर जीवन में शामिल रहते हैं. एक गृहस्थ और कवि की भूमिका में आवाजाही करते हुए वागीश शुक्ल अपने पाठकों से वेद, उपनिषद, महाकाव्य और पुराणों के प्रसंगों को फिर से विचारने के लिए प्रेरित करते हैं.
यह जो समय चल रहा है, उसमें ‘व्हाट्सएप इतिहास’ की बड़ी चर्चा होती है. इसका कई कारण हो सकते हैं लेकिन उसका एक कारण यह भी है कि इतिहास के प्रति एक स्वाभाविक आकर्षण भी है. लोग इतिहास पढ़ना चाहते हैं और उसे अपने ढंग से लिखना और तोड़ना-मरोड़ना भी चाहते हैं. यहाँ तक कि विद्यार्थी जीवन में जिनकी इतिहास में कोई प्राथमिक रूचि नहीं थी, वे बाद में इतिहास की गिरफ़्त में आते हैं और उनमें से तो कई बेहतरीन और लोकप्रिय इतिहास लेखक बनकर उभरते हैं.
पिछले वर्षों की भाँति वर्ष 2024 में गाँधी, नेहरू और आंबेडकर पर खूब किताबें आयीं. इन नेताओं के पुराने पाठों के नए पाठ भी आ रहे हैं. अभी हाल ही में धनंजय राय ने गाँधी के हिंद स्वराज को एक नए कलेवर के साथ पेश किया है(इसे अभी पढ़ा नहीं है). इन राजनेताओं का हमारे जीवन पर आज क्या प्रभाव पड़ा है, उसे भी चिन्हित किया जा रहा है.
‘गाँधी एंड आर्ट एंड अदर एस्सेज’(नोशन प्रेस, 2024) रमण सिन्हा द्वारा लिखित निबंधों का संग्रह इसी तरफ़ एक इशारा करता है. यह निबंध शोध और रचनात्मक साहित्य के बीच की दूरी पाटते हुए भारतीय कला रूपों की आपसी संबंधता को उजागर करते हैं. इस किताब में उन्होंने गाँधी के सत्याग्रह के सौंदर्यशास्त्र को बहुत ही हार्दिकता से विश्लेषित किया है. किताब का एक बड़ा हिस्सा विष्णुधर्मोत्तर पुराण में वर्णित कला दृष्टि के माध्यम भारत की विभिन्न कलाओं के पारस्परिक संबंध को विवेचित करता है. रमण सिन्हा वज्र और मार्कंडेय के बीच हुए संवाद को केंद्र में लाते हैं और पाठकों का ध्यान इस ओर आकर्षित करते हैं कि मूर्तिकला में निपुणता के लिए चित्रकला का ज्ञान आवश्यक है, चित्रकला को समझने के लिए नृत्य का, और नृत्य को समझने के लिए संगीत और गायन का ज्ञान होना चाहिए. इस प्रकार यह दृष्टि कला को एक सुसंगत और व्यापक फलक पर देखने का इसरार करती है. ‘गांधी एंड आर्ट’ भारतीय इतिहास, सौंदर्य दृष्टि और कला के वर्तमान पर बहुत जरुरी कृति है.
जब यह पंक्तियाँ लिखी जा रही हैं तो पिछले आठ महीने से भारत का संविधान और डॉ. भीमराव आंबेडकर का जीवन एक बार फिर चर्चा में है. आनंद तेलतुम्बडे के द्वारा डॉ. आंबेडकर की जीवनी 2024 के उत्तरार्ध में आयी जिसका शीर्षक है- आइकनोक्लास्ट : अ रिफ्लेक्टिव बायोग्राफ़ी ऑफ़ डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर’ (पेंगुइन, 2024). पिछले दो दशकों में आयी उनकी जीवनियों में यह सर्वश्रेष्ठ जीवनी है. ऐसा कहने के पीछे पर्याप्त कारण हैं. सबसे पहले तो यह उनके जीवन और उत्तर जीवन का एक समग्र मूल्याँकन है. पुरानी प्रकाशित सामग्री को बहुत ही सावधानी से परखकर यह जीवनी लिखी गयी है और नए स्रोतों की एक शृंखला भी लेखक ने पेश की है. इसकी खास विशेषता यह भी है कि यह जीवनी पूजा भाव से विरक्त लेकिन डॉ. आंबेडकर के प्रति सम्मानभाव से भरी है. इसे पढ़कर किसी सचेत पाठक को यही लगेगा.
युवा समाजशास्त्री अजय कुमार की किताब ‘अधीनस्थ की ज्ञान मीमांसा : समाजशास्त्र में दलित एवं दलित प्रश्न’ (भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, 2024) भारतीय विश्वविद्यालय जगत के भीतर समाजशास्त्र की एक विषय के रूप में पड़ताल है. यह किताब बताती है कि एक विषय के रूप दलित अध्ययन और डॉ. आंबेडकर की विचार वीथिका किस प्रकार हमारे सामने आती है. इस किताब का मुख्य जोर उस दलित बौद्धिकी की पड़ताल भी है जिसका निर्माण 1980 के बाद उत्तर भारत में हुआ. इसकी वैचारिक पृष्ठभूमि और भविष्योन्मुखी राजनीति के बारे में जो छिटपुट लेखन हुआ था, उसे इस किताब ने एक सुसंगत तर्क के रूप में पेश किया है. हाशिये पर उपज रही दलित समुदायों की साहित्यिक सामग्री जैसे आत्मकथा, कहानी, कविता आदि को समाजशास्त्रीय ज्ञान भंडार में शामिल करना इस किताब की एक उपलब्धि कही जानी चाहिए.
नेहा दीक्षित की ‘मेनी लाइव्स ऑफ़ सैयदा एक्स’ (जगरनॉट, 2024) 1973 में जन्मी एक मुस्लिम महिला की कहानी है, जो बुनकर समुदाय से संबंध रखती है. नेहा दीक्षित ने समकालीन भारत की बिखरी हुई सच्चाइयों को बड़े ही कुशलता से एक सशक्त कथा में पिरोया है. यह पुस्तक सैयदा के जीवन के माध्यम से सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक संघर्षों को उजागर करती है, जो हाशिए पर पड़े समुदायों की चुनौतियों को दर्शाती है. बनारस के घनी आबादी वाले इलाकों से शुरू होकर दिल्ली में समाप्त होने वाली यह कथा आधुनिक भारत में गरीब और सबाल्टर्न मुस्लिम समुदायों की कहानी, खासकर मोमिन अंसारी समाज की महिलाओं के दिलशिकन संघर्ष और उनकी अदम्य दृढ़ता की एक जीवंत तस्वीर प्रस्तुत करती है. पिछले एक दशक यानी 2014 के बाद तो यह किताब बहुत ‘इंटेंस’ हो जाती है. एक तरफ़ कोई राष्ट्रीय महत्त्व की घटना घट रही है, उसी के बरक्श एक और घटना घट रही है जो एक ‘लोकतांत्रिक’ देश भारत के मुस्लिमों को गहरे तक प्रभावित कर रही है. शुरू से लेकर अंत तक यह सैयदा के दुखों की एक तान है. किसी एक किताब को पढ़कर मैं इतना व्याकुल नहीं हुआ जितना इस एक किताब को. लेखिका के हुनर और ईमानदारी की जितनी तारीफ़ की जाए, वह कम होगी. भारत में मुस्लिम प्रश्न के बारे में जानने के लिए बेहद जरुरी किताब.
चन्द्र भूषण की विचारोत्तेजक किताब ‘भारत से कैसे गया बुद्ध का धर्म’(सेतु 2024) बौद्ध धर्म को फिर से देखने समझने का इसरार करती है. लेखक ने ऐतिहासिक आख्यान और आत्मपरकता के सुंदर संयोग से यह किताब लिखी है जिसमें बौद्ध धर्म का बौद्धिक पक्ष खुलकर सामने आया है. 400 पृष्ठों की यह किताब दो हिस्सों में विभाजित है जिसके पहले हिस्से में लेखक ने कुशीनगर, लुम्बिनी और कपिलवस्तु की यात्रा और काठमांडू व ललितपुर-पाटन के नेवार व तमांग बौद्ध समुदायों का विवरण दिया है. किताब का दूसरा हिस्सा वतर्मान को अतीत से जोड़ता है और यहाँ आकर चन्द्रभूषण धर्मकीर्ति, शंकराचार्य, अरब आक्रमण से बौद्ध धर्म के विघटन, कन्नौज के त्रिपक्षीय युद्ध और पाल वंश के पतन पर चर्चा करते हैं. नालन्दा विश्वविद्यालय के आचार्यों वसुबन्धु और असंग का विवरण इस किताब की उपलब्धि है.
डेविड लोरेंजन और पुरुषोत्तम अग्रवाल भक्तिकाल के समादृत विद्वान हैं. उनके कामों ने भक्ति काल, उसके समाज और सबसे बढ़कर भक्तिकाल के बौद्धिक वातावरण पर नई समझ और बहसों को जन्म दिया है. दोनों ने मिलकर सोलहवीं शताब्दी के कवि जन गोपाल के बारे में एक पुस्तक पेश की है –‘सो सेज़ जन गोपाल : द लाइफ़ एंड वर्क ऑफ़ अ भक्ति पोएट ऑफ़ अर्ली मॉडर्न इंडिया’ (स्पीकिंग टाइगर, 2024). यह किताब जन गोपाल के जीवन और कृतित्व पर एक अभूतपूर्व अध्ययन है. यह किताब पूर्व आधुनिक भारत में छंदशास्त्र, काव्य परंपरा और शास्त्रीय हिंदुस्तानी संगीत की तरफ़ अपने पाठकों को ले जाती है. इसके अंत में जन गोपाल की रचनाओं से जो चुनिंदा अंश दिए गए हैं, उसके कारण पुस्तक की अर्थवत्ता दुगुनी हो जाती है.
शेखर पाठक यात्री इतिहासकार हैं. पिछले चार दशकों में उन्होंने हिमालय और समाज पर खूब लिखा है लेकिन पाठकों को यकीन था कि शेखर पाठक के पास ऐसी कोई किताब जरुर होगी जो उनके नज़रिये से हिमालय के रहस्य और रोमांच को खोले. उनकी ताजादम किताब ‘हिमांक और क्वथनांक के बीच’ (नवारुण, 2024) हिमालय की एक यात्रा की याद है जिसे शेखर पाठक और उनके साथियों ने 2008 में अंजाम दिया था. यह किताब मृत्यु और हिमालय के बीच वहाँ की हिमानियों, पशुओं, पक्षियों और हिमालय के लोगों के बारे में रोचक, नवीन और प्रामाणिक जानकारियों का खजाना तो है ही, यह शेखर पाठक की एक साहित्यिक उपलब्धि भी है लेकिन इसे लिखते समय वे एक ‘सामूहिक स्वत्व’ को कभी नहीं बिसराते हैं. इस किताब में कोई पाठकों को चौंका देने के लिहाज से नहीं लिखी गयी है बल्कि उनको उस वातावरण से संलग्न करने के इरादे से लिखी गयी है. एक बेहद खूबसूरत किताब.
जवाहरलाल नेहरू ने 1962 के आम चुनाव में बिहार में एक जगह भाषण देते हुए कहा था कि साइकिल की सवारी ने भारत में एक बड़ी क्रांति की है. इसके बीस साल बाद, 1980 के दशक में मान्यवर कांशीराम ने तो साइकिल रैलियों के दम पर उत्तर भारत में एक बड़ा दलित आंदोलन खड़ा कर दिया था. और इसी समय साइकिल पर संकट भी आ रहा था. 1982 में अनिल अग्रवाल और राजीव गुप्ता ने ‘स्टेट ऑफ इंडिया’ज एनवायरमेंट’ रिपोर्ट में साइकिल को भविष्य की सवारी कहा था. इसके साथ ही इस रिपोर्ट में भारतीय शहरों की संरचना के अंदर साइकिल के लिए स्पेस के लगातार छीजते जाने पर बात की गई थी. 1982 भारत 14 लाख साइकिलें बनाता था जबकि चीन में साइकिल लोगों को उनके वर्क प्लेस तक ले जा रही थी. इस दौर में भारत से चीन को साइकिल का निर्यात भी किया जा रहा था. 1982 तक दिल्ली की 1,4000 किलोमीटर की सड़कों पर केवल 25 किलोमीटर साइकिल ट्रैक बने थे. एटलस का कारखाना बन्द हो गया है और भारत एक ‘स्पीडरोगी’ देश बनता जा रहा है और हाइवे पर साइकिल तो क्या आप मोटरसाइकिल या मोपेड भी नहीं चला सकते हैं. ‘टक्कर’ लग जायेगी.
यादवेन्द्र की सम्पादित किताब को इस विवरण के बीच से पढ़ा जाना चाहिए. यह गायब होती साइकिल का स्मृति कोलाज़ है. शीर्षक भी बड़ा सुंदर है – ‘यादों में चलती साइकिल’ (पुस्तकनामा, 2024). इस किताब में हमारे समय के कई महत्त्वपूर्ण लेखक, सिविल सोसइटी के लोग और प्राध्यापक शामिल हैं. प्राय: सबकी साइकिल के साथ कोई क़स्बा, शहर या लैंडस्केप जुड़ा है. यह उस तरफ़ भी पाठक को ले जाता है. इतिहासकार डेविड आर्नाल्ड ने अपनी पुस्तक ‘एवरीडे टेक्नोलॉजी’ में सिलाई मशीन, टाइपराईटर और साइकिल की भारत की आधुनिकता के निर्माण में भूमिका को रेखंकित किया है. उन्होंने लिखा है कि अपनी सहज उपलब्धता और गतिशीलता के चलते, ‘लघु प्रौद्योगिकी’ स्थानीय लोगों के पेशों, मूल्यों, उनके झुकावों और यहाँ तक कि उनकी भावनाओं से भी गहरे ढंग से जुड़ी होती है. यह किताब उन भावनाओं की भी निशानदेही है.
रोहिन कुमार की किताब ‘लाल चौक’ (स्पीकिंग टाइगर, 2024) पढ़ी. यह किताब इसी शीर्षक से हिंदी में आयी उनकी किताब का अंग्रेज़ी में अनुवाद है. हिंदी वाली किताब का तो बहुत गर्मजोशी से स्वागत हुआ था. इसको भी लोग निश्चित रूप से पढ़ रहे होंगे. इसके अनुवादक धर्मेश चौबे हैं जिन्होंने सरल और प्रामाणिक अनुवाद किया है. उनके अनुवाद को मैं इसलिए प्रामाणिक कह रहा हूँ कि उसका हिंदी पाठ भी मैंने पढ़ा था. यह किताब अब तक ‘मुख्यधारा के दिल्ली वर्जन’ के दोषों से दूर है और कश्मीर को उस तरफ़ से देखती है जहाँ कश्मीर है. इसमें लेखक ने खुद को बहुत कम बोलने दिया है और उन लोगों की आवाज़ों, चुप्पियों और फुसफुसाहट को ज्यादा तवज्जो दी है जिनके बारे में यह किताब है.
वर्ष 2024 में उपन्यास बहुत कम पढ़े. गौतम चौबे का उपन्यास- चक्काजाम (राधाकृष्ण, 2024) इतिहास और कथा का अद्भुत समन्वय है. आज़ादी के बाद बिहार के अंदर पूरे देश के अंदर हो रहे राजनीतिक, आर्थिक परिवर्तन बहुत शाइस्तगी के साथ इस उपन्यास में दर्ज हुए हैं. इसे पढ़ते हुए मुझे नेहा दीक्षित की किताब फिर याद आयी. उनकी किताब में हिंदी फ़िल्में एक चरित्र के रूप में उभरती हैं. गौतम चौबे के किरदार फिल्मों और राजनीतिक जीवन में आवाजाही करते रहते हैं. इस वर्ष कविता संकलन कई पढ़े. सेतु, वाणी और राजकमल से. छपाई सबकी अच्छी, सबके पास अच्छी कविताएँ हैं (और ख़राब कविताएँ भी हैं). कविता और उपन्यास पर फिर कभी.
शेष : चंद्रभूषण |
जल रही है शमा, कितने ही रंगों में
दमन-उत्पीड़न के माहौल में कविता और निखरती है. पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान में सत्तर और अस्सी के दशकों में पहले जु़ल्फिकार अली भुट्टो और फिर जनरल ज़िया उल हक की जालिम हुकूमतों के दौरान फै़ज़ अहमद फै़ज़, हबीब जालिब, अहमद फ़राज़, फ़हमीदा रियाज़ और परवीन शाकिर से लेकर जौन एलिया तक बहुत सारे शायर अपने-अपने ढंग से लिख-पढ़ रहे थे और सब के सब बहुत लोकप्रिय भी थे. हिंदी में कविता का उपभोक्ता-वर्ग उतना बड़ा नहीं है. कवियों में कविता को लेकर वैसी कोई मुराद भी नहीं दिखती. फिर भी कविता यहाँ कम नहीं पढ़ी जाती, न ही उसका प्रभाव नगण्य है.
अभी भारत में ध्रुवीकरण बहुत गहरा है, सो एक बड़ी आबादी इस बात को लेकर भी लाठी चला सकती है कि दमन-उत्पीड़न की तो बात ही मत करना, क्योंकि अपने यहाँ अमन-चैन कायम है. लेकिन हमारे शांतिप्रिय बुलडोजर राज में भी हिंदी कविता हजार रंगों में खिल रही है. इस साल आए कुछ कविता संग्रह मेरे पास हैं, जिनपर की गई इन सरसरी टिप्पणियों को बिना किसी क्रम के ही पढ़ा जाना चाहिए.
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बख्तियारपुर, विनय सौरभ
समय और समाज के चित्र खींचने में यह कवि अपनी कविताओं को कैमरे की तरह आजमाता है. छोटे शहरों-कस्बों में एकरसता का रोडरोलर यूं भी जीवन पर जरा कम चला है. वैविध्य उतना पटरा नहीं हुआ है. लिहाजा नाटक की शब्दावली इस्तेमाल करें तो ‘बख्तियारपुर’ में विनय के यहाँ बहुत तरह के ‘कैरेक्टर’ और ‘सिचुएशन’ दिखती हैं. कविताएँ आप कहानी की मुराद लेकर नहीं पढ़ते, सो इस बात का खास मायने शायद न हो कि कस्बाई जीवन कवि की यूएसपी है. विनय सौरभ के यहाँ बड़े दायरे की टिप्पणियाँ कम हैं लेकिन निष्कर्ष बहुत गहरे हैं.
‘बस एक पुल को पार कर रही थी
नीचे पानी था
चांद उसमें तैर रहा था
बीच की उम्र कहीं खो गई थी.’ (बीच की उम्र, पृष्ठ-37)
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वासना एक नदी का नाम है, सविता सिंह
एक कवि के रूप में सविता सिंह की ख्याति जीवन मूल्यों का एक बहुत बड़ा फासला भरने के लिए रही है. खासकर प्रेम और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के मामले में पवित्रता के पुराने, जड़ आग्रहों को खारिज करती हुई वे समकालीन पूरब और पश्चिम को एक धरातल पर रखने का प्रयास करती आई हैं. इस प्रक्रिया को उनका यह संग्रह और आगे ले जाता है और हिंदी कवियों के सामने अधिक ठोस, अधिक ऐंद्रिक होने की चुनौती पेश करता है.
‘हवा मुस्कुराती है
उसके माथे पर कितने ही रंगों के पराग पड़े दिखते हैं
वह खुद भी कई बार तितली बन जाती है
अनगिनत रंगों में शुमार हो जाती है
सांझ अभी उतरी है पेड़ों पर
बगल से एक नदी गाती हुई जाती है.’ (संभोगरत, पृष्ठ-30)
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समस्तीपुर और अन्य कविताएँ, अमिताभ
पहले अमिताभ बच्चन के नाम से लिखने वाले इस कवि को ‘बच्चन’ छोड़ देने के बाद भी प्रतिरोध की हिंदी कविता में उस कद्दावर अभिनेता जैसा ही मुकाम हासिल है. हालांकि अमिताभ अपनी कविताओं में जब-तब त्रिलोचन की याद दिलाते हैं और अभिनय बिल्कुल नहीं करते. पूरे साहस के साथ कही गई खरी, कड़क बातें, जो जीवन के खुरदुरे तजुर्बों से निकलती हैं और कहीं दोहराव का अंदेशा तक पैदा नहीं होने देतीं.
‘मैं एक दो साल की सेरेब्रल पाल्सी की मरीज हूँ
मगर तुम्हारे लिए बस एक मुसलमान हूँ
मैं दिल्ली आई हूँ
डाक्टर मेरी रिपोर्ट देखकर निराश हैं
और मेरे ये भारी अफसोस में डूबे दादा-दादी
जो फिर भी मुझे हर हाल में रखना चाहेंगे महफूज
जरा देखो ये किस कातर निगाह से मुझे देख रहे हैं
ये भी हैं तुम्हारे लिए बस दो मुसलमान.’ (मुसलमान, पृष्ठ-111)
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दक्खिन टोला, अंशु मालवीय
एक राजनीतिक कार्यकर्ता आलोचकीय मानकों की परवाह न करते हुए जैसे ठोंक कर अपनी बात कहता है, वैसी ही हनक अंशु मालवीय द्वारा अपने कविता-विषयों के चयन में दिखाई पड़ती है. ‘ई इज इक्वल टु एम सी स्क्वायर’, ‘कौसर बानो की अजन्मा बिटिया की ओर से’ और ‘हिंदू राष्ट्र के शहीदों के प्रति’ जैसे तो शीर्षक उनकी कविताओं के हैं. यहाँ अंशु की एक पूरी कविता पढ़ें, बाकी संग्रह में पढ़ लीजिएगा.
‘उसकी सींग से लिपटा
फड़फड़ाता है लहूलुहान दुपट्टा
उसके खुरों पर मंढ़ा है
इंसानी चमड़ा
वह चबा जाती है
किताबें
उसकी पागुर से
जहर टपकता है…
बहता है रक्त
उसके थनों से
गाय के थनों से रक्त बहता है
कौन दुहता है उसे?’ (गाय, पृष्ठ-137)
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सर्पदंश और अन्य कविताएँ, कात्यायनी
कात्यायनी की कविता शुरू से ही बिना किसी लाग-लपेट के क्रांतिकारी राजनीति की उपज रही है. वैविध्य की कमी उनके यहाँ कभी रही नहीं, फिर भी जब-तब पॉलिटिकल लाइन जैसी सपाट दिखने का खतरा वे अपनी कविता में उठाती रही हैं. इधर उनकी कविताओं में एक विषाद का स्वर भी दिख रहा है, हालांकि इसका स्वरूप व्यक्तिगत नहीं, पूरी तरह सामाजिक है और इसकी जेनेसिस समाज के पूरी तरह दक्षिणपंथी दिशा में झूल जाने में है.
‘झूठमूठ की रचना
और झूठमूठ की आलोचना. झूठमूठ का जीवन
और झूठमूठ के संस्मरण. झूठमूठ के मेले में
सब झूठमूठ नौटंकी. झूठमूठ के दालभात संग
झूठमूठ की चटनी. सच था तो केवल
हमारे समय का अमावस अंधेरा
और जीवन के जादू-जंगल में जुगनुओं की चमक.’ (झूठ-मूठ की चीजें, पृष्ठ-122)
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नीली बयाज़, अदनान कफ़ील दरवेश
भाषा और परंपरा, दोनों ही मामलों में अदनान उर्दू-हिंदी कविता के दोआबे के कवि हैं और ग़ज़ल भी उतने ही दम से लिखते हैं, जितनी शिद्दत से आज़ाद नज़्मनुमा अपनी कविताएँ कहते हैं. रही बात कंटेंट की तो इस कवि के पास वह पूरा हिंदुस्तान है, जिसमें हमसे पीछे की पीढ़ियाँ आबाद थीं और जो अभी हर मायने में बड़ी तेजी से गायब हो रहा है. अदनान की कविता को आप छूते हैं तो वह लावे की तरह काफी कुछ आपके भीतर पिघलाती चली जाती है. यह गुस्से का एहसास नहीं, ‘जो मार खा रोई नहीं’ वाली तकलीफ है.
‘हिंदू-मुस्लिम भाईचारा अब एक गर्म ख़ंजर का
पुराना पड़ चुका खोल भर था
जो किसी दम हमारा ही सीना चाक कर सकता था
लेकिन कमर से लटकाए
हम अब भी उसपर यक़ीन करने की ज़िद्द पर
अड़े हुए थे
अब हिंदुस्तान, एक अनोखा मदफ़न बन चुका था
जिसमें हर रात मैं और मेरे जैसे तमाम लोग
अपनी ही छोटी-छोटी क़ब्रें खोद रहे थे…’ (मदफ़न, पृष्ठ-60)
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अयोध्या में कालपुरुष, बोधिसत्व
पिछले कुछ सालों से बोधिसत्व की कविताओं में राजनीतिक तत्व काफी बढ़ गया है और ‘गाथा कविताएँ’ उपशीर्षक से आया उनका यह संग्रह सघन सांस्कृतिक अर्थों में पूरा का पूरा राजनीतिक है. इसमें कुल ग्यारह कविताएँ हैं और ज्यादातर का स्वरूप बहुखंडी है. मिथकों, महाकाव्यों और इतिहास में वे समान सरलता के साथ घुसते हैं और सहज विमर्श के जरिये जमी-जमाई धारणाएं पलट देने का प्रयास करते हैं. कहीं-कहीं श्रीकांत वर्मा जैसे लगते हैं लेकिन वितृष्णा और तटस्थता के बगैर. ऐसी कविताएँ बोधिसत्व के पास पहले भी थीं, लेकिन अभी ये उनका मुख्य स्वर बन गई हैं. इन्हें पढ़कर उनसे कोई बड़ी चीज लिखवाने का जी करता है, हालांकि अभी का जीवन ऐसी प्रबंधात्मकता की इजाजत उन्हें शायद ही दे.
‘क्या भूल गए बुद्ध बिंबिसार को
क्या मगध भूल गया पिता की इस क़ैद को
क्या कोसला भूल गई अपने मारे गए पति को
क्या वह नापित भूल गया
अजातशत्रु के आदेश को
क्या काराधीश भूल गया
अंतिम खिड़की बंद करने की आज्ञा को.’ (अजातशत्रु और बिंबिसार (तेरह), पृष्ठ-94)
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धर्म वह नाव नहीं, शिरीष कुमार मौर्य
इस कविता संग्रह का उप-शीर्षक ‘नव चर्यापद’ है. ध्यान रहे, चर्यापद नेपाल में नेवार बौद्धों की प्रार्थना पुस्तक है और नवीं-दसवीं सदी के सिद्ध कवियों के पद इसमें संकलित हैं. बाकी दुनिया के लिए इसकी खोज बीसवीं सदी की शुरुआत में आचार्य हरप्रसाद शास्त्री ने की थी. यह देखकर खुशी होती है कि हिंदी कविता बौद्ध दायरे का नए सिरे से अनुसंधान कर रही है और इसमें आधुनिक हिंदी कविता के शुरुआती दौर की तुलना में ज्यादा नवोन्मेषी विस्तार मौजूद है. शिरीष कुमार मौर्य को हम इंसानी रिश्तों की कविताओं के लिए जानते रहे हैं. जीवन दर्शन में उनका यह दखल मेरे लिए नया है.
‘अन्न मांगो उस घर से
जो विपन्न हो
उजड़ा हो दुर्भिक्ष में उस गांव जाओ
उस व्यक्ति से मिलो
जिससे मिलना सबसे सरल हो
और जिसकी तरह जीना
सबसे कठिन/ भिक्षु
अभी तो दीक्षा का आरंभ है
करुणा पर चर्चा
फिर कभी.’ (नव चर्यापद 1, पृष्ठ-13)
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प्रेम में पेड़ होना, जसिंता केरकेट्टा
प्रकृति और मनुष्य के बीच, स्त्री-पुरुष के बीच और पारिवारिक संबंधों में एक अलग तरह की सेंसिबिलिटी के लिए हम जसिंता केरकेट्टा की कविता पढ़ते आए हैं. इस संवेदना के बल पर ही वे एक प्रति-संसार रचती हैं, हालांकि यह काम वे किसी बुलबुले में जाकर नहीं, हमारे समय की पीड़ाएं हमारे साथ भुगतते हुए और प्रतिवाद करते हुए ही करती हैं. केवल एकरसता से बचने के लिए यहाँ मैं उनके आक्रोश और विरोध के स्वर को उद्धृत नहीं कर रहा.
‘प्रेम का अर्थ क़ब्ज़ा नहीं होता
न किसी की देह न खुशियों न सपनों पर
इसलिए पहला हक़ मेरा ही रहा मुझ पर
उसने सिर्फ अपने हिस्से का प्रेम दिया
और प्रेम में होकर भी हमने
एक-दूसरे को प्रेम के बंधनों से मुक्त रखा.’ (अपने हिस्से का प्रेम, पृष्ठ-25)
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सुनो जोगी और अन्य कविताएँ, संध्या नवोदिता
सघन रोमांटिक प्रेम जीने के लिए संध्या नवोदिता की ये कविताएँ पढ़ी जानी चाहिए. इतना रूमानी मैंने वर्षों से कुछ भी नहीं पढ़ा, लिहाजा इनके बारे में अलग से कुछ नहीं कहूँगा. दो कविता अंश देना चाहता हूँ-
‘दिन बहुत सुंदर था
धूल-मिट्टी उड़ रही थी और चेहरे को छूकर फिसल जा रही थी
मौसम इतना सुंदर था और जगह इतनी मनमोहक
कि अड़तालीस डिग्री की दोपहर
अपने गुलाबीपन में बहुत तेजी से बीत रही थी
गरम लू के थपेड़े हमारे ऊपर ठंडी हवा के कोमल फाहों जैसे गिर रहे थे
हम साथ थे.’
और
‘तुम्हारी याद सूने जंगल में मगन हरीतिमा है जोगी
झील से उठती भाप है
चहलकदमी है दुनिया के अरबों जोड़ी कदमों की
कुल्हड़ कॉफी है अगल-बगल बैठकर सिप की हुई
तेज ढलान पर उतरी राहत है
ऊंची चढ़ाई का सुकून है
तुम्हारी याद बिल्कुल तुम-सी है.’ (‘वह मौसम बहुत अच्छा था’, पृष्ठ-60, और ‘तुम्हारी याद बिल्कुल तुम-सी है’, पृष्ठ-105)
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एक परित्यक्त पुल का सपना, सौम्य मालवीय
इस कवि की कविताएँ मैंने अभी पहली बार ही पढ़ीं लेकिन कहीं-कहीं देर तक अटका रह गया. कई मिजाज की कविताएँ हैं, जिनमें तह के नीचे जाकर देखने की इच्छा झलकती है. ‘एक मनचले पुतले का प्ले-स्टेशन’ जैसी बिल्कुल ताजा शब्दावली है. मूल स्वर राजनीतिक है, जहाँ-तहां ‘धूमिल’ की याद दिलाता हुआ. लेकिन किसी चीज की छाया मन पर देर तक छपी रह जाए, ऐसा कुछ आना शायद अभी बाकी है.
तिरंगे में
जितना देश उतना प्लास्टिक
लिसलिसा, चिकना, चमकदार
धोने, तहने, इस्तरी की नहीं जरूरत
और हवा पर भी आसान
के फूंक मारे तो उड़ जाए,
माने फहर जाए
… छोड़ो असली-नकली का चक्कर
तव-जय-गाथा-गाता
पूरी नवलता के साथ नकली है
उतना ही नकली, जितना असली था
नेहरू जी की अचकन का गुलाब
चरर-मरर चरखे की औ खद्दर का ख़्वाब
मुल्क अब कपड़े नहीं
पन्नियों के पंख पहनता है! (तिरंगायन!, पृष्ठ-170)
ये तीन विशेषांक पढ़कर लगा कि कितना कुछ महत्वपूर्ण पढ़ने से रह जाता है। बेहतर में से भी एक-दो प्रतिशत बमुश्किल पढ़ पाते हैं। जाहिर है कुछ और किताबों के लिए उत्सुकता बनी है।
समालोचन ने यह महा आयोजन पूरा किया।
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Arun Dev यह बहुत सुंदर पहल है। न्यू यॉर्क टाईम्स पर इस तरह के कॉलम आते थे जिन्हें उन्होंने बाद में ‘By the Book’ नाम से संग्र्हित किया था। वह किताब पढ़ने लिखने वालों के लिए धरोहर है। हिन्दी में मैंने समालोचन पर यह पहली बार – ईमानदारी से – होते हुए देखा । बहुत शुक्रिया।
आप कमाल कर रहे हैं, किताबों पर इतना अच्छा लेखा जोखा किसी ने नहीं किया, मैंने तो जो लिखा वो अपनी जगह, मगर दूसरों के चयन देखकर बहुत समृद्ध हुआ. बहुत सारी किताबें मेरी सूची में बाकायदा शामिल हो गई हैं. संभवतः अगले कुछ दिनों में आर्डर हो जाए. सबसे अच्छी बात यह कि किताब की गुणवत्ता के आधार पर बातचीत समकालीन परिदृश्य से गायब है, इससे यह बहुत बड़ी कमी पूरी हुई है. इसकी निरंतरता बनाए रखें, यह अपनी तरह का यादगार काम होगा.
इस आयोजन से कई महत्त्वपूर्ण किताबों के बारे में पता चला।
धन्यवाद अरूणजी
किताबों की ये बातें यह भी बताती हैं कि अपनी पढ़त से कितना कुछ छूट जाता है. साल भर के परम्परागत लेखे-जोखे से इतर यह एक खजाने की तरह से भी है जो चुनने के लिए विषयगत तमाम किताबों को सामने रख रहा है. हमारे यहाँ इस तरह से बातें नहीं होती हैं और कुछ की पसंद तक चीजें सिमटी रहती हैं जिसे यह आलेख तोड़ रहा है. इसके लिए बधाई.
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बहुत बहुत शुक्रिया अरुणदेव जी। लगातर तीन दिनों तक आप ने किताबों की दुनिया की जिस तरह सैर कराई, वह मेरे लिये बहुत कीमती अनुभव रहा। साल के अन्त में किताबों पर चर्चा साधारणतः औपचारिकता होती है। आप ने इसे उत्सव में बदल दिया।
समालोचन इस समय कम से कम हिन्दी की सबसे अच्छी पत्रिका है। सहित्य की पत्रिका में इतनी विविधता पहले मेरी नज़र से नहीं गुजरी। और बड़ी बात यह कि आप हिन्दी जगत के अग्रिम पँक्ति के लेखकों का विश्वास जीतने में कामयाब रहे हैं, इसी लिये आप को वैसे पाठक मिले जैसे कोई भी अच्छा सम्पादक चहता है। मेरे जैसा मुल रुप से उर्दू का पाठक भी रोज एक बार समालोचन को खोल कर ज़रूर देखता हूं। किसी दिन नहीं पढ़ पाता तो उस का अफसोस करता हूं। बार बार सोचता हूं , ऐसी एक पत्रिका उर्दू में निकलूं , मगर उर्दू में अब ऐसे लिखने वाले नहीं। फिर आप के जितनी मेहनत करने की ताब व ताक़त कहां से लाऊं। रोज इतनी सारी समग्री पढ्ना, उसको प्रकाशन के लायक बनाना, उस की साज सज्जा करना, फिर हर सुबह site पर और वॉट्सएप्प के मध्यम से सब तक पहुंचाना, लेखकों से लिख्वाना, पर्चे की planning करना…अरे भाई, आप आदमी हैं कि जिन्न।
ख़ुर्शीद सर, माज़रत चाहूँगी तंग करने के लिए लेकिन उर्दू की किताबें ऑनलाइन मिलती नहीं हैं मुझे.
मसलन, जिन किताबों का आपने ज़िक्र किया है, वे ही कहाँ से दरयाफ़्त हो सकेंगी? ख़सूसन, कुंज-ए-सय्यारगाँ?
ज़फ़र इक़बाल, इरफ़ान सिद्दीक़ी के कुल्लियात का भी अगर इंटरनेट कि पता बता देते तो इस अपढ़ का भला हो जाता.
२०२४ इस वर्ष किताबें के इन तीन अंकों में आपने अत्यंत महत्वपूर्ण सामग्री उपलब्ध कराई है। आजकल बिना संशोधन के भी अनेक तरह की, विविध स्तरों की इतनी किताबें प्रकाशित हो रही हैं कि पाठकों के सामने पठ्य-अपठ्य के चयन की बड़ी दुविधा है। आपने बहुत सारी सामग्री एक साथ देकर पुस्तकों के चयन की दिशा दर्शाई है।
कुमार अंबुज जैसे लेखकों के पुस्तकों पर लिखे हुए इन आलेखों की प्रवाहमयी संरचना भी किसी ताजी रचना का आस्वादन करा रही हैं।
– दिवा भट्ट