‘तब इंदिरा जी ने उन्हें बुलवाकर पूछा था कि श्रीकांत तुम कौन-सा मंत्री पद लेना चाहोगे’
अभिषेक वर्मा और अंका वर्मा से जीतेश्वरी की बातचीत |
28 मार्च 2024 में दिल्ली की उस शाम में, वहाँ की फिजाओं में लोधी गार्डन के सुंदर फूलों की खुशबू फैली हुई थी. उसी शाम में मैं पहली बार हिंदी के सुप्रसिद्ध कवि, पत्रकार, अनुवादक और राजनेता श्रीकांत वर्मा के सुपुत्र डॉ. अभिषेक वर्मा और उनकी धर्मपत्नी श्रीमती अंका वर्मा से मिलने जा रही थी. तब मन से बहुत सारे सवाल थे. क्योंकि मेरी उनसे यह पहली मुलाकात थी.
साहित्य के विद्यार्थी होने और साहित्य से लगाव होने के कारण मैं श्रीकांत वर्मा की कविताओं से अच्छी तरह परिचित थीं और थोड़ा-थोड़ा उनके जीवन से भी. श्रीकांत वर्मा छत्तीसगढ़ के बिलासपुर के एक छोटे से कस्बे के व्यक्ति थे. मैं भी छत्तीसगढ़ की हूँ. श्रीकांत वर्मा ने एक छोटी सी जगह से उठकर दिल्ली में अपनी एक अलग पहचान निर्मित की थी. इसलिए उनके जीवन को जानने के प्रति मेरे मन में एक अलग ही कौतूहल तारी थी. श्रीकांत वर्मा को छत्तीसगढ़ की पहली महिला सांसद मिनीमाता दिल्ली लेकर आई थीं.
श्रीकांत वर्मा की कविताओं और उनके जीवन के उतार-चढ़ाव को हर कोई नहीं जानता. इसलिए पहली मुलाकात में ही मेरे मन में यह जिज्ञासा थी कि मैं अपने प्रदेश के इस प्रसिद्ध कवि को उनके सुपुत्र के माध्यम से कुछ जान और समझ सकूं. मेरी यह जिज्ञासा पूरी हुई हमारी इस दूसरी मुलाकात 22 अप्रैल 2025 की शाम जिसमें मैंने एक पुत्र की दृष्टि और स्मृतियों में बसे श्रीकांत वर्मा को उन्हीं के बेटे डॉ. अभिषेक वर्मा और उनकी पुत्रवधू श्रीमती अंका वर्मा से जानने की कोशिश की.
जीतेश्वरी
अपने प्रारम्भिक दिनों में आपने अपने पिता को किस रूप में पाया था? वे आपको किस तरह लाड़, प्यार और स्नेह किया करते थे? बचपन आपका कैसा रहा?
अभिषेक वर्मा
पिताजी की शादी सन् 1967 में जयपुर में वीणा वर्मा जी से हुई थी. मेरा जन्म 1968 में दिल्ली में हुआ. शुरू के चार-पाँच साल की यादें कम है. मैं इकलौता हूँ और इकलौता होने के नाते मुझे माता-पिता दोनों का ही लाड़-प्यार बहुत मिला. सारी इच्छाएँ पूरी होती रहीं. चूंकि श्रीकांत जी का बेटा था तो विदेश घूमने से लेकर मुझे उसका एडवांटेज बहुत मिला. मैं इंदिरा जी, प्रेम चोपड़ा, प्रेमनाथ, ऋषि कपुर, जितेन्द्र के गोद में खेलकर बड़ा हुआ हूँ. इंदिरा जी भी घर आती थी, हम लोग भी प्रधानमंत्री आवास जाते थे. तो बचपन ऐसे इन लोगों के सानिध्य में निकलता गया. माताजी को जब कभी मुझे होम वर्क भी करवाना होना तो डांट नहीं पड़ती थी. लेकिन लाड़-प्यार से वे सब करवा लेती थीं. पिताजी के साथ मेरा केवल 18 साल का ही साथ रहा है. क्योंकि 25 मई सन् 1986 में कैंसर से उनका निधन हो गया. पर उनके साथ व्यतीत हुए उन 18 सालों में मुझे सीखने को बहुत कुछ मिला. अच्छा खाना-पीना, पहनना और किताबें पढ़ना ये सब मैंने पिताजी से ही सीखा. 17 साल की उम्र में मैंने अमेरिका के राष्ट्रपति सीनियर जार्ज बुश पहले वाले, उनके साथ लंच किया पिताजी के साथ.
जीतेश्वरी
श्रीकांत वर्मा के जीवन पर मिनीमाता का गहरा प्रभाव रहा है? आप मिनीमाता और अपने पिताजी के शुरुआती दिनों के विषय में कुछ बताइए?
अभिषेक वर्मा
माँ दो तरह की होती हैं. एक जो जन्म देती हैं और दूसरी जो बच्चे को पालती-पोसती और बड़ा करती हैं. मिनीमाता उस समय लोकसभा की सांसद थी बिलासपुर में. पिताजी और मिनीमाता के बहुत आत्मीय सम्बंध थे. सन् 1960 में मिनीमाता के बुलावे पर पिताजी दिल्ली आए और दिल्ली आने पर वे मिनीमाता के घर पर ही रहते थे. उस समय वे 25 साल के थे. दिल्ली आने के बाद पिताजी के व्यक्तित्व का विकास मिनीमाता के द्वारा ही हुई. पिताजी मिनीमाता के बहुत करीब थे. इतना तो वे स्वयं अपनी माताजी के भी करीब नहीं थे.
जीतेश्वरी
श्रीकांत वर्मा जब पत्रकारिता के लिए ’दिनमान’ से जुड़ रहे थे तब उनकी मनः स्थिति क्या थी? ’दिनमान’ की चर्चा करते हुए मुझे इस समय वरिष्ठ कथाकार और संभावना प्रकाशन के संचालक अशोक अग्रवाल जी का स्मरण आ रहा है. उन्होंने मुझे एक बार यह बताया था कि जब वे श्रीकांत वर्मा के पहले निबंधों के संग्रह ’जिरह’ की लेखकीय प्रति देने ’दिनमान’ के दफ्तर गए और जब उन्होंने वह प्रतियां श्रीकांत वर्मा को सौंपी तो श्रीकांत वर्मा ने रघुवीर सहाय की ओर इशारा करते हुए कहा कि इसे सबसे पहले रघुवीर सहाय को देकर आओ. इसे देखकर जो उनके चेहरे पर भाव आएगा, उसे मैं यहीं से बैठे देख लूंगा. इसे सुनकर अशोक अग्रवाल जी के मन में अपने समय के वरिष्ठ और विख्यात दो समकालीन कवियों के बीच की प्रतिस्पर्धा किसी अबूझ पहेली की तरह थी. आप इस विषय पर कुछ बताइए?
अभिषेक वर्मा
’दिनमान’ में जब थे, मुझे सन् 1974-75 की बात याद है. ’दिनमान’ में रघुवीर सहाय और उनके बीच हमेशा एक वैचारिक द्वंद्व चलता रहता था. रघुवीर सहाय जी स्वयं लेखक और उस समय ’दिनमान’ के संपादक भी थे, तो दोनों का आपस में अक्सर किसी न किसी बात पर अनबन लगी रहती थी. उस अनबन के कारण वे ’दिनमान’ में कभी खुश नहीं रहे. ’दिनमान’ के अलावा भी वे अंग्रेजी के अखबार ’द टाइम्स ऑफ इंडिया’ समूह के विशेष संवाददाता थे. ’दिनमान’ की अपेक्षा उनका मन अंग्रेजी के अखबार ’द टाइम्स ऑफ इंडिया’ समूह में अधिक लगता था. क्योंकि वहाँ पर इस तरह छोटे लेवल की ऑफिस पॉलिटिक्स नहीं थी. यह जगजाहिर है कि रघुवीर सहाय जी के साथ पिताजी की सारी जिंदगी वैचारिक द्वंद्व बना रहा.
जीतेश्वरी
श्रीकांत वर्मा का ’द टाइम्स ऑफ इंडिया’ समूह से त्यागपत्र देकर राजनीति के लिए कांग्रेस में आना. उनके इस फैसले के विषय में कुछ बताइए?
अभिषेक वर्मा
इस प्रश्न में मैं यह बात जोड़ना चाहूँगा कि ’द टाइम्स ऑफ इंडिया’ समूह में त्यागपत्र देने से पहले ही वे सन् 1970-71 में कांग्रेस में आ चुके थे और जून सन् 1976 में राज्यसभा के सांसद भी बन चुके थे. ’द टाइम्स ऑफ इंडिया’ समूह से त्यागपत्र उन्होंने सन् 1977-78 में दिया था. चूंकि उस समय अखबार का काम और राजनीति का काम दोनों एक साथ संभालना मुश्किल था. उस समय सन् 1977 में मोरारजी देसाई की सरकार थी और कांग्रेस विपक्ष में थी तो उनकी जिम्मेदारी भी पार्टी के प्रति अधिक थी. इसलिए उन्होंने तय किया कि वे राजनीति और अपनी रचनाओं पर फोकस करेंगे. एक दिन वे घर आए और कहा कि मैं आज त्यागपत्र दे आया हूँ ’द टाइम्स ऑफ इंडिया’ समूह से और कल से मैं आजाद हूँ.
जीतेश्वरी
श्रीकांत वर्मा के विषय में यह कहा जाता है कि वे अत्यंत महत्वाकांक्षी व्यक्ति थे. साहित्य और राजनीति दोनों में. उनकी गहरी महत्वाकांक्षा भारत का सांस्कृतिक या शिक्षा मंत्री बनने की थी. लेकिन राजनीतिक गुटबाजी के चलते उन्हें कम से कम दो बार, जैसा कि उन्होंने स्वयं अपने मित्रों को बताया था, इस पद से वंचित कर दिए गए. इसे लेकर उनके भीतर क्या कोई अवसाद था?
अभिषेक वर्मा
दरअसल ऐसा नहीं हुआ था. यह तो लोगों ने भ्रम फैला रखा हुआ है. सन् 1980 में जब इंदिरा जी की सरकार बनी थी तब इंदिरा जी ने उन्हें बुलवाकर पूछा था कि श्रीकांत तुम कौन-सा मंत्री पद लेना चाहोगे? 1980 में कैबिनेट बनने से पहले श्रीकांत जी ने इंदिरा जी से कहा कि मैडम मुझे मंत्री पद का कोई प्रभार मत दीजिए क्योंकि मैं लिखने-पढ़ने वाला व्यक्ति हूँ. मुझे अपनी रचना में ज्यादा खुशी मिलती है. आपकी पार्टी के लिए जो काम मैं करता हूँ उससे मुझे जो प्राप्ति होती है, मैं उसी में बने रहना चाहता हूँ. मुझे आप अगर मंत्री पद दे देंगी तो फिर मैं फाइलों का गुलाम बन जाऊंगा. क्योंकि 24 घंटे में से 16 घंटे मुझे एक ही काम करना पड़ेगा. ऐसी बात नहीं है कि श्रीकांत जी को मंत्री पद नहीं मिला बल्कि उन्होंने स्वयं मंत्री पद का त्याग किया. उस समय 1980 में उन्होंने नारा दिया था ‘इंदिरा लाओ, देश बचाओ’, ‘न जात पर, न बात पर, मुहर लगेगी सिर्फ हाथ पर’. इसी तरह 1982 में दिल्ली के किसी चुनाव पर उन्होंने एक नारा दिया था ’बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय’ जिसे आज कल मायावती जी ने ले लिया है. तो उन्होंने इंदिरा जी से कहा कि मुझे ऐसे कामों में खुशी मिलती है. इसलिए मुझे मंत्री पद से दूर रखिए.
जीतेश्वरी
श्रीकांत वर्मा के पास आने वाले साहित्यकारों, प्रकाशकों और राजनीति से जुड़े व्यक्तियों को देखकर आपको कैसा महसूस होता था? उन दिनों की कोई स्मृति जो आज भी आपको याद हो?
अभिषेक वर्मा
पहले जैसा कि मैंने बताया मेरा बचपन ही इन राजनीतिक लोगों के साथ बिता है. उस समय घर में केवल लेखक ही नहीं बल्कि चित्रकार, कलाकार, राजनीतिज्ञ, पत्रकार, निर्देशक, अभिनेता सब तरह के लोग आते थे. देर रात तक महफिल जमी रहती थी. गोष्ठियाँ चलती रहती थी. मुझे यह सब देखकर बहुत अच्छा लगता था. स्कूल में जिन रचनाओं को पढ़ाया जाता, उसके रचनाकारों को मैं अपने घर में पाता था. नोबल पुरस्कार विजेता ओक्टावियो पाज़ को मैंने अपने घर में देखा. उस समय हमारा घर विभिन्न लोगों से भरा हुआ रहता था. यह सब मेरे लिए बहुत अद्भुत अनुभव होता था. उस समय अपने पिताजी के जो समकालीन थे केदारनाथ सिंह, निर्मल वर्मा, नामवर सिंह, मुक्तिबोध, मकबूल फिदा हुसैन, मंजीत बावा, जे.स्वामीनाथन ये सभी उनके मित्र थे. अभी उनके समकालीनों में अशोक वाजपेयी जी हैं. आपने अभी देखा ही है. हमारे घर में मकबुल फिदा हुसैन और मंजित बावा की जो पेंटिंग लगी हुई है वह सब पिताजी का ही कलेक्शन है, हमने बस उसमें कुछ जोड़ा है.
जीतेश्वरी
श्रीकांत वर्मा ने विदेश यात्राएँ बहुत की है. जब कभी वह विदेश की यात्राओं से लौटते थे तो नए-नए आधुनिक उपकरण अपने साथ लाया करते थे, जो उस समय भारत में दुर्लभ थे. क्या उन उपकरणों की कोई विशेष स्मृति आपको है?
अभिषेक वर्मा
मैं तो उनकी सभी यात्राओं में उनके साथ जाता था. माँ और मेरा पहले से यह तय था कि यूएस.एस.आर, बल्गेरिया जो ईस्ट साइड के देश हैं जहाँ साम्यवाद था तो वहाँ कुछ मिलता नहीं था, ऐसे में वहाँ जब पिताजी की यात्रा तय होती तब माँ उनके साथ जाती थी. जब वेस्ट की यात्रा तय होती थी अमेरिका, यूरोप, साउथ एशिया, हांगकांग तब मैं वहाँ उनके साथ जाता था. वहाँ पर सारी चीजें मिलती थी. वहाँ मैंने कई सारी आधुनिक चीजें देखी जैसे घड़ी के अंदर टी.वी., घड़ी के अंदर कैल्कुलेटर. उस समय 1981 में हमने बहुत आधुनिक कम्प्यूटर लिया था. पिताजी आधुनिक उपकरणों के बहुत शौकीन थे, उसी वजह से मैं आज भी आधुनिक उपकरणों के बेहद शौकीन हूँ.
जीतेश्वरी
भविष्य की कुछ ऐसी योजनाओं के बारे में बताइए जिसकी चर्चा श्रीकांत वर्मा अपने परिवार से किया करते थे. कौन सा ऐसा स्वप्न था जिसे वह अपने जीवन में घटित होते देखना चाहते थे? और जो पूर्ण न हो सका?
अभिषेक वर्मा
जी, श्रीकांत जी का जब देहांत हुआ तब उनकी उम्र केवल 55 साल थी. 18 सितम्बर 1931 में उनका जन्म हुआ और 25 मई 1986 को उनका निधन हो गया. तो मैंने जितना उन्हें जाना, समझा और देखा उसमें तो उनका अधिकतर जीवन संघर्ष में ही व्यतीत हुआ है. शुरू में उनका संघर्ष अपने पहचान को लेकर थी, फिर जब नाम को पहचान मिल गई, राष्ट्र में उनकी छवि बन गई, तब उनका संघर्ष था अपने आप को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्थापित करने की. इस तरह द्वंद्व उनके मन में हमेशा चलता रहता था. जीवन ने उन्हें केवल 55 साल की उम्र दिया जिसके चलते वे बहुत सी उन योजनाओं को अंजाम तक नहीं पहुंचा पाए जो उन्होंने तय कर रखा था. एक उनकी बड़ी उपलब्धि भोपाल में स्थित भारत भवन रहा है जिसका उन्होंने निर्माण करवाया था. सन् 1984 के आस-पास और उसके बाद भी बहुत समय तक पूरे भारत में भारत भवन साहित्य, संगीत, चित्रकला और विभिन्न कलाओं के लिए प्रसिद्ध रहा है.
जीतेश्वरी
श्रीकांत वर्मा का आकस्मिक निधन होने से वीणा जी और आपके जीवन पर बहुत बड़ा गहरा आघात पहुंचा. आप अपने जीवन के उस सबसे कठिन दौर को आज किस तरह से रेखांकित करना चाहेंगे? उस समय किन लोगों ने आपकी सबसे ज्यादा सहायता की?
अभिषेक वर्मा
सन् 1986 में दिल्ली एम्स में जब उनको कैंसर डिटेक्ट हुआ. बहुत छोटा सा कैंसर खाने की नली का था. उस समय वहाँ के डॉक्टरों ने कहा कि इसे रेडिएशन देकर खत्म कर देते हैं, तो पिताजी ने कहा कि नहीं मैं इसका ऑपरेशन करवाना चाहता हूँ. क्योंकि रेडिएशन के बाद बहुत कुछ होता है जैसे बाल गिर जाते हैं. इस तरह अमेरिका जाकर कैंसर का ऑपरेशन करवाना तय हुआ. उस समय हमें आर्थिक मदद की जरूरत थी और भारत में राजीव जी की सरकार थी. तो उन्होंने हमें उस समय एक लाख डॉलर सरकार की तरफ से दिए और एक लाख डॉलर मध्यप्रदेश सरकार ने अर्जुन सिंह ने दिए. न्यूयार्क में पिताजी के इलाज में जो खर्च हुआ वह पूरा भारत सरकार ने वहन किया था. पिताजी और राजीव जी बहुत अच्छे मित्र थे तो उनकी पूरी सहायता और योगदान हमें मिला. पर हम सबके लिए नतीजा तो दुखद ही रहा क्योंकि आखिर में पिताजी का निधन हो गया. पिताजी ने उस समय कोई धन जोड़ा नहीं था. जो वे मुझे देकर गए वह केवल नाम की विरासत थी.
जीतेश्वरी
श्रीकांत वर्मा की मृत्यु के बाद वीणा वर्मा को जब कांग्रेस की ओर से राज्यसभा का सांसद बनाया गया तो घर से निकलकर राजनीति में आना उन्हें कैसा लगा?
अभिषेक वर्मा
श्रीकांत जी के निधन के पश्चात् जब हम उनके पार्थिव शरीर लेकर दिल्ली आए तो राजीव जी हमारे घर आए थे. फिर पिताजी की तेरहवीं के बाद वीणाजी और मैं राजीव जी से मिलने उनके घर गए. तब राजीव जी ने माँ से पूछा कि आपने क्या सोचा है? तो उन्होंने कहा कि हमने तो कुछ सोचा नहीं है अब देखेंगे. तो राजीव जी ने कहा कि देखिए मैं आपको राज्यसभा में ला रहा हूँ. श्रीकांत जी का जो दो वर्ष का समय बचा हुआ है वह मैं आपको दूंगा. उसमें आपने सांसद के रूप में अच्छा कार्य किया तो मैं इसे आगे भी यथावत रखूंगा. इसके एक महीने में ही वीणा जी को राज्यसभा मनोनीत किए जाने का पत्र हमें मिल गया. यह हमारे परिवार के लिए बहुत बड़ी राहत वाली बात थी. क्योंकि उस समय मैं 18 साल का था और मेरी माँ 44 साल की थी. राजीव जी और वीणा जी के इस बातचीत और वचन के अनुरूप माताजी का संसदीय कार्यकाल बहुत अच्छा रहा. इसके कारण उन्हें सन् 1988 में और उसके बाद भी राज्यसभा की जिम्मेदारी मिली. इस तरह वे तीन बार राज्यसभा सांसद रहीं.
जीतेश्वरी
आपके पिताजी का राजनैतिक जीवन काफी उतार-चढ़ाव से भरे हुए थे. लेकिन उन्हें सुकून कविता में आकर ही मिलता था. क्या आप भी ऐसा मानते हैं?
अभिषेक वर्मा
बिल्कुल. उन्हें अपनी कविताओं में ही सुकून मिलता था. आप उनकी कविताएँ पढ़ें तो आप देखेंगी कि वे राजनीति में होकर भी अपनी कविताओं में सत्ता के विरूद्ध ही लिखा करते थे. सत्ता में होकर सत्ता के विरूद्ध लिखना ही इस बात का प्रमाण है कि उनका मन केवल कविता में ही लगता था.
जीतेश्वरी
श्रीकांत वर्मा न्यास जो एक साहित्यिक संस्था है के माध्यम से आपने बहुत से भावी कार्यक्रमों की रूपरेखा बनाई होगी. आप श्रीकांत वर्मा न्यास से हिन्दी साहित्य में क्या कुछ नया प्रारंभ करने वाले हैं?
अभिषेक वर्मा
पिताजी के जाने के बाद श्रीकांत वर्मा ट्रस्ट के माध्यम से 40-45 वर्ष के कवि-लेखकों को उनके योगदान के लिए हम पुरस्कार देते थे. यह पुरस्कार पूर्व में मंगलेश डबराल, राजेश जोशी जी को दिए गए हैं. इसके बाद कुछ साल माताजी बीमार रहीं और इसी बीच मेरे ऊपर भी कुछ सरकारी जांच-पड़ताल हुई तो वह सब बंद हो गया था. लेकिन अब हम पुनः श्रीकांत वर्मा ट्रस्ट के माध्यम से एक नहीं बल्कि पाँच-पाँच पुरस्कार की घोषणा करने जो रहे हैं. जिसमें से एक श्रीकांत वर्मा सम्मान, हिंदी साहित्य, भारतीय साहित्य, मीडिया, प्रदर्शन कलाओं के लिए रहेगा. इन पुरस्कारों को हम इसी वर्ष प्रारंभ करने वाले हैं जिसके लिए अलग-अलग समिति का भी गठन किया जाएगा. इसके लिए हमने अशोक वाजपेयी जी से भी संपर्क किया है और उन्होंने भी अपनी सहमति हमें दी है. हमारी संस्था में अपनी सहभागिता के लिए.
जीतेश्वरी
श्रीकांत वर्मा के कुछ अभिन्न मित्रों के बारे में बताइए? जिन्हें आप अक्सर उनके करीब पाते थे?
अभिषेक वर्मा
श्रीकांत जी के अभिन्न मित्र थे निर्मल वर्मा जिन्हें लेकर मैं अक्सर उनसे पूछता था कि ये हमारे रिश्तेदार हैं क्या? तो वे कहते थे नहीं, रिश्तेदार नहीं है पर मेरे बहुत खास और अभिन्न मित्र हैं. उन्होंने अपनी एक किताब निर्मल वर्मा को समर्पित भी किया है. इसी तरह जे. स्वामीनाथन भी पिताजी के बहुत करीब थे. वे अक्सर घर आया करते और कहीं न कहीं कॉपी में या किसी खाली पन्ने में कुछ स्कैच या पेंटिग्स बना के चले जाते थे. उसमें से कुछ तो इधर-उधर हो गए पर बहुत कुछ आज भी मैंने संकलन कर रखा है. वे ऐसे सैकड़ों पेंटिग घर पर ही बनाकर छोड़ जाते थे. एक बार की घटना याद है जब मकबूल फिदा हुसैन साहब घर आए थे और पिताजी का इंतजार कर रहे थे. उन्हें संसद से आने में देर हो गई थी. तब बैठे-बैठे स्कैच उन्होंने बनाया और उसे वहीं छोड़ गए जिसे बाद में श्रीकांत जी की किताब के कवर पेज में मैंने देखा.
जीतेश्वरी
श्रीकांत वर्मा जितने बड़े कवि थे, राजनीतिज्ञ थे वे उतने ही सुलझे और समझदार व्यक्ति भी माने जाते थे. आपको अपने पिताजी के किस रूप ने अधिक प्रभावित किया?
अभिषेक वर्मा
मैं तो उन्हें एक पिता के रूप में याद करता हूँ. जब वे किसी राजनीतिक कार्य से जाते थे तब वे राजनेता हो जाते थे और जब कभी किसी साहित्यिक कार्यक्रम में जाते तो साहित्यकार हो जाते थे. कांग्रेस के लिए वे चुनाव लड़ने, पार्टी का प्रचार-प्रसार करने का काम देखते थे. इंदिरा जी के समय में बहुत से नारे उन्होंने दिए थे. पर मैंने जिस रूप में भी उन्हें देखा है मेरे लिए तो मेरा आइडियल मेरे पिताजी ही थे.
जीतेश्वरी
आप केवल एक कवि नहीं बल्कि एक बहुत बड़े राजनीतिक परिवार से संबंध रखते हैं. हिंदी साहित्य में बहुत से लेखक अपने पिता की तरह लेखक बने, बहुत सी महत्वपूर्ण रचनाओं की रचना की, क्या कभी आपके मन में कुछ लिखने का ख्याल आया या फिर आपकी रुचि व्यापार और राजनीति में अधिक है?
अभिषेक वर्मा
देखिए. लिखना-पढ़ना दिल से आता है. मुझे लिखने का शौक तो नहीं हुआ. लेकिन पत्रकारिता का जो शौक है वह मुझमें शुरू से रहा है. सन् 1988 में जब मैं 20 साल का था. उस समय एक मैगजीन होती थी ’इंडिया वर्ल्ड वाइड’ उस मैगजीन का मैं संपादक बना. उस समय वह मैगजीन हिंदुस्तान से भी छपती थी और न्यूयॉर्क से भी छपती थी. इस तरह मैं तीन चार साल पत्रकारिता में रहा हूँ. सन् 1992 में आर्थिक कारणों से वह मैगजीन बंद हो गई. अभी मैं ‘आज का प्रहरी’ अखबार से जुड़ा हूँ. इसके बाद 22 साल की उम्र में मैं व्यापार की तरफ चला गया.
जीतेश्वरी
व्यापार की तरफ जाने का विचार आपके मन में कैसे आया? या ऐसी कोई घटना जिसके कारण आप व्यापार की तरफ बढ़ें?
अभिषेक वर्मा
घटना तो नहीं हुई. लेकिन एक अंतरराष्ट्रीय व्यापार था. श्रीकांत जी के कारण संपर्क बने. बस एक अवसर ऐसा आया कि चीजें अपने आप से होनी शुरू हो गईं. सन् 1991-92 में भारत में आर्थिक उदारीकरण का दौर चल रहा था. उस समय हमारे लिए बहुत अवसर आए जिसके कारण हमें अपने व्यापार को व्यापक रूप में फैलाने का भरपूर अवसर मिला. उसके बाद फिर हम व्यापार के ही होते चले गए.
जीतेश्वरी
श्रीकांत जी कांग्रेस पार्टी से सम्बंध रखते थे. आपकी माताजी भी तीन बार कांग्रेस से ही सांसद रहीं हैं. पर आपने अचानक शिवसेना में जाने का फैसला क्यों किया? जबकि आप पर तो कांग्रेसी होने का लेबल लगा हुआ है?
अभिषेक वर्मा
देखिए. ऐसा है कि हमारा परिवार जिसकी तीन पीढ़ी कांग्रेस से जुड़ी रही है. पिताजी दस साल राज्यसभा के सांसद और इंदिरा जी के समय में कांग्रेस के महासचिव थे. माताजी 3 बार सांसद और महिला कांग्रेस की अध्यक्ष रही हैं. लेकिन मेरी विचारधारा कभी कांग्रेस के साथ मेल नहीं खाती रही है. मैं राजीव जी के समय की बात नहीं कर रहा हूँ. मैं सन् 2004 के बाद की बात कर रहा हूँ. आज जो कांग्रेस की विचारधारा है उसे लेकर मैं सहमत नहीं हूँ. इसलिए मैंने शिवसेना को ज्वाइन किया है. क्योंकि मेरी विचारधारा राष्ट्र को लेकर एकदम स्पष्ट है. शिवसेना-शिंदे की पार्टी को ज्वाइन कर मुझे लग रहा है कि अब मैं सही जगह पहुंचा हूँ. इस तरह मैं कांग्रेस के साथ न था और न हूँ.
जीतेश्वरी
वीणा वर्मा और श्रीकांत वर्मा से जुड़ी ऐसी कोई यादगार घटना जिसे याद कर आपको आज भी अच्छा लगता हो?
अभिषेक वर्मा
मैं आपको पहले पिताजी से जुड़ी एक घटना सुनाता हूँ. जब श्रीकांत जी 1976 में राज्यसभा में चुन कर आए थे. श्रीकांत जी को बहुत अच्छा और विदेशी कपड़ों का शौक था. एक बार वे अपनी विदेश यात्रा से जब वापस आए तो वहाँ से एक क्रिश्चन डियोर का लाल रंग का कोट लेकर आए थे. पिताजी बहुत अच्छा अपना पैंट, टाई-वाई और कोट पहनकर संसद चले गए. उस समय शायद इमरजेंसी लगी हुई थी मुझे याद है. उस दिन शाम को इंदिरा जी का फोन आया? उन्होंने कहा श्रीकांत जब संसद आते हो तो थोड़ा सादे कपड़े पहन के आया करो. ये क्या तुम लाल-पीले कपड़े पहन के आए थे. कल से सोबर कपड़े पहनकर आना. उसके बाद उस लाल कोट का वह आखिरी दिन था.
पिताजी और माताजी के साथ बहुत अच्छा समय व्यतीत हुआ उसमें एक यादगार घटना यह भी है कि उस समय बहुत बड़ा वीसीआर हुआ करता था जिसमें हम तीनों अक्सर खूब अच्छी-अच्छी फिल्में देखा करते थे. हमारे यहाँ भी दस-बारह फिल्मों की कैसेट थे. लेकिन जिस किसी दिन नई फिल्म नहीं होती थी तो हम लोग फिरोज खान वाली ’कुर्बानी’ फिल्म देखा करते थे. मैंने पिताजी और माताजी के साथ ’कुर्बानी’ फिल्म को कम से कम डेढ़ सौ बार देखी होगी.
अब आपको माताजी का एक किस्सा सुनाता हूँ. एक बार वे श्रीलंका गई हुई थीं और साथ में वैजयंती माला जी भी थी. उस यात्रा में कमरा दोनों शेयर कर रही थीं. तो वैजयंती माला ने कहा देखो वीणा एक चीज से मैं कमरा शेयर कर रही हूँ. शाम को मेरे सोने से पहले तुमको सोना है और सुबह मेरे उठने के बाद तुम्हें उठना है. वीणाजी ने कहा क्यों? तो वे बोली मैं मेकअप उतारती हूँ न. ये बात मेरी माताजी ने मुझे जब बताया तब मेरी पत्नी अंका जी भी साथ थीं. हमारे पास तो खजाना है किस्सों का. हजारों-लाखों किस्से हैं, इससे तो पूरी रात ही निकल जाएगी. मैं जब किताब लिखूंगा तब कोशिश करूंगा कि उन सभी यादगार किस्सों और घटनाओं को मैं अपनी किताब में शामिल कर सकूं.
जीतेश्वरी
अंका जी आपको वर्मा परिवार में आकर कैसा लगा? भारत आपको कैसा लगता है? यहाँ की संस्कृति, रीति-रिवाज? अभी मुझे पता लगा आप तो करवा चौथ और नवरात्र में उपवास भी रखती हैं. अपने कुछ अनुभव मुझे बताइए?
अंका वर्मा
मुझे वर्मा परिवार में बहुत मान-सम्मान और आत्मीयता मिली. भारत मुझे बहुत पसंद है. भारत मेरी आत्मा में बसता है. यहाँ के रीति-रिवाज और संस्कृति से मैं बहुत प्रभावित हूँ. जैसा कि आपको विदित होगा कि मेरी सासू माँ श्रीमती वीणा वर्मा जी का 6 फरवरी 2024 को निधन हो गया. उन्होंने भारतीय संस्कृति को समझने में मेरी बहुत मदद की. करवा चौथ और नवरात्र की पूजा के विधि-विधान और महत्व को मैंने उन्हीं से जाना. पर उन्होंने मुझे कभी इन सब चीजों के लिए फोर्स नहीं किया. बल्कि मैंने स्वयं अपने पति की लंबी उम्र के लिए पूरे मन से करवा चौथ व्रत रखने की शुरुआत की.
जीतेश्वरी
अभिषेक वर्मा जी और अपने विषय में कुछ बताइए? उस समय के बारे में जब सरकार की तरफ से अभिषेक जी पर काफी गंभीर आरोप लगे थे? तब आपकी मनःस्थिति क्या थी?
अंका वर्मा
उस समय परेशानी तो बहुत हुई थी. पर मैं जानती थी कि एक दिन सब कुछ ठीक हो जाएगा और मुझे इनके साथ रहने का एक सुंदर अवसर मिलेगा. मैं अपने पति से हृदय और आत्मा से जुड़ी हूँ. इसलिए मेरा कर्तव्य बनता है कि मैं हर मुसीबत में उनके साथ रहूँ और यही कारण है कि आज हम दोनों का जीवन सुख से है. हमारे दो बच्चे हैं एक बेटी निकोल वर्मा और एक बेटा आदितेश्वर वर्मा.
जीतेश्वरी
आप हिंदी बहुत अच्छा बोलती हैं? कहाँ से सीखा आपने? अपने किसी पसंदीदा हिंदी फिल्म के बारे में बताइए? और आपको यहाँ भारतीय खाने में क्या पसंद है?
अंका वर्मा
धन्यवाद. हिंदी मेरे परिवार में लगभग सभी बोलते हैं. मैं जब दिल्ली आई तब हिंदी बोलने और समझने में मुझे थोड़ी बहुत परेशानी होती थी. पर धीरे-धीरे सबके साथ बातचीत करते हुए हिंदी बोलना और समझना दोनों आ गया. हिंदी सीखने अलग से कहीं जाना नहीं पड़ा. हिंदी फिल्में मुझे बहुत पसंद है और मेरी पसंदीदा फिल्म ‘बिल्लू बार्बर’ है इमरान खान वाली. भारतीय खाना तो मुझे सब पसंद है. पर सबसे अधिक छोले-भटूरे और गुलाब जामुन मुझे भाता है.
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रात और याद
जीतेश्वरी
श्रीकांत वर्मा के बेटे और बहू से मिलकर जब मैं वापस अपने होटल आ रही थी. तब मेरी घड़ी में रात के बारह बज रहे थे और मुझे याद आ रही थी उनके घर के हॉल में लगे मकबूल फिदा हुसैन की पेंटिग् और डायनिंग हॉल में लगे मंजीत बावा की पेंटिग्स. उन पेंटिग्स में वह समय भी झांक रहा था जब उस पेंटिग्स को बनाया गया था. ऐसा लग रहा था मानो सब कुछ जैसे मेरे आंखों के सामने ही बन रहा हो और मैं श्रीकांत जी से कह रही हूँ कि देखिए मकबूल फिदा हुसैन जी ने आपके इंतजार में कितनी सारी चित्रकारी कर ली है.
डॉ. अभिषेक जी और श्रीमती अंका जी दोनों से मिलकर ऐसा लगा जैसे मैं श्रीकांत वर्मा से भी मिल आई हूँ. होटल पहुंचने पर मुझे श्रीकांत वर्मा की ‘मगध’ पर लिखी वह कविता याद आई जिसमें उन्होंने लिखा है-
‘न मगध है, न मगध
तुम भी तो मगध को ढूंढ रहे हो
बंधुओं,
यह वह मगध नहीं
तुमने जिसे पढ़ा है
किताबों में,
यह वह मगध है
जिसे तुम
मेरी तरह गंवा
चुके हो.’
जीतेश्वरी इक्कीसवीं शताब्दी की चुनौतियां और हिंदी कहानी पर डॉक्टरेट की उपाधि. विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कविता और समीक्षाएँ प्रकाशित. वर्तमान में रायपुर में निवासरत संपर्क – jeetsahu5316@gmail.com |
पुत्र की दृष्टि से कवि और राजनीतिज्ञ पिता को देखना और समझना। बधाई जीतेश्वरी को इस सुंदर साक्षात्कार के लिए।
श्रीकांत वर्मा का इस तरह स्मरण किया जाना प्रीतिकर है। अभिषेक वर्मा ने अपने पिता को लेकर जो भी कहा है वह स्मरणीय है। हिंदी साहित्य में श्रीकांत वर्मा का अभी ठीक से मूल्यांकन नहीं हो पाया है ।इस सुंदर साक्षात्कार के लिए जीतेश्वरी को ढेर सारी बधाई । समालोचन तो इस समय हिंदी साहित्य का सिरमौर है। क्या कहने
राजनीति की गुहेलिका में ही रह कर वे अपने अंतिम दिनों अपना सर्वश्रेष्ठ मगध रच सकते,,,,,,,
अच्छी बातचीत है। पहले मुझे लगा जैसा लुटियन्स में होता है अङ्ग्रेज़ी में बात चीत हुई और फिर अनुवाद। पर जैसे ही अंका वर्मा का बोला पहला वाक्य पढ़ा, पूरी बातचीत के हिन्दी में होने का अनुभव हुआ।
पढ़ना शुरू करने से पहले मैंने गूगल पर अभिषेक जी के बारे में तेजी से अपना पाठ दोहरा लिया था, कि कहीं कुछ समझने के लिए जरूरत पड़े। बहुत अच्छा है कि बातचीत मुद्दे से नहीं भटकी।
यह बातचीत श्रीकांत वर्मा न्यास द्वारा स्थापित पाँचों पुरस्कारों के बारे में जागरूकता जरूर लाएगी परंतु उन्हें संदेह से परे स्थापित खुद ही होना होगा।
बहुत अच्छा इंटरव्यू. इससे श्रीकांत जी के जीवन के कई
पक्षो की जानकारी मिली.
यह साक्षात्कार श्रीकांत वर्मा जी के व्यक्तित्व के अनदेखे पहलुओं से परिचित कराता है. धन्यवाद.
जीतेश्वरी जी से विनम्र सी शिकायत यह है कि पाठक यह जानने से वंचित रह गए कि वर्मा जी के सुपुत्र की ‘राष्ट्र को लेकर जो विचारधारा स्पष्ट हुई’ उसमें कितना योगदान उनके पिताजी का रहा है, कितना उदारीकरण की आर्थिक नीतियों का और कितना उनके अपने मुक्तिबोधियन आत्मसंघर्ष का. राजीव जी के जाने के बाद के तेरह सालों में मतलब 1991 से 2004 तक क्या वर्मा जी के सुपुत्र अराजनीतिक रहे या व्यापारिक गतिविधियों में व्यस्त होने के कारण राष्ट्र की ओर ध्यान नहीं दिया? ‘राष्ट्र के प्रति स्पष्ट विचारधारा’ ने उन्हें भाजपा की तरफ न झुकाकर शिवसेना वह भी एकनाथ शिंदे की शिवसेना (जिसे वर्मा जी के सुपुत्र ‘सही जगह’ कह रहे हैं) में पहुँचा दिया यह इतनी दिलचस्प बात है कि उसकी थॉट प्रोसेस से वाक़िफ़ न हो पाने का मलाल मुझे ताउम्र रहेगा।