भीमबैठका : प्रेमशंकर शुक्ल
भीमबैठका
भीमबैठका सुन्दरता की आदत है
भीमबैठका की आदिवासी चट्टानों में अथाह मौन
मौन का महात्म्य है
भीमबैठका रहवास का उजाला है
सर्जन-विश्वास का भी
यहाँ शैलचित्रों के रंग
हमारे जीवन के लमहों को रंगते रहते हैं
कि फीकी न हो हमारी उमर
जिस ताल पर भीमबैठका की चट्टान में
समूह नृत्य चल रहा है वही है आदिताल
आदि बसाहट भीमबैठका की गुफाओं में
हमारे पुरखों की साँसों का संगीत है
जिसकी आवाजाही अँधेरे और उजाले के बीच है
भोर में चट्टानों की पीठ पर जो तारे गिरते हैं
हमारे सपनों में उनकी खनक सुनाई देती है
और समृद्ध होता है जीवन-संगीत
भीमबैठका में कविता का एकान्त है
और पृथ्वी की किताब में
भीमबैठका एकान्त की कविता है.
चट्टानों की बस्ती
चट्टानों की खूबसूरत बस्ती है भीमबैठका
भीमबैठका की अग्निगर्भा चट्टानों की धातु
सांगीतिक है. इनमें कनक की खनक नहीं
कलाओं की झनक-झन सुनायी देती है
मजबूत धातु है इनकी इसीलिए हैं यह भीमकाय
और इनके पास आते रहे हैं गदाधर भीमसेन
सुंदर कवि शब्दों को बजा-बजा कर
रचता है कविता-पंक्ति
चित्रांकन में कुशल चित्रकार रंगों को माँज-माँजकर
यह इनके धातुई प्रकृति का चमत्कार है
भीमबैठक की चट्टानों पर भी उछालो कोई धातु
तो वह उसके संगीत के साथ ही करती है उसे वापिस
बहुत पानी है इन चट्टानों में
तभी तो इनकी छाया है शीतल-तरल-अथाह
वैशाख-जेठ की दोपहरों में
चट्टानों की छाया देती हैं हमें अनिर्वचनीय सुख
अपने कहने में छाया की कई-कई तहें हैं
और धूप के कितने-कितने आरोह-अवरोह
कंदराओं में बैठकर हवा का संगीत सुनने से
जीवन की सुन्दरता गुनने से चट्टाने खुश होती हैं
गुफाओं की तरल छाँव को
आप हिलाते हैं और आ जाता है
कविता में आलोडऩ
बादल छाँह करते हैं
तो तपते पेड़ हाथ उठाकर पूछते हैं
बारिश कब आएगी
गुफाओं के बीच दिखता नीला आकाश
वनवासी पाण्डवों-युधिष्ठिर, अर्जुन, भीम,
नकुल, सहदेव और द्रोपदी के मध्य
अचानक आ गए वासुदेव लगता है
भीमबैठका चट्टानों की खूबसूरत बस्ती है
तभी तो यहाँ आने के लिए कविता
तरसती है और बहाती रहती है
कितना तो पसीना अपना
कविता के पसीने में
समय का नमक रहता है.
घोषणा
(श्री देवीलाल पाटीदार के लिए)
आदि बसावट भीमबैठका के शैलचित्र
बनाते हुए आदि मनुष्य ने
अपने पूरम्पूर मनुष्य होने की घोषणा की है
और अपनी मनुष्यता का किया है
सुन्दर उद्घाटन
रचना अपने को समझना है
समझाना भी
चाहे शब्दकाया में हो या चित्रकाया में
चट्टान-चित्रों की रचना में
मनुष्य को क्षण जीना आया
रचने के अनूठे क्षणों में ही
मनुष्य ने अपने मनुष्य की
गहरी पहचान की है
भीतर की अथाह जलराशि तक
बनायी है अपनी पहुँच
अपनी ऊष्मा और आँच को
भीतर की आँख से बखूबी
निहार सका है वह
सर्जना की गहरी ताकत को भी
समझ सका है वह रचने के ही
दरमियान
रचने के उल्लास-आवेग में
यह घोषणा स्पष्ट सुनी जा सकती है कि—
सृजन-क्षण उन्माद वृत्तियों का
सच्चा निषेध हैं
सर्जन में ही विस्तार है
मनुष्यता की उजास का
सर्जन हमारे भरोसे का सत्याग्रह है.
चित्र सोच रहे हैं
(वरिष्ठ चित्रकार श्री अखिलेश के लिए)
चित्र सोच रहे हैं
अपने रंग
अपने आकार-प्रकार
रेखाएँ जो रंग से बाहर निकल गई हैं
या रूप से भी
यह चित्रकार की चूक नहीं है
अचानक उठ आयी हूक है
चित्र देख रहे हैं
मेरी ही आँख से मुझे
खड़ा हूँ मैं
थामे हुए चट्टान का पल्लू
चित्र सोच रहे हैं
मेरे मस्तिष्क से भी
चित्र सोच रहे हैं
दुनिया के हर दिल-दिमाग से
चित्र सोच रहे हैं
देखते हुए डार से बिछुड़ती पत्ती
छोटे से छत्ते में इतनी मधुमक्खियों का
रहना एक साथ
ग्रहमंडल या ब्रह्माण्ड में पृथ्वी भी
एक छत्ते की तरह है
जहाँ रहते हैं हम सब साथ
पता नहीं मैं अपने हिस्से का
शहद बना भी पा रहा हूँ या नहीं
भीमबैठका में
चित्र सोच रहे हैं
उन्हें रचने वाली उँगलियाँ
मैं यहाँ भोपाल में
चित्रों का सोचना
सुन रहा हूँ
चित्र सोच रहे हैं
जितना जीवन
उतना ही विस्तार
पा रहा है विन्यास मनुष्यता का
चित्र सोच रहे हैं
इसीलिए दिल-दिमाग में
रंगत है. भीमबैठका घर और चित्र की
आदिसंगत है..
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भीमबैठका |
चट्टान
(श्री मंजूर एहतेशाम के लिए)
घास की हरी बेलें चट्टान से लिपट रही थीं
और चट्टान की आत्मा और देह में
हो रही थी गुदगुदी
निहार यह मेरे भीतर भी दौड़ गयी थी झुरझुरी
और मैं चला गया था चट्टान के बहुत करीब
सहेजे हुए अपने अंदर बहुत सी
जिज्ञासाएँ और सवाल
पूरी तैयारी से लिखे प्रश्नों को
मैं पढ़ता जा रहा था
बहुत देर बाद सजग और विरल आवाज़ में
उसने कहा—
‘क्या देख रहो तुम इस तरह गड़ाकर अपनी आँख
निगाह धँसाए जा रहे हो मेरे भीतर लगातार
तुम्हारे पूर्वज कवियों ने तो जड़ कहा है हमें
फिर क्या देखना चाहते हो मेरे अंदर तुम
मैं चट्टान हूँ यहाँ भीमबैठका की
तुम्हारे समय से नहीं
मैं अपने पत्थर-समय से
चल रही हूँ
पत्थर-राग कहाँ समझती है तुम्हारी खोपड़ी
आग मेरी देह से ही गयी है तुम्हारे घर
जिसका आये दिन करते रहते हो तुम गलत इस्तेमाल
मैं पूरी पत्थर से बनी हूँ
बन्द हूँ हर तरफ से मैं
फिर क्या देखना चाहते हो मेरे भीतर तुम
मैं पत्थर जी रही हूँ बता दिया न तुम्हें
फिर क्यों टटोल रहे हो मेरा अंतस् इस तरह तुम
तुम्हारे जीने की तरह नहीं
चट्टान को अपने पत्थरपन में जीना होता है
पत्थरपन में जीना समझते हो क्या तुम
मेरा रेशा-रेशा पत्थर है
मैं कण-कण पत्थर हूँ
मेरी पहचान पत्थर है
पत्थर के सिवा एक कतरा भी नहीं है
मेरा अस्तित्व
पत्थर की गहराई में
नदी समायी रहती है
पत्थर की मर्यादा में ही रहना होता है मुझे
तुम मनुष्य तो जब-तब करते रहते हो
मनुष्यता की मर्यादा को तार-तार
तुम यही पूछ रहे हो न
कि तुम जड़ चट्टान हो फिर तुम्हें
देश-दुनिया का, मनुष्य का इतना पता कैसे है
तुम नहीं जानोगे मेरा पत्थर दु:ख
देखो न! कितने रंगहीन रंग हैं मेरे भीतर
मेरे हर अंग में रंग हैं पर तुम उन्हें
पहचान कहाँ पाओगे
वह पक चुके हैं अपनी ही आग में
तुम्हें तो कच्चे रंग देखने की समझ है
पक्के रंग पत्थर देह में ही मिलते हैं
पत्थर के अंदर से मनुष्य के भीतर तक की
आग की यात्रा का बहुत रोचक है वृत्तांत
जानना चाहिए इसे तरतीब से तुम्हें
ध्वनि, आहट, मौन को सुनने का
होना ही चाहिए तुम्हें सुन्दर अभ्यास
अंकुरण-हरियाली के पहले धरती कितना तपती है
जानता क्यों नहीं यह ठीक से तुम्हारा काव्य-विवेक
मैं जड़ चट्टान हूँ न!
फिर क्यों प्रविष्ट हुए जा रहे हो मेरे अंदर तुम
तुम्हें इतनी भी तमीज नहीं कि
बिना इजाजत पत्थर-प्रवेश निषेध होता है
क्यों खोल रहे हो तुम मुझे परत-दर-परत
मेरी पत्थर धडक़नों में
क्या सुनना चाहते हो तुम लगाकर अपने कान
मेरे धडक़न-बाजा में तुम्हारा संगीत नहीं है
मेरा पत्थरतन मत खरोंचो तुम
वैसे भी अपनी सभ्यताओं के विकास में
मनुष्य ने पत्थरों का बहुत खून बहाया है
मेरा बीच गहरी अँधेरी कोठरी है
उधर क्यों जा रहे थे तुम
जब तुम अपनी माँ की कोख में थे
उसी अनुभूति से ही पढ़ सकते हो तुम यह अँधेरा
यह मध्य जहाँ तुम अब खड़े हो
वह अँधेरे और उजाले का मध्यांतर है
अरे! उधर नहीं सिरहाने से थोड़ी दूर
वहीं एक वृक्ष गिरते समय की
अपनी चीख रख गया है मेरे पास
बहुत बेरहमी से काटा गया था उसे
जब कि उसने तुम मनुष्यों को
छाया और फल देने में
कोई कोताही न की थी कभी
क्या अनक रहे हो तुम
इस तरह चुपचाप
जानते हो-
आहट मेरी मातृभाषा है
इस से ही जान लेती हूँ
कौन खड़ा है मेरे पास
कौन प्रश्न-मुख है
कौन है दुनिया का दुख
छाया और धूप
मेरी सहेलियों के नाम हैं
इसलिए इन पर किए गए तिर्यक सवालों का
मैं नहीं दूँगी तुम्हें जवाब
हर संबंध की अपनी मर्यादा होती है
तुम मनुष्य तो अपने संबंधों के प्रति
हुए जा रहे हो भद्रंग
तुमने पूछा कि क्या आदिमानव ने ही
बनाए हैं यह चित्र या यह गुफाएँ उन्हीं की रही हैं
मेरा उत्तर ‘हाँ’ में है
उन्होंने कलह नहीं कला को चुना अपने लिए
रेखांकित किया अपनी सर्जन-शक्ति
उनके चित्रों ने धरती का आँगन रँग दिया है
‘आँगन पार द्वार’ भी
लेकिन क्या होगा इससे
अब जब मनुष्य की रचनाशीलता घट रही है दिनोंदिन
उजाड़ रहा हो वह नदी-पहाड़
हवा-पानी में घोल रहा हो ज़हर-बिक्ख
बना रहा हो मारक हथियार
और कम हो रहे हों जीने के औजार
कभी धर्म के नाम पर झगड़ा
कभी जाति के नाम पर
सोच-सोच दुख होता है मुझे बहुत
फटती है मेरी छाती
धरती कितना सहती है
ठीक से कहाँ महसूस कर पा रही है
तुम्हारी कवि-बुद्धि
शांति की शीतलता और करुणा की उजास
तुम मनुष्यों के भीतर मंद पड़ रही है
और तुम हो कि खोए हुए हो अपने होशो-हवास
भीम की बात करते-करते तुम ठिठक क्यों गए
हाँ! वह महाबली योद्धा अपने वनवास के समय
यहीं बैठता था
लेकिन उसके बैठने में पूरी ऊँचाई थी
सोचने में गहराई थी
छूता था हमें तो धन्य हो जाता था
हमारा पत्थर-मन
स्पर्श में भीग जाता था सारा तन
उसके आतप में हमारा भी बदन जला है
उसकी न्याय-बुद्धि लख बढ़ा है
हमारे भी संकल्प का वजन
उसका स्पर्श उतने उत्कर्ष से मैं बोल नहीं पाऊँगी
मैं भूल नहीं पाऊँगी उसकी बलकती हुई चुप्पी
अपार बल था उसमें लेकिन
एक पत्ती को भी नहीं सताया उसने
आग से बनी थीं द्रोपदी
कौरवों ने उनकी क्रोधाग्नि भडक़ाकर
खाक होने का खुद ही लिख लिया था फैसला
पाँचों पाण्डव और पांचाली
मनुष्यता की महिमा हैं
बड़ापन क्या होता है कहती थीं उनकी आँखें
क्षुद्रता-ओछापन टिक नहीं सकता था उनके पास
कितने आघात सहा था उन्होंने लेकिन
उनके रोएँ-रोएँ में वीरत्व की गरिमा थी अकूत
जब वह चलते थे साथ तो कितना खुश हो जाता था
धरती का चेहरा
पता नहीं वीरता उतना वैभव
अब पायेगी भी या नहीं
अच्छा लगा यह देख कि तुम
अपने पूर्वज कवि के दिए सबक
‘सभ्यता-समीक्षा’ के प्रति अपनी कविता में
पूरे मनोयोग से हो संन्निष्ठ
लगाए हुए अपनी साँस
मुझे यह भी मालूम है कि भीमबैठका में तुमने
खूब किया है चट्टान-मंथन
गुफाओं की परिक्रमा भी की है बहुत
तुम्हें मानवता का उजाला पसंद है
और अपने आदि पूर्वजों के प्रति
तुम्हारे मन में है बेहद सम्मान
इसीलिए आते रहते हो तुम यहाँ भीमबैठका
मैंने भी इसीलिए
तुम से कर ली इतनी देर तक बात
अब जाओ बहुत कह लिया
सुन लिया तुम्हारी बहुत जिज्ञासाएँ और सवाल
ध्यान रखना—
यह दुनिया दिन और रात से बनी पोथी है
इसे ठीक से पढऩे-समझने में लगा कर रक्खोगे
अपने दिल-दिमाग
खुलती जाएगी तुम्हारी कविता में भी
चुप्पी और बात
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