आलोचना की वैचारिकी
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कहानी सुनाने के बाद बेताल पल भर को रुका, पीठ पर विक्रम के हाथ की मजबूत पकड़ महसूस की, और लंबी सांस खींचकर कहा-
“हे राजन्! ऐसा क्यों होता है कि हर बार मनुष्य उन्हीं-उन्हीं सवालों को पूछ कर अपने को हैरान-परेशान करता रहता है जिनका जवाब उसके पूर्वज और समकालीन बहुत बार बहुत तरह से देख चुके हैं?
ऐसा करके क्या वह अपनी नादानी दिखाता है? पूर्ववर्ती सवालों के प्रति अवज्ञा जताते हुए अपने दंभ को प्रदर्शित करता है? या ज्ञान की परंपरा को आगे बढ़ाने की कड़ी बनता है? नई स्थितियों के आलोक में मनुष्य का धर्म क्या है? इन सवालों का जवाब जानते हुए भी यदि तुम उत्तर नहीं दोगे तो हे राजन्! तुम्हारे सिर के टुकड़े-टुकड़े हो जाएंगे.”
जंगल के घुप्प अंधेरे में चलते-चलते विक्रमादित्य अचानक लड़खड़ा गया. पत्तों से ढके गड्ढे में पैर पड़ते-पड़ते रह गया था. लेकिन बेताल के सवाल की गहरी खड्ड- वह मुसकुराया. कंधे पर पड़े बेताल के शरीर से हाथ की गिरफ्त ढीली की और कहा,
“बच्चा जब जन्म लेता है तो उससे पहले संसार अरबों-खरबों नहीं, अगणित कदमों से चलकर अंतरिक्ष तक की दूरी नाप चुका होता है. इंसान ही नहीं, सभ्यता और संस्कृति के अविराम सधे पांव चले जाने की विरासत लेकर ही बच्चा धरती पर आंख खोलता है, लेकिन फिर भी वह चल नहीं पाता. उसे चलना सीखना पड़ता है; उंगली थाम कर डगमगाते पैरों का संतुलन साध कर. इसी तरह हे बेताल! हर व्यक्ति को अपने सीने को मथने वाले सवालों का जवाब खुद तलाशना पड़ता है. विरासत उसे राह दिखा सकती है, लेकिन पैरों में गति और लय उसे स्वयं भरनी होती है. ऐसे इंसान को दुनिया विद्वान कहेगी, लेकिन दरअसल वह ‘साधक’ है. अपने अज्ञान को छिपाने के लिए विद्वत्ता के बेल-बूटे से कढ़ी अहंकार की चादर को नहीं ओढ़ता, अज्ञान को कमंद बनाकर ज्ञान के सागर में कूद जाता है- कुछ कतरे आलोक-जल पाने के लिए. न, वह ज्ञान की परंपरा को आगे बढ़ाने का दंभ नहीं पालता; ज्ञान का पतंगा बन उसी की लौ में अपने को होम कर देता है. परिस्थितियाँ हमेशा गतिशील रहती हैं लेकिन परिवर्तनीयता में अ-गति का चक्रव्यूह भी रचती हैं. मनुष्य का धर्म है, अंतर्मन की पुकार को सुनकर बीहड़ रास्तों पर चलते रहना. मुक्ति का मार्ग धर्म की किताबों में नहीं, ज्ञान की खोज में है. ज्ञान कुछ ‘नया‘ पा लेने का आग्रह नहीं, अनुभव के सहारे संशयों के मिटने और नए-नए संशयों के बनने के क्रम में अपने को जीवन और जगत के साथ जोड़ना है.”
बेताल ठठा कर हंस पड़ा- अफसोस से भीगी हंसी!
“हे मेरे भोले राजन्! तुम अपने ही गुणों-विद्वत्ता और न्यायप्रियता- के शिकार होकर एक बार फिर मेरे चंगुल में फंस गए हो.”
विक्रम ने हवा में हल्की सी वही चिरपरिचित सरसराहट महसूस की, और देखा, बेताल श्मशान के उसी वृक्ष पर औंधा लटका हुआ है.
एक और यात्रा … यात्राओं का अंतहीन सिलसिला…!!
मैं अपने घर की छोटी-सी दुनिया में पिछले चार साल से बंद हूँ. ‘सोशल डिस्टेंसिंग‘! पूरे ग्लोब में एक नारा उछाल दिया गया है. साथ ही उछल कर हर घर, हर दिमाग तक स्वीकृत हो गई है भ्रांत धारणा- सामाजिक दूरी! संस्कृतियों का विकास हर किस्म की दूरी को कम करने का लोमहर्षक उन्नत आख्यान रहा है. तो क्या हम प्रति-आख्यानों की रचना के युग में आन पहुंचे हैं, एकाएक? नियम मनुष्यविरोधी हों तो वर्जनाएँ बन जाते हैं- यांत्रिक, प्रतिगामी, अनुदार! मैं सोशल डिस्टेंसिंग की धज्जियाँ उड़ा देना चाहती हूँ. घर की चारदीवारी के भीतर सारी कायनात को ले आती हूँ- सूरज, चाँद, तारे, नदियाँ, समंदर, घटनाओं से खदबदाते इतिहास, मौसमों के चक्र से इंद्रधनुषी आभा लिए भूगोल और प्रकृति के सीने में लोट कर यौवन पाता, फिर यौवन के उन्माद में उसी सीने को रौंदता इंसान. मेरे चारों ओर कहानियाँ बिखर गई हैं. ज़िदा धड़कती कहानियाँ! आप घर के दरवाजे कितनी ही मजबूती से बंद क्यों न कर लें, जब तक विवेक और संवेदना की आँखें खुली हैं, कहानियाँ दुनिया की तमाम आहों-कराहों को, सपनों-ख्वाहिशों को लेकर आप तक चली आएंगी.
आप खुद एक कहानी हैं. कहानी का एक किरदार! किरदार को गढ़ती एक घटना! घटना को बनाती परिस्थितियाँ! परिस्थितियों को नियंत्रित करती सत्ता! मनुष्य का ‘मैं‘ बहुत छोटा बिंदु नहीं होता; अपनी परिधि पर फैल कर शून्य बन जाता है; और फिर शून्य के खोखले वृत्त में अर्थ और प्रयोजन के सवालों को भरकर दार्शनिक रूप दे देता है. बेताल (सवाल कर पाने की संवेदनात्मक प्रखरता) और विक्रम (जवाब तलाशने की विश्लेषणात्मक एकाग्रता) की जुगलबंदी दरअसल शून्य (रिक्ति नहीं, प्रश्नाकुलता) को दर्शन की अथाह गहराइयों से भर देने की साझा कोशिशें हैं. समय अनुभव और यथार्थ दोनों के बीच बराबर बह रहा है.
एक)
संशय के भीतर से गुजरकर राहें वैचारिक गतिशीलता की ओर खुलती हैं
“समीक्षक का प्रथम कर्तव्य है कि वह किसी भी कलाकृति को- उसके प्राण-तत्व को- भावना-कल्पना को हृदयंगम करे और एक विशेष दिशा की ओर प्रवाहित अंतर्धारा की गति को और उसकी अंतिम परिणति को सहानुभूतिपूर्वक अच्छी तरह समझे और तदुपरांत उसका विश्लेषण करे.
किसी भी कलाकृति के भीतर जो गतिमान तत्व होते हैं, उनके अर्थ व्यापक होते हैं. अतः उन तत्वों के अंतर्संबंध, उन अंतःसंबंधों के समुच्चय की विशेष गठन कम महत्वपूर्ण नहीं होती. जब हम उन गतिमान अंतर्संबंधों के गठन, पारस्परिक संबंध और उन पारस्परिक संबंधों के समुच्चय की विशेष गठन को हृदयंगम कर लेंगे, तब न केवल हम उस कलाकृति को उसकी समग्रता में समझ लेंगे, वरन् लेखक-कलाकार के व्यक्तित्व और उसकी जीवन-भूमि तक सहज ही पहुंच सकेंगे. किंतु इसके लिए समीक्षक के पास प्रगाढ़ जीवनानुभूति चाहिए, वैविध्यपूर्ण प्रगाढ़ अनुभवसंपन्नता तथा मार्मिक जीवन-विवेक चाहिए.”
(मुक्तिबोध, समीक्षा की समस्याएँ)
“यह मत कहो, मुझे विषय दो
यह कहो, मुझे आंख आंखें दो.”
(रसूल हमजातोव, मेरा दागिस्तान, भाग एक)
आँख यानी दृष्टि!
सारी उलझन यही है कि दृष्टि पाई कैसे जाए? कि जो दृष्टि है, और उस दृष्टि-पथ में आने वाली जो-जो चीजें दिखाई दे रही हैं, उन पर विचार और भाव की जो सम्मिश्रित रासायनिक तरंगें उठ रही हैं, और उन तरंगों की वजह से ‘बोध‘ नामक जिस नए तत्व की उत्पत्ति हो रही है, उन्हें अभिव्यक्त कैसे किया जाए?
दृष्टि दृश्य को चीन्हना सिखाती है, लेकिन उससे पहले अपने आप को. दृष्टि व्यक्तित्व की बुनियाद है; यथार्थ और जगत से, परंपरा और आधुनिकता, से वर्जना और विद्रोह से द्वंद्वात्मक रिश्ता कायम करने का अनिवार्य घटक. दृष्टि क्या संस्कार है? सांस की तरह अनिवार्य, स्वत:स्फूर्त और अनायास मिल जाने वाली नियामत? या संस्कार में गड्डमड्ड हो गई दृष्टिगत दुर्बलताओं-अंतर्विरोधों और विचलनों (डिकेंडेंसी) को चीन्ह कर इसकी शल्यचिकित्सा/पुनर्जीवन देने की कवायदें करने की ललक ही दृष्टि की प्रगतिशील निरंतरता को बनाए रखती है?
दृष्टि अनायास नहीं, अर्जन की सुदीर्घ कष्टकर साधना है. दृष्टि में ‘दर्शन‘ की विराटता है, और ‘अंतर्दृष्टि‘ की बेचैन बेधकता भी. ‘दर्शन‘ से ‘द्रष्टा‘ तक फैली है दृष्टि की यात्रा. लेकिन वह तो अंतिम पड़ाव है. उससे पहले है ‘देखने’ की क्रिया को प्रक्रिया बना कर आत्मालोचन से विश्व-दर्शन तक पहुंचने की संश्लिष्ट यात्रा. ‘देखना‘ यानी वह सब जो नंगी आंख से दिखाई पड़ता है- सांसारिकता का रेला; नित्यक्रमिकता की घुटन, दबाव, सुख, किसी अंतहीन, घटनाविहीन, लक्ष्यहीन भवितव्य की ओर चलती जीवन-यात्रा. जाहिर है यह ‘देखना‘ जब अपने परिवेश को ‘जानना‘ बन जाता है, तब निजता के घेरे टूटने लगते हैं; कंफर्ट जोन से बाहर निकल कर अपने ही परिवेश में अपने से भिन्न जीवन जीती अस्मिताएं दिखने लगती हैं- उनके दुख-सुख, उनकी अपेक्षाओं के आयतन, और उपलब्धियों के दायरे. ‘देखने‘ से ‘जानने‘ की दिशा में बढ़ी दृष्टि अनायास गतिशील हो उठती है- सहस्त्रनेत्री भी- भीतर-बाहर अनेक-अनेक आँखें! गतिशीलता भौतिक सीमाओं का ही अतिक्रमण नहीं करती, वैचारिक-मानसिक सीमाओं के रुद्ध घेरों पर भी प्रहार करने लगती है. वह देखती है, मन के चरित्र को रचते हैं संस्कार, संवेग, अपेक्षाओं के उबाल एवं घनत्व से सिरजी जिद (जिसकी आंखें नहीं होतीं), और दमित वासनाएँ (जिनके पैर भले ही जख्मों से लहूलुहान हो गए हों, कंधे पर लहलहाते पंख उड़ने के लिए सदा बेताब रहते हैं). इसके विपरीत विचार के चरित्र को रचती है बुद्धि. विचार अपनी बनत में हवा की तरह फुर्तीला और किरण की तरह चमकीला है. उतना ही अमूर्त और एहसास के स्तर पर उतना ही ठोस-प्रखर.
विचार सजग चिंतन का उपार्जित फल है, लेकिन इससे बहुत पहले निर्मिति की शैशवावस्था में स्मृति, लोकतत्व, और पूर्वाग्रह अवचेतन मे गड़े रहते हैं. चिंतन प्रक्रिया के सक्रिय होते ही वे दबे पाँव चले आते हैं. विचार वर्तमान की अनवरतता है- निरंतर परिवर्तनशील स्थितियों/दबावों के साथ अपने संबंध को नवीकृत एवं मूल्यांकित करने की चेतना. इसलिए वह विचारधारा से परिचालित होने के बावजूद विचारधारा को भी परखने का नैतिक जोखिम उठाता है. विचार की यह उदग्र चेतना ही उसके चरित्र को विकसनशील, गंभीर और आधुनिक बनाती है. मन की गति आत्म-संकुचित है; विचार की ऊर्ध्वोन्मुखी. निर्बंध विचरण करने की लालसा में मन बह जाना चाहता है. विचार की तार्किकता उसे बताती है कि बह कर लौटना संभव नहीं होता. बह जाना अंततः रीत जाना होता है. अत: निर्बंध लालसाओं को आत्मानुशासन की लगाम से बांधकर ‘उड़ान‘ का रूप दिया जा सकता है. उड़ना निर्भार होने की एकीकृत वैचारिक-मानसिक स्थिति है- आत्मपरकता और संकीर्णता के बंधनों से, जो समष्टि को ‘मैं‘ के भीतर प्रविष्ट नहीं होने देते. उड़ना मुक्ति की आह्लादक दशा भी है, और अपनी जड़ों से जुड़ कर वहीं से चुग्गा-पानी लेने की अपरिहार्यता भी. जब जड़ों से बांधने वाली व्यग्रताएँ शेष नहीं रहतीं, उड़ान पलायन या दिवास्वप्न का रूप लेकर भरमाने लगती है.
देखती हूँ, रचनाकार ने फेंटा कस लिया है. आत्मसजग मुद्रा में वह देख रहा है- बुद्धि की आँख ने पूर्वाग्रहों और जड़ताओं को बुहार कर परे फेंक दिया है. मन की आँख ने भावना की रपटीली ढलानों को समतल कर विचार की पुख्तगी लेकर उसे संवेदना में ढाल दिया है. लालसा ललक का रूप लेकर गोपन रहस्यों को जानने के लिए व्यग्र हो रही है, और ‘अज्ञात का भय‘ उसके भीतर कौतूहल की सृष्टि कर अन्वेषी बना रहा है. बुद्धि को बोध के स्तर पर ले आना कल्पना, संवेदना और कौतूहल के साथ संसार से जूझने और गढ़ने की दिशा में बढ़ाया गया पहला कदम है. बोध का स्तर लेखक की गहराई और सरोकारों की व्यापकता का स्तर निर्धारित करता है.
लेकिन मैं सिर्फ रचनाकार की बात क्यों कर रही हूँ? साहित्य क्या लेखक की निजी जमीन है कि वह स्वयं खेत जोते, हल चलाए और फसल काट कर संतुष्ट-सा अपनी दुनिया में लौट आए? साहित्य लेखक-पाठक-आलोचक का संयुक्त उपक्रम है- एक दूसरे की पारस्परिकता में जीवन की गुत्थियों को खोलते-उलझाते वे सभ्यता की सांस्कृतिक यात्रा के हमसफर हैं.‘दृष्टिवान‘ होना तीनों की अर्हता है.
लेखक-पाठक-आलोचक त्रिक् पर विचार करते हुए एकाएक मैं ठिठक गई हूँ. लेखक और आलोचक दोनों अभिव्यक्ति के जरिए साहित्य में अपनी उपस्थिति दर्ज करते हैं- अपने-अपने व्यक्तित्व की भीतरी पारदर्शी बुनावटों को खोलते हुए. ऐसे में अमूमन नेपथ्य में रहने वाले पाठक की चर्चा क्यों? रचना-प्रक्रिया के दौरान पाठक की उपस्थिति का दबाव महसूस करते हुए तो कोई भी नहीं रचता. दरअसल लेखक-पाठक-आलोचक को मैं तीन अलग शख्सियतों में बांध कर नहीं देखती. एक ही व्यक्ति- रचनाकार- के तीन अलग रूप हैं ये. सृजन की देहरी पर खड़े होकर उसे क्रमशः इन तीनों भूमिकाओं के भीतर से गुजरना ही होगा.
सबसे पहले पाठक की भूमिका. पाठ की इस प्रक्रिया में जाहिर है सर्वप्रथम स्वयं को वस्तुपरक ढंग से एक किरदार की तरह पढ़ने की अर्हता रचनाकार की क्षमता का विकास करती है. यहाँ ठोस प्रखर व्याख्येय अनुभव जिंदगी से मुठभेड़ का नतीजा भी हैं, और जिंदगी को पढ़ने की पैनी नजर भी देते हैं. अपने को जानना और तमाम एंग्युलेरिटीज़ को ठोक-पीट कर मुकम्मल इंसान बनने की प्रक्रिया बेहद श्रमपूर्ण एवं कष्टकर होती है. लेकिन बोध का उन्नत स्तर अपने साथ परिष्कार की अंतर्वर्ती क्रिया स्वयमेव संपन्न करता चलता है.
अनुभव स्मृति बन कर अंतर्मन की परतों में धड़कते लावे से धड़कते रहते हैं, और स्मृतियाँ सुस्पष्ट विचार या दृष्टि का रूप लेकर व्यवस्था, शास्त्र, सांस्कृतिक संरचनाओं और संबंधों को देखने का पैनापन देती हैं. अनुभव रचनाकार के परिवेशगत संचरण की प्रतिध्वनियाँ हैं जो एक गहरी गूंज की तरह उसकी रचना में आ बैठती हैं- कभी पूर्वाग्रह बन कर, कभी तिलमिलाहट बन कर; कभी अतृप्त अनवरत खोज बन कर, कभी सपना बनकर.
शायद मैं भटक रही हूँ. न, देख रही हूँ जमीन फोड़कर वह जो बिरवा बाहर निकला है, अपनी नम हरियाली को ताकत बनाकर बहुत सी शाखाओं-प्रशाखाओं में सघन होता जा रहा है. विकास और गति की कोई एक निश्चित दिशा नहीं होती. फूटती शाखाएँ विचलन नहीं, विचार की अंतर्वर्ती सुसंबद्ध डगालें हैं. मैं फिलवक्त किसी भी तरह की काट-छांट के पक्ष में नहीं हूँ. ‘देखने’ की प्रक्रिया में जो ‘दिख’ रहा है, उसकी साक्षी हूँ बस.
लेकिन पौधे की तरह अब मुझे अपनी जमीन चुन लेनी है. तय कर लेना है कि मैं ‘दृष्टि’ से ‘दर्शन’ तक की यात्रा किस के साथ तय करना चाहती हूँ. लेखक के साथ? कि आलोचक के साथ? लेकिन इन दोनों को दो अलग-अलग वर्गों में बांट कर अलगा क्यों रही हूँ? क्या आलोचक रचनाकार नहीं? न, मैं यह बिल्कुल नहीं कहूँगी कि आलोचक ‘भी’ रचनाकार है. ‘भी’ शब्द कुछ ‘मेहरबानियों‘ और कुछ ‘छूटों’ के साथ उसे रचनाकार मानने का बड़प्पन भरा भाव है. मैं आलोचक की स्वायत्तता में रचयिता की सृजनधर्मिता देखती हूँ और चूजे की तरह अंडे का छिलका फोड़ कर बाहर आने की सारी संघर्षाकुल कवायदें भी- ‘मैं’ के पूर्ण साक्षात्कार के बाद ‘मैं’ से निस्संग दूरी; ‘आत्म’ के विस्तार की जुगत में व्यवस्थाओं का मनोविज्ञान समझने की चेतना; भौतिकता के पथरीले प्रवाह से अलगा कर जिंदगी की जड़ों में लिपटी हूकों को सुनने की आतुरता; अपने सपनों को गूंथ कर ख्वाहिशों का समानांतर संसार रच देने की विकलता!
मैं आलोचक को चुनती हूँ.
अब मैंने अपने को किरदार की तरह ठीक नजर की सीध में रख लिया है, और अज्ञेय की इस उक्ति में अपनी सम्मति मिला लेती हूँ कि
“हर कोई जीवन का अंतिम दर्शन अपने जीवन में पाता है, किसी की सीख में नहीं.”
फिर से लौटती हूँ पाठक-आलोचक-लेखक त्रिक् की ओर, और पाती हूँ कि आलोचक की रचना-प्रक्रिया के संदर्भ में अभी मुझे पाठक की भूमिका पर ठहर कर और बात करनी है. कथाकार के लिए पाठक की भूमिका अपनी अंत:वृत्तियों, सपनों और जीवन के पाठ तक सीमित हो सकती है. आलोचक को यहाँ से आगे बढ़कर आलोच्य कृति का पाठ भी करना है. पाठ की इस प्रक्रिया में वह विशुद्ध रसलोलुप पाठक प्रतीत हो सकता है. रसलोलुप पाठक के पास वैचारिक संवेदन की प्रखरता नहीं होती; रसिकता की चाशनी में ऊभ-डूब करती लोलुपता होती है. क्षण उसके लिए महत्वपूर्ण है, इसलिए विचार पर संवेग भारी पड़ता है; और चिंतन पर आनंद. गहराइयों में उतरने का धैर्य, संयम और अवकाश उसके पास नहीं होता. रसलोलुप पाठक भौतिकताओं से सिरजी ‘अ-चेतन‘ चेतना है, जो बहने को बढ़ने का नाम देती है. सतह के नीचे दबी नुकीली सच्चाइयां देखने का हौसला उसमें नहीं.
प्रश्नहीनता की यह स्थिति उसे रचनाकार की उंगली पकड़कर दिखाए रास्ते पर चलने की सहूलियत देती है. कहानीकार उसे बहुत कुछ बताता है- कृति के बारे में, अपने युग की परिस्थितियों और दबावों के बारे में, अपनी सर्जनात्मक अकुलाहटों और अंतर्दृष्टि के बारे में, अपने सपनों और विफलताओं के बारे में.यह लेखक के साथ तादात्मीकरण की अवस्था है, लेकिन इस अवस्था में भी उसे (न, मैं देख रही हूँ कि आलोचक ‘रसलोलुप पाठक‘ की भूमिका के समानांतर ‘मनस्वी पाठक‘ की चैतन्यता लिए चल रहा है) कथाकार से भिन्न अपनी इयत्ता का बोध रहता है. सम्मोहन के बीच वह जानता है कि कथाकार द्वारा जुटाई गई सारी सूचनाएं उसके लिए मूल्यांकन का प्राथमिक स्रोत भर हैं.
दो)
गतिशीलता ज्ञानार्जन की ललक का दूसरा नाम है.
सूरज से ज्यादा ताकतवर इस ब्रह्माण्ड में और कोई नहीं, लेकिन फिर भी वह अकेला नहीं रह सकता. अकेलेपन से खौफ खाकर पृथ्वी के इस कोने से उस कोने तक हर घर के आंगन में कुछ देर ठहर कर सबसे उजली-गुनगुनी बात कर आता है. मनस्वियों का अकेलापन निर्जन नहीं होता, उसमें पूरे ब्रह्मांड की पदचापें शामिल रहती हैं.
आलोचक की रचना-प्रक्रिया का दूसरा पड़ाव है विश्लेषण. वैचारिक कर्मठता इस पड़ाव का प्राण-तत्व है, यथार्थ की सघन बीहड़ परतें इसकी कर्मभूमि. कृति के भीतर-बाहर आवाजाही करते हुये अब वह कई-कई स्तरों पर जीवन से मुठभेड़ करता है. एक जीवन वह, जिसे अनुभव के स्तर पर जीकर उसने दृष्टि पाई है. दूसरा जीवन वह, जो उसके सामने अपने वेग और बाधाओं के साथ दौड़ रहा है. तीसरा जीवन वह, जो यथार्थ की अनुकृति है, लेकिन उससे छेड़छाड़ करते हुए कथाकार ने नया लोक रचने की आकांक्षा को जिया है. और चौथा जीवन वह, जो उसकी वैचारिक अनुभूतियों से प्राणवान है, और यथार्थ-जगत एवं कृति-जगत के गुरुत्वाकर्षण से बाहर निकल कर विचार/दर्शन के स्तर पर उसे रच डालने को विवश कर रहा है.
पाठ की प्रक्रिया यदि आलोचक की पैंट्री है तो विश्लेषण की प्रक्रिया वर्कशॉप. यहीं वह अपनी दृष्टि को प्रतिमान में ढाल कर जीवन के बरक्स रचना का विश्लेषण करता है. प्रतिमान न कुम्हार के सांचे की तरह सुनिश्चित आकार-आधार लिये जड़ अवयव हैं, न गणित के एब्स्ट्रैक्ट फार्मूले. प्रतिमान विश्लेषण-प्रक्रिया के दौरान उपजने वाली दृष्टि है जो एक छोर पर आलोचक के भाव-बोध से बंधी है तो दूसरी ओर कथा के प्राण-तत्वों से. अपनी बुनियादी संरचना में प्रतिमान रचना-वैशिष्ट्य की निर्णयात्मकता है जो हर विधा के साथ अपने बाह्य कलेवर को भले ही बदलकर नानाविद कसौटियों का रूप लेते रहें, लेकिन मूलत: वे कृति के साथ संवाद की चेतन- प्रक्रिया के भीतर से ही उभरते हैं. प्रतिमान विश्लेषण की प्रक्रिया में लेखक-आलोचक की दृष्टि के संघात से उत्पन्न रचनात्मक स्थिति हैं जहाँ स्वयं आलोचक जीवन की विविध परतों को लेखक के माध्यम से अधिक सुस्पष्ट, सुसंगत, सुसंबद्ध एवं तर्कपूर्ण ढंग से देख पाता है; एवं/अथवा असहमति की स्थिति में दृष्टि-भिन्नता के उन बिंदुओं को क्रमश: तार्किक अन्विति के साथ स्पष्ट करता चलता है जो एक ही स्थिति/ संवेग/ समस्या को देखने की दो स्वायत्त दृष्टियाँ बनाते हैं.
यह सत्य है कि आलोचना के प्रतिमान कृति के भीतर ही निहित होते हैं, लेकिन उन्हें खोज कर अपनी दृष्टि से स्पंदित करना, और विचार की संश्लिष्ट प्रक्रिया में उसे घटना/पात्र विशेष की मन:स्थिति से विच्छिन्न कर पूरे समय-समाज और मनुष्य के मनोविज्ञान से जोड़ कर ‘दर्शन‘ का रूप देना आलोचक की संवेदनात्मक कल्पना पर निर्भर है. यही आलोचक की सृजनात्मकता है जहाँ कृति की मीमांसा के स्थूल दायित्व से मुक्त हो वह समय को रचने का स्वायत्त विचार बन जाती है. जैसे नामवर सिंह ‘परिंदे‘ कहानी की उदासी और संगीत की आंतरिक लय एवं सुसंबद्धता को मानवीय संवेगों और नियति के साथ जोड़कर निर्मल वर्मा को मुक्ति की आकांक्षा का रचनाकार बताते हैं, और इस प्रक्रिया में अपनी आलोचना-दृष्टि (प्रतिमान) को कृति-कृतिकार से बाहर जीवन एवं संबंधों को समझने की स्वप्नदर्शी आकांक्षा का रूप देते हैं.
प्रतिमान एक स्तर पर कृति के प्रभाव को पकड़ने की चेतना हैं, तो दूसरे स्तर पर उन प्रभाव-तरंगों से तरंगायित आलोचक की मन:स्थिति के निर्माता अवयवों को खोल कर उसकी चेतना और अंतर्दृष्टि का रेशा-रेशा प्रकट करते चलते हैं.
विश्लेषण की इस वर्कशॉप में आलोचक प्रत्यक्षतया लेखक के सरोकारों, कृति की कलात्मकता, और जीवन के साथ उसके अंतर्संबंधों की जांच कर रहा होता है, लेकिन अप्रत्यक्षतया रचयिता के रूप में उभरते हुए वह स्वयं को आलोचना/विश्लेषण के लिए भी प्रस्तुत कर रहा होता है.
कृति के भीतर बहुत से ‘गतिमान तत्व‘ निहित होते हैं; साथ ही ढेर सी निरर्थक आवृत्तियाँ और सम्मोहक जड़ताएँ भी जो खरपतवार की तरह कृति की उर्वरता को नष्ट करने आ पहुंचती हैं. मुक्तिबोध की अपेक्षाओं के अनुरूप आलोचक की दृष्टि कृति के भीतर गतिमान अंतर्तत्वों के ‘गहन पारस्परिक संबंध और उन पारस्परिक अंतर्संबंधों के समुच्चय की विशेष गढ़न को हृदयंगम‘ करती है, लेकिन साथ ही यह भी देखती चलती है कि क्यों रचना के प्राण-तत्व की अंतर्धारा की गति एक विशेष दिशा की ओर ही प्रवाहित हो रही है. यहाँ रचना के समानांतर रचनाकार अपनी पूरी कद-काठी और जीवंतता के साथ उसके सामने आ खड़ा होता है- उसके परिवेश की ध्वनियाँ और आभ्यंतर के अंधेरे भी.
प्राय: यह मांग की जाती है कि आलोचक आलोच्य कृतिकार को उसके युगीन संदर्भों में ही रख कर जांचे; उसकी दुर्बलताओं को उसके समय की विशिष्ट संरचना मानकर नजरअंदाज करता चले; और वर्तमान की अपेक्षाओं के अनुरूप अपनी बढ़ी-चढ़ी मांगों को उस पर न थोपे. लेकिन आलोचना पिंजरे में बंद चूहे की तरह छोटी सी परिधि में उछल-कूद मचाने की यांत्रिक विवशता नहीं है. मैं इन मांगों को सिरे से खारिज करती हूँ, और किसी भी कृति से गुजरते हुए लेखक से दो अपेक्षाएँ करती हूँ. एक, अपने समय के दबावों के बीच जूझते हुए उसने परंपरा के प्रभावों-दबावों को किस रूप में ग्रहण किया? दूसरे, समय की अंतर्धारा के भीतर विन्यस्त करते हुए अपने जख्मों-सपनों-खदबदाहटों के सहारे यथार्थ का अतिक्रमण एवं पुनर्सृजन किस रूप में किया? वह यदि मात्र ‘कैमरे की आंख‘ है तो मैं उसे रचयिता होने का गौरव नहीं देती. रचयिता का धर्म है, समय की टूट-फूट, किरचों-खरोंचों को सान कर वह सब रच देना जो उसके समय से चलकर हमारे समय के भीतर आ पहुंचे. रचने की क्षमता किसी नए लोक को मूर्तिमान करने में नहीं, परिवर्तन की आकांक्षाओं और दुर्निवार अनिवार्यताओं को रेखांकित करने में भी है. कृति का कालजयी होना साहित्य की इसी रचनात्मक अंत:शक्ति के कारण संभव है.
साहित्य जगत में आलोचक सबसे ज्यादा ‘बेचारा’ प्राणी है. उससे अपेक्षा की जाती है कि वह रचना को सहानुभूतिपूर्वक अपनी ‘तमाम जीवन-अनुभूति‘ के साथ, ‘वैविध्यपूर्ण प्रगाढ़ अनुभवसंपन्नता‘ के साथ, ‘मार्मिक जीवन-विवेक‘ के साथ हृदयंगम-विश्लेषित करे.
वह कथाकार से कहना चाहता है कि ठीक यही अपेक्षा उसकी भी सृजनात्मक साहित्य से है कि वह उदार वैचारिक संवेदन के साथ ‘समय‘ को समझे और आत्मपरकता को वस्तुपरकता की नि:संगता में ढालकर रचना करे. ‘सहानुभूति‘ संवेदना का प्रभावकारी संचरित रूप है, लेकिन दरअसल वह दृष्टि ही है जिसे विचार की दिशा में दौड़ती भावना की तरलता का नाम दिया जा सकता है. जाहिर है, आत्मपरकता की नैसर्गिक आभा दो व्यक्तियों-संवेगों को जोड़ने का मजबूत पुल बनाती है. इसके विपरीत नि:संगता आत्मीयता की ऊष्मा को विश्लेषण के ठंडेपन में ढाल देने की उद्वेगहीन अपेक्षा है जहाँ स्थूल विवरण प्रभाव एवं विचार की संश्लिष्टता पाकर निर्वैयक्तिक होते चलते है. लेकिन आलोचक देखता है कि रचनाकार और वह स्वयं इस कसौटी पर खरे नहीं उतर पा रहे हैं.
‘मैं’ के घेरों को तोड़ने की कोशिश में दोनों की नि:संगता ‘मैं‘ के महीन जालों में फंस जाती है. वह रुक कर एकाग्र भाव से इन महीन जालों को भी देखना शुरू कर देता है. ये जाले हैं पूर्वाग्रहों के. पूर्वाग्रहों की पड़ताल कर पाना ही दरअसल साहित्यिक वस्तुनिष्ठता को अर्जित करना है, क्योंकि वह जानता है कि पूर्वाग्रह संतुलित सीधी सधी दृष्टि को एक ओर झुका देते हैं. लेकिन साथ ही यह भी जानता है कि उस ‘झुकी दृष्टि‘ से समस्या-विशेष को जन्म देने वाली व्यवस्थाओं और शास्त्रों की गहराइयों में झांक कर आया जा सकता है.
ठीक यहीं आलोचक के हांफ जाने या विवेक को साध कर नि:संग विश्लेषण करते चलने की क्षमता चरमरा कर टूट भी सकती है. लेकिन अध्ययन का संस्कार और कौतूहल को प्रश्न की निरंतरता बना देने की व्यग्रता सेफ्टी वाल्व की तरह उसकी दृष्टि को विघटित होने से बचा सकती है.
जब सतह पर फैलती दृष्टि यथार्थ की बेधक पड़ताल की प्रक्रिया के दौरान व्यवस्थाओं की दुरभिसंधियों को जानने हेतु व्यग्र होती है तो वह परंपरा के विश्लेषण की ओर मुड़ जाती है. आलोचक परंपरा से बहुत कुछ लेता है- भाषा, ज्ञान, स्मृति, लोक तत्व, साहित्य-संस्कार, ऐतिहासिक चेतना. परंपरा की उपेक्षा करने का अर्थ है त्रिशंकु की नियति का वरण करना. आलोचक जानता है, आज जो परंपरा है, कल वह ‘अतीत की आधुनिक चेतना‘ का विकसनशील रूप रही है. चेतना के परंपरा और परंपरा के रूढ़ि बनने की प्रक्रिया में अनेक वैचारिक संवेदनात्मक स्खलन हैं जिन्हें जानकर वर्तमान के भीतर निहित विघटनशील घटकों की शिनाख्त संभव है. दूसरे, परंपरा का ज्ञान ही शोषण-दमन-चक्र की पहचान कराता है, लेकिन दृष्टि-भेद उत्पीड़न को सही रूप में चित्रित करने की वैचारिक उदारता नहीं देता. विमर्शवादी साहित्य के मूल्यांकन में आत्मपरकता की दलदली जमीन में भीतर तक धंसे लेखकीय पूर्वाग्रह उत्पीड़ित-उत्पीड़क को प्राय: प्रतिपक्ष के रूप में चित्रित करते नजर आते हैं; मनुष्य की स्वतंत्रता की लड़ाई का समर्थन करते हुए नहीं. यही कारण है कि मनुस्मृति और पितृसत्तात्मक व्यवस्था को प्रश्नांकित करते हुए हिंदी का स्त्री-लेखन ‘सीमंतनी उपदेश‘ (अज्ञात हिंदू महिला, 1882) से ‘श्रृंखला की कड़ियां‘ (महादेवी वर्मा 1942) तक स्त्री/मुक्ति का जो ड्राफ्ट रच रहा था, वह पुरुष रचनाकारों तक पहुंचते-पहुंचते सहानुभूति और यथास्थिति के पोषण की प्रच्छन्न उदारता में तब्दील हो जाता है.
प्रसाद,प्रेमचंद, जैनेन्द्र – तीनों स्त्री-अधिकारों के पक्षधर रहे हैं, लेकिन तीनों की रचनाओं में स्त्री पराधीन एवं गौण है. वह न कर्त्ता है, न मनुष्य. मात्र छाया, आँसू, गूंज या कराह. जबकि इसके ठीक विपरीत रवींद्रनाथ टैगोर उनसे पहले ‘पत्नी का पत्र’ जैसी कहानी के जरिए स्त्री को उसकी जमीन दिलाने की गरिमामयी लड़ाई स्वयं स्त्री को नायकत्व सौंप कर लड़ रहे थे, ठीक वैसे जैसे शिवरानी देवी और सुभद्रा कुमारी चौहान अपने समय के पुरुष-लेखन की कातरता को धता बताकर लड़ रही थीं. समय के भीतर खदबदाती वैचारिक उथल-पुथल समय के उसी बिंदु तक सीमित नहीं रहती. वह ‘दबा’ दिए जाने की वर्चस्ववादी कोशिशों के बावजूद प्रभाव, पदचाप या अनुगूंज बनकर अगले वक्तों में चली आया करती है. आलोचक रचना का मूल्यांकन करते हुए जान जाता है कि समीक्ष्य रचनाकार क्यों उन प्रभावों को उतनी ही सघन तीव्रता से नहीं अपना पा रहा है. कि कहाँ उसके अपने संस्कार, पूर्वाग्रह, और ग्रंथियां विशेषाधिकार का बाना पहन कर उसकी प्रगतिशीलता को रोक रहे हैं.
सत्य को निरपेक्ष समग्र निराकार माना जा सकता है, लेकिन सत्य को देखने (परसीव करने) की निजी दृष्टि उसके विराट रूप को खंडित कर आत्मपरक, संकुचित और इकहरा बना देती है. इसी कारण साहित्य जीवन का समग्र विश्लेषण नहीं, प्रातिनिधिक चित्रण है- उसके एक पक्षीय सत्य का गहन उद्घाटन! कृति से झांक-झांक पड़ते लेखक के चरित्र को उसके जीवन और परिवेश के बीच रखकर आलोचक उसके समानांतर अपने व्यक्तित्व की गढ़त को भी जांचने लगता है. उसे भी दिखती है अपने तलघर में सक्रिय अनेक ग्रंथियाँ- कभी संस्कार की शक्ल में गुड़ीमुड़ी पड़ीं; कभी पूर्वाग्रह बनकर फुंफकारती हुईं; कभी विशेषाधिकार पाकर अपने होने का जश्न मनाती हुई. स्वयं को नग्न देखने का हौसला लेखक की धड़कनों को समझने की संवेदनात्मक परिपक्वता देता है.
आलोचकीय नि:संगता का अर्थ चूंकि अपने पूर्वाग्रहों को ईमानदारी से चीन्हना है, अतः अपनी सृजन-प्रक्रिया में आलोचना पूर्वाग्रहों से मुठभेड़ करती अपनी लेखककीय क्षमताओं की पड़ताल का लेखा-जोखा भी है.
विश्लेषण की पथरीली जमीन पर आलोचक पाता है कि किसी एक कहानी/कृति के आधार पर लेखक का मूल्यांकन संभव नहीं, बल्कि एक कहानी पर बात करते हुए भी उसे लेखक को समग्रता में जानना होगा- उसका समूचा रचना कर्म! उसकी परंपरा! उस पर पड़ने वाले देशी-विदेशी साहित्यिक, गैर साहित्यिक प्रभाव! स्मृतियों का रेला आलोचक के अध्ययन की गहराई को नापता है तो आलोच्य कृतिकार के कलात्मक संवेदन को भी एक बड़ी परंपरा में रखकर समझने का विवेक देता है. मजाक उड़ाया जा सकता है कि क्यों कोई-कोई आलोचक अमूमन हर आलोचना में अन्य रचनाओं की पदचापों को महसूस करते हुए मूल कृति को उनकी आहटों के साए में देखता है. लेकिन अच्छी आलोचना कृति की व्याख्या या पुनर्कथन नहीं है. वह मूल कृति के समानांतर आलोचक के जीवन-पाठ की निजी दृष्टि होती है.
परंपरा में रचना को विन्यस्त करने के क्रम में वह न केवल रचनाकार के रचनात्मक विकास की अंतर्यात्रा को जान जाता है, बल्कि उन विशिष्टताओं को भी रेखांकित कर पाता है जो परंपरा में हस्तक्षेपकारी मुद्रा के कारण उसे नई परंपरा का सूत्रधार होने का गौरव देती हैं या अपने समानधर्मा समकालीन रचनाकारों की पांत में उसके निजी वैशिष्ट्य को उजागर करती हैं. जैसे ‘रंगभूमि’ से ‘गोदान’ तक फैली प्रेमचंद की कृषि-संस्कृति की अंतर्यात्रा एक अच्छे आलोचक को प्रेमचंद की कृतियों के अंतर्पाठ तक ही सीमित नहीं रखती, रचना की परिधि से बाहर फैली अन्य रचनाओं तक भी ले जाती है ताकि समस्या-विशेष को वह देश-काल की सीमाओं से मुक्त कर वृहत्तर संदर्भों में पढ़ सके. साहित्य कृति के जरिए समय की संरचना की अनवरतता का संवेदनात्मक पाठ है. अत: प्रेमचंद के कृषि-सरोकार आलोचक की स्मृतियों को झंकृत करते हुए उसे प्रेमचंद की पूर्ववर्ती परंपरा में निहित छोटी सी कहानी ‘टोकरी भर मिट्टी’ (माधवराव सप्रे) के जरिए भूमि-अधिग्रहण की समस्या की विकरालता से जोड़ते हैं तो ठीक प्रेमचंद के समय में उनके समानांतर सृजनरत जयशंकर प्रसाद के सरोकारों की जांच का गंभीर दायित्व भी देते हैं.
‘पुरस्कार’ कहानी में प्रसाद प्रत्यक्षतया प्रेम, राजद्रोह और समर्पण के अंतर्द्वंद को बुनते हुए मनुष्य के व्यक्ति, समाज एवं सत्ता के साथ अंतर्वैयक्तिक संबंध का भावप्रवण ड्राफ्ट प्रस्तुत करते हैं, लेकिन कहानी की भीतरी तहों में अशर्फी भर थाल के मोल में किसी किसान की लहलहाती जमीन को ‘हड़प‘ लेने वाली राजकीय बर्बरता पर विचार की जरूरत निबद्ध है. विश्लेषण की इस प्रक्रिया में प्रेमचंद के समानांतर 19वीं सदी के पूर्वार्द्ध के फ्रांसीसी किसान (संदर्भ बालज़ाक की उपन्यास श्रृंखला ‘द ह्यूमन कॉमेडी‘ में संकलित उमन्यास ‘किसान’) और प्रेमचंद के समकालीन चीनी किसान (संदर्भ पर्ल एस. बक का उपन्यास ‘द गुड अर्थ’) का स्मरण हो आना अस्वाभाविक नहीं, ठीक वैसे ही जैसे ताराशंकर बंद्योपाध्याय ( गणदेवता), गोपीनाथ मोहंती (माटी मटाल), रेणु (मैला आंचल, परती परिकथा), जगदीश चंद्र (धरती धन न अपना, कभी ना छोड़ें खेत) और संजीव (फांस) का याद आना.
विश्लेषण की इस प्रक्रिया में आलोचक का दिमाग वेयरहाउस की तरह होता है. कोई भी ख़बर कहीं से भी चली आ सकती है- अख़बार की कतरनें, पड़ोस में घटी कोई घटना, बचपन की गलियों में ठिठकी खड़ी कोई कहानी, सरकारी गजट-सर्वेक्षणों में दबे आंकड़े, गांधीजी की चम्पारण यात्रा, नील किसानों की दुर्दशा, सौ बरस के अंतराल के बाद अस्तित्व-रक्षण के उन्हीं मुद्दों को लेकर जंतर-मंतर पर धरना देते-आमरण अनशन करते किसान, नई बेहतर कृषि-नीतियों के दावों के बावजूद स्वामीनाथन रिपोर्ट की सिफ़ारिशों को लागू न करना, उत्तरोत्तर बढ़ती किसानों की बदहाली-आत्महत्याएँ, सब्सिडी और न्यूनतम समर्थन मूल्य को लेकर सरकारी नीतियों के बरक्स मध्यवर्गीय उदासीनता, और ‘एक फोन कॉल की दूरी’ का झुनझुना बजा कर अंधेरी खोहों में दम तोड़ने के लिए छोड़ दिया गया बृहद् किसान आंदोलन… भारतीय किसान की स्थिति को वर्तमान संदर्भ में देखकर कृषि-व्यवस्था और किसान को लेकर सत्ता एवं पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के चरित्र को समझना आसान हो जाता है.
कृति के भीतर अपने समय की समस्त ध्वनियाँ अपनी अनुगूंजों एवं अंतर्ध्वनियों के साथ मौजूद होती हैं. आलोचक उन ध्वनियों में अपने समय की पदचापें और फुफकारें मिला देता है. फिर अपनी दृष्टि से उन्हें एक व्यापक परिप्रेक्ष्य देते हुए मूल कृति की जमीन को अंतरिक्ष का विस्तार देने का प्रयास करता है. ठीक वैसे जैसे आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी कबीर को, और आचार्य रामचंद्र शुक्ल तुलसीदास एवं जायसी को समय की संकुचित घेराबंदी से निकालकर उनके सरोकारों में अपनी अंतर्दृष्टि मिला मूल कृतियों को विश्लेषण, संवेदना एवं दर्शन का उन्नत अंतरिक्ष देते हैं.
जाहिर है अच्छी आलोचना मूल कृति की अंतर्ध्वनियों को ही नहीं पकड़ती, उसमें अपने समय की अनुगूंजों को पिरो कर उसे नवा भी करती है.
विचार की गहराइयों का संस्पर्श करने के बाद जब दृष्टि व्यवस्थाओं की समाजशास्त्रीय पड़ताल की गंभीरता, और उन व्यवस्थाओं की सामाजिक-सांस्कृतिक स्वीकृति के पीछे सक्रिय राजनीतिक-आर्थिक ताकतों का जायजा लेती है, तब वह देखती है कि उसके ‘देखने’ में पहले- सी दृष्टि नहीं रही है; कि सतह पर जो दिख रहा है वह ‘सत्य’ नहीं, किसी अदृश्य षड्यंत्र की महीन संरचना है; कि व्यवस्था (वर्णाश्रम व्यवस्था, पितृसत्तात्मक व्यवस्था, पूंजीवादी व्यवस्था) का उत्पीड़ित व्यक्ति अपनी बेसब्री और लाचारी में व्यवस्था के हाथ भी मजबूत कर रहा है और व्यवस्था से संतुष्ट भी हो रहा है. अभिज्ञान का यह बिंदु आलोचक की संवेदना और वैचारिक कर्मठता से जुड़कर अंतर्दृष्टि का रूप लेता है. अंतर्दृष्टि में देखने की प्रक्रिया उद्बोधन की दायित्वशीलता का अतिरिक्त आयाम भी ग्रहण करती है, और एक ही परंपरा/धारा में लिखने वाले रचनाकारों की मनोभूमि की गहरी पड़ताल कर उन्हें तमाम समानताओं के बावजूद अलगाने वाले वैशिष्ट्य-बिंदुओं का रेखांकन भी करती चलती है. जैसे वह देखती है कि फैंटेसी का प्रयोग मुक्तिबोध, पंकज बिष्ट, योगेंद्र आहूजा और मनोज रूपड़ा की कहानियों में यथार्थ के उन भयावह आयामों को पकड़ने के लिए हुआ है जो नंगी आंखों से प्रायः दिखाई नहीं पड़ते, लेकिन इन चारों कहानीकारों ने जीवन के साथ अपनी मुठभेड़ को सृजन के व्यग्रतम क्षणों में जिस ‘दर्शन’ में ढाला है, वही उनके व्यक्तित्व का अंतर्भूत सार-तत्व बनकर कहानियों में उभरता है.
मुक्तिबोध की कहानियों में फैंटेसी व्यक्ति/व्यवस्था के अंधेरे तल में पलती कुंठा-अपराध बोध/षड्यंत्रों को पहचानने के क्रम में स्वयं लेखक को उजालों की शिनाख्त की रचनात्मक बेचैनी में ढालती है. मुक्तिबोध का समूचा साहित्य कुछ बुनियादी सवालों का जवाब पाने के लिए मानो एक आवर्ती गति में बंधा है- अपने को दोहराता हुआ- आत्मसंघर्ष के जरिए अपनी ही गहराइयों को निरंतर अधिकाधिक नापता हुआ. फैंटेसी उनकी रचनाओं में जिस अनुपात में गहराइयों में उतरती चलती है, उसी अनुपात में मुक्ति की उड़ान भरने के लिए अपने सिर पर तने आसमान को व्यापकतर करती चलती है. लेकिन पंकज बिष्ट, मनोज रूपड़ा और योगेंद्र आहूजा के यहाँ फैंटेसी मुक्ति एवं सृजन की उन्मुक्तता से लयबद्ध होकर संगीत-लहरी की तरह नहीं आती, बल्कि शैल्पिक युक्ति बनकर अभिव्यक्ति को चमकीला बनाने का औजार हो जाती है. अलबत्ता तीनों रचनाकार इसे अपनी संवेदना के अनुरूप अलग-अलग तरह से इस्तेमाल करते हैं.
जैसे पंकज बिष्ट फेंटेसी के जरिए अनागत की पदचापों को महसूसने का जतन करते हैं; योगेंद्र आहूजा इसे बौद्धिक विश्लेषण की ठंडी तटस्थता का रूप देते हैं, तो मनोज रूपड़ा के यहाँ वह चौंकाने की भंगिमा का नाटकीय कार्य-व्यापार बन जाती है. ठीक यही फर्क संजीव और मधु कांकरिया के सामाजिक सरोकारों में भी देखा जा सकता है. दोनों भरपूर शोध के बाद सामाजिक विडंबनाओं को अपनी रचनाओं में पिरोते हैं. दोनों का लक्ष्य पाठक के भीतर यह संवेदना जागृत करना है कि समय के प्रवाह में निष्क्रिय बहते चले जाने की अपेक्षा समय में प्रभावकारी हस्तक्षेप करना मनुष्य-जीवन की सार्थकता है.
इस प्रक्रिया में संजीव श्रमसाध्य शोध के बाद उपलब्ध निष्कर्षों को संवेदनात्मक वैचारिकी में गूंथ कर व्यवहार के धरातल पर उतारने की जरूरत पर बल देते हैं जो अक्सर दर्शन की ऊंचाइयों का संस्पर्श कर लेती है. मधु कांकरिया संघर्ष को सतह पर फैला कर उसे एक आह्वान का रूप देती हैं. संघर्ष में तटस्थ चिंतन की पड़ताल घुल जाए तो ‘मैं’ और ‘व्यवस्था’ की सतह के नीचे शास्त्र-निर्माता ताकतों की बर्बरता-दुरभिसंधियों की पड़ताल संभव है. यहीं से चिंतन व्यक्ति, समाज, वर्तमान का अतिक्रमण कर मनुष्य और काल के अंतर्संबंधों की पड़ताल बन जाता है.
कोई आश्चर्य नहीं कि विश्लेषण की गहराइयों में उतरने के दौरान आलोचक महसूस करता है कि रचना स्वयं को भाषा, घटना, चरित्र, देश और काल की स्थूलताओं से मुक्त करते हुए प्रभाव की अमूर्त लहरी की तरह उसके भीतर प्रविष्ट हो गई है. वह आंख मूंदता है, और देखता है पन्नों के ऐंठन भरे विस्तार से निकल कर रचना अपने प्रभाव को कभी ध्वनि में व्यक्त कर रही है, कभी बिंब बनकर उसकी चेतना को झंकृत कर रही है. वह जान जाता है, प्रेमचंद के पास कलरव है, तो प्रसाद के पास मंद्र आलाप, मुक्तिबोध बिंब में अपनी आभा को गूंथते हैं, तो रवीद्रनाथ टैगोर सन्नाटे को तोड़कर बीहड़ रास्तों को रौंदने वाली दृढ़संकल्प पदचाप बन जाते हैं.
तीन)
रचनाकार कृति को जमीन देता है तो आलोचक उस जमीन पर आच्छादित आसमान का अतिक्रमण करते हुए उसे अंतरिक्ष देता है.
‘सुनो बेताल! सुनो विक्रम! न जाने किस मनोदशा को जीने लगी हूँ मैं एकाएक! मैं बह रही हूँ! मैं स्थिर हूँ! मैं समाधि में लीन हूँ! समय से बेखबर चिंतन की सर्पिल सरणियों पर चली जा रही हूँ. अचीन्हे पड़ावों पर पहुंचने की ललक मुझे बीहड़ डगर की ओर ले जा रही है. मैं सुख का परस महसूस कर रही हूँ और गंभीर ठहराव के साथ उसे भीतर समो रही हूँ. समाधि से बाहर भी मैं हूँ. देख रही हूँ, मेरी देह पर चिड़ियों ने घोंसले बनाए हैं, और सर्पों ने बिल. दूर झाड़ियों में फुदकता वह सफेद खरगोश मुझे लुभा रहा है. वह फलांगता हुआ मेरी गोद में आ बैठा है और मैं जीवन के तमाम रस-रंग के बीच अपनी भौतिक अस्मिता को जी रही हूँ. लेकिन मैं तो च्यवन ऋषि की तरह अपने से बाहर तमाम सांसारिक हलचलों को भूल जाना चाहती थी. फिर दो स्तरों पर एक साथ कैसे जी सकती हूँ? क्या यह खंडित हो जाने की एकाग्रता-भंग की स्थिति है? मैं हर चीज साफ-साफ देख पा रही हैूं, लेकिन आगे बढ़कर उसे छू क्यों नहीं पा रही हैूं? सब कुछ हाथ से फिसलता जान पड़ता है. कि जो मेरा अंतरंग है – मेरे बौद्धिक स्पंदन का अभिन्न अंग- वही मुझसे दूर जा पड़ा है? छूने की कोशिश में मन के बियाबान में धूल भरे बगूले उड़ने लगते हैं. मैं जानती हूँ, साहित्य अहसास को साक्षात् करने की कला है; अमूर्तन को मूर्त करने का हुनर- लेकिन चक्रवातों में फंसी अपनी हस्ती को कैसे बचाऊं मैं?
सवाल जंगल के अछोर विस्तार में गुम हो गईं पगडंडियां है. इन्हें अपनी मेधा से ढूंढना होता है.
विक्रम इतना भर कह कर चुप हो गए तो बेताल सुपरिचित अंदाज में मुसकुरा दिया – चलो, रास्ता ढूंढने के श्रम को भुलाने के लिए एक किस्सा सुनाता हूँ. अकाल के दिनों में जंगल के तालाब का पानी सूख गया तो सब पशु-पक्षी नए आश्रय की तलाश में भटकने लगे. धीरे-धीरे तालाब खाली होने लगा. रह गए कुल तीन प्राणी. दो बगुले. एक कछुआ. तीनों पक्के दोस्त. एक दिन बगुलों ने भी कहा, दूर एक तालाब है, पानी से लबालब भरा. हम वहीं जा रहे हैं. कछुआ मायूस! अकेला! कैसे रहे? कहां जाए? बगुलों ने सुझाया, घबराओ नहीं. हम दोनों अपनी चोंच में लकड़ी का एक-एक सिरा दबा लेंगे. तुम अपने मुंह से लकड़ी को कसकर पकड़े रहना. हमारे संग-संग तुम भी उड़कर नए ठिकाने पर पहुंच जाओगे. योजना के मुताबिक तीनों उड़ने लगे. घनी बस्ती आई तो लोग कौतुक से दृश्य देखने लगे. कोई कहे- कछुआ! कोई कहे- घोंघा! कोई कहे- कुछ नहीं, सिर्फ आंख का धोखा! कछुआ इतराने लगा था! आकाश विहार! कितना रोमांचक! नीचे खड़े लोग इतने छोटे-छोटे! जितने छोटे, उतनी ओछी बुद्धि! मुझ सजीव को घोंघा कहते हैं. या आँख का धोखा! ‘मैं कछुआ हूँ, कछुआ! जिंदा!‘ वह मुँह खोलकर चिल्लाया और …..
मैं शांत होकर आत्मस्थ हो गई हूँ. जान गई, रेत के उड़ते बगूले द्वंद्व हैं! मंथन की प्रक्रिया! उतावलापन और वाचालता कला की आत्मघाती मुद्राएँ हैं. कल्पना की उड़ान में जब अंतर्दृष्टि मनुष्य के बाह्य-आभ्यंतर – उसके समग्र पर केंद्रित हो जाती है तो उसमें दर्शन की संश्लिष्टता और समय की अनवरतता आन मिलती है. ‘उड़ान’ का अर्थ ही है नि:संग आत्मीयता और दूरदृष्टि. वह मुक्ति का स्वप्न है, जो नींद के भीतर इंद्रजाल नहीं बुनता; समाज के भीतर नए संवेदन को रचता है.
मैं टी एस इलियट, सिमोन द बउवार और ज़ोरबा को एक साथ याद कर रही हूँ- बिना किसी प्रत्यक्ष तारतम्य के. कहने को ‘द वेस्ट लैंड’ इलियट की कविता है लेकिन सांस्कृतिक संदर्भों के सहारे सांस्कृतिक संस्थाओं की अंतर्निहित दुरभिसंधियों को रेखांकित करती ‘सभ्यता समीक्षा’ है- एक कवि-चिंतक की आलोचना-दृष्टि का वैभव! यह वैभव ‘ज़ोरबा द ग्रीक‘ उपन्यास (निकोस कज़ानजाकिस) के केंद्रीय पात्र ज़ोरबा की जिजीविषा, उमंग, वर्जनामुक्त अकुंठ जीवन-दृष्टि का संस्पर्श पाकर दार्शनिक चिंतन की जिन ऊंचाइयों का आरोहण करता है, वहाँ व्यवस्था, धर्म, तंत्र सब बेमानी हो जाते हैं. शेष रहती है मनुष्य को मनुष्य से जोड़कर आत्मीय ऊष्मा को बनाए रखने वाली लौ. सिमोन द बउवार अनंत व्योम में अपने हिस्से का कोना चुनती हैं, अपनी सांसों के कोलाहल को भरकर समूची आधी दुनिया के स्पंदन को उसमें गूंध देती हैं, और फिर मानो अपने समय तक के महत्वपूर्ण उपन्यासकारों को कटघरे में खड़ा कर देती हैं कि सृजन के नाम पर एक वर्ग, एक लिंग, एक विचार को संस्कृति की केंद्रीय शक्ति बनाने का दुस्साहस क्यों किया उन्होंने?
‘द सैकिंड सेक्स’ के ‘मिथ‘ अध्याय में संग्रहीत है उनका यह साहित्यिक आकलन. सवालों और असहमतियों की मंजूषा! डी एच लारेंस, स्तांधाल, क्लांदे, ब्रेतों और मांदेलान की कृतियां अपना तमाम ‘औदात्य‘ खोकर अभियुक्त-सी उनके कठघरे में खड़ी हैं- शर्मसार! सिमोन की इस चिंतन-श्रृंखला में बैट्टी फ्राइडन (द फेमिनिन मिस्टीक) और केट मिलेट (द सेक्सुअल पॉलिटिक्स) भी आ जुड़ी हैं. ढेरों संशय! ढेर सी दृष्टियां! ढेर से नए कोण! संवेदन और विचार के ढेर से अचीन्हे आयाम! आलोचना क्या सिर्फ कृति को परखती है, उसके पीछे-पीछे दौड़ कर उसकी गति-परिधि का ब्यौरा लेते हुए? न, सिमोन की आलोचना के बाद ‘संस एंड लवर्स’ का पाठ वही नहीं रहता जो डी एच लॉरेंस की दृष्टि में रचना करते वक्त था, या जो उनके युग के पाठक के भीतर प्रभाव और आस्वाद बनकर उतरा था. आलोचना की सार्थकता कृति की चौहद्दियों से मुक्त हो अपना आसमान तलाशने की व्यग्रता में है, ठीक वैसे, जैसे रनवे पर दौड़ता वायुयान अचानक अपनी तमाम अंतःशक्तियां एक बिंदु पर संकेंद्रित कर आसमान की ऊंचाइयों में अपनी गति और नाद को संयोजित कर लेता है.
रचना-प्रक्रिया के इस तीसरे और अंतिम सोपान (रनवे) पर आकर आलोचक देखता है कि कलम पकड़ते ही चक्रवात में फंस कर चकरघिन्नी से घूमते विचार अनायास एक सुसंबद्ध आकार लेने लगे हैं. कृति, कृतिकार और उसके युग के समानांतर आलोचक का अपना चेतन ‘मैं’, समय और सरोकार सुस्पष्ट होकर कृति के साथ संवाद कर रहे हैं. उसकी स्वभावगत विशेषताएं चिंतन की गहराई के साथ मिलकर उसकी एक विशिष्ट शैली का निर्माण कर रही हैं. उसकी संवेदना की प्रखरता भाषा की तरलता को कांति देने के साथ-साथ भाषा को नए ढंग से आविष्कृत (रच) भी कर रही है. विश्लेषण के क्रम में जो बिंदु एक के ऊपर एक गड्ढमड्ड होकर अव्यवस्थित-से पड़े थे, अब वे एक तार्किक तारतम्य में बंध कर बहे चले आ रहे हैं. अवचेतन विचार और संवेगों का गोदाम हो सकता है, सृजन नहीं. सृजन ‘सत्य शिव और सुंदर‘ का पुंजीभूत रूप है. सत्य और शिव को मनन और स्मरण-बिंदु बनाकर विश्लेषण की प्रक्रिया के दौरान आलोचक संग्रहीत कर चुका है. अब सृजन की प्रक्रिया में अपने सौंदर्य बोध के सहारे वह उन्हें रचनात्मक रूप में अभिव्यक्त करता है ताकि उनकी स्वायत्तता भी बनी रहे और सहभागिता में मिल कर वे नई उद्भावनाएं भी दे सकें.
आलोचक के पास कथाकार की तरह न चरित्र रचने की स्वतंत्रता है, न कल्पना की उड़ान भरकर घटनाओं को मनमाना मोड़ देने की निरंकुशता. उसे लीक पर चलना है, यह खयाल रखते हुए कि लीक पर चलने का प्रशिक्षण अक्सर लीक पीटने के अनुष्ठान में जाकर खत्म होता है. शायद इसीलिए आचार्य रामचंद्र शुक्ल कहते हैं, यदि गद्य कवियों की कसौटी है तो निबंध गद्यकारों की. आलोचक बीच मैदान में निष्कवच खड़ा है. बचने के लिए कोई आड़ नहीं. लेकिन यही शायद उसकी ताकत भी है क्योंकि आलोचना की प्रखरता, दोटूकपन और समय को गढ़ने की तार्किक संवेदना उसकी अभिव्यक्ति को चिंतनपरक संश्लिष्ट शैली (रिफ्लेक्टिव) का रूप देते हैं. आलोचना यदि कृति की परिक्रमा भर है तो उसकी शैली व्याख्यात्मक, स्तर सतही और दृष्टि संकीर्ण होगी. दृष्टि का घनत्व और विस्तार आलोचना के स्वरूप को प्रभावित करने वाले अनिवार्य घटक हैं.
सृजन की प्रक्रिया के दौरान आलोचक देखता है, लिखने के क्रम में बहुत कुछ महत्वपूर्ण हाशिए पर छूटा जा रहा है. जो छूट रहा है वह निरर्थक नहीं है. छूट गए उस विचार में कृति के समानांतर उसकी निजी जीवन-दृष्टि और जीवन-मीमांसा के कुछ अंश हैं. वह मोहग्रस्त हो ठिठक जाता है. क्यों न इसे रचना में कहीं संजो (ठूंस?) लूं? वह स्वयं से सवाल करता है. अपना अंश काटकर अलग कर देना सरल नहीं. लेकिन वह स्वयं को बरजता है कि जो छूट गया है, वह कच्चापन है; कि विचार और संवेदना दोनों का समानुपातिक ताप पाकर ही पकती हैं अवधारणाएं; कि उतावलेपन और बड़बोलेपन की तरह आत्मघाती है आत्मप्रदर्शन की अपरिपक्व मानसिकता! वह धीरज धर कर अपने ही भीतर पक रही प्रक्रियाओं की आहट लेता है, और मुतमइन है कि वैचारिक-विकास की प्रक्रिया सहचर बनकर उसके संग-संग चल रही है; कि जीवन का संधान करने की लालसा में उसकी दृष्टि अपना ही आयतन बढ़ाती जा रही है; कि साधक की तरह ज़िंदगी की गहराइयों के भीतर उतरने का जज़्बा उसे अभी ‘मनुष्य’ बनाए हुए है.
आलोचना में सौंदर्य-चेतना का अर्थ है सुसंबद्ध तार्किक विचार-श्रृंखला में बंध कर मूल कृति के स्पंदन को वर्तमान की जमीन तक लाना; और उसमें अपने समय की अपेक्षाओं को भरकर उसे नये संदर्भों-आयामों में खोलना. आलोचना दरअसल अपने सपनों का पीछा करते आलोचक के संयमित विवेक और चिंतन की उन्नत विचार-यात्रा है. यह विचार-यात्रा जितनी सुचिंतित प्रतीत होती है, उतनी ही स्वत:स्फूर्त एवं अनायास भी है- पानी की तरह अपना प्रवाह, दिशा और आकार स्वयं बनाती हुई. आलोचक देखता है कि विश्लेषण की प्रक्रिया काफी श्रमसाध्य, जटिल, व्यापक एवं चुनौतीपूर्ण रही है. वह स्वयं अनाड़ी राज-मिस्त्री की तरह ईंट पर ईंट धर कर कोई स्पष्ट ढांचा खड़ा करने की नाकाम कोशिश करता रहा है, लेकिन सृजन के दौरान मानो सब अवरोध और संशय दूर हो गए हैं; संवेदना की तरलता में अनुशासित होकर विचार उसकी दृष्टि का प्रतिबिंब बन रहे हैं, और बहुत देर उफनते रहने के बाद समुद्र उसे विश्रांति का सुख देकर स्वयं भी शांत हो जाना चाहता है. कृतिकार को वह शब्दों के पार ध्वनि और बिंब में देखने का अभ्यस्त रहा है. अब वह स्वयं को शब्द की ठोस सत्ता में बंधा होने की अपेक्षा ध्वनि-बिंब में ढलता महसूस कर रहा है. विचार की अमूर्तता को मूर्त करने के क्रम में वह देखता है कि प्रत्यक्ष होने के बावजूद विचार घुलनशील स्पंदन में तब्दील हो गया है. सृजन का यह बुनियादी तिलिस्म उसे चौंकाता भी है और मुक्त भी करता है.
पुनश्च:
सोचती हूँ, असहमति को आलोचना, और आलोचना को राष्ट्रद्रोह मानने वाले इस पोस्ट-ट्रूथ समय में आलोचना की महत्ता का राग अलापना क्या धारा के विपरीत बहना नहीं है? साहित्यिक इलाकों में हल्ला है कि आलोचना की विश्वसनीयता खत्म हो गई है; कि आलोचना के पास अपने टूल्स नहीं हैं; कि सजग पाठक की मौजूदगी के दौर में आलोचक की क्या जरूरत. लेकिन अक्सर हम दो वस्तुओं/व्यक्तियों/अवधारणाओं की तुलना करते हुए पक्षधरता के आधार पर स्वयं को दो भागों में बांट लिया करते हैं. समर्थन देते हुए अपने पक्ष की सफलताओं और विपक्ष की दुर्बलताओं को चुन-चुन कर सामने लाते हैं, और फिर निर्दोष मासूमियत का लेप कर मनचाहा निष्कर्ष मूल्य के रूप में गढ़ लेते हैं. जैसे आलोचना की दरकनों और विघटनशील चरित्र का ढिंढोरा पीटते हुए कभी तिल भर भी विचार नहीं करते कि मानक साहित्य की कसौटियों को अपदस्थ करते हुए कथा-साहित्य आज पॉपुलर साहित्य के सतही क्षणभंगुर स्वरूप को आत्मसात करने लगा है. (या जैसे मैं स्वयं आलोचना के आदर्श (आइडियल) स्वरूप को ही रेखांकित कर रही हूँ, इस प्रयास में कि ‘समझौता‘ या ‘व्यापार‘ की संधि-रेखा पर खड़ी हर आलोचनात्मक कृति की नीयत परखने का नैतिक अधिकार हम स्वयं अपने हाथ में लें.)
बाजार के मत्थे हर विघटन का कलंक लगाकर खुद अपराध से बरी नहीं हुआ जा सकता. आलोचना को नेपथ्य में धकेलने का ही फल है कि पोस्ट-ट्रूथ जैसी अवधारणाओं को समाज तत्पर भाव से ग्रहण कर रहा है. आलोचना की बेलौस टंकार यदि आज के समय का हृत्त-स्पंदन होती तो ‘लफ्फाजी‘ कहकर इसे महिमामंडित करती अधिनायकवादी ताकतों की तमाम कोशिशों को सिरे से निर्मूल कर देती. जब तक आलोचना में झूठ को ‘झूठ‘ कहने का हौसला है, वह तमाम विध्वंसकारी हमलों के बावजूद अजेय है. आलोचना लोकतंत्र की बुनियादी ताकत है, और लोकतंत्र मनुष्य की अस्मिता का रक्षक.
रोहिणी अग्रवाल
आलोचना पुस्तकें : हिंदी उपन्यास में कामकाजी महिला, एक नज़र कृष्णा सोबती पर, इतिवृत्त की संरचना और स्वरूप, समकालीन कथा साहित्य: सरहदें और सरोकार, स्त्री लेखन: स्वप्न और संकल्प, साहित्य की ज़मीन और स्त्री मन के उच्छवास, हिंदी कहानी: वक़्त की शिनाख्त और सृजन का राग, हिंदी उपन्यास का स्त्री पाठ, साहित्य का स्त्री स्वर, हिंदी उपन्यास: समय से संवाद, कथालोचना के प्रतिमान, कहानी का स्त्री- समय. आदि कहानी संग्रह : घने बरगद तले, आओ माँ हम परी हो जाएँ सम्मान एवं पुरस्कार : हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा कहानी एवं आलोचना पर तीन बार, स्पंदन आलोचना सम्मान, वनमाली कथा आलोचना सम्मान, रेवांत मुक्तिबोध सम्मान, डॉक्टर शिव कुमार मिश्र स्मृति सम्मान, डॉक्टर रामविलास शर्मा स्मृति सम्मान, नारी शक्ति सम्मान, श्रेष्ठ महिला सम्मान, हरियाणा साहित्य अकादमी rohini1959@gmail.com |
I am so happy to read Shreemati Rohini Agarwal’s article, a double-edged essay that combines the folkloric wisdom and pattern of narrative with a contemporary analytical Weltanschauung, expressively punctuated by pictures of books, the handsome carriers of word-ly wisdom. Thank you.
रोहिणी जी को पढ़ना आलोचना की नई भाषा और विचार से गुजरना है ।
रोहिणी जी का यह आलेख पढ़ना उपलब्धि की तरह है। विचारशीलता। पठनीयता। रचनाशीलता। दृष्टिसंपन्नता। ये सब जैसे एकाकार हुए। इसका पुनर्पाठ भी किया जाएगा। रोहिणी जी को बधाई। समालोचन को धन्यवाद।
तैयारी के साथ लिखा गया आलेख
रोहिणी जी ने आलोचना की भाषा को
सहज बनाया है.
रोहिणी जी का यह आलेख पाठक-आलोचक-लेखक त्रिक् के संबंधों की पड़ताल करता हुआ “साहित्यिक आलोचना” के कई आयामों को विस्तार से रखता है. समकालीन सदर्भ में यह निबंध महत्वपूर्ण प्रश्नों को सामने रखता है. 2011 में रोलेंड ग्रीन ने भी इसी विषय को आधार बनाते हुए The social role of the critic शीर्षक से एक निबंध लिखा था .
रोहिणी जी के अनुसार आलोचक और आलोचना पोस्ट ट्रुथ जैसे समय में अपने समय के विपरीत, साहस से खड़े हैं तो ग्रीन ने एक हाथ बढ़कर आलोचक को एक ऐसे डेक पर खड़ा पाया था जो कभी भी भस्म हो सकता है. उनके अनुसार आज का आलोचक डिजिटल रूप से उपलब्ध कराये गए तमाम अतीत के भंडार और लगातार होते हुए उत्पादन के बीच खड़ा है, जिसकी भूमिका अतीत की सिद्वांतवादी शैली से काफी अलग है.
रोहिणी जी अपने इस आलेख में लिखती हैं कि “दृष्टि दृश्य को चीन्हना सिखाती है, लेकिन उससे पहले अपने आप को”.
यहाँ सवाल यह है कि दृष्टि का उद्भव दृश्य से भिन्न या स्वतंत्र कैसे है ?
इस तरह के वाक्य किसी भी विशिष्ट समूह या दृष्टिकोण सिद्वांत (standpoint theory) के द्वारा सुझाये विकल्पों के ठीक उलट है.
सामाजिक वास्तविकता की पृष्ठभूमि पर दृष्टि का विकास कोई एकांगी प्रक्रिया नहीं है .ठीक वैसे ही जैसे दृश्य को ग्रहण करने वाला कोई भी कारक सामाजिक सांस्कृतिक अनुभवों से स्वतंत्र नहीं होता. आलोचक या आलोचना किसी निरपेक्ष मनोविज्ञान से निर्मित नहीं है .आलोचना का दर्शन सत्ता और ज्ञानमीमांसा के अंतर्संबंध के साथ -साथ सामाजिक अंतरविरोधों के बीच से निकलता है, जिसमें वैयक्तिक और सामूहिक मनोविज्ञान की कशमकश मौजूद रहती है. यही वजह है कि यह दृष्टिकोण गतिशील बना रहता है, विपरीत स्थितियों के बीच भी.
आलोचना की वैचारिकी पर बहुत समृद्ध लेख लग रहा है, मनोयोग से पढ़ता हूं.
इंट्रो में आपने जो कहा है कि वेब पत्रिका में बड़े कलेवर वाले आलेख कम पढ़े जाते हैं, यह स्पष्ट करने की क्या ज़रूरत थी ? The stuff of thoughts finds more readers online as well as offline !
मैं मैडम के वाक्य संगठनों का कायल हूँ। मैडम के लेख को पढ़ना, एक तरह से लिखने से पूर्व की ट्रेनिंग से गुजरने जैसा होता है।
बौद्धिकता की आभा से प्रदीप्त बेहद संश्लिष्ट और सुविचारित यह आलेख आलोचना कर्म के साथ ही लेखन के लिए भी एक कुंजिका है। आत्मस्थता और निःसंगता के ठीक मध्य में संतुलित तार्किकता और महीन संवेदनात्मक सजगता द्वारा विश्लेषित इस आलेख को पढ़ना समृद्ध होना है। विक्रम-बेताल का रूपक रोचक है। भाषा की काव्यमयता बहुत ही आकर्षक है और असर दीर्घकालिक।
यह बार-बार पढ़े जाने योग्य है। इस आलेख के लिए रोहिणी मैम और “समालोचन” को हार्दिक आभार।
एक आलोचक से साक्षात्कार हुआ जो तर्क, अध्ययन और नएपन से विस्मित करने की हिंदी पट्टी की आदत को तोड़कर पाठक को समृद्ध करने और गहरे विमर्श के लिए प्रेरित कर रहा है। धन्यवाद समालोचन!
रोहिणी अग्रवाल जी को कई बार बोलते हुए सुना है। उनकी भाषा की तरलता और उसका प्रवाह आकर्षित करता है। यह आकर्षण उनके आलेख ‘आलोचना की वैचारिकी’ में भी दिखायी पड़ता है। यह आलेख आलोचना की प्रचलित पद्धति से हटकर है। इसकी जरूरत भी है। असल में हिंदी आलोचना में एक ठहराव सा है। ज्यादातर आलोचक पश्चिम की आलोचना प्रणाली का इस्तेमाल करते रहे हैं। टूल्स ही नहीं भाषा भी। इस कारण आलोचना की भाषा शुष्क हो चली है। अंग्रेजी से अनूदित भारी-भरकम शब्द उसे और बोझिल बनाते हैं। मैं कह सकता हूँ की नामवर सिंह जी ने अपने समय में आलोचना की जो भाषा आविष्कृत की थी, आज की आलोचना में वह दिखायी नही पड़ती। नामवर सिंह का भाषा का मानक आज भी अलंघ्य बना हुआ है। रोहिणी जी ने एक नयी राह दिखाने की कोशिश की है। आलोचना में अपनी लम्बी परम्परा की गंध होनी चाहिए। हमारा देस अलग है, परिस्थितियां अलग हैं और इसीलिए हमारी सर्जनात्मक दुनिया भी अलग है। अपनी परम्परा से आयत्त आलोचना के उपकरणों से ही इस दुनिया को समझा जा सकता है। रोहिणी जी इस ओर संकेत ही नहीं करती, वे इन उपकरणों का इस्तेमाल भी करती हैं। विक्रम- वेताल जैसे मिथकीय टूल को उन्होंने जैसे इस्तेमाल किया है, वह आलोचना में एक नयी रचनात्मक लय भरने का काम करता दिखायी पड़ता है। कुल मिलाकर इस आलेख को इसकी सरलता, नवता और प्रवाहमयता के साथ ही इसमें अंतर्निहित दृष्टि के लिए भी पढ़ा जाना चाहिए।
वैताल पच्चीसी के बाद लेखिका को सिंहासन बत्तीसी भी अपने लेखन में लेने के आग्रह के साथ ,इतना प्रखर और प्रासंगिक लेख लिखने के लिए बधाई और आशीर्वाद.