हरीश त्रिवेदी के ‘रहीम’
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1905 ई. के भारत मित्र में बाबू बालमुकुंद गुप्त ने अकबर की पुण्यतिथि के तीन सौ वर्ष पूर्ण होने पर ‘अकबर बादशाह’ शीर्षक एक लेख लिखा था. यह लेख अकबर की प्रशंसा में है. 115 साल पहले हम किसी मुसलमान शासक की प्रशंसा कर सकते थे लेकिन आज नहीं. अगर करते हैं तो उसके खतरे हैं. बालमुकुंद गुप्त ने लिखा है–
“शान्ति और सुशासन का वह बड़ा पक्षपाती था…. अकबर दुनिया के नेकनाम बादशाहों में से था. उसने नेकी और नेकनामी के बड़े-बड़े काम किये, जिनके कारण आज तक लोग उसका नाम बड़े प्रेम से लेते हैं. उसे लोगों ने सुलहकुल की उपाधि दी थी, जिसका अर्थ है सबसे मिलकर चलने वाला. अकबर में सबसे बड़ा गुण यह था कि उसे किसी जाति, किसी सम्प्रदाय और किसी धर्म्म से द्वेष नहीं था. हिंदुओं को उसने ऐसा प्रसन्न किया कि वह उस पर जी जान से मोहित थे. हिंदुओं ने उसको ‘जगद्गुरु’ तक की उपाधि दे डाली थी. हिंदी और संस्कृत पुस्तकों में अकबर की बहुत कुछ प्रशंसा लिखी गयी है….पोथियों में ही नहीं, अमीर से कंगाल तक के झोंपड़े में अकबर का यश गाया जाता था. वह जीते जी यशस्वी हुआ और आज उसको मरे तीन सौ वर्ष हो गए; अब भी लोग उसे भूले नहीं हैं….अकबर के समय में बड़ा अमन चैन था. अन्न सस्ता था, प्रजा सुखी थी. सब सुख के दिन बिताते थे….”
तीन सौ पूरे होने पर, अकबर की याद में, पढ़े-लिखे लोगों का एक तबका कुछ योजनाएं बना रहा था लेकिन बंगाल विभाजन ने उनकी योजना पर तुषारापात कर दिया–
“ता. 16 अक्टूबर अकबर बादशाह के मरने की तिथि कही जाती है. उक्त तिथि को अकबर बादशाह को मरे पूरे 300 वर्ष हो गए. कई महीने पहले कुछ शिक्षित लोगों के जी में यह विचार उठा था कि उक्त तिथि को अकबर के स्मरणार्थ कुछ उत्सव किया जाए. कई एक मासिक पत्र वालों ने अकबर नम्बर निकालने की बात भी सोची थी. पर वही 16 अक्टूबर की तिथि बंगाल के टुकड़े होने की तिथि निकल आई. उससे एक नई बात खड़ी हो गई. अकबर को उसके सामने लोग याद न रख सके. अपनी विपद् में मनुष्य और की बात भूल जाता है.”
मुझे नहीं पता कि बाद में ‘अकबरोत्सव’ हुआ या नहीं? किसी पत्रिका ने ‘अकबर नम्बर’ निकाला या नहीं? नवजागरणकालीन इतिहास की किताबों, पाठ्यपुस्तकों आदि में अकबर का मूल्यांकन अलग-अलग ढंग से होता रहा. लोकमानस में अकबर अभी भी ज़िंदा हैं. अकबर-बीरबल के किस्से अभी भी गांव-गांव, घर-घर बड़े चाव से कहे और सुने जाते हैं. अकबर संबंधी तमाम लोकप्रिय और सस्ती किताबें फुटपाथों और मेलों में बिकती हुई आप देख सकते हैं. यह सब बातें इसलिए कि इसी अकबर के दरबार में रहीम थे. बालमुकुंद गुप्त की लिखी हुईं उपर्युक्त बातें इसलिए उद्धृत किया है कि यह अकबर-कालीन समाज का एक चित्र हमारे मानस-पटल पर अंकित करता है कि अकबर महान क्यों था?
प्रेमचंद ने अपने ‘हंस’ में श्यामनारायण कपूर का छह पृष्ठ का एक लेख ‘कविवर रहीम और उनका पुस्तकालय’ शीर्षक से छापा था. इस लेख में कपूर साहब बताते हैं-
“तत्कालीन अनेक लब्धप्रतिष्ठ कवियों ने तो आप ही के पुस्तकालय में बैठकर साहित्य का पाठ पढ़ा और कविता करना सीखा था. उरफी, नज़ीरी और सकबी आदि अपने समय के प्रतिभाशाली कवि थे. उन्होंने सम्राट अकबर, जहाँगीर और शाहज़ादे मुराद की प्रशंसा में अच्छी कविता की है; परन्तु इन्हीं कवियों ने उससे कहीं बढ़कर कविता कविवर रहीम की प्रशंसा में लिखी थी.”
श्यामनारायण कपूर के अनुसार-
“मुल्ला शकेवी को ‘मीरजानी’ पर विजय पाने के समय एक मसनवी के लिए दो हज़ार अशर्फियां रहीम ने पुरस्कार स्वरूप दी थीं. महवी हमदानी, उर्फी, अमीर मुगीसुद्दीन अली और मुल्ला अब्दुल बाकी नहाबंदी जैसे विद्वान् रहीम के आश्रय में रहते थे. नहाबंदी ने रहीम का जीवन-चरित्र ‘मुआसिरे रहीम’ शीर्षक से लिखा. मुग़लकाल में रहीम का पुस्तकालय अन्य भारतीय पुस्तकालयों में अग्रगण्य माना जाता है. अकबर के समय के प्रायः प्रत्येक सुप्रसिद्ध एवं प्रतिभाशाली महापुरुष की जीवनी पुस्तकालय में देखने को मिल सकती थी. जिन महापुरुषों के जीवन-चरित्र लिखे हुए नहीं मिल सकते थे, उन्हें रहीम प्रचुर धन खर्च करके लिखवाते थे.
‘मुआसिरे रहीम’ से पता चलता है कि लगभग 95 विद्वान रहीम के आश्रय में रहते थे. मुहम्मद शरीफ बकुई नेशापुरी खुरासान का प्रतिष्ठित विद्वान और कवि था. वह रहीम का पुस्तकालय देखने के लिए खुरासान से भारत आया था. नेशापुरी ने रहीम की प्रशंसा में बहुत-सी रचनाएं की थीं. इराक़ का मशहूर शायर सओजी सूरफी ने भी रहीम की प्रशंसा में कविताएं लिखीं.”
इसी तरह अगस्त 1910 की सरस्वती में चार पृष्ठ का एक लेख मिश्र बंधुओं ने ‘रहीम खानखाना’ शीर्षक से लिखा है जो बहुत ही महत्त्वपूर्ण है. बहरहाल…
हरीश त्रिवेदी ने अकबर के नवरत्नों में एक अब्दुर्रहीम ख़ानेख़ाना पर एक अच्छी-सी किताब सम्पादित की है अब्दुर्रहीम ख़ानेख़ाना: काव्य-सौंदर्य और सार्थकता नाम से. हिन्दू-मुसलमान के इस भयावह समय में इस तरह की किताब का आना साहित्य और समाज के लिए जरूरी भी है. गोपीचंद नारंग ने पेश-ए-लफ्ज़ में ठीक ही कहा है: “आज के विषम और संकीर्णता अथवा भेदभाव के समय में ऐसी ज़रूरी कृति का आना प्रशंसनीय है.”
यह किताब महत्त्वपूर्ण क्यों है? इसे गुलज़ार के दो शब्द में लिखे इस वाक्य से समझा जा सकता है:
“ख़ानेख़ाना अब्दुर्रहीम पर यह किताब देखकर मुझे हैरत हुई. ब्रह्माण्ड जैसा बड़ा विषय दो गत्तों की जिल्द में यहाँ कैसे समेट लिया गया है. मेरी जानकारी ख़ानेख़ाना अब्दुर्रहीम की बहुत महदूद थी. लेकिन इस किताब में हरीश त्रिवेदी जी और उनके सभी और लिखने वाले साथी मेरी उँगली पकड़कर बड़ी दूर तक ले गए.”
किताब इंटरग्लोब फाउंडेशन और आग़ा खान ट्रस्ट फॉर कल्चर के सहयोग से प्रकाशित है. इसमें रामचंद्र शुक्ल, नामवर सिंह, मैनेजर पांडेय के अतिरिक्त उदयशंकर दुबे, सदानंद शाही, सुधीश पचौरी, अनामिका, प्रताप कुमार मिश्र, चंद्रशेखर के शोधपरक लेख हैं जो रहीम की कविताई के साथ-साथ उनके व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व संबंधी दुर्लभतम जानकारी देते हैं.
अपने ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ में आचार्य शुक्ल ने रहीम के अनुभव, भाषा आदि पर जो कुछ लिखा है, उसे पहले लेख के रूप में यहाँ प्रस्तुत किया गया है. नामवर सिंह का लेख 1995 में प्रकाशित शेख़ सलीम अहमद की पुस्तक ‘अब्दुर्रहीम ख़ानेख़ाना’ में छपे ‘दो शब्द’ को ‘रहीम की उदात्त भाव-भूमि’ शीर्षक से दिया गया है.
मैनेजर पांडेय ने रहीम को ‘सांस्कृतिक संगम का कवि’ कहा है. रहीम को तत्कालीन मुग़ल संस्कृति के केंद्र में रखते हुए वे लिखते हैं: “रहीम मध्यकाल में भारत की सांस्कृतिक बहुलता, भाषिक बहुलता के प्रतिनिधि कवि हैं.” ‘रहीम और रामायण’ शीर्षक लेख में उदयशंकर दुबे ने दतिया राज्य की रामलीला की पांडुलिपियों में प्रयुक्त रहीम के छंदों पर विचार किया है.
सदानंद शाही का लेख ‘लोक और शास्त्र में कबीर, रहीम व तुलसी’ दिलचस्प है. शाही जी अपने स्कूली जीवन में पढ़ाई जाने वाली हिंदी की पाठ्य पुस्तक को याद करते हैं जिसमें ‘कबीर-रहीम-तुलसी’ एक साथ मौजूद हैं. यह मौज़ूदगी अभी तक बनी हुई है. शाही जी के अनुसार प्राथमिक-माध्यमिक तक की किताबों में ये तीनों कवि साथ-साथ चलते हैं लेकिन उच्च शिक्षा में रहीम बिछुड़ जाते हैं.
सदानंद शाही उक्त कवियों में संगति ढूंढ़ने का प्रयास करते हैं. हालांकि उन्हें कोई समानता मिलती नहीं. अंततः वे उनके घर में प्रवेश कर उनका हालचाल लेते हैं और वे पाते हैं कि
“कबीर घर फूँक मस्ती वाले कवि हैं. फूँक मस्ती का अर्थ है- मौजूद घर को असाध्य मानकर नये घर की तलाश करने वाला. ऐसा नहीं है कि कबीर को घर की ज़रूरत नहीं है. पर उन्हें ग़ालिब की तरह बे-दरो दीवार वाला घर चाहिए. वे नितान्त नि:छद्म हैं. कबीर को पहले से मिला घर स्वीकार्य नहीं है, वे नया घर तामीर करना चाहते हैं. जब तक नया घर नहीं बनता तब तक घर के ख़याल से ही खुश हैं.
तुलसीदास अपने मौजूदा घर को असाध्य नहीं मानते. उसे थोड़ा रंग रोगन करके दुरुस्त कर लेना चाहते हैं. वे संग्रह और त्याग के विवेक के साथ कुछ को छोड़कर और कुछ को लेकर आगे बढ़ जाते हैं. उन्होंने अपने साहब राम की गुलामी स्वीकार कर ली है.
रहीम की स्थिति इन दोनों से फ़र्क़ है. वे लगभग खानाबदोश हैं. उनके पास न तो बेदरो-दीवार वाला घर है न ही तुलसी का विधि-विधान वाला. उन्हें कब कौन-सा घर छोड़ कर किस घर में जाना पड़े, कह नहीं सकते.”
आगे लिखते हैं :
“घर के साथ तीनों कवियों के तीन तरह के रिश्ते हैं- कबीर घर को जलाकर नया बनाने को उद्यत हैं, तुलसी घर की मरम्मत कराकर उसके एक हिस्से में आसन जमा लेते हैं और रहीम घर की तलाश में एक सराय से दूसरी सराय में भटक रहे हैं.”
यहाँ तीनों कवियों के जीवन-दर्शन को घर के माध्यम से लेखक ने बखूबी प्रस्तुत किया है.
प्रताप कुमार मिश्र का लेख- रहीम ने संस्कृत कैसे सीखी? संस्कृत में उनकी रुचि कैसे हुई? – जैसे पक्षों को उद्घाटित करता है. लेख की शुरुआत दो इतिहास प्रसिद्ध घटनाओं से होती है. इसे पढ़कर निस्तब्ध हो जाना पड़ता है. माथा श्रद्धा से झुक जाता है. इसे पढ़ते हुए यह भी पता चलता है कि मुसलमानों ने संस्कृत कैसे सीखी? यह भी शोध का विषय है कि जब पहली बार किसी ब्राह्मण ने किसी मुसलमान को संस्कृत पढ़ाया होगा तो पंडितों के संसार में किस तरह की हलचल हुई? मुझे महावीरप्रसाद द्विवेदी की सर विलियम जोन्स ने संस्कृत कैसे सीखी? लेख की याद आ रही है जिसमें द्विवेदी जी बताते हैं कि बंगाल के पंडितों ने जोन्स को संस्कृत पढ़ाने से सामूहिक रूप से कैसे इनकार कर दिया था?
चंद्रशेखर अपने लेख में रहीम के कर्तृत्व का अवलोकन करने के पश्चात लिखते हैं: “ख़ान-ए-ख़ाना की शायरी, प्रेमालाप, प्रेमाख्यान, इश्क़-ए-हक़ीक़ी या प्राकृतिक वातावरण, बाग़ों, इमारतों की प्रशंसा के अतिरिक्त उस दौर की राजसी संस्कृति का पूरा हाल, आपसी रंजिश एवं प्रतिद्वन्द्विता तथा बादशाह-ए-वक़्त की बहुमुखी चालों का संग्रह है.”
हरीश त्रिवेदी का गद्य तो बहता नीर है. बहते नीर में इन्होंने रहीम का मूल्यांकन किया है. रहीम की ज़िन्दगी के उतार-चढ़ाव का ऐसा वर्णन कि हम उसमें बहने लगते हैं. ‘महाबत ख़ाँ को रहीम से छीनकर ख़ानेख़ाना की पदवी दी गई जिसने रहीम के पुत्र दाराब ख़ाँ का सिर काटकर रहीम को सौगात के रूप में भेजा कि यह तरबूज़ है.’
कटा हुआ तरबूज़- चक्षु के सामने कैसा भयावह चित्र निर्मित करता है. एक ऐसा ही बिम्ब सबीर हका अपनी कविता में प्रस्तुत करते हैं-
मैंने कितने ही मज़दूरों को देखा है
इमारतों से गिरते हुए
गिरकर शहतूत बन जाते हुए.
तरबूज़ और शहतूत. ओह!
हरीश त्रिवेदी रहीम को भक्ति, रीति या नीति का कवि मानने से इंकार करते हैं. उनका कहना है कि
“रहीम की कविता का एक बड़ा भाग भक्ति-कविता जैसा लग तो सकता है पर स्पष्ट है कि उसमें हिन्दू कवियों वाली भक्ति-भावना को आरोपित करना रहीम के साथ ज्यादती होगी.”
रहीम की नीतिपरक कविताओं को उपदेशात्मक नहीं बल्कि निष्कर्षात्मक माना है.
हरीश त्रिवेदी ने ‘नगर शोभा’ को शृंगार रस का अनूठा और अद्भुत ग्रन्थ कहा है.
यहाँ मैं थोड़ा-सा रुकना चाहूँगा.
मैनेजर पांडेय अपने लेख में कहते हैं :
“‘नगर शोभा’ समाजशास्त्रीय दृष्टि से अत्यंत महत्व की पुस्तक है. उसमें लगभग 50-60 जातियों का उल्लेख है. मध्यकाल में शायद ही किसी और किताब में इतनी जातियों का कविता में उल्लेख है. यह समाजशास्त्रीय दिलचस्पी और अध्ययन का विषय है.”
मैनेजर पांडेय के कथन को स्वीकार करते हुए हरीश त्रिवेदी भी लिखते हैं :
“अगर हिंदी के किसी अन्य कवि ने भी इस प्रकार का या इस विधा में कोई ग्रन्थ लिखा है तो सुनने में नहीं आता है, अर्थात रहीम का यह ग्रन्थ मिसाल आप खुद है.”
इस किताब में रामचंद्र शुक्ल को बार-बार उद्धृत किया गया है. इसके बावजूद मैनेजर पांडेय और हरीश त्रिवेदी कह रहे हैं कि ‘नगर शोभा’ की तरह और किताब हिंदी में नहीं हैं. आचार्य शुक्ल का इतिहास ध्यान से पढ़ा जाये तो उसमें देव, भिखारीदास और यशोदानन्दन का नाम मिलेगा जिन्होंने ‘नगर शोभा’ की तरह की किताब लिखी हैं.
आचार्य शुक्ल ने इन किताबों के संबंध में क्या लिखा है- इसे जानना दिलचस्प होगा. देव की किताब जातिविलास को उनकी घुमक्कड़ी-प्रवृत्ति के संबंध में याद किया है-
“ये बराबर अनेक प्रदेशों में भ्रमण करते रहे. इस यात्रा के अनुभव का इन्होंने अपने ‘जातिविलास’ नामक ग्रन्थ में कुछ उपयोग किया. इस ग्रन्थ में भिन्न-भिन्न जातियों और भिन्न भिन्न प्रदेशों की स्त्रियों का वर्णन है.”
भिखारीदास के रससारांश पर टिप्पणी करते हुए आचार्य शुक्ल पुनः जातिविलास को याद करते हैं-
“देव ने भिन्न-भिन्न देशों और जातियों की स्त्रियों के वर्णन के लिए जातिविलास लिखा, जिसमें नाइन, धोबिन सब आ गईं, पर दास जी ने रसाभास के डर से या मर्यादा के ध्यान से इनको आलम्बन के रूप में न रखकर दूती के रूप में रखा है. इनके रससारांश में नाईन, नटिन, धोबिन, कुम्हारिन, बरइन सब प्रकार की दूतियाँ मौजूद हैं.”
यशोदानन्दन पर शुक्ल जी की टिप्पणी है:
“इनका एक छोटा सा ग्रन्थ ‘बरवै नायिका भेद’ ही मिलता है जो निःसंदेह अनूठा है और रहीम वाले से अच्छा नहीं तो उसकी टक्कर का है.”
शुक्ल जी ने यशोदानंदन की निम्न पंक्तियाँ भी दी हैं-
अहिरिन मन की गहिरिन उतरु न देई.
नैना करे मथनिया, मन मथ लेई..
* * *
तुरकिनि जाति हुरुकिनी अति इतराइ.
छुवन न देइ इजरवा मुरि मुरि जाइ..
मज़ेदार बात यह कि आचार्य शुक्ल ने ‘नगर शोभा’ से जो पंक्तियाँ अपने इतिहास में उद्धृत की हैं उसमें ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य की औरतें तो हैं लेकिन अनुसूचित और पिछड़ी जाति की नहीं. यहाँ यशोदानंदन के सन्दर्भ में इस कमी को वे दूर करते नज़र आते हैं.
उपर्युक्त रचनाएं उत्तर मध्यकाल की हैं. ‘नगर शोभा’ की तरह की ही उक्त रचनाएं हैं. यानी रहीम का प्रभाव देव, दास और यशोदानन्दन जैसे न जाने कितने कवियों पर था. इनका नाम न लेकर मैनेजर पांडेय और हरीश त्रिवेदी ने भारी गलती की है. हरीश जी ने तुरकिन के सन्दर्भ में रहीम-विद्यापति की कविता को व्याख्यायित किया है. अनभिज्ञता के चलते यशोदानंदन की कविता को छोड़ दिया है.
सुधीश पचौरी और अनामिका का लेख ‘नगर शोभा’ पर केंद्रित है. सुधीश पचौरी के लेख का कुछ अंश देखिये :
“ये दबंग औरतें हैं और इनके वर्णन के लिए चाहिए वैसी ही खुली नई भाषा. ऐसी ‘सजग सेक्सुअलिटी’ को सेक्सिस्ट भाषा में ही कहा जा सकता है.
आज के ज़माने में जो टीवी के विज्ञापन, बाज़ार में मिस यूनिवर्स, मिस वर्ल्ड, मिस ये, मिस वो करती हैं अपने वक़्त में कमोबेश ये भी ऐसे ही काम कर रही हैं. कल की मिस वर्ल्ड और आज की मॉडलें जिस तरह स्त्री की सुंदरता को बनाये रखने के लिए नए-नए सोप या शैम्पू स्किन क्रीम या बिकिनी, पेंटीज या व्हिस्पर टाइप नैपकिन बेचकर जो काम करती हैं, उसी तरह का काम नगर शोभा की ये नाना ‘प्रोफेशनल’ औरतें करती हैं.
एक सौ उन्नीस दोहों में पचासियों प्रकार की स्त्रियां हैं, वे नगर की शोभा हैं क्योंकि वे नगर की सुंदरता में चार चाँद लगाती हैं, वे उसकी कंज्यूमर मार्केट को, उसकी इकोनॉमी को चलाती हैं, उसके रसिकों (कंज्यूमरों) को लुभाती हैं और कंट्रोल करती हैं. इस मानी में वे हिंदी साहित्य की पहली ‘एम्पावर्ड’ स्त्रियां हैं, ‘ज़ोरदार’ स्त्रियां हैं.
सारे दोहों में एक से एक छबीली, हिम्मती, सेक्सी, विक्रेता स्त्रियां हैं. रहीम इस बाज़ार के डेली विजिटर या कस्टमर लगते हैं.
ये सेल्स वीमेन तत्कालीन ज़रूरी मध्यवर्ती धन्धों में लगी औरतें हैं जो अपने माल को बनाती हैं और बेचती हैं.
इस तरह यह हाट जो रूप की हाट थी जो बिजनेस भी थी, नगर की शोभा थी शान थी. जिन्हें हम आज पिछड़ी जातियां और अनुसूचित जातियां कहते हैं उनमें से बहुत सी इस बाज़ार की शान हैं.”
पचौरी साहब ने पिछड़ी और अनुसूचित जाति की औरतों को यहाँ करोड़पति बना दिया है. यह शर्मनाक है. टीवी विज्ञापन आदि से जोड़कर पचौरी जी ने इनका मज़ाक उड़ाया है. सबको पता है कि विज्ञापनों आदि में किस वर्ग की महिलाओं का वर्चस्व है! दरअसल इस तरह के दिमाग़ी लोग यही चाहते हैं कि वर्ण-व्यवस्था बनी रहे. वर्ण-व्यवस्था में तनिक भी टूट-फूट हुई कि ये लोग छनमनाने लगते हैं. ये लोग हाशिए पर खड़ी स्त्रियों की शिक्षा के भी घोर विरोधी होते हैं.
इस प्रसंग में साँवल जी नागर के एक लेख की याद आ रही है जिसे उन्होंने 1914 ई. में लिखा था. इस लेख में वे हिन्दू सभ्यता, संस्कृति, वर्ण-व्यवस्था को बचाने की अपील करते हैं. दरअसल अंग्रेज़ी शिक्षा के चलते दलित-पिछड़ी जाति की लड़कियां अपने पैतृक पेशे को त्याग कर अध्यापिका, नर्स आदि का काम करने लगी थीं. नागर जी विभिन्न जाति की कन्याओं को एक ही प्रकार की शिक्षा दिए जाने के विरुद्ध थे. नागर जी के उस सुदीर्घ लेख का कुछ हिस्सा मैं यहाँ प्रस्तुत करना चाहूँगा –
“आधुनिक-शिक्षा-क्रम में दूसरा बड़ा दोष यह है कि हर एक जाति, हर एक समुदाय की कन्याओं को एक तरह की शिक्षा दी जाती है. निर्धन वा धनी, ब्राह्मण वा वैश्य, सुनार वा हलवाई, लोहार या कुम्हार, क्षत्रिय वा चमार – इन सबों की कन्याओं को एक ही स्थान पर, समान शिक्षा दी जाती है.
…परन्तु आजकल वह बात नहीं है. सामाजिक शिक्षा का पृथक-पृथक प्रबंध न होने के कारण हमारे व्यवसाय industry का दिवाला निकल गया है. पढ़ी लिखी स्त्रियां अपने पैतृक उद्योग को करना पसंद नहीं करतीं. कैसे कर सकती हैं? जब उन्हें उस प्रकार की शिक्षा ही नहीं दी गयी तब वह कैसे कर सकेंगी. परन्तु उनके न करने से उनकी संतान नहीं कर सकती और इस तरह हमारी कारीगरी का ह्रास होते-होते हम लोग यहाँ तक गिर गए हैं कि भोजन का भी ठिकाना नहीं रहा.
…क्या एक सोनार वा लोहार की लड़की, जिसने मिडिल, मेट्रिकुलेशन तक की नव्य शिक्षा प्राप्त की हो, अपने उन सम्बन्धियों के प्रति जो दिन रात टक टक कर गहने और संदूक आदि बनाया करते हैं और जिनके प्रति श्रद्धा, भक्ति और प्रेम करना उस बालिका का धर्म है, कभी कर सकती है? क्या वह चमार की पुत्री जिसने आधुनिक प्रणाली के अनुसार शिक्षा प्राप्त की हो, अपने उन भाईयों के प्रति जो पादत्राण आदि बनाते हों- श्रद्धा, भक्ति और प्रेम के पूज्य उत्पन्न कर सकती है? क्या वह ब्राह्मण बालिका जो एक पवित्र याज्ञिक के यहाँ व्याही गई हो, और जिसने 10, 12 वर्ष तक धोबी और ईसाईयों की लड़कियों के साथ बैठकर शिक्षा प्राप्त की हो अपने उस धुआँ लगने वाले याज्ञिक धर्म के प्रति उच्च भाव धारण कर सकती है?”
कुछ ऐसे ही विचार बनारस के श्रीप्रकाश ने भी व्यक्त किये थे. श्रीप्रकाश ‘गरीब स्त्रियों’ की शिक्षा का सीधे विरोध करते हैं.
तो साँवल जी नागर की दृष्टि एवं विचारों की मूर्ति हैं श्री सुधीश जी पचौरी. ‘नगर शोभा’ में विकृत वर्ण-व्यवस्था संबंधी व्यवसाय सुरक्षित होने के कारण यह रचना हिन्दू-आलोचकों को प्रिय है. दरअसल भद्र वर्ग अपनी काम-लिप्सा को शांत करने के लिए पिछड़ी/अनुसूचित वर्ग की स्त्रियों का सदियों से भोग करता रहा है. अभी भी स्थानीय हाटों या लाटघाट जैसे बाज़ार में सब्ज़ी आदि बेचने वाली ‘नान जात’ की औरतों को घूरते हुए या मज़ाक करते हुए आप पा सकते हैं. जैसे रहीम ‘डेली कस्टमर’ थे, वैसे ही भद्र वर्ग इनका डेली कस्टमर है. यह वर्ग अपनी आजीविका तो किसी तरह चला ले रहा है लेकिन अब वह नहीं चाहता है कि उसके बच्चे पुश्तैनी धंधे करें. पूर्वी उत्तर प्रदेश में मनरेगा आने के बाद महिलाओं ने भद्र वर्ग के खेतों में काम करने से जब मना कर दिया था तो बबुआने के लोग बौखला गए थे. खेत यौन शोषण के अड्डे हैं.
इलाहाबाद के आनन्दि प्रसाद श्रीवास्तव ने 1928 ई. में ‘अछूत’ शीर्षक एक सामाजिक नाटक लिखा था. इसमें पुजारी और सदानंद के बीच बातचीत के दौरान रहीम का एक दोहा सदानंद के मुख से कहलवाया है. नाटक के एक दृश्य में मठ के महंत और एक अछूत औरत के बीच लगान को लेकर बहस को दिखाया गया है जिसमें मठ का महंत अछूत औरत से लगान न चुका पाने के बदले शरीर मांगता है. इस पर अछूत-स्त्री कहती है-
चमारनिउ का छुवै में? महराज हम तोहार लगान कुछ दिन माँ दै देब, जाय देव, काहे हमरे जिउ के भूखे भये हौ?
अनामिका जी का भी ध्यान ‘पतियों के व्यवसाय’ पर है. उनका दुःख यह है कि “जितनी तरह के व्यवसाय वहाँ चित्रित हैं, उनमें से कई तो अब लुप्तप्राय हैं.”
इस पुस्तक में एकाध लेख किसी दलित चिंतक का होता तो ‘नगर शोभा’ का भावार्थ अन्य तरह से स्पष्ट होता.
इस किताब की सबसे ख़ास बात यह है कि इसमें रहीम की कविताओं के भावार्थ दिए गए हैं. ‘दोहावली’ से 100 दोहे के व्याख्याकार माधव प्रसाद मिश्रा हैं. ‘नगर शोभा’ से 75 दोहे, ‘बरवै नायिका-भेद’ से 112 बरवै, ‘शृंगार सोरठा’, ‘फुटकर छंद’, ‘मदनाष्टक’ की व्याख्याकार दीपा गुप्ता हैं. हरीश त्रिवेदी लिखते हैं:
“इस पुस्तक की एक विशेषता यह भी है कि इसमें दी हुई रहीम के दोहों इत्यादि की व्याख्याएं किन्हीं विख्यात विशेषज्ञों द्वारा नहीं लिखी गई हैं अपितु रहीम-काव्य के प्रेमी रसिकों द्वारा प्रस्तुत की गई हैं. विशेषज्ञ जिसे सर्वग्राह्य समझते हैं उसे कई जगह फिर समझाने की ज़रूरत होती है पर यहाँ यह खतरा नहीं है.”
अंत में, एक बात पोइए और पोहिए के संबंध में. इस किताब में माधव प्रसाद मिश्रा की व्याख्या में ‘पोइए’ है –
टूटे सुजन मनाइए, जो टूटे सौ बार.
रहिमन फिरि फिरि पोइए, टूटे मुक्ताहार..
गोपीचंद नारंग और सदानंद शाही ने भी ‘पोइए’ ही लिखा है. लेकिन नामवर सिंह ‘पोहिए’ लिखते हैं. पृष्ठ 64 पर मोटे अक्षरों में लिखित दोहे में भी पोहिए है. यहाँ संपादक को स्पष्ट करना चाहिए था कि शुद्ध क्या है?
बहरहाल, रहीम काव्य में रुचि रखने वाले अध्येताओं के लिए यह एक महत्त्वपूर्ण किताब है.
अब्दुर्रहीम ख़ानेख़ाना : काव्य-सौन्दर्य और सार्थकता – (संपादक) हरीश त्रिवेदी
प्रथम संस्करण – 2019, मूल्य – 495 रुपये (पेपरबैक, रॉयल अठपेजी, सचित्र)
प्रकाशक : वाणी प्रकाशन, 4695, 21-ए, दरियागंज, नयी दिल्ली – 110 002
सुजीत कुमार सिंह नवजागरणकालीन साहित्य में विशेष रुचि. दो किताबों का संपादन और कुछ छपने के क्रम में. उत्तर प्रदेश के हमीरपुर में रहते हैं. |
बढ़िया प्रस्तुति। आधा पढ़ लिया। बाक़ी दिन में पढ़ती हूँ।
अत्यंत रोचक और पठनीय।
हरीश त्रिवेदी जी जब कुछ करते हैं, तो पूरे मनोयोग से करते है। उनको पढ़ना अपने को समृद्ध करना है।
बहुत अच्छा लेख है सुजीत जी का। विश्लेषण और भाषा कमाल की है। केवल दो जगह वर्तनियों की गलती मिली है।
बहुत बढ़िया👌👌
भाषिक संप्रेषण की दृष्टि से रहीम एक उत्कृष्ट कवि हैं-विशेष रूप से नीति के कवि।दोहे के शिल्प में ब्रजभाषा में लिखे इनके सूक्ति काव्य आज भी लोकप्रिय हैं।रहीम भाषा की दृष्टि से उस युग के कवि हैं जब ब्रजभाषा और अवधि अपने पूरे उठान पर थी और खड़ीबोली का फ़ारसीमय रूप सामने आ रहा था।यह अकारण नहीं है कि शुक्ल जी ने भाषा की दृष्टि से इन्हें तुलसी के समकक्ष ठहराया है। इस पुस्तक के बहाने बहुत ही सार्थक आलेख आज के इस संकटपूर्ण समय में। सभी को साधुवाद !
बेहतरीन लेख है।सुधीश पचौरी पर किया कटाक्ष भी अच्छा है।