अल्बेयर कामू
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वह कड़कड़ाती ठंड का समय था, लेकिन पहले ही सक्रिय हो चुके शहर पर कांतिमय धूप फैली हुई थी. घाट के अंत में समुद्र और आकाश चौंधिया देने वाले प्रकाश में मिल गए थे. किंतु यवेर्स यह सब नहीं देख रहा था. वह बंदरगाह के ऊपरी मार्ग पर धीमी गति से साइकिल चला रहा था. उसके साइकिल के स्थिर पैडल पर उसकी तनी हुई अशक्त टाँग आराम कर रही थी, जबकि दूसरी टाँग उस फिसलन भरे खड़ंजे पर पकड़ बनाने के लिए संघर्ष कर रही थी, जो रात की बारिश की वजह से गीला था. वह साइकिल की गद्दी पर सवार एक पतली-दुबली आकृति-सा लग रहा था. अपने सिर को ऊपर उठाए बिना उसने बहुत पहले ट्राम के लिए बिछाई गई पुरानी पटरियों से ख़ुद को बचाया, साइकिल के हैंडल को थोड़ा-सा मोड़ कर गाड़ियों को बग़ल से गुज़रने दिया और समय-समय पर अपनी कोहनी से अपने उस थैले को साइकिल पर सही ढंग से टिकाता रहा जिसमें उसकी पत्नी फ़रनांदे ने उसका दोपहर का भोजन रख दिया था. ऐसे पलों में वह थैले में मौजूद सामान के बारे में कटुता से सोचता था. उसे स्पेन में बनाया जाने वाला ऑमलेट या तला हुआ गोमांस-टिक्का पसंद था जबकि यहाँ उसे रूखे ब्रेड के दो टुकड़ों के साथ केवल पनीर दिया गया था.
दुकान तक की दूरी उसे इतनी लम्बी कभी नहीं लगी थी. निश्चित ही, उसकी उम्र ढल रही थी. हालाँकि चालीस की उम्र में भी उसकी देह किसी लता की तरह दुबली-पतली थी, पर आदमी की माँसपेशियों में इतनी जल्दी गर्माहट नहीं आती. कभी-कभी जब वह खेलों से सम्बन्धित वर्णन पढ़ रहा होता, तो किसी तीस वर्षीय खिलाड़ी के लिए ‘सेवानिवृत्त’ शब्द पढ़ने पर वह उपेक्षा से अपने कंधे उचका देता. “यदि वह ‘सेवानिवृत्त’ है,” वह फ़रनांदे से कहता, “तो मैं तो व्यावहारिक रूप से अति वृद्ध लोगों की पहियादार कुर्सी पर बैठा हुआ हूँ“ किंतु वह जानता था कि सम्वाददाता पूरी तरह से ग़लत नहीं था. तीस वर्ष का होते-होते आदमी अपनी ऊर्जा खोने लगता है, हालाँकि उसे यह बात पता नहीं चलती. चालीस की उम्र में वह अभी बुज़ुर्गों की पहियादार कुर्सी पर तो नहीं होता लेकिन वह निश्चित रूप से उसी दिशा में जा रहा होता है. क्या यही कारण नहीं था जिसकी वजह से वह शहर के दूसरे कोने में स्थित कूपर की दुकान की ओर जाते हुए समुद्र की ओर देखने से कतराता रहा.
जब वह बीस वर्ष का था तब वह कभी भी समुद्र को देखते हुए थकता नहीं था क्योंकि इससे समुद्र-तट पर एक ख़ुशनुमा सप्ताहांत की उसकी उम्मीद बनी रहती थी. अपने लंगड़ेपन के बावजूद उसे हमेशा ही तैरना पसंद था. उसके बाद वर्ष बीतते चले गए. उसके लड़के का जन्म हुआ था और उसे अपना ख़र्च पूरा करने के लिए शनिवार के दिन दुकान में ज़्यादा देर तक काम करना पड़ता था. रविवार के दिन भी वह कई प्रकार के फुटकर काम करके पैसे कमाता था. धीरे-धीरे उसने अपने हिंसक दिनों की आदतें छोड़ दी थीं जो कभी उसे परितृप्त कर देती थीं. गहरा, निर्मल जल, गरम सूरज, लड़कियाँ और भौतिक जीवन— इस देश में प्रसन्नता का कोई और रूप नहीं था. और वह प्रसन्नता यौवन के जाने के साथ ही जाती रही. यवेर्स समुद्र से प्रेम करता रहा, किंतु केवल दिन के ढल जाने के समय, जब समुद्र का जल थोड़ा अंधकारपूर्ण हो जाता था. उसके घर की खुली छत पर वे पल ख़ुशनुमा होते थे जहाँ वह दिन भर के काम के बाद आराम करने के लिए बैठता था.
फ़रनांदे उसकी साफ़-सुथरी क़मीज़ को बहुत अच्छे ढंग से इस्त्री कर देती थी और उसके हाथ में शराब की ठंडी बोतल होती थी. वह इन दोनों चीज़ों के लिए फ़रनांदे का अहसानमंद था. शाम हो जाया करती और आकाश बेहद मुलायम और स्निग्ध लगने लगता. ऐसे में यवेर्स से बातें करने वाले पड़ोसी अपनी आवाज़ें धीमी कर लेते. ऐसे समय में उसे यह पता नहीं चलता कि वह ख़ुशी महसूस कर रहा होता या उसका रोने का मन कर रहा होता. कम-से-कम ऐसे पलों में वह एक सामंजस्य महसूस करने लगता. शांतिपूर्वक प्रतीक्षा करने के अलावा उसके पास और कोई काम नहीं होता, लेकिन उसे यह नहीं पता होता कि उसे किस चीज़ की प्रतीक्षा करनी है.
सुबह जब वह वापस काम पर जा रहा था तो उसे समुद्र को देखना अच्छा नहीं लगा. हालाँकि उसका स्वागत करने के लिए समुद्र हमेशा वहीं मौजूद था, वह शाम होने से पहले उसे नहीं देखना चाहता था. आज सुबह जब वह अपना सिर झुकाए साइकिल चला रहा था, उसे और दिनों की अपेक्षा अधिक भारीपन महसूस हो रहा था. उसके हृदय पर भी जैसे कोई भार पड़ा हुआ था. पिछली रात बैठक के बाद जब उसने वापस आ कर यह घोषणा की थी कि वे काम पर लौट रहे हैं तो फ़रनांदे ने प्रसन्नचित हो कर कहा था, “ क्या मालिक आप सब का वेतन बढ़ा रहे हैं ?” लेकिन मालिक किसी का वेतन नहीं बढ़ा रहे थे. हड़ताल विफल रही थी. वे सही ढंग से चीज़ों का प्रबंधन नहीं कर पाए थे, यह माना जा सकता था. हड़ताल का फ़ैसला जल्दबाज़ी में लिया गया था. इसलिए संघ ने इसका साथ अधूरे मन से देकर ठीक ही किया था. कुछ भी हो, केवल पंद्रह कामगारों के हड़ताल करने से कुछ नहीं होना था.
संघ को कूपर की अन्य दुकानों के बारे में भी सोचना था जिनके कामगार हड़ताल पर नहीं गए थे. हाँ, मैं संघ पर दोष नहीं लगा सकता था. टैंकरों और टैंकर-ट्रकों को बनाने वालों की धमकियों की वजह से पीपा बनाने वालों का काम फल-फूल नहीं रहा था. अब बेहद कम बड़े पीपे बनाए जा रहे थे. अब केवल पहले से मौजूद पीपों की मरम्मत का काम ही बचा हुआ था. मालिकों का व्यापार भी संकट में था, पर इसके बावजूद वे चाहते थे कि उनका व्यापार फ़ायदे में रहे. इसलिए सबसे आसान यह था कि वे महँगाई के बावजूद मज़दूरों का वेतन रोक लें. पीपा बनाने वाले तब क्या कर सकते थे जब उन्हें वेतन ही नहीं मिलता ? जब आपने मेहनत से कोई काम करना सीखा हो तो आप बीच में ही अपना पेशा नहीं बदल सकते.
यह एक मुश्किल से सीखा हुआ काम था और इसके लिए लम्बी अवधि तक प्रशिक्षु बने रहने की आवश्यकता होती थी. एक अच्छा पीपा बनाने वाला कारीगर विरला था— एक ऐसा कारीगर जो अपने मुड़े हुए तख़्तों को लोहे के छल्लों से आग में लगभग वायुरुद्ध तरीक़े से कसता था. वह ताड़पत्र के रेशे और पुराने सन के साथ नाल का इस्तेमाल किए बिना अपना काम करता था. यवेर्स यह बात जानता था और उसे इस पर गर्व था. हालाँकि पेशा बदलना कोई बड़ी बात नहीं है, लेकिन जो करना आप जानते हैं, उसे छोड़ देना, कारीगरी में अपनी प्रवीणता को त्याग देना आसान नहीं था. यदि आपको पूरा वेतन ही नहीं मिले तो बढ़िया कारीगरी के बावजूद आप फँस जाएंगे. आप बेहाल हो जाएंगे. आपकी मुसीबत बढ़ जाएगी. और यह सब आसान नहीं होगा. तब अपना मुंह बंद रख पाना भी मुश्किल होगा. क्या आप इसके बारे में किसी से चर्चा भी नहीं करेंगे ? तब उसी सड़क पर हर सुबह चल कर नौकरी पर जाना बेहद थकाऊँ होगा, जब आपको यह पता हो कि हर हफ़्ते के अंत में आपको अपने निश्चित वेतन का केवल उतना ही अंश मिलेगा जितना वे देना चाहेंगे , और वह भी उत्तरोत्तर इतना कम हो जाएगा कि पर्याप्त नहीं होगा.
इसलिए वे सब ग़ुस्से में थे. शुरू में उनमें से दो-तीन कारीगर हिचक रहे थे पर मालिक से पहली बार बातचीत करने के बाद वे भी आक्रोश में आ गए. दरअसल मालिक ने उन्हें साफ़ कह दिया कि या तो उनके वेतन का जितना अंश वे दे रहे हैं, कारीगर चुपचाप ले लें या फिर वे नौकरी छोड़ कर चले जाएँ. यह तो बात करने का कोई तरीक़ा नहीं है. “वह हमसे क्या उम्मीद करता है ?
‘ एस्पोजीतो ने कहा था.” क्या यह कि हम उकड़ूँ हो कर बैठ जाएंगे और अपने पिछवाड़े में लात खाने की प्रतीक्षा करेंगे ? मालिक वैसे तो बुरा आदमी नहीं था. यह दुकान उसे अपने पिता से विरासत में मिली थी. वह इसी दुकान में बड़ा हुआ था, और वह लगभग सभी कारीगरों को बरसों से जानता था. कभी-कभार वह उन सब को अपने साथ नाश्ता करने के लिए आमंत्रित भी करता था. तब वे छीलनों और चैली को ईंधन के रूप में इस्तेमाल करके आग पर मछली या मांस पकाते थे. और शराब पीते हुए मालिक का कारीगरों के प्रति व्यवहार वाक़ई अच्छा होता. नव-वर्ष के अवसर पर वह हर कारीगर को बढ़िया शराब की पाँच बोतलें तोहफ़े में देता था. अकसर जब कोई कारीगर बीमार होता, या उसके विवाह या प्रभु-भोज जैसा कोई अवसर होता तो मालिक उसे रुपयों का तोहफ़ा भी देता. उसकी बेटी के जन्म के अवसर पर उसने सभी कारीगरों में मीठे बादाम वितरित किए थे. दो या तीन बार तो उसने यवेर्स को अपनी तटीय जायदाद वाले इलाक़े में अपने साथ शिकार पर जाने के लिए आमंत्रित भी किया था.
बेशक, मालिक को अपने कारीगर अच्छे लगते थे और वह अक्सर इस बात को याद किया करता था कि उसके पिता ने भी एक प्रशिक्षु के रूप में अपने काम की शुरुआत की थी. लेकिन मालिक कभी अपने कारीगरों के घर नहीं गया था, इसलिए उसे उनके बारे में और जानकारी नहीं थी. वह केवल अपने बारे में ही सोचता था क्योंकि वह अपने अलावा किसी और को नहीं जानता था. और अब उसने अपना फ़ैसला सुना दिया था— वे सब वेतन का जो थोड़ा-बहुत अंश मिल रहा था, उसे चुपचाप ले सकते थे या फिर अपनी नौकरी छोड़ कर जा सकते थे. दूसरे शब्दों में कहें तो वह बेहद ज़िद्दी हो गया था. लेकिन मालिक होने की वजह से वह ऐसा कर सकने में समर्थ था.
अल्बेयर कामू के साहित्य का मूल सरोकार मनुष्य की मुक्ति और उसके अस्तित्व की गरिमा है। मौत पर सार्त्र ने कहा था – ‘वह आदमी था।आदमी का दर्द पहचानता था । आदमी की भाषा में सोचता था। वह खामोश चला गया क्योंकि उसे अपने आसपास आदमी का मुखौटा पहने शैतान नजर आ गये थे।’ इस कहानी को पढ़ते हुए उसी त्रासद अनुभव से गजरना पड़ता है। सुशांत जी का अनुवाद उम्दा है।