केशव तिवारी की नदी-केंद्रित कविताएँ |
बकुलाही
नदी के नाम पर सबसे पहले
मैंने छुआ तुम्हारा पानी
दिसंबर के जाड़े में
कमर तक भीग
तुम्हें पार कर देखा
भयहरन नाथ का मेला
तुम्हारे नरकुल से बनाई क़लम
और उसी से लिखना सीखा
तुम्हारा नाम-
बकुलाही
बकुलों से भरे किलक करते
तुम्हारे नरकुल से सजे किनारे
तुमने बकुलों से नाम लिया
तुम्हारे पानी से लहलहाते रहे-
अगल-बग़ल के खेत…
आज बीचोबीच खड़ा हूँ
तुम्हारी रेत में
बकुलाही
महसूस कर रहा
तुम्हारे किनारे
चल रहे ईंट-भट्टों की आँच
यह मात्र तुम्हारी मौत की
कविता नहीं
बकुलाही!
यह उन तमाम नदियों का
सामूहिक शोकगीत है
जिनका नाम-
सईं छयवा गडरा ससुर खदेरी पहुज शिवनाथ चंद्रावल
या और कुछ हो सकता है
उनकी मेरी सबकी
शोक कविता है ये
जिनकी आँखों का सूख गया है-
पानी
एक नदी का सूखना
धरती की कितनी बड़ी घटना है
जो कभी न जान पाएँगे
तुम जैसी नदियाँ न रहीं तो
तमाम पतित पावनी भी
नहीं रह जाएँगी
तमाम गंगा लहरी
कितने स्त्रोत
बस हवा में तैरते रह जाएँगे
न हो पुराणों में तुम्हारा ज़िक्र
किसी धार्मिक युगपुरुष ने
न किया हो तुम्हारा परस
एक कविता हमेशा दर्ज करेगी
तुम्हारा होना.
चंद्रावल
तुम्हारे ही नाम की इतिहास में
परमाल की सुंदर राजकुमारी थी
जिसके लिए पृथ्वीराज का चंदेलों से
किरतुवा ताल पर हुआ संग्राम
पर तुम जीर्णशीर्ण हालत में जीती
कृषक सुता हो
क्या तुम्हारे लिए भी
कोई आवाज़ उठेगी
खड़े होंगे लोग
कोई राजा-महाराजा नहीं
किसान-मज़दूर ही उठेंगे
तुम्हारे लिए
अगर उठे कभी
ये नाम
लगता है कोई सामंती कवि
उस रूप का उपमान दे गया तुम्हें
जिसे देख भी न सका होगा
तुम्हें दूर से ही देखा है
कभी पूस की चाँदनी रात में
कभी जेठ-बैसाख
भादों की काली रातों में
जब जल हो थोड़ा तुममें
तुम्हारे किनारों पर विचरना
बाक़ी है
एक राजकुमारी का नाम ढोती
तुम्हारी यह क्षीण बीमार काया
बहुत दुख
बहुत अवसाद देती है—
चंद्रावल!
पहुज
देखता हूँ तुम्हारा धीरे-धीरे मरना
तुम्हारे पौराणिक आख्यानों से परिचित हूँ
पचनदा की पाँच पवित्र
नदियों में एक तुम
काली सिंधु और जमुना की
ओट में छिपा तुम्हारा चेहरा
पूजा मंत्र कर्मकांड से श्लोक पढ़
मुक्त होते चेहरे देखता हूँ
तुम्हारा बचे रहना
मेरी भावुक सदिच्छा से कहाँ संभव!
इस हाल में तुम्हें सदानीरा
कोई धूर्त धार्मिक पाखंडी ही कह सकता है
एक कवि यह साहस कैसे जुटा सकता है?
क्वारी
चम्बल की गाथा और
जमुना की पवित्रता की
ओट में छिपी
एक कोने से चमकती
तुम्हारी पतली-सी
जलधार
रात चम्बल के बीहड़ से
अकेले गुज़रते तुम मुझे
अभय देती हो क्वारी
मैं तुम्हारे संकट को स्वर दूँगा.
सिंध
मुचकुंद ऋषि के कमण्डल की कथा से
तुम्हारा रिश्ता क्या है तुम जानो
हम तो चम्बल की व्यथा जानते हैं
पचनदा की पाँच पवित्र नदियों में
एक तुम भी हो
तुम्हारे ही नाम की है एक बड़ी नदी
जो पूरे प्रदेश की भाषा को पहचान देती है
पर सिंध का नाम आते ही मुझे
तुम याद आती हो
एक तन्हा लगभग जलहीन नदी
जो लंगड़ाते-लंगड़ाते
चम्बल के पेटे में समा जाती है
वे क्या समझेंगे मेरी तकलीफ़
जो तुम्हारी
इस हालात के ज़िम्मेदार हैं
उन पर गिरेगी जेठ में चाकी
मेरा दुख समझो तुम सिंध
क्या कोई अभागा कवि
अपनी प्रिय नदी का
मर्सिया लिखना चाहेगा?
धसान
तुम चलते-चलते रोक ली गईं
लहचूरा बाँध में
तुम्हारी गति रोक दी गई
छटपटाहट तुम्हारे तटबंध ही
महसूस कर सकते हैं
चम्बल की घाटियों में
तुम्हारा विचरना
तुम्हारी बाँकी चाल
बुंदेलखंड की प्यास से तुम्हारा
क्या रिश्ता है
पुराणों की दशार्ण
हमारी धसान
हमारे रक्त
हमारी जिह्वा में घुला है-
तुम्हारा नमक
हमारे प्यासे कंठ जानते हैं
तुम बुंदेलखंड के चम्बल के प्यासे बीहड़ की आड़ थीं
जिस वाम दिशा से बेतवा से मिलती हो तुम
मैं उसी दिशा की ओर मुँह किए
तुम्हें निहारता हूँ
किस अगस्त का शाप लगा
तुमको धसान?
उर्मिल
उर्मिल,
मैं तुम्हारे विशाल बाँध पर खड़ा हूँ
सैलानियों के उल्लसित चेहरे देख रहा हूँ
रास्ते से देखता आ रहा हूँ
तुम्हारी सिकुड़ती काया
जानता हूँ इन बाँधों का मतलब
पर मन बहुत उदास है
एक दिन जब नहीं रहेगा तुममें पानी
तब इन बाँधों में धूल उड़ेगी
बालू माफ़िया को भी
तुम्हारी रेत चाहिए
जिन्हें जल चाहिए
उनकी कोई आवाज
शायद कभी सुनोगी—
बहुत देर से…
उर्मिल!
चेलना
तुम्हारे किनारे विचरे जैन मुनि
उन्हें मोक्ष मिला
पावा क्षेत्र की पतित पावनी हो
सुंदर पहाडियों से घिरी
धार्मिक आख्यानों में डूबी
वे जिन्हें मोक्ष क्या बस
काठ होती ज़िंदगी में
थोड़ी सरसता चाहिए
जिनकी पुकार तुम तक
गाहे-बगाहे पहुँचती ही है
उनकी फटी हथेलियों का स्पर्श
तुम कैसे भूल सकती हो
तुम्हारे तटीय गाँव
अब ख़ाली हो रहे हैं
हम बूझते हैं तुम्हारी व्यथा
तुम आख्यानों में बचकर भी क्या करोगी
तुम्हारा एकांत एक दिन तुम्हें
सोख लेगा
चेलना!
जेमनार
पुराण जाम्बूला कहते हैं तुम्हें
हम जेमनार या जमणार
यम-दृष्टि की सहेली हो
हो सकता है कि
आने वाली संततियाँ तुम्हें
किसी और नाम से पुकारे
घाट-घाट भटकती
एक पुकार
उन्हें भी रोक-रोक ले
उनके लिए
तुम्हारा बहते रहना
ज़रूरी है
अक्षय रहे तुम्हारी
यह सिमटती जलधार
नाश हो तुम्हारे शत्रुओं का-
बिना पानी के किसी सूखे पठार पर…
कवि का कहा
सच भी हो जाता है
ऐसा भी कहते हैं लोग
इतना निराश भी न हो जेमनार!
केशव तिवारी 4 नवम्बर, 1963 प्रतापगढ़ (उत्तर-प्रदेश) कविता संग्रह- इस मिटटी से बना, आसान नहीं विदा कहना, तो काहे का मैं. सम्पर्क |
सुन्दर
बहुत ही सुन्दर कविताएँ। मर्म को छूने वाली। मेरी जन्मभूमि के अगल-बगल भी कई छोटी नदियाँ थीं किसी जमाने में। लाटघाट तो छोटी सरयू के किनारे ही बसा है। पंडित शान्तिप्रिय द्विवेदी छोटी सरयू को बड़ी श्रद्धा के साथ याद किया है अपनी आत्मकथा में। इसी तरह एक नदी बदरहुवाँ है। अभी भी जिन्दा है यह। लेकिन छोटी सरयू तो पता नहीं कहाँ चली गयीं।
केशव भाई को सलाम। बहुत अन्तराल पर उनकी कविताएँ मिली हैं। इन्हें पढ़ना आज का हासिल है।
केशव जी की नदी शृंखला बेहद सुंदर है। उनके जीवन की सहजता को दिखाती ये कविताएँ पाठक को उनके और निकट ले आती हैं। केशव जी के सभी संग्रह मेरे पास हैं। इस तरह इतनी सरल भाषा मे गूढ़ मर्म कह देना बिल्कुल भीतर तक मथता है। उन्हें ख़ूब बधाई ।
नागर कवियों के विषय कैसे होते हैं जिनमें हृदय से निकली आह नहीं होती
क्या कविताएं हैं गहरे सरोकार और वेदना से लिखी हुई,
नाम से संबोधित करते ही केशव तिवारी ने नदियों से गहरा अपनापा जोड़ दिया, मरती हुई हमारी अपनी नदियां
और भाषा, कितनी तीव्र संवेदना से भरी हुई जिसे किसी आभूषण की जरूरत नहीं, नाला ए नै का पाबंद नहीं है
हार्दिक बधाई केशव भाई को और आपको
बार बार पढ़ने योग्य, सहेजने योग्य
बकुलाही
केशव तिवारी की बेचैनी/ अकुलाहट स्वाभाविक है । मेरी माँ अनपढ़ थी । किन्तु स्नान करते समय नदियों को स्मरण करती थी । साथ ही झूलेलाल को । झूलेलाल सिन्धी हिन्दुओं के उपास्य देव हैं । इष्टदेव । माँ-पिता, चाचा जी और दादा जी देश के विभाजन के बाद मुलतान ज़िले से आये थे । माँ-पिता जी के लिये नदियाँ इष्टदेव थीं । पिता जी हर वर्ष हरिद्वार और ऋषिकेश में गंगा नदी में स्नान करने के लिये जाते थे ।
नदियाँ सिर्फ़ धरती से ही नहीं सूखी बल्कि हमारी आँखों और स्मृतियों से सूख गयी हैं । यमुना नदी भी हमारे ज़िले से दूर सोनीपत की तरफ़ बहती है । यहाँ दो नहरें हैं । एक की हमने हत्या कर दी । यह नहर हमारे ज़िला केंद्र हिसार तक बहती थी । हाँसी से हिसार तक बहती हुई यह canal bed अतिक्रमण का शिकार हो गयी है । हिसार में बरायनाम तेलियान पुल है । लेकिन वहाँ बाज़ार बन गया है । एक नहर का सूखना बड़ी घटना से कम नहीं । केशव तिवारी नदियों के सूख जाने से चिंतित हैं । यह वाजिब है । उनकी यादों में नदियाँ बसी हुई हैं ।
सच यह है कि नदियों के किनारे बैठकर वेद, उपनिषद और पुराण लिखे गये थे । इन्हीं के किनारे नगर बसे । काशी विश्व का सबसे पुराना नगर है ।
नदी के नाम पर सबसे पहले छुआ तुम्हारा पानी !
केशव तिवारी देसी ठाठ के सच्चे कवि हैं । इनकी कविताओं की कलकल दूर तक सुनाई देती है ।
केशव तिवारी और समालोचन का आभार ।
पिछले वर्षों में चंबल पर नरेश सक्सेना और गंगा-यमुना पर हरिश्चन्द्र पाण्डेय की कविताएं छपी हैं। ये कविताएं नदियों के मानसिक- सांस्कृतिक परास, जीवनसंबंधों और लोकप्रिय छवियों का वैकल्पिक पाठ करती हैं।
मेरा प्रस्ताव है कि केशव तिवारी की ये कविताएं वरिष्ठों की नदी विषयक कविताओं के सामने पढ़ी जाएं।
ऐसा करते हुए पाएंगे कि इनमें न कोई वैकल्पिक दृष्टि है न गहरी पीड़ा। ये नदियों की बजाय नदियों का चित्र देखकर लिखी जान पड़ेंगी।
नदियाँ हमारी सभ्यता के लिए आक्सीजन की तरह है…हमारी तटस्थता अनैतिक है, हम अपने जीवन रेखा को सुखते देख रहे… कवि की मुखर संवेदना को नमन…
नदियाँ हमारी संस्कृति का अभिन्न हिस्सा रही हैं। इन्होंने अपने किनारे कितने शहर बसाये; कितनी संस्कृतियों का निर्माण किया।भारतीय संस्कृति में नदियों एवं विशेषकर गंगा का क्या महत्व है,यह सबको पता है।इसे जीवनदायिनी के साथ-साथ मुक्तिदायिनी भी कहा जाता है।लेकिन प्रकृति दोहन के इस युग में नदियां सूख(मर) रही हैं।जल संकट आनेवाले समय में मानव सभ्यता की सबसे बड़ी त्रासदी है।साहित्य को नदियों ने बहुत कुछ दिया और समृद्ध किया है।प्राचीन काल में वेद की ॠचाएँ, संस्कृत एवं अन्य भारतीय भाषाओ में महान ग्रन्थों की रचना नदियों के किनारे उनके साहचर्य में हुई । इसलिए साहित्य का भी कुछ दाय है इनके प्रति कि वह इनकी सुध ले और इन्हें मरने से बचाये।इन कविताओ में नदी का दर्द झलकता है।मूल्यों के क्षरण और सभ्यता के इस क्रूर काल में नदियों को बचाने की जिद इन कविताओ में दीखती है जो इनका मूल स्वर है।कवि को साधुवाद !
चंद्रावल
नदी; तुममें अपार सौंदर्य के कारण परमाल की सुंदर राजकुमारी का नाम रखा गया था । नदियों के नाम पर स्त्रियों के नाम रखे जाते रहे हैं । जाह्नवी, सरस्वती, तापती, गंगा, गोमती, कावेरी । ज्योतिषी नदियों के नाम पर पुत्रियों के नाम रखना मना करते हैं । परंतु मेरी दृष्टि से ये पवित्र नाम हैं । स्त्रियाँ दोनों घरों को अपनी मोहब्बत से सिंचित करती हैं । मायका और ससुराल स्त्रियों के बिना अधूरे हैं । हे परम पवित्र नदियों तुम विश्व में कहीं भी न रुक जाना । भारतवासियों ने आप पर ज़ुल्म किये हैं ।
टेम्स नदी लंदन की सबसे स्वच्छ नदी है । कहने के लिये इसे लंदन की गंगा कहते हैं । लेकिन माँ गंगा हम शर्मसार हैं । हमने तुम्हें मैला किया है । भारत सरकार की नमामी गंगे योजना धूल खा रही है । चंद्रावल आप स्वयं जागो । हमें सद्दबुद्धि दो कि पुनः तुम्हें जीवन दे सकें ।
इतनी नदियों की जानकारी रखने वाले केशव तिवारी धन्य हैं । जल का स्रोत नदियाँ हैं । और बादलों का भी इन्हीं के जल से निर्माण होता है । बादल बरसते हैं, सुख की वर्षा करते हैं, खेतों की फसलों को लहलहाते हैं । बादल नदियों को हरा कर देते हैं । जल से हमारा जीवन जुड़ा हुआ है । ब्रिटिश हुकूमत का पंजाब का नाम पाँच नदियों का प्रदेश बना है । सिंधु नदी से हिन्दुओं का नाम पड़ा । हिन्दू धर्म सनातन धर्म का पर्यायवाची बन गया ।
नदी चिंता की कविताएं। कवि की निगाह ऐसी ही होनी चाहिए। नदी पर प्रयाग जी का पूरा संचयन ही है। कविता नदी। अनेक अच्छी कविताओं के बीच ये कविताएं भी ध्यातव्य हैं हालांकि वीरेंद्र मिश्र की कविता
नदी की धार कटेगी तो नदी रोएगी
का जवाब नहीं।
नई कविता की फसल काटने वालों को भी पढ़नी चाहिए।
इधर लगातार केशव तिवारी को चित्रों में नदी,नाला,पोखर,तालाब के पास देख रहा हूँ।
महत्त्वपूर्ण विषय पर रचित इन मार्मिक कविताओं के लिए साधुवाद।
इनमें से कई नदियों के नाम से हिंदी पाठक शायद अवगत न हों।
केशव तिवारी जी की कविताएँ मुझे बेहद पसंद आती है। ग्राम्य जीवन पर लिखी गई कविताओं में उनका कोई सानी नहीं, मुझे हूबहू अपना गांव याद आ जाता है। बहुत बधाई और शुभकामनाएं🙏🙏
ये कविताएँ नदियों के नष्ट होने की कथा हैं। संवेदना से ओतप्रोत। ये सभ्यता और मनुष्य के पर्यावरणीय रूप से अकेले पड़ते चले जाने की क्रमिक मुश्किलों को भी दर्ज कर रही हैं। मार्मिक।
नदियों की महानता और पुरानेपन की कथा के बीच स्थानिकता के जल को अलग से बताती कविताएं. नदियों के बहाव को बांध के नाम पर स्थगित करना और कूल पर बालू माफियाओं की बुरी निगाह तो हालिया चीजें हैं. असल चीज़ है, जो कभी मिट नहीं सकती — बकुलाही में कमर तक भीग भयहरन नाथ का मेला देखने जाना.
कवि केशव तिवारी को बधाई, ‘समालोचन’ का आभार.
नदियों पर इतनी सरस कविताएं पढ़ते हुए मन भीग गया।नदियों का जलहीन होता जाना भारी विडम्बना है। जिन नदियों मे पानी देखकर लोगों ने कथाओं को जन्म दिया, वे कथाएं तो जीवित रही लेकिन पानी सूखता गया।
बहुत अच्छा लगा इन कविताओं को पढ़ना, लगभग नदी को साक्षात देखने जितना जीवन्त।
नदियाँ अपने रूपक और वास्तविकता दोनों में गंभीर संकट झेल रही है। संवेदना और मनुष्य के रागात्मक रिश्ते क्षरित हो रहे हैं। इनमें प्राणियों और प्रकृति से बर्ताव भी शामिल है। केशव तिवारी गाँव- कस्बों की मूल्य संरचना में आये संक्रमण की बराबर टोह लेते रहे हैं। इधर उनकी कविता में आक्रोश की जगह विषाद आता गया है। यह परिवर्तन स्वाभाविक है। समालोचन का यह चयन और प्रस्तुति महत्वपूर्ण है।
आभार आप सब का।
आज के उजाड़ समय में, जबकि संवेदनाएँ सूख रही हैं, केशव तिवारी की देसी ठाट की ये नदी विषयक कविताएँ पढ़ना एकदम अलहदा अनुभव था। आँखें भीगीं, और फिर भीगती चली गयीं। बहुत कुछ याद आया, जो मेरे देखते-देखते उजाड़ हो गया।
कैसा अभागा समय है कि हमारे देखते-देखते जीवन सूख रहा है, हमारी आँखों के आगे बहुत कुछ उजाड़ होता जाता है, और हम जिंदा हैं!
केशव तिवारी ने अपनी कविताओं के जरिये बड़े मार्मिक ढंग से जगा दिया। उन्हें और भाई अरुण जी, दोनों को साधुवाद!
मेरा स्नेह,
प्रकाश मनु
बहुत अच्छी कविताएं। बचपन की वो तमाम नदियां जीवंत हो उठी जिन्हे पार कर मेला देखा था, ननिहाल गए थे, जहां तैरना सीखा था, जिनके सानिध्य में दुपहरिया बिताई थी। बहुत आत्मीयता से अपने अस्तित्व के लिए संघर्षरत नदियों को याद करती हमारी आप की कविताएं।
आदरणीय उर्मिला जी नमस्कार l बहुत सुंदर , मार्मिक कहानी l कोरोना काल में समाज की दशा दुर्दशा का जीवंत ,मार्मिक और सच्चाई से लबरेज़ चित्रण l समाज के कई वर्गों को बेनकाब किया है l जो सच्चाई भी है l डॉक्टर्स की उपमा सफेद कपड़ों में देवदूत सचमुच दिल को सुकून देती है l कुछ सफेद कपड़े वाले देवदूत कुछ लोगों के लिए यमदूत भी सिद्ध हुए l आपको इस सुंदर , मार्मिक , मानीखेज , दिलचस्प , दिल को छूने वाली संवेदना से लबरेज़ प्रामाणिक लंबी कहानी के लिए हार्दिक बधाई और साधुवाद l
खत्म होती जा रही नदियों को बचा लेने की कातर पुकार हैं ये कविताएं । नदी का उद्गम उसका दुःख और उनसे आत्मीयता की दृष्टि बहुत श्रेष्ठ लगी। इसतरह की कम परचित नदियों पर उनके अस्तित्व पर हिंदी में ये शायद पहली बार आयीं कविताएं है ।