सात बजने को आए थे. रात का भोजन बनाने के बाद माँ और अन्नपूर्णा धुले किन्तु अब तक न सूखे कपड़ों पर कोयला भरकर इस्तरी कर रही थी. निकट तेल की चिमनी के प्रकाश में बैठी सुभद्रा बुआ दीये की बत्तियाँ बँट रही थी. “इतनी देर कहाँ सरस विलास हुआ, गवर्नर गोवर्धन जी?” बुआ ने पूछा. वे हमें कठोर अनुशासन में रखती थी. उनके पति सूरत के थे. विधवा होने के पश्चात् उन्होंने सूरत में ही जैन मन्दिर में चन्दन घिसकर और मन्दिर के अन्य कार्य करके जीवनयापन किया किन्तु पिताजी जो उनके भाई थे या देवरों के घर न गई. थोड़े समय पीछे दिनभर घर में अकेली रहकर कुविचार मन में घर न करे इसलिए नर्मदादत्त जी से लग्न करके कुमुद को द्विरागमन होने तक हमारे घर भेजा था. “मैं तो पड़ौस ही में अध्ययन कर रहा था बुआ” मेरे कण्ठ से स्वर ही न निकलता था.
“चाय-तम्बाकू के बिना पढ़ाई लिखाई नहीं होती गवर्नर साहब की! पूरी इमारत बास रही है” बुआ ने कहा. माँ और अन्नपूर्णा ने मुझे देखा. वे जानती थी कि मैं तम्बाकू और चाय पीता हूँ. तम्बाकू माँ सिगरेट बनाकर पीती तो न थी किन्तु कभी कभी उदर वेदना का बहाना बनाकर खाती अवश्य थी. चाय तो माँ और अन्नपूर्णा दोनों पिए बिना न रहती थी. “चाय-तम्बाकू जैसे व्यसन को तो मैं सौ हाथ दूर से प्रणाम करता हूँ बुआ जी” मैंने दोनों हाथ जोड़कर अत्यंत नाटकीय मुद्रा बनाई. बुआ ने होंठ बिचकाए, “फाड़ूँगी चीर करूँ गल कंथा रहूँगी बैरागन होय री” भजन गाने लगी. देर तक गम्भीरता छाई रही जिसे बुआ ने तोड़ा, “क्यों री गोबरगौरी तेरा ससुर कब तक आएगा? ब्यारी का बखत हो गया”.
आते ही सुभद्रा बुआ ने अन्नपूर्णा का नाम बदलकर गोबरगौरी कर दिया था- गोवर्द्धनचन्द्र दवे की भार्या का नाम गोबरगौरी. “पिताजी तो देर रात बीते आते है. हम तो उनके आने से पहले ही भोजन कर लेते है” अन्नपूर्णा उर्फ़ गोबरगौरी ने कहा. पहले वह पिताजी के खाने के बाद ही माँ के साथ भोजन करती थी किन्तु गर्भवती होने के कारण इन दिनों माँ उसे पहले ही भोजन करवा देती थी. “दीदी, आपका खाना लगा दूँ? गोबरगौरी और गोवर्धन के संग खा लीजिए” माँ ने कहा और अन्नपूर्णा को गोबरगौरी कहते हुए अचानक हँस पड़ी. अन्नपूर्णा रोते हुए अंदर भाग गई. मैं कपड़े बदलने के बहाने उसे मानने अंदर दौड़ा.
अन्नपूर्णा रो तो यों रही थी जैसे किसी ने उसकी सब जायदाद हथिया ली हो. “क्या हुआ तुम्हें? माँ की याद आ रही है?” मैंने कुर्ता उतारते हुए पूछा. उसने ऊपर देखा और फिर दहाड़ मार मारकर रोने लगी. बाहर से माँ का स्वर सुनाई दिया, “दीदी देखूँ भीतर गोबरगौरी रो क्यों रही है?” बुआ ने उत्तर दिया, “भर्ता और भार्या के बीच तेरा क्या काज”. अन्नपूर्णा नाक पोंछती हुई बोली, “मेरे बाँ और बाप का दिया नाम बुरा लगता है तो मैं बुरी नहीं लगती!” मैंने किवाड़ के दोनों पल्ले एक किए और ऐसी आवाज़ में कहा कि बाहर सुनाई दे, “मेरी धुली हुई धोती कहाँ है?” धोती उतारकर खूँटी पर टाँगी और अन्नपूर्णा के कानों में फुसफुसाया, “जब तक बुआ रहेंगी तब तक का नाम है”. अन्नपूर्णा पलटी और मुझे कौपीन में खड़ा देखकर रोते रोते हँसने लगी. पुनः अपने नामकरण की स्मृति उसे हो आई और मुँह उतर गया, “यह भी कोई नाम है! गोबरगौरी! मैं नहीं मानती इस सड़े सड़ाए नाम को अपना नाम”. मैंने उसे रोकने के लिए उसके मुँह पर हाथ रखा तो उसने मेरी अंगुलि काट ली, “आयँ आह” मैं चीख पड़ा.
“रास विलास पीछे होता रहेगा. पहले भोजन कर लेने दो गोबरगौरी को; वह दो जी से है” बुआ बाहर से चिल्लाई. मैंने जल्दी से धोती लपेटी और किवाड़ खोलने को बढ़ा. उससे पूर्व “चलो खाना लगाओ” मैंने अन्नपूर्णा से कहा, “गोबरगौरी बुरा लगता है तो ठीक है आज से तुम्हारा नाम गोवर्द्धनप्रिया” कहकर उसका चुम्बन लेने को बढ़ा तब कहीं जाकर वह रसोई की ओर भागी. “गंगागौरी तेरी भी थाली लगा” बुआ ने आदेश किया. माँ पिताजी से पूर्व कभी खाती न थी किन्तु उस दिन बुआ ने इस रूढ़ि को कुचल दिया. अन्नपूर्णा को भूमि पर बैठने में गर्भावस्था के कारण अड़चन होती थी इसलिए मेरी पढ़ाई की मेज़ पर भोजन लगाया गया. बीच में चिमनी रखी गई. अंग्रेजों की भाँति खाने का हमारा यह प्रथम अनुभव था. इमारत के दूसरे लोगों को जब यह पता लगा तब हमें पीठ पीछे कुजात और न जाने क्या क्या कहा गया. महाराज को इससे तकलीफ न हुई. “बारिस्टर भी इसी प्रकार मेज पर विराजमान होकर रोटी खाते थे मगर बाद में धरती पर आलथीपालथी मारकर खाने लगे” उसने बताया था और यह भी बताया कि उसके सेठ और उनके परिजन भी मेज़ पर भोजन करते है.
अन्नपूर्णा फरसाण के साथ थेपला खाने लगी. बुआ ने टोका, “दाल खाओ गोबरधन प्यारी” तो बुआ ने मेरा अन्नपूर्णा को गोवर्धनप्रिया कहना सुन लिया था. बुआ की बात सुनकर अन्नपूर्णा के कपोल कान तक लाल हो गए और लज्जा से कारण मेरे मुँह का कौर भी बाहर आ गया. मैंने पानी पिया. “भर्ता चाहे जो रखे अपनी घरनी का नाम. जूनी राँड की कौन सुने” बुआ ने अमचूर के साथ थेपला खाते हुए कहा. माँ मुस्कुरा रही थी. अन्नपूर्णा ने उस दिन कटोरा भरकर दाल खाई और मुझे डेढ़ थेपले से अधिक खाया न गया. “ऐसी बरसती घटा में कौन बावला नाटक देखने आता होगा!” बुआ ने आचमन करते हुए कहा उन्हें पिताजी की प्रतीक्षा थी. उनकी आचमन विधि पूरे ब्रह्माण्ड में अद्वितीय थी. थाली धोकर उसका पानी पीना, देर तक अंगुलि से मसूड़ों से मालिश करना, कुल्ले पर कुल्ले करना और सबसे अंत में मुख में जल भरकर दस मिनट तक आँखें बंद करके बैठना.
मेरे पुत्र यज्ञदत्त के जन्म को चार वर्ष बीत गए. सेठ प्रेमचंद रायचंद पारितोषिक की रकम से यज्ञदत्त का नामकरण, अन्नप्राशन और मुण्डन धूमधाम से सम्पन्न हो गए किन्तु पिताजी की पगार में घर चलाना दिन प्रतिदिन कठिन होता जा रहा था. बीए के पश्चात् मर्कंटाइल बैंक ऑफ़ इंडिया लिमिटेड में कारकुनी का काम पकड़ने को मैं विवश था. गोबरगौरी, हाँ उसने अंतत: यह नाम लड़ने झगड़ने के बाद स्वीकार कर लिया था, ने अपने आभूषण बेचकर मुझे ब्रितानिया बारिस्टर भेजने का प्रस्ताव अनेक बार दिया किन्तु पिताजी ने इसे अस्वीकार कर दिया. बुआ का इसके पीछे पिताजी से बहुत कलह हुआ, माँ ने भी उन्हें मनाने का असफल यत्न किया किन्तु वे नहीं माने और मैं छोटी पगार पर मर्कंटाइल बैंक ऑफ़ इंडिया लिमिटेड में चाकरी बजाने लगा. नाटककार बनने का स्वप्न घूरे पर गया.
एक रात मेरे साथ अनोखी घटी. शारीरिक सुख को छोड़ मेरे जीवन में कोई और सुख शेष न था. गोबरगौरी के गाढ़े अनुराग के कारण मैं जीवित था. उस रात यज्ञदत्त को ज्वर था और वह जल्दी सो गया था. ऐसे वह बारह के घंटे बजने से पूर्व न सोता था. मैंने गोबरगौरी की लम्बी चोटी उठाकर उसकी ग्रीवा पर दंतक्षत किया. वह पलटी और अपने बड़े बड़े नयनों से मुझे ताकने लगी. मैंने उसके ओठों का चुम्बन लेना चाहा. उसने नयन मूँद लिए. मैं साँस भरने को क्षणभर को रुका तो उसने कहा, “कुछ महीने तुम्हें ब्रह्मचारी रहना होगा. मुझे लगता है मैं गर्भवती हूँ”. मैंने अनसुना करके उसके पोलके के बटन खोलना चाहे. उसने अब मेरी चिबुक थामकर कहा, “मैं गर्भवती हूँ”. सहसा शारीरिक सुख से वंचित होना कोई विशेष घटना नहीं, पत्नियाँ तो गर्भवती होती रहती है किन्तु मेरी आँखों से अश्रु टपकने लगे. गोबरगौरी भयभीत हो गई और अपने पोलके के बटन स्वयं खोलने लगी.
उसे अपने प्रति इतना कोमल इतना तरल पाकर मैं और अधिक रोने लगा. मैं कभी रोता न था. ऐसी दशा को मैं कैसे प्राप्त हुआ मुझे स्वयं समझ नहीं आ रहा था. अपनी पत्नी के आगे, उसके पुनः गर्भवती होने का समाचार सुनकर मैं रो रहा था या स्त्रीप्रसंग के मध्य गोबरगौरी के मना करने पर मैं नहीं जानता था. यज्ञदत्त जाग गया और मुझे रोता देखकर वह भी दहाड़ मार मारकर रोने लगा. देर तक गोबरगौरी उसे मनाती रही. कितनी निर्बल हो गई थी वह. उसके लम्बे लम्बे हाथों में लग्न में दिया सोने का कंगन कलाई से फिसलकर न गिरे इसलिए उसके आगे उसने हरे काँच की छोटी चूड़ियाँ पहन ली थी. लग्न के दिन यही कंगन उसके हाथ में मुश्किल से चढ़ा था. मुख पर भी कान ही कान और बड़े बड़े नेत्र ही दिखते थे. कपोल धँस गए थे और आँखों के नीचे देर से सोने और ब्रह्ममुहूर्त में उठने के कारण कृष्ण वलय बन गए थे. उसकी मोटी चोटी ही उसके सुखमय बचपन और कैशोर की कथा कहने को शेष थी. कितने दिनों से वह अपने बाँ और बापू न मिली थी. कितने दिन हुए उसने फरसाण खाना छोड़ दिया था.
गोबरगौरी ने जल का लोटा पकड़ाया. गद्दे के नीचे छुपाकर रखा बताशा दिया. आँसू पोंछकर और जल पाकर मैंने गोबरगौरी से कहा, “तुम्हें मुझसे लग्न करके कोई सुख नहीं मिला न अन्नपूर्णा”. उसने पीठ फेर ली, “मना किया तो मैं गोबरगौरी से अन्नपूर्णा हो गई”. मैंने उसे कंधे से अपनी ओर खींचते हुए कहा, “गोबरगौरी” और क्षमाप्रार्थियों की भाँति कान पकड़े, “यहाँ आकर सुख नहीं पाया न तुमने”. गोदी से उतारकर यज्ञदत्त को शय्या पर सुलाते हुए गोबरगौरी ने कहा, “कौन सा सुख नहीं मुझे! पति का, बेटे का, घी-गुड़ का! आप बृथा बात न बनाइए. छोटी सी बात पर ऐसा दुख कोई आदमी मनाता है क्या”.
“कष्ट रोकड़ का है, गोबरगौरी. पाई पाई जोड़ो, कौड़ी कौड़ी का हिसाब रखो. दरिद्रता से बड़ा दुख कौन सा है!” मेरे मुँह से निकली बात से ही मैं समझा कि मेरा यों अचानक रो पड़ना हमारे घर के आर्थिक संघर्षों के कारण था. कुमुद के दो दो जापे, उनकी बड़ी संतान के असाध्य रोग का उपचार, फिर पहली सन्तान की जीवनलीला का अंत और नर्मदादत्त जी को जेल जाने से बचाने में हमारा बहुत रुपया खर्च हो गया था. ऊँचे ब्याज पर रोकड़ भी उधार ली थी. इस बीच ललिताबेन ने अपने तीन तीन पुत्रों के लग्न किए और उनके भात, छूचक भरने में बहुत खर्चा हुआ था. १८९६ के अकाल के कारण प्रत्येक वस्तु महँगी आती थी. कुछ भी करके पिताजी और मेरी पगार पूरी नहीं पड़ती थी. गोबरगौरी ने अपनी दोनों हथेलियाँ देर तक रगड़ी और मेरी आँखों का सेंक करने लगी. उसने एक शब्द नहीं कहा.
अम्बर पांडेय की कई कहानियाँ मैने समलोचन पर पढ़ी हैं। उनकी कहानियों की ख़ास बात उनकी लय बद्ध और सरस भाषा होती है। इतिहास और दर्शन का भी उन्हें ज्ञान है। विषय वस्तु अक्सर उच्च कुल के किसी पुरुष के जीवन की कोई घटना होती है और वही कहानी का सूत्रधार भी होता है। कहानी हम उसी के नज़रिए से देखते हैं । स्त्री पात्र अक्सर माँ या पत्नी के रूप में ही आते हैं और ज़्यादातर कहानी के अंत तक मर चुकी होती हैं। कहानी में उनकी भूमिका भोजन बनाने, परोसने, पति को रति सुख देने, बच्चा पैदा करने के अलावा कुछ ख़ास नहीं है। ऐतिहासिक किरदार, जैसे गांधी, सावरकर अक्सर इन कहानियों में विचारते दिखते हैं। हालाँकि कहानी की विषय वस्तु से उनका कोई ख़ास लेना देना होता नहीं है। वे किसी अलंकार की तरह यहाँ -वहाँ झूलते दिखाई देते हैं। प्रश्न यह है कि यदि इन किरदारों को इन कहानियों से निकाल दिया जाए तो क्या कहानी मूल रूप से बदल जाएगी?
उनकी कहानियों में भाषा के अलावा मुझे कुछ ख़ास कभी नहीं मिलता। वे एक ही शैली में एक तरह की कहानियाँ लिखते हैं।
Vijaya Singh मुझे लगता है कि सावरकर और गांधी अलंकार नहीं काल की घड़ी के पेंडुलम की तरह झूलते हैं। यह झूलना दृश्य और परिदृश्य दोनों रचता है। मुझे लगता है जैसी कहानियाँ उसके भीतर से इन दिनों आस रहीं, यह शैली उसी के ताप से है।हर रचनाकार अपनी शैली के भीतर कथ्य के अनुसार एक नयी शैली विकसित करता है। यही उम्मीद अम्बर से भी है।
एक रूपरेखा बनाकर किसी तरह शेक्सपियर की रचनाओं को भी एक दायरे में समेट सकते हैं। साहित्य के इतिहास में ऐसा करते भी हैं। पर उसको मूल्यांकन का आधार नहीं बनाते। उदाहरण के लिए हम यह नहीं कहते कि शेक्सपियर के दुखांत नाटकों मे निम्नलिखित तत्त्व काॅमन हैं, इसलिए उनका विशेष मूल्य नहीं है। मूल्यांकन के लिए हम दूसरे मानदंड इस्तेमाल करते हैं।
तथ्यात्मक रूप से भी आपका सामान्यीकरण इतना सही नहीं है। गांधी जिन टुकड़ों में आये हैं वे एक आने वाले उपन्यास के अंश हैं। अभी हम कैसे कह सकते हैं कि गांधी कथा में यों ही आ गये हैं। सावरकर वाली कहानी को फिर पढ़कर देखिए। सावरकर का चरित्र केन्द्रीय है। उस पर मेरा एक छोटा नोट भी है। दोनों समालोचन पर मिल जायेंगे।
फिर भी मुझे मानना पड़ेगा कि अबूझ भाषा में तारीफ करने वालों/वालियों की तुलना में आपकी नजर साफ और तीखी है।
जबरदस्त। अगर ये किसी उपन्यास के अंश हैं तो मेरी इच्छा इस कृति को समग्रता में एक जगह पढ़ने की है। इस हिस्से में मृत्यु, शोक, शव, मृत्यु पश्चात संसार आदि पर बहुत अर्थगर्भी और अनुभूत बातें हैं। लेखकों की आयु उनकी शारीरिक उम्र से नहीं, उनके सोचे, जिए और लिखे की व्यापकता और गहनता से समझी जानी चाहिए। अम्बर को पढ़ कर और अम्बर से मिल कर बार बार विस्मित होना पड़ता है कि वास्तविकता में गल्पस्वरूप है कौन ? जिसे हम जानते हैं वह यह सब कब देख सुन जी आया, और जो हमसे ओझल रहा , क्या हम उसी से परिचय के मुग़ालते में रहते रहे ?
इसे बार बार पढ़ना होगा, हमेशा की तरह। कविता हो या कहानी, प्रचलित जल्दबाज़, इकहरे सरल पाठ की आदतों को अम्बर की रचनाएँ अक्सर ठेस पहुंचाती हैं।
फिर कहूँगा : इस कृति को एक साथ पढ़ने की ललक बढ़ गई है।
अम्बर की कहानी तो मुझे दूसरे लोक में ले गई जहाँ मैं अपने प्रियजनों से मिल, उनकी स्मृतियों के साथ रोती, कभी चुप लगा उन्हें सुनने का प्रयत्न करती रही… यह उपन्यास का अंश है, ऐसा लगा नहीं.. उपन्यास है तो इसने बुरी तरह बेचैन कर दिया है पहले के अधूरे उपन्यास माँमुनी की तरह…. इंतज़ार बहुत मुश्किल हो गया है… अम्बर अपना स्थान बना चुके हैं… माँ सरस्वती की कृपा बनी रहे🙏💕
सोने से पहले इस गद्य को पढ़ जाना सच में ख़तरनाक सिद्ध हो सकता है. अपने घनघोर और घटाटोप obsessions को खेलना-लिखना इस लेखक को हर बार नए सिरे से करना पड़ता होगा.. मुझे नहीं लगता अम्बर जोकि भाषा का अद्भुत धनी है उसे अपनी रची हुई ऐश्वर्यशाली दुनिया में एक पल की आश्वस्ति भी महसूस होती होगी. तलवार की धार पर हर वाक्य दम साधे स्वयं को शिल्पित करता है. कभी-कभी तो अम्बर के ध्वन्य्लोक में नाद के लावा बाकी हर तत्त्व धूमिल पड़ जाता है. इसलिए एक ही बैठक में कम से कम दो बार पढने को जी चाहता है.
मुझे अम्बर की दोएक कहानियों के लेकर जिस असहजता ने आ घेरा था यहाँ बिलकुल भी महसूस नहीं हुई. वहाँ भी दृष्टि-दोष मेरा स्वयं का हो सकता है. मुझे बहुत आनंद आया इस पाठ का अम्बर. आभार, कि तुम हो, और हिन्दी के उन दिनों में प्रकट हुए जब बीच-बीच में बेहद कमतरी का एहसास होने लगा था.
यह एक बड़े आख्यान का अंश है। पिछले अंश की तुलना में कथ्य अधिक palpable और quantifiable है।
भारत और यूरोप के इतिहास पर की गयी टिप्पणी ने क़ायल कर दिया। मृत्यु के प्रसंग और उसकी उत्तरकथा का काव्य विह्वल करता है। पूरे की प्रतीक्षा !
कहानी में लेखक अपने आत्मीय जनों की मृत्यु के बाद भी उनका जीवन और संसार में पुनर्निर्माण करना चाहता है। ये बड़ा ही रोचक है। सच है मृत्यु के बाद ही मृतक ही एक अदृश्य दुनिया हमारे साथ चलती रहती है। बस संवाद् नहीं होता।