माथे की फूली हुई एक नस
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(एक)
यह एक जटिल फ़िल्म है.
यह एक निन्दित फ़िल्म है कि यह दर्शकों की परवाह नहीं करती.
यह एक सराही गई फ़िल्म है कि अंतर्मन की परवाह करती है.
यह चेतन से बात करती है. अवचेतन से बात करती है.
यह यथार्थ को प्राथमिकता नहीं देती. यथार्थ में रहकर स्मृतियों को तरजीह देती है. यह मनुष्य के मनोजगत का अंकन है. उसके अंतरिक्ष का. सौरमंडल का. और दुविधा का. इसकी भाषा बोलचाल की सिनेमाई भाषा नहीं है. इसे प्रचलित अभिव्यक्तियों से अभिव्यक्त नहीं किया जा सकता. यह रैखिक होने के विरुद्ध है. घटनाएँ सरल तारतम्यता से नहीं, ऊपरी शिराओं से नहीं, भीतरी धमनियों से जुड़ी हैं. इसका दर्शक, फ़िल्मकार की तरंगों के धरातल पर नहीं आएगा तो यह सिनेमा उसके लिए अपथ्य है. यह प्राप्य और प्राप्त को महत्वपूर्ण नहीं मानता. यह जो छूट गया उसे पाना चाहता है. यही असंभव है. यह तारकोवस्की का सिनेमा है: नॉस्टैल्जिया.
फिर ऐसा क्या है कि इस पर बात की जाए.
लिखने और पढ़नेवाले का समय नष्ट किया जाए.
दरअसल, यह कई दिशाओं में यात्रा करनेवाली कविता है. कैमरे की आँख जितना बाहरी दृश्यों को देखती है, उतनी ही अंतर के दृश्यों को. यह वर्तमान में है और विगत में भी. यह उधेड़ बुन, अनिश्चितता, स्मृति और आकांक्षा को एक साथ संबोधित करती है. भविष्य की दुर्घटनाओं के लिए सजग. जैसे एक चक्षु बाहर, एक चक्षु भीतर. यह कई बातें कहती है जो वाचालता में नहीं कही जा सकतीं. ये कई इशारे करती है जिन्हें साधारण दिनचर्या की परिचित भंगिमाओं में कह पाना संभव नहीं. यह अस्तित्व को अनेक तरह से प्रश्नांकित करती है. लेकिन स्वप्नशीलता को विस्मृत नहीं करती. प्रकाश की इच्छा में धुंध और कोहरे से गुज़रना चाहती है. यह सिनेमाओं का सिनेमा है. यह स्वप्न के भीतर स्वप्न है. जो अपर्याप्त यथार्थ के टूटकर बिखर गए टुकड़ों से मिलकर, जागे हुए की नींद में एक बार फिर बनता है. यह मनोहारी चुनौती है. और काव्यात्मक संश्लिष्ट व्याकरण.
(दो)
रूस का एक कवि देश के एक पूर्वज संगीतकार पर किताब लिखना चाहता है. इसलिए वह इटली में उन स्थानों की यात्रा करता है जहाँ संगीतकार अपने अंतिम दिनों में रहा. उन जगहों को ऐंद्रिक ढंग से छूना चाहता है जिन्हें संगीतकार ने स्पर्श किया. सुविधा के लिए एक अनुवादक महिला उसके साथ है. लेकिन कवि अचानक अपने में गुम हो गया है. अपने देश और परिवार की स्मृति ने उसे घेर लिया है. साथ रहने, काम करने से महिला के मन में पैदा वासनामयी चेष्टा की उपेक्षा करते हुए वह जैसे कुछ और अकेला हो जाता है. वह उस सुंदर स्त्री में रुचि लेने के बजाय एक पागल-से व्यक्ति में दिलचस्पी लेता है. कवि को लगता है कि वह पागल ही उसके कुछ काम का है.
वह समझता है कि एक सर्जक और पागल का संबंध ही रचनात्मक हो सकता है. वह उस उन्मादी और खिन्न व्यक्ति का अजीब अंधविश्वास आग्रह अपने सिर पर लेता है कि एक जलती मोमबत्ती को एक विशाल, खुले नहानघर के एक सिरे से दूसरे सिरे तक ले जाना है. इससे शायद इस नष्ट होते संसार का भविष्य बेहतर हो जाए. वह अपने नॉस्टैल्जिया से घिरा, किसी ख़ाम ख़याली में इस मूर्खता के प्रति वचनबद्ध हो गया है. और इसका निर्वहन करता हुआ अंततः जीवनमुक्त हो जाता है.
इन तमाम स्थितियों के बीच कवि को अपने देश की याद इतना ढाँप लेती है कि अपने देश से इतनी दूर इटली में रहना दुष्कर लगने लगता है. यह नॉस्टैल्जिया, यह यातनामयी याद उसके अपने बचपन की, अपने घर की, वहाँ के भूगोल की है. भूदृश्यों की और व्यतीत संबंधों की. वह यहाँ, इतने दूर देश में, एक संगीतकार के जीवन पर पुस्तक लिखने के लिए आया था लेकिन वह स्मृतियों का बंधक बन चुका है. मन उचाट है लेकिन साथ में उस विचित्र पागल से और अनुवादक स्त्री से संवाद, आकर्षण और झंझट बना रहता है.
नॉस्टैल्जियाजन्य उदासी, अनश्वर याद हर जगह उसका पीछा करती है. खंडहरों में, टूटे-फूटे घरों में, ऋतुओं में, होटलों, गलियों, गलियारों, प्रकृति में, उपेक्षित वस्तुओं और ख़यालों में. इनका चित्रण जादुई है. लंबे, स्थिर फिल्मांकन उस आकर्षक और घातक ऊब की मदद करते हैं जिसका अहसास तारकोवस्की अपने विशिष्ट कौशल के साथ दर्ज करना चाहते हैं. निजी तौर पर यह तारकोवस्की के रूस छोड़ने के बाद की वेदना और अकेलेपन की त्रासदी का अपारदर्शी, अकथनीय कथ्य भी है.
ऐसे भी समझा जा सकता है कि जैसे पिकासो ने चेहरे और देह के सारे अवयवों को चित्रित किया लेकिन उनके मूल स्थानों से विस्थापित करते हुए. कला को बहुआयामी, बहुअर्थी बनाकर, अप्रत्याशित दिशाओं में ले जाकर. चित्र देखने की पारंपरिक समझ को चुनौती दी, उसे खंडित किया. क्रमभंग और च्युति. तारकोवस्की यही काम सिनेमा के माध्यम में करते हैं. शायद कला के पास नये रास्ते पर पैदल चलकर पहुँचने का इसके अलावा और कोई सच्चा तरीक़ा नहीं है.
यह मुख्य कथासार है. आगे बिखरी हुई चीज़ों को और ज़्यादा बिखेर रहा हूँ. कोई उन्हें अपनी तरह से एकत्र करते हुए अपने-अपने तर्क, स्वप्न या अपनी इच्छा के क्रम में रख सकता है. या यों ही छोड़ सकता है. अनौचित्य के बावजूद उनका अपना एक औचित्य है. तारकोवस्की का सिनेमा देखने के लिए इस तरह सोचना पड़ सकता है.
(तीन)
यह धुआँ उठता है. यह धुंध का धुआँ है. भूदृश्य का. स्मृति का. अब यह कोहरा आपको घेर रहा है. एक दृश्य से दूसरे दृश्य याद आते हैं. ये परदे पर नहीं हैं, तुम्हारी स्मृति में हैं. तुम्हारे बचपन में और छूट गए जीवन में. यहाँ तुम किसी उदासी से किसी प्रेम को पहचान सकते हो. कोहरे में ही प्रेम का चेहरा है. स्मृति की खिड़की खोलोगे तो उस पार कोई दृश्य नहीं दिखता. लेकिन एक ठोस और ठस्स निर्विकार दीवार दिख सकती है.
यह स्मृति की तरफ़ से किया गया निर्मल परिहास है.
स्त्रियों के हिस्से में धोखे हैं और प्रार्थनाएँ.
वही उनका जीवन है. वही कार्यभार है. उन्हें एक उस देवी से प्रार्थना करना है जो खुद स्त्री है. उतनी ही दुखी, उतनी ही सताई हुई. उतनी ही याचक. मूर्ति या चित्रित देवी की आँख में एक अटका हुआ आँसू है. उसी आँसू के लिए वह चित्र बनाया गया है और उसी आँसू की वजह से वह केवल चित्र नहीं रह गया है, प्राणवान हो गया है. उस आँसू से ही उसकी प्राणप्रतिष्ठा है. वह सिर्फ़ पत्थर या काष्ठ नहीं रह गई है. वह हमारा ही कोई शिल्प है इसलिए उससे प्रार्थना की जा सकती है. उम्मीद केवल यही है कि दोनों एक-दूसरे की वंचना को समझ लेंगी. यह मातृत्व की तलाश है या किसी स्वप्न को साकार करने की. किसी आश्रय की कामना. सुख से आसक्ति की या दुख से निवृत्ति की. अथवा किसी चमत्कार की. ये सारी कामनाएँ तुम्हारे सीने में पक्षियों की तरह क़ैद हैं. इन्हें आज़ाद करोगे, पिंजरे से बाहर करोगे तो तुम्हारे भीतर कुछ आकाश बनेगा.
वरदान चाहिए तो झुकना पड़ेगा. तुम झुक नहीं सकते तो वरदान कैसे मिलेगा. पुजारी मदद नहीं कर सकता, वह कुछ नहीं जानता. उससे तर्क मत करो, वह ज्ञानवान नहीं है. प्रज्ञावान भी नहीं. वह सिर्फ़ परंपरा में शिक्षित है और पूजास्थल से जीवन यापन को जानता है.
(चार)
आप एक जगह की यात्रा दुबारा करते हैं तो पहली यात्रा को ही कुछ नये तरीके से, नये तकलीफ़देह ढंग से करते हैं. यह तुलनात्मक दुख, मुड़कर देखना मनुष्य की चाल में शामिल है. उसकी प्रकृति में. उसके आलस्य में. आगे जाने की उसकी अनिच्छा में. जो छूट जाता है, वह वहीं जाना चाहता है. जा नहीं सकता. इसलिए कहीं पहुँचता है तो कहता है मैं यहाँ नहीं रह सकता. मुश्किल यह कि जहाँ से आ गया है, वह वहाँ अब कैसे रह सकता है. यह दुचित्तापन मनुष्य का हासिल है. यह उन ग़लतियों के पश्चाताप जैसा है जो ग़लतियाँ नहीं हैं. यह उन पापों से मुक्ति की प्रार्थना है जो पाप नहीं हैं.
यदि तुम किसी देश के लेखकों-कलाकारों को नहीं समझ सकते तो उस देश को भी नहीं समझ सकते. इतिहास को, संस्कृति को समझने के लिए कला में से गुज़रकर जाना होगा. वहाँ एक गिरा हुआ पंख है, किसी पक्षी के शरीर का. किसी के जीवन का. किसी लंबी यात्रा से थका हुआ. ठीक वैसे जैसे कविता भी एक जीवन है. एक समृद्ध जीवन. लेकिन वह उड़ान में गिरा हुआ एक पंख है. उसे इसी जैविकता में देखो. जीवन और कला की कोई सच्ची रैप्लिका संभव नहीं. दृश्यों की असंबद्धता से भी कला का यथार्थ निर्मित होता है. संसार की हर चीज़ लगातार स्वप्नशील है. जो सबको दिख रहा है, उसके बीच में जो सिर्फ़ तुम्हें दिखता है, वही तुम्हारी उपस्थिति की सूचना है.
माथे की एक फूली हुई नस ही विचारवान मनुष्य की उपलब्धि हो सकती है. उसी नस से शरीर में नहीं, जीवन में रक्त संचार होता है. किसी अनावश्यक आक्रामकता से नकसीर फूट सकती है. जीवन ज्यों-ज्यों बीतता है, आगे बढ़ता है, त्यों-त्यों छूट गए दृश्यों, बीत गए दिनों की छवियों का एलबम विशाल होता चला जाता है. अंत में यह एक असहनीय वज़न में बदल जाता है, जिसे तुमने धीरे-धीरे अपने ऊपर एकत्र कर लिया है. अब तुम इस भार के साथ चलने के लिए विवश हो. अभिशप्त हो.
(पाँच)
हमेशा ही कितनी बातें दरपेश हैं जिन्हें नये आलोक में समझना है. ये कुछ वाक्य हैं, इनमें दृश्य भी हैं और पटकथा भी है. ये बातें फ़िल्म में कही भी गई हैं और नहीं भी कही गईं हैं. इन्हें मैं एक दर्शक अपनी भाषा में, अपने वाक्यों में भी कह रहा हूँ. इन्हें दिखाया भी गया है और अपने मन में अपनी तरह से देखा भी गया है. इन्हें व्यतिक्रम में समझना सिनेमा की एक नयी भाषा सीखना है और उसकी दार्शनिकता भी:
-समय क्या है. स्मृति है. स्मृति क्या है. वह समय है. ये पर्याय हैं या पूरक हैं. लेकिन दोनों भौतिक नहीं हैं. भौतिक जीवन से जुड़े हैं. जीवन भौतिक और अभौतिक के बीच का कोई संशय है, कोई मुक़दमा है.
-कुछ लोग अनंतकाल तक जीवन जीना चाहते हैं, इसके लिए वे क्या कुछ नहीं करते. यही सबसे बड़ी निष्फलता है.
-इस भूदृश्य में कुछ लोग गतिशील हैं. अचर प्रकृति स्थिर है. इस फ्रेम में एक जीवित, स्पंदित अश्व को स्थिर कर देना, उसे किसी पेंटिंग में बदल देना है. तब वह क्या है जो चलायमान होकर भी स्थिर हो गया है. वह समय है. स्मृति है. स्वप्न है.
-केवल बुद्धि और ज्ञान से जीवन को और कला को समझना मुश्किल होता है.
-ईश्वर से निबटने का एक तरीका यह भी है कि यदि ईश्वर कहीं है तो उसे उसका काम करने दिया जाए और हम अपना काम इस तरह करें, मानो कहीं कोई ईश्वर नहीं है.
-सब ठीक है. यही कहना सबसे गलत है.
-जबकि जीवन ऐसा है कि एक और एक का योगफल दो नहीं, एक ही आ रहा है.
-पागल होने और अति आस्थावान होने में ज़्यादा फर्क नहीं है. वे गलियों में भटकते हैं. इनका साथ कलाकार देते हैं. इनसे मुलाक़ात करना सबसे कठिन काम है. लेकिन इनसे मिलने की इच्छा हर आदमी को होती है.
-जिसे प्रेम करते हो यदि उसके एवज़ का जीवन नहीं जी सकते, उसके एवज़ की मृत्यु नहीं चुन सकते तो फिर तुम उससे नहीं, उसकी त्वचा से प्रेम करते हो.
-कलाकार चला जाता है, उसकी कला रह जाती है. जैसे संगीतकार विलोपित जाता है, संगीत बना रहता है.
-एक दिन हम सब उस लैण्डस्केप में रहने लगते हैं जो स्मृति के स्वप्न में दिखता है.
-दर्पण में अपना चेहरा नहीं दिखता, पुराने जीवन की तस्वीर दिखती है. यही विस्थापन है. यही वार्धक्य. यही आत्मीय मुसीबत.
– जो नहीं कहा गया है वही सबसे अधिक याद रहता है.
-यदि बहुत दिनों तक सूर्य नहीं देखेंगे तो प्रकाश से भय लग सकता है. इसलिए मनुष्यों से मिलते रहना भी जरूरी है. और परिवार से.
-जीवन में यात्राएँ स्थगित करना पड़ती हैं. या फिर वहाँ जाना होता है जहाँ पहले कभी जाना चाहते थे और अब नहीं जाना चाहते.
-नॉस्टैल्जिया की उदासी मनुष्य को कहीं का नहीं रहने देती. न इस संसार का और न ही अन्य किसी दिक् काल का.
-देखो, एक पत्ता चक्कर खाता हुआ सूनी बाबड़ी में गिर रहा है.
-स्वस्थ लोगों ने ही इस संसार को बीमार कर दिया है.
– मामूली चीज़ें महान हैं और वे ही चिरायु होती हैं.
-प्रकृति में जीवन सरल है. मनुष्य का जीवन ऐसा उलझा है जैसे वह प्रकृति का हिस्सा नहीं रह गया है.
यह बिंबों को चित्रित करने का सिनेमा है.
यह एक असमाप्त सिनेमा है.
(छह)
जैसे लू-शुन की एक कहानी के विक्षिप्त नायक का प्रलाप ही सत्य को सर्वाधिक उद्घाटित करता है. तारकोवस्की भी ऐसे ही विक्षिप्त पात्र का सहारा लेते हैं. जिसे लगता है कि युद्ध काल में अपने आपको सपरिवार घर में नज़रबंद कर लेने से शायद शांति आएगी. फिर उसे चौराहे पर आकर लोगों को याद दिलाना पड़ता है कि तुम सब और यह पूरी दुनिया पागल है. इतनी पागल कि यह बात एक पागल आदमी को आकर बताना पड़ रहा है. उसे उपदेशक होना पड़ रहा है और संसार एक मूर्ख की तरह सुन रहा है.
कि हम सब जीवन में एक आत्महत्या की तैयारी कर रहे हैं. यदि तुम अपने सामने खोदे जा रहे गढ्ढे को नहीं देखते और उसमें गिर जाते हो तो किसी भी तरह की स्वतंत्रता एक बेकार चीज़ हो जाती है. यदि तुम अपने आप से बात नहीं कर सकते तो फिर संसार से बात करने की पात्रता खो देते हो. यह बिना पेंसिल उठाए त्रिज्या सहित उस चतुर्भुज के निर्माण की तरह भी है जिसे बनाने के लिए चहारदीवारी की सीमाओं का अतिक्रमण करना पड़ता है. अपने ‘कंफर्ट ज़ोन’ से निकलकर ही यह टॉस्क पूरा हो सकता है.
तारकोवस्की का सिनेमा अपनी मंथर गति और सूक्ष्म संवेदनों को दर्ज करने के लिए पहचाना जाता है. इतना कि परदे पर उठती भाप को उँगलियों के पोरों से स्पर्श किया जा सकता है. मानस के रंध्रों में उसका प्रवेश हो ही चुका है. जर्जरता को विषय बनाना तारकोवस्की जानते हैं. वह ‘देखने’ को महत्वपूर्ण बनाना चाहते हैं. उनका शब्दकोष ख़ास तरह से कुछ सीमित हो सकता है लेकिन वह व्यंजक है और काव्यात्मक. यही उनकी अप्रतिम शक्ति है और यही सीमा. कैमरे की आँख अकसर वहाँ नहीं जाती जहाँ दर्शक अपेक्षा करता है. कथ्य भी अराजक ढंग से विचरता है. उसकी एकसूत्रता पर्यटन में रहती है. लेकिन वे विवश करते हैं कि आप देखें, सुनें. और समझ सकें तो समझें.
यह तारकोवस्की की अद्वितीयता है.
जिसकी पुकार है: ‘जहाँ हो, वहाँ से याद रखो कि कहाँ नहीं हो.’
आवश्यक और पूरक पुनश्च:
तारकोवस्की की फ़िल्मों को लेकर एक गंभीर मज़ाक़ प्रचलित है- ”जो भी अपने मित्रों के लिए तारकोवस्की की फ़िल्मों की अनुशंसा करता है वह अफ़सोस करता है और चुपचाप सुबकता है कि उसने ऐसा क्यों किया. उसे हमेशा लंबे पैराग्राफ़्स लिखकर बताना होता है कि उनकी फ़िल्म के किसी दृश्य से गुज़रना कितना प्रभावी और विचलित करनेवाला था, मन ही मन यह याद करते हुए कि उस समय वह उनींदा हो गया था.”
इसलिए फ़िल्म की अनुशंसा नहीं करूँगा. बस, इतना कह सकता हूँ कि यह एक विकट, उत्प्रेरक, स्मरणीय, सर्जनात्मक यात्रा भी हो सकती है. यह दर्शक की ज्ञानेंद्रियों और संवेद कोशिकाओं की परस्परता पर अधिक निर्भर है. यह बौद्धिक व्यायामशाला में प्रवेश करने जैसा है, जिसमें धैर्य की अपनी भूमिका होगी.
नॉस्टेल्जिया- 1983/निदेशक- आंद्रेई तारकोवस्की
कुमार अंबुज (जन्म : 13 अप्रैल, 1957, ग्राम मँगवार, गुना, मध्य प्रदेश) कविता-संग्रह-‘किवाड़’, ‘क्रूरता’, ‘अनन्तिम’, ‘अतिक्रमण’, ‘अमीरी रेखा’ और कहानी-संग्रह- ‘इच्छाएँ’ और वैचारिक लेखों की दो पुस्तिकाएँ-‘मनुष्य का अवकाश’ तथा ‘क्षीण सम्भावना की कौंध’ आदि प्रकाशित. कविताओं के लिए मध्य प्रदेश साहित्य अकादेमी का माखनलाल चतुर्वेदी पुरस्कार, भारतभूषण अग्रवाल स्मृति पुरस्कार, श्रीकान्त वर्मा पुरस्कार, गिरिजाकुमार माथुर सम्मान, केदार सम्मान और वागीश्वरी पुरस्कार आदि प्राप्त. kumarambujbpl@gmail.com |
फ़िल्म देखने की, समझने की और उसे महसूस करने की एक नई दृष्टि देता आलेख। वरिष्ठ कवि का गद्य अद्भुत है और उतना ही अद्भुत है उनका मर्मस्पर्शी विवेचन। प्रस्तुत करने का आभार।
इस जटिल सी प्रतीत होनेवाली फ़िल्म का सार रचनात्मक ढंग से प्रस्तुत करने के लिए कवि कुमार अम्बुज को साधुवाद।
बहुत सुंदर !
इसे पढ़ना इतनी आश्वस्ति, आत्मतोष, आत्मावलोकन और स्वप्नों से भरा रहा कि कई जगह आँख भर आईं।
कुमार अम्बुज जी भाषा बहुत सुंदर है!
इतना प्रीतिकर एकांत और डूब तथा कल्पनाशीलता इस लेख में मिले कि उन्हें सबको एक साथ कहा नहीं जा सकता।
मुझे लगा जैसे यह फ़िल्म पर एक ऐसी फ़िल्म की डॉक्यूमेंट्री है जिसकी स्क्रिप्ट मैं पार्श्व से बोल रहा हूँ इस तरह एक अनदेखी फ़िल्म में शामिल हूँ।
कहना यह भी चाहिए कि किसी कला माध्यम के लिए ऐसी लेखकीय संलग्नता रुचि, चित्त और संवेदना तीनों का रागात्मक परिष्कार करती है।
फिल्म मैंने नहीं देखी है,लेकिन समीक्षा नामक यह गद्य! अद्भुत!
अपनेआप में एक संपूर्ण रचना। प्रत्येक अनुच्छेद सोचने और अनुभव करने के लिए एक नयी दिशा के द्वार खोलता है। अभिनंदन! आभार!
तारकोव्स्की के सिनेमा को समझने के लिए यह आलेख एक बार नहीं एकाधिक बार पढ़ने की जरूरत है। तभी आप उसके अंदर उतर सकते हैं। रम सकते हैं। कहानी सिर्फ इतनी है कि रूसी कवि अपने पूर्वज संगीतकार पर पुस्तक लिखने के लिए इटली जाता है जहाँ उसने जीवन के अंतिम दिन गुजारे हैं। वहां वह खो जाता है। नोस्टैल्जिया में चला जाता है। कैमरे की आंख से बाहर और आंतरिक संसार को सिनेमा में तो पता नहीं, अंबुज जी ने अपने आलेख में जिस तरह उभारा है- वह अद्भुत है। पाठक उसमें डूब जाता है। उबर कर फिर सिनेमा देखने की चाहत पैदा हो जाती है। उसे एक दृष्टि भी मिल जाती है। पाठक को इस ओर उन्मुख करने कराने के लिए समालोचन और अंबुज जी का आभार।
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हरिमोहन शर्मा
बहुत सुंदर।
बस पिकासो का ज़िक्र मुझे कुछ सटीक नहीं लगा। इन दोनों के प्रभाव इतने अलग हैं कि एक दूसरे के संदर्भ में याद नहीं आते।
फिर से देखूँगी फ़िल्म। और इस सुंदर आलेख का आनंद बाद में फिर लूँगी।
कुमार का फिल्मों पर मनन अद्भुत है। निश्चित ही अन्ततः वे इसे किताब का रूप देंगे।
Teji Grover जी,
कलाओं के संदर्भ में एक वाक्य इसमें है: ‘अनौचित्य का भी एक औचित्य होता है’। कलाओं के सारे पादप, सारे वृक्ष इस ‘फंगस’ से निबद्ध हैं और संवादरत रहते हैं। 🙏😊
विष्णु खरे जी के न रहने से जो हिंदी में कम हो गया था कुछ हद तक कुमार अम्बुज जी उसकी भरपाई कर रहे हे
साधुवाद व आभार
🌹🙏
नॉस्टेल्जिया तारकोव्स्की की थोड़ी कम चर्चित फ़िल्म है। इस लिहाज से Kumar Ambuj जी ने सही चुनाव किया है जिस पर बात हो सके। ये आलेख सिनेमा appreciation के लिए बेहतर ज़मीन बना रहे। जिसे पढ़ने के बाद फ़िल्म को देखना और भी अर्थ खोलेगा। वैसे भी तारकोव्स्की का सिनेमा लेयर्ड और दुरूह है मगर उसका अनुभव अद्भुत ही है। ख़ासकर उनकी संगीत और दृश्य को पिरोने की ख़ासियत। उनकी फ़िल्में ऑटोबायोग्राफ़िकल अर्थों में खोजी जा सकती। यह फ़िल्म भी उनके इटली के अनुभवों पर आधारित है जिसके बारे तारकोव्स्की का कहना है कि लोग एक साथ रहने के बाद भी एक दूसरे को नहीं जानते। मैं न केवल आस्वाद के नए विचार इन आलेखों से सीख रहा बल्कि लिखने का तरीक़ा भी।
कुम अंबुज ने आंद्रेई तारकोवस्की की फ़िल्म नॉस्टेलेल्जिया की समीक्षा अनूठे तरीक़े से की है । शानदार पंक्तियाँ उद्धरण के नये आयाम जोड़ती हैं । दुनिया के सभी पंथों के पुजारियों की एक जैसी समस्या है । वे तर्क करना जानते । अनुगमन कराना चाहते हैं । ईश्वर के बारे में इनकी जानकारी भोथरी है । बुद्धिमान और प्रज्ञावान होना इनके बस की बात नहीं है ।
स्त्रियों का जन्म क्या प्रताड़नाएँ सहने के लिये हुआ है । बक़ौल फ़िल्म के हम वहाँ जाना चाहते हैं जहाँ धुएँ के नाम पर धुँध छायी हुई है ।
शुरू से अंत तक कई बार आँखे झपकीं और लगा कि पढ़ तो रहा हूँ पर कुछ समझ नहीं रहा।फिर इसे यों ही पढ़ने से क्या फायदा।दरअसल, यह विषय ही कुछ ऐसा है कि इसे इतनी आसानी से पचाना कठिन है।हालांकि आलेख में इस बात का जिक्र भी कई बार आया है।इससे थोड़ी तसल्ली भी हुई कि एक मैं ही कमअक्ल नहीं हूँ । दरअसल,ये मामला सिर्फ स्मृतियों तक का नहीं है।और भी चीज़ें हैं जो वाह्य जीवन और मनोजगत से जुड़ी हैं। इनके अंतर्विरोधों और इनकी गुत्थियों को संबुद्धि से समझना होगा। जरूरत पड़ने पर बहुत गहरे अवचेतन मन की भीतरी खुदाई भी करनी होगी। संभव है कि इस फिल्म को खुद देखने से कुछ धुँध साफ हो। बहरहाल, अंबुज जी एव समालोचन को बधाई !
बहुत दिनों बाद तारकोवस्की के जटिल और मायावी सिनेमा पर कोई मानीखेज और बहुस्पर्शी टिप्पणी पढ़ी। दिमाग को समृद्ध करने वाली और संवेदना को परिष्कृत करने वाली टिप्पणी के लिए कुमार अंबुज को सलाम करते हैं।
आपकी दृष्टि से हम नॉस्टेल्जिया ,समय, स्मृतियों और दृश्यों की यात्रा से गुजरने लगते हैं।
तारकोवस्की की फिल्म पर लिखी गयी इस टिप्पणी को एक स्वतंत्र, जबरदस्त प्रभावशाली रचना कहूंगा। हिंदी के अधिकांश लोगों की तरह मैंने भी फिल्म नहीं देखी है, मगर टिप्पणी के प्रस्तुतीकरण से फिल्म पूरी साकार हो जाती है। उसकी एक-एक डीटेल, कथ्य, संवाद, अभिनय, काॅस्ट्यूम, भाव-भंगिमा, वक्त़, अकेलापन, शोर, चीख़, चुप्पी, गुस्सा, सिसकियां और वह सभी कुछ जिसे तारकोवस्की पेश कर रहे हैं। यह भी एक नाॅस्टाल्जिया है कि हम हिंदी के पाठकों के लिए यह काम कुमार अंबुज कर रहे हैं।
सम्मोहक, मार्मिक और सूक्ष्म विवेचन। कुमार अम्बुज जी ने फिल्म के आंतरिक संसार में प्रवेश करते हुए कैमरे की आंख से एक मार्मिक कविता की रचना की है। उन्हें बहुत-बहुत बधाई।
जो नहीं कहा गया है वही सबसे अधिक याद रहता है.
बेहतरीन!
कितना सुंदर। तारकोवस्की बहुत प्रिय हैं। सीरीज़ बहुत सुंदर है और ठहर ठहर कर पढ़ने वाली।
विश्वप्रसिद्ध फिल्म है तारकोवस्की की ‘नॉस्टेल्जिया’। मैंने एक से अधिक बार देखी है यह फिल्म। अब इस आलेख को पढ़कर पुनः देखूँगी। फिल्मों पर अम्बुज जी का लेखन अद्भुत है। ऐसे सघन आलेखों की बहुत ज़रूरत है। सिनेमा पर उनके लेखन से हम पाठक समृद्ध होते रहेंगे, ऐसी उम्मीद है और विनम्र आग्रह भी।
कुमार जी ने सचमुच कमाल का निबंध लिखा है। तारकोवस्की के जटिल और गझिन सिनेमा को समझने की जिस तरह की नजर चाहिए, वह कुमार अम्बुज जी ने इतनी सहज और प्रांजल कर दी कि उनका और सिनेमा भी जेहन में घूमने लगा। मेरे ख्याल से पुस्तक तैयार हो चुकीं है। और उनकी सिनेमा आस्वादन की यह पुस्तक सिनेमा के मर्म को जानने ,और गुनने में मानक भी रचेगी। पर अपने लिखने में भी कुमार जी असाधारण और बेहद भाव प्रवण गद्य भी रचते है।
अद्भुत आलेख है. इसे पढ़ कर फ़िल्म को बेहतर समझा जा सकता है. कुमार अम्बुज को साधुवाद. अरुण भाई का अआभार.
फ़िल्म बनाने की कला और उसके उद्देश्यों पर कुमार अंबुज जी की यह श्रृंखला सच में अद्भुत है। आंद्रेई तारकोवस्की ने कहा भी था, ‘सभी कलाएँ बौद्धिक हैं लेकिन मैं कलाओं को, विशेष रूप फ़िल्म निर्माण की कला को, अनिवार्य रूप से भावनात्मक अधिक मानता हूँ।’ नॉस्टेल्जिया उनकी फ़िल्में (जिसे मैं पोएट्री ऑन सेलुलाइड कहना ज़्यादा पसन्द करूँगा) इसकी तस्दीक करती हैं। निर्देशन और पटकथा के कलापक्ष को एकदम नए सिरे से परिभाषित करने वाली इनकी फ़िल्में समय ही नहीं, अपितु व्यक्ति के भी इनर स्पेस का वह अदृश्य रचती हैं जिन्हें सामान्य दृष्टि से देख पाना कदाचित असंभव है। कुमार अंबुज का यह आलेख तारकोवस्की की फ़िल्म-प्रेम की सी ही एक गझिनता लिए हुए है। ऐसी अंतर्भूत भाषा में और विषय-सापेक्ष लिखा कुछ भी पढ़ने हेतु समय की निःसंगता और चित्त की शांति दोनों ज़रूरी हैं। इसकी भी टिप्पणियाँ देर से दर्ज होती है कई बार।
अद्भुत गद्य। यह तारकोवस्की पर एक कविता ही है। काव्यात्मक सिने अनुभव को शब्द के जरिए उपलब्ध कराती कविता। ऐंद्रिक नजदीकी और दार्शनिक विलंबन को एक साथ हासिल करता यह सिने पाठ फिल्मों के गंभीर दर्शकों के लिए तोहफा है। अंबुज जी और अरुण जी का शुक्रिया।