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समालोचन

Home » अशोक वाजपेयी: विष्णु नागर

अशोक वाजपेयी: विष्णु नागर

जन्मतिथि संकेत है वहीं स्मृति का पृष्ठ भी, जहाँ पिछला सबकुछ लिखा होता है और आगत की उम्मीद का नया पन्ना खुलता है. अशोक वाजपेयी का जीवन हिंदी संस्कृति के छह दशकों की समृद्ध सक्रियताओं से भरा पूरा जीवन है. समालोचन उनको उनके जन्म दिवस पर शुभकामनाएं देता है और इस अवसर पर कवि-व्यंग्यकार विष्णु नागर के इस अनूठे संस्मरण से उन्हें याद करता है.

by arun dev
January 15, 2022
in संस्मरण
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अशोक वाजपेयी: विष्णु नागर
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थोड़ा-सा यहाँ भी
विष्णु नागर

अशोक(वाजपेयी) जी की लिखी समीक्षाएँ-टिप्पणियाँ कालेज के दिनों में धर्मयुग, आलोचना आदि में पढ़ा करता था. उनका पहला कविता संग्रह ‘ शहर अब भी संभावना है’ और उनकी पुस्तक ‘फिलहाल’ भी तभी पढ़ ली थीं. तब मैं आकाशवाणी पर रात के समाचार में देवकीनंदन पांडे से अधिक अशोक वाजपेयी की आवाज़ का मुरीद हुआ करता था. मैं समझता था कि ये और कवि-आलोचक अशोक वाजपेयी एक हैं. एक अच्छा प्रसारक, एक अच्छा कवि और आलोचक भी हो सकता है! तब टीवी का जमाना औपचारिक रूप से आ चुका होगा मगर मेरे कस्बे तक इसकी भनक नहीं पहुँची थी. वह एक तरह से रेडियो का युग था तो अगर ‘धर्मयुग’ में इन अशोक जी का चित्र छपता रहा होगा तो भी यह समझना मेरे लिए कठिन था कि ये दोनों अलग-अलग व्यक्ति हैं. खैर ऐसे भ्रम में रहने का कोई  खास नुकसान नहीं था. इतना ही कोई कहता कि तुम्हें इतना भी नहीं मालूम?तब अहम की कद- काठी इतनी मजबूत नहीं हुई थी कि ऐसी टिप्पणी से चोट पहुँचती.

मैं आज ठीक-ठीक नहीं कह सकता कि यह भ्रम शाजापुर के दिनों में ही बाद में दूर हुआ या दिल्ली आकर दूर हुआ. जब मालूम हुआ कि वह आईएएस अफसर हैं तो इसका उस समय मन पर थोड़ा रौब पड़ा. तब कलेक्टर को जिले का मालिक माना जाता था.(अब तो खैर सबका मालिक एक है) अशोक जी भी वैसे ही कोई रौबदार-ठाठदार अफसर होंगे, यह धारणा थी. शक भी था कि क्या आईएस अफसर के लिए कविता तथा आलोचना लिखना संभव रह जाता है? इतना समय होता है उसके पास इसके लिए? इसकी जरूरत भी उन्हें महसूस होती है? बहरहाल अशोक जी, फिर सुदीप(बनर्जी)जी से घनिष्ठता हुई तो यह छवि टूटी. फिर तमाम रौबवालों का रौब जाता रहा. बड़े मीडिया संस्थानों में लंबे समय तक पत्रकारिता करने, संसद की कवरेज करने का एक लाभ यह भी हुआ कि आईएएस ही क्या मंत्री-संत्री और प्रधानमंत्री का रौब भी बेअसर रहा. प्रतिभा, ज्ञान, मेहनत और विनम्रता का ही रौब अब तक गालिब है. बाकी आप जो हैं, हुआ करें, हमारी बला से!

त्रिवेणी संगम के खुले मंच पर पहचान-१ के विमोचन के अवसर पर अशोक जी को पहली बार देखा. शायद सर्वेश्वर जी ले गए थे मुझे वहाँ या जानकारी मिली होगी तो मैं खुद पहुँच गया होऊँगा. किसी साहित्यिक आयोजन को देखने का शायद यह पहला अवसर था. ऐसा याद आता है कि उस समय की कविता की अनेक हस्तियाँ वहाँ मौजूद थीं. मेरे छोटे से कस्बे के आयोजन से यह बिल्कुल अलग था. सादा मगर भव्य. लल्लोचप्पो से दूर.

उसके बाद उनकी स्मृति तब की है,जब अपनी कई कविताएँ अपने शिक्षक दुर्गा प्रसाद झाला के कहने पर उन्हें भेजीं. कोई उम्मीद थी नहीं कि ये पसंद की जाएँगी. फिर भी अशोक जी का कोई जवाब नहीं आया तो उनके दिल्ली आने पर उनसे मिला और  मेरी कविताएँ ‘पहचान’ की चौथी और अंतिम श्रृंखला में छपेंगी, यह उन्होंने बताया. इस पर पहले कभी विस्तार से लिख चुका हूँ. इतना अवश्य कहूँगा कि मैं भी ठीक-ठाक कविता लिख सकता हूँ,यह आत्मविश्वास पहली बार आया क्योंकि उससे पहले मेरी कविताएँ कहीं छुटपुट ढँग से भी नहीं छपी थीं. मेरा विश्वास  काफी डिग चुका था. सोचने लगा था कि साहित्य मेरा क्षेत्र नहीं हो सकता, पत्रकारिता करना मेरी नियति है. इससे कम से कम रोजी-रोटी तो चलेगी! वैसे पहली या बाद की किसी मुलाकात में, जब मैं बेरोजगार था, अशोक जी ने  भोपाल में नौकरी का प्रस्ताव दिया था. तब तक मैं दिल्ली में पत्रकारिता की काफी भाड़ झोंक चुका था तो यह काम छोड़ने का मन नहीं था.

‘पहचान’ में कविताएँ आने के बाद स्वाभाविक है कि अशोक जी से व्यक्तिगत संबंध भी बना और समकालीन कवियों से भी कुछ-कुछ बनने लगा. उन्होंने पहली बार मुझे उत्सव-७६ में काव्य पाठ के लिए भोपाल बुलाया. वे कविताएँ कैसी थीं, कौन सी थीं, अब याद नहीं मगर मध्य प्रदेश कला परिषद के हाल में हुए उस पाठ से मैं प्रोत्साहित हुआ था. एक बार उनसे उनके घर पर भी भेंट हुई. मैंने कालेज के दिनों में ‘फिलहाल’ माँग कर पढ़ चुका था, तो मैं उत्साहित था. उस पर भी कुछ चर्चा की. उसकी प्रति भी उन्होंने मुझे भेंट की. और हाँ प्रसंगवश यह भी बता दूँ कि यह किताब मुझे इतनी महत्वपूर्ण लगी है कि मेरा मानना रहा कि जैसा नामवर सिंह की पुस्तक ‘कविता के नये प्रतिमान’ को पुरस्कृत करने का साहस साहित्य अकादमी ने दिखाया, वैसा ही साहस अकादमी को इस किताब के संदर्भ में दिखाना चाहिए था. दूसरी बात यह कि इसमें शामिल लेख ‘बूढ़ा गिद्ध पंख क्यों फैलाए’ के कारण मेरे लिए यह किताब और भी महत्वपूर्ण हो उठी थी. एक समय मुक्तिबोध और अज्ञेय प्रतिद्वंद्वी के रूप में देखे जाने लगे थे. अज्ञेय की बातों से भी यह ध्वनि निकलती थी, इसलिए उनकी इस जबरदस्त पिटाई ने बहुत आनंदित किया. यह अलग बात है कि इस कारण अज्ञेय जी से अशोक जी की बहुत दूरी बन गई, जो अज्ञेय जी के लगभग अंत-अंत के दिनों में आकर खत्म हुई.

काफी बाद के वर्षों में अशोक जी की एक कविता की मैंने एक पत्रिका में भूरी-भूरी धुनाई की मगर मुझे नहीं लगता, इसका उन्होंने अधिक बुरा माना. शायद ऐसी असहमतियों को सहना वह जान चुके थे. संभवतः अज्ञेय प्रसंग से या अन्यथा उन्होंने असहमति के महत्व को समझा होगा. मुझे याद नहीं आता कि अपनी किसी रचना पर किसी असहमति को लेकर उन्होंने सार्वजनिक रूप से कुछ कहा हो,जो उचित भी है. वैसे हिंदी में इसे लेकर दुश्मनी तक पालने की परंपरा रही है.

1974 में ‘पूर्वग्रह’  पत्रिका का प्रकाशन मध्य प्रदेश कला परिषद ने आरंभ किया. वह भी एक बड़ी पहल थी. इसे लेकर भी विवाद उठा. शरद जोशी और अशोक जी कभी घनिष्ठ मित्र थे मगर इसके प्रकाशन के समय तक इन संबंधों में काफी कटुता आ चुकी थी. उधर धर्मवीर भारती भी अपने कारणों से अशोक जी से कुपित थे. तो ‘पूर्वग्रह’ का प्रकाशन भारती-जी के सहयोग से विवादित हुआ. जोशी जी की यह आपत्ति संभव है कि सैद्धांतिक हो कि सरकार को आलोचनात्मक पत्रिका निकालने का अधिकार नहीं है, जबकि अशोक जी का कहना था कि इस पत्रिका का प्रकाशन मध्य प्रदेश कला परिषद कर रही है, सरकार नहीं. परिषद सरकारी मदद से चलती जरूर है मगर एक स्वायत्त संस्था है. खैर इस विवाद के कारण पत्रिका का प्रकाशन बाधित नहीं हुआ. उस समय के कई प्रतिष्ठित कवियों-आलोचकों ने इसमें लिखा. मुझे याद है कि मलयज जी अपनी निर्भीक टिप्पणियों में अशोक जी की समझ से स्पष्ट रूप से असहमतियाँ प्रकट कीं. कई ने इसे नई कलावादी पत्रिका बताया. उस दौर के अंकों को आज देखें तो साहित्य और कलाओं पर इसमें काफी विचारोत्तेजक तथा महत्वपूर्ण सामग्री छपती रही. इससे समय-समय पर मंगलेश डबराल और उदय प्रकाश संबद्ध रहे. अब यह प्रकाशित हो रही है या नहीं, मुझे पता नहीं. यह जानने की जरूरत भी नहीं. संस्थाओं और पत्रिकाओं का उत्थान- पतन बहुत कुछ उसके संचालकों-संपादकों की समझ  पर निर्भर करता है. अपने छात्र जीवन में ‘सरस्वती’ पत्रिका उस दौरान  एक स्थानीय लाइब्रेरी में दिख जाती थी, जो मुझ जैसी कच्ची समझ के आदमी को भी कचरा लगती थी, जबकि ‘सरस्वती’ का बहुत गौरवशाली इतिहास रहा है,जिससे हिन्दी साहित्य का हर विद्यार्थी कम-अधिक परिचित है.

अशोक जी से मेरे संबंधों में भी उतार-चढ़ाव आते रहे. करीब दस साल तक रिश्ते ठीक चले. एक बार सागर में हुए कविता पाठ में और 1980 में मुक्तिबोध की स्मृति में भोपाल में हुए  भव्य आयोजन में मैं भी बुलाया गया. मुक्तिबोध समारोह में मैंने एक पर्चा पढ़ा. उसी समय मुक्तिबोध  रचनावली का प्रकाशन हुआ था, जो वर्षों से स्थगित होता आ रहा था. मैं अर्जुन सिंह के प्रशंसकों में कभी नहीं रहा मगर एक मुख्यमंत्री का उस अवसर पर कम बोलना, व्यर्थ ज्ञान न बघारना और यह कहना कि आप सबके सामने मैं मुक्तिबोध  पर क्या बोलूँ. किसी नेता का लेखकों को भाषण न पिलाना और सामने उपस्थित लेखकों की अपेक्षा अपने को अज्ञ मानने का जीवन का यह मेरा पहला और अंतिम अनुभव है. वैसे अर्जुन सिंह एक पढ़े-लिखे राजनेता थे, इसकी गवाहियाँ कई लोग देते हैं,स्वयं अशोक जी भी.

मध्य प्रदेश सरकार यानी उस समय विशेष रूप से अशोक जी की पहल पर राज्य सरकार ने राज्य और बाहर के लेखकों की पुस्तकों की 1200 प्रतियों की खरीद की एक बृहत योजना बनाई थी. मैं मूलतः मध्य प्रदेश का हूँ तो औरों के साथ मेरी भी उस समय पूछ  बढ़ चुकी थी. कविता की वापसी के चर्चित-विवादित वर्ष 1980 में मेरा भी पहला कविता संग्रह आया वरना इसके पहले कविताओं का संग्रहाकार प्रकाशन  इतना सुलभ कभी नहीं रहा था. मेरा दुर्भाग्य यह था कि उस प्रकाशक ने हड़बड़ी में उसे बिक्री के लिए छापा और प्रतियाँ कम पड़ने पर दूसरा संस्करण भी जल्दी ही प्रकाशित कर दिया. पहले में करीब तीस बड़ी गलतियाँ थीं,जो दूसरे में बढ़ कर दुगुनी हो गईं. फिर भी उसकी चर्चा हुई,जिसका आवरण जे. स्वामीनाथन जैसे बड़े चित्रकार ने बनाया था. मध्य प्रदेश के और सभी हिंदी लेखकों की थोक पुस्तक खरीद योजना नेक इरादों से शुरू हुई थी,जिसमें लेखक को उसकी पुस्तक खरीद पर दस प्रतिशत रायल्टी लेखक को अग्रिम देने का प्रावधान था. खैर. कई  स्तरों पर खींचातानी आदि के कारण यह योजना अधिक दूर तक नहीं जा सकी मगर फिर भी इसका एक सकारात्मक परिणाम हुआ कि तमाम कवियों के  संग्रहों का प्रकाशन सुगम होता गया. कई नये प्रकाशक उभरे,जिन्होंने अच्छी-बुरी किताबें बाद में खूब छापीं.

मेरे ही नहीं, बहुतों के साथ  अशोक जी के रिश्ते मार्च,1985 में हुए विश्व कविता समारोह के आयोजन के कारण बिगड़े थे. कारण यह था कि भोपाल में 2-3 दिसंबर को हुए गैस हादसे के बाद इसका आयोजन भोपाल में रखा गया था. इसमें प्रेक्षक के रूप में अन्य कवियों के साथ प्रयाग शुक्ल और उस समय के हम कुछ युवा कवियों- असद ज़ैदी, मंगलेश डबराल को भी बुलाया गया था. सामान्य समय होता तो विश्व की कई भाषाओं के कवियों के इस बृहत आयोजन में बुलाया जाना हम अपना सौभाग्य समझते मगर इस हादसे ने सबको इतना विचलित किया था कि इसका व्यापक रूप से विरोध हुआ. कारण शायद यह रहा कि इसके पीछे ‘ उत्सव’ शब्द भी जुड़ा  था. बाद में इस आयोजन को उत्सवधर्मिता न बताने का उपक्रम अशोक जी ने किया मगर वह बेअसर रहा. हाँ अशोक जी ने ‘जनसत्ता’ में तब कार्यरत मंगलेश डबराल और नवभारत टाइम्स में हम कुछ पत्रकार कवियों को अखबारी कर्मचारी संबोधित किया था. बाद में एक साक्षात्कार में उन्होंने अखबारी कर्मचारी  कवियों पर इस टिप्पणी पर खेद-सा जताया था और स्वीकार किया था कि उन्हें भी विरोध का अधिकार था. उनकी मुख्य आपत्ति उनकी बात ‘जनसत्ता’ में न छपने को लेकर थी,जबकि हमारी बात लगातार प्रमुखता पा रही थी.

निश्चित रूप से उस  समय ‘जनसत्ता’ हमारे विरोध का मुख्य मंच थी. आयोजन से पहले ‘जनसत्ता’ में नरेन्द्र कुमार सिंह की एक रिपोर्ट ने आग में घी का काम किया, जिसमें अशोक जी को मुर्दों के साथ कोई मर नहीं जाता, जैसा वाक्य कहते हुए बताया गया था. इसके बाद तो जैसे विरोध का तूफान ही उठ खड़ा हुआ. रघुवीर सहाय और प्रयाग शुक्ल जैसे अशोक जी के अधिक करीबी समझे जानेवाले कवियों और शानी जैसे उनके अधीन कभी काम कर चुके लेखकों ने भी एक वक्तव्य पर हस्ताक्षर किए,जिसे ‘जनसत्ता’ ने बहुत प्रमुखता से छापा. इस पर मंगलेश डबराल, असद ज़ैदी, इब्बार रब्बी आदि के भी दस्तखत थे. बहरहाल तमाम विवादों के बावजूद और अशोक जी की  अनिच्छा और असहमति के बावजूद मुख्य आयोजन दिल्ली में हुआ. कुछ अंश भोपाल में भी हुआ. इस कारण श्रीकांत वर्मा से भी उनका अबोला कुछ समय तक रहा. यानी उस आयोजन ने उन्हें चौतरफ़ा विवादों में घेरा.

बहरहाल यह अशोक जी की खूबी रही है कि तमाम कवियों-लेखकों से-जिन्हें वह किसी गिनती में लेते हैं- उन्होंने खुद आगे बढ़कर, अपने अहम को परे रखकर संबंध सामान्य बनाने की कोशिश की. जब वह भोपाल में थे और उनसे अधबन थी तो दिल्ली में अगले दिन के किसी आयोजन में मुझसे आने का आग्रह किया. मैंने हाँ कर दिया मगर उस कार्यक्रम में मेरी रुचि नहीं थी. शायद इसका उन्हें बुरा लगा. लॉकडाउन से पहले रज़ा फाउंडेशन दिल्ली में अनेक साहित्यिक और इतर कलाओं से संबंधित आयोजन करती रही. सबमें जाना संभव भी नहीं होता,किसी के लिए भी मगर वह किसी के आने, न आने को लेकर अब बुरा-भला मानना छोड़ चुके हैं.

आई.ए.एस. होने का उन्हें अगर कोई व्यक्तिगत वास्तविक लाभ हुआ है तो वह यह है कि उनका इस कारण हमारे समय के सचमुच बड़े व्यक्तित्वों से अंतरंग रिश्ता रहा. उनसे भी उन्होंने काफी सीखा-जाना इसकी गवाह उनके संस्मरणों की पुस्तक ‘अगले वक्तों के हैं ये लोग’ है. इनमें मल्लिकार्जुन मंसूर, कुमार गंधर्व, सैयद हैदर रज़ा, हबीब तनवीर, जे. स्वामीनाथन आदि पर संस्मरण हैं. लेखक कवि तो उनकी अपनी बिरादरी के थे और हैं ही. वे भी हैं-अज्ञेय, मुक्तिबोध, निर्मल वर्मा आदि.

रघुवीर सहाय की जीवनी लिखने का आग्रह उन्होंने मुझसे किया,जो काम करके मुझे खुशी हुई. कभी कल्पना नहीं की थी कि कभी किसी की जीवनी मैं लिखूँगा. रघुवीर जी से व्यक्तिगत संबंधों के कारण और उनके बड़े साहित्यिक तथा पत्रकार व्यक्तित्व की वजह से यह अच्छा लगा कि यह काम, जैसा भी संभव हुआ, मैं अपनी पूरी ऊर्जा से किया.

उन्होंने  मध्य प्रदेश में और अन्यत्र कई संस्थाएँ खड़ी कीं. उनके समय में ये संस्थाएँ सक्रिय भी रहीं और विभिन्न कारणों से विवादों में घिरी भी रहीं मगर उनके बाद तो उनका विनाश ही होता गया. वे किसी विवाद के काबिल नहीं रहीं. आज भारत भवन या मध्य प्रदेश कला परिषद या प्रदेश की साहित्य अकादमी में क्या हो रहा है,इसकी खबर रखना भी अब जरूरी नहीं लगता. उनके किस पद को कौन सुशोभित है, यह भी अब अप्रासंगिक  है. भाजपा के शासनकाल में तो अशोक जी के शब्दों में कई  ‘अज्ञात कुलशील’ वहाँ बैठे हैं, जिनमें से अनेक का साहित्य और कलाओं की दुनिया से कोई लेनादेना नहीं है.

अशोक जी और मेरा घर पूर्वी दिल्ली में है. उनके साथ उनकी कार से घर लौटते हुए एक बार इस उम्र में भी अपनी ही आयु के अनेक साहित्यिकों की तुलना में उनके बेहतर स्वास्थ्य और निरंतर सक्रियता का रहस्य पूछा था. उन्होंने बताया था कि मन का काम करते जाना और  सुबह  की लंबी सैर इसका रहस्य है और कुछ नहीं. यह सिलसिला बना रहे और हमारे समय का यह बड़ा सांस्कृतिक व्यक्तित्व अस्सी के पार ही नहीं और आगे भी इसी प्रकार चलता रहे,यह शुभकामना. तमाम विरोधों-असमतियों के बावजूद उन जैसा दूसरा सभी कलानुशासनों में गति, रुचि रखनेवाला सक्रिय सांस्कृतिक व्यक्तित्व हमारे पास दूसरा नहीं. उनमें एक अजीब सेंस ऑफ ह्यूमर है.

और हाँ हमारी- आपकी तरह अशोक जी भी कोई देव पुरुष नहीं होंगे और किसी को होना भी नहीं चाहिए. वैसे मेरी उनसे जितनी निकटता है, उतनी ही दूरी भी है. उन्हें जितना अपने अनुभवों से जानता हूँ,उतना ही लिखा है. जो सुनने को अच्छा-बुरा मिला, उसे न शामिल करना चाहिए, न किया है. जो लिखा है, उसमें आपको वह अशोक वाजपेयी कितने दिखते हैं,जिन्हें आप जानते हैं, मुझे नहीं मालूम.

 

विष्णु नागर
जन्म: 14 जून, 1950,शाजापुर (मध्य प्रदेश)
नवभारत टाइम्स, दैनिक हिंदुस्तान, कादंबिनी, नईदुनिया, और ‘शुक्रवार’ समाचार साप्ताहिक से जुड़ाव. 1982 से 1984 तक जर्मन रेडियो ‘डोयचे वैले’ की हिंदी सेवा में भी रहे.

प्रकाशन:
कहानी संग्रह– आज का दिन, आदमी की मुश्किल, कुछ दूर, ईश्वर की कहानियाँ, आख्यान, बच्चा और गेंद, रात-दिन, पापा मैं ग़रीब बनूँगा. आदि
कविता संग्रह- मैं फिर कहता हूँ चिड़िया, तालाब में डूबी छह लड़कियाँ, संसार बदल जाएगा, बच्चे,पिता और माँ,  कुछ चीज़ें कभी खोई नहीं, हँसने की तरह रोना, घर के बाहर घर, जीवन भी कविता हो सकता है. आदि
व्यंग्य संग्रह– जीव-जंतु पुराण, घोड़ा और घास, नई जनता आ चुकी है, देश सेवा का धंधा, राष्ट्रीय नाक,छोटा सा ब्रेक,  भारत एक बाज़ार है,  ईश्वर भी परेशान है, सदी का सबसे बड़ा ड्रामेबाज उपन्यास– आदमी स्वर्ग में.
आलोचना– कविता के साथ-साथ.
जीवनी- असहमति में उठा एक हाथ: रघुवीर सहाय की जीवनी. आदि
vishnunagar1950@gmail.com

Tags: 20222022 संस्मरणअशोक वाजपेयीविष्णु नागर
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Comments 16

  1. बजरंगबिहारी says:
    3 years ago

    पठनीय, अर्थपूर्ण संस्मरण।
    विष्णु नागर के साफ-सुथरे गद्य को पढ़ना अच्छा लगता है जैसे अशोक वाजपेयी के सुगठित, चिंतनशील गद्य को बार-बार पढ़ने का मन करता है।
    अशोक वाजपेयी जी को जन्मदिन की अशेष मंगलकामनाएं।
    जनसत्ता में उनका कॉलम कभी-कभार पढ़कर हम विश्व साहित्य से परिचित होते रहे हैं।
    यह कॉलम क्यों बंद हुआ, पता न चला।

    Reply
  2. दया शंकर शरण says:
    3 years ago

    हिन्दी साहित्य में अज्ञेय के बाद अशोक वाजपेयी सर्वाधिक विवादास्पद( चर्चित एवं आरोपित) रहे हैं।उनके जितने प्रशंसक रहे उससे कहीं ज्यादा निंदक।साहित्यक बहसों के केंद्र में ‘अज्ञेय बनाम मुक्तिबोध’ को रखकर काफी कुछ लिखा जाता रहा । इन सबके बावजूद हिन्दी साहित्य में इनके महत्व और अवदान को नकारा नहीं जा सकता। विष्णु जी के संस्मरण काफी रोचक हैं। अशोक जी को जन्मदिन की हार्दिक शुभकामनाएँ एवं बधाई !

    Reply
  3. तेजी ग्रोवर says:
    3 years ago

    जन्मदिन पर ऐसे ही किसी को याद किया जाना चाहिए। कितना कठिन काम रहा होगा न यह? और कितना आह्लादित करने वाला भी।

    हम में से बहुतों के पास अपने अपने अशोक वाजपेयी हैं। और यह निधि इतनी बहुमूल्य है, कभी कभी विश्वास नहीं होता…

    Reply
  4. मिथलेश+शरण+चौबे says:
    3 years ago

    सुन्दर लिखा है आपने विष्णु जी।

    Reply
  5. Anonymous says:
    3 years ago

    विष्णु नागर जी के गय की विशेषता है कि वह अपनी स्वाभाविक व्यंग्य नहीं छोड़ती। अशोक वाजपेयी जी के व्यक्तित्व पर यह एक बेहतरीन टिप्पणी मानी जा सकती है। अशोक जी पर बहुत अच्छा भी लिखा गया, और उनकी आलोचना भी की गई। मगर वे हमेशा लोगों के साथ रहे। अकेले रहकर उन्होंनेे कोई काम नहीं किया। सबको साथ लेकर चले।
    आज वे जनतांत्रिक मूल्यों के साथ हैं। प्रतिरोध की भाषा बोलते हैं। इस लिए , विष्णु नागर जी का उन पर यह लेख महत्त्वपूर्ण है।
    बधाई।

    Reply
  6. premkumar mani says:
    3 years ago

    बहुत सुन्दर . पठनीय आलेख .

    Reply
  7. Yogendra Krishna says:
    3 years ago

    बहुत परिपक्व और संतुलित टिप्पणी है यह जो एक कालखंड को पूरे संयम के साथ उद्घाटित करती है।

    अगर आप विष्णु नागर को पढ़ रहे हैं। और जिस विधा में भी पढ़ रहे हों, संस्मरण ही क्यों नहीं, आप उनके व्यंग्य की महीन धार से नहीं बच सकते। जगह-जगह यह आपको बात-बात में, पूरी सहजता से अपने समय का, और खुद आपका भी विद्रूप चेहरा दिखा जाती है।

    इस संस्मरण से आपके लिए कुछ बानगी उठा लाया हूं―

    “तब अहम की कद- काठी इतनी मजबूत नहीं हुई थी कि ऐसी टिप्पणी से चोट पहुँचती.”

    “तब कलेक्टर को जिले का मालिक माना जाता था. (अब तो खैर सबका मालिक एक है).”

    “अपने छात्र जीवन में ‘सरस्वती’ पत्रिका उस दौरान एक स्थानीय लाइब्रेरी में दिख जाती थी, जो मुझ जैसी कच्ची समझ के आदमी को भी कचरा लगती थी…”

    “किसी नेता का लेखकों को भाषण न पिलाना और सामने उपस्थित लेखकों की अपेक्षा अपने को अज्ञ मानने का जीवन का यह मेरा पहला और अंतिम अनुभव है.” (अर्जुन सिंह के संदर्भ में)

    Reply
  8. सूर्य नारायण says:
    3 years ago

    संतुलित और सार्थक टिप्पणी है। अशोक जी को हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ !

    Reply
  9. Vijay Kumar says:
    3 years ago

    बहुत सुंदर लिखा है आपने। यहां अंग्रेज़ी, मराठी, गुजराती, उर्दू आदि भाषाओं के बहुत सारे मान्य लेखकों के बीच हमने देखा कि अशोक जी को कितने सम्मान के साथ याद किया जाता है। वे सदा स्वस्थ और सक्रिय रहें।जन्मदिन पर हार्दिक शुभकामनाएं

    Reply
  10. डॉ. भूपेंद्र बिष्ट says:
    3 years ago

    इसमें कोई संदेह नहीं कि प्रगतिवाद, प्रयोगवाद, साठोत्तरी, छंद मुक्त, अ-कविता और नई कविता के बाद के दौर की हिंदी काव्य धारा वाली राह के मील के पत्थर हम दर्ज़ करने लगें तो अज्ञेय के बाद अशोक वाजपेयी दूसरे पत्थर की मानिंद ठहरते हैं और उनकी रचनात्मकता का परास इतना व्यापक कि फिर तीसरे माइलस्टोन का ठीक ठीक निर्धारण हो ही नहीं पाता.

    हिंदी में मेरे शोध का विषय जीवन मूल्यों पर ही रहा. इस क्रम में गोविंदचंद्र पाण्डे की निष्पति कि मूल्य – मीमांसा का ऐतिहासिक विकास मूल्य – बोध के केवल सहज रूप पर आधारित न होकर उसके सामाजिक और सांस्कृतिक रूपों की पृष्ठभूमि में संपन्न हुआ है, की व्याख्या का अग्रशेष मुझे बहुवचन ( म गां अ हिं वि वि की पत्रिका : अप्रैल – जून ‘2000 ) के आरंभिक ( संपादकीय ) में मिला कि साहित्य मूल्यों का कोई अरण्य नहीं है. वह एक ऐसी जगह है जो सब कुछ के बीच में है : बस्तियों, चौक बाज़ार के बिल्कुल पास. वह अपसरण नहीं, हिस्सेदारी है, वह पलायन नहीं, जिम्मेदारी है. वह एकांत साधना है और संग साथ भी.
    इसीलिए लगता है कि वाजपेयी जी की सक्रियता और सब कुछ होने में एक इतरेतर संगति है .

    पदाघात से / खिलता है अशोक का फूल / बिखरते हैं रंग / होती है सुबह / पृथ्वी मनाती है मोद / पदाघात से !
    ( “घास में दुबका आकाश” संग्रह में )

    Reply
  11. डॉ. भूपेंद्र बिष्ट says:
    3 years ago

    इसमें कोई संदेह नहीं कि प्रगतिवाद, प्रयोगवाद, साठोत्तरी, छंद मुक्त, अ-कविता और नई कविता के बाद के दौर की हिंदी काव्य धारा वाली राह के मील के पत्थर हम दर्ज़ करने लगें तो अज्ञेय के बाद अशोक वाजपेयी दूसरे पत्थर की मानिंद ठहरते हैं और उनकी रचनात्मकता का परास इतना व्यापक कि फिर तीसरे माइलस्टोन का ठीक ठीक निर्धारण हो ही नहीं पाता.

    हिंदी में मेरे शोध का विषय जीवन मूल्यों पर ही रहा. इस क्रम में गोविंदचंद्र पाण्डे की निष्पति कि मूल्य – मीमांसा का ऐतिहासिक विकास मूल्य – बोध के केवल सहज रूप पर आधारित न होकर उसके सामाजिक और सांस्कृतिक रूपों की पृष्ठभूमि में संपन्न हुआ है, की व्याख्या का अग्रशेष मुझे बहुवचन ( म गां अ हिं वि वि की पत्रिका : अप्रैल – जून ‘2000 ) के आरंभिक ( संपादकीय ) में मिला कि साहित्य मूल्यों का कोई अरण्य नहीं है. वह एक ऐसी जगह है जो सब कुछ के बीच में है : बस्तियों, चौक बाज़ार के बिल्कुल पास. वह अपसरण नहीं, हिस्सेदारी है, वह पलायन नहीं, जिम्मेदारी है. वह एकांत साधना है और संग साथ भी.
    इसीलिए लगता है कि वाजपेयी जी की सक्रियता और सब कुछ होने में एक इतरेतर संगति है .

    पदाघात से / खिलता है अशोक का फूल / बिखरते हैं रंग / होती है सुबह / पृथ्वी मनाती है मोद / पदाघात से !
    ( “घास में दुबका आकाश” संग्रह में )

    Reply
  12. ईश्वर सिंह दोस्त says:
    3 years ago

    सुंदर आलेख। अशोक जी समादृत कवि व आलोचक होने के अलावा हमारे समय की एक बड़ी सांस्कृतिक उपस्थिति भी हैं। जाहिर है कि उनकी तस्वीर किसी एक कोण से पूरी नही हो सकती। आपने आत्मीयता व बेबाकी के साथ उन पर लिखा है। अशोक जी स्वयं बहुवचनीयता के हामी हैं। उनकी निरंतर सक्रियता हिंदी साहित्य व संस्कृति के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है। उनके बनाए प्रतिमान लंबे समय तक दिशासूचक बने रहेंगे।

    Reply
  13. M P Haridev says:
    3 years ago

    पुराने समय की मर्मस्पर्शी यादें

    Reply
  14. M P Haridev says:
    3 years ago

    विष्णु नागर की पुरानी यादें ।

    Reply
  15. रामदेव सिंह says:
    3 years ago

    बहुत सुन्दर ढंग से विष्णु नागर जी ने अशोक जी को याद किया है. जिन कवियों की कविताएँ मैं पसन्द करता हूँ उनमें अशोक बाजपेयी भी हैं . उनकी एक कविता ‘ थोड़ा सा ‘ तो वर्षों तक मेरे कमरे की दीवार पर कविता पोस्टर के रुप टंगा रहा. मैं प्रायः ही उसे पढ़ता, इसलिए कि वह मेरे व्यक्तित्व का स्थायी भाव रहा है.

    Reply
  16. रवि रंजन says:
    3 years ago

    इस रोचक संस्मरण और पठनीय गद्य के लिए विष्णु नागर को धन्यवाद और अशोक जी को जन्मदिन की मंगलकामनाएं।

    Reply

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