लम्बी कविता
रंगों की बू: डाली बुनुवेल
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बारिश इतनी हुई
दीवार पर पानी बहने लगा
तुम नहा लो- लुई बुनुवेल ने कहा,
तुम्हारी चमड़ी से रंगों की बू आ रही है
यह तब की बात है
जब सल्वादोर डाली और लुई बुनुवेल
एक दिन के लिए हिन्दुस्तान में पैदा हुए थे
उन्होंने काफी सोचकर
बंबई शहर को चुना था,
पैदा होने के बाद उन्हें पता चला
वह बनारस था
जिसने सर्दियों के साथ शहर को ओढ़ लिया था;
सदियों के साथ ?
नहीं! सर्दियों के साथ
तुम चाहो तो इसमें थोड़ी धूप मिला लो
यह एक प्रयोग है
यह तब की बात है जब मैं बुनुवेल की
‘उन शिएन अन्दालाऊ’
देख चुका था
’नाजारिन’ बनारस में उपलब्ध नहीं थी
बुनुवेल भी बनारस में पैदा होने के चलते
भूल गया था
डाली बुनुवेल से उसके घर
मिलने के लिए आया
‘आओ मित्र!’ लुई बुनुवेल ने कहा और संस्कृत में एक श्लोक पढ़ा
बंबई में रहने के चलते श्लोक मुझे याद नहीं रहा
बनारस में होने के चलते
मैं भावार्थ गुनगुनाने लगा:
पत्तियां मुझे बचायेंगी
हवा मुझे बचाएगी
चाहे जितना भी इन्हें मारो
मिटकर भी मुझे बचायेंगी …
बम किसे बचाएगा?
२.
मुझे परीक्षण करने दो!
किसका ?
कुएँ का…
अपने कुएँ से ताजा जल निकालकर
लुई बुनुवेल ने सल्वादोर डाली को दिया
पीतल के लोटे को डाली ने
पृथ्वी की तरह दोनों हथेलियों में थाम लिया
पानी ठंढा और नमकीन था
डाली ने उसमें काला रंग घोल दिया
गलगला कर ढेर सारा काला पानी दीवार पर थूक दिया
दीवार पर पानी बहने लगा
तुम नहा लो- लुई बुनुवेल ने कहा, तुम्हारी त्वचा से रंगों की बू आ रही है
दीवार पर एक पिंजरे की तस्वीर बन गई
जिसमें एक नंगा आदमी बैठा था
जिसने हरे रंग के कपड़े पहन रक्खे थे
यह कौन है- डाली ने पूछा
यह कवि है जिसे तुमने देखने से इनकार कर दिया था
यह कौन है; निराला जैसा दिखता है
यह निराला ही है जो सूर्यकांत त्रिपाठी जैसा दिखता है
क्या आजकल निराला मिल जाते हैं?
नकली कम्पनियां नकली माल बनाती हैं
असली कम्पनियां उनकी नकल करती हैं
सुना है लखनऊ में किसी के पास असली निराला है
जिसकी एक प्रतिकृति लैटिन अमेरिका में मार्क्वेज के ड्राईंग रूम में
योगवासिष्ठ का अनुवाद पढ़ रही है
३.
इसे क्यों रक्खा है?
तुम्हारे घर में एक पहाड़ी तोता है
वही न, जिसके पंख नीले हैं
जो पहले लाल थे
अब गुलाबी हो गए
जो बोलता है
जिसके पंखों पर तुमने अपना पहला प्रेम पत्र लिखा
जो टूटकर गिर गया था
जिसे एक पेड़ ने चुरा लिया था
जिसके लिए जंगलों को काटा जा रहा है
फिर भी तुम्हारा पत्र पहुँच गया था क्योंकि तुम्हारा तोता बोलता है
कवि बोलता है- डाली ने पूछा
कवि गाता है
कैसे?
पहले उसे पुचकारो
न माने तो झाड़ू की सींक से खोदो
जैसा खोदोगे वैसी कविता सुनाएगा
बेर खाता है?
हाँ, चाव से!
मेरे पास कुछ बेर हैं
जिनके बीज विषैले हो गए हैं
लेकिन गूदा मजेदार है
उसे खिला दो
उसे कब्जियत की शिकायत है
४.
तुमने समाचार पढ़ा- डाली ने पूछा?
कब्र से निकलते ही मैंने सारी दुनिया के सभी अख़बार खरीदकर
दुर्घटनाओं की सारी ख़बरें पढ़ डालीं
हर इंसान से साजिश की बू आती है
अंगुलियों से टपकते लहू में रंग मिला दीवारों पर घोड़े बनाते
मिया हुसैन की दाढ़ी रंग गई है …
उनसे भी बू आती है, सरस्वती की- डाली ने कहा
तुम्हारे घर के पीछे की अंधी गली में एक अनाम फूल खिल गया है,
मैंने कच्ची दीवारों की टूटन से झांककर उसे देखा
यह अच्छी ख़बर है जो किसी भी अख़बार में नहीं थी
अख़बार सारी दुनिया में दुर्घटनाओं की ख़बरें पहुंचा देते हैं
इसलिए मैं अख़बार नहीं पढ़ता था महीनों
और एक दिन सारे अख़बार मुझपर टूट पड़ते थे
हर दस साल में कब्र से बाहर आकर
मैं सारी दुनिया के अख़बार पढ़ना चाहूंगा…
मैंने तब सोचा था

५.
तुम एक दिन
मेरे एक दिन के घर में आओ- डाली ने कहा
तुम्हारा गेस्ट हाउस चल रहा है– बुनुवेल ने पूछा
हाँ, आधे मकान में
मैंने गेस्ट हाउस बना दिया है …
यह वही मकान है न जिसमें रामकृष्ण परमहंस ठहरे थे
तब एक जमींदार का था
जिसने वारेन हेस्टिंग्स को चूहे की तरह
निकल भागने में मदद की थी
उसके घर में एक सुरंग थी जो गंगा के पार जाती थी
सुरंग अब भी है
जिसमें परमहंस ध्यानमग्न बैठे हैं
मुझे हिन्दुस्तान की धार्मिक गूढ़ता से डर लगता है
फिर भी मैं परमहंस पर फिल्म जरूर बनाता
सुरंग से शराब की तस्करी होती है
जाने दो ये बीती बातें
तुम मेरे घर आओ
मैं तुम्हारे गेस्ट हाउस के रुम नंबर चार में डेरा डालूँगा
गाला को याद करूँगा
वह मेरा प्रेम थी
तुम्हारी मॉडल बन गई
बरसों बाद
मैंने ख़्वाब में उसका एक चुम्बन लिया
जागने के बाद
उसकी ख़ुशबू मेरे आसपास फैली रही
सपने और सचाई में से कौन सच
गाला या स्वप्न चुम्बन !
फिर भी उसने तुम्हें रुपए की
गोली बना दिया
गाला गोली दासी
उदासी …
बाज़ार ने तुम्हारे विचारों की
सीमा तय कर दी
६.
श्मशान घाट और शिवालय के बीच
मुझे मिला है
मेरा एक दिन का मकान
जिसके आधे हिस्से को मैंने परमहंस को
किराए पर दे दिया है
जहाँ उनकी खड़ाऊं पूजित है
जिसपर चढ़े हुए चढ़ावे पर
चींटें चढ़े हुए हैं
जिन्हें मैं औरत की नाभि के पास
छोड़ आता हूँ
गालों का शृंगार
छोटी लाल चींटियों से करता हूँ
सारे स्केच
माँ शारदा को दिखाता हूँ
वे खुली आँखों से ध्यानमग्न हैं
वे देख सकती हैं
भीतर और बाहर एक साथ
मैं शाम को आऊँगा
रूम नंबर चार खाली रखना
चार ही क्यों?
क्योंकि हम चार होंगे
चार कौन
मैं तुम यह और वह
वह
जो मुक्तिबोध को सुनाई देता था
मगर दिखाई नहीं देता था
वह भी यहाँ है
जो कल वहाँ रहेगा
जो सुनाई नहीं दे रहा है
इसीलिए दिखाई नहीं दे रहा है
यह कौन है
तुम नहीं जानते तो संपादक को बुला लेंगे
यह सही रहेगा
मैं उससे एक सवाल पूछूंगा
जो उसने मुझे पूछने के लिए कहा है
तब वह एक जवाब देगा
जो मैंने उसे बताया है
जिसे हमने यूनिवर्सल बुक शॉप में
संपादक की किताब में देखा है
सवाल तुम्हें याद है?
जवाब सही था
बौद्धिकता एक संक्रामक बीमारी है
जो फैलती ही जाती है…वगैरह
जीते जी मैं कभी भारत नहीं आया
मुझे डर था कि यहाँ की पुरातनता
मुझे पुराना कर देगी
छोड़ो ये बातें
तुम मेरे घर आओ
और ये बताओ
चौथा कौन है ?
चौथा कवि होगा
हमलोग उसका पिंजरा खिड़की पर लटका देंगे
कवि गंगा पर गीत चहचहाएगा
उसके लिए मिर्ची रख लेना
चलो मेरा खंडहर देख लो- डाली ने कहा
७.
तुम्हारे घर के रास्ते में
मैं नींद से जाग गया
मैंने बोर्खेज की एक कहानी पढ़ी
जिसमें वह सपने में तितली बनकर उड़ रहा था
जागने के बाद उसने सोचा
कहीं वह तितली तो नहीं
जिसने आदमी होने का सपना देखा है
मुझे हकीकत सपना
और सपना सच लगता है
दरअसल दोनों ही सत्य हैं
और सिनेमा का उद्देश्य है सच
भारत के सत्यजीत राय ने कहा था कभी …
अँधेरे में तुम्हारी आकृति
एक मुद्रा बनाती है
ये तुम्हारी नज़र है
जो अँधेरे में आकृति गढ़ लेती है
मैं आ रहा हूँ
तुम चलकर अपना तहखाना खोलो
वहाँ अँधेरा है
मुझे थोड़ा अँधेरा दे दो
तुम सारा ले लो
मैं अपनी फिल्मों में रोशनी को
अँधेरे की लाइट में शूट करूंगा
मुझे थोड़ी रोशनी दे दो
कवि रोशनी के गीत गायेगा
कवि के कपड़े पर नीले धब्बे हैं
जो पहले लाल थे
कवि ने गली में पान थूक दिया था
गली ने कवि पर थूका था
कई बार थूका था
सभी मोहल्ले थूकने लगे थे
कवि की पीक के छींटे एक सफेद कफ़न पर पड़े थे
जिसके लिए एक लाश की तलाश थी
फिर सबकुछ शांत हो गया
कवि ने
करुणा में हास्य मिलाकर कुछ गाया
करुणा को हास्य की गोंद से जोड़ा
जो बनारस की सभी सड़कों को लाल पीली रंगती
पान की पीक से बना था
मगर यह महज सपना है
८.
कवि सो रहा है
कवि कितना मासूम दिख रहा है
यह दाग पहले नीला था
अब लाल है
साँवला हो रहा है
काला हो जाएगा
फिर हरा
कवि गा रहा है
हरे हरे खेतों में हरे हरे साँप थे
साँप क्या थे
साँप के भी बाप थे
साँप नहीं जुगनू थे
अगनू थे मगनू थे पौधों की आँखें थे
आँखों से याद आया
आँखों पर चश्मा चढ़ाए प्रेमचंद मिले
दिखे यूनिवर्सल बुक शॉप में
संपादक की किताब के पास से अपनी किताब
उठाकर दूर रखते हुए
मानसरोवर को क्रम से सजाते हुए
प्रेमचंद बूढ़े हो गए हैं
वे टीवी में नौकरी खोज रहे हैं
वे अपना कंसल्ट बेचना चाहते हैं
जिसका कोई खरीदार नहीं है
रहम कर उनकी कहानियों को रख लिया जाता है
प्रेमचंद पेट के बल टीवी स्क्रीन पर
सरक कर जादू दिखाते हैं
यह शहर का
इंटलेक्चुअल का इन्टरटेनमेंट है
इसका कबाब
खासतौर से कीमा कबाब ज्यादा स्वादिष्ट होता है
यह प्रेमचंद हैं ?
यह प्रेमचंद ही हैं
जिन्होंने उन्नीस सौ बाईस में
‘मिल मजदूर’ नामक फिल्म लिखी थी
और मालिकों को नाराज कर दिया था
फिल्म में प्रेमचंद ने धूर्त सरपंच की भूमिका
निभाई थी
इस धूर्तता के आरोप में उन्हें आसानी से
गिरफ्तार कर लिया गया था
पिछले पचास साल तुम क्या करते रहे?
कवि को खरीदता रहा
इसकी किस बात से प्रभावित हुए?
इसके कुरते से जो इसके नखनों तक लंबा था
जिसपर दाग हरा हो गया था
इसका कुर्ता इसके कद से बड़ा था
इसका लिंग इसके कुरते से भी बड़ा था
जो धरती पर घिसटता रहता था– डाली बोल गया
९.
तुम्हें लोर्का याद है?
वह एक कवि की मौत मरा था
जिसे मरने के बाद तुमने शब्दों से मारा था
तभी लोर्का मेरे लहू में जी उठा था
वह इसलिए मारा गया क्योंकि कवि था
वह आनंदी जीव था, कामी नहीं,
हालांकि एक मनुष्य की तरह ही
इस आदिम अभिलाषा से अस्पर्शित नहीं था
एक शायर को मारने का
घटिया और कायर तरीका था
हमलोग कवि में उलझ गए
कवि ही तो हैं उलझे को सुलझाने में
दरअसल संसद में
एक और बम फटने वाला था
जैसे हवा बदल जाती है
बम फटने के बाद
बम्बई ही क्यों
यूनिवर्स है निशाने पर
चाँद पर चींटे रेंग रहे हैं
विचारों की तरह

१०.
उस बम ब्लास्ट में कितने विचार मरे थे?
उस मंडी में ढेर सारे विचार थोक
और खुदरा
सामान खरीदने आते हैं
वहाँ इतनी भीड़ रहती है कि एक वर्ग फुट में
दस विचार खड़े होते हैं
फिर भी शासन सत्ता का कहना है
सिर्फ दस विचार हताहत हुए
नेशनल न्यूज में दस विचारों के मरने
कुछ के घायल होने और
कुछ के लापता होने की खबर थी
एक अन्य न्यूज चैनल
अलग आँकड़ा रख रहा था
बारह मरे, आठ अपंग, सत्रह घायल…
उस मंडी में तीस हजार दुकानें हैं
हर दुकान में एक मालिक और
एक नौकर विचार भी रहता हो तो साठ हजार
केवल दुकानदार विचार थे
फिर भी प्रशासन का कहना है कि …
बम इतना ताकतवर था कि
दो हजार वर्गफुट के दायरे में
सबकुछ को धूल और धुएँ में बदल दिया
तो क्या उस दिन
मंडी में सिर्फ दस विचार थे?
ज्योतिषियों का कहना है –
यह महज संयोग था
क्योंकि बाकी विचारों की जिंदगी बाकी थी
पुलिस रिकार्ड में सिर्फ दस विचारों की मौत और
बाकी के घायल होने की सूचना दर्ज हुई
दो हजार साल बाद
सिर्फ पुलिस फ़ाइल मिली तो क्या होगा?
इस बात पर शोधकर्ता कैसे प्रतिक्रिया करेंगे?
क्या परग्रहियों ने
सिर्फ दस लोगों को लक्ष्य किया
या अविकसित तकनीक के चलते
वे आँकडा दर्ज नहीं कर पाए?
विचारों की जमघट थी
विचार चेहरे पहनकर आए थे
चेहरे खुबसूरत थे और बदसूरत भी
जवान थे और बूढ़े
एक साधारण चेहरे की सिर्फ़ छवि मिली
छवि में दो सपनाई आँखें थीं
दोनों आँखों में एक एक सपना थे
यह हर्ष का कालखंड था
गंगा तट
एक भूखंड पर विशाल गुरुकुल था
बहत्तर हजार छात्र थे
जिन्हें उपाधि नहीं दी जा रही थी
दर्शन, कर्मकांड, ज्योतिष, वास्तु-विज्ञान
अर्थकरी विद्यायें थीं
शिक्षा तब भी व्यावसायिक थी
गुरुकुल लूट लिया गया
दूसरी आँख में
टाइम्स ऑफ़ इण्डिया का फ्रंट पेज था
जहाँ एक विचार की तस्वीर छपी थी
जिसके नीचे के कॉलम में
‘प्रकृति को बचाओ’ नामक फ़िल्म को
पुरस्कृत किए जाने की खबर थी
फ़िल्म में एक बंदूक थी
जिसकी नाल पर
अनाज की बालियाँ लटकी थीं
जिसे एक चिड़िया चुग रही थी
अजीब बात है कि गोली
चिड़िया के बच्चों को लगी थी
जो भविष्य में पैदा होकर घायल हुए थे
मगर वह बम
वर्तमान में फूटा था
जिससे अतीत की अस्थियाँ
राख हो गईं
११.
रूम नंबर चार की खिड़की से
गंगा, रेत और आमों के वन दिख रहे थे
देहरी पर किसी का ॐ छूट गया है
यह उसका ॐ है उसके जैसा
लाल और हरी रेखाओं में
सफेदी की हल्की लकीर से बना
लाल हरा सफेद
मेरा ॐ थोड़ा और अलंकृत होता
ॐ की नोकें थोड़ी कमनीयता से मुड़तीं
ओंकार झंकृत होता
आयेगा कोई तो यह ॐ वापस ले जाने
यात्राओं में सामान छूट जाना
एक आम बात है
कभी सामान तो हम भरपूर ले लेते हैं
और हम ही छूट जाते हैं
बरस-बरस के चक्कर के बाद
लौटते हैं अपनी तलाश में
हम बदल गए हैं;
हम दूसरे के चेहरे को
अपनी हथेलियों में भर लेते हैं
कभी हम तो चले जाते है
लेकिन शहर छूट जाते हैं
सदियों के चक्कर के बाद लौटते हैं शहर
हम इस शहर में
अपने उस शहर को खोज रहे हैं
जिसकी पहचान खो गई है
जो हमारी स्मृति में दफन है
तुम हिन्दू हो गए हो
डाली ने कहा
वे जो सिंधु तट पर बसे थे
वे उधर हैं
इधर गंगू हैं, जमनू हैं, सोनू हैं, रेवा हैं…
तुम गंगू हो गए हो
डाली ने कहा
हाँ, लेकिन गंगा चंगी नहीं है
नंगी फैक्ट्रियां, नंगे नाले, नंगे लोग
सब मूत्र विष्ठा वपन कर रहे हैं…
जिसमें सब तर्पण कर रहे हैं
१२.
रामनगर किले में एक संग्रहालय है
और सारनाथ के खंडहरों में एक सभागार
जहां बहस चल रही है;
संग्रहालय को कैसे अप टू डेट किया जाए
सभागार की सभी खिड़कियाँ बंद हैं
एसी चालू है
ज्ञान दीप जल चुका है
जिसके धुएँ से
उजबुजा रहे हैं बुद्धिजीवी
बेचैन कर रही है संक्रामक बीमारी
बाहर कर ज्ञान दीप
बहस छिड़ी:
संग्रहालय को समृद्ध बनाने के लिए
जरूरी है
संग्रह लायक सामान बनाना-
पहले यमुना
तब गंगा
और अब हिमालय…
लहुराबीर पर
नौटंकी में अलग अलग बज रहे हैं
हारमोनियम, नगाड़ा, पिस्टीन और गला
हवा में तैर रहे हैं रानें, जांघें, नाभि
गाल और चुत्तर
संग्रह कर रहे हैं दर्शक
अपने अपने मन में
डिजाइनर अंग-प्रत्यंग
१३.
तुमने मन से निकलती देह की बू को
सिल्वर स्क्रीन पर चित्रित किया
डाली ने कहा
लेकिन लोग तो उसे
रंगों की बू
कहते हैं
तुमने औरत के चेहरे को
पुरुष के मन में घोलकर
लिप्सटिक से आड़े तिरछे काट दिया
देखो न! लहू टपक रहा है
मन कोमल होता है
गंगा कोमल है
हम उसे रेत पर से छान लेंगे
कछुओं को भी छान लेंगे
संग्रहालय में रख देंगे
अच्छे से गद्दे पर लिटा देंगे गंगा, कछुओं,
डॉल्फिनों और मेढकों को…
तकिया लगा देंगे
प्रेमचंद ने कहा:
मैं बुनुवेल की सारी फिल्में
नहीं देख सकता
मैं बूढ़ा हो रहा हूँ
डाली से कहो मेरे लिए
तुम्हारी एक छवि बना दे
डाली मेरी छवि हो गया है
बुनुवेल–डाली
मान लेते हैं कि अगर मैं बम्बई में
पैदा हुआ होता तो
जो मराठी बोली जाती
उसमें यही अर्थ होता-
बुनी हुई डाली
उसे मैं टेबल पर सजा दूंगा
उसमें गौरैया अंडे देंगी
प्रेमचंद ने कहा
१४.
तुमने मेरी आँखें चीर दीं
ताकि तुम देख सको
डॉक्टर की तलाश में हूँ
मरने के लिए
मनोवैज्ञानिक उच्च वर्ग की अय्याशी है
तुमने कभी कहा था
मेरे भीतर भी एक अय्याश था
इसीलिए तुम्हें डॉक्टर मिल गया था
मैंने उसी से नश्तर माँगा था उधार
तुमने एक वार में
हजारों आँखें चीर दी
खुली हुई आँखों की ललाई में
बची हुई थी मछली
इसीलिए मैंने उसे मसाले में नहीं भुना
तुम उसकी आँखें
देख देख कर चबाना चाहते थे
मुझे मछलियां अच्छी लगती हैं
जो छोटी होतीं हैं
एक मछली की आंख बनाओ
एक सीरीज बनाओ
बुनुवेल ने कहा
मैंने बहुत सी मछलियाँ बनाई
जिन्हें वह तलकर खा गया
वह जो तुम ही थे
जो अब भी हूँ
१५.
हम तुम ऐसे घुल मिल गए हैं कि एक बुनी हुई
डाली हो गए हैं
जिसे हरिश्चंद्र घाट की डोमिन ने बुना था
लाल और पीले रंग से रंगा था
मैं सिल्वर स्क्रीन पर
रंग फेंकना चाहता हूँ
नीला पीला काला कुसुमी और बसंती
यह कबीर का लिखा नहीं है
यह कबीर का ही लिखा है
जो उसने कबीर के नाम से लिखा है
संपादक निराला के गीतों का
मनोवैज्ञानिक विश्लेषण कर रहा है
मैं निराला के गीतों को बैकग्राउंड में रख कर
एक फ़िल्म बनाना चाहता हूँ
तुम अपनी नाव उस ठाँव बांधना चाहते हो
जहां वह धँसकर नहाती थी
और आँखें फँसकर रह जाती थीं
वह अब भी नहा रही है
आँखें अब भी फँस रही हैं
मैं उस ठाँव अपनी नाव बांधना चाहता हूँ
तुमने फँसी हुई आँखों को चीर दिया था
वे दर्द से बिलबिला रहे हैं
डॉक्टर खोज रहे हैं
भटक रहे हैं विज्ञान की गलियों में
मरने के लिए
१६.
तुम्हारे गेस्ट हाउस के रास्ते
इस शहर की गलियों में
खिडकियों से किताबें गिर रही थीं
ऑपरेशन सही हुआ था
या भोथरी हो गई आँखें
गलियों में मुझे संपादक के साथ
डॉक्टर मिल गया था
यह कितना भयावह है; उसने कवि के मन को
खंगाल देने का दावा किया
इसीलिए तुम मर गए
हाँ! तुम कब मरोगे
मैं कल मरूँगा
थोड़ा नमक लेते आना
हम लैटिन अमेरिका चलेंगे
मार्क्वेज के घर
नीबू की चाय पियेंगे
वहाँ के शक्कर में
यहाँ का नमक मिलायेंगे
तुम थोड़ी देर रुक जाओ
बारिश तेज हो रही है
दीवार पर पानी बहने लगा
कुएँ का जलस्तर बढ़ने लगा
सुरंग का सम्बन्ध कुएँ से है
जिससे हेस्टिंग भागा था
इसीलिए उसका पानी नीला हो गया
तुम नहा लो
जाने से पहले
तुम्हारी खाल से
रंगों की बू आ रही है …
_____________

संदर्भ और प्रसंग
‘प्रथम विश्वयुद्ध के बाद के चिंतनशील फिल्मकारों में लुई बुनुवेल का स्थान महत्वपूर्ण है. इन्होंने चित्रकार सल्वाडोर डाली के साथ मिलकर कुछ प्रायोगिक फिल्में निर्मित की जो आज भी दुनिया में कहीं न कहीं प्रतिदिन देखी जाती हैं. इन फिल्मों ने फिल्मों के देखने के तरीके में परिवर्तन की जरूरत पैदा कर दी. बिंबों और रंगों के संयोजन से इन दोनों ने एक नए संसार की रचना की जो देखने के लिए एक नए नज़रिये की मांग कर रही थी इसलिए ये फिल्में आज भी फिल्म के विद्यार्थियों और फिल्म के गहरे प्रेमियों के लिए हैरानी का विषय बनी हुई हैं.
दोनों मित्रों का सानिध्य बहुत दिन तक नहीं रहा लेकिन जब तक रहा तब तक इन लोगों ने बहुत अलग तरह का काम किया. लुई बुनुवेल कभी भारत नहीं आए. उनका सोचना था कि भारत में कदम रखते ही उनकी सोच की आधुनिकता और वैज्ञानिकता ध्वस्त हो जाएगी माई लास्ट साई उनकी आत्मकथा है, जो उनके विचारों से पाठक का साक्षात्कार करवाती है.
सलवादोर डाली भी सरियलिस्टिक चित्रकार थे और विश्वयुद्ध के बाद सदमे में जी रही दुनिया तक संदेश पहुंचाने के नए तरीके खोज रहे थे. डायरी ऑफ अ जीनियस में उनके विचार संकलित किए गए हैं. दोनों के साथ ने दुनिया को एक नए तरह के सिनेमा का उपहार दिया.
सरियालिस्टिक(अति यथार्थवादी) तरीके से ही वे एक दिन के लिए भारत में पैदा हो जाते हैं, जो उपरोक्त कविता का विषय है. वे पैदा होना चाहते हैं बंबई में और हो जाते हैं बनारस में. यह विडंबना ही इस कविता का आधार है.’
अनुपम ओझा
‘गुरिल्ला सिनेमा’ के प्रवर्तक और इसे मुहिम की शक्ल में जमीन पर उतार देने के महत्वपूर्ण कार्य में संलग्न. दो किताबें प्रकाशित हैं- ‘भारतीय सिने-सिद्धान्त” और ‘जलतरंगों की आत्मकथा’ (कविता). सर्व सेवा संघ परिसर, |
बहुत दिन बाद फेसबुक पर कुछ पढ़ा है। लम्बी कविता के प्रति मेरा एक स्वभावगत लोभ है।
यह कविता अच्छी लगी। एल्यूज़न वगैरह पर विधिवत शोध करने से कथा/कथ्य शायद अधिक स्पष्ट हो।
किताब का नाम ‘योगवासिष्ठ’ है। कवि चाहें तो दुरुस्त कर लें।
दिलचस्प कविता है। अनेक स्मृतियों, इच्छाओं और फंतासियों से बुनी हुई। एक अलग आस्वाद है।
हिंदी मे इसके पहले भी सन्१९६५ के आस पास ऐसी कई
रचनायें आईं थीं. राजकमल चौधरी का नाम याद आरहा है।
एलेन गिन्सबर्ग के और बीटल्स वाले प्रभाव लिये हुये।
मामूली रद्दोबदल के साथ जैसे कपड़ों.और चलढाल के फैशन बदलते हैं और लौट लौट कर वही चीज़ें कविता और साहित्य में भी आ जाती हैं।
अनुपम ओझा की कविता में डूबने की लय नहीं बनी और टूटने की चटक भी नहीं सुनाई दी, लिहाजा त्वचा के रंगों की
महक या बू कुछ ठीक से नहीं फैली।
सींकों और तिनकों की डलिया बुनने में भी घडी के साबुत गोल डायल का बने रहना ठीक नहीं लगा। उसे डॉली की तरह पिघलना और ठहरते दिखना था। मार्क़ोज की तितलियां
भी न भय की बू लेकर उड़ीं न निराला के उस ठाँव के पानी
का स्वाद और महक जहाँ नाव बाँधी जारही थी।
खैर उन्हे कोशिश करते रहना चाहिये। फिर रंगों की बू फैलने की पूरी गुंजाइश है। सत्यजीत रे और मृणाल सेन अपने श्वेत श्याम से भी महक फैला लेते थे।
स्वप्न, यथार्थ और अवचेतन का एक दूसरे में प्रत्यारोपण और कहीं कहीं कोलाज-अर्थात कविता में अतियथार्थवाद की अभिव्यक्ति। कविता में यह प्रयोग बहुत सार्थक है।
यह कविता इतनी जटिल और बौद्धिक है कि इसे समझना और इसकी संवेदना से जुड़ना आसान नहीं है। यह आनंदित, आलोकित और आन्दोलित करने के बजाय अपनी अभिव्यक्ति के तरीक़े से आक्रांत करती है। विदेशी रंग-परिधानों में इसका कथासूत्र भारतीय साहित्यिक और सांस्कृतिक गलियारों में घूमता रहता है। यह हमारे भाव-बोध को क्या दे सकती है हमारी संवेदना और अर्थ-ग्रहणता पर निर्भर है वह। समालोचन इस तरह की कविताओं का प्लेटफार्म है। समालोचन के एडमिन को ऐसी ही कविताएँ पसंद हैं। वे स्वयं भी इसी तरह की कविताओं के कवि हैं। क्षमा करें मेरी ख़ुद की रुचियाँ और पसंद नागार्जुन और भवानी प्रसाद मिश्र के काव्य के निकट हैं। अनुपम जी को इस ख़ास कविता के लिए बहुत-बहुत बधाई !
पढ़ने और प्रतिक्रिया देने, लाइक बटन दबाने और नहीं दबाने वाले सभी पाठक, लेखक आदि इत्यादि मित्रों का आभार। वैसे हिंदी में साहित्य लिखना आज भी शहादत ही है क्योंकि न प्रकाशक कुछ देता है, न ही पाठक। पाठक की चेतना का विस्तार हो, यही लेखन का प्राप्य है, वह भी कठिन है क्योंकि हिंदी लेखकों, पाठकों की अपनी क्षेत्रीय लघु सीमाएं हैं जबकि हिंदी भाषा अंतरराष्ट्रीय पहचान और प्रभाव में विश्व की किसी भी भाषा से कमतर नहीं है। अज्ञेय की असाध्य वीणा से उपनिषद् हिंदी काव्य में आया और मुक्तिबोध की अंधेरे में से विज्ञान हिंदी कविता का हिस्सा बना। रंगों की बू आपका परिचय विश्व सिनेमा के सरोकार से करवाती है।
डाली स्पेन से हैं और बुनुवेल पोलैंड से। इनका नाम Dali है। ये अंग्रेज नहीं हैं। सभी यूरोपियन अंग्रेज नहीं हैं। भाषा और संस्कृति की भारी भिन्नताएं हैं। इनमें से अनेक अंग्रेजों को शायद हमसे ज्यादा नापसंद करते हों।
ये बातें मैं उस हिंदी समाज को बता रहा हूं जो बगल की दूसरी भाषा के बारे में भी नहीं जानना चाहता है। जिसकी सारी दुनिया अपनी गली, अपना गांव है।
इस कविता ने पाठकों को अपनी सोच और संवेदना के विस्तार के लिए प्रेरित किया हो और पाँच व्यक्तियों ने भी किरादारों के बारे में खोजबीन की हो, तो सब सही है। इतनी लंबी कविता पढ़ जाने का रिस्क उठाने वाले सभी सहृदयों को हार्दिक धन्यवाद। अभिवादन।
अनुपम ओझा