अरुण कोलटकर
|
खेल-खेल में छोटे बच्चों को उलटा पकड़कर झुलाते-झुलाते पूछा जाता था-
‘नीचे सिर ऊपर पाँव
इस जानवर का नाम बताओ.’
तीन आँखें और चार कान वाले कवि का नाम था अरुण कोलटकर. ये तीन आँखें और चार कान आए कहाँ से?
इसका हिसाब कुछ इस प्रकार है : अरुण के दो कान मराठी ने संस्कारित किए थे. उसमें ज्ञानेश्वर से लेकर सदियों से चले आ रहे मराठी साहित्य के अनेक नमूने संचित थे. महानुभावों का साहित्य, बखर साहित्य; रामजोशी, होनाजी इत्यादि शाहिरों का काव्य, सन्तों की वाणी; उनके नाद, छन्द, गद्य, पद्य आदि सब उन कानों में संगृहित था. मर्ढेकर, दिलीप चित्रे, मनोहर ओक, नामदेव धसाल, तुलसी परब, वसन्त गुर्जर इत्यादि बीसवीं शती के मराठी कवियों की कविता भी उन्होंने सुनी थी. उन कानों ने ओवी, अभंग और विविध छन्द को अलग-अलग नादरूपों में अनुभव किया था. लिखित मराठी गद्य के साथ-साथ नाट्यछटा, रोज़ के वार्तालाप, हवा में उड़ रहे वाक्यों के टुकड़े, सब उसमें समाया था. उनके संस्कारों में ‘बम्बइया हिन्दी’ थी, बलवन्तबोवा के भजन और उनके साथ सालोंसाल और घंटों चले वार्तालाप थे, कीर्तन थे, भारुड़ थे, भेदिक थे, भक्तिसंगीत और लोकसंगीत के पवाड़ा, फटका, लावनी वग़ैरह विभिन्न प्रकार थे. अर्जुन शेजवलकर द्वारा सिखाए पखावज के सबक थे और अन्य भी काफ़ी कुछ संचित था.
दूसरे दो कान- होमर, ल्युशिअस अप्युलिअस, व्हर्जिल, दान्ते, ओव्हिड, कॅटलस, साफ़़ो, कावाफ़ी, ‘वाँडरर’ और ‘सीफ़ेअरर’ लिखने वाले अनाम अंग्रेज कवि, चॉसर, शेक्सपियर, जेरल्ड मॅन्ली हॉप्किन्स, जॉन डन, विलियम ब्लेक, एजरा पाऊण्ड, वाल्ट व्हिटमैन, हार्ट क्रेन, टी. एस. इलियट, वॉलेस स्टीव्हन्स, मारीअन मूर, एलिजाबेथ बिशप, एमिली डिकिंसन, सिल्विया प्लाथ, एडगर ली मास्टर्स, गिन्सबर्ग, नेरूदा, लोर्का, ओक्ताबियो पास, बोदलेयर, ब्रेताँ, ब्रेश्ट, हाईनरिश हाईन, फ़िरदौसी, रूमी, हाफ़िज़, सादी, ग़ालिब; वाँग वै, तुफू हानशान आदि अभिजात चीनी कवि; मध्य यूरोप के वास्को पोपा, झ्बिग्न्यु हर्बर्ट; रूस के आना अख्मातोव्हा, मान्देलश्ताम, मायाकोव्हस्की; जैसे अनेक कवियों के साहित्य से पूरे भरे थे; बीटल्स, वुडी गद्री और डीलन के गीतों ने संस्कारित किया था. इन कानों ने ‘ब्लूज़’ नामक अफ्रीकी-अमेरिकी संगीत की ‘कविताएँ जैसे नाम’ वाले मडी वाटर्स, लेड बेली आदि की आवाज़ें सुनी थीं. विभिन्न वैश्विक भाषाओं के अंग्रेज़ी में अनूदित काव्य के संस्कार ग्रहण किए थे, और कभी-कभी उनके नाद का अनुभव होने के लिए मूल भाषा से भी कुछ कवि सुने थे. इस नाद-संग्रह में अभिजात साहित्य के साथ-साथ; सड़क पर मिले बहते अंग्रेज़ी साहित्य के नमूने भी थे.
‘जब अरुण अरुण कोलटकर बारह साल के थे, ईश्वर ने दो नोक वाली पेन्सिल देते हुए कहा- अरुण ! अब तुम कविता लिखो. अरुण ने यह जादुई पेन्सिल उठाई. एक नोक से मराठी में कविता लिखी और दूसरे नोक से अंग्रेजी में.’
यह बात अरुण ने ही बताई है और अब छपकर आने के बाद चतुष्कर्णी हुई है.
अरुण ईश्वर द्वारा प्रदत्त इस पेन्सिल का ज़िन्दगी भर सँभलकर प्रयोग करता रहा. अपनी सुन्दर लिखावट में और लम्बी-लम्बी उंगलियों से कविता लिखता रहा. चाहे जितना प्रयोग करे, पेन्सिल की नोक बोथरी होने के बजाए और ज़्यादा नुकीली होती रही. अरुण की दो भाषाओं की कविताएँ भी चतुष्कर्णी फैलने लगीं. अब वे दुनिया में कहाँ-कहाँ मिलती हैं, कहना कठिन है. कहाँ नहीं मिलेंगी, यह कहना तो और भी ज़्यादा कठिन है.
ये सब तो ठीक है जी. लेकिन तीन आँखें? यह शिवनेत्र कहाँ से उग आया?
अगली कथा इसी तीसरे नेत्र की-
तीसरी आँख
आज बीसवीं-इक्कीसवीं सदी के श्रेष्ठ कवियों में अरुण कोलटकर की गिनती होती है. कदाचित पाए जाने वाले द्विभाषी कवियों में यह एक असाधारण कवि है. उसने मराठी और अंग्रेज़ी, दोनों भाषाओं में एक समान, महत्वपूर्ण और बेमिसाल सृजन किया है. विख्यात फ़्रेंच प्रकाशक ‘पोएझी गालिमार’ ने सन 2013 में उसके ‘काला घोड़ा पोयम्स’ संग्रह का प्रकाशन किया, जिसमें दाएँ पन्ने पर मूल अंग्रेज़ी कविता और बाएँ पन्ने पर उसका फ़्रेंच अनुवाद छपा था.[i] इससे पहले इस प्रकाशक द्वारा एकमात्र आधुनिक भारतीय कवि छपा था – रवींद्रनाथ टैग़ौर.
सन 2005 में विश्व अभिजात साहित्य प्रकाशन श्रृंखला में ‘न्यूयॉक्त रिव्यू ऑफ़ बुक्स’ प्रकाशन संस्था द्वारा उसका अंग्रेज़ी कविता संग्रह ‘जेजुरी’ प्रकाशित हुआ. साथ ही सुविख्यात प्रकाशन संस्था ब्लडअक्स बुक्स ने सन 2010 में, अरविन्द मेहरोत्रा द्वारा सम्पादित ‘अरुण कोलटकर: कलेक्टेड पोयम्स इन इंग्लिश’ संग्रह प्रकाशित किया.
अरुण के ‘जेजुरी’ का जर्मन और अन्य भाषाओं में अनुवाद हुए हैं.[ii] फ़्रेंच विदुषी लेअटिशिया झेकिनी ने उसकी कविता पर सन 2014 में ब्लूम्सबरी द्वारा प्रकाशित ‘अरुण कोलटकर एण्ड द लिटरेरी मॉडर्निझम इन इंडिया’ शीर्षक समीक्षा ग्रंथ लिखा है. ‘फ़्लैशपॉइंट’ पुस्तक श्रृँखला में अंजलि नेर्लेकर द्वारा लिखित और सन 2016 में नॉर्थवेस्टर्न युनिवर्सिटी प्रेस द्वारा प्रकाशित ‘बॉम्बे मॉडर्न: अरुण कोलटकर एण्ड बाइलिंग्वल लिटररी कल्चर’ शीर्षक पुस्तक के केन्द्र में उसी की कविता है.
अरविन्द कृष्ण मेहरोत्रा और आदिल जसावाला, दोनों कवि अरुण के क़रीबी मित्र थे. अरुण ने ‘काला घोड़ा पोयम्स’ संग्रह इन्हीं दोनों को अर्पित किया है.[iii] अशोक कहता है, अरुण ने अपने प्रकाशक को, यानी अशोक शहाणे को आगाह किया था कि उसका अंग्रेज़ी कविताओं का संग्रह इन दोनों को दिखाए बिना प्रकाशित न किया जाए.
इनमें से अरविन्द मेहरोत्रा ने अरुण की कविताओं के विभिन्न संस्करण सम्पादित करने और उसकी ज़िन्दगी पर थोक रूप से लिखने का बीड़ा बड़े प्यार से उठाया है. अरुण की पहली पत्नी दर्शन ने अरुण के नोट्स और डायरियाँ अरविन्द के हवाले कीं. उनकी मदद से, अरविन्द ने अरुण की ज़िन्दगी की घटनाओं का उपयोग करके उसकी कविताओं का विघटन-विश्लेषण किया है. कवि की ज़िन्दगी के विभिन्न तफ़सील, दस्तावेज़ और अन्य स्रोतों की विशुद्धता, कवि के साथ क़रीबी रिश्ता आदि अनेक कारणों से यह काम ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है. अरुण के बारे में लिखने वाला प्रत्येक समीक्षक और चरित्रकार उसका ऋणी है.[iv]
मैंने बीच-बीच में अरविन्द की समीक्षा का सन्दर्भ दिया है, लेकिन उसका बहुत ज़्यादा संज्ञान नहीं लिया है. इसका पहला कारण यह है कि मेरे हिसाब से कवि की कविता से ज़्यादा विशुद्ध और अलग उसका कोई चरित्र नहीं हो सकता. दूसरी बात, मैंने अरुण की कविताओं को जिस दृष्टि से देखा है, उस दृष्टि से मुझे अरविन्द के लेखन में लगभग कुछ नहीं मिला है. जो इक्का-दुक्का उल्लेख मिलता है, उस पर यथावसर और यथोचित विचार किया गया है.
एक कवि के रूप में अरुण का जितना महत्व है, उतना ही महत्व एक दृश्य-कलाकार के रूप में भी है. बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में भारतीय विज्ञापन जगत् में अरुण सबसे प्रतिभाशाली व्यक्ति था. उसके दृक्-प्रतिभा के आविष्कारों ने भारतीय विज्ञापन जगत को विश्व स्तर पहुँचा दिया. अरुण का विज्ञापन जगत् का ऊँचे दर्जे का काम मैंने अपनी आँखों से देखा है, और इस क्षेत्र के अनेक श्रेष्ठ और वरिष्ठ लोगों से उसके बारे में काफ़ी कुछ सुना भी है. उनसे इस विषय पर चर्चाएँ भी की हैं. उसके काम का मूल्य पहचानकर सन 1989 में ‘कम्युनिकेशन्स आर्टिस्ट्स गिल्ड’ (CAG) संस्था ने अरुण को ‘हॉल ऑफ़ फ़ेम लाइफ़ टाइम अचीवमेंट अवार्ड’ प्रदान किया है.
अरुण के सृजन में ‘द पुलिसमैन, अ वर्ल्ड प्ले इन थर्टीन सीन्स’ (2005) यह बिना शब्दों का और केवल रेखाचित्रों से बना नाटक भी है, जिसे प्रास प्रकाशन ने उसकी मृत्यु के उपरान्त प्रकाशित किया. अरविन्द मेहरोत्रा, वृन्दावन दण्डवते, रत्नाकर सोहोनी और अन्य मित्रों में बिखरे अरुण के दस्तावेज़ों में उसके द्वारा बनाए सैकड़ों स्केच हैं. रही बात अरुण की अप्रकाशित सामग्री की, तो यह सामग्री उसके प्रकाशक अशोक शहाणे के पास है और केवल शहाणे और भगवान ही जानते हैं कि कब वह पाठकों से सामने आयेगी.[v]
मराठी में कविता लिखने वाला कवि, अंग्रेज़ी में कविता लिखने वाला कवि और एक प्रतिभाशाली ग्राफ़िक आर्टिस्ट आदि अरुण की प्रतिभा के एक-दूसरे में उलझे और परस्पर पूरक तीनों आयाम समान महत्व रखते हैं. दुर्भाग्य से, अरुण की कविताओं पर अंग्रेज़ी में लिखने वालों में से दिलीप चित्रे, विलास सारंग, और अंजलि नेर्लेकर के अलावा अनेकों को मराठी नहीं आती. दिलीप, विलास और अंजली का अपवाद छोड़ दें तो मराठी में लिखने वाले समीक्षकों को अरुण की अंग्रेज़ी कविता, कुल अंग्रेज़ी कविता और अंग्रेज़ी में प्रकाशित विश्व कविता कहाँ तक पता है, मैं नहीं जानता. एकाध-दूसरा अपवाद छोड़ दें तो इन दोनों प्रकार के समीक्षकों ने अरुण के विज्ञापन क्षेत्र के काम का संज्ञान नहीं लिया है. विशेषतः कविता में जगह-जगह पाए जाने वाले ‘सिनेमा’ के बारे में सभी ने मौन-व्रत धारण किया है.
अरुण के विज्ञापन जगत् के काम को केवल जीविका का व्यवसाय मानने के कारण कहिए या उसके काम की बानगियाँ मिलना कठिन होने के कारण कहिए, अरुण पर किए गए लेखन में उसकी दृक्-प्रतिभा के विभिन्न अंगों पर ठीक से विचार नहीं हुआ.[vi] शायद समीक्षकों और सम्पादकों की शब्दप्रधान दुनिया में बिम्बों का कोई स्थान नहीं होगा, या कुछेक के पास उसे ‘पढ़ने’ की साक्षरता या क्षमता भी नहीं होगी. जिस माध्यम में उसने अपनी प्रतिभा का सालोंसाल आविष्कार किया और सभी महत्वपूर्ण सम्मान प्राप्त किए, उस कर्तृत्व पर ग़ौर न करना अरुण और उसकी कविता पर बहुत बड़ा अन्याय है.
अरुण की कविता के अनेक महत्वपूर्ण विशेष उसकी तीसरी आँख के दृष्टिकोण में हैं. इस दृष्टि से वह चित्रकार था. उड़ती तितली से जुड़े पंखों को, केवल आँखों के हाई स्पीड शटर से, नैनो सेकण्ड में क्लिक करने वाला समर्थ फ़ोटोग़्राफ़़र था.[vii] दृश्य कलाओं के इतिहास का जानकार सहृदय चिन्तक था. रंग, रेखा, फ़ोटोग़्राफ़़, स्थिर और चलत् चित्र और अॅनिमेशन का नज़ाकत से उपयोग करने वाला, लेकिन एक भी फ़िल्म न बना पाया महान सिने-निर्देशक था.
सिनेजगत् का पहला सर्वांगपरिपूर्ण सिने-निर्देशक निर्माता यानी वाल्ट डिस्नी. मिकी माउस की पहली फ़िल्म की प्रत्येक सेल-ड्रॉइंग, उसकी प्रकाशयोजना और फ़िल्मांकन उसने स्वयं किया था. पटकथा लिखी, पात्रों को ख़ुद की आवाज़ें दीं और स्वयं निर्देशन भी किया. डिस्ने जिस अर्थ में ‘पूर्ण निर्देशक’ था, उसी अर्थ मैं अरुण पूर्ण दृक्-कवि था. अशोक शहाणे के प्रास प्रकाशन द्वारा प्रकाशित पुस्तक के रूप अधिकांशत उसी ने स्वयं निश्चित किए थे. ‘भिजकी वही’ जिस तरह आँसुओं से तर है, उसी तरह उसका एक-एक कण, अरुण की दृक्-प्रतिभा और कवि-प्रतिभा से स्पर्शित और कम्पित हुआ है. ‘भिजकी वही’ और ‘सर्पसत्र’ (अंग्रेज़ी), दोनों पुस्तकों के रूप उसके आशय का अविभाज्य अंग हैं. इन पुस्तकों को किसी ने अगर अन्य रूपों में छापने का साहस किया, तो उसकी कविताएँ अरुण के नाम का जयघोष करती हुईं, ग्रंथत्याग कर और कोरे पन्ने पीछे छोड़कर चली जाएँगी.
प्रस्तुत लेख अरुण की प्रतिभा का प्रबन्ध नहीं है. सभी कलाओं और विशेषतः दृक्-कलाओं का प्रयोग कर, कविता के रथ को जोड़ने और शान से हाँकने वाले इस महारथी की नज़रों में क्या रहस्य छिपा है, यहाँ मुझे इसकी झलक देनी है. साहित्य समीक्षक शब्द पढ़ सकते हैं. उन्हें शब्द-परम्परा पता होती है. शब्दों के वर्कशॉप के सारे हथियार और यन्त्र वे जानते हैं. लेकिन चलत् और स्थिर बिम्बों का, साथ ही दृक्-कलाओं और ध्वनियों का भी वर्कशॉप अलग है. वहाँ शब्दों से परहेज़ है. बिम्ब को बिम्ब जोड़ने के औज़ार, हथियार, तन्त्र और मन्त्र आदि शब्द की तकनीकी से अलग है. जब बिम्ब कविता के ड्राइवर की सीट पर बैठता है, तब भाववाची संज्ञाएँ उनकी पिछली सीट पर जा बैठती हैं.
कवि ‘कैमरा’ कविता में कैमरे को सम्बोधित करते हुए कहता है, [viii]
‘किसी वस्तु का
नाम लेने में भी तू शर्माता है
छनकहाई में भी’
(छनकहाई-पति का नाम लेने न लेने के असमंजस का समय)
अरुण की कविता समझते समय, उसकी बुनावट का निरीक्षण करते समय और प्रत्येक कविता के आशय तक पहुँचते समय यह समझना ज़रूरी है कि शब्दों और बिम्बों के इन दोनों वर्क़शॉप के शॉपफ़्लोअर पर क्या चलता है. यह देखना भी ज़रूरी है कि वहाँ के निर्मिति के नियम और संकेत क्या हैं. दोनों वर्कशॉप का उपयोग कर निर्मिति करने वाले अरुण कोलटकर की कविताओं को समझने और अनुभव करने के लिए केवल एक-एक वर्क़शॉप की अलग-अलग निर्मिति नियमावली पर्याप्त नहीं है. इसके लिए दोनों कारख़ानों की निर्मिति प्रक्रिया अथ से लेकर इति तक समझना ज़रूरी है.
तीसरी आँख के पीछे का दृष्टि पटल
अरुण की दृक्-कला की पृष्ठभूमि का कुछ विवरण देता हूँ.[ix]
अरुण सन 1931 में कोल्हापुर में जन्मा और सन 1948 तक वहीं रहा. उसने सन 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन में हिस्सा लिया था. उसने सन 1943 में पहला स्केच बनाया. उसमें भगतसिंह का पोर्ट्रेट था. सन 1943-44 के आसपास स्कूली मित्र बाबूराव सड़वलेकर (बाद में चित्रकार के रूप में महाराष्ट्र में विख्यात) के साथ, ‘जलतरंग’ हस्तलिखित पत्रिका में अपनी कहानियाँ-कविताएँ प्रकाशित कीं. साफ़ दिखाई देता है कि अरुण को बारह-तेरह साल की उम्र से ही शब्द और चित्र का समान आकर्षण था.
सन 1948 में ही अरुण ने कोल्हापुर के वडंगेकर हाइस्कूल में नाम दर्ज किया. चित्रकला की शिक्षा ली. सन 1949 में वह मुम्बई के जे. जे. स्कूल ऑफ़ आर्ट्स में दाख़िल हुआ. चित्रकार अम्बादास खोब्रागड़े (1922-2012, जो बाद में विख्यात हुए) के साथ दोस्ती की शुरुआत हुई. अरुण सन 1953 में पुणे से मुम्बई आया. उसके बाद उसका दर्शन छाबड़ा से परिचय हुआ और सन 1954 में उन्होंने विवाह किया. मुझे हमारे कुछ दशकों की मित्रता के बिल्कुल शुरू में ही ध्यान में आया था कि दर्शन स्वयं एक प्रतिभाशाली और व्यंग्यात्मक विनोदबुद्धि वाला व्यक्तित्व है.
दर्शन का भाई बाल छाबड़ा का और एम. एफ़. हुसैन का सन 1950 के आसपास परिचय हुआ. बाल छाबड़ा के रज़ा, अक़बर पदमसी आदि चित्रकारों से परिचय हुआ. दर्शन और अरुण इन सभी कलाकारों को पहचानते थे. सन 1955-56 में ये दोनों मद्रास में थे. क्रिशन खन्ना (जन्म 1925) और उनकी उम्र में अन्तर होने के बावजूद अच्छा स्नेह था. अरुण ने मद्रास निवास में कुछ चित्र भी बनाए और कविताएँ भी लिखीं. उसने ये कविताएँ प्रकाशित नहीं कीं और उसके चित्र बिके भी नहीं.[x]
यह समझ में आने के बाद कि चित्रकार या कवि, इनमें से किसी भी मार्ग से जीविका चलाना कठिन है, दर्शन और अरुण मुम्बई लौट आए. यह बात मुझे क्रिशन खन्ना ने बताई. सन 1955 में अरुण और दर्शन जब मलाड़ में रहते थे, तब एम. एफ़. हुसैन ने अरुण को एक लकड़ी के कारख़ाने में खिलौने रंगाने की नौकरी दिलवाई थी. सन 1951 में अधूरा रह गया जे. जे. स्कूल ऑफ़ आर्ट्स का ‘फाइन आर्ट्स’ का कोर्स अरुण ने आख़िरकार सन 1957 में पूरा किया. उसे स्वर्णपदक भी प्राप्त हुआ था. इसके बाद अरुण ने विज्ञापन क्षेत्र में काम का आरम्भ किया.[xi]
सन 1959 में बाल छाबड़ा ने ‘गैलरी वन्’ नाम से आर्ट गैलरी खोली.[xii] उसके उद्घाटन के अवसर पर आयोजित प्रदर्शनी में हुसैन, रज़ा, अक़बर पदमसी आदि चित्रकारों के चित्र लगाए थे. बाल के घर पर इन सभी का आना-जाना था. बाल के मॉडर्निस्ट चित्रकार मित्रों के अलावा अलग-अलग शैली के चित्रकारों से दर्शन और अरुण के घनिष्ठ सम्बन्ध बढ़ने लगे. अरुण और मेरा परिचय लगभग 1965 साल में हुआ. तब से उसकी अन्तिम बीमारी में उसका घूमना-फिरना बन्द होने तक, उसका काला घोड़ा इलाके का साप्ताहिक चक्कर कभी छूटा नहीं. ‘जहाँगीर आर्ट गैलरी’ के इलाके के ‘आर्टिस्ट सेंटर’ आदि गैलरियों में वह नियमित रूप से आता रहता था.
सन 1965 में भूपेन खक्कर (1934 – 2003) की पहली प्रदर्शनी के उद्घाटन में अरुण ने एक कविता पढ़ी थी. प्रभाकर बरवे और अम्बादास, दोनों चित्रकार उसके क़रीबी मित्र थे. सन् 1995 में प्रभाकर की शोकसभा में अन्यों ने भाषण दिए थे. लेकिन अरुण ने प्रभाकर की पसन्दीदा अपनी एक कविता पढ़ी थी. अरुण के अपनी पीढ़ी के अनेक उत्तम चित्रकारों से स्नेह-सम्बन्ध थे, जो अन्त तक क़ायम रहे. उन सम्बन्धों का किस के काम पर कितना असर हुआ, कहना मुश्किल है, फिर भी उसके बारे में कुछ अनुमान लगाने लायक उल्लेखनीय बातें सहज ही महसूस होती थीं. उदाहरणार्थ, भूपेन ऐसा पहला चित्रकार था, जिसने अपने चित्रों में सड़क के सिन्दूर मले पत्थर, काँच की आँखें लगे श्रीनाथजी, पिछवाई, नाथद्वार; मुग़ल और भारत की विभिन्न चित्रण शैलियों के साथ-साथ पाठशाला में दीवारों पर लगी छपी सचित्र तालिकाएँ, सर्कस के विज्ञापन, तीर्थक्षेत्रों के सचित्र ‘मानचित्र’, सिनेमा के पोस्टर के साथ-साथ रनेसान्स से पहले की यूरोपीय कला, भित्तिचित्र, जलरंग चित्र, तैलचित्र, काँच पर बनाए चित्र, तंजावर शैली के चित्र इत्यादि एक-दो नहीं, बल्कि सैकड़ों शैलियों के सन्दर्भ दिए और उससे एक नई चित्रभाषा का निर्माण किया.
अरुण ने अपनी कविता में होमर, बाइबल, सन्त साहित्य इत्यादि से लेकर बिल्कुल वर्णमाला की तालिकाओं तक अनेक बातों का इस्तेमाल किया. परस्पर बाह्य सम्बन्ध दिखाई न देने वाले सैकड़ों भाषिक-शैली विशेषों से हर समय अपनी कविता के लिए उचित भाषा का निर्माण किया. अरुण जिस दौर में क्रियाशील हुआ, उस कालचैतन्य का इस प्रकार का प्रतिभाशाली ‘संकर अलंकार’ महत्वपूर्ण चिह्न और अन्तःचिह्न भी था. यह कलात्मक सर्वभक्षी-सर्वसंग्राहक वृत्ति, बेलग़ाम सांस्कृतिक लालच, यह निडर बेफ़िक्री इस नए सिरे से गठित होने वाले ख़ास भारतीय और उतनी ही अन्तरराष्ट्रीय संस्कृति का केंद्र था. यह वह भारत नहीं था, जिसकी आँखों पर ताक पर ढँकी पोथियों की अन्धोटियाँ और कानों में फाहे ठूँसे हुए थे. वह हज़ारों जिह्वाओं से बोल रहा था, हज़ारों आँखों से देख रहा था, हज़ारों कानों से सुन रहा था, हज़ारों पैरों से देश में भटक रहा था, हज़ारों हाथों से चित्रण और लेखन कर रहा था और स्वयं का निर्माण कर रहा था.
विज्ञापन के क्षेत्र में काम करने के कारण, अरुण की मित्तर बेदी (1926-1985) जैसे अनेक व्यावसायिक फ़ोटोग़्राफ़़र लोगों से परिचय था और उनके कामों की जानकारी भी थी. ‘कैमरा’ नामक उल्लेखित कविता में पाब्लो बार्थोलोम्यु, रघु राय, होशी हाल आदि भारतीय फ़ोटोग़्राफ़़रों के काम का महत्व अरुण अच्छी तरह से जानता था, जो तत्सम्बन्धी कविताओं के फ़ोटोग़्राफ़़ के सन्दर्भ से ध्यान में आता है. ‘भिजकी वही’ में उल्लिखित आंरी कार्तिए-ब्रेसाँ, निक यूट, अॅवदाँ आदि फ़ोटोग़्राफ़़रों ने बीसवीं सदी के इतिहास के कुछ महत्वपूर्ण क्षण दर्ज किए हैं. इन बिम्बों के सन्दर्भ अरुण की कविताओं में जगह-जगह पर बिखरे पड़े हैं और ‘किम’ जैसी कुछ कविताओं का केंद्र ही फ़ोटोग़्राफ़़ हैं.
अरुण भूपेन खक्कर का और ऊपरोल्लिखित स्नेही दृक्-कलाकारों का काम नियमित रूप से देखता था. प्रत्येक कलाकार अपने आविष्कार से कालचैतन्य का और काल प्रतिभा का अलग-अलग अंश कैसे अभिव्यक्त करता है, इसका अरुण को गहरा अहसास था और उसके आविष्कारों के वैविध्य से भी इन प्रतिभाशाली कलाकारों को ख़ुद से जोड़ने वाले सामयिक सूत्र मिलते थे. उनमें परस्पर आदर, आत्मीयता और भावनिक नज़दीकियाँ उत्पन्न हुई थीं. भूपेन और अरुण का व्यक्तिशः मित्र होने के कारण मैंने दोनों की प्रदीर्घ दोस्ती क़रीब से देखी है और उसकी गरमाहट और महत्व को भी अनुभव किया है. दोनों की याद आने के बाद अभी भी उनकी मुलाक़ातों के, उनके परस्पर पढ़कर सुनाए लेखन के, अनुभवों के, और विशुद्ध आनन्द के कलकल हँसते-हँसाते क्षण जब याद आते हैं, तब एक अनामिक शून्य महसूस होता है.
कवि के जीवन के बारे में हमें चाहे जितना पता हो, लेकिन असली कवि मिलता है उसकी कविता में. अरुण ने कुछ सीधी-सीधी आत्मचरित्रनुमा कविताएँ लिखी हैं. साथ ही, उसकी कुछ कविताओं में पाठक को आत्मचरित्र का अंश महसूस हो, इस तरह भी वह समाया है.[xiii] उनमें से कुछ का मराठी के अन्य स्थूल चरित्रनुमा लेकिन वस्तुतः व्यंग्यात्मक लेखन से नाता भी नज़र आता है. उदाहरणार्थ, गड़करी के ‘संगीत मूकनायक’ शीर्षक चार पृष्ठों वाले नाटक की ‘चरित्र’ जैसी कविता पढ़ते समय सहज ही उसकी याद आती है.[xiv]
‘भिजकी वही’ संग्रह की दीर्घ कविता ‘कैमरा’ पर दिवाकर की नाट्यछटाओं का प्रभाव महसूस होता है. अरुण के एकपात्र वाले ‘नाट्यछटा’ का निवेदक चाहे कैमरे से बात करता हो, लेकिन वह आवाज़ कवि के पेट से आने वाली एक व्हेंट्रिलोक्विस्ट की आवाज़ है. विशेषतः ‘भिजकी वही’ में स्वगत और सम्वादों के साथ-साथ अनेक नाट्यछटाओं के अंश भी पाए जाते हैं.
प्रस्तुत लेख में मुझे अरुण की कविता के जिस दृक्-कलाकार की खोज करनी है, वह यक़ीनन अरुण के कविचरित्र का अविभाज्य अंग है. लेकिन वह किसी भी चरित्रनुमा विशिष्ट प्रसंग, व्यक्तियों में फँसने वाला, यथार्थनुमा वर्णन का अंश न होकर सालोंसाल के अनुभवों से, तपस्या से और सहज प्रेरणा से प्राप्त निर्मिति प्रक्रिया का और जीवन दृष्टि का आमुख या अंग है.
२.
विज्ञापन की कला
विज्ञापन कला के बारे में मेरे कुछ सामान्य निरीक्षण आपके सामने प्रस्तुत करता हूँ. इससे समझ में आएगा कि अरुण की कविता का नाल उसके विज्ञापन क्षेत्र के काम से कैसे जुड़ा हुआ है. सबसे पहले मैं ‘अख़बार के विज्ञापन’ पर ध्यान केन्द्रित करता हूँ. क्योंकि अरुण का विज्ञापन का काम मुख्यतः इसी प्रकार का था. इसके अनेक सर्वसामान्य निरीक्षण अन्य प्रकार के विज्ञापनों पर भी लागू होते हैं.
विज्ञापनदाता विज्ञापन की जगह के प्रत्येक मिलीमीटर का पैसा चुकाता है. उसका एक ही उद्देश्य होता है, उसकी वस्तु अधिक से अधिक बिके या उसकी सेवा का अधिक से अधिक लोग प्रयोग करें. विज्ञापनदाता की सफलता आख़िरकार बिक्री या सेवा की उपयुक्तता पर निर्भर होती है. लेकिन वह वहाँ तक कैसे पहुँचता है?
विज्ञापन अख़बार के जिस पृष्ठ पर छपता है, उस पृष्ठ के अन्य सामग्री की तुलना में उसका अधिक आकर्षक होना ज़रूरी होता है. अधिक आकर्षक बनाने का सीधा संख्यात्मक मार्ग है, पृष्ठ की अधिक से अधिक जगह विज्ञापन द्वारा व्याप्त होनी चाहिए.
विज्ञापन में चार बातों का प्रयोग किया जाता है. आकार, चित्र, शब्द और खाली जगह. एक तो चित्र से, या शब्दों से या उनके कुल प्रभाव के कारण देखने वाले का ध्यान खींचा जाना चाहिए. आकार की दृष्टि से बड़े विज्ञापन ने ध्यान ‘खींच’ तो लिया, लेकिन उसमें ध्यान को वहीं ‘बाँधे’ रखने की शक्ति भी होनी चाहिए. यानी विज्ञापन देखना शुरू करते ही, दर्शक/पाठक उसमें ‘उलझ’ जाए. यह उलझाव कभी भावनिक तो कभी पहेली की तरह बौद्धिक हो सकता है. अनेक विज्ञापन, अपने अजीबोगरीब या दुनिया से अलग चित्रों-शब्दों के कारण ध्यान खींच लेते हैं. लेकिन बहुत थोड़े विज्ञापन पाठकों को उलझाए रखने में सफल होते हैं.
विज्ञापन के क्षेत्र में कॉपी राइटर, यानी विज्ञापन के शब्दों की योजना करने वाला व्यक्ति और विज्युअलाईज़र या दृक-प्रतिमायोजक; दोनों व्यक्ति सामान्यतः अलग-अलग होते हैं. जिसकी प्रतिमा निर्मिति पर हुकूमत होती है, ज़रूरी नहीं कि वह शब्द-माध्यम का भी दर्दी कलाकार हो. इसकी विपरीत स्थिति भी हो सकती है.
शब्द की आकर्षण शक्ति से चित्र की आकर्षण शक्ति अधिक होती है. इसलिए विज्युअलाइज़र को शायद अधिक सम्मान मिलता है. सफल विज्ञापन के लिए प्रभावशाली शब्द और ध्यान खींचने वाला चित्र, दोनों आवश्यक होते हैं. इसलिए कई बार परस्पर काम की पद्धति को आसानी से समझने वाली विज्युअलाइज़र और कॉपीराइटर्स की जोड़ियाँ सफल होती हैं. विज्युअलाइज़र अरुण कोलटकर और कॉपी राइटर किरण नगरकर की जोड़ी ऐसी ही थी.
अरुण कोलटकर प्रतिमा और शब्द, दोनों को एकजैसा समझता था, इसलिए उसके विज्ञापन शब्द और चित्र को एकत्रित कर एक तीसरा ही प्रभाव उत्पन्न करते थे. प्रभाव केवल चित्र या केवल शब्द में नहीं होता था. अरुण के विज्ञापनों में शब्द और चित्र के आकर्षण शक्ति का केवल गठजोड़ न होकर, उससे एक नई संयुक्त आकर्षण शक्ति या सहऊर्जा निर्माण होती थी.
अरुण ने अख़बार के विज्ञापन वाले पृष्ठ के अवकाश के परम्परागत संकेतों में कुछ महत्वपूर्ण बदलाव किए. पहला बदलाव यानी उसने ‘विज्ञापन का आकार’ और ‘चित्र की मुख्य वस्तु का आकार’ का गणित ही बदल दिया. विज्ञापनदाता जितने हिस्से के पैसे चुकाता है, सामान्य विज्ञापनों में उसकी हर चौरस सेंटीमीटर जगह चित्र या शब्द से भर दी जाती है. यह पुरानी परम्परा है. विज्ञापन का आकार जितना बड़ा, उसका चित्र/फ़ोटोग़्राफ़़ उतना ही बड़ा लगाने की पद्धति होती थी. अरुण ने इसे बदल दिया. उदाहरणार्थ, ‘विमको’ दियासलाई के विज्ञापन के लिए उसने विज्ञापन के चित्र की अधिकांश जगह केवल अन्धेरे से या काले रंग से भर डाली. जलती तिली पकड़ने वाले हाथ और लौ को सँभालने वाले हाथ का कुल आकार काफ़ी छोटा था.
नज़र को आकर्षित किया जाना और उसे उलझाए रखना; दोनों के बीच का अन्तर मानवीय दृष्टि की संरचना में ही है. हमारी आँखों में रॉड और कोन; दो प्रकार के प्रकाश ग्राहक होते हैं. कोन केंद्र में होते हैं और जब हम किसी भाग पर या बिन्दु पर दृष्टि केन्द्रित करते हैं, तब कोन कार्यरत होते हैं. रंग और सूक्ष्म ब्यौरा कोन को दिखाई देता है. कोन को कार्यान्वित करने के लिए अधिक मात्रा में प्रकाश की ज़रूरत होती है. रॉड को कम प्रकाश चल जाता है. रॉड के कारण हमें परिधीय नज़र प्राप्त होती है. आँखों के केंद्र और हमारे इर्दगिर्द क्या चल रहा है, इसकी जानकारी हमें रॉड ही मुहैया कराते हैं. रॉड रंगों को नहीं पहचानते. रात में कम उजाले में हम रॉड के कारण ही दृश्य देख पाते हैं.
इस सामान्य जानकारी के बाद हम दोबारा ‘विमको’ के विज्ञापन की तरफ़ मुड़ेंगे. ‘विमको’ के विज्ञापित पृष्ठ पर नज़र घुमाते समय रॉड कार्यमग्न होते थे. विज्ञापन के अन्धेरे की घनता के कारण पाठक की नज़र अख़बार के अन्य हिस्से की बजाय पहली काली चौखट की तरफ़ खींची जाती थी. उसी पन्ने पर दूसरा और बड़ा विज्ञापन हो, फिर भी रॉड से महसूस हुई काले रंग की आकर्षण शक्ति इतनी अधिक होती थी कि ध्यान ’विमको’ के विज्ञापन की तरफ़ आसानी से चला जाता था. एक बार ध्यान खींचा जाने के बाद अन्धेरे की चित्र-चौखट या फ्रेम बनती थी और उसका मुख्य चित्र आकर्षण का केंद्र बनता था. फिर कोन कार्यमग्न होते थे और उस चित्र को ध्यान से ग्रहण करते थे. रॉड और कोन; दोनों को बारी-बारी से कार्यचलित करने के कारण नज़र अधिक क्रियाशील हो जाती है और समग्र चित्र ज़्यादा स्मरणीय हो जाता है. (मैं उस विज्ञापन का वर्णन कर रहा हूँ, जो अख़बारों में रंगों का सरेआम प्रयोग होने शुरू होने से पहले के दौर का, मुख्यतः काले-सफ़ेद छपाई के दौर का विज्ञापन है. पाठक कृपया इस बात पर ग़ौर करें.)
विज्ञापन के कुल आकार की अपेक्षा विज्ञापन केंद्र के छोटे-से चित्र पर ध्यान खींचने और अन्धेरे की चौखट में उसे पकड़े रखने का यह नया मार्ग अरुण की भारतीय विज्ञापन क्षेत्र को बड़ी देन है. उसने, चित्र के इर्दगिर्द की जगह में केवल काले रंग का प्रयोग किया और यह दिखा दिया कि छोटा चित्र गुणात्मक केंद्र कैसे बनता है. बड़े-बड़े विज्ञापनों के संख्यात्मक आकर्षण की आक्रामक शक्ति के बजाए, उसने गुणात्मक आकर्षण को महत्व दिया.
विज्ञापन अभियान और एकल विज्ञापन में अन्तर है. एकल विज्ञापन एक ही बार आता है. विज्ञापन अभियान में एक दूसरे में समानता वाले विज्ञापनों की श्रृंखला बनानी पड़ती है. ‘विमको’ के विज्ञापन अभियान में जलती हुई तिली पकड़ने वाले अलग-अलग हाथों का प्रयोग कर, बाक़ी साँचा यथावत् रखा गया था. कभी स्त्रियों के हाथ तो कभी पुरुषों के. कभी बच्चों के, कभी युवाओं के और कभी वृद्धों के. कभी मामूली काँच की चूड़ियाँ पहने, कभी स्वर्ण कंकणमंडित, तो कभी लाख या हस्तीदन्त की चूड़ियों का इस्तेमाल करने वाले विशिष्ट जाति-जनजाति के, शंख-सीपी और कौड़ियों के अलंकार पहने. इन हाथों की विविधता से सम्पूर्ण भारत का बहुमुखी प्रतिबिम्ब पाठक के मन में अपने आप तैयार हो जाता था. विज्ञापनदाता का यह बताने का उद्देश्य सफल हो जाता था कि हमारी विज्ञापित वस्तु का उपयोग सम्पूर्ण देश कर रहा है.
पूरा पन्ना काला या आधा पन्ना काला और उसमें एक छोटा-सा चित्र और चुनिन्दा शब्द. ऐसा एक उदाहरण मुझे याद आता है: भारत में सन 1955 में स्थापित और गुणवत्तापूर्ण कागज़ के उत्पादन के लिए सुविख्यात कम्पनी ‘वेस्ट कोस्ट पेपर मिल्स लि.’ के विज्ञापन अभियान का एक विज्ञापन इस प्रकार था:
दृश्य :
काली पृष्ठभूमि पर छोटे बच्चे बनाते हैं वैसा कागज़ के पोंगे से बना सरो का पेड़. उसके प्रत्येक छोटे-छोटे पत्ते पर या टहनी पर, दुनिया के एक श्रेष्ठ लेखक का नाम – दस्तायव्हस्की, टॉलस्टॉय, काफ़्का, किरकेग़ौर इत्यादि.
विज्ञापन के शब्द:
‘Ideas written on West Coast paper, spring to life tomorrow.’ वेस्ट कोस्ट कागज़ पर आज लिखी कल्पनाएँ कल जीवन बन जाती हैं.
अरुण ने ऐसे लेखकों के नामों का प्रयोग किया था, जो उच्च अभिरुचि रखने वाले पाठकों को ही पता हो सकते हैं. कागज़ का प्रयोग करने वाला उपभोक्ता वर्ग प्रकाशन व्यवसाय से जुड़ा होगा. इसलिए यह विज्ञापन अपने आप ही उसे उस उच्च अभिरुचि दल में शामिल करता था और एक प्रकार से उसकी ‘स्नॉब वैल्यू’ बढ़ाता था.
‘स्विसएयर’ हवाई जहाज़ कम्पनी के विज्ञापन का कैम्पेन अरुण ने किया था. सामान्यतः साठ के दशक में हवाई सफ़र करने वाले व्यक्ति अमीर, उद्यमी या उच्चपदस्थ अधिकारी हुआ करते थे. ऐसे व्यक्तियों के लिए ‘हमारी हर बात ‘ख़ास’ होती है’ ऐसा लगना अहम होता है. इस अभियान के मुझे याद रहे दो विज्ञापन:
दृश्य:
हवाई जहाज़ की खिड़की से दिख रहा चुनिन्दा सफ़ेद बादलों वाला आसमान.
मुख्य शब्द:
The only thing we have a common with other airlines. ‘अन्य हवाई जहाज कम्पनियाँ और हममें एक ही सामायिक बात.’
स्विसएयर से हवाई यात्रा कर रहे आदमी को यह विज्ञापन आश्वस्त करता है कि अन्य एयरलाइन्स के यात्रियों में और हममें आकाश के अलावा और कुछ भी सामयिक नहीं है. यह विज्ञापन उपभोक्ता के लिए सुखद और उसके ‘अहम’ को सहलाने वाला था.
दृश्य:
खोली हुई अटैची. भीतर कार्ड. उस पर शब्द ‘EGO’ या ‘अहं’
अटैची पर ‘Fragile’ (नाजुक सामान) का लेबल आधा अधूरा नज़र आता है.
शब्द:
We pamper it. ‘हम आपके ‘अहं’ को सहलाते हैं.
‘अहं’ हवाई जहाज से सफ़र करने वाले वर्ग की कमज़ोरी होती है. सेवादाता को उसके ‘अहं’ को सहलाना पड़ता है. सभी प्रकार की सेवाएँ देते समय हम आपके ‘अहं’ का सम्मान करते हैं, यह आश्वासन भी उतना ही सुखद था.
इन दोनों विज्ञापनों के चित्र या प्रतिमाएँ चौंकाने वाली थीं. पुरुष वर्ग की तरफ़ आँखें बिछाए देखती सुन्दर और मादक एयर होस्टेस, या हवाई जहाज के केबिन का स्टाइलिश इंटीरियर आदि सामान्यतः दिखाए जाने वाले चित्र न होने के कारण पहली नज़र में यह समझ में नहीं आता कि विज्ञापन किस वस्तु या सेवा का है. यह विज्ञापन उपभोक्ता को पहेली बुझाने का सन्तोष भी देता है. साथ ही, यह पहेली बूझने तक उसका ध्यान दूसरी तरफ़ नहीं जा सकता था.
ये समाज के उच्च आर्थिक वर्ग के उपभोक्ताओं पर ध्यान केन्द्रित करने वाले विज्ञापन थे. लेकिन मध्यवर्ग की, विशेषतः कनिष्ठ मध्यवर्ग की नस भी अरुण को पता थी. एक उदाहरण देता हूँ:
साधारण मध्यवर्ग का उपभोक्ता ‘सिंडिकेट बैंक’ में बचत खाता क्यों खोलें, इसे सूचित करने वाला विज्ञापन देखिए.
दृश्य:
तिथियाँ और दिन छपे कैलेण्डर का एक पन्ना. इसके पहले सप्ताह में जलेबियाँ सजाई हुई हैं और अन्तिम सप्ताह में थे मूँगफली के छिलके.
मुख्य शब्द:
A Prince in the first week
And
A pauper in the last week
To avoid this, save with us.
मेरी याददाश्त के अनुसार इस विज्ञापन के हिन्दी शब्द थे:
‘पहले सप्ताह में राजा
अन्तिम सप्ताह में रंक
इससे बचने के लिए
हमारे बैंक में खाता खोलिए.
इस विज्ञापन का चित्र ग़ज़ब का मुखर है और उतना ही मज़ेदार, विक्षिप्त और मज़ेदार भी है. लेकिन इसके मजे़दार होने के पीछे सहानुभूति की आत्मीयता है. साथ ही, वह अमीरी के हाशिए पर जीने वाले उपभोक्ता के अनुभव में सीधे सीधे हस्तक्षेप कर ठेठ उस तक पहुँचता है. परीकथा का Prince और Pauper सर्वपरिचित होने के कारण, बिना आहत किए, फ़िज़ुलखर्ची करने वाले उपभोक्ता को भी इसके भीतर की सच्चाई महसूस होती है.
अब अरुण का बॉम्बे डाईंग टॉवल का एक विज्ञापन का व्यंग्य देखिए:
कुलाबा में तीसरी पास्ता लेन में, सतही मंजिल पर ग़ैरक़ानूनी शराब का अड्डा चलाने वाला, विशाल गोल तोन्द का स्वामी एंग्लो इंडियन जेम्स एक ख़ास आसामी था. उसकी सामाजिक उन्नति चरणबद्ध तरीके से हुई थी. ब्रिटिश दौर में दूसरे की टैक्सी चलाने से लेकर आज़ाद भारत में अपना शराब का अड्डा चलाने तक. शराबबन्दी के दौर में दक्षिण मुम्बई के पत्रकार, चित्रकार, फ़ोटोग़्राफ़़र, वकील और न्यायाधीश, विज्ञापन क्षेत्र के लोग और सिविल ड्रेस में कई पुलिस अधिकारी भी मैंने जेम्स के अड्डे में देखे हैं. अरुण समेत हमारे कुछ मित्रों का अड्डा भी यही था. जेम्स के मिर्च-मसाला लगाकर सुनाए गए सैकड़ों लतीफ़े शराब में तड़का लगाते थे.
अरुण ने ‘बॉम्बे डाईंग’ कम्पनी के तौलिए के लिए बनाए अपने विज्ञापन में जेम्स का नाट्यमय ढंग से उपयोग किया था: फ़ोटोग़्राफ़़ में एक फ़ाँसी का फन्दा टँगा हुआ था और नीचे जेम्स, पेट के इर्दगिर्द जैसे-तैसे लपेटा जाएगा, ऐसी लम्बाई का तौलिया बाँधकर हताश उसकी तरफ़ देख रहा था. मानो, ज़िन्दगी में सही लम्बाई का तौलिया न मिलने की निराशा में वह फाँसी लगाने की तैयारी कर रहा है. विज्ञापन के शब्द थे: ‘DON’T! We have a towel for your size.’
अब, बिल्कुल अलग और उस दौर में मानवीय अनुभव के लिए नए क्षेत्र के विज्ञापनों में भी, अरुण की भविष्य की ओर नज़र कितनी तेज़ थी, इसका उदाहरण देता हूँ. कम्प्यूटर युग का प्रारम्भ हो रहा था. बड़ी-बड़ी कम्पनियों ने महँगे-महँगे कम्प्यूटर ख़रीदे थे; लेकिन उनके मेंटेनेंस के बारे में कोई जानकारी न होने के कारण वे हमेशा ख़राब हो जाते थे. ऐसे उपभोक्ताओं को सेवा उपलब्ध कराने वाली CMC (Computer maintenance Corporation) कम्पनी अभी-अभी स्थापित हुई थी. अरुण इस कम्पनी के विज्ञापन अभियान पर काम कर रहा था.
मैं सन 1975 में मुम्बई के ‘टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ़ फण्डामेंटल रिसर्च’ के कम्प्यूटर विभाग के लिए एक लघुफ़िल्म बना रहा था. भारत में कम्प्यूटर से बन चित्रों का उपयोग करने वाली यह पहली लघुफ़िल्म थी. फ़िल्म की निर्मिति के दौरान विभाग प्रमुख और भारत के पहले कम्प्यूटर निर्माता और विश्वविख्यात कम्प्यूटर वैज्ञानिक प्रो. आर. नरसिंहन के साथ मेरी काफ़ी बातें होती थीं. वे सीएमसी संस्था के सलाहकार भी थे. अरुण द्वारा बनाया उनकी कम्पनी का लोगो भी ग़ज़ब का था और नरसिंहन को बिल्कुल मन से पसन्द आया था.
कम्प्यूटर जगत में सूचना का सफ़र कैसे होता है, यह दिखाने के लिए दिशादर्शक बाणों के चिह्नों का हमेशा उपयोग किया जाता है. अरुण ने CMC इन तीन अक्षरों के लिए तीन समान आकार के काले चौकोनों का प्रयोग किया था और प्रत्येक अक्षर केवल सफ़ेद बाणों से बनाया था. उदाहरणार्थ, C अक्षर के लिए उसने निचले हिस्से में आड़ा बाण, उसके अन्तिम छोर पर जुड़ा खड़ा बाण और उसके ऊपर भाग में प्रवाह की उसी दिशा को क़ायम रखने वाला दूसरा आड़ा बाण. तीन बाणों का प्रयोग करने से वह C तो महसूस हो ही रहा था, साथ-साथ कम्प्यूटर के दर्शकों की चिह्नभाषा का प्रयोग करने से यह अलग से बताने की ज़रूरत नहीं रही कि यह कम्पनी कम्यूटर के क्षेत्र में काम करती है. प्रत्येक अक्षर के लिए केवल काला चौकोन और सफ़ेद बाण से कम्पनी के आद्याक्षर बनाए, जिससे उसका ध्यान खींचने वाला एक सुन्दर डिज़ाइन बना था और महत्वपूर्ण जानकारी भी कम जगह में आ गई थी.
अरुण के इस लोगो का रसग्रहण करते-करते आर. नरसिंहन दूसरे एक विज्ञापन की तरफ़ मुड़े. उन्होंने मुझे अरुण की विनोदबुद्धि की एक कथा सुनाई.
‘इस विज्ञापन में एक बुनी हुई सुन्दर टोकरी में कुछ सेब दिखाई दे रहे थे और ऊपर आकाश से भी एक सेब टोकरी में गिरने वाला था. शब्द थे, ‘One by one, all the big apples are falling in our basket.’ क्योंकि बड़ी-बड़ी कम्पनियाँ सीएमसी को काम देने लगी थीं.
आज की विश्वविख्यात ‘एप्पल’ कम्पनी तब अभी-अभी स्थापित हुई थी. ‘एप्पल’ कम्प्यूटर होना, प्रतिष्ठा का लक्षण था. असल में, यह परस्पर सम्बन्ध बिल्कुल आसानी से सहज ही समझ में आने जैसा था. फिर भी एक वैज्ञानिक ने अरुण से पूछा,
‘लेकिन ये सेब यहाँ किसलिए दिखाए गए हैं?’
अरुण ने जवाब दिया, ‘क्योंकि यहाँ कटहल यक़ीनन ठीक नहीं लगते.’
चर्चा ख़त्म हुई.
अरुण के इन सभी विज्ञापनों की विशेषता देखिए. पहली बात, इसके चित्र या फ़ोटोग़्राफ़़ सामान्यतः विज्ञापित वस्तु नहीं दिखाते. विज्ञापनदाता की विज्ञापित वस्तु या सेवा को सीधे-सीधे दिखाने के बजाय केवल सूचित करना, अरुण की शैली की सबसे बड़ी विजय थी. इसलिए विज्ञापन विषय में सीधे हाथ डालने के बजाय, ज़रा चकमा देकर, व्यंग्य-विनोद से उस तक पहुँचना सम्भव होता था. अरुण जो चित्र विज्ञापन के लिए प्रयुक्त करता था, वे कल्पना से स्फूरित प्रतिमाएँ होती थीं. जब कोई सम्वादक प्रभावशाली प्रतिमा की योजना करता है, तब वह दर्शक के मन में ठिठकने वाली और ठीक से बसने वाली एक नई ‘कथा’ का निर्माण करता है.
विज्ञापन के शब्द ‘स्मरणीय’ होने ज़रूरी होते हैं. स्लोगन और विज्ञापन के शब्द की विशिष्ट बुनावट होनी चाहिए. वे अगर अपने लाक्षणिक अर्थ से परे जाकर दीर्घायु हो सके, तो विज्ञापन मीडिया से गायब हो जाने के बाद भी ठिठके हुए संध्यालोक की तरह उसका प्रभाव पीछे रह जाता है.
अब मुद्रित विज्ञापन को ज़रा अलग रखेंगे.
अरुण के विशिष्ट काम या जॉब की, सेल विभाग की रंगीन कथा मुझे एक वरिष्ठ और महिला अधिकारी मित्र ने सुनाई. कथा इस प्रकार है:
कपड़ा निर्यात करने वाली भारत की विविध कम्पनियों ने मद्रास में एक ट्रेड फेयर आयोजित किया था. एक विशाल जगह किराए पर ली गई जहाँ प्रत्येक कम्पनी के स्टॉल के लिए जगह आरक्षित थी. निवेदिका की कम्पनी का स्टॉल खड़ा करने की जिम्मेदारी व्यक्तिशः अरुण को दी गई थी. उसकी कम्पनी सुविख्यात, प्रतिष्ठित और अमीर होने के कारण उनके द्वारा आरक्षित की गई जगह भी काफ़ी बड़ी थी. स्टॉल सजाने के लिए तीन दिनों की अवधि थी. चौथे दिन उद्घाटन था.
पहले दिन अन्य कम्पनियों के स्टॉल तैयार होने लगे. लेकिन अरुण का पता नहीं. उसके किसी सहायक के रुमाल का छोर या नाक की फुनगी तक दिखाई नहीं दी. निवेदिका को चिन्ता होने लगी. लेकिन अरुण के काम की गुणवत्ता और व्यावसायिक अनुशासन के बारे में उसने काफ़ी सुना था, इसलिए ख़ामोश रही.
दूसरे दिन भी वही ढाक के तीन पात. अरुण का पता नहीं. वह कम्पनी की कचहरी में फ़ोन कर-करके परेशान हुई और बहुत ज़्यादा बौखला गई. उससे सम्पर्क करना किसी को भी सम्भव नहीं हुआ. वह बेहद हताश हुई. सारी रात उसकी आँख नहीं लगी. बीच-बीच में उठकर वह अरुण के होटल में फ़ोन करती रही, लेकिन वह सोने के लिए भी वहाँ नहीं गया था.
तीसरा और अन्तिम दिन उगा. वह स्टॉल पर कुछ सहायकों के साथ अरुण के नाम से उँगलियाँ चटकाती हुई बैठी थी. उसे लगा, एक तो इतना बड़ा स्टॉल अब और बड़ा बनकर हमें निगल जाएगा. उसके मन में तरह-तरह की आशंकाएँ आने लगीं. उसने पुलिस में ख़बर करने की भी सोची. वह चिन्ता में बैठी थी कि दोपहर के भोजन के बाद प्रवेशद्वार के पास उसे अचानक भीड़ और कोलाहल महसूस हुआ. वह वहाँ पहुँची. अरुण महाशय एक महाकाय पाल वाली नाव पहियों पर लादकर ला रहे थे. वे अपने सहायकों को कुछ सूचनाएँ दे रहे थे. तभी यह वहाँ पहुँची. अरुण ने हाथ हिलाकर उसके अस्तित्व का संज्ञान लिया और काम करने वालों का मार्गदर्शन करने लगा. कुछ ही देर में नाव स्टॉल में पहुँची. उस नाव में तोते का पिंजड़ा था और वह तोता जोर-जोर से कम्पनी के नाम का घोष कर रहा था.
कम्पनी के निर्यात वाले कपड़ों के नमूनों को एक दूसरे से जोड़कर एक विशाल पाल नाव पर लगाया गया था. गीली रेती भी बोरे भर-भर कर लाई गई थी. नीचे रेती बिछाकर उस पर नाव को खड़ा किया गया. दूर एक बहुत बड़ा पंखा लगाया गया और उसे चला कर पाल में हवा भरने का इन्तजाम किया गया. फिर वह मेरी सहेली से बोला, “The stall is ready.” स्टॉल को उसने उसके हवाले किया. साथ आए कोली लोगों को कुछ सूचनाएँ दीं और इजाज़त ली.
पहले तो हमारी सहेली को झटका लगा. धीरे-धीरे उसने अपने आप को सँवारा. नाव की तरफ़ देखा. नाव कई साल पुरानी थी. उसके लकड़ी के पटरे का रंग बीच-बीच में ख़राब हो चुका था. सालोंसाल लहरों के थपेड़े खाने से लकड़ी का भुरभुरा पोत दिखाई दे रहा था. पाल का मुख्य मस्तूल मज़बूत और ऊँचा था.
क़रीब से देखने के बाद उसने दूर जाकर अपने स्टॉल की तरफ़ देखा.
नाव का प्रबन्ध करते समय अरुण ने सम्पूर्ण हॉल के आकार का, संरचना का और प्रवेशद्वार के स्थान का ठीक से सोच-विचार किया था. इसलिए नाव केवल नज़रों में समा ही नहीं रही थी, बल्कि जितनी थी, उससे भव्य लग रही थी. नाव के सर्वांग पर मानवीय स्पर्शों और पंचमहाभूतों की कड़वी-मीठी मुलाक़ातों के निशान थे. नाव के सर्वांग पर नाविकों के सूखे पसीने के धुँधले निशान, परिचय चिह्नों की तरह बिखरे हुए थे. नीचे की गीली रेत के कारण उसके रूप में स्निग्ध और गीला-सा खुमार आ गया था और पंखे की हवा से उसके बन्द आकार में महीन झिरझिरी आ गई थी.
निर्यात होने वाले कपड़ों की बानगियाँ पाल में इतनी कुशलता से जोड़ी गई थीं कि उनका रंग और कपड़े के छापों और आकारों की रचना, सुनियोजित और लुकाछिपी का खेल खेल रही थी. नाव में दो लम्बे-लम्बे चप्पू थे. लग रहा था, उन्होंने अनेक साल समुद्र का खूब पानी पिया है. वह नाव ऐसा प्रभाव छोड़ रही थी कि समझदार के मन में भारत के तट से सैकड़ों साल निर्यात किए ऊँचे वस्त्रों के व्यापार की और सांस्कृतिक आदान-प्रदान की प्रतिमा ज़िन्दा हों. उनकी समुद्री यात्राओं का विस्तार अरब सागर से लेकर मध्य एशिया तक, रोम और इजिप्त तक पहुँच रहा था. बंगाल की खाड़ी से पूर्व एशिया के चीन, बर्मा, इण्डोनेशिया आदि देशों तक जाता था.
निवेदिका ने महसूस किया कि यह केवल एक विज्ञापन नहीं है. भारतीय इतिहास की विभिन्न परम्पराओं के अंशों को एकत्र बाँधकर यह दृक्-चमत्कार खड़ा किया गया है. यह सपेरे का खेल है. पाल का मस्तूल एक मन्त्रशक्ति से खड़ा रहने जैसा लग रहा था. नाव को ज़मीन से जिस कोन पर खड़ा किया गया था, उस कोन में उठने वाली लहरों का चैतन्य, एक क्षणचित्र की तरह रुका हुआ था. ज़रा दूर जाकर स्टॉल की तरफ़ देखते समय उसे महसूस हुआ कि उस विशाल फेयर में हिस्सा लेने वाला प्रत्येक व्यक्ति अवाक् होकर उसी के स्टॉल की तरफ़ देख रहा है.
चौथे दिन उद्घाटन हुआ और निवेदिका की कम्पनी को सर्वोत्तम स्टॉल का पुरस्कार मिला. प्रदर्शन के समापन तक उसका स्टॉल, सारी अचंभित पुतलियों को अपनी तरफ़ खींचता रहा. लेकिन फिर अरुण का पता नहीं था.
इस विस्तृत उदाहरण के पीछे मेरे अनेक उद्देश्य हैं. अरुण की कविता को सजगता से पढ़ने वाले प्रत्येक को यह महसूस होता है कि वह छोटे से छोटे ब्यौरे में भी कितनी सावधानी बरतता है. एक बार एक सम्पादक ने उसकी कविता के एक विराम चिह्न में बदलाव किया. इससे वह इतना नाराज़ हुआ कि उसके साथ उसने दस साल तक बात नहीं की. विज्ञापन क्षेत्र में काम का टाइम टेबल और तफ़सील की सावधानी को विज्युअलाइज़र की प्रतिभा जितना ही महत्व है. हालाँकि कविता के मामले में टाइम टेबल का सम्बन्ध नहीं है, लेकिन अरुण के काम का अनुशासन ऐसा है, मानो अनेक लड़ाइयों की आग से झुलसकर निकले सामुराई का अनुशासन हो.
अरुण के विज्ञापन क्षेत्र के काम से प्रकट होने वाले व्यक्तित्व में उस क्षेत्र में पायी जाने वाली आक्रामकता नहीं थी. अपनी बात को दानवीय हो-हल्ला मचाकर और जोर-जोर से चिल्लाकर पाठक के सिर में बट्टे के प्रहार से ठूँसने की जंगली प्रवृत्ति उसमें नहीं थी. उसके विज्ञापनों में उपभोक्ता का सभी तरह से विचार कर, उससे सम्वाद करने की वृत्ति होती थी. अरुण के सूक्ष्म निरीक्षण के कारण, प्रगाढ़ पठन के कारण और समाज के विभिन्न स्तर क़रीब से देखे हुए होने के कारण सभी प्रकार के उपभोक्ताओं के प्रति उसमें प्राकृतिक और सहजसुलभ सहानुभूति की भावना नज़र आती थी. उसके मूल में मानवता की ठोस नींव थी. उसके व्यंग्य में आविष्कार के व्यक्ति-स्वतन्त्रता के मूल्य को शब्दों के बिना अभिव्यक्ति दिखाई देती थी. कविता में नज़र आने वाली उसकी प्रतिभा और विज्ञापन क्षेत्र की प्रतिभा, दोनों एक जैसी ही अभिजात और विदग्ध हैं.
अरुण की ग्रंथरूप प्रतिभा के बारे में मैंने ऊपर लिखा है. उसका कविता संग्रह सही अर्थों में ‘उसका’ होता था. कविता संग्रह के पृष्ठ का आकार, पंक्तियों के शब्दों की संख्या, औसत और अधिक से अधिक लम्बाई, फाँट का मूड वग़ैरह हर बात का वह ख़याल रखता था. पुस्तक का आकार, साइज़, उसे पढ़ते समय हाथ में पकड़ने की सहजता, पुस्तक पिलपिली न हो, ऐसी मोटाई वग़ैरह सारी बातों पर ग़ौर कर वह अपनी पुस्तकों को आकार देता कि वह पुस्तक पाठकों के हाथ में आने पर उसे सहज अनुभूति दे सके. यह सब उसके कविता पढ़ने के शारीर अनुभव में अनजाने में शामिल था.
विज्ञापन क्षेत्र की प्रतिभा का उपयोग केवल उसकी अपनी पुस्तकों तक सीमित नहीं था. सन् 1970 के आसपास आदिल जसावाला, गीव्ह पटेल, अरविन्द कृष्ण मेहरोत्रा के साथ-साथ अरुण द्वारा शुरू किए ‘क्लियरिंग हाउस’ द्वारा प्रकाशित प्रकाशनों की अनोखी ग्रंथरचना और प्रकाशन सम्बन्धी सामग्री देखने पर नज़र आता है कि अरुण ने अपने कवि मित्रों के पुस्तकों के लिए कितने प्यार से काम किया है. अरुण के विज्ञापन क्षेत्र के काम का और उसके काव्यप्रेम का गहरा सम्बन्ध महसूस होता है.[xv]
कला और कौशल्य के बीच का अन्तर केवल अध्येताओं ने अपनी सुविधा के लिए बनाया होता है. एक बार पिकासो और आंरी मातीस बातें कर रहे थे. पिकासो ने कहा, ‘दो चित्रकार जब मिलते हैं, तब सबसे पहले वे इसी के बारे में चर्चा करने लगते हैं कि उत्तम श्रेणी के तैलरंग और अच्छे कैनवास कहाँ मिलते हैं. चित्रों के विषय और शैली के बारे में बातें नहीं करते.’ चित्रों के कारख़ानों के तैलरंगों की गन्ध जिनके नथुनों में नहीं समाई है, उन्हीं को कला कौशल की बेकार चर्चा करने की इच्छा होती है. उत्तम कला कौशल-पाषाण के ऊँचे पर्वत-शिखर पर सुबह की सूरज की किरणों से दमकने वाली बर्फ़ होती है.
विज्ञापन क्षेत्र में अरुण ने कुछ दशकों तक काम किया, फिर भी वह हंस की तरह उस पर तैरता रहा. जब इच्छा हुई तब पंख फैलाकर कविता के आसमान में उड़ान भरी और फिर एक सुन्दर वक्ररेखा से दोबारा कुशलतापूर्वक पानी पर उतरकर विहार करता रहा. वह विज्ञापन के व्यावसायिक पानी में रहा ज़रूर, लेकिन दिन भर पानी में क्वॅक-क्वॅक करती बत्तख नहीं बना. वह राजहंस था और राजहंस ही बना रहा.
३.
द पुलिसमैन[xvi]
अरुण ने सन 1969 में रेखाचित्रों का ‘द पुलिसमैन’ शीर्षक से तेरह अंक का निःशब्द नाटक लिखा था. एक नोटबुक के रूप में कई वर्षों तक वह मित्रों तक ही सीमित रहा. उसकी एक प्रति वृन्दावन दण्डवते ने जी-जान से सँभालकर रखी थी. अशोक शहाणे और वृन्दावन दण्डवते आदि मित्र इस नाटक को सन 2005 में पुस्तक रूप में ले आए. अरुण की मृत्यु के बाद. कवर अरुण का. टाइपोग़्राफ़़ी और रचना अशोक शहाणे की. वृन्दावन और अशोक ने यह पुस्तक अरुण के प्रति प्यार, आत्मीयता और अत्यन्त सजगता से प्रकाशित की है.
इन तेरह अंकों का नायक नटराज-नर्तक पुलिस देवता है. नायिका अरुण की नचैया नुकीली पेन्सिल है. तेरह अंकों में हमें उसके वात्सल्य का विश्वरूप दर्शन होता है.
मुखपृष्ठ के क्रूस पर कील ठोंककर बिठाया पुलिस देवता है. क्रूस पर परस्पर विसंगत दिशादर्शक बाणों के चिह्नों ने गड़बड़ कर दिया है. क्रूस पर पवित्र आत्मा का प्रतीक एक कबूतर बैठा है.
प्रवेश-चित्र में माथा और बालों पर जलते सिगरेट का ऐशट्रे रखा है. उससे निकलने वाला धुआँ आसमान में सर्पिल रेखा बनाता है. उसी धुएँ की रेखा से पुस्तक निकलती है.
चित्र के अनुसार पहले अंक का वर्णन इस प्रकार है:
‘चुनिन्दा रेखाओं से बना एक खेत. आसमान में पूर्ण चंद्र. ईंट पर खड़ा पुलिस देवता हाथ से ट्राफ़िक रोक रहा है. दो चींटियाँ खेत में दाने ढूँढ़ने में व्यस्त हैं. एक उड़ने वाला चतुर अधर में रुका है.
खेत वही. वही ईंट वाला पुलिसदेव. वह आसमान की तरफ़ देख रहा है. चंद्र दशमी का और खेत में तितलियाँ.
वही खेत. वही आसमान की तरफ़ देख रहा ईंट पर खड़ा पुलिसदेवता. अष्टमी का चंद्र. खेत में आँखों में काइयाँपन लिए एक सांप तिरछी नज़र से देख रहा लेटा हुआ है.
पुलिसदेवता के हाथ का क्लोज़अप. उसकी उंगलियों पर चींटियों की कतार.
पुलिसदेवता के पैरों का क्लोज़अप. पैरों के किनारे चींटियों की कतार.
पुलिस देवता के सिर की दाईं ओर का मिड क्लोज़अप. उसकी आँखों में फूल खिले हैं. जेब से भी फूल झाँक रहे हैं.
खेत का लाँग शॉट. खेत का साँप पुलिसदेवता के हाथ से लपेटा हुआ बैठा है. ईंट पर खड़े पुलिसदेवता का नटेश्वर-नटराज में रूपान्तरण हुआ है. चंद्रमा प्रतिपदा का है.
अब आगे के चित्रों और अंकों का संक्षिप्त वर्णन करता हूँ.
‘पुलिसदेवता ट्रैफ़िक कण्ट्रोल कर रहा है. घोंघे के रास्ता लाँघने तक उसे ट्रैफ़िक को रोके रखना पड़ता है. इसमें इतना समय निकल जाता है कि पुलिस देवता में पत्तियाँ फूटकर उसी का पेड़ बन जाता है. उससे झांकने वाला उसका हाथ अभी भी ट्रैफ़िक रोके हुए है.
रास्ता लाँघने के लिए घोंघा दुबारा आता है. पिछले अनुभव से समझदार बना पुलिस देवता अब ईंट पर ट्रैफ़िक के साइन वाला शिलालेख रखकर भाग जाता है.
पुलिस देवता बिजली को हाथ से ‘रुको’ कहता है. बिजली बिना उसकी परवाह किए उसके सिर के ऊपर से गुज़र जाती है. सिर पर जलती टोपी की धुएँ की रेखा दिखाई देती है. यातायात का क़ानून तोड़ने के कारण पुलिसदेवता बिजली की गाड़ी का नम्बर नोट करता है.
पुलिस देवता बरसात को ‘रुकने’ का इशारा करता है. बरसात नहीं रुकती. बाढ़ आती है. उसमें कालिया नाग बहता हुआ आता है. पुलिस देवता उसके फन पर खड़ा होकर ‘रुकने’ की चेतावनी देता रहता है. उसके हाथ में एक मछली फँसी हुई है, जिसका एक सुन्दर मत्स्यकन्या में रूपान्तरण होता है. एक बहुत बड़ी मछली आकर मत्स्यकन्या समेत पुलिसदेवता को निगल लेती है. वे दोनों उसके पेट में बड़ी ख़ुशी-ख़ुशी रहते हैं.
बिजली लौट आती है और पुलिस की वर्दी जलाकर उसे नंगा कर देती है.
डायनासोर आते हैं. पुलिस देवता उन्हें इतनी देर तक रोके रखता है कि उनका वे हड्डियों के ढाँचे में बदल जाते हैं. फिर एक क्रेन उनकी सारी हड्डियाँ जमा करती है. उनकी हड्डियों की माला को गले में डालकर पुलिस देवता भूतनाथ-शिवरूप में ट्रैफ़िक कण्ट्रोल का काम ईमानदारी से शुरू करता है.
मधुमक्खियाँ आती है और पुलिस देवता के, ट्रैफ़िक रोकने के लिए सीधे तने स्थिर हाथ की काँख में छत्ता बनाती हैं.
पुलिस देवता अब सर्कस के मूड में आता है. हाथ में एक गोल कड़ा लेता है और इंद्रधनु को उसमें कूदने के लिए कहता है. इस चमत्कार को अंजाम देने के कारण पुलिस देवता का चित्र ‘टाइम्स’ पत्रिका के कवर पर छापा जाता है.
बिजली लौट आती है और पुलिस देवता को नंगिया जाती है. दर्जी आकर नए कपड़ों के लिए उसका नाप लेता है.
तपते सूर्य के नीचे पुलिस देवता अपनी ड्यूटी कर रहा होता है. ट्रैफ़िक है बस उसकी लम्बी होती छाया का.
बिजली लौट आती है. ड्रैगन का रूप धरती है. पुलिस देवता के पास-पास आती है. पुलिस देवता लम्बी ज़बान निकालकर कुछ ऐसा रूप धारण करता है कि बिजली अपने दोनों पैरों के बीच में दुम दबाकर भाग जाती है.
असल में, इस तेरह अंक के शब्दहीन नाटक का शब्दों में कुरूपान्तरण करना, एक दृक्-कवि का अपमान है. लेकिन केवल विश्लेषण के लिए मैंने यह मगजमारी की है. क्योंकि इस शब्दशून्य नाटक में अरुण की कविता शैली की और शब्दरूपों की लगभग सारी विशेषताएँ दिखाई देती हैं.
शब्दशून्य दृक्-नाटक के चित्र मित-रेखा-चित्र होने के कारण उन्हें बहुत ज़्यादा ब्यौरे की ज़रूरत नहीं है. यह शैली अरुण की मिताक्षरी शैली से ठीक से जुड़ती है. इसी शैली में आंद्रे फ्रांस्वा (1195 से 2005), सॉल श्टाईनबर्ग (1914 से 1999) और जेम्स थर्बर (1894 से 1961) ने काम किया है. उनके और अरुण के विनोद का कुल और जाति एक नहीं हो, फिर भी शैली में पारिवारिक साम्य है.
मिथक काल और उत्क्रान्ति काल का संयोग, जीवसृष्टि के विभिन्न जीवों के बारे में कुतूहल, धार्मिक परिकल्पनाएँ और उनका समकालीन भाषा में रूपान्तरण – जैसे देवता का ट्रैफ़िक पुलिस में रूपान्तरण कर उससे कालिया मर्दन, शिव ताण्डव इत्यादि लीलाएँ करवाना, मनु की मछली का सन्दर्भ इत्यादि- और यह सब करते समय चेहरे पर शरारती मुस्कान की रेखा को स्थिर रखना. इस कारण अरुण प्रत्येक चित्र से झाँकता है. अवतार की परिकल्पना एक युग का अन्त होने से जुड़ी हुई है. (सम्भवामि युगे युगे) यहाँ अरुण ने पुराण के महाप्रलय और सबकुछ नए सिरे से शुरू करवाने वाली बिजली का, यानी आप और तेज आदि महाभूतों का प्रयोग कर युग परिवर्तन किया है.
कार्टून स्ट्रिप द्वारा समाए हुए सिनेमा के प्रतिमा आकार, उदाहरणार्थ, क्लोज़अप, लाँग शॉट, इत्यादि का प्रयोग भी इस निःशब्द नाट्य में प्रभावशाली ढंग से हुआ है. चींटियों से भरा पुलिस का हाथ साल्वादोर दाली और ब्युन्युएल द्वारा बनाई फ़िल्म ‘Un Chien Andalou’ के हाथ में हुए छेद से चींटियों के बाहर आने वाले विख्यात क्लोज़अप की याद दिला जाता है.
सौभाग्य से यह पुस्तक अभी उपलब्ध है. जिन पाठकों को अरुण की कविता पसन्द है और जिन्होंने उसके संग्रह ख़रीदे होंगे, उनसे आग्रह है कि वे इस पुस्तक को अपने संग्रह में ज़रूर रखें. एक बार यह आपके संग्रह में आ जाए, तो फिर अरुण की अन्य पुस्तकों की कविता आनन्द से शिव-पुलिस ताण्डव करने लगेगी.
जारी.
सन्दर्भ
[i] Kala Ghoda, Poems de Bombay, Preface de Laetitia Zecchini, Traduction de I’anglais (Inde) par Pascal Aquien et Laetitia, Edition bilingue, nrf, Gallimard, 2006
[ii] Jejuri, Zweisprachige Ausgabe, Dt. V.G.Bandini, Varlag : (Freiburg iBr) Mersch, 1984
[iii] “Thank you, Arvind, thank you Adil for friendship over the years and also for Kala Ghoda poems’, Arun kolatkar, Pras, 2004.
[iv] Arun Kolatkar: Collected poems in English, Ed. by Arvind Krishna Mehrotra, Bloodaxe Books, 2010.
The Boatride and other poems, edited with introduction, Notes and chronology by Arvind Krishna Mehrotra. Pras Prakashan, 2009.
Translating the Indian Past and other literary histories, Arvind Krishna Mehrotra, Permanent Black, 2019. इन तीनों पुस्तकों में मेहरोत्रा ने अरुण की ज़िंदग़ी के बारे में और कविता के बारे में लिखा है.
[v] अरुण कोलटकर का सम्पूर्ण ग्रंथ-संग्रह और उसके द्वारा एकत्र किए समाचारपत्र, पत्रिकाएँ वगैरह पर टिप्पणियाँ आदि सब भाण्डारकर ओरिएण्टल रिसर्च संस्था में एक अलग कक्ष में हैं. लेकिन वहाँ पूछताछ करने पर पता चला कि विज्ञापनों के कार्डबोर्ड पर बनाए बड़े आकार के प्रेसपुल्स वहाँ नहीं हैं. अब वे कहाँ है, यह केवल अशोक शहाणे और ईश्वर ही जाने.
[vi] The Boatride and other poems, Intro. P. 20, Arvind Mehrotra. इसमें लिबर्टी शर्ट के विज्ञापन का उल्लेख है. दर्शन ने अरविन्द को दिए अरुण की व्यावसायिक डायरी की स्पाइरल फाइल में मिले रेखांकन के बारे में अरविन्द ने लिखा है. लेकिन उसका और कविता का सम्बन्ध होगा, यह कहीं भी निःसन्देह दिखाया गया हो, मेरे पढ़ने में नहीं आया.
[vii] The Butterfly, p. 27, Jejuri, Pras Prakashan, 2001.
[viii] पृ. 313, भिजकी वही, प्रास प्रकाशन, 2016
[ix] P. 258, Chronology, The Boatride and other poems, see note 83. इसमें कुछ ब्यौरा लेखक ने अपनी स्मृतियों से दिया है, और जहाँ अन्य स्रोतों का प्रयोग किया है, उनका यथोचित उल्लेख किया है.
[x] क्रिशन खन्ना ने आधी सदी से अधिक समय तक अरुण की इस दौर की कविताओं का टंकलेखन सँभालकर रखा था. ये कविताएँ प्रकाशित करने के लिए उसने इसकी पाण्डुलिपियाँ मेरी पत्नी गीता मेहरा को सौंपीं और हमने उसे अशोक शहाणे तक पहुँचाया. क्रिशन ने टंकलेखन की कथा की छोटी-सी प्रस्तावना भी लिखी थी और मुख्य कवर के लिए अपना एचिंग भी दिया था. वृन्दावन दण्डवते ने पुस्तक का शुरूआती डिज़ाइन भी बनाया था. इस बात को कई साल बीत गए. आख़िरकार, हमने मूल प्रति क्रिशन को लौटा दी. यह कविता अभी भी अप्रकाशित है.
[xi] इसका तिथि के अनुसार ब्यौरा अरविन्द मेहरोत्रा द्वारा सम्पादित . ‘Arun Kolakar : Collected Poems in English, Bloodaxe Books, 2010, pp. 360 to 363’ पर आधृत है. जहाँ मुझे जानकारी थी, वहाँ उसे मैंने जोड़ा है.
[xii] Https://jnaf.org/artist/bal-chabada/ वेबसाइट पर बाल छाबड़ा का संक्षिप्त चरित्र उपलब्ध है.
[xiii] देखिए पृ. 89 ‘चिखल ठरलो दीक्षापात्र भटकलो भाग्यहीन’, पृ. 92 ‘मुंबईने भिकेस लावलं’, अरुण कोलटकर की कविता, प्रास प्रकाशन, चौथा संस्करण, 2007.
[xiv] पृ. 97, उपरोक्त.
[xv] पृ. 88 से 98 और अन्य, Bombay Modern: Arun Kolatkar and Bilingual Literary Culture, Anjali Nerlekar, Northwestern University Press, 2016 पुस्तक में इसके बारे में चर्चा और कुछ तस्वीरें हैं. Anjali Nerlekar (2020): The LCD of Language: The Materialist Poetry of Arun Kolatkar and R. K.
Joshi: South Asia: Journal of South Asian Studies. इस लेख में अंजली नेर्लेकर ने इस बात का सुंदर विवेचन किया है कि अरुण कोलटकर और र. कृ. जोशी इन दोनों कवियों ने किस तरह अपने विज्ञापन क्षेत्र से संबद्ध छापने की कला और सुलेखन का प्रयोग दृक-कविता लिखने के लिए किया है.
[xvi] The Policeman, A Wordless Play in Thirteen Scenes, Arun Kolatkar, Published by Ashok Sahane for Pras Prakashan, October, 2005.
अरुण खोपकर मणि कौल निर्देशित ‘आषाढ़ का एक दिन’ में कालिदास की प्रमुख भूमिका. सिने निर्देशक, सिने विद् और सिने अध्यापक. फिल्म निर्माण और निर्देशन के लिए तीन बार सर्वोच्च राष्ट्रीय पुरस्कारों के सहित पंद्रह राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित. होमी भाभा फेलोशिप से सन्मानित. |
गोरख थोरात
समकालीन मराठी से हिंदी अनुवादकों में एक चर्चित नाम. हिंदी में अनेक आलोचनात्मक पुस्तकें प्रकाशित लेकिन पहचान बतौर अनुवादक. ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित साहित्यकार भालचंद्र नेमाड़े के ‘हिंदू-जीने का समृद्ध कबाड़’ से अनुवाद कार्य प्रारंभ. भालचंद्र नेमाड़े के साथ-साथ अशोक केळकर, चंद्रकांत पाटील, महेश एलकुंचवार, अरुण खोपकर, दत्तात्रेय गणेश गोडसे, रंगनाथ पठारे, राजन गवस, जयंत पवार, अनिल अवचट, मकरंद साठे, अभिराम भड़कमकर, नरेंद्र चपळगाँवकर, मनोज बोरगाँवकर समेत अनेक साहित्यकारों की करीब चालिस रचनाओं का अनुवाद. रजा फौंडेशन के लिए साहित्य-कला आलोचना संबंधी अनेक पुस्तकों का अनुवाद. महाराष्ट्र राज्य हिंदी अकादमी मामा वरेरकर अनुवाद पुरस्कार, अमर उजाला ‘भाषा बंधु’ पुरस्कार, Valley of Words International Literature and Arts Festival, 2019 Dehradun का श्रेष्ठ अनुवाद पुरस्कार, बैंक ऑफ बड़ोदा का राष्ट्रभाषा सम्मान श्रेणी (लेखक तथा अनुवादक को पाँच लाख रुपए का पुरस्कार) समेत अनेक पुरस्कारों से सम्मानित. gnthorat65@gmail.com
|
कोलटकर अपनी ही तरह के कवि हैं, अन्य कवियों से radically भिन्न। युवा दिनों से ही उनकी अँग्रेज़ी की कविताएँ और मराठी से अनुवाद पढ़ते आये हैं। पिछले वर्ष कुछ हिन्दी अनुवाद भी “समालोचन” में प्रकाशित हुए थे। आजकल मैं बहुत कम पढ़ता हूँ। पर यह लेख पढ़ा जायेगा।
बहुत बढ़िया आलेख जो कोलटकर के कवि कलाकार और व्यक्तित्व को हमारे सामने सहलाते हुए खोलता है और सहेजते हुए फैला देता है।
बहुत dense आलेख है और इसे बार बार धीरे धीरे ही पढ़ा जाना चाहिए। एक बड़े कवि के अनेक स्रोतों की इतनी आत्मीयता से पड़ताल करना कठिन काम होता है।
आपको दोएक अंक कविताओं के भी निकालना चाहिए ताकि पाठक जान सकें वे कैसे कवि थे।
उनसे मिलने का सौभाग्य भी रहा मेरा।
यह महत्वपूर्ण आलेख है। इसे पढ़ना एक अनोखे सर्जनात्मक व्यक्ति और उसके कला समय से गुज़रना है। अरुण कोलटकर विश्व कविता में भारत की ओर से प्रतिनिधि प्रविष्टि हैं। (मेरे पास सप्रयास एकत्र, उनकी उपलब्ध सभी कविताएँ (मराठी के अलावा) हैं।)
यहाँ अरुण खोपकर जी ने उनकी कला के दूसरे पक्ष का बहुत ही अच्छे ढंग से परिचय दिया है। अगली किश्त की प्रतीक्षा है। समालोचन का यह अंक स्मरणीय रहेगा।
यह आलेख निश्चित ही मराठी के विलक्षण कवि और इस लेख से जैसे मुझे पता चला कि अँग्रेज़ी के भी उतने ही विलक्षण कवि श्री अरुण कोल्हटकर के व्यक्तित्व के उस दूसरे विलक्षण पहलू से अवगत कराता है, जिसकी ओर कविता प्रेमियों का ध्यान नहीं ही जाता है। बहुत विस्तार से एक कवि के चित्र व दृश्य कला सृजन को बताया गया है। जो सभी साहित्य प्रेमियों को चकित भी करता है। शायद इस आलेख का मुख्य उद्देश्य भी यही रहा होगा कि कवि के उस दूसरे कृतित्व को उभारा जाए, समाज के सामने लाया जाए। किंतु मेरे जैसे जो कोल्हटकर जी की कविता की एक एक बूंद की अभिलाषा करते हैं और चाहते हैं कि उनकी अंग्रेज़ी और मराठी दोनों ही कविताएं पढ़ पाएं। उनकी कविता पर खूब बात हो। आशा है आगे कभी कोल्हटका जी की कविताओं पर गंभीर बात हो। फिर भी इस आलेख के लिए खोपकर जी का आभार
आलेख के लिए आभार।
वाकई बढ़िया आलेख है.