अरुण कोलटकर-2 कविता और कैमरा अरुण खोपकर मराठी से हिंदी अनुवाद: गोरख थोरात |
अरुण की अंग्रेज़ी में लिखी कविताएँ और मराठी में लिखी कविताएँ समान दर्जे की हैं. लेकिन यह कैसे सम्भव होता है? इस पहेली को लेकर समीक्षकों में कई बार चर्चाएँ हुई हैं. वह पहले किस भाषा में विचार करता है, इसके बारे में उससे अनेक सवाल पूछे गए. लेकिन साक्षात्कार देने से बचने वाले अरुण ने इस सम्बन्ध में अपनी और उसके द्वारा अनूदित सन्त कवियों की कविताओं के सम्बन्ध में कविताएँ लिखकर इसका उत्तर दिया है.[i]
अरुण कई बार एक कविता अंग्रेज़ी में लिखता है. मराठी में उसी ‘विषय’ पर दूसरी कविता लिखता है. कभी इसके विपरीत भी होता है. इसमें कोई भी एक कविता दूसरी का अनुवाद नहीं होती. प्रत्येक कविता अपने-अपने ढंग से स्वतन्त्र होती है. अरुण की अनेक कविताएँ पढ़ते समय ऐसा लगता है, दृक्-प्रतिमा उनका मेरूदण्ड है. इस मेरूदण्ड में दो अलग भाषाओं के शब्द, अर्थ, नाद और लय फूटते जाते हैं. अरुण की कविता में अनेक समर्थ क्षण, बिम्ब-अर्थ-नाद इस त्रिमिति दृष्टि की अनुभूति कराते हैं.
अरुण के मनःचक्षुओं को दिखाई दिए बिम्ब अचूक फ्रेम में और लेन्स में बन्द होते हैं और वहाँ से उनका शब्दरूप तक का सफ़र शुरू होता है. भाषा के मोड़ के अनुसार अंग्रेज़ी में उसका एक रूप होता है; उसी प्रकार मराठी कविता में कवि दोबारा प्रतिमाओं के मेरुदण्ड से प्रारम्भ करता है. नए शब्दरूप में नई कविता का निर्माण करता है.
इन प्रतिमाओं के मेरुदण्ड की अवधारणा का स्पष्टीकरण देने के लिए एक उदाहरण देता हूँ. यह उदाहरण अरुण के ‘जेजुरी’ संग्रह की ‘पुजारी’ कविता के पहले चार चरणों का विश्लेषण है.[ii]
वे चरण इस प्रकार हैं:
चूतड़ एड़ियाँ
नैवेद्य
जंगले पर
खुरदरे पत्थर का ठण्डा ओस भरा स्पर्श
फोता सिमटकर
पुजारी दृष्टि दूर फेंकता है
बस लेट लगती है
खाने को आज
पूरन पोली मिलेगी या नहीं
सड़क ख़ामोश
मुर्दे के हाथ की
निस्पंद भाग्यरेखा
पहले चरण की प्रतिमा देखने वाली आँख/कैमरा जंगले पर बैठे पुजारी के पिछवाड़े में, जमीन की ऊँचाई पर या एक सीढ़ी नीचे लगा है. वरना चूतड़, एड़ियाँ और जंगले का नैवेद्य सब एकत्रित नज़र नहीं आते.
‘खुरदरे पत्थर का ठण्डा ओस भरा स्पर्श
फोता सिमटकर’
ये सारी प्रतिमाएँ उसी कैमरे के स्थान से दिखती हैं. लेकिन लेन्स बदलकर अधिक तफ़सील दिखाने वाली मैक्रो का इस्तेमाल किया है. पहले चरण में प्रकाश योजना का कोई अनुमान नहीं होता. दूसरे में खुरदरे पत्थरों का ठण्डा स्पर्श दिखाने वाला प्रकाश तनिक तिरछा आया है. उससे ढलते धूप का समय बिना उल्लेख किए सुझाया जाता है.
‘पुजारी दृष्टि दूर फेंकता है.’
इस पंक्ति में कैमरा यक़ीनन पुजारी के अगली तरफ़ आया है. साथ ही उसे पुजारी की आँखें दिखाई देती हैं. यानी कैमरा बहुत ऊँचाई पर न होकर उस ऊँचाई पर है, जिस पर पुजारी बैठा है.
जब आदमी का दृष्टि फेंकना दिखाना होता है, तब देखने वाले का चेहरा फ्रेम का कम हिस्सा हथियाता है और उस दृष्टि को जगह देने के लिए अधिक हिस्सा खाली दिखाया जाता है. शायद ऐसा शॉट लेते समय चेहरे का तीन चौथाई हिस्सा या प्रोफाइल प्रयुक्त किया जाता है. इस शॉट के बाद, यक़ीनन, दर्शक इस संकेत की तरह उम्मीद करता है कि देखने वाले को क्या दिखता है, वह अगले शॉट में आएगा.
लगता है बस लेट है
खाने को आज
पूरन पोली मिलेगी या नहीं
शॉट चाहे पुजारी के चेहरे का हो, फिर भी दर्शक को, वो जो देखता है, उससे उत्पन्न होने वाले भाव और सड़क का जायज़ा लेने वाली आँखें दिखाई देती हैं. दर्शक की आतुरता बढ़ती है. जो दिखाना है, उसे ज़रा तनकर दिखाया जाए तो वह दृश्य देखने के लिए अधीर होता है.
सड़क ख़ामोश
यह पुजारी को दिखाई देने वाली एक छोटे गाँव की निर्मनुष्य सड़क का शॉट है. यह पुजारी के दृष्टिकोण से लिया गया है. धूल में दिखने वाली एक ही सड़क की निश्चल रेखा से सूझी हुई,
मुर्दे के हाथ की
निस्पंद भाग्यरेखा
इस दृक्-प्रतिमा को अवसर देती है. उसके साथ-साथ पाठक-दर्शक की आँखों के सामने के वास्तव को प्रतिक्रिया जैसा भावरंग देती है. यह भावरंग देने वाला निवेदक कवि, पहले वास्तव या डॉक्यूमेंट्री शॉट, सुयोग्य कैमरा एंगल और लेन्स से दिखाता है. वास्तव की प्रतिमा का एक धागा पकड़कर (सड़क की सीधी रेखा) फिर उसमें सूचक भावरंग (निस्पंद भाग्यरेखा) भरता है. इस भावरंग से कुल माहौल के निस्पंद का अंश अनुभव होता है.
अरुण ने ‘जेजुरी’ में तीन छोटी पंक्तियों के चरण का जो आकार निश्चित किया है, उसमें कभी वह भावरंग के लिए तो कभी निवेदन के लिए दो पंक्तियों का प्रयोग करता है और एक पंक्ति में दृश्य का ब्यौरा देता है. या कभी ब्यौरा दो पंक्तियों में देकर भावरंग एक पंक्ति में प्रस्तुत करता है. ब्यौरा और भावरंग के अदल-बदल वाले ताने-बाने की बुनावट के कारण, कविता की लय में बहुत ज़्यादा फर्क न आकर, बिना झटका लगे, प्रत्येक चरण और बाद का चरण आदि सभी चरणों द्वारा मिलकर ऐसा एकत्व साध्य किया जाता है. मुझे हमेशा लगता है कि इन तीन पंक्तियों की अंग्रेज़ी की रचना भी ‘ओवी’ छन्द के पास जाती है. और तीसरी पंक्ति के बाद ‘यति’ महसूस होती है. जिस तरह नाद थमने के बाद अनाहद नाद का संगीत सुनाई देता है, उसी तरह अरुण की कविता का अनुनाद रिक्त चौथी पंक्ति में सुनाई देता है.
कविता में सिनेमाई प्रयोग
अब हम अरुण के सिनेमा/फ़ोटोग़्राफ़़ी के इस्तेमाल की तरफ़ मुड़ेंगे. चलत् चित्र में असल में चित्र का चलन होता ही नहीं. स्थिर चित्र के स्थान में यदि सूक्ष्म बदलाव हुआ तो दृष्टिसातत्य से वह हिलने जैसा लगता है. यदि मूल चित्र बदलते दृश्य का क्षणचित्र है, तो वह लाइव एक्शन सिनेमा बनता है. यदि स्थिर चित्र बनाया हुआ या कम्प्यूटर से बना होगा तो वह एनिमेशन होता है. कम्प्यूटर द्वारा बनाया एनिमेशन यानी कम्प्यूटर ग्राफ़िक्स. हालाँकि यह उसका स्थूल वर्णन हुआ.
अरुण में जिस तरह एक चित्रकार, फ़ोटोग़्राफ़़र और एनिमेटर था, वैसा हा वह एक समर्थ सिने-निर्देशक भी था. अपनी चालाक आँखों से, सूक्ष्म निरीक्षण की मदद से और विशाल दृक्-प्रतिभा के कारण यह निर्देशक आसपास की दुनिया की अनेक फ़िल्मों की ‘ताक’ में रहता है. फिर उन्हें प्रस्तुत करने के लिए उचित मिझआंसॅन (पात्र-मंच-रचना) करता है, कैमरा एंगल और लेन्स चुनता है. इन प्रतिमाओं और ध्वनियों के अंश शब्दबद्ध करता है. उससे सिनेमा का आभास हो, ऐसे चलत् चित्र दिखने लगते हैं. ध्वनिचित्र बनने लगते हैं. वे शब्दों पर तैरते हैं और दूसरे चलत् चित्रों को जगह देते-देते गायब हो जाते हैं.
अव्यक्त प्रतिमाओं की श्रृंखलाओं के लिए मैंने ‘प्रतिमाओं का मेरुदण्ड’ संज्ञा का इस्तेमाल किया है. एक ही कथावस्तु या विषयवस्तु पर आधारित मराठी या अंग्रेज़ी कविता की तुलना करने पर उसमें भाषा का ढंग कई बार इतना बदल जाता है कि रूपान्तरण महसूस ही न हो. भावरंग भी बदल जाता है. लेकिन वास्तव के जिन अंशदृश्यों से प्रतिमाएँ बनती हैं, उसमें यानी प्रतिमाओं के मेरूदण्ड में बहुत ज़्यादा बदलाव नहीं होता.
अरुण जब सन्त कवियों के अनुवाद करता है, तब वह अनुवाद की स्रोत कविताओं से उमस की गन्ध निकाल फेंककर, उन्हें आज की खुली हवा में लाना चाहता है. अनेक अनुवादक मूल कविता के लिए लक्ष्य भाषा में समकालीन या समानशीला रचना शैली की खोज करते हैं. इसलिए पाठक को वह कविता पढ़ते समय वर्तमान और कविता निर्मिति के दौर का अन्तर महसूस होता है और अनुवादक की भी यही मनीषा होती है.
अरुण का उद्देश्य तुकाराम को आज की अंग्रेज़ी में बुलवाना होता है. इसके लिए वह विशिष्ट ‘पात्वा’ (patois) या बोली भाषा ढूँढ़ेगा भी. लेकिन, यह भाषा कवि के, अनुवादक/रूपान्तरणकार के और पाठक के दौर का फ़ासला कम करने के लिए इस्तेमाल की जाती है; उसके अन्तर को रेखांकित करने के लिए नहीं. अरुण की बुनियादी श्रद्धा है कि अभिजात साहित्य सभी दौर में समकालीन साबित होना चाहिए, जिसकी अनुभूति उसके द्वारा किए अनुवाद पढ़ते समय होती है.
लेन्स और दृष्टि
‘पुजारी’ कविता के विश्लेषण में हमने देखा है कि अरुण कैमरा कहाँ रखता है और इससे उसकी कविता की दृक्-प्रतिमा कैसे निश्चित होती है. परन्तु केवल कैमरे के स्थान से प्रतिमा निश्चित नहीं हो सकती. इसके लिए विशिष्ट लेन्स और उचित प्रकाश योजना ज़रूरी होती है. यहाँ लेन्सिंग का प्रयोग तकनीकी न होकर अवधारणात्मक है. कोई दृक्-प्रतिमा विशिष्ट प्रकार से खोदने या शिल्पित करने का साधन; इसी रूप मैंने लेन्सिंग का विचार किया है. क्योंकि अरुण को इन प्रतिमाओं से फ़िल्म नहीं, कविता बनानी है. इसलिए यह ‘मानसिक’ लेन्सिंग है.
लेख का प्रस्तुत हिस्सा सिने-निर्मिति के कैमरा अंगल, कैमरे का चलन, मोन्ताज इत्यादि विभिन्न रचना प्रक्रियाओं के समानान्तर जा रहे अरुण के ख़ास ‘मानसिक सिने-तकनीक’ का विश्लेषण करता है. सिने-तकनीक से कुछ अनभिज्ञ पाठकों को यह रास्ता तनिक खुरदरा लग सकता है. इसकी कुछ संज्ञाएँ नई हैं. लेकिन मैं समझता हूँ, आजकल प्रत्येक के पास सेलफ़ोन है, उसलिए वे संज्ञाएँ पाठकों की अपने आप ही समझ में आएँगी. पाठक यदि बिना बेसब्र हुए यह हिस्सा पढ़ पाए तो उन्हें अरुण की कविता के चंट बिल्लौरी पक्ष के कुछ नए पहलू भी दिखाई देंगे.[iii]
कवि के सिने-तकनीक में कैमरे से जुड़ी ये बातें अहम हैं:
दृष्टिकोण की ऊँचाई: कैमरा एंगल. कैमरा घटनाओं या पात्रों की आँखों की ऊँचाई पर (eye level) रखें या उसके ऊपर (top angle) या बिल्कुल निचले स्तर पर (low angle) रखें.
प्रतिमा चौखट (फ्रेम): दर्शक क्या देखे और क्या न देखे, ये दोनों बातें सुनिश्चित करने वाली चौखट.
प्रतिमा-आकार (इमेज-साइज): उदाहरणार्थ, एक्सट्रीम क्लोज़अप, क्लोज़अप, मिड शॉट, लाँग शॉट, एक्सट्रीम लाँग शॉट.
दृष्टिक्षेत्र की गहराई: किस अन्तर से किस अन्तर तक की वस्तुएँ सुस्पष्ट दिखाई देंगी.
दृष्टिक्षेत्र का तनाव: जब दृष्टिक्षेत्र की क़रीबी वस्तु छोटी होने के बावजूद उसकी प्रतिमा सुस्पष्ट और बड़ी दिखाई देती है और दूर की वस्तु उतनी ही सुस्पष्ट होगी, तो उनके बीच का अवकाश अधिक तना हुआ-सा महसूस होता है. मानसिक तनाव बढ़ाने के लिए या उन्मादावस्था का अनुभव व्यक्त करने के लिए प्रतिमाकार इस बढ़े हुए तनाव का उपयोग करते हैं.
इन मुद्दों के आधार पर अब हम ‘सिस्टर कॅरोलला’ कविता की पंक्तियाँ देखेंगे.[iv]
नाक से निकले नाल के कोष्ठक में
दूर कुर्सी पर बैठी माँ दिखती है
निवेदक/कवि अस्पताल में कॉट पर सोया है. उसे नली से द्रवरूप औषधियाँ दी जा रहा हैं. नली टेढ़ी होने के कारण वह कोष्ठक मुद्रणचिह्न जैसी बनती है. कोष्ठक के भीतर जैसे अक्षर दिखते हैं, वैसी ही उसे दूर कुर्सी पर बैठी माँ दिखाई देती है. यह नली उसे माँ से जोड़ती है इसलिए वह नाल बन जाती है और ‘नाल का कोष्ठक’ बनता है. फ्रेम या प्रतिमा-चौखट भी बनती है. कवि ने यहाँ जो मानसिक लेन्स प्रयुक्त की है, उसकी दृष्टि क्षेत्र की गहराई के कारण, उसे नली का कोष्ठक और माँ, दोनों बातें साफ़-साफ़ नज़र आती हैं. इसका अर्थ दृष्टि का क्षेत्र गहरा है और तना हुआ भी है.
मानसिक लेन्सिंग के कारण दृष्टिक्षेत्र की गहराई और तनाव में कैसा बदलाव होता है, इसे स्पष्ट करने के लिए एडगर एलन पो द्वारा सन 1850 में लिखी ‘स्फिंक्स’ कथा के एक प्रसंग का वर्णन करता हूँ.
इस प्रसंग में खिड़की से बाहर देखने वाले निवेदक को एक प्रागैतिहासिक महाकाय प्राणी नज़र आता है. प्राणी की सूँड़ और शरीर की चोईं से उसके मन में बेहद डर उत्पन्न होता है. बाद में जब वह अपने मित्र को यह प्रसंग सुनाता है, तब मित्र उसका स्पष्टीकरण देता है. यह प्रागैतिहासिक प्राणी यानी खिड़की के रोशनदान पर बैठा एक कीट होता है. निवेदक की मनोदशा के तनाव से, उसकी आँखों की पेशियाँ सिकुड़ती हैं इसलिए लेन्स का केंद्रान्तर कम होकर दृष्टिक्षेत्र की गहराई असाधारण बढ़ जाती है. निवेदक आँखों के बिल्कुल पास वाले कीट को और पृष्ठभूमि को एकजैसे तीव्र फोकस में देखता है. पर्स्पेक्टिव या परिप्रेक्षण के नियमों के अनुसार आँखों से काफ़ी पास होने वाली वस्तुएँ बड़ी दिखाई देती हैं. इसलिए यह आँखों से अत्यन्त क़रीब वाला कीट ऐतिहासिक डायनोसोर जैसा महाकाय नज़र आता है.
यूरोपीय चित्रकला में दृष्टिक्षेत्र की गहराई के उपयोग की एक स्वतन्त्र परम्परा है और उसका अत्यन्त उत्कट भावरंगों से या अनुभवों से निकट सम्बन्ध है. एडगर एलन पो की कथा में पाया जाने वाला उसका इस्तेमाल एक छोर है. क्योंकि सामान्यतः आँखों के इतनी क़रीबी वस्तु पर नज़र केन्द्रित करने पर दूर की वस्तुएँ क्रमशः धुँधली होती जाती हैं. लेकिन प्रचण्ड मानसिक तनाव या नशीले पदार्थ के प्रभाव से आँखों की वक्रता में बदलाव होकर, उसका वाइड एंगल लेन्स में रूपान्तरण होता है, जिससे बिल्कुल पास की वस्तुओं से लेकर क्षितिज तक की सारी वस्तुएँ सुस्पष्ट नज़र आती हैं.
वेनिस शहर के तिशियन (1488-1576), तिन्तोरेतो (1518-1594) तथा सागर चित्रों के लिए सुविख्यात चित्रकार भी इस प्रकार के वाइड एंगल मानसिक लेन्सिंग का उपयोग करते हैं. इस परम्परा में काम करने वाला सबसे महान चित्रकार स्पेनिश रनेसान्स का अग्रदूत एल. ग्रेको (1541-1611) था. उसने अपनी ज़िन्दगी में अतितीव्र भावनाओं और उनसे युक्त मानसिक स्थितियों का, विशेषतः भक्ति के उन्माद का चित्रण करने वाले रचना तत्वों की खोज की. सिनेमा में आईझेन्श्टाईन, एरिक व्हॉन स्ट्रोहाईम, आर्सन वेल्स, विल्यम वायलर और अकिरा कुरोसावा ने इस प्रकार के पैनफोकस लेन्सेस का प्रयोग किया है.
प्रत्यक्ष में जो दो बातें हमारी आँखों को एकसाथ साफ़-साफ़ नहीं दिख सकेंगी, ऐसी बातों को एकत्र जोड़ने के लिए अरुण ‘मानसिक लेन्सिंग’ का इस्तेमाल करता है. ऊपरोल्लिखित चित्रकार और निर्देशकों का यह इस्तेमाल शायद सम्पूर्ण प्रसंग में पाया जाता है. अरुण के काव्य में चाहे ऐसे लेन्सिंग का सूक्ष्म निरीक्षणों के साथ जोड़कर और ज़रा सँभलकर इस्तेमाल किया जाता हो, फिर भी उसका प्रभाव कम नहीं होता. ऊपर से वह नली वाले कोष्ठक का नाल के कोष्ठक में रूपान्तरण कर अपनी माँ से उसे जोड़ सकता है.
पलथी पर खुला दासबोध आँखों पर चश्मा
कण्ठ में महसूस होता एक ठण्डा उद्गारचिह्न
पहली पंक्ति माँ का वर्णन करती है. दूसरी कवि की स्थिति की. कण्ठ से जाने वाली नली के कारण, वह जो कह नहीं सकता, उसका एक ठण्डा उद्गार चिह्न बन गया है. शरीर से बाहर वाला नली का हिस्सा पहले से वक्राकार था. मुद्रण चिह्नों के कोष्ठक के आकार जैसा. वही नली सीधी हो जाने के कारण अब कवि के कण्ठ से एक ‘ठण्डा उद्गार चिह्न’ बनता है.
बाह्य दृक्-सम्वेदनाओं से प्रारम्भ कर कवि जब अपने भीतर का स्पर्शानुभव वर्णन करता है, तब उसे अपरिहार्य रूप से अलग सम्वेदन शक्ति की तरफ़ जाना पड़ता है. भावना का रुख भी बाहर से देखने वाली दृष्टि के बजाय अन्तर्मुख हो जाता है.
ज्ञानेंद्रियों का यह रिले प्रतियोगिता जैसा खेल अरुण कोलटकर कुशलता से खेलता है. इस कारण उसके शारीर अनुभव कभी एकांगी नहीं होते. वह पाठक की सभी इंद्रियों को लगातार उद्दीप्त और शान्त करता है.
टेबल पर रामदास को औन्धा रखकर
माँ पलंग के पास आ खड़ी होती है
सलाइन की तेरहवीं बूँद झट् से छपती है
और उसके दाएँ गाल पर दमकती है.
इस दृश्य का वर्णन करते समय प्रारम्भ का फोकस टेबल पर है. माँ के टेबल पर पुस्तक रखने पर, माँ की गतिविधियों के साथ उस फोकस को बदलते हुए, उसके पलंग के पास आने तक उसे बदलता हुआ लाया गया है. फोकस-पुलिंग या फोकस बदलते रहने का यह उत्कृष्ट उदाहरण है.
अगली दो पंक्तियों में शॉट बदलता है और लेन्स भी बदल जाती है. ‘सलाइन की तेरहवीं बूँद’ और ‘माँ का गाल’ दोनों साफ़-साफ़ नज़र आने लगते हैं. यह कैसे हुआ? बूँद का दमकना, एक पल में हो जाने के कारण ‘झट् से’ क्रियाविशेषण का इस्तेमाल किया गया है. यानी यहाँ माँ का पूरा शरीर दिखाई देने वाला शॉट काट डाला है और उसकी जगह पर केवल माँ का गाल और चमकने वाली सलाइन की तेरहवीं बूँद का एक्सट्रीम क्लोज़अप आया है. ‘झट् से’ शब्द शॉट अचानक काटा जाना महसूस कराता है.
‘झट्’ यह अरुण के कुछ पसन्दीदा शब्दों में से एक है. एक्स्ट्रीम क्लोज़अप जब अचानक आता है, तब उसका झटका ज़्यादा महसूस होता है. ऐसे समय कवि क्रियाविशेषण ‘झट् से’ का उपयोग करता है.
झट् से खिलती लावारिस तृप्ति
पानी में झोंके सिगरेट जैसी.[v]
इन दो पंक्तियों में भी ‘लावारिस तृप्ति’ शब्द ‘अचानकपन’ महसूस होने वाला बिम्ब पानी में झोंके गए सिगरेट का है. झोंकने के जोर के कारण उसका तम्बाकू झट से फैल जाता है. यहाँ विशिष्ट भावना ‘तृप्ति’ को दूसरी पंक्ति के सिगरेट की प्रतिमा ने घेर लिया है.
उसकी कविता को सावधानी से पढ़ने के बाद मुझे लगता है, रूप, नाद, गन्ध, स्पर्श और रस आदि सभी सम्वेदनाओं में से अरुण की कविता में दृक्-बिम्ब सबसे अधिक आते हैं. शेक्सपियर को कैरोलिन स्पर्जन (1869-1942) जैसा महान प्रतिभाशाली समीक्षक मिला. उसके कारण आज हमें उस महाकवि की बिम्बसृष्टि का गहरा अध्ययन पढ़ने को मिलता है.[vi]
निकोलाय गोगोल को आंद्रे ब्येली जैसा विशाल कविमना साहित्यविद् और बहुआयामी चिन्तक मिल गया, जिससे ‘गोगोल्स आर्टिस्ट्री’ जैसा एकमेवाद्वितीय ग्रंथ, लेखक के मानसिक उतार-चढ़ाव प्रतिबिंबित करने वाले बिम्ब प्रत्येक सम्वेदन शक्ति में कैसे पाए जाते हैं, इसका चित्र रंगाता है.[vii]
वैसे, कोई अगर विभिन्न पद्धतियों और दृष्टिकोणों से अरुण के बिम्बों पर भाष्य करेगा, तो अनगिनत पाठक उसके कृतज्ञ होंगे.
बिम्ब और अ-घटित
सिनेमा में दिखाए गए प्रसंग कई बार प्रत्यक्ष घटित नहीं होते. दर्शक एक के बाद एक जोड़े गए शॉट और उनके परस्पर सानिध्य से सम्बन्ध जोड़ता है और उसे लगता है, एक ‘घटना’ घटित हुई है. इन घटनाओं को मैं अ-घटित घटना कहता हूँ. उसका ‘घटनापन’ घटित घटना से न आकर शॉट्स की श्रृंखला के परस्पर सान्निध्य के कारण और सिने-सम्पादन और मोन्ताज के कारण आता है.
सिनेमा के किसी सीन में अगर दो पात्र हैं, और उन दोनों के फ़िल्मांकन की तारीख़ें फ़िल्मांकन के सभी दिनों के लिए मिलना कठिन हो, तो उनके अकेले-अकेले के शॉट जोड़कर उनके एकत्रित आने का आभास उत्पन्न किया जा सकता है. दाईं ओर से बोलने वाले पात्र का क्लोज़अप अगर बाईं और देखकर बोलने वाले क्लोज़अप के साथ कुशलता से सम्पादित किया जाता है तो यह आभास उत्पन्न होता है कि एक मनुष्य बोल रहा है और दूसरा मनुष्य सुन रहा है. यह भासमान होने वाला अ-अवकाश या अ-घटित घटना सिनेभाषा का प्राणतत्व है.
अरुण कोलटकर क्लोज़अप का खूब इस्तेमाल करने वाला निर्देशक है. वह शॉट को एक दूसरे के साथ इस तरह जोड़ता है कि वास्तव में सम्पूर्ण असम्बद्ध शॉट का एक दूसरे से सम्बन्ध है, ऐसा आभास कराता सीन तैयार होता है. उसकी ‘ईरानी’ कविता का प्रारम्भिक अ-घटित सीन देखिए.
ईरान का भैंगा शाह देखता चटकी और सस्मित
काँच के आड़ में केक पर चढ़ती क्रमिक फफूँद.
क्वचित् विचलित करती उसका ध्यान सुशिक्षित
बेरोज़गार को राखी बाँधती अकृत्रिम मक्खी.[viii]
एक दौर में ईरानी रेस्तराँ के गल्लों के ऊपर, ईरानी शाह रजा पेहलवी की तसवीर टँगी होती थी. गल्ले के पास टेबल के बगल में काँच के शेल्फ में दिनोंदिन पड़े रहने वाले केक का शॉट, शाह की आँखों के क्लोज़अप के बाद लगाया, तो वह ऊपर से नीचे, मानो उस केक की तरफ़ देख रहा है, ऐसा आभास-अवकाश उत्पन्न होता है. फिर दोबारा शाह की आँखों का क्लोज़अप ज़रा अलग एंगल से लिया जाए, तो यह आभास उत्पन्न होता है कि उसकी दृष्टि तनिक विचलित हुई है. बाद में मक्खी के अगर बेरोज़गार (कवि के?) की कलाई के इर्दगिर्द एक चक्कर लगाने का शॉट जोड़ दिया जाए, तो ऐसा प्रतीत होगा कि इससे शाह का चित्त पल भर के लिए विचलित होकर मधु की तरफ़ गया है.[ix]
शाह की आँखों का क्लोज़अप, केक का क्लोज़अप, दोबारा शाह की आँखों का क्लोज़अप और कलाई के इर्द-गिर्द घूमने वाले राखी का क्लोज़अप, असली अवकाश में यूँ अन्य लोगों को महसूस न होने वाले सम्बन्ध, क्लोज़अप से जोड़कर, कवि एक अ-घटित घटना तैयार करता है. चाहे वह कविता लिख रहा हो, फिर भी उसका तकनीक सौ प्रतिशत सिने-कन्टिन्युइटी का या डिस्कन्टीन्यूइटी का है.
अब इसी कविता का अगला चरण. ईरानी रेस्तराँ के काँच के तैलरंग वाले चित्र का वर्णन है. यह चरण देखिए :
चित्र के वन की कुशाग्र निर्जीवता को व्यग्र
नहीं करती हवा; और सीधे सरोवर का विपर्यास
टेढ़ा हंस. सुईजैसा सीधा मार्ग
अग्र पर तौलता है. आरक्षित बंगलों का सुन्दर आभास.
यह शॉट अर्थात् आँखों की हमेशा की ऊँचाई से eye level से लिया लाँग शॉट है. इसमें एक ग्लास पेंटिंग का वर्णन है. इसके,
सुई जैसा सीधा मार्ग
अग्र पर तौलता है. आरक्षित बंगले का सुन्दर आभास
ये पंक्तियाँ चित्र-चौखट की रेखाओं और उनके तनावों के गुणधर्मों को समझने वाला दृक्-कलाकार ही लिख सकेगा. क्योंकि चित्रकार हमेशा चित्र-चौखट के विभिन्न तनावों का सन्तुलन तौलता रहता है. अब उसके बाद के चरण में क्या होता है, देखिए:
ऐसे प्रकृति-चित्रों की होती है गिलास में धाँधली
घूँट के साथ परिच्छेद पानी का लम्बा करते तृषार्तासमक्ष
जिज्ञासुओं का खींचना चाहता है चाय का विचक्षण वृत्त
विचार-प्रवर्तक टेबल के अहम हिस्से की तरफ़ ध्यान
इसमें कैमरा ऊपर के एंगल से सीधे क्लोज़अप लेता है. पहला, गिलास में प्रतिबिंबित प्रकृति चित्र का. दूसरा शॉट, eye level से लिया, गिलास का पानी घूँट-घूँट पीने वाले का, तीसरा शॉट, दोबारा सीधे ऊपर से लिए संगमरमर के गोल टेबल पर लगे चाय के वृत्ताकार दाग का. इन तीन शॉट में से पहला और तीसरा, सीधे ऊपरी एंगल से लिए गए हैं. लेकिन बीच का शॉट हमेशा के eye level से लिया है. इस ऊपरी एंगल से लिए गए शॉट के कारण वृत्त वृत्त दिखता है. कैमरा अगर eye level में हो, तो वह वृत्त ‘विचक्षण’ दिखने के बजाय, लम्बवृत्त दिखाई देता है. फिर…
विचक्षण वृत्त
विचार-प्रवर्तक टेबल के अहम हिस्से की तरफ़ ध्यान
इसका मज़ा ही किरकिरा हो जाता. गिलास का प्रतिबिम्ब और यह वृत्त, दोनों के लिए कैमरा उनके ऊपर, ठेठ लम्बरेखा में ऊपरी ओर होने की ज़रूरत है.
पाठक को सिने-व्याकरण का तकनीकी मामला चाहे समझ में न आता हो, फिर भी उसने बचपन से देखी सैकड़ों फ़िल्मों के कारण सामान्य सिने-भाषा का व्याकरण ग्रहण किया होता है. सिनेमा का जागृत दर्शक और कविता का सजग पाठक; दोनों के संस्कारों के कारण अच्छा कवि और उत्तम निर्देशक अपनी रचनाओं के आस्वादन की सहजता को लेकर सशंक नहीं होते और बेधड़क उसका इस्तेमाल करते हैं. सभी कलाओं को भीतर से बाँधे रखने वाली बिम्ब निर्मिति के समान सूत्र, जाने-अनजाने कार्यान्वित होते ही हैं.
कैमरा जब कविता के एक सीन के हिस्से से दूसरे हिस्से की तरफ़ जाता है, उस वक़्त का शॉट किसी अपरिचित ब्यौरे से शुरू होता है. रेस्तरां के ऊपरी हिस्से का ईरान का शाह, प्रकृति चित्र और कैमरा की नज़रों के स्तर पर दिखाई देने वाला बेरोज़गार, को वहीं छोड़कर कवि फर्श के स्तर पर दिखने वाली, ऊँघती सोती-जागती बिल्ली की तरफ़ मुड़ता है. यह पालतू और दमकते फर की बिल्ली नहीं है, बल्कि टेबल के नीचे जो मिले वो खाने वाली, निस्तेज, गतप्रभ बिल्ली है. वह पीठ की वक्र रीढ़ कोष्ठक का बाँक दिखाने वाली बिल्ली है; उसका आकार प्रश्नचिह्न/दुश्मन दुश्चिह्न है.
कुर्सी के नीचे अन्धेरों का बहाना बनी बिल्ली
गतप्रभ दुश्चिह्न सँभालती दोहरी नींद में दो
सापत्न स्वप्नप्रपंच.
बिल्ली की नींद का सूत्र पकड़कर कवि आसपास के और एक दूसरे के आमने सामने और किंचित कोन में सजाए आइनों के प्रतिबिम्बों को ईरान के शाह का मन्त्रिमण्डल बनाता है. वे इर्दगिर्द हैं, शाह केंद्र में है. आइनों के कोनों के कारण एक ही वस्तु के विभिन्न प्रतिबिम्ब नज़र आते हैं. दाएँ का बायाँ होता है. प्रतिबिम्ब का भी प्रतिबिम्ब दिखता है. यह सिने-निर्देशकों का पसन्दीदा सीन है. यहाँ दिशाएँ समझ में नहीं आतीं. वस्तुओं से प्रतिमाएँ अलग नहीं कर सकते. ऐसे सिनेमा का सबसे प्रसिद्ध उदाहरण यानी आर्सन वेल्स निर्देशित ‘लेडी फ़्रॉम शांघाय’ फ़िल्म का अन्तिम छोर का, सभी तरफ़ से आइनों से सजी भूलभुलैया में गोलाबारी का प्रसंग. उसमें व्यक्ति तीन ही हैं, और बिम्ब सैकड़ों. कहाँ निशाना लगाएँ, और किसे गोली लगेगी, भगवान ही जाने.
दिशाओं की अफरा-तफरी
कर बिल्लौरी मन्त्रिमण्डल उगाती है अप्रच्छन्न प्रति-पुकार
दृक्-प्रतिमाओं में हुई गड़बड़ी से उड़ बैठता है, श्राव्य-बिम्ब ‘प्रति-पुकार’! एक सम्वेदनशक्ति के प्रयोग से बिम्ब बनाने पर, उसकी दूसरी सम्वेदनशक्ति से पुष्टि होती है. इस कारण वे ‘बिम्ब’ विभिन्न सम्वेदनाओं में बढ़कर सशक्त होते हैं और स्मृतियों में पक्के रच-बस जाते हैं. यह विभिन्न सम्वेदनाओं का प्रयोग करने वाली बिम्ब-श्रृंखलाओं की परम्परा अत्यन्त प्राचीन है. ज्ञानेश्वर ने तो उसका स्वरूप साफ़-साफ़ प्रस्तुत किया है.
सुनो, रसालपन के लोभी. या श्रवण से बनती जिह्वाएँ.
बोले इंद्रिय लागे कलभा. एकमेका..[x] 16
आधुनिक वैज्ञानिक दूसरी सम्वेदनशक्ति से ज्ञानेंद्रिय के सम्बन्ध को synaesthesia अथवा सहसम्वेदन की संज्ञा देते हैं. यहाँ यह चर्चा करने का प्रमुख कारण यह है कि अरुण जैसा सम्पूर्ण आधुनिक जीवन दृष्टि वाला कवि, काव्य की प्राचीन रचना प्रक्रिया का कैसी कुशलता से प्रयोग करता है, इसकी तरफ़ मुझे आपका ध्यान खींचना है. इस कारण काव्य का ‘आधुनिक’ या ‘प्राचीन’ ऐसे शब्दों में वर्णन करना कितना अधूरा है, यह सहज दिखाई देता है.
कवि की रचना प्रक्रियाओं से काव्य-सर्जन होता है और उनके ग्रहण संकेतों से उसे भोगा जाता है. ऋग्वेद के सूत्र, अति प्राचीन चीनी कविता, तिब्बत और मिस्त्र का ‘बुक ऑफ़ द डेड’ जैसी मृत आत्माओं का मार्गदर्शन करने वाली किताबें और अरुण की कविता काव्यसमकालीन होते हैं. क्योंकि काव्य का काल ऐतिहासिक काल के परे होता है. लौकिक दृष्टि से मृत कवियों द्वारा ज़िन्दा कवियों से मिलने के लिए, उन्हें अपने रहस्य सुनाने के लिए और उनके रहस्य सुनने के लिए, दिक्काल से परे उत्पन्न किया अद्भुत ‘झोन’ यानी काव्यकाल या काव्यदिक्काल.
दोबारा ‘ईरानी’ कविता की तरफ़ मुड़ेंगे. सीन को ‘नज़र की ऊँचाई’ या eye level से देखे गए हिस्से से, टेबल के नीचे वाली बिल्ली के दूसरे, अलग दूसरे हिस्से में ले जाने वाले शॉट के बाद, कवि दोबारा कविता का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा, बेरोज़गार की तरफ़ मुड़ता है.
सिगरेट सुलगाकर बेरोज़गार रखता है जलती तीली
चाय के वृत्त में जो उठ बैठती है बुझती हुई ज़रा-सी
आतिथ्यशील मानो लाश बर्फ़ के फ़र्श पर खुली
समशीतोष्ण कोई आया लगता कोई सगा साथी.
यहाँ की दृक्-बिम्ब एक्सट्रीम क्लोज़अप का प्रयोग करता है. यह तकनीक हमने ऊपर विश्लेषित ‘पुजारी’ कविता में देखा है. पहले यथार्थ बिम्ब विशिष्ट चौखट में, विशिष्ट लेन्स और विशिष्ट दृष्टिकोण से दिखाई देते हैं. बाद में उनके अंशों के साम्य का प्रयोग कर उन्हें भावरंग दिए जाते हैं. उदाहरणार्थ, बुझते समय तिली का टेढ़ा होना. उससे टेढ़ी होती तीली की लाश बनती है. उसका टेढ़ा होना ‘मॉर्ग’ के एक प्रेत द्वारा दूसरे प्रेत का स्वागत था. संगमरमर रंग और दमक से बर्फ़ के साम्य का प्रयोग कर संगमरमर पत्थर से बर्फ़ की प्रतिमा तैयार होती है.
कविता के प्रारम्भ में मिलने वाले बेरोज़गार को राखी बाँधने वाली मक्खी से लेकर हम उसके सिगरेट की ‘लाश’ की तरफ़ आए हैं. आशाहीनता का एक वृत्त पूरा होता है.
इस कविता पर इतनी बारीकी से ग़ौर करने का प्रमुख कारण यह दिखाना है कि अरुण अपनी कविताओं की अत्यन्त विक्षिप्त, तिरछी या अनपेक्षित बिम्बों को पहले अति सूक्ष्म नज़र से चुने हुए यथार्थ के बिम्बों के अंशों से कैसे जोड़ता है. इससे उसकी प्रतिभा जमीन पर केन्द्रित दृष्टि से नाता नहीं तोड़ती. ये दो आँखों के बिम्ब होते हैं. फिर इससे तीसरी आँख से वह बिम्ब विश्व का निर्माण करता है. बिम्ब का पतंग चाहे जितनी ऊँची छलाँग लगाए, उसमें चाहे जितनी ढील दें, मगर उसका, कवि की चकरी का यथार्थ का धागा कभी नहीं टूटता. यह चकरी हमेशा कवि के हाथ में रहती है और उसका प्रयोग कुशलता से होता है. कभी ढील देकर तो कभी खींचकर, वह अपने काव्य की पतंग उड़ाता रहता है और समय आने पर भिड़ाकर पड़ोस के कवि का पतंग काट भी देता है.
जैसा कि मारियन मूर ने कहा है, कविता जब तक काल्पनिक बगीचों के असली मेढ़क नहीं दिखा सकती, तब तक वह सामान्य और तुच्छ ही रहती है. अरुण असली मेढकों का मँजा हुआ और विख्यात शिकारी है.
क्लोज़अप और अंशत्व में पूर्णत्व (pars pro toto)
अंशत्व पूर्णत्व देखने की क्रिया हम इतनी सहजता से करते हैं कि महसूस ही नहीं होता कि यहाँ कुछ विशेष हो रहा है. उदाहरणार्थ, ‘आमोद यात्रा में कौन आएगा?’ पूछने पर ‘केवल पाँच हाथ ऊपर हुए.’ यानी पाँच व्यक्तियों ने हामी भरी. पूरे व्यक्ति के बजाय हम केवल हाथ का निर्देश करते हैं और उसमें पूर्ण व्यक्ति का प्रदर्शन मानते हैं. इस प्रकार ‘मुझ पर कब से दो आँखें तनी हुई हैं’, कहते समय हमें हवा में तैरती आँखें या फॉर्मलडिहाईड की बोतल में रखी आँखें अभिप्रेत नहीं होतीं, बल्कि सम्पूर्ण व्यक्ति अभिप्रेत होता है.
अंशत्व में पूर्णत्व को देखना, मानवीय मन की आदिम सहज प्रवृत्ति रही है. मानव समाज के उदय के दौर में जादूटोने की विधियों में यह अवधारणा अत्यन्त महत्वपूर्ण थी और आज भी वह नए-नए रूपों में हमारे इर्द-गिर्द पाई जाती है. कभी उसके रूप इतने आधुनिक होते हैं कि पहचाने भी नहीं जाते. एक दौर में जो तथ्य शास्त्रीय विचार समझे जाते हैं, वे मानवीय प्रतिभा से उत्पन्न होते हैं. शास्त्रीय दृष्टि से कालबाह्य साबित होने पर और शास्त्रों से ख़ारिज होकर वे साहित्य आदि कलाओं में समा लिए जाते हैं.
मानवशास्त्री जेम्स फ्रेज़र (1854 से 1941) ने अपने ‘गोल्डन बाव’ ग्रंथ श्रृँखला में आदिम विचारों की अवधारणाओं का अध्ययन किया. कुछ नियम प्रस्तुत किए और न्यूटन के गति सम्बन्धी नियमों के अनुसार जादुई विचारों के नियमों की विचार चौखट स्थापित की.[xi] बाद में, फ़्रॉईड ने मनोविश्लेषणशास्त्र से स्वप्न-निर्मिति की जो प्रक्रियाएँ प्रस्तुत कीं, उनकी फ्रेज़र द्वारा प्रस्तुत परिकल्पनाओं से समानता देखने के बाद, कुल प्रतिमा निर्मिति प्रक्रिया के बारे में कुछ अनुमान लगाए जा सकते हैं. कला निर्मिति में, स्वप्न-बिम्ब निर्मिति में और जादुई विचारों में अनेक साम्यस्थल हैं. प्रस्तुत लेख में ये परिकल्पनाएँ अलग-अलग मोड़ पर दोबारा मिलने वाली हैं.
जादू-टोने की, सपनों की और विभिन्न कलाओं की दुनिया में ‘अंशत्व में पूर्णत्व’ विचार प्रक्रिया का प्रयोग प्रचुरता से किया जाता है. जादुई विचारों की नींव में यह मान्यता है कि दुष्ट जादू करने वाला जादूगर जिसकी बलि चढ़ाना चाहता है या उसे जिस पर दुष्ट जादू करना चाहता है, उस व्यक्ति के बाल, दाँत, बाल की लट जैसे अंश उसके लिए दुष्ट जादू लिए पर्याप्त हो जाते हैं. तब उसके द्वारा किया गया दुष्ट जादू या वशीकरण की क्रिया उसके मालिक पर असर करती है.
इन जादुई विचारों में बलि के अंश के बजाय, उसके सान्निध्य की वस्तु प्राप्त हो जाए तो भी जादू का मामला सफल हो जाता है. उदाहरणार्थ, उस व्यक्ति का रुमाल, उसके इस्तेमाल की वस्तुएँ; जैसे, कंघी, कर्णाभूषण इत्यादि. लेकिन यह वस्तु जितने निकट सानिध्य में होगी, जादू का प्रभाव उतना ही अधिक होगा, ऐसा माना जाता है.
जादुई विचारों की प्रक्रिया होने के लिए प्रयुक्त तीसरा प्रकार यानी बलि की प्रतिमा. इस जादू के पीछे यह विश्वास होता है कि आटे की या चिंदियों की या दर्भ की गुड़िया को सुइयाँ चुभोने से बलि पात्र को दर्द होता है. इसी कारण, फ़ोटोग़्राफ़़ी से अपरिचित समाजों में यह डर होता था कि फ़ोटोग़्राफ़़र हमारी प्रतिमा को बद्ध कर स्वेंगाली की तरह हम पर हुकूमत करेगा. भारत में ध्वनि मुद्रण तकनीक आने के बाद अनेक विख्यात गायकों को इसी कारण यह डर लग रहा था कि यह यन्त्र हमारी आवाज़ चुरा लेगा.
फ़्रॉईड ने मनोविश्लेषण के लिए सपनों की भाषा और उसके नियमों का अनुसन्धान किया. उसके अनुसार, हमारे सुप्त मन में घटित होने वाले सपनों में किसी व्यक्ति की जगह पर उसकी अपनी किसी वस्तु की योजना की जाती है. उदाहरणार्थ पिता के स्थान पर उसका पाइप, प्रेमिका के स्थान पर उसकी पर्स आदि. इस योजना का परिणाम कभी विनोद के लिए किया जाता है, तो कभी वह भयप्रद भी होता है.
वस्तु के भीतर का व्यक्तित्व, अंश से पूर्णत्व, समीपता या प्रतिमा से आने वाला साधर्म्य, कवि अरुण के तुर्प के पत्ते हैं. उन्हें बिछाकर उसने अनेक बाजियाँ जीती हैं. ऊपर चर्चित ‘सिस्टर कॅरोलला’ शीर्षक अस्पताली कविता में, कवि की या निरीक्षक की माँ हाथ का दासबोध टेबल पर रखकर पेशंट के कॉट के पास आकर खड़ी हो गई है. इसके बाद कवि कहता है-
हवा के हवा में रामदास कागज़ी लातें झाड़ता है
जन्म दुःख का अंकुर जन्म शोक का सागर
जन्म भय का पहाड़ चढ़ना कठिन
माँ लौट जाती है और रामदास को गोद में लेती है.
यहाँ अरुण शरारती और मज़ेदार बनकर अपनी बेमिसाल विनोद शैली से माँ द्वारा टेबल पर रखे दासबोध के फड़कते पन्नों को पलने में लातें झाड़ने वाले रामदास में तब्दील करता है. रामदास के मानसिक सान्निध्य वाले और उसके व्यक्तित्व के अंश वाले ‘दासबोध’ पुस्तक की प्रति में पूरा रामदास देखकर, अंशत्व में पूर्णत्व आता है. यही नहीं, बल्कि ‘दासबोध’ में जीवन के दुख सम्बन्धी पंक्तियों का, कवि रोतडू रामदास के ‘लातें झाड़ना’ में जादुई रूपान्तरण करता है. ऐसे रामदास बालक को समझाने के लिए उसे गोद में लिए बिना और उपाय ही क्या है? इसलिए माँ रामदास को गोद में लेती है. यहाँ भी दासबोध की प्रति के अंश में पूरे रामदास का रूप देखा गया है.
द बोटराइड[xii]
अरुण की मराठी और अंग्रेज़ी में लिखी कविताओं की बिम्ब-श्रृँखला की रचना पद्धतियों में समानता है. साथ ही, उनमें उतना ही महत्वपूर्ण अन्तर भी है. बिम्ब-श्रृंखलाओं का मोन्ताज-श्रृंखलाओं जैसा इस्तेमाल अरुण कोलटकर की कवि-दृष्टि का अभिन्न अंग है. प्रस्तुत लेख में उसकी अंग्रेज़ी कविताओं के चुनिन्दा उदाहरण देखेंगे. उसके ‘काला घोड़ा पोयम्स’ संग्रह में ऐसे दर्जनों उदाहरण पाए जाते हैं. लेकिन एक कविता-श्रृँखला होने के कारण, उसकी कविताएँ एक दूसरे में गलबहियाँ डाले कुछ अलग चित्र बनाती हैं, इसलिए वे यहाँ टाली गई हैं.
अगले विश्लेषण के लिए मैंने ‘बोटराइड’ शीर्षक एकल और लम्बी कविता को चुना है. उसमें दिखाई देने वाले उसके अनेक शैली विशेष, उसके अन्य काव्य में उतने ही मुखरता से पाए जा सकते हैं. इसलिए इस विवेचन को आप एक ‘केस स्टडी’ की तरह पढ़ सकते हैं.
‘बोटराइड’ कविता को उदाहरण के रूप में चुनने का एक और लाभ है. इस कविता में अरुण ने कुछ जगहों पर विशिष्ट छपाई का इस्तेमाल किया है, जिसमें वह अपने कवि और ग्राफ़िक डिज़ाइनर, दोनों रूपों का दर्शन कराता है. इससे मेरे इस मूल दावे की पुष्टि हो जाती है कि उसके ये दोनों रूप कैसे परस्पर पूरक हैं.
‘बोटराइड’ कविता समय के छोटे से टुकड़े पर रची गई है. गेट वे ऑफ़ इंडिया से जो नावें अलिबाग, घारापुरी गुफाएँ इत्यादि स्थलों के लिए यात्रियों को लेकर आवाज़ाही करती हैं, या केवल नाव की यात्रा कराती हैं, उनमें से एक समुद्री यात्रा का यह वर्णन है.
‘बोटराईड’ शीर्षक लम्बी कविता अरुण के जीवनकाल में उसके संग्रहित कविताओं की पुस्तकों में समाविष्ट नहीं थी. अरुण ने लगभग सन 1963 में लिखी इस कविता की उसने अपने मित्रों के लिए कुछ प्रतियाँ बनाई थीं. उनमें से एक प्रति उसने मुझे सन 1967 के आसपास दी. उस समय फ़िल्मों के बारे में मुझे कोई विशेष ज्ञान नहीं था. फिर भी अरुण की अन्य कविताओं की तरह यह कविता स्मृतियों में बस गई. सन 1971 से 1974 के दौर में, जब मैं फ़िल्म इन्स्टिट्यूट में निर्देशन का प्रशिक्षण ले रहा था, यह कविता धीरे-धीरे अलग महसूस होने लगी. क्योंकि तब वह ‘दिखने’ लगी थी. यहाँ जैसे नाव की यात्रा का वर्णन है, उसी प्रकार अदृश्य निवेदक की ‘दृष्टि-यात्रा’ की रेखांकन-श्रृँखला भी है. प्रत्येक रेखाचित्र में उसके शब्द-बिम्ब भावरंग भरते हैं.
कविता का प्रारम्भ ही देखिए:
the long-hooked poles
know the nooks and crannies
find flaws in stonework
or grappling with granite
गति पकड़ने के लिए तैयार नाव को गति देने वाली कृति का पहला क्षण कवि एक-एक क्लोज़अप से पकड़ता है. इसमें नाव दिखाई नहीं देती. बाँस पकड़ने वाले हाथ दिखाई नहीं देते. दिखाई देती हैं बस दो बातें: धक्के से नाव को दूर धकेलने के लिए इस्तेमाल किए गए बाँस, और वे बाँस जिस चट्टान पर जोर देने के लिए सहारा ढूँढ़ रहे हैं, ऐसे अचल चालाक चट्टान, the prime mover unmoved. इसके बाद
ignite flutter
of unexpected pigeons.
मानो बाँस पर लगी लोहे की अँकड़ी की चट्टान से मुठभेड़ होती है और उससे उड़ी चिंगारियों की तरह ये कबूतर उड़ते हैं.
यह सब क्लोज़अप में घटित होने के बाद, इन क्रियाओं का फल यानी नाव में हरकत. लेकिन वह एकदम से दूर ले गए कैमरे से लिए लाँग शॉट में दिखाई गई है.
and the boat is jockeyed away from
the landing
इसके क्लोज़अप से लौटकर, अचानक गर्दन ऊपर-नीचे करता कैमरा- सरर्र से टिल्ट अप और झट से टिल्ट डाउन-
after a pair of knees
has shot up and streaked
down the mast after
the confusion of hands about
the rigging
फिर सफ़ेद पाल से शुरू हुआ, फैलने की गति के साथ जाने वाला, एक निश्चिन्त झूम आउट
and off-white miracle
the sail
spreads
यहाँ कवि ने sail और spreads के भीतर का अन्तर बढ़ाकर टाइपोग़्राफ़़ी का उपयोग कर झूम शॉट के विस्तृत होते अवकाश की पुष्टि की है.
फ़्लैश बैक फ़्लैश फ़ॉरवर्ड
अगले चरण में, कवि घटित घटना के वर्णन से शुरुआत न कर, वह घटना जिस कारण घटित हुई, उस कारण से शुरुआत करता है. कार्य-कारण भाव का कारण पहले बताया गया है.
कारण:
because a sailor waved
back
to a boy
फिर कवि वर्तमान की उस घटना के कार्य की तरफ़ बढ़ता है. वर्तमान की घटना का वर्णन सुन्दर और शुष्क पेथॉस समेत पंक्तियाँ तोड़ते हुए किया है.
कार्य:
another boy
waves to another sailor
in the clarity of air
the gesture withers for want
of correspondence and
the hand that returns to him
the hand that his knee accepts
as his own
यहाँ कवि अचानक समय की गति बढ़ाकर भविष्य काल में फ़्लैश फ़ॉरवर्ड करता है. वर्णन केवल हाथ का है. हाथ की उम्र बढ़ती है. समझ बढ़ती है. लेकिन लड़के को वहाँ तक पहुँचने में समय लगेगा. इसलिए यह कालक्रिया केवल हाथ पर घटित होती है. हाथ की उम्र बढ़ती है क्लोज़अप में. यहाँ भी अंश से पूर्णत्व की सूचना दी गई है.
Is the hand
of an aged person
a hand
that must remain patient
and give the boy it’s a part of
time
to catch up
जिस तरह जल जाने की स्मृति हाथ को याद रहती है और मस्तिष्क की सूचना के बिना भी वह आग से दूर रहता है, उस प्रकार वह इन हाथों में संग्रहित अ-स्वीकार की स्मृतियों से अचानक वृद्ध हुआ है.
आने वाले यात्रियों में से कोई जोड़े से, कोई परिवार के साथ या इष्टमित्रों के साथ आए हैं. इस प्रत्येक छोटे-छोटे ग्रुप की, जैसे निवेदक-कवि की एक से दूसरे पर नज़र जाती है, उसी क्रम से वर्णन है. बीच में कोई समुद्री पक्षी छेद देकर चला जाता है.
अपनी माँ के कानों से चिपका एक छोटा-सा बच्चा, अचानक नीचे सरकता है. उसका यह वर्णन ऐसे किया है मानो, कैमरा बिल्कुल उस लड़के के साथ नीचे फ़िसल रहा है.
a two-year-old renounces
his mother’s ear
and begins to cascade
down her person
rejecting her tattooed arm
denying her thighs
undaunted by her knees
and further down
her shanks
devolving
he demands
balloons
and balloons
from father to son
are handed
down
बच्चे का नीचे फ़िसलना, मुड़ना और गुब्बारे माँगना, फिर बाप द्वारा गुब्बारे वाले से गुब्बारे ख़रीदकर लड़के के हाथ में देना, लड़के के हाथ में गुब्बारे, इस तरह प्रत्येक शॉट छपाई की रचना से भी दृक्-बिम्ब बनाया है. यह सिनेमा, टाइपोग़्राफ़ी और कविता का इतना सुन्दर मिलाप एक महान कला-निर्देशक के अलावा अन्य किसी के लिए भी असम्भव है.
सूर्यास्त के धूप का और स्वर्णालंकार पहने गले का नाता जोड़ते समय, प्रत्येक पंक्ति जहाँ टूटती है, वहाँ एक-एक क्षण चित्र भी काटा जाता है और आख़िरकार स्त्री के मुड़ने से परावर्तित प्रकाश की दमक लक् से आती है और चित्रश्रृंखला ख़त्म होती है.
gold
and sunlight
fight
for the possession ‘her’ of throat
when she shifts
in the wooden seat
इन अलग-अलग छोटे-से ग्रुप के वर्णन के लिए विषय के अनुसार अक्षर-संरचना में भी फेरबदल किया है. उदाहरणार्थ, अन्त में बोट पर चढ़ीं ‘दो’ बहनों के वर्णन का हिस्सा ‘एकाध-दूसरा’ शब्द वाली पंक्ति में प्रस्तुत किया है. इसलिए ऐसा लगता है, मानो वे एक दूसरे से चिपकी बैठी हैं.
two sisters
that came
last
when the boat
nearly started
seated side
by side
इस सम्पूर्ण कविता में ऐसे न जाने कितनी लघुफ़िल्में छिपी हैं. प्रत्येक शॉट बिम्ब की चौखट, दृष्टिक्षेत्र की गहराई और कैमरे का चलन आदि सभी निर्देशन सूचनाओं समेत प्रस्तुत कर अरुण एकसाथ एक समर्थ कविता और एक मनःपटल पर स्थापित होने वाले प्रभावशाली सिनेमा की निर्मिति करता है.
होना-न होना
पानी से आधे भरे हुए गिलास का उदाहरण विख्यात है. उसका वर्णन आधा गिलास भरा या आधा गिलास खाली, इन दो रूपों में किया जा सकता है. सामान्यतः किसी बात की अपेक्षा हो तो उसकी कमी महसूस होती है. चित्रकार या फ़ोटोग़्राफ़़र यह ‘होना’ दिखा सकते हैं. लेकिन विशिष्ट ‘न होना’ दिखाने का सेहरा शब्दों के ही सिर बाँधा जाता है. एक बार सुविख्यात फ़्रेंच निर्देशक रोबेर ब्रेसाँ ने अपने सहायक से माँग की कि शॉट में पीछे उसे sans chapeau आदमी यानी hatless आदमी चाहिए. सहायक ने एक आदमी चुना. ब्रेसाँ बोले, ‘यह हैट न पहना आदमी’ लगता नहीं; लेकिन दिखता यही है कि उसके सिर पर हैट नहीं है.’
‘पर्शियन मिनिएचर’[xiii] कविता की चार पंक्तियाँ देखिए. इसमें एक पर्शियन मिनिएचर शैली के चित्र का वर्णन है.
समझदार कूँचे से सिर पर सूर्य को खिला दे
धूल और धूप की ही रंग योजना
चित्र पर होने दे, कहीं भी लव (किंचित)
मात्र (भी) न हो हवा की सूचना.
इन पंक्तियों में उसे क्या अपेक्षित है, यह बताने के साथ-साथ कवि एक विशिष्ट न ‘होने’ की भी सूचना देता है.
उदाहरणार्थ,
कहीं भी लव
मात्र न हो हवा की सूचना.
चित्र के वर्णन में हवा की सूचना का ‘न होना’ रेखांकित किया गया है. इस शब्द रचना के कारण ‘हवा’ होने के बावजूद न होने जैसी होती है. उसके उल्लेख से वह ‘होता’ है लेकिन कवि की सूचना और अर्थ के अनुसार वह ‘नहीं’ होता. इसलिए कविता में हवा दिखाई नहीं देती, लेकिन फिर भी हवा की छाया कविता की पंक्तियों में सर्र से आगे बढ़ जाती है. साथ ही ‘लवमात्र’ यह हमेशा एकत्र लिखा जाने वाला शब्द समुच्चय तोड़ देने से और ‘मात्र’ शब्द ‘न हो’ से पहले आने के कारण उसके ‘आदेश रूप’ का वज़न अधिक महसूस होता है और हवा के ‘न होने’पन का महत्व बढ़ता है.
कोई विशेष बात, उसके ‘न होनेपन’ को रेखांकित करने की अरुण की यह कुशलता अन्यत्र भी नज़र आती है. जब किसी बात का उल्लेख होता है, तब उसका बिम्ब मन में उभरना, यह अनजाने में और सहज ही होता है. किसी बात के होने का उल्लेख आने पर उसका अभाव महसूस होता है, लेकिन बिम्ब की छाया तैरती रहती है.
क्वाण्टम पदार्थ विज्ञान में ‘श्र्योडिंगर्स कॅट’ (Schrödinger’s Cat) नामक एक विख्यात विचार प्रयोग (thought experiment) है. उसमें बिल्ली एक ही पल में मृत और जीवित होती है. क्वाण्टम विश्व के नियम सर्वमान्य (Common sense) विचार प्रक्रिया से कैसे अलग होते हैं, यह दिखाने के लिए अर्विन श्र्योडिंगर (1887 से 1961) नामक क्वाण्टम पदार्थविज्ञानी ने यह विचार प्रयोग सुझाया था.
जिस प्रकार क्वाण्टम संसार दैनंदिन सर्वमान्य दुनिया से अलग होता है, उसी प्रकार प्रतिभावान कवि की सृष्टि दैनंदिन सृष्टि से अलग होती है. उसके ‘अपने’ ख़ास नियम होते हैं. उन नियमों का अनुभव करना, यानी कविता को समझना.
अरुण के काव्य में एकल कविताओं की संख्या कम है और वे प्रायः प्रारंभिक दौर की हैं. इन कविताओं में भी ‘काली कविताएँ’, ‘अस्पताली कविताएँ’ इत्यादि कविता चक्र थे. ‘अरुण कोलटकर की कविता’ के सन 2007 के संस्करण में, इन दोनों चक्रों की आरंभिक पंक्तियों को तिरछा या इटैलिक में छापकर यह दर्शाया गया है कि वे एकल कविताओं से अलग हैं.
‘जेजुरी’, ‘काला घोड़ा पोयम्स’, ‘चिरिमिरी’, ‘द्रोण’ और ‘भिजकी वही’ (भीगी बही) आदि कविताचक्र हैं. कविता संसार की ‘हमारे अपने’ या स्वायत्तता के नियमों का विस्तार कविताचक्रों में बढ़ता है. प्रत्येक कविताचक्र अपना-अपना पदार्थ विज्ञान, रसायन, प्राणीसृष्टि, और अपना-अपना इतिहास लेकर आने वाली स्वायत्त दुनिया होती है. टी. एस. इलियट का ‘वेस्ट लैण्ड’, पाब्लो नेरुदा का ‘कान्तो खेनेराल’, ओक्तोबियो पास का ‘पिएद्रा द सोल’ या ‘सन स्टोन’ आदि ऐसे ही संसार हैं. अरुण को विविध, विस्तृत और विश्वमित्री प्रतिसृष्टि निर्माण करने में विशेष दिलचस्पी थी. अरुण की कविताओं की ‘होनापन’ और ‘न होनापन’ की परिकल्पनाएँ भी, विशिष्ट प्रतिसृष्टि के नियमों के अनुसार बदलती हैं.
अब अरुण कोलटकर की ‘ईरानी’[xiv] कविता की ये पंक्तियाँ देखिए.
चित्र की वनराजी की कुशाग्र निर्जीवता को व्यग्र
नहीं करती हवा…
यहाँ भी हवा का ‘न होनापन’ शब्दों में अंकित हुआ है.
इस कविता के चित्र के सन्दर्भ में होनापन और न होनापन का विचार करने पर क्या पाया जाता है? चित्रकार द्वारा बनाए चित्र में कुछ अंश यथार्थ का और कुछ कल्पना का हो, तो ये दोनों अंश केवल ‘चित्र के होनेपन’ के कारण दिख सकते हैं. कल्पित और यथार्थ दुनिया में सन्तुलन बनाकर विचरने वाले काव्य में, जो होता है और जो नहीं होता, दोनों को केवल शब्दोल्लेख से ‘होता है’ करने की जादुई क्षमता होती है.
एनिमेशन
अरुण की कविताओं के उपयुक्त उदाहरण, चित्रों में न होने वाली जिन बातों का उल्लेख करके भी उन्हें चित्र के बाहर रखते हैं, वे यानी चलन और गति. चित्र स्तब्धता और उससे मिलने वाली निरन्तरता की गारंटी को जब चलन और गति का स्पर्श होता है, तब जो जादूई क्षण उत्पन्न होता है, उससे एनिमेशन का जन्म होता है. एनिमेशन शब्द की उत्पत्ति animare क्रियापद से होती है और उसका अर्थ है, ‘साँस प्रदान करना’. अर्थात् प्राण या चैतन्य देना. इसके लिए हिन्दी में मुझे सजीवीकरण प्रतिशब्द सूझता है. चेतनाकरण का जन्म जादुई विचारों में होता है. इस विचार के अनेक उदाहरण हमारे लिए परिचित होते हैं, लेकिन इसके बारे में साहित्य समीक्षा में विचार अत्यन्त अभाव से ही पाया जाता है.
लोकसाहित्य की परीकथाओं में गाने वाले पंछी, बोलने वाले पत्थर, दौड़ने वाली दीवारें, ये सब मूल अर्थ में एनिमेशन के ही उदाहरण हैं. उन्नीसवीं सदी के रेशनॅलिस्टों को लगने लगा था कि यह विचारशैली मानवता के बाल्यकाल में ही थी और आधुनिक मनुष्य ऐसी बातों पर यक़ीन नहीं करेगा.’ लेकिन तभी बीसवीं सदी के प्रारम्भ में जेम्स जी. फ्रेज़र ने (1854 से 1941) अपने ‘गोल्डन बाव’ ग्रंथ श्रृँखला में यह दिखा दिया कि हमारे दैनंदिन जीवन के अनेक अन्धविश्वास माने जाने वाले रीति-रिवाज, संकेत और हमारी स्वप्नसृष्टि का और जादुई विचारों का कितना क़रीबी सम्बन्ध है. लगभग इसी दौर में फ़्रॉईड के अनुसन्धान-विश्लेषण ने स्वप्नसृष्टि और हमारे अवचेतन और अज्ञात मन का सम्बन्ध दिखाने वाले विचार प्रस्तुत किए. इन दोनों के कारण तार्किक और प्रयोगाधिष्ठित संसार से परे वाले अनुभव क्षेत्रों का मानवीय व्यवहार और प्रतिभाशक्ति का महत्व समझ में आया.
फ़्रॉईड ने दिखाया है कि जिस प्रकार जादूटोना में किसी व्यक्ति की क़रीबी वस्तु पर काला जादू कर उस आदमी का अनिष्ट किया जा सकता है, उसी तरह सपने में भी अंश और पूर्ण की अदल-बदल होती है. इससे सुर्रियलिस्टों को स्फूर्ति मिली. सुर्रियलिस्ट कला का सिनेमा में भी प्रसार हुआ. साल्बादोर दाली (सन 1904 से 1989) और लुईझ ब्युन्युएल (1900 से 1983) ने Un chien Andalou और L’age d’or आदि क्रमशः 1929 और 1930 में बनी फ़िल्मों की पटकथाओं में उन्होंने एक नियम बनाया था. यदि दो प्रतिमाओं में कोई कार्यकारणभाव नज़र आता है, तो उन्हें कभी एक दूसरे के पास नहीं रखना. तर्क से जो समझ में आ सकता था, उन सबको उन्हें अस्वीकार करना था. ऐसी फ़िल्मों में स्वेच्छा से चलने वाली वस्तुएँ दृष्टिगत होने लगीं. सुस्वप्न की तरफ़ जाने वाला जादू सफ़ेद जादू होता है और दुःस्वप्न की तरफ़ जाने वाला जादू टोना या काला जादू होता है. जब यह जादू का क्षण परेशान करने लगता है, तब वह जादू दुःस्वप्न की तरफ़ जाता है.
अरुण की प्रारंभिक कविताओं में एनिमेशन के अनेक उदाहरण पाए जाते हैं. बाद में वे कम हो गए, लेकिन विशिष्ट परिणाम के लिए वह बीच-बीच में उनका इस्तेमाल करता है. उसकी कवि-प्रतिभा की ‘सिनेमैटिक’ विशेषताओं के बारे में, तथा उसकी कविताओं से दिखाई देने वाले ‘सिनेमा’ के बारे में मराठी में पहले लेखन हो चुका है. यहाँ उसका संक्षिप्त जायज़ा लेना आवश्यक है. इस सन्दर्भ में महत्वपूर्ण लेखन यानी विलास सारंग की पूर्वोल्लिखित पुस्तिका.[xv]
विलास ने अरुण की कविताओं के एनिमेशन विचार को ‘परसॉनिफ़िकेशन’ नामक परम्परा से चलते चले आए साहित्यिक अलंकार और रोमाण्टिक विचारधारा के ‘पथेटिक फॅलसी’ और अस्तित्ववादी कला प्रवाह से जोड़ा है. उसके भयानक रस की निर्मिति करने वाले अनुभव के बारे में भी उसने लिखा है. निरूपद्रवी और हमेशा की बातें अचानक कैसे खूँखार हो सकती हैं, इस सन्दर्भ में उसने आल्फ़्रेड हिक्चकॉक के ‘बर्ड्स’ फ़िल्म का उल्लेख किया है और उसका अरुण के एनिमेशन के दुःस्वप्न जैसी प्रतिमाओं से नाता जोड़ा है. विलास कहता है, ‘उसकी अगली सीढ़ी यानी वस्तुओं का आक्रामक रूप धारण करना. फ़िल्मों में तकनीकी दिक्कतों के कारण अभी तक बहुत ज़्यादा सम्भव नहीं हो पाया.[xvi]
विलास की मृत्यु सन 2015 में हुई. उसकी अरुण पर लिखी पुस्तक में मुझे कहीं भी प्रकाशन वर्ष नज़र नहीं आया. फिर भी उसके पुस्तक लिखने से पहले, सन 1950 और 60 के दरमियान एनिमेशन की झाग्रेब शैली विश्वविख्यात हो चुकी थी. दुनिया का पहला अन्तरराष्ट्रीय फ़िल्म-महोत्सव क्रोएशिया के झाग्रेब में सन 1971 में सम्पन्न हुआ और तब से आज तक नियमित रूप से होता आया है.
कला-आविष्कार स्वतन्त्रता पर पाबंदियों का दौर शुरू होने के बाद पूर्व यूरोप ने मानवीय स्थिति पर बुनियादी भाष्य करने के लिए गुड़िया और एनिमेशन का इस्तेमाल किया था. मैंने सन 2010 के आसपास प्राग में बेकेट के ‘वेटिंग फ़ॉर गोदो’ नाटक का कठपुतलियों द्वारा पेश किया गया मंचन देखा था. यह भी एनिमेशन का ही एक प्रकार था. क्योंकि निर्जीव गुड़िया का उसमें चेतनाकरण था. काफ़्का के ‘मेटामॉर्फ़ासिस’ की तर्ज़ पर और कलात्मक दृष्टि से उच्च श्रेणियों की वस्तुओं के एनिमेशन की उन देशों में निर्मित होती थी और प्रमोद पति यह तकनीक भारत लाए थे. अरुण का इस रौद्र-भीषण शैली की कलाकृतियों से, विशेषतः विज्ञापन क्षेत्र में चेतनाकरण के इस्तेमाल के कारण, निश्चित परिचय रहा होगा.
मुझे एनिमेशन और सिनेमा के तकनीकी और सर्जनात्मक प्रक्रियाओं और सुर्रियलिस्ट कला से समानता के परे जाकर अरुण की कविता का सम्बन्ध जादुई विचारों से जोड़ना है. ये विचार आदिम मानवीय सर्जनात्मक विचारों और कला प्रयोगों की नींव थे. आस-पास की निर्दय प्रकृति और खूँखार प्राणी जगत से हुए संघर्ष में वे मानवीय समूहों का साथ देते थे. मनुष्य के टिके रहने का यह एक साधन था. उसे शिकार में सहायता करते थे और कम से कम पंचमहाभूतों पर नियन्त्रण पाने का आभास उत्पन्न करते थे. ये विचार मानव समूह के जीवन-मृत्यु से सम्बन्धित थे. ऐसे मानवीय विचारों और कलाओं के उगम तक अरुण की कविता पहुँचती है. सिनेमा आदि अन्य कलाएँ भी वहीं से स्फूर्ति ग्रहण करती हैं. अरुण रूपवाद, अस्तित्ववाद आदि वादों में उलझने वाला कवि नहीं है, बल्कि वह तो ज्ञानेश्वर-तुकाराम की तरह कविता के लिए जान की बाजी लगा देने वाला कवि है.
मुझे अरुण की काव्य निर्मिति प्रक्रियाओं का कुल सिने-निर्मिति प्रक्रियाओं से सम्बन्ध जोड़ना है. इसलिए मैं ‘अंश में पूर्णत्व’ और ‘सजीवीकरण’ को अलग-अलग काव्य कौशल न मानकर उन्हें एक सम्प्रभु संकल्पना-चौखट का आमुख मानता हूँ. मुझे पर्याप्त साक्ष्य-प्रमाणों के साथ यह प्रस्तुत करना है कि रेखा और रंग का गुणधर्म, चौखट की रचना, कैमरे का दृष्टिकोण, कैमरा चलन के विभिन्न प्रकार, मोन्ताज की अलग-अलग पद्धतियाँ, लेन्स के प्रकार और उनका परिकल्पनात्मक और वैज्ञानिक इतिहास वग़ैरह हर बात अपने अपने ढंग से, अरुण की कविताओं में कैसे प्रतीत होती है. जिस प्रकार मुझे अरुण की कवि प्रतिभा का मराठी और अंग्रेज़ी भाषा के अनुसार विभाजन मंजूर नहीं है, उसी प्रकार, उसके सर्जनात्मक कवि और दृक्-कलाकार यह जीवच्छेदन भी नामंजूर करना है. और इन सभी प्रवाहों से बहने वाली निर्मिति प्रक्रियाओं का अखण्डत्व दिखाना है.
विलास की पुस्तिका के अलावा वसन्त पाटणकर द्वारा सम्पादित पुस्तक ‘अरुण कोलटकर की कविता : कुछ दृष्टिक्षेप’, (प्रकाशक, मराठी विभाग, मुम्बई विश्वविद्यालय, 1998) में भी अरुण की कविता में जगह-जगह पाए जाने वाले दृक्-कलाओं के साम्यस्थलों के लेख समाविष्ट हैं. उनमें रमेशचन्द्र पाटकर का लेख मुझे सबसे महत्वपूर्ण लगा. रमेशचन्द्र पाटकर की समझ बिल्कुल सही और दुरुस्त है. उसके दस पृष्ठों वाले इस लेख के निरीक्षण और उससे निकाले गए निष्कर्ष उसकी विचक्षण कलादृष्टि का अहसास कराते हैं. पाटकर ने मुझे बताया कि उसने फ़िल्म डिवीजन के सिने-सम्पादक श्री. बान्देकर के पास बतौर सहायक काम किया है. इसी कारण उसकी लचीली कलाई में कुशलता आई होगी. और इसलिए टिप्पणियों में भी खरोंचें या दरारें दिखाई नहीं देतीं. और लेख में भी एक चमक है.
सिनेमा से सम्बन्धित अरुण की कविताओं की सार्वभौम विचार चौखट आपके सामने पेश करने के बाद मैं दोबारा एनिमेशन की तरह मुड़ता हूँ. अरुण के काव्य में एनिमेशन निर्मिति प्रक्रिया की व्याप्ति और उसके प्रयोग का बुनियादी महत्व हमें महसूस होगा.
अरुण की ‘गलीचे में जड़े सत्रह शेर’ कविता का उदाहरण देखिए:[xvii]
कोने में रखा काँच का बकरा
लगाता है अभौतिक छलाँग
फन्दे पर झूलती स्त्री का
पार कर जाता है पिण्ड
खाली फूलदान दमके
दमके जैसे फ़्लैश का कैमरा
और तस्वीर खींची ख़ुदकुशी की
दिव्य नेगेटिव ऐसी
फूल प्रसव करता है दृष्टिहर उज्ज्वल
जो जलाते हैं तमाशबिनों के दृष्टि पटल.
एनिमेशन और ‘होना-न-होनापन’, इन दोनों अवधारणाओं के प्रयोग वाली यह कविता महत्वपूर्ण है. यहाँ एनिमेशन की सूचना है. परन्तु प्रत्येक बिम्ब में वह केवल क्षणमात्र के लिए टिकी रहती है. वह ‘फ़्लैश बल्ब’ जैसी तेज लपटें फेंककर दोबारा निश्चल होने वाला एनिमेशन है. इस निश्चलता में उसके बढ़ते जाते डर का बीज है. अन्धेरा और अतितेज प्रकाश, दृष्टि के दो ध्रुव हैं. यहाँ प्राप्त होने वाला अन्धत्व प्रकाश के कारण आँखें जलाने से आया है. हिचकॉक के ‘रियर विण्डो’ फ़िल्म का फ़ोटोग़्राफ़़र नायक, उस पर हमला करने वाले खूनी को फ़्लैश बल्ब का इस्तेमाल कर अस्थाई रूप में अन्धा बनाता रहता है और उससे अपनी जान बचाता है. इस कविता के बिम्ब ऐसे ही अन्धत्व से अभी अभी बाहर निकले दृष्टिगत होते हैं.
‘एनिमेशन’[xviii] कविता तो अपने शीर्षक से ही इस सिने-प्रकार पर या जादू पर निर्भर है. ये पंक्तियाँ अनेक विज्ञापन फ़िल्मों को शब्दरूप देती हैं. विज्ञापन क्षेत्र में ऐसे बिम्बों का इस्तेमाल लगातार होता है. इसी क्षेत्र में काम करने वाले अरुण कोलटकर को, उसके अतिप्रयोग के कारण, ‘झट् से आँखें भींचने’ की इच्छा हुई, तो कैसा आश्चर्य?
ट्यूब से टूथपेस्ट का कुन्दा बाहर आता है
स्क्वॉश की बोतलें घेरा बनाती हैं
विम का डिब्बा टुन् से कूदता है
रेपर खुलकर ब्लेड बाहर आता है
या कपड़ों की तहें अपने आप बनती हैं
तब मैं झट से आँखें भींच लेता हूँ.
अरुण की कविता के एनिमेशन का एक अविस्मरणीय और भय से चकित करने वाला क्षण यानी ‘बिजली’ (दिए) कविता का दूसरा और अन्तिम चरण. यहाँ एनिमेशन कवि के शरीर पर कब्ज़ा कर लेता है और प्रत्येक अवयव अपनी सनक से बर्ताव करने लगता है. शारीरिक दुष्क्रिया नष्ट होने की यह शुरुआत है. जब तक शरीर के मालिक की सम्वेदनाएँ क़ायम हैं, तब तक कम से कम वे महसूस होती हैं. यहाँ ‘लेकिन बिजली चली जाने’ के कारण शून्य तक का सफ़र अन्धेरे में ही होता है.
कुछ सड़ाँध आ रही थी
इसलिए जेब ही जेब में नाक सिकोड़ा
और कहीं करांगुली में इल्लियाँ तो नहीं पड़ गईं
देखने लगा: लेकिन बिजली ही चली गई.[xix]
चार्ट
स्थितिशीलता और गतिशीलता जिस प्रकार वस्तुओं में होती है, उसी तरह वह सामाजिक परिस्थितियों में भी होती है. परिवार की चौखट, जाति की चौखट, प्रदेश की चौखट, धर्म की चौखट, भाषा की चौखट आदि अनेक चौखटों की अचलता पर और कठिनता पर हमारा मानसिक, सामाजिक और अन्य अनेक प्रकार का स्थैर्य निर्भर होता है. इन चौखटों की प्रतिध्वनियाँ हमारी भाषाओं में भी अंकित होती हैं और उन्हें पकड़कर हम छोटे से बड़े होते हैं. एक दिन ये चौखटें हमें काटने लगती हैं. युवावस्था में तो उन्हें पूरी तरह से ध्वस्त कर डालने की प्रबल इच्छा होती है. उससे कुछ चौखट के बाहर के चेहरे अंकित होते हैं. वे इन चौखटों को चुनौती देते हैं. वे बदल जाती हैं और एक दिन वे चेहरे शान से नई अदृश्य चौखट में बैठने लगते हैं.
इसका मूलारम्भ का उदाहरण यानी वर्णमाला का चार्ट.[xx]
वर्णमाला के चार्ट के अनुसार, बीसवीं सदी के तीसरे-चौथे दशक से पाठशाला में लगाए जाने वाले चित्रमय चार्ट जीने की विभिन्न चौखटों से परिचय कराते हैं. देश के महापुरुषों के चित्र और उनके जीवन के महत्वपूर्ण प्रसंगों के चार्ट आदर्शों की चौखटें निर्माण करते हैं. पहले की पाठशालाओं में हमेशा इस्तेमाल किए जाने वाले चार्टों में दो लड़कों के चरित्र होते थे. एक होता था समझदार लड़का और दूसरा होता था उद्दण्ड लड़का. इन दोनों के चार्ट के दाएँ और बाएँ हिस्से में विभिन्न प्रसंगों का प्रयोग कर दोनों में तुलना की गई होती थी. इन सभी चार्ट के चित्र स्थूल और भड़कीली शैली में बनाए होते थे. उनकी रेखाएँ जितनी प्राथमिक, उनके रंग उतने ही भड़कीले होते थे. साठ के दशक में, इस स्थूल शैली का उपहासात्मक प्रयोग विशेषतः भूपेन खक्कर ने किया और आधुनिक कला की सीमाएँ विस्तृत कीं.
बोधपरक चार्ट की अपेक्षा वर्णमाला के चार्ट ख़ास प्रेक्षणीय होते थे. सालोंसाल न बदलने वाली वर्णमाला के पैरों के पास ठोस चित्र खड़े होते थे. मानो उन्हें न बदलने वाली चातुर्वर्ण्य समाज रचना का आधार तब भी था और आज भी है. ऐसी ‘अर्थ’व्यवस्था में अगर वर्णमाला में हलचल हुई और उनकी जगहें बदली गईं, तो उन पर खड़ी सारी व्यवस्था ध्वस्त होकर अराजकता फैलेगी. इस सम्भाव्य अराजकता का अरुण जो उपरोधात्मक और विनोदी वर्णन करता है, वह भी न होने के होनेपन के प्रयोग से. यह वर्णमाला का ‘थिएटर ऑफ़ दी अॅब्सर्ड’ है.
माँ बच्चे को ओखली में नहीं डालेगी
भटजी बत्तख में लहसुन का तड़का नहीं देगा
तरबूज से टकराकर जहाज टूटेगा नहीं
शतुरमुर्ग जब तक झँगूला नहीं खाता
तब तक क्षत्रीयपन गणपति के पेट में बाण नहीं चलाएगी
और मेढ़ा ने निहुरा को टक्कर नहीं मारी
तो निहुरा को चबूतरे पर कप फोड़ने की ज़रूरत ही क्या
जारी..
सन्दर्भ
[i] P. 345, Making Love to a Poem, Arun Kolatkar : Collected Poems in English, उपरोक्त-
[ii] मेरुदण्ड की परिकल्पना मुझे महसूस होने के बाद मैंने अरुण के ‘जेजुरी’ संग्रह की कविता ‘पुजारी’ का ‘ऋचा’ के दिसम्बर, 1976 के अरुण कोलटकर विशेषांक के लिए विश्लेषण किया था. कविता की पंक्तियाँ से सिने-बिम्बों जैसी कैसे रची गई हैं, यह उसमें मैंने दिखाया था. पहले मैंने अंग्रेज़ी कविताओं का विश्लेषण किया था. अंक मराठी था. जब मैंने अरुण को अपने लेख के बारे में बताया, उसने दो-एक दिनों में मराठी कविता मुझे उपलब्ध करा दी. मेरा लेख जब प्रकाशित हुआ, तब ‘जेजुरी’ की कविताएँ मराठी में भी हैं, यह लगभग किसी को पता नहीं था. ‘जेजुरी’ संग्रह मराठी में सन 2011 में प्रकाशित हुआ.
[iii] अरुण की कविता का ‘बिलोरी’ शब्द विलास सारंग ने अपनी पुस्तिका के शीर्षक के लिए प्रयुक्त किया है.
[iv] पृ. 116, सिस्टर कैरोलला, अरुण कोलटकर की कविताएँ, प्रास प्रकाशन, चौथा संस्करण, 2007.
[v] पृ. 45, अरुण कोलटकर की कविताएँ, प्रास प्रकाशन, चौथा संस्करण, 2007.
[vi] Shakespeare’s Imagery and What it tells us, Coroline Spurgeon, Cambridge University Press, 1935, 9th Impression, 2005.
[vii] Gogol’s Artistry, Andri Bely, Tr. Christopher Colbath, North-western University Press, 2009.
[viii] पृ. 56, ईरानी, अरुण कोलटकर की कविता, प्रास प्रकाशन, चौथा संस्करण 2007. इस कविता के सारे उद्धरण इसी संस्करण से लिए गए हैं.
[ix] दृष्टिकोण में ज़रा सा बदलाव कर एक ही वस्तु का, एक ही प्रतिमा का शॉट लिया जाए तो वह वस्तु तनिक हिलने जैसी लगती है. इस प्रकार के जोड़ को jump cut कहते हैं. किसी शॉट के बीच के दो-तीन फ्रेम काट दें, तो यही परिणाम प्राप्त किया जा सकता है.
[x] ज्ञानेश्वरी, अध्याय छह, राजवाड़े प्रति.
[xi] जेम्स जॉर्ज फ्रेज़र विख्यात मानववंशविज्ञानी और लोकसाहित्यविद् थे. उन्होंने दुनिया की बहुत सारी संस्कृतियों के जादुई विचारों की परिकल्पना और विचार प्रक्रिया के बीच साम्य रखने वाले स्थलों की खोज कर, उस पर के विचार ‘Golden Bough’ ग्रंथ मालिका में प्रस्तुत किए हैं.
[xii] The Boatride and other Poems, Arun Kolatkar, Pras Prakashan, 2007 कविता के सभी अवतरण प्रस्तुत संस्करण से लिए गए हैं.
[xiii] पृ. 62, अरुण कोलटकर की कविता, प्रास प्रकाशन, चौथा संस्करण, 2007.
[xiv] पृ. 56 उपरोक्त.
[xv] पृ. 40, बिलोरी कविता
[xvi] पृ. 41, बिलोरी कविता
[xvii] पृ. 52, अरुण कोलटकर की कविता, उपरोक्त.
[xviii] पृ. 142, उपरोक्त.
[xix] पृ. 61, उपरोक्त.
[xx] पृ. 146, तालिका, उपरोक्त.
अरुण खोपकर
मणि कौल निर्देशित ‘आषाढ़ का एक दिन’ में कालिदास की प्रमुख भूमिका. सिने निर्देशक, सिने विद् और सिने अध्यापक. फिल्म निर्माण और निर्देशन के लिए तीन बार सर्वोच्च राष्ट्रीय पुरस्कारों के सहित पंद्रह राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित. होमी भाभा फेलोशिप से सन्मानित. ‘गुरू दत्त : तीन अंकी शोकांतिका’ को सिनेमा पर सर्वोत्कृष्ट पुस्तक का राष्ट्रीय ॲवॉर्ड और किताब अंग्रेजी, फ्रेंच, इटालिअन, बांगला, कन्नड और हिंदी मे भाषांतरित. ‘चलत् चित्रव्यूह’ के लिए साहित्य अकादेमी ॲवार्ड व महाराष्ट्र फाउंडेशन (यू. एस. ए.) ॲवार्ड, ‘अनुनाद’ और ‘प्राक् सिनेमा’ के लिए लिए महाराष्ट्र राज्य पुरस्कार. अंतरराष्ट्रीय चर्चा सत्रों में सहभाग और प्रबंधों का अंग्रेजी, रशियन और इटालियन में प्रकाशन. सत्यजित राय जीवनगौरव पुरस्कार व पद्मपाणी जीवनगौरव पुरस्कार. चार भारतीय और छह यूरोपीय भाषाओं का अध्ययन. महाराष्ट्र सरकार द्वारा सम्मानित प्राक्-सिनेमा का सेतु द्वारा शीघ्र प्रकाशन. |
गोरख थोरात 1969 समकालीन मराठी से हिंदी अनुवादकों में एक चर्चित नाम. हिंदी में अनेक आलोचनात्मक पुस्तकें प्रकाशित लेकिन पहचान बतौर अनुवादक. ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित साहित्यकार भालचंद्र नेमाड़े के ‘हिंदू-जीने का समृद्ध कबाड़’ से अनुवाद कार्य प्रारंभ. भालचंद्र नेमाड़े के साथ-साथ अशोक केळकर, चंद्रकांत पाटील, महेश एलकुंचवार, अरुण खोपकर, दत्तात्रेय गणेश गोडसे, रंगनाथ पठारे, राजन गवस, जयंत पवार, अनिल अवचट, मकरंद साठे, अभिराम भड़कमकर, नरेंद्र चपळगाँवकर, मनोज बोरगाँवकर समेत अनेक साहित्यकारों की करीब चालिस रचनाओं का अनुवाद. रजा फौंडेशन के लिए साहित्य-कला आलोचना संबंधी अनेक पुस्तकों का अनुवाद. महाराष्ट्र राज्य हिंदी अकादमी मामा वरेरकर अनुवाद पुरस्कार, अमर उजाला ‘भाषा बंधु’ पुरस्कार, Valley of Words International Literature and Arts Festival, 2019 Dehradun का श्रेष्ठ अनुवाद पुरस्कार, बैंक ऑफ बड़ोदा का राष्ट्रभाषा सम्मान श्रेणी (लेखक तथा अनुवादक को पाँच लाख रुपए का पुरस्कार) समेत अनेक पुरस्कारों से सम्मानित. gnthorat65@gmail.com |