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Home » भारतीय राजनीति, लोकतंत्र और शाहीन बाग़: मुकुल सरल

भारतीय राजनीति, लोकतंत्र और शाहीन बाग़: मुकुल सरल

पत्रकार, लेखक, संस्कृतिकर्मी और इधर ‘न्यूज़क्लिक’ पर अपने स्तम्भ से चर्चित भाषा सिंह की पुस्तक ‘शाहीन बाग़: लोकतंत्र की नई करवट’ की चर्चा कर रहें हैं पत्रकार कवि मुकुल सरल.

by arun dev
October 13, 2022
in समीक्षा
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भारतीय राजनीति, लोकतंत्र और शाहीन बाग़: मुकुल सरल
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भारतीय राजनीति, लोकतंत्र और शाहीन बाग़
मुकुल सरल

भाषा सिंह

अभी न सीएए गया है, न शाहीन बाग़ जैसे आंदोलन की ज़रूरत ख़त्म हुई है. इसलिए इस क़ानून और इस आंदोलन दोनों को याद रखने, उसे जानने-समझने की बेहद ज़रूरत है. कवि अजय सिंह के शब्दों में- ‘यह स्मृति को बचाने का वक़्त है.’

जी हां, शाहीन बाग़ हो या किसान आंदोलन दोनों को आगे ले जाने की ज़रूरत है. क्योंकि नागरिकता संशोधन क़ानून (CAA) और किसान और देश विरोध तीन कृषि क़ानूनों का विचार अभी ख़त्म नहीं हुआ है. बल्कि सरकार ने रणनीतिक तौर पर इन्हें स्थगित किया है. सीएए लागू करने को लेकर फिर सुगबुगाहट और बयानबाज़ी शुरू हो गई है और कृषि क़ानूनों को भी नए रूप में कभी भी थोपा जा सकता है. जैसे बिजली संशोधन बिल को तमाम वादों के बावजूद सारी संसदीय परंपराओं का उल्लंघन कर इसी मानसून सत्र (2022) में फिर पेश कर दिया गया.

तो 2019 के दिसंबर में सीएए और 2020 के नवंबर में कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ जो मुहिम शुरू हुई, जो आंदोलन शुरू हुआ उसे कैसे एक सबक़ के तौर पर याद रखा जाए…ताकि आगे के संघर्ष का रास्ता मिले इसके लिए इन दोनों ही ऐतिहासिक आंदोलनों के दस्तावेज़ीकरण की बेहद ज़रूरत है.

दोनों ही आंदोलनों पर कुछ किताबें हमारे सामने आई हैं. उनमें सीएए विरोधी आंदोलन पर एक महत्वपूर्ण किताब है- “शाहीन बाग़: लोकतंत्र की नई करवट”. इसे लिखा है कवि और पत्रकार भाषा सिंह ने. इस किताब को लिखते हुए या कहें कि इस आंदोलन को कलमबंद करते हुए भाषा सिंह ने अपनी सारी सलाहियत, सारी ऊर्जा उड़ेल दी है. एक पत्रकार के तौर पर उन्होंने इस आंदोलन को बेहद नज़दीक से देखा और एक पत्रकार के साथ-साथ एक कवि, एक कहानीकार, एक एक्टिविस्ट और एक महिला के तौर पर इस किताब को आकार दिया है. एक जन आंदोलन की समझ और महिला आंदोलनकारियों से उनका जो बहनापा है वो इस किताब में साफ़ दिखाई देता है. यही वजह है कि इस किताब को रिपोर्ताज की श्रेणी में रखा गया है. रिपोर्ताज के बारे में आप जानते ही हैं कि ये लेखन में संवाद की एक शैली है जिसमें आंखों देखी घटना का तथ्यात्मक और कलात्मक ढंग से ब्योरा या विवरण दिया जाता है. इसमें कुछ काल्पनिक नहीं होता लेकिन हां, लिखा सरस ढंग से जाता है.

तो जैसा मैंने पहले भी कहा-लिखा कि “शाहीन बाग़: लोकतंत्र की नई करवट”  हमारी आंखों के सामने बनते इतिहास का ज़िंदा दस्तावेज़ है. ध्यान रहे कि भाषा सिंह इसे सिर्फ़ सीएए विरोधी आंदोलन के तौर पर नहीं देख रहीं, बल्कि  इसे ‘लोकतंत्र की नई करवट’ के तौर पर रेखांकित कर रही हैं. यह करवट इसलिए भी ख़ास है कि ये महिला ख़ासकर भारतीय मुस्लिम महिलाओं द्वारा लीड किया गया आंदोलन था. यह करवट एक नये संदर्भ में एक ज़लज़ले, एक भूकंप के तौर पर भी दर्ज की जा सकती है, क्योंकि वास्तव में इसने हमारी पूंजीवादी और सांप्रदायिक राजनीति के साथ-साथ हमारे पितृसत्तात्मक घर-परिवार, समाज सबके पांव के नीचे की ज़मीन भी हिलाई है.

भाषा ख़ुद लिखती हैं- “भारत के राजनीतिक पटल पर शाहीन बाग़ का आलोड़न भी भूकंप सरीखा ही था.”

इस आंदोलन के चलते काफ़ी कुछ टूटा और जुड़ा है. जिसे सिलसिलेवार समझने के लिए बाक़ायदा एक किताब की बेहद ज़रूरत है. और उस ज़रूरत को पूरी करती है भाषा सिंह की किताब.

भाषा के ही शब्दों में “…शाहीन बाग़ एक पर्याय बन गया. महज़ 101 दिनों के भीतर देश के कई राज्यों में 80 से अधिक जगहों पर शाहीन बाग़ पहुंच गया. संज्ञा ने सर्वनाम का और कई जगह विशेषण का रूप धर लिया….”

भाषा के मुताबिक उन्होंने क़रीब 11 राज्यों के धरना स्थलों पर जाकर अनगिनत औरतों-आयोजनकर्ताओं से बातचीत की और उनमें से मुख्य-मुख्य बातें इस किताब में दर्ज कीं.

इस किताब को आभार और परिशिष्ट के अलावा कुल नौ अध्यायों में बांटा गया है. “अम्न के राग” से शुरू होकर इस आंदोलन की कहानी “आगे का रास्ता” पर ख़त्म होती है. इस बीच “नई करवट”, “मिसाल-बेमिसाल”, “आवाज़ें और सूरज से सामना”, “आंबेडकर का कंधा और संविधान”, “नक़्शे पर नए नाम”, “आंदोलन के औज़ार”  आदि नाम से अध्याय हैं, जिसमें इस आंदोलन की वजह, इसकी ज़रूरत, इसके निहितार्थ परत-दर-परत खुलते चले जाते हैं.

भूमिका के तौर पर लिखे गए ‘अम्न का राग’ में भाषा लिखती हैं-

“यह किताब एक कोशिश है, भारतीय राजनीतिक फलक पर हुई इस अहम करवट को सहेजने की, उसे सही परिप्रेक्ष्य में समझने की. लोकतंत्र को वाइब्रेंट बनाए रखने की अतुलनीय जिजीविषा को जेंडर लेंस के साथ परखने की. इस आंदोलन का दस्तावेज़ीकरण करके ही भारतीय लोकतंत्र की जटिलताओं के साथ-साथ प्रतिरोध की सुंदरता, शक्ति और संभावनाओं को भांपा जा सकता है. शाहीन बाग़ आंदोलन 15 दिसंबर, 2019 से लेकर 24 मार्च, 2020 तक चला. और बाद में नानियों-दादियों की खड़ाऊं के रूप में हमारे लोकतांत्रिक स्पेस का स्थायी हिस्सा बन गया”.

यह आंदोलन भी इसलिए स्थगित करना पड़ा क्योंकि कोरोना महामारी को देखते हुए मोदी सरकार ने अचानक एकतरफ़ा देशव्यापी लॉकडाउन लागू कर दिया था. हालांकि दिल्ली में महिलाओं ने वास्तव में अपनी ‘खड़ाऊं’ (चप्पल) प्रतीक के तौर पर आंदोलन स्थल पर छोड़ी थी. लखनऊ में महिलाएं आंदोलन स्थल घंटाघर पर अपने दुपट्टे टांग गईं थी. लेकिन बाद में प्रशासन ने आंदोलन स्थल से यह सब चीज़ें हटा दीं, मगर इस बहाने ऐलान तो हो चुका था कि आंदोलन सिर्फ़ स्थगित हुआ है, ख़त्म नहीं.

भाषा लिखती हैं-

“अपने बहुमत की बदौलत केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा 11 दिसंबर, 2019 को संसद से नागरिकता संशोधन अधिनियम-2019 पारित करा लिया गया. लिहाज़ा देखते ही देखते सीएए और एनआरसी के ख़िलाफ़ शुरू हुआ यह आंदोलन देश की नए सिरे से खोज करने, देश की नई प्रस्तावना को गढ़ने की प्रक्रिया में तब्दील हो गया. यह आंदोलन इस मामले में अनूठा रहा कि इसमें अपने मुल्क पर दावेदारी पेश करती हुईं औरतें (ज़्यादातर मुसलमान) यह ऐलान कर रहीं थी कि वतन से उनका रिश्ता किसी काग़ज़ का मोहताज़ नहीं है. वतन में हमारे पुरखों का ख़ून-पसीना शामिल है और यह मिट्टी ही हमारा दस्तावेज़ है.

इस नए भारत की खोज में मुल्क का आईन (संविधान) सबसे बड़ा संबल बनकर सामने आया और संविधान की प्रस्तावना ‘हम भारत के लोग’ मशाल की तरह मार्ग प्रशस्त करती रही.”

पहले अध्याय ‘नई करवट’ में भाषा लिखती हैं-

“भारतीय राजनीति इस नई करवट के लिए बिल्कुल तैयार नहीं थी. कोई इसे भांप ही नहीं पाया था. राजनीति के बारे में भविष्यवाणियां करने वाले तमाम ठेकेदार-ज्ञाता-पंडित-मौलवी-पादरी इस बारे में एक शब्द पहले नहीं बता पाए. किसी ने भविष्यवाणी नहीं की कि देश में इतने बड़े पैमाने पर आक्रोश फूटने वाला है जिसकी कमान औरतें और वह भी मुसलमान औरतें, थामेंगी.”

“यह आंदोलन उस सत्ता को चुनौती दे रहा था, जो कुछ महीने पहले (मई 2019) प्रचंड बहुमत से दोबारा केंद्र में काबिज़ हुई थी और मीडिया समेत लोकतंत्र के तमाम खंभों को अपने आगे दंडवत करा चुकी थी. देश में एक खेमें में जिस समय पस्ती का माहौल था और तमाम राजनीतिक दलों के भीतर यह भाव बैठ गया था कि नरेंद्र मोदी सरकार और भारतीय जनता पार्टी को चुनौती देना संभव नहीं है, उसी समय शाहीन बाग़ की औरतें उट्ठीं”.

दूसरे अध्याय “मिसाल-बेमिसाल” में भाषा ने बताया कि किस तरह शाहीन बाग़ ने अनगिनत आंदोलन-समूहो, विचारधाराओं, व्यक्तियों और संस्थानों को अपनी ओर खींचा. यहां स्त्री आंदोलन से जुड़े अनगिनत एक्टिविस्टों के समूहों ने डेरा डाला, विभिन्न यौन झुकावों वाले समूहों-व्यक्तियों ने एकजुटता ज़ाहिर की. किसान अनाज और लंगर लेकर आए, इतिहासकार, अर्थशास्त्री, पूर्व सरकारी अधिकारी, नामचीन गायक-संगीतकार, फ़िल्मकार, सिने अभिनेता…यानी अलग-अलग क्षेत्रों में महारत रखने वाले लोगों ने खुद को इसके साथ खड़ा किया. …आंदोलन ने शुरू होने के तुरंत बाद ही जिस तरह की सकारात्मक ऊर्जा पैदा की, वह सालों तक याद रखी जाएगी.”

तीसरे अध्याय “आवाज़ें और सूरज से सामना” में भाषा, ओम प्रकाश नदीम के शेर- ‘ये न समझो ऐसा वैसा वास्ता सूरज से है/ ये सफ़र ऐसा है अपना सामना सूरज से है!’ के हवाले से कहती हैं कि “यह शेर दिमाग़ में कौंधता है, जब मैं देशभर में फैले शाहीन बाग़ों की रिकॉर्डिंग देखती-सुनती हूं. देश के जिस भी कोने में बतौर पत्रकार पहुंच पाई, हर जगह की आवाज़ें एक से बढ़कर एक थीं. हर एक आवाज़ में तर्क की मौलिकता और दिलेरी बेमिसाल”.

चौथा अध्याय “आंबेडकर का कंधा और संविधान” अध्याय भी बेहद महत्वपूर्ण है जो बताता है कि आंबेडकर आज भी कितने प्रासंगिक हैं और उनके द्वारा बनाया गया संविधान हमें कितनी ताक़त देता है.

“शाहीन बाग़ के दो सबसे मज़बूत नायाब पहलू थे-  संविधान निर्माता डॉ. बी.आर. आंबेडकर और भारत का संविधान. शाहीन बाग़ इन दोनों पर सिर्फ़ टिका हुआ ही नहीं था, बल्कि इन दोनों की अहमियत को भी राष्ट्रीय राजनीतिक फलक पर स्थापित कर रहा था. आज़ादी के बाद से 2019 तक कोई ऐसा बड़ा राष्ट्रीय आंदोलन नहीं रहा- ख़ासतौर से ग़ैर-दलित नेतृत्व वाला- जिसने आंबेडकर की राह पकड़ी हो और संविधान का हाथ इतनी मज़बूती से थामा हो”.

लेकिन आज इसी संविधान को बदलने की कोशिश हो रही है. शाहीन बाग़ आंदोलन इसे लेकर भी हमें आगाह करता है और नारा देता है-

“हम संविधान बचाने निकलें हैं, आओ हमारे साथ चलो

हम देश बचाने निकले हैं, आओ हमारे साथ चलो”

तमाम अध्याय के साथ एक अध्याय (पांचवा अध्याय) “सृजन की तीखी धार” भी है जो बताता है कि एक आंदोलन का कला-साहित्य में कितना योगदान हो सकता है. इस आंदोलन के माध्यम से ही कितने नए कवि-लेखक हमारे सामने आए.

भाषा लिखती हैं-

“यक़ीनन ऐसी अनगिनत लाइनें औरतों ने प्रदर्शन में आकर, यहां बैठकर, यहां के बारे में सोचकर लिखी होंगी. अगर उन्हें हम इकट्ठा कर पाएं तो निश्चित तौर पर कला-साहित्य के जगत का यह अलग ही कैनवास बनेगा.”

छठे अध्याय “नक्शे पर नए नाम” में भाषा उन आंदोलन का केंद्र बने इलाकों के नामों का उल्लेख करती हैं. वे कहती हैं-

“शाहीन बाग़ आंदोलन ने भारत के नक्शे पर कुछ नए नाम जगमग किए. ये सारे ऐसे नाम थे जिनके बारे में उस शहर के लोगों ने भी नहीं सुना था, और जिन्होंने सुना था, उन्होंने कभी यह नहीं सोचा था कि ये इलाके, ये चौराहे धरने-प्रदर्शन के लिए भी इस्तेमाल किए जा सकते हैं”.

सातवां अध्याय “आंदोलन के औज़ार” है, जिसमें बताया गया है कि तिरंगा, संविधान, संविधान की प्रस्तावना, प्यार-अमन की बातों को बेख़ौफ़ अंदाज़ में कहना और सीधे-सीधे सत्ता के शीर्ष से संवाद करना, हर जवाब को कलात्मक रूप देना-ये सारे तौर-तरीक़े शाहीन बाग़ की औरतों और आंदोलन के समर्थकों ने बहुत सजगता से ईजाद किए.

आठवें अध्याय  “भाजपा का एजेंडा और गोदी में बैठा मीडिया” के माध्यम से भाषा, जो ख़ुद एक नामचीन पत्रकार हैं, सत्तारूढ़ दल और सरकार की साज़िशों और हमारे दौर के मीडिया के चरित्र को बेनक़ाब कर देती हैं.

नोम चोम्सकी के एक उद्धरण- “जो मीडिया पर नियंत्रण करता है, वही लोगों के दिमाग़ को भी नियंत्रित कर लेता है”, से अपनी बात शुरू करती हुईं भाषा, कई उदाहरणों के जरिये सरकार, कॉरपोरेट और मीडिया के नापाक गठजोड़ को उजागर करती हैं.

नवें और अंतिम अध्याय “आगे का रास्ता” की शुरुआत वृंद के दोहे- ‘करत करत अभ्यास के, जड़मति होत सुजान/ रसरी आवात जात ते, सिल पर परत निसान’.

से करती हुईं भाषा कहती हैं कि “अगर इस दोहे को मौजूदा संदर्भों में व्याख्यायित करें तो बहुत ही अलग वितान खिंचता है. उसमें भी अगर इस दोहे के आईने में आंदोलनों को देखें तो शायद लोकतंत्र की नई परिभाषा की परतें खुलें. …आंदोलन एक अभ्यास है लोकतंत्र में, जो क्रूर सत्ता-प्रशासन की जड़मति से, उसके अहंकार से टकराकर जीवन को जीने लायक बनाता है. पत्थर की तरह निष्ठुर सरकारों पर जनान्दोलन अपनी छाप छोड़ते हैं.”

“शाहीन बाग़ आंदोलन भारतीय लोकतंत्र का एक ऐसा अहम अध्याय है, जिसकी ज़िंदा मिसालों की गूंज बहुत लंबे समय तक फ़िज़ाओं में रहेगी. यहां से जो ऊर्जा पैदा हुई है, वह रूप बदलकर तमाम गतिविधि केंद्रों में संचित हो जाएगी. बढ़ी हुई पहलक़दमी कभी किसी समाज को पीछे नहीं जाने देती.”

और वाकई इसका एक असर हमने बहुत जल्द ही देखा.

भाषा लिखती हैं- “आगे का रास्ता किसान आंदोलन के रूप में मूर्त रूप में सामने आया. …किसान आंदोलन ने शाहीन बाग़ द्वारा खींची गई लकीर को और आगे बढ़ाया.”

इस तरह अलग अलग नाम के इन नौ अध्यायों के बाद आभार और परिशिष्ट है. कुल मिलाकर यह किताब एक साथ इस आंदोलन के कई आयामों को समेटेती है. वाकई पढ़कर, सोचकर ताज्जुब होता है कि एक आंदोलन एक साथ कितना कुछ समेटे रहता है, किस तरह कितना कुछ बदल देता है. शाहीन बाग़ आंदोलन ने सरकार को तो हिलाया ही समाज के भीतर गहरे जमी पितृसत्ता की जड़ों को भी हिला दिया. औरत-मर्द के फ़र्क़ को मिटा दिया. घरेलू समीकरणों को बदल दिया.

“यह समाज की नई करवट तो थी जो चौराहों पर बैठी इन औरतों के पीछे मर्दों को खड़ा कर गई. एक-एक औरत यह बताने को आतुर थी कि उसका शौहर, उसका अब्बू, उसका भाई, उसका बेटा, उसका दोस्त, उसका प्रेमी… उसके साथ खड़ा है. इस मामले में भी अनूठा रहा आंदोलन, जहां राजनीतिक परिस्थितियों की वजह से ही सही, लेकिन पितृसत्ता की दीवारें हिलीं, उसमें दरारें पड़ीं. अनगिनत घरों में भूमिकाओं में अदला-बदली हुई”.

एक आंदोलन के भीतर के आंदोलन और उससे उपजे और भविष्य में भी उपजने वाले कितने ही आंदोलनों की शिनाख़्त करती है यह किताब.

यह किताब बेहद ज़रूरी है, कितनी ज़रूरी है, भाषा खुद लिखती हैं-

“जैसे प्याज़ की एक-एक परत उतरती जाती है, जैसे स्वेटर उधड़ता है, फन्दा दर फन्दा, वैसे ही शाहीन बाग़ की अहमियत धीरे-धीरे सामने आती जाती है. इसकी मारक शक्ति का एहसास लंबे समय तक भारत के राजनीतिक फलक पर महसूस होता रहेगा”.

“यह आंदोलन 2019 की कड़क सर्दियों के बीच शुरू हुआ था, लेकिन इसकी तपिश ठीक एक साल बाद 2020 की सर्दियों में शुरू हुए जुझारू किसान आंदोलन में महसूस हो रही थी”.

वाकई “बहुत गहरे धंसा है शाहीन बाग़ का तीर सत्ता के जिगर में…”

शाहीन बाग़ की नानी-दादियां भी कहती हैं-

“शाहीन बाग़ ज़िंदा है और ज़िंदा रहेगा. कुछ हम रखेंगे और कुछ सरकार. अब आप ही देखिए, जब भी कोई इनके (सरकार के) सामने तन कर खड़ा हो, सच बोले तो इन्हें हमारी छाया नज़र आने लगे है. हर जगह इन्हें शाहीन बाग़ ही दिखाई दे. दलित बेटी के साथ अन्याय हो तो शाहीन बाग़ जैसी साज़िश, किसान जुट जाएं तो शाहीन बाग़ के पैर दिखाई दे जाएं (हंसते हुए और पैरों को आगे बढ़ाकर दिखाते हुए), हमें तो पता ही नहीं था कि इतने बड़े हैं हमारे पैर, पर हां, ज़मीन पर टिके हुए हैं. ज़मीन हमने न छोड़ी है और मरते दम तक न छोड़ेंगे”.

अंत में लेखक और प्रकाशक से…

किताब में कुछ बातों का दोहराव है, प्रूफ की भी कुछ ग़लतियां रह गई हैं. किताब में सीएए को लेकर एक छोटा ही सही लेकिन लीगल चैप्टर और होना चाहिए था. सीएए, एनपीआर और एनआरसी, ये तीनों क्या हैं, इनका क्या सह-संबंध है, ये बाक़ायदा एक चैप्टर में दर्ज करना ज़रूरी है, ताकि आने वाली नस्लें भी इससे आगाह रहें. उम्मीद है अगले संस्करणों में यह कमी पूरी हो जाएगी.

शाहीन बाग़: लोकतंत्र की नई करवट
लेखक: भाषा सिंह
प्रकाशक: राजकमल प्रकाशन
पहला संस्करण: 2022
मूल्य: 250 रुपये

मुकुल सरल
ई-मेल: mukulsaral@gmail.com

Tags: भारतीय राजनीतिभाषा सिंहमुकुल सरललोकतंत्रशाहीन बाग़
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Comments 2

  1. अशोक अग्रवाल says:
    3 years ago

    शाहीन बाग के आंदोलन की अनसुनी कहानियों को जानने के लिए भी भाषा सिंह की यह किताब बेहद अनिवार्य पाठ। एक अविस्मरणीय आंदोलन का जीवंत दस्तावेज।

    Reply
  2. Farid Khan says:
    3 years ago

    बहुत अच्छी समीक्षा है. यह किताब सन्दर्भ पुस्तकों की तरह उपयोगी साबित होने वाली है.

    Reply

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