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Home » भय: होमेन बरगोहाईं: अनुवाद : रीतामणि वैश्य

भय: होमेन बरगोहाईं: अनुवाद : रीतामणि वैश्य

हम सब अनूदित संस्कृतियों के नागरिक हैं. इस अनुवाद में बड़ा हिस्सा कविता का है. धर्मग्रन्थ एक समय कविता की ही किताबें थीं. उन्हें आज भी गाया जाता है. अनुवाद इस धरती के मनुष्यों का सामूहिक स्वर है. असमिया के महत्वपूर्ण लेखक होमेन बरगोहाईं की कहानी ‘भय’ के इस हिंदी अनुवाद में कई संस्कृतियों का जल है. मूल की आत्मा को हिंदी की देह में लाने के लिए यथोचित किया ही जाना चाहिए. असमिया, बंगला, संस्कृत, अंग्रेजी और सिलहटी आदि भाषाओं के विद्वान और लेखक शिव किशोर तिवारी ने इसके कुछ जटिल अंशों के अनुवाद में मदद की तथा इसे ‘वैकल्पिक स्व’ (alter ego) की कहानी माना. रीतामणि वैश्य हिंदी और असमिया दोनों में लिखती हैं. उन्होंने मन से यह अनुवाद किया है और एक सुंदर कहानी से हमारा परिचय कराया है. कहानी प्रस्तुत है. इसके मंतव्य के और भी पाठ संभव हो सकते हैं.

by arun dev
June 19, 2024
in अनुवाद
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भय: होमेन बरगोहाईं: अनुवाद :  रीतामणि वैश्य
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भय
होमेन बरगोहाईं

अनुवाद: रीतामणि वैश्य

सूर्यास्त की ओर मुँह किये बैठा था. नल से पानी और बहती हवा की तरह मुझसे होकर समय बह रहा था. ‘मेरे सिर में सूरज है और दिल में तूफान.’ बिना कुछ सोचे ही मंत्र की तरह मैं इसे दुहरा रहा था.

यह उक्ति मेरी नहीं है. शायद कभी कहीं पढ़ी थी. अचानक मैंने पीठ पीछे पैरों की आहट सुनी. सूखे पत्तों की मर्मर आवाज़ की तरह ही आगंतुक के पैरों के आघात से नष्ट हुई नीरवता की छाती से एक विषण्ण मर्मर शब्द उठा. विरक्त भाव से मैंने पीछे की ओर देखा. एक आदमी मुझसे थोड़ी दूर खड़ा था. उसे पहचान नहीं पाया. मेरे मुड़कर देखते ही सूर्यास्त की समस्त सुनहली रोशनी उसके चेहरे पर आ गिरी और उस सुनहली रोशनी के जाल ने उसके चेहरे को इस तरह ढक लिया कि उसे पहचानना और मुश्किल हो गया. शाम के अंधकार ने उसके चेहरे को धुंधला कर दिया था.

“मैंने आपको पहचाना नहीं. आप कौन हैं?”

“मैं अमल बरुवा हूँ.”

उसने इस तरह से यह बात कही मानो अपनी बात की सच्चाई को लेकर उसके मन में ही संदेह हो. मुझे ऐसा लगा शायद वह कहना चाह रहा था,

‘शायद मैं अमल बरुवा हूँ.’

मेरे मन में बिल्कुल भी संदेह नहीं रहा कि यह आदमी पागल है. नहीं तो अमल बरुवा के घर आकर अमल बरुवा के सामने खड़ा होकर कोई कैसे कह सकता है कि वह अमल बरुवा है? एक क्षण पहले मैं उसे बैठाने की  सोच रहा था. पर अब सोच रहा हूँ कि जितनी जल्दी हो सके उसे विदा करूँ. आश्चर्य और ऊब को काबू में कर मैंने शांत भाव से कहा-

“इस दुनिया में अमल बरुवा केवल एक ही है, एक ही रह सकता है. और वही मैं हूँ. अच्छा, अब आप जा सकते हैं.”

मैंने उसकी तरफ से अपना चेहरा घुमाकर फिर से सूर्यास्त की ओर कर लिया. उस पागल आदमी पर दया आ रही थी. इस दुर्लभ, अपार्थिव समय को मैं एक पागल के साथ बात करते हुए खराब नहीं करना चाहता था.

मैंने पाया कि वह अब तक गया नहीं है, एक ही जगह अडिग खड़ा है. अच्छी बला आयी है. मैंने फिर एक बार उसकी ओर मुड़कर देखा. इसबार उसका चेहरा कुछ स्पष्ट था, तारों की रोशनी उसके चेहरे पर पड़ रही थी. आश्चर्य की बात है, उसका चेहरा बिल्कुल अपरिचित-सा नहीं लगा. मानो उसे कभी देखा हो, कहीं वह मिला हो, घने कोहरे में किसी चीज को गौर से देखने की कोशिश करने की तरह कुछ समय तक मैं उसके चेहरे को देखता रहा. पर दूसरे ही क्षण मैंने सोचा कि वह जो कोई भी हो, ‘मैं’ मतलब अमल बरुवा नहीं हो सकता !

कुछ क्षण के लिए मेरी सोच उलझ गयी कि ऐसा लगा, उस पागल के साथ मैं भी पागल हो जाऊँगा. शान्ति से मैंने उससे कहा, “आप क्यों नहीं गये? जरूर आप ग़लती से ग़लत जगह आये हैं. मैं एक बड़ी जरूरी बात में व्यस्त हूँ. यदि आप जल्दी विदा लेते हैं, तो मुझे बड़ी ख़ुशी होगी.”

मेरी बात का कुछ भी असर उस आदमी पर नहीं हुआ. वह अडिग होकर बोला, “ग़लत मैं नहीं, आप हैं. याद करने की कोशिश कीजिए-बहुत दिन पहले आपने अखबार में ‘लापता’ शीर्षक में एक विज्ञापन दिया था:

‘कुछ दिन पहले अमल बरुवा नाम का एक आदमी घर से लापता हुआ है. एक सपने की तलाश में वह घर से निकला था. उसके बाद घर नहीं लौटा. अगर कोई उसकी खबर दे सकता है या उसे घर वापस ला सकता है तो अधो हस्ताक्षरकर्ता  उसका हमेशा आभारी रहेगा’.

आपने एक बड़ी गलती की थी. विज्ञापन में आपने लापता हुए आदमी का कोई ब्यौरा नहीं दिया था. इसीलिए आपका विज्ञापन बेकार गया. जो भी हो, अंत में मैं खुद ही लौट आया.

उसकी बातों की दृढ़ता और आत्म-विश्वास से मैं स्तब्ध रहा गया. असली अमल बरुवा वह है कि मैं, उसका फैसला बाद में होगा; पर असल में पागल वह है कि मैं यह सवाल उस समय एक समस्या बनकर सामने खड़ा हो गया. बहुत कोशिश के बावजूद इस तरह के किसी विज्ञापन की बात मैं याद नहीं कर सका. अपने मानसिक स्वास्थ्य पर विश्वास खोने की तरह मैंने उससे पूछा-

“वह विज्ञापन कब दिया था, आपको याद है?”

“कब?” सवाल उसने अपने से या मुझसे किया, मैं ठीक से समझ नहीं पाया. असमंजस में पड़े आदमी की तरह उसने और एक बार फिर कहा,

“कब? मतलब आप समय की बात कर रहे हैं? समय मेरे लिए बड़ा ही दुर्बोध और झंझट की चीज है. इसका रहस्य मैं समझ नहीं पाता. नदी के तट पर बैठा आदमी कह सकता है कि नदी ऊपर से नीचे की ओर बह रही है. पर क्या सागर के तट पर बैठा आदमी सागर के ऊपर और नीचे का अंदाजा लगा सकता है?

ठीक कब. सही-सही तो कह नहीं सकता, पर एक बिन्दु पर समय कब का मेरे लिए रुक गया है. ठीक वैसे जैसे सिनेमा के पर्दे पर समय फ्रीज़  हो जाता है; जवानी हो या बुढ़ापा, खुशी, गम, भय, विषाद, प्रेम या अप्रेम, कुल मिलाकर क्षण की अभिज्ञात जिंदगी उस क्षण के फ्रेम में हमेशा के लिए जिस तरह स्थिर रूप से कैद हो जाती है, आपके ‘कब’ शब्द का मेरे लिए कोई मतलब नहीं है.”

उसकी बातें सुन मेरा भय बढ़ने लगा. वह पागल है, इस विषय को लेकर मुझे कोई संदेह नहीं रहा; किन्तु शायद वह मुझे भी पागल करके ही छोड़ेगा. असहाय होकर मैंने उससे और एकबार पूछा- “आपने अपना नाम क्या बताया?”

“अमल बरुवा.”

“किन्तु मेरा नाम भी अमल बरुवा है”-लगभग अधैर्य में मैंने कहा

“तो मैं ही आप हूँ, या” थोड़ा रुककर उसने फिर कहा, “आप ही मैं हैं.”

इसके बाद की नीरवता कितने समय की थी, मैं ठीक कह नहीं सकता; खूब संभव है कि वह कुछ क्षणों की थी, किन्तु मुझे अचानक अनुभव हुआ कि मानो कई युग चले गये. शायद मैंने समय को लेकर अपनी धारणा बदलनी शुरू की है, अनजाने ही ‘मैं’ ‘वह’ बनने लगा हूँ. एक गुमनाम भय मुझे धीरे-धीरे निगलने लगा. एकाएक खड़ा होकर मैंने कहा,

“ठहरिए, आपने मुझे पागल बना दिया है. दो आदमी एक कैसे हो सकते हैं? अभी, इसी क्षण, इस सवाल का निर्णय लेना ही पड़ेगा.”

कमीज उठाते हुए छाती निकालकर मैंने कहा, “यह देखिये, मेरी छाती पर एक बड़ा दाग़ है. एक समय एक बड़े आघात से यहाँ चोट लगी थी. घाव कब का भर गया, पर दाग़ रह गया. क्या आप अपने शरीर के इसी जगह ऐसी ही एक चोट दिखा सकते हैं?”

वह मेरे चेहरे की ओर देखकर हँसा, उस विषण्ण हँसी में रहस्य था. उसके बाद उसने चुपचाप कमीज खोलकर अपनी छाती दिखाई. मैं आश्चर्यचकित रह गया. मेरी छाती की तरह उसकी छाती में भी उसी जगह बड़ी चोट थी, फर्क सिर्फ इतना था कि उसका घाव मेरी तरह सूखा नहीं था. उसके उस कच्चे रक्तिम घाव से बाहर निकलने लगी पीड़ा में चमकती रोशनी.

मैंने कमीज को ठीक कर स्वप्नविष्ट मनुष्य की तरह कहा, “पर आपका घाव मेरी तरह नहीं है. मेरा घाव सूख गया है, अब वह केवल एक दाग़ है. पर आपके घाव से अब भी खून निकल रहा है.”

उसने भी कमीज को ठीक कर मुझे तसल्ली देने देते हुए कहा,

“वह कोई बात नहीं है. समय सभी घाव भर देता है. समय के बाहर खड़ा होने पर फिर वही से खून निकलता है, पीड़ा में रोशनी निकलती है.”

pinterest से आभार सहित

उसकी बातों के जवाब में कहने के लिए मेरे पास कुछ नहीं था. शायद मैंने खुद से सोचना बंद कर दिया था, अनजाने में ही मैंने उसकी तरफ से सोचना शुरू कर दिया था. अपनी आइडेंटिटी प्रमाणित करने के लिए मैंने एक उपाय निकाला. मैं भागता हुआ घर के अंदर घुसा और एक औरत का हाथ पकड़कर उसे बाहर लाया. पर उसके चेहरे के भाव बिल्कुल नहीं बदले. मैंने कहा,

“देखिये, यह मेरी औरत है, बिल्कुल मेरी. इसके शरीर के साथ मैंने अतीत के असंख्य रात-दिन, अंधकार-प्रकाश, समय का क्रमानुवर्तन, ध्वंस-सृष्टि-ये सब बांध रखा है; उसके मन में मैंने लिख रखा है निजतम जीवन का इतिहास…..”

मेरी बात काटते हुए वह शांत, सपाट अंदाज में बोला, “ये मेरी पत्नी हैं”.

मेरे तन-बदन में आग लग गई; उत्तेजित स्वर में बोला, “इनका शरीर जिसे मेरे अलावा किसी और ने नहीं देखा- उसका वर्णन कर सकते हैं आप?”

“उनके वक्ष पर हैं चाँदनी से तैयार दो लड्डू, जिन पर दो बूँद खून जमा हुआ है. जंघाओं में में दो सूर्यास्त हैं. जब बिछौने पर करवट लेती हैं तब रक्त के सागर में सुदीर्घ ज्वार आता है. ‘Fair as the moon, clear as the sun and terrible as an army with banners’ ऐसी हैं ये.”

मेरे मुख पर विजय-दर्प का हास्य खिल आया. उत्तेजित स्वर में मैंने कहा,

“आप हार गये! साबित हो गया कि आप मैं नहीं हैं. दरअसल इनके वक्ष पर घनीभूत मधु के दो छत्ते हैं, लड्डूओं जैसे- और उन पर एक-एक मधुमक्खी चिपकी हैं. जंघाओं में  मेघाच्छादित आकाश की छाया तले लहराते, हरे-भरे दो खेत हैं. बिछावन पर करवट लेती हैं तो आदिम वनराजि तूफान में झकोरे खाती है”

मेरी बातें खत्म होने से पहले वह शांतभाव से बोला, “सीमा में बंदी रहने से वैसा ही दिखता है. जहाँ मैं खड़ा हूँ, वहाँ से देखने से आपको भी सबकुछ मेरी तरह ही दिखाई देगा,”

चीत्कार कर कुछ कहने से पहले मैं अचानक ठहर गया. उसकी प्रशांति के बीच उसका पूर्ण आत्मविश्वास झलक रहा था. दूसरी ओर अस्थिर और उत्तेजित होकर मैंने शायद यही साबित किया  कि मेरी बातों में पहले जैसा विश्वास नहीं रहा. फिर भी अंतिम कोशिश करते हुए मैंने कहा,

“आप यदि ‘मैं’ ही हैं, तब तो मैं जो भी सोचता हूँ, आप भी वही सोचते होंगे ! बताइए, इस वक्त मैं क्या सोच रहा हूँ?”

“आपका सवाल ही गलत है” दृढ़ता से वह बोला,

“आपने यह कैसे सोच लिया कि कोई एक समय एक ही बात सोच सकता है या सोचता है? एक उदाहरण देता हूँ. एक दिन सूर्यास्त के समय, पृथ्वी के अपार्थिव होने के क्षण यह स्त्री एक अद्भुत रहस्यमयी ढंग से हँसी थी. आपका मन हुआ कि आप उसके होंठों पर होंठ डालकर वह हँसी पी डाले. पर मेरा मन किया कि सूर्यास्त की तरह वह हँसी संध्या के आकाश में हमेशा के लिए लटकाए रखूँ, उसकी रोशनी शरीर पर लिए मैं हमेशा बैठा रहूँ. दरअसल में ये दोनों बातें एक ही आदमी ने एक ही समय सोची थीं.”

उसी क्षण चाँद निकल आया था. मैंने जेब से एक सिक्का निकालकर कहा,

“बहस खत्म करने के लिए अब एक ही रास्ता बाकी रह गया है. आइए टॉस करते हैं. जो जीतेगा, उसकी बात सच साबित होगी. बताइये, अक्षर या मूर्ति?”

“अक्षर.”

मैंने हथेली पर सिक्के का टॉस किया. सिक्के के हथेली पर आ गिरते ही चाँद की रोशनी में अक्षरवाली ओर चमक उठी. मेरी छाती से एक निःशब्द चीत्कार निकल आया. निराशा की अंतिम सीमा पर खड़ा होकर मैंने शून्य दृष्टि से उसकी आँखों की ओर देखा. हल्की चाँदनी में उसके चेहरे का भाव अच्छी तरह पढ़ न सका. पर पाया कि वह अचानक एक-दो कदम करके धीरे-धीरे मेरी ओर आगे बढ़ने लगा है. मैं उसकी ओर मुँह कर, उसकी आँखों में आँखें डाल, एक-एक कर कदम पीछे हटाने लगा. असहाय और निरुपाय शिकार को निगलने के लिए तैयार एक विराट ताकतवर जानवर के अति आत्म-विश्वास से आगे बढ़ने की तरह वह मेरी ओर आगे बढ़ने लगा. वह बिल्कुल मेरे पास पहुँच गया जैसे इसी क्षण वह मुझे निगल जायेगा. अचानक मैं चीत्कार कर उठा. वह रुक गया और कोमलतम आवाज़ से बोला,

“डरो नहीं. यह भय मनुष्य का सहोदर है. हरेक आदमी इस तरह खुद से भयभीत  होता है.”

 

होमेन बरगोहाईं
(7 दिसंबर,1932- 12 मई,2021)

असमिया भाषा के यशस्वी कथाकार, कवि और  संपादक हैं. असम के अन्यतम सशक्त कथाकार के रूप में वे जाने जाते हैं. ‘अस्तराग’ , ‘हालधीया चराये बाओ धान खाय’, ‘मत्स्यगंधा’ ,‘साउदर पुतेके नाओ मेली याय’ , ‘पिता-पुत्र’,‘आत्मानुसंधान’, ‘मोर सांबादिक जीबन’,‘मोर हृदय एखन युद्धक्षेत्र’ आदि उनकी बहुचर्चित रचनाएँ हैं. वे साहित्यिक पत्रिका ‘सातसरी’, समाचार पत्र ‘आमार असम’ जैसी पत्र-पत्रिकाओं के संपादक भी रहे.  न् 1978 में उन्हें ‘पिता-पुत्र’ के लिए ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’ और सन् 1991 में उन्हें ‘असम उपत्यका साहित्य बटाँ’ से पुरस्कृत किया जाता है. सन् 2001-2002 में उन्होंने  ‘असम साहित्य सभा’ के सभापति का पद अलंकृत किया था.

पूर्वोत्तर की रीतामणि वैश्य असमीया और हिन्दी, दोनों भाषाओं में लेखन कार्य करती हैं. मृगतृष्णा ( हिन्दी कहानी संकलन) लोहित किनारे (असम की महिला कथाकारों की श्रेष्ठ कहानियों का हिन्दी अनुवाद), रुक्मिणी हरण नाट, असम की जनजातियों का लोकपक्ष एवं कहानियाँ (असम की ग्यारह जनजातियों का विवेचन एवं सोलह जनजातीय कहानियों का हिन्दी अनुवाद), हिन्दी साहित्यालोचना (असमीया), भारतीय भक्ति आन्दोलनत असमर अवदान (असमीया), हिन्दी गल्पर मौ-कोँह (हिन्दी की कालजयी कहानियों का असमीया अनुवाद), सीमांतर संबेदन (असमीया में अनूदित काव्य संकलन), प्रॉब्लेम्स एज दीपिक्टेद इन द नोवेल्स ऑफ नागार्जुन (अँग्रेजी) आदि उनकी प्रकाशित कृतियाँ हैं. उन्हें असम की महिला कथाकारों की श्रेष्ठ कहानियों के  अनुवाद ‘लोहित किनारे’ के लिए सन् 2015 में केंद्रीय हिन्दी निदेशालय द्वारा हिंदीतर भाषी हिन्दी लेखक पुरस्कार से तथा सन् 2022 में नागरी लिपि परिषद का श्रीमती रानीदेवी बघेल स्मृति नागरी सेवी सम्मान से सम्मानित किया जा चुका है. सम्प्रति गौहाटी विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग की सह आचार्य हैं.
ritamonibaishya841@gmail.com
Tags: 2024alter egoअसमिया कहानीभयरीतामणि वैश्यशिव किशोर तिवारीहोमेन बरगोहाईं
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Comments 6

  1. ब्रज नंदन says:
    11 months ago

    कहानी बहुत ही अच्छी(सुपाठ्य) और सशक्त (सुगठित) है।मनुष्य का व्यक्तित्व कई टुकड़ों में विभक्त ,और एक-जैसा होकर प्रत्यक्ष होता है। कई बार एक प्रतिरूप सतत साथ होता है, और मनुष्य के लिए एक का दूसरे में या दूसरे का प्रथम में विलय अत्यंत दुष्कर और दारुण होता है। रूप(कालबद्ध) का अरूप (कालमुक्त) में यात्रा करना या इसका विपर्यय आसान नहीं होता है, अरुण बाबू! बहुत ही प्रशंसनीय कार्य! आप सबका आभार।🙏

    Reply
  2. तेजी ग्रोवर says:
    11 months ago

    कहानी रोचक है। डबल की परंपरा सुदीर्घ और चिरयुवा बनी रहे।

    Dostevsky, वैद, और सबसे अधिक बोर्हेस की याद आती रही इसे पढ़ते हुए। इस कहानी में अन्य पुरखा कहानियों से भिन्न कुछ हुआ है इसलिए यह कहानी परम्परा का निर्वाह करती कहानी है।

    अनुवाद तो शानदार है ही

    Reply
  3. अशोक आत्रेय says:
    11 months ago

    कहानी अच्छी है। जरूरी नहीं कि इसके अंत से कोई सहमत हो। फिर भी यही माया है कथा विधा की। इसमें द्वैत व अद्वैत दोनों समुपस्थित होते हैं। अनुवाद अद्वितीय।

    Reply
  4. अशोक अग्रवाल says:
    11 months ago

    बहुत अच्छी कहानी। इसे पढ़ते हुए कृष्ण बलदेव वैद की कहानी मेरा दुश्मन का स्मरण आता रहा।

    Reply
  5. M P Haridev says:
    11 months ago

    कहानी वास्तविकता और प्रछन्नता में उलझाती है । यही ख़ूबसूरती है । मैं कई दफ़ा उलझा । अंत तक सुलझन नहीं लगी । मैं स्वयं को देखूँ कि तालाब में अपनी छाया को । बहुत बार छाया मुझे अपना वास्तविक रूप लगी । अंत तक मृगतृष्णा बनी रही । अनुवाद न किया होता तो बेख़बर रहता । आभार ।

    Reply
  6. रोहिणी अग्रवाल says:
    11 months ago

    कहानी ‘भय‘ पढ़ी। भय ने नहीं, विस्मय, व्यग्रता और आह्लाद ने प्रभाव की सघन चादर बन चारों ओर से ढांप लिया है।… और अब उसके सम्मोहन-वृत्त से निकल कर विस्मय और व्यग्रता के रेशों की जाँच करने लगी हूं। पाती हूँ, आत्म-मुग्धता और आत्म-चैतन्य के बीच फैली यह कहानी दरअसल आत्म-विस्मृति की आत्मघाती प्रकृति को चीन्हने की कहानी है। आत्म-विस्मृति स्वयं अपने साथ अ-परिचय की दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है जो धीरे-धीरे अपनी दुर्बलताओं, कायरताओं और दृष्टिगत संकीर्णताओं को छुपाने की कोशिश में जतन से चुनी गई आत्म-मुग्धता का रूप ले लेती है। आत्म-मुग्धता यानी ऐसी स्थिति जहां अपने अतिरिक्त किसी दूसरे की भरी-पूरी मानवीय इयत्ता का प्रवेश वर्जित है ।
    कहानी कथ्य में नहीं होती, कथ्य के भीतर चेतना का आलोक और जीवन का स्पंदन गूंथ देने वाली कलात्मकता में निहित होती है।संश्लिष्ट कहानी समुद्र के गर्भ में होने वाली हलचलों को पढ़ती है, और समय के भीतर सांस लेती मनोवृत्तियों को विश्लेषित करती है। यह अपनी भौतिक इयत्ता को जस का तस छोड़ समय के पार निकल जाना है। यही एम्पैथी की ओर बढ़ने वाली पहली सीढ़ी भी है जो आत्मसाक्षात्कार के बिना आत्म-निरपेक्ष नहीं हो सकती। लेखक होमेन बरगोहाईं ने जिस तरह अपने ही ‘अदर‘ से टकरा जाने और कतरा कर निकल जाने की द्वंद्वात्मक स्थिति का चित्रण किया है, वह कहानी को रंगमंच में तब्दील करता है और आकस्मिकता को अपरिहार्य जीवन-स्थिति बना विश्लेषण की माँग करता है। धैर्यपूर्वक क्षण को जीना, समग्रता में जाँचना और जीवन-पुस्तिका में टंके ऐसे कितने ही पलों से गुजर कर समय की अनवरतता में अपने ‘मैं‘ के समानांतर मनुष्य-इतिहास को जानना – यही तो दर्शन है।
    यही अच्छी कहानी की पहचान भी है कि वह आंख बन कर पाठक के भीतर उतरती है, और फिर दृष्टिसंपन्न कर उसे समय से संवाद करने वाली संवेदना बनाती है।
    ऐसी विचारोत्तेजक संश्लिष्ट कहानी सुलभ कराने के लिए समालोचन का आभार।

    Reply

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समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

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