गुलेरी जी ने क्या कहा था?विमल कुमार |
‘तेरे घर कहां है?’
‘मगरे में…और तेरे?’
‘मांझे में, यहां कहां रहती है?’
‘अतरसिंह की बैठक में, वह मेरे मामा होते हैं.’
‘मैं भी मामा के आया हूं, उनका घर गुरु बाज़ार में है.’इतने में दुकानदार निबटा और इनका सौदा देने लगा. सौदा लेकर दोनों साथ-साथ चले.
कुछ दूर जाकर लड़के ने मुसकुरा कर पूछा,‘तेरी कुड़माई हो गई?’
इस पर लड़की कुछ आंखें चढ़ाकर ‘धत्’ कहकर दौड़ गई और लड़का मुंह देखता रह गया.दूसरे, तीसरे दिन सब्ज़ी वाले के यहां, या दूध वाले के यहां अकस्मात् दोनों मिल जाते. महीनाभर यही हाल रहा.
दो-तीन बार लड़के ने फिर पूछा, तेरे कुड़माई हो गई? और उत्तर में वही ‘धत्’ मिला.
एक दिन जब फिर लड़के ने वैसी ही हंसी में चिढ़ाने के लिए पूछा तो लड़की, लड़के की संभावना के विरुद्ध बोली,‘हां, हो गई.’
‘कब?’‘कल, देखते नहीं यह रेशम से कढ़ा हुआ सालू…’ लड़की भाग गई.
लड़के ने घर की सीध ली. रास्ते में एक लड़के को मोरी में ढकेल दिया, एक छाबड़ी वाले की दिनभर की कमाई खोई, एक कुत्ते को पत्थर मारा और गोभी वाले ठेले में दूध उंडेल दिया. सामने नहा कर आती हुई किसी वैष्णवी से टकरा कर अंधे की उपाधि पाई. तब कहीं घर पहुंचा.
यह तो लहना सिंह की अमर प्रेम कहानी है जो चन्द्रधर शर्मा गुलेरी ने ‘उसने कहा था’ कहानी में लिखी थी.
यह कहानी 1915 में ‘सरस्वती’ के जून अंक में छपी थी. आज 107 साल बाद यह कहानी लोगों के दिलो दिमाग पर दर्ज है जबकि आज कहानी पढ़िये तो उसका शीर्षक याद नहीं रहता कभी लेखक का नाम याद नहीं रहता तो कभी पात्र याद नहीं रहते तो कभी विषय वस्तु भी नहीं याद रहता है.
गुलेरी जी की पहली कहानी ‘सुखमय जीवन’ और दूसरी कहानी ‘बुद्धू का कांटा’ इससे पहले छप चुकी थीं. लेकिन तीसरी कहानी छपते ही पूरे हिंदी संसार ने लोहा मान लिया. आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इसे अद्वितीय कहानी बताया.
हिंदी साहित्य की दुनिया से जब कोई प्रवेश करता है तो भारतेंदु, महावीरप्रसाद द्विवेदी, प्रेमचन्द, मैथिलीशरण गुप्त, जयशंकर प्रसाद, रामचन्द्र शुक्ल, निराला से उसका पहला परिचय होता है. गुलेरी जी इसी कोटि के लेखक थे. वे अमर जरूर ‘उसने कहा था’ से हुए पर इससे पहले उनकी कहानी ‘सुखमय जीवन’ 1911 में ‘भारत मित्र’ में छपी थी. 1911 में शुक्ल जी की कहानी ‘ग्यारह वर्ष का समय’ भी छपी थी. ‘बुद्धू का कांटा’ 1914 में पाटलीपुत्र में छपी थी. यह हिंदी कहानी का आरंभिक युग था. 1913 में राजा राधिका रमण प्रसाद सिंह की कहानी ‘कानों में कंगना’ इंदु में छपी और प्रसाद जी की भी कहानी आई थी. प्रेमचन्द की पहली हिंदी कहानी ‘सौत’ भी ‘सरस्वती’ में 1915 के दिसम्बर में आई थी. लेकिन गुलेरी जी की ‘उसने कहा था’ अपने ट्रीटमेंट और भाव बोध में अपने समय से बहुत आगे की कहानी थी. प्रेम और युद्ध की अमर कथा. राजेन्द्र यादव तो इस कहानी को हिंदी की पहली मौलिक और कलापूर्ण कहानी मानते थे.
वह ऐसी यादगार कहानी है जो लोगों के जेहन में आज भी दर्ज है और लगता है जैसे आज किसी ने लिखी हो. ‘कफन’ और ‘पूस की रात’ की तरह अमर कहानी . मोपासां, चेखव और ओ हेनरी की कहानियों की तरह अमर कहानी. लेकिन आश्चर्य इस बात का होता है कि गुलेरी जी ने कहानी लिखना क्यों छोड़ दिया? 1915 में तीसरी कहानी छपने के बाद वह 1922 तक जीवित रहे पर इन सात सालों में कोई कहानी नहीं लिखी. क्या इसलिए कि मेयो कालेज के प्राचार्य और अधीक्षक के रूप में उनका अधिक समय जाने लगा या इतिहास और पुरातत्व में उनकी रुचि बढ़ती गयी और वे लंबे-लंबे निबंध लिखने में अधिक यकीन करने लगे.
लेकिन क्या गुलेरी जी को केवल इन तीन कहानियों में कैद किया जा सकता है या उनका साहित्य में और कोई योगदान था? हिंदी की आलोचना की दुनिया में क्या उनके अन्य अवदान की तरफ लोगों का ध्यान गया? यूँ तो उनपर पहला शोध उनके वंशज स्वर्गीय पीयूष गुलेरी ने किया था, जो नहीं रहे. लेकिन हिंदी के बड़े आलोचकों ने उन पर ध्यान नहीं दिया. अस्सी के दशक में मनोहर लाल ने उनपर काम करना शुरू किया और 1991 में गुलेरी जी की रचनावली आयी जिसमें उनके दो सौ से अधिक छोटे बड़े निबंध हैं.
चन्द्रधर शर्मा गुलेरी के अवदान पर एक निगाह डालने से पहले उनका जीवन वृत थोड़ा जानना होगा. उनका जन्म 7 जुलाई 1883 को जयपुर में हुआ था. वह प्रेमचन्द से 3 साल छोटे थे. उनके पिता संस्कृत के प्रकांड पंडित शिवराम शास्त्री थे. गुलेरी जी का परिवार हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा के गूलर गांव से था इसलिए वे लोग गुलेरी कहलाए. गुलेरी जी के पिता जयपुर के महाराजा सवाई राम सिंह के यहां प्रधान पंडित थे. उनके घर का पूरा माहौल संस्कृतमय था. 5 या 6 वर्ष की उम्र में गुलेरी जी ने संस्कृत से 400 श्लोकों को कंठस्थ कर लिया था और घर में जब कोई अतिथि आता था तो वे उसके सामने अमरकोश का सस्वर पाठ करते थे.
उन्होंने सन 1893 में महाराजा कॉलेज जयपुर में प्रवेश किया और उनकी अंग्रेजी शिक्षा का श्रीगणेश हुआ 1897 में उन्होंने द्वितीय श्रेणी में मिडिल पास किया और 1899 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से एंट्रेंस की परीक्षा प्रथम श्रेणी में पास की और उन्होंने अब तक के सारे रेकॉर्ड तोड़ दिए. इसी साल उन्होंने कोलकाता विश्वविद्यालय से मैट्रिक की परीक्षा प्रथम श्रेणी में पास की उनकी इस सफलता पर महाराजा जयपुर की ओर से एक स्वर्ण पदक और कई अन्य पुरस्कार भी प्रदान किए गए.
गुलेरी जी ने एम. ए. में तर्कशास्त्र, ग्रीक तथा रोमन इतिहास, भौतिकी, रसायन शास्त्र, संस्कृत और गणित का अध्ययन किया लेकिन बीमारी के कारण वह पूरा नहीं कर पाए. 22 वर्ष की आयु में उनका विवाह पद्मावती जी से हुआ.
गुलेरी जी पुरात्तत्व और ज्योतिष के भी गहरे जानकर थे उनकी ख्याति दूर-दूर तक फैल गयी थी. 1902 में जब जयपुर वेधशाला का जीर्णोद्धार शुरू हुआ तो कर्नल सर सैमुअल स्विंटन जैकब और कैप्टन ए एफ गेरेट को इस काम के लिए नियुक्त किया गया. उन्हें ऐसे व्यक्ति की जरूरत थी जो संस्कृत, अंग्रेजी का पंडित हो ज्योतिष, पुरातत्व का ज्ञाता हो. गुलेरी जी इसके लिए सर्वथा योग्य व्यक्ति थे. उनको जीर्णोद्धार योजना से जोड़ा गया. गुलेरी जी ने ज्योतिष और पुरातत्व से जुड़े ग्रंथों का अंग्रेजी में अनुवाद भी किया है. गुलेरी जी बहुमुखी प्रतिभा के व्यक्ति थे. उन्हें इस काम के लिए स्वर्ण पदक दिया गया और 300 रुपए की किताबें भी दी गयीं.
गुलेरी जी 1902 में जयपुर के नागरी भवन से प्रकाशित ‘समालोचक’ का संपादन करने लगे. पहले इसके संपादक उस जमाने के धाकड़ लेखक किशोरी लाल गोस्वामी थे. बाद में गुलेरी जी 1904 में खेतड़ी के नाबालिग राजा जयसिंह के अभिभावक बनकर मेयो कालेज अजमेर आ गए. वह 1904 से 1922 तक मेयो कालेज के संस्कृत विभाग के अध्यक्ष और छात्रावास के अधीक्षक रहे. इस बीच उनका कहानी लेखन भी जारी रहा.
गुलेरी जी ‘उसने कहा था’ से कहानीकार के रूप में अमर जरूर हुए पर हिंदी गद्य और निबंध विधा के निर्माण में उनका बड़ा योगदान था. गुलेरी जी महान कहानीकार ही नहीं थे बल्कि वे संस्कृत के प्रकांड पंडित भी थे और ज्योतिष तथा पुरातत्व में भी उनका गहरा अध्ययन था. उनकी विद्वता का अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि एक बार त्रिलोचन जी ने आचार्य रामचंद्र शुक्ल से पूछा- आप अपने युग का सबसे बड़ा विद्वान किसे मानते हैं? शुक्ल जी ने कहा था- मैं आज तक जितने भी विद्वानों से मिला हूं उनमें स्वर्गीय चन्द्रधर शर्मा गुलेरी जी ऐसे महापंडित हैं जिन से मैं बहुत कुछ सीख सकता हूं.
शुक्ल जैसे विद्वान के इस कथन से आप अनुमान लगा सकते है कि गुलेरी जी किस दर्जे के विद्वान थे. महामहोपाध्याय गोपीनाथ कविराज जैसे विद्वान भी गुलेरी जी की विद्वता से प्रभावित थे. गुलेरी जी हिंदी नवजागरण के नायकों में से एक थे. और हिंदी गद्य के निर्माताओं में से भी एक. कामता प्रसाद गुरु, गौरीशंकर ओझा, बालकृष्ण भट्ट और किशोरी लाल गोस्वामी जैसे लोग उनके मित्र थे. अगर गुलेरी जी और जीवित रहते तो हिंदी को बहुत कुछ देते. लेकिन जितना कुछ दिया उससे हिंदी साहित्य में उनका स्थान अक्षुण्ण है.
आज हम लोग जो हिंदी बोलते और लिखते हैं उसके निर्माण में हिंदी नवजागरण के अग्रदूतों की बड़ी भूमिका थी. गुलेरी जी ऐसे ही एक अग्रदूत थे. वे संस्कृत के विद्वान तो थे ही अंग्रेजी और प्राकृत के भी विद्वान थे. उनमें परम्परा और आधुनिकता का मेल था. तभी तो उन्होंने पुरानी हिंदी जैसी किताब लिखी तो दूसरी तरफ ‘उसने कहा था’ जैसी आधुनिक कहानी लिखी. वे सहज सरल हिंदी के पक्षधर थे. उनके निबंध भी उच्च कोटि के थे. उन्होंने ‘कछुआ धर्म’, ‘क्या संस्कृत हमारी भाषा थी’, ‘खेल भी शिक्षा है’, ‘धर्म संकट’, ‘धर्म के शत्रु’, ‘धर्म और समाज’ तथा ‘धर्म में उपमा’ जैसे निबंध और टिप्पणियां लिखीं. आम तौर पर संस्कृत के पंडित दकियानूस होते हैं लेकिन गुलेरी जी ने आधुनिक कहानी लिखी. ‘जोड़ा हुआ सोना’ उनका चर्चित निबंध है जिसे पढ़कर आप काला धन पर उनकी चिंता को समझ सकते हैं. यह चिंता सौ साल पुरानी हैं. गुलेरी जी की दृष्टि बहुत व्यापक थी और देश में तब जो कुछ घट रहा था उस पर उनकी पैनी और गहरी नजर रहती थी.
नामवर जी के शब्दों में-
“हिंदी के साधारण पाठक गुलेरी जी को ‘उसने कहा था’ जैसी अमर कहानी के लेखक के रूप में ही जानते हैं जो पाठक औसत से कुछ ऊपर हैं उनकी दृष्टि में गुलेरी जी ‘कछुआ धर्म’ और ‘मारेसि मोहिं कुठाउॅ’ जैसे अनूठे निबंधों के विदग्ध लेखक हैं. जिन अध्येताओं की पहुंच आचार्य शुक्ल के इतिहास तक है उनके लिए गुलेरी जी का महत्व इस बात में है कि शैली की जो विशिष्टता और अर्थगर्भितवक्रता गुलेरी जी में मिलती है, वह और किसी लेखक में नहीं. वैसे देखें तो एक कहानी से अमर हो जाने वाले लेखक कम ही हैं. शायद नहीं. गुलेरी जी इस दृष्टि से अद्वितीय हैं. उस सदी का यह भी एक चमत्कार है. लेकिन इस चमत्कार से क्षति भी हुई है. गुलेरी जी की अन्य रचनाओं की तरफ ध्यान नहीं गया. गुलेरी जी हिंदी में सिर्फ एक नया या नई शैली ही गढ़ नहीं कर रहे थे बल्कि वह वस्तुतः एक नई चेतना का निर्माण कर रहे थे और यह नया गद्य नई चेतना का संसाधन है. संस्कृत के पंडित उस जमाने में और भी थे लेकिन ‘उसने कहा था’ जैसी कहानी और ‘कछुआ धर्म’ जैसा लेख लिखने का श्रेय गुलेरी जी को ही है. इसलिए वह हिंदी के लिए बंकिमचंद्र भी हैं और ईश्वर चन्द्र विद्यासागर भी हैं.”
गुलेरी जी कला और संगीत को राष्ट्र के विकास के लिए बहुत जरूरी मानते थे. उन्होंने नहीं 1911 में ‘मर्यादा’ में संगीत पर एक बड़ा ही महत्वपूर्ण लेख लिखा था. वह संभवतः हिंदी में संगीत पर पहला विधिवत लेख होगा. उन्होंने कहा था-
“एक तो यह कि भारतवर्ष की वर्तमान उन्नति में जिस समाज या जिस प्रांत ने आगे पैर बढ़ाया है उसने संगीत का सहारा लिया है, अथवा गणित वालों के शब्दों में, जिस अनुपात में जो समाज वा प्रांत गानविद्या से विमुख है अथवा नहीं है उसी अनुपात से वह समाज समृद्धि के मार्ग में पीछे पड़ा हुआ अथवा बढ़ा हुआ है.”
उनका एक और महत्वपूर्ण लेख दीदारगंज की यक्षिणी पर है जो करीब 30 पेज का है. 1920 में काशी नागरी प्रचारिणी पत्रिका में छपा था. हिन्दी में वह यक्षिणी पर पहला लेख होगा. यक्षिणी की खोज 18 अक्टूबर 1917 को एक मुस्लिम व्यक्ति ने की थी. उस लेख में पुरातत्व और मूर्तिकला पर गंभीर चिंतन है. उस लेख में यक्षिणी पर उठे विवादों का भी उन्होंने जिक्र किया है और काशी प्रसाद जायसवाल का समर्थन किया है.
गुलेरी जी ने हिंदी में विज्ञान लेखन का भी सूत्रपात किया था. 1905 में सरस्वती में ‘आंख’ पर 5 किस्तों में उनका बीस-एक पृष्ठ का लेख छपा था. अगर गुलेरी जी की तरह और विद्वान होते तो आज हिंदी में विज्ञान लेखन शीर्ष पर होता. यह लेख 22 वर्ष की उम्र में लिखा गया था. आज किसी युवक से ऐसे लेख की उम्मीद नहीं कर सकते.
गुलेरी जी की विद्वता की ख्याति जब देश में फैली तो पंडित मदन मोहन मालवीय ने उन्हें बी. एच. यू. में महेन्द्रचन्द्र नंदी पीठ पर प्रोफेसर तथा कालेज ऑफ ओरिएंटल लर्निंग के प्रिंसिपल पद पर नियुक्त करने का ऑफर दिया. गुलेरी जी ने मालवीय जी का ऑफर स्वीकार कर तो लिया पर वे अधिक समय तक इस पद पर नहीं रहे और 13 सितम्बर 1922 को उनके जीवन की मनहूस घड़ी आ गयी.
महान भाषाविद जार्ज ग्रियर्सन ने काशी नागरी प्रचारिणी को पत्र लिखकर शोक व्यक्त किया था. गणेशशंकर विद्यार्थी के अखबार प्रताप ने भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित की. सरस्वती, मर्यादा, माधुरी और कलकत्ता समाचार, काशी नागरी प्रचारिणी सभा ने भी श्रद्धांजलि दी. गुलेरी ने क्या कहा था आज हम बहुत कम जानते है क्योंकि आधुनिकता और समकालीनता की आंधी में हम अपनी परंपरा से कट गए हैं.
हिंदी के वरिष्ठ कवि एवं पत्रकार विमल कुमार पिछले चार दशकों से साहित्य और पत्रकारिता की दुनिया में सक्रिय हैं. 9 दिसम्बर 1960 को बिहार के पटना में जन्मे विमल कुमार के पांच कविता-संग्रह, एक उपन्यास, एक कहानी-संग्रह और व्यंग्य की दो किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं. 9968400416.
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चन्द्रधर शर्मा गुलेरी पर इस ज्ञानवर्धक लेख को पढ़कर आत्मिक खुशी हुई। हालांकि हिन्दी जगत में उसने कहा था कहानी पर बहुत विचार- विमर्श हुआ है तथापि पुरुष के अगाध प्रेम और त्याग को इस कहानी में जिस ढंग से गुलेरी जी ने पिरोया वह अनुपम है और विभिन्न कोणों से इस कहानी पर फिर से विचार किया जाना दिलचस्प होगा। कुछ माह पूर्व श्री राजेंद्र सिंह गहलोत ने फेसबुक पर सर्वथा नए ढंग से टिप्पणी की थी। स्त्रियों को ममता,प्रेम एवं त्याग की प्रतिमूर्ति तो माना ही जाता है मगर लहना सिंह का प्रेम और त्याग सब पर भारी है। मैं तो भावुक हो जाता हूँ।
ललन चतुर्वेदी
केवल एक कहानी से हिंदी कथा साहित्य में अमर हो जानेवाले चंद्रधर शर्मा गुलेरी हम सबके लिए अजस्र प्रेरणा स्रोत हैं।बहुत ज्यादा परन्तु औसत लिखने से अच्छा है बहुत कम परन्तु उत्कृष्ट लिखा जाय।बहुत बढ़िया आलेख।विमल जी एवं समालोचन को बधाई एवं शुभकामनाएँ !
बढ़िया आलेख। गुलेरी जी को सादर नमन। बचपन से ले कर कालेज के जमाने तक मुझे याद नहीं पड़ता कि हिंदी की श्रेष्ठ कहानियों का कोई संग्रह पढ़ा हो जिसमें पहली कहानी “उसने कहा था” न रही हो। विमल जी और समालोचन का आभार।
बहुत महत्वपूर्ण आलेख है| आम पाठक नहीं बल्कि बहुत से सुधी पाठक भी गुलेरी जी को “उसने कहा था” से अधिक नहीं जानते|
गुलेरी जी को अधिकांश हिन्दी समुदाय उनकी मात्र एक कहानी “उसने कहा था” के माध्यम से जानता है, जबकि उन्होंने विविध विषयों पर बहुतायत में लेखन किया है। भाषा, शिक्षा, समालोचना, राजनीति, इतिहास, धर्म और समाज, वेद और पुराणों पर भी गंभीर चिंतन किया है। उनके ललित निबंध और समकालीन मित्रों और लेखकों को लिखित पत्र भी साहित्यिक दस्तावेज़ हैं। व्यक्तिगत रूप से मुझे उनकी कहानी बुद्धू का कांटा उनकी प्रसिद्ध हुई कहानी से बेहतर लगती है। विमल कुमार जी को साधुवाद कि उन्होंने आज गुलेरी जी की पुण्यतिथि पर अपने गंभीर लेख के द्वारा स्मरण कराया।
भाई विमल कुमार जी ने गुलेरी जी पर अच्छा लेख लिखा है। पर ज्यादातर लोग गुलेरी जी के जीवन से वाकिफ हैं। दरअस्ल, मामला कहानी का ही है, जो उन्होंने लिखी । दूसरे विश्वयुद्ध में लड़ाई के मैदान के बीच यह अमर प्रेम-कथा घटित हो रही होती है, और इसे कोई जान भी नहीं पाता, उस सूबेदारनी के सिवा जो बोधा सिंह की पत्नी है।
लहना सिंह को भी मालूम न पड़ता अगर वह अचानक बोधा सिंह के घर न पहुंच गया होता। कि अरे! ‘तेरी कुड़माई’ हो गई वाली लड़की यहां रहती है -बोधा सिंह की पत्नी के रूप में। प्रेम का घाव अभी हरा है। लहना सिंह उसे कहां भुला पाया। यहीं कहा था, उसने कुछ। जिसे बहुत देर बाद लहना सिंह समझ पाया था -शायद। लहना सिंह को बस “उसने जो कहा था”, वही याद रहा। जिसकी कीमत उसने अपनी जान देकर अदा की। इसे बोधा सिंह भी न समझ पाया। प्रेम का यह उदात्त रूप अब कहां मिलता है देखने को। यह कहानी सिख परिवार से ताल्लुक रखती है। वहां प्रेम अब भी एक सभावना है। ‘उनके’ बहुत सारे काम हम प्रेम के वशीभूत होकर करते रहते हैं “उसने कुछ कहा हो’ या न कहा हो, क्या फर्क पड़ता है। पर हमारी कुर्बानी कहीं दर्ज नहीं होती।
यह कहानी अब भी एक चुनौती है।
विमल कुमार जी ने बड़े अध्ययन के बाद ही यह लेख लिखा होगा । जो गुलेरी जी के जीवन की आभा और उनकी कथा प्रतिभा को प्रदर्शित करता है।
इस लेख के लिए उन्हें धन्यवाद ज्ञापित करता हूं।