अखिलेश की कहानियों में दलित जीवनबजरंग बिहारी तिवारी
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अखिलेश ने अपने कथा लेखन के शुरुआती दौर में मुख्यतः दलित जीवन की कहानियाँ लिखीं. बाद में वे मध्यवर्गीय, पारंपरिक, नगरीय व ग्रामीण ग़ैर-दलित जीवन की ओर गए. ‘चिट्ठी’ (1989) कहानी ने उन्हें आकांक्षा व वास्तविकता के द्वंद्व में पिस रही नई पीढ़ी के प्रतिनिधि और प्रामाणिक लेखक के रूप में पहचान दी. ‘अँधेरा’ (2005) कहानी में उनके समग्र कथा-व्यक्तित्व का शिखर देखा जा सकता है. आज हम जिस हिंदुत्व की फांस में बेतरह जकड़े हुए हैं उसे यह कहानी (‘अँधेरा’) साफ-साफ देख रही थी. धर्मोन्माद के दो पक्ष होते हैं- सांप्रदायिक हिंसा और जातिवादी क्रूरता. जो रचनाकार इनमें से किसी पक्ष को अपनी कहानियों का विषय बनाता/बनाती है उसे दूसरे पक्ष का भी कहानीकार समझना चाहिए. इस तर्क से ‘अँधेरा’ कहानी ‘अभिमन्यु की हत्या’ (1980) की स्वाभाविक परिणति है. ‘ग्रहण’ (2001) को इस विकासक्रम एक पड़ाव समझा जा सकता था लेकिन उसकी धारा और अंतर्वस्तु भिन्न है. यह कहानी ‘शापग्रस्त’ (1993) की कोटि में आएगी. ‘वजूद’ (2004) इसी धारा का उत्कर्ष है. चमत्कारिता, अलौकिकता, रहस्यमयता इस धारा की कहानियों में गुंथी होती हैं.
‘ग्रहण’ में महीपाल बाबा के बनाए जूते भटके हुओं को रास्ता बताते हैं. ये जूते नृशंस राजा को ‘बोटियाँ नोचकर खा जाने वाले ख़तरनाक जानवरों के बीच’ पहुँचा आते हैं. ‘शापग्रस्त’ का परम प्रतिभाशाली, फिश्चुला पीड़ित, मसखरा नायक प्रमोद वर्मा शाश्वत सुख की खोज में नदी किनारे रहने वाली एक सौ बारह वर्षीया किंतु साबुत बत्तीसी वाली बुढ़िया से मिलता है. बुढ़िया के निर्देशानुसार वह सच्चे दुख की खोज में निकलता है लेकिन उसे ज्ञात होता है कि उसकी आत्मा खो गई है.
दलित जीवन की विपदाएं चित्रित करने वाली कहानी ‘वजूद’ में एक अलौकिक खुशबू का खेल है. यह खुशबू वैद्य पंडित केसरीनाथ के हरवाह (सेवक) रामबदल में समा गई है. रामबदल पंडित केसरीनाथ (वैद्य जी) के लिए जंगल से औषधीय वनस्पतियाँ, जड़ी-बूटियाँ इकट्ठी करने का काम करता है. एक विशेष दिन रामबदल से कोई फूल छू जाता है और फिर उसके शरीर से खुशबू आने लगती है. इस खुशबू से डरा हुआ मालिक रामबदल को बुरी तरह यातना देकर मार डालता है. भरसक कोशिश करने के बावजूद यह महक उसके बेटे जयप्रकाश का पीछा नहीं छोड़ती. वह जितना इस महक की स्मृति से बचना चाहता है उतना उसके सम्मोहन में फंसता जाता है. बेटी की ज़िद पर वह जंगल के भीतर उतरकर वही खुशबू खोजना चाहता है. दवा के सौदागर उसे मुँह माँगी रक़म देना चाहते हैं लेकिन उसकी दिलचस्पी धनार्जन में नहीं है, नाम कमाने में नहीं है. बेटे (कोमल) का दबाव उस पर कोई असर नहीं डाल पाता. उसने अपनी बेटी (कटोरा) से वायदा किया था. अब उसे वही महक चाहिए. वह अंदर-बाहर हज़ार ख़तरे उठाने को तैयार है.
आत्मीयों के तमाम मनुहारों और सेठों-सौदागरों के तमाम प्रलोभनों को को ठुकराता हुआ जयप्रकाश कहता है-
“मैं अब कहीं नहीं जाऊँगा. मुझे नहीं कमाना है रुपया. मैं यहीं गाँव में रहूँगा और उस महक को खोजूँगा, जिसे लगाकर हमारी कटोरा बेटी को स्कूल जाना है.”
(सम्पूर्ण कहानियाँ, अखिलेश, राजकमल पेपरबैक्स, नई दिल्ली, प्र.सं. 2001, पृ. 120; अखिलेश की कहानियों के सभी संदर्भ इसी पुस्तक से हैं.)
अखिलेश की कुछ कहानियों में विन्यस्त ऐसे अतिप्राकृत, रहस्यपूर्ण, मिथकीय या अलौकिक तत्त्वों की व्याख्या बहुत कठिन नहीं है बशर्ते उन्हें सहृदयता से पढ़ा जाए. यहाँ सहृदयता का अर्थ समानुभूति है. लेखक के हृदय के आसपास पहुँच जाने से है.
ग़ैर दलित कहानीकारों के यहाँ दलित जीवन कई रूपों में आता है. एक धारा दलित जीवन के कहानीकारों की है और दूसरी धारा दलित चेतना के कहानीकारों की. पहली धारा में कुछ ऐसे रचनाकार होते हैं जिनकी कहानियों में कथा-प्रवाह की मांग पर दलित जीवन का कुछ हिस्सा अनायास ही झलक जाता है. कुछ कहानीकार योजना बनाकर, सोद्देश्य दलित जीवन की कथा कहते हैं. इस कोटि के कहानीकारों की तीन उपकोटियां हैं-
(i) ऐसे लेखक जो दलित जीवन को यथारूप-यथातथ्य प्रस्तुत करते हैं.
(ii) ऐसे कथाकार जो दलित जीवन की व्यथा प्रस्तुत करने के मकसद से कहानी का प्लाट चुनते हैं.
(iii) ऐसे कथाकार जो जीवन की व्यथा चित्रित करने के साथ दलित जीवन में उत्सव-उल्लास-आनंद के अवसरों को भी रेखांकित करते हैं और अपनी कहानी को सम पर, संतुलन पर रखने का प्रयास करते हैं.
दलित चेतना के कहानीकारों में पहली कोटि दलित प्रतिरोध के लेखकों की है. प्रतिरोधमूला कहानियों की चार उपकोटियाँ हैं-
(i) स्वतःस्फूर्त एकल प्रतिरोध की कहानी,
(ii) स्वतःस्फूर्त सामूहिक प्रतिरोध की कहानी,
(iii) सुविचारित एकल प्रतिरोध की कहानी, और
(iv) सुविचारित सामूहिक-संगठित प्रतिरोध की कहानी.
दलित चेतना के कहानीकारों की दूसरी कोटि अस्मितामूलक रचनाकारों की है. इसकी दो उपकोटियां हैं-
(i)फुले-आंबेडकरी चेतना के कहानीकार, तथा
(ii) उत्तर आंबेडकरी सांस्कृतिक अस्मितावादी कहानीकार.
ग़ैरदलित कहानीकारों की सबसे क्षीण उपस्थिति इन्हीं दो उपकोटियों में है. प्रगतिवादी विचारधारा से जुड़े ग़ैरदलित कथाकारों ने मुख्यतः दलित प्रतिरोध की कहानियाँ लिखी हैं जबकि उत्तरआधुनिक बोध वाले लेखकों ने अस्मिता की. पहली कोटि के कहानीकारों की ज़मीन राजनीतिक है और दूसरी कोटि की ज़मीन सांस्कृतिक या धर्मशास्त्रीय. अखिलेश प्रतिरोधी चेतना के कहानीकार हैं.
(दो)
अखिलेश की कहानियों में प्रतिरोध का स्वरूप एक-सा नहीं है. कहीं यह मजबूत है और कहीं हल्का. ‘अभिमन्यु की हत्या’ कहानी में पंडित सूर्यबली तथा उनके पुत्र चंद्रबली के दमन और यौन शोषण से पूरा गाँव त्रस्त है. पंडित की कुदृष्टि दलित रामजस की बेटी कैलसिया पर है. कैलसिया का पानी भरने जाना मुहाल है. सारी स्थिति से अवगत होकर भी रामजस प्रतिरोध नहीं कर पाता. उसने बस इतना किया कि बेटी को इनार (कुएँ) पर न भेजकर स्वयं पानी भरने का काम करने लग़ा. इस पर आदतन व्यभिचारी पंडित सूर्यबली चिढ़ गया. उसने पानी भरने आए रामजस को पीट दिया. रामजस इस हिंसा और अपमान को पी गया. निरंतर हिंसा और दहशत का यही नतीजा है. रामजस की स्मृति में उनके बाबा की सूर्यबली के पिता पंडित इंद्रभान द्वारा की गई पिटाई है. हंटर पड़ने से बाबा की पीठ पर उभरे नीले निशान कभी भूलते नहीं और वे रामजस की घिग्घी बांधे रखते हैं.
कैलसिया की सखी जगेसरी है. जगेसरी के पति हनुमान जी पंडित सूर्यबली की सेवा में हैं और उसका बेटा चंद्रबली जगेसरी का ‘भोग’ कर रहा है. जगेसरी से मन भर गया तो चंद्रबली ने गेंदा खटकिन का ‘इस्तेमाल’ शुरू किया. जगेसरी का भाई चरन साथ रहता है. उसमें आक्रोश है. नई पीढ़ी का नया खून. अपने समुदाय की दुर्दशा चरन में उबाल पैदा करती है. हिकारत की मजबूत दीवारों से घिरा वह उदास-हताश होता है और संभलता भी है. एक अवसर पर दलित स्त्रियों की यौनिकता को लेकर पंडित सूर्यबली की यह अपमानजनक टिप्पणी चरन के क्रोध को बेकाबू कर देती हैं- “मुला सब ससुरिन की मरजाद तो पैदा होते ही चटक जाती है.”
उफनते क्रोध वाला चरन
“अचानक बिजली सी फुर्ती से …घूमा. उसका लहराता हाथ सूर्यबली के जबड़े पर पड़ा. पंडित का जबड़ा फट गया था. खून की मोटी रेखाएं दोनों तरफ से बहती हुई ठुड्डी से चू रही थीं.”
चरन का आक्रोश ‘नैसर्गिक’ है. उसे किसी चिंतन का आधार नहीं मिला है. यही वजह है कि मौका मिलते ही वह कैलासी पर हैवान की तरह टूट पड़ता है और उसकी दुर्गति कर देता है. सब तरफ अँधेरा और निपट नाउम्मीदी में जगेसरी जैसे देह-व्यापार के धंधे में उतर जाती है. वह इसका औचित्य भी समझाती है. कैलासी का प्रेमी छलिया बड़े अतार्किक ढंग से उस पर मटरमाला पहनने का दबाव डालता है. गाँव का पूरा दलित समुदाय एक ऐसे भंवरजाल में है जहाँ से निकलने का कोई मार्ग नहीं. दलित पुरुषों का लंपटीकरण, कुत्सीकरण, खलीकरण अहसास कराता है कि विकृति की नींव कितनी गहरी है और दीवारें कितनी ऊँची. जगेसरी का पति हनुमान अपने मालिक के लिए अपने दलित समुदाय की युवतियाँ मुहैया कराता नज़र आता है. उसकी भाषा और उसका सहज बोध गर्त में खिसक चुके हैं. छलिया की दुर्बुद्धि कैलासी के लिए सांसत है. पढ़े-लिखे और समझदार चरन से ही उम्मीद बंधती थी. पंडित सूर्यबली को कसकर सबक सिखाने से यह उम्मीद बलवती हुई थी. बहुत जल्दी यह उम्मीद ध्वस्त हुई, यह आदर्श खाक हुआ. “आदर्शवादिता के दाह से बनी राख बड़ी विषैली साबित हुई.”
संभावना का अंत ही ‘अभिमन्यु की हत्या’ है.
‘बादल छंटने से धूप तक’ (1980) भी दलित उत्पीड़न और प्रतिरोध की कहानी है. ‘अभिमन्यु की हत्या’ में हनुमान सवर्णों का मोहरा था तो इस कहानी में दलित स्त्री तारा यह भूमिका निभा रही है. बीसपुर गाँव में सवर्णों के दो घराने या केंद्र हैं- जगधर पांड़े और कीरत सिंह. इन दोनों से लोहा लेने वाला रामदीन अपने घर की भेदिया तारा से त्रस्त है. तारा जगधर पांड़े के बेटे डांगर पांड़े से फंसी हुई है. कभी रामदीन ने कीरत सिंह को रपटाया था. कीरत सिंह चाहकर भी बदला नहीं ले सका था. इसी रामदीन की लाठी ने जगधर पांड़े की हड्डियां तोड़ी थीं. आज उसी की पतोहू (बिरजू की मेहरारू) तारा ने रामदीन को पुलिस से पकड़वा जेल भिजवा दिया है. रामदीन ने तारा को डांगर पांड़े के साथ सोते पकड़ा था. पत्नी की बदचलनी से परास्त बिरजू परदेस भाग गया. डांगर और तारा की मिली-भगत से गाँव में अफवाह फ़ैली कि रामदीन की बदनीयती से बेटा भागा है. डांगर ने अपने बाप की पिटाई का बुरी तरह बदला लिया. अपने कारिंदों के साथ रामदीन को घेरा और उसकी हड्डियाँ चकनाचूर कीं. कोई भी दलित-पिछड़ा रामदीन की सहायता के लिए आगे नहीं आया.
रामदीन अब जेल में है और सवर्णों के अत्याचार बढ़ गए हैं. सुग्गन की तैयार फसल डांगर दिन-दहाड़े कटवा ले गया. सुग्गन की धुनाई भी की. सुग्गन का परिवार बिसूर रहा है, रामदीन की याद कर रहा है. इसी तरह ब्याज सहित मूलधन चुका देने के बावजूद पुत्तनशाह के क़र्ज़ तले डूबा, हर दिन बेइज्ज़त होता झरिहग रामदीन को याद करता है. रामदीन ने अकेले दम दबंगों के बबूल काटे थे, कांटे हटाए थे. उसे जेल भिजवाकर मनबढ़ हुए आतताइयों को कौन रोकेगा. कहानी के अंत में एक दृश्य है. अपनी ज़िंदगी और इज्ज़त बचाने के लिए डांगर के चंगुल से छूट भागी हफ़ीज़ा अंधेरी रात में बलात्कारी पांड़े के हमले से बचने की जी-तोड़ कोशिश कर रही है. आज गाँव आक्रोशित हुआ है. लोग सहायता के लिए दौड़े हैं. “उनकी लाठियाँ हवा में सांय-सांय की आवाज़ पैदा कर रही हैं.”
बिरजू परदेस से लौट आया है. यह जागृति उसके लौटने से जुड़ी है. “डांगर बड़ी तेजी से चीखा है…. हफ़ीज़ा के होंठ मुस्कुरा रहे हैं…. बिरजू के चेहरे पर तेज है. वह अंगारे की तरह तमतमा रहा है. वह बबूल चीर रहा है. …उसके पास चमचमाता गंड़ासा है….
(तीन)
अखिलेश की शुरुआती कहानियाँ आज़ादी मिलने के दो-ढाई दशकों पर केंद्रित हैं. यह मोहभंग का दौर है. स्वतंत्र भारत की संविधानसम्मत जनतांत्रिक सरकारें दलितों पर होने वाले ज़ुल्म नहीं रोक पा रही हैं. ज़ुल्म बढ़े हैं क्योंकि दलितों को नए ज़माने की हवा लगी है और उनमें स्वाभिमान जगा है. वर्चस्वशाली तबके समय रहते इसी स्वाभिमान को कुचलना चाहते हैं. इस समय के समाचार पत्र और पत्रिकाएं देखें तो पाएंगे कि प्रतिरोध की अगुआई प्रायः प्रगतिवादी-वामपंथी लोगों ने की है. ये संघर्षशील वामपंथी दलित-पिछड़े-सवर्ण सभी वर्गों से निकले हैं. नवें दशक के बाद जब अस्मितावादी राजनीति ने ज़ोर पकड़ा तो इस जुझारू दस्ते को भुला दिया गया. अखिलेश की कहानियाँ उस दौर की याद बनाए रखती हैं. 1980 के आसपास लिखी उनकी कहानी ‘कोहरा और धरती’ स्वतंत्र भारत की संसद में छद्मवेशी जनप्रतिनिधियों की पहचान कराने के साथ दलितों की लड़ाई लड़ने वालों की भी सुध लेती है.
दिलीप बहादुर के खानदान को अपनी सेवाओं के कारण अंग्रेजों से प्रशंसा मिली थी और वफादारी के बदले ढेर सारी ज़मीन. उनके दादा महाराज इंद्रजीत ने ग़दर के दौरान अंग्रेज गवर्नर को अपने महल के पास बनी मीनार में छुपाया था. इस सच को जानने वाले पंडित रामदेव की देशभक्ति कहीं भारी न पड़ जाए तो ऐसे ख़तरनाक आदमी को उन्होंने उस मीनार से ऐसे फिंकवाया कि “वह ससुरा लहराता हुआ भूमि पर गिरा. उसकी अँतड़ी-पँतड़ी सब छितरा गई भूमि पर.”
आज़ादी मिलने के बाद दिलीप बहादुर ने इनाम में मिली ज़मीन का एक हिस्सा ‘लोककल्याण’ के लिए मुक़र्रर किया. उस पर दलितों की बस्ती बसाई और नाम दिया ‘दरिद्र नगर’. दरिद्र नगर के वोटों की बदौलत वे चुनाव जीते और संसद पहुँचे. अगली बार चुनाव में उनकी पार्टी और वे स्वयं हारे तो ज़मीन खाली कराने का मन बनाया. दरिद्र नगर वाले अब अपना बसा-बसाया घर छोड़ने को तैयार नहीं. इससे शहर में तनाव का माहौल बन गया है. कुछ लोग दलितों के साथ हैं तो बाकी शहर तमाशबीन बना मजे ले रहा है. प्रभु प्रसाद के दोनों बेटे रमेश और गुड्डू अलग-अलग पोजीशन लिए हुए हैं. गुड्डू जी-जान से दरिद्र नगर वालों की ओर है. इस मसले पर उदासीन उसका बड़ा भाई इतना ही कहता है कि ज़मीन दिलीप बहादुर की है, जो चाहे करें. गुड्डू के इस सवाल पर वह चुप्पी साध जाता है दिलीप बहादुर के पास ज़मीन आई कहाँ से. रमेश थिएटर आर्टिस्ट है और वह कला की सीढ़ी चढ़कर अपना कॅरियर चमकाना चाहता है. कला-चिंतन में डूबे उस आर्टिस्ट पर रोती हुई माँ के आँसू भी कोई असर नहीं डाल पाते. कंगाल पिता की बकझक से ऊबा रमेश अलग कमरा लेकर रहना चाहता है जहाँ सुकून हो और वह “अपनी कला को ढेरों आगे ले जा सके.”
वह इन दिनों ‘अपना-अपना जंगल’ नाटक के रिहर्सल में व्यस्त है. “प्रसिद्धि मिलने में अब ज्यादा दिन नहीं है. जल्दी ही वह कलाकारों के बीच प्रतिष्ठा पा लेगा.” इधर दरिद्र नगर को उजड़ने से बचाने में खून-पसीना एक किए गुड्डू को दिलीप बहादुर के गुंडों ने यह धमकी देते हुए पीटा है कि “अबकी जो फिर किरांती छाँटे तो जान से ही मार डालेंगे.” गुड्डू के चेहरे पर खौफ़ की जगह खुशी देखकर रमेश हैरान है. गुड्डू डरता क्यों नहीं! वह कभी इतना बहादुर तो नहीं था. गुड्डू का जवाब है- “ज़ुल्म के ख़िलाफ़ लड़ने वालों से जुड़ने पर हिम्मत आ ही जाती है. तुम भी जुड़कर देखो भइया.”
गुंडों ने उसे मारा और असर जनता पर पड़ा. लोग दिलीप बहादुर का महल घेरने की योजना बनाने लगे. आत्मोत्सर्ग से जनता को जगाने का यह भगत सिंह मार्ग है; वाम-पद्धति है. इसी प्रकरण ने गुड्डू के कलामार्गी बड़े भाई को राह दिखाई. रमेश नाटक में अपने रोल को लेकर प्रफुल्लित है. “उसके भीतर आशा और खुशी का सैलाब उमड़ रहा” है. नाटक के प्रदर्शन के अंतिम वक़्त नाट्यसंस्था को चंदे में मोटी रकम देने वाले एक धनाड्य समीरचंद के पुत्र रॉकी को वह रोल दे दिए जाने और नाटक से निकाल दिए जाने से टूटे दिल वाले रमेश को आखिरकार दिशा सूझती है. वह भी दलित बस्ती बचाने के संघर्ष में शामिल होता है. महराज दिलीप बहादुर का महल प्रदर्शनकारियों ने घेरा हुआ है. चोट खाए गुड्डू को माँ ने बाहर जाने से रोक रखा है. गुड्डू कसमसा रहा है. इसी समय एक निर्णय पर पहुँचा हुआ रमेश उससे कहता है, “क्या मनहूसों की तरह पड़ा है. कैसा कामरेड है? जाएगा नहीं जुलूस में?”
‘सेठ, मंत्री, देवी और श्यामलाल’ (1980) दलित-वंचित जीवन की झांकी है; साथ ही यह वंचितों की एकजुटता की कथा भी है. निपट गरीबी में दिन काटता श्यामलाल ठेले पर कपड़े प्रेस करता है. उसकी पत्नी रामप्यारी इस काम में उसका हाथ बंटाती है. परिवार में छोटी बच्ची है और अशक्त पिता. पति-पत्नी कपड़ों की धुलाई भी करते हैं. इस्तरी करके, कपड़े धोकर भी परिवार भरपेट खाने का जुगाड़ नहीं कर पाता. दूसरी चारपाई नहीं ले पाता. झुग्गी में एक चारपाई है. उस पर बूढ़े पिता लेटते हैं. शेष सदस्य धुलाई और इस्तरी के लिए आए कपड़ों के गट्ठर पर रात गुज़ारते हैं. श्यामलाल तरह-तरह की छोटी बेईमानियाँ करता है. वह धुलाई के लिए आए ग्राहकों के कपड़े पहन लेता है. दूसरे ठेले वालों के मुहल्ले में जाकर उनके ग्राहकों के कपड़े प्रेस कर आता है. दूसरे धोबियों के मालदार ग्राहकों को फोड़ लेता है. यह सब करके वह पछताता भी खूब है. उसने अपने जिगरी दोस्त साबिर के कई गहकी (ग्राहक का अवधी रूप) तोड़े. एक ठेले वाले सलीम ने जब उसके एक बड़े ग्राहक जगरामदास लोहा कम्पनी वाले को छीना तो रामप्यारी सहन न कर सकी और सलीम की अम्मी सलमा से मारपीट कर बैठी. एक जज के कपड़े पहनने पर जज के बेटे ने पुलिस बुला ली और श्यामलाल को हवालात भिजवा दिया. रामप्यारी ने बेईमानी करके कुछ भोले-भाले ग्राहकों के घरों से आई दस साड़ियाँ बेचीं और पति को छुड़ाया. सलीम की अम्मी से झगड़े के बाद ग्लानि में डूबा श्यामलाल सोचता है-
“मैंने भी तो साबिर के कई गाहक तोड़ लिए. कहाँ का धन्ना सेठ हो गया मैं. चीकट पहिले था, दरिद्दर ही रहा. साबिर पर कोई बज्जर नहीं गिर गया. बस हुआ यह कि हमारी दोस्ती दरक गई.”
ग्लानि से पेट की आग नहीं बुझती तो श्यामलाल की ‘बेईमानी’ पुनः सिर उठाती है. एक अलस्सुबह वह शाकिर के इलाके में जाकर उनका काम हड़प लेता है. उस दिन न शाकिर की माँ की दवा आ पाती है और न चूल्हा जलता है. रामप्यारी से सारी हक़ीकत जानकार श्यामलाल पुनः ग्लानि में डूबता है. परिमार्जन संभव नहीं क्योंकि वह उन पैसों से घर के लिए चावल-दाल-आलू खरीद चुका है. पछतावे से निज़ात पाने की कोशिश में लगे श्यामलाल को जो आइडिया सूझा वही इस कहानी का हासिल है- “अगर सारे गरीबों का एक परिवार हो तो हर कोई एक-दूसरे का दरद-दुख जाने-बूझेगा. एक का दरद दूसरे का दरद होगा. तब किसी से मेरे जैसा गुनाह नहीं होगा और…” श्यामलाल की कल्पित योजना चाहे कितनी अच्छी हो, उसके साकार होने में हज़ार दिक्कतें हैं. वैसे यह चरित्र अखिलेश के कहानी-कर्म की उपलब्धि है. मजबूरी के चलते यह बेईमानी कर जाता है लेकिन कपटी-काइयां नहीं है; नज़दीक की सोचता है लेकिन दूरदृष्टि बनी रहती है; अपनों के पेट में लात मारता है लेकिन उसमें अपने-पराए का वर्ग-विवेक है; कंगाली के आवर्त में है किंतु सम्पन्नों के धनसंचय की विधियाँ ज्ञात हैं; धार्मिक है लेकिन धर्मसत्ता और अर्थसत्ता के गठजोड़ को सहज ही समझता है.
मेले का शौक़ीन श्यामलाल दुर्गापूजा के पंडालों में सजी मूर्तियाँ देखता है और उनके साथ नफ़ीस सिल्क कुरते और सोने की वज़नदार चेन पहने खड़े ‘धर्मात्माओं’ को. वह सड़क चलते इन ‘धर्मात्माओं’ की अश्लील हरकतों का द्रष्टा भी है. मेले के बाद देवी मूर्तियों के विसर्जन के लिए जाता रेला श्यामलाल का ठेला उलट देता है. ठेले के नीचे दबा श्यामलाल जगह-जगह इस्तरी में पड़े अंगारों से जल जाता है, घायल हो जाता है. घायल श्यामलाल की तीमारदारी में रामप्यारी के साथ उसके दोस्त शाकिर और बिसुन भी लगे हुए हैं. यह एकता अर्थपूर्ण है. शोक और आक्रोश का अनुभव करता उसका दोस्त “…दुश्मनों को पीट सकता है. उसके हाव-भाव से लग रहा है, धरती को खून से रंगने में उसे कोई हिचक नहीं होगी.”
‘पिंजड़े में ख़ुशबू’ (1982) सहज प्रवाह में चलती हुई बेहतरीन अर्थ-संकेतों वाली कहानी है. आदर्श नगर बस अड्डे और नगरपालिका के बीच रखी गुमटी में चाय-बिस्कुट बेचने वाला मुनीराम शाम सात बजे से सुबह सात बजे के बीच दुकान चलाता है. दिन में ग्राहक उसके यहाँ न आकर होटल और रेस्त्रां जाते हैं. नगरपालिका के सफ़ाईकर्मियों ने जब हड़ताल की तो मुनीराम का ध्यान उनकी ओर गया. नगरपालिका दफ्तर के सामने जब वे इकट्ठे होकर नारे लगाने लगे और यदा-कदा भाषण देने लगे तो मुनीराम उनकी जिंदगी की तल्ख़ सच्चाइयों से रूबरू हुआ- “पहले वह हड़तालियों की जिंदगी के कसैले हिस्सों को सोचकर दुखी हुआ फिर उनकी मामूली मांगों को ठुकराया जाता देख क्षुब्ध हो गया.” म्युनिसपैलिटी के अधिकारियों ने हड़ताल तोड़ने की बहुत कोशिश की. मुनीराम का गुस्सा बढ़ता गया. वह हड़तालियों का उत्साह बढ़ाने लगा और उन्हें बहुत सस्ते रेट पर चाय-बिस्कुट देने लगा. वह सफ़ाईकर्मियों से जुड़ गया; मानो उनके बीच का हो गया. इस हड़ताल का एक असर यह भी हुआ कि मुनीराम ने अपनी पत्नी दुलारी को पीटना बंद कर दिया. पति में आ रहे बदलाव को लक्षित करके दुलारी ने कहा था- “तुम जब भंगियन को चाह-दालमोट सस्ते में बेचे तो हम्में देवता लगे रहे. फिर हम्में क्यूँ मारते हो? तुम देवता होओ सरोज के बाबू. हम्मै न मारा करौ.” म्युनिसपैलिटी के कर्मचारियों से मुनीराम का जो राब्ता क़ायम हुआ वह टिकाऊ था. सड़क से अतिक्रमण हटाओ अभियान पर निकली नगर निगम की हल्लागाड़ी मुनीराम, बनवारी आदि की गुमटियों से आगे न बढ़ी. गुमटी तोड़ने वाले मुनीराम को “देखते ही उनके कदम रुक गए. वे नगरपालिका के वही लोग थे जिनकी हड़ताल में मुनीराम ने हिस्सा लिया था.”
न्याय, समता, अपनापे की विचारधारा नाइंसाफी, ग़ैरबराबरी और नफ़रत के शिकार लोगों को आपस में जोड़ती है. यह उन्हें भी जोड़ती है जो नाइंसाफी, नफ़रत के शिकार नहीं हैं लेकिन न्याय, समता आदि मूल्यों में यक़ीन रखते हैं.
‘सैनिक लोग’ (1982) इन्हीं मूल्यों की कहानी है. माधव काका इन मूल्यों के विश्वासी ही नहीं, अभ्यासी भी रहे हैं. गाँव के वे ऐसे युवा थे जो भगत सिंह के साथ थे. आज़ादी की लड़ाई में बड़ी बहादुरी से लड़े थे. उन्हीं की राह पर चलते हुए माधव ने जब गाँव के हरवाहों (दलितों) को संगठित करना शुरू किया तो ठाकुर वंशराज ख़तरा भांप गए. वे किसी गाँव में संगठन और विचार की ताकत देख चुके थे. वंशराज ने गुंडे बुला लिए. माधव को अधमरा करके वे गुंडे चले गए. तब से विक्षिप्त माधव पीपल के नीचे रहते हैं. रात-रात भर भगत सिंह को याद करके रोते हैं. लंबे अंतराल के बाद गाँव के दो युवा- रमाशंकर और मंगल समता और इंसाफ़ की राह पर चलना चाह रहे हैं. उन्होंने माधव काका से नाता जोड़ा है और ठाकुर वंशराज के शराब ठेके की संचालिका जानकी को अपनी तरफ मिलाया है. वे पास के शहर में पढ़ते हैं और दिन ढले साइकिल से अपने गाँव लौट आते हैं. गाँव में जबसे प्रधानी आई है, वंशराज के रहमो-करम पर है. इस बार प्रधानी के इलेक्शन में मंगल प्रत्याशी है. उसके दोस्त रमाशंकर ने चुनाव प्रचार का जिम्मा संभाला हुआ है. रमाशंकर जन्मना ब्राह्मण है लेकिन साफ़ कहता है- “बाभन-चमार से कुछ नहीं होता. सब बरोबर हैं.”
रमाशंकर चाहता है कि उसके पिता (जिन्हें वह गाँव वालों की देखा-देखी बाबा कहता है) इस चुनाव में मंगल का साथ देने आगे आएं लेकिन तुलसी की पंक्तियाँ उद्धृत करके अपनी बात पूरी करने वाले मानस-प्रेमी बाबा तटस्थ-से हैं. गाँव के ग़रीब-दलित उत्साहित हैं. मंगल कहता है “पतझड़ के बाद कोंपलें फूटती हैं. नई-नई पत्तियाँ निकलती हैं. अब पतझड़ खत्म होना शुरू होगा.” वसंतागमन का संकेत ‘चमरौटी’ से मिलने लगता है. चुनाव प्रचार को निकली वंशराज की दबंग टोली से घिन्नू की माई ने अनुभव-दग्ध भाषा में बात की तो उनकी पिटाई होने लगी. इस पर “सारी चमरौटी निकल पड़ी लट्ठ लै-लैकर.” बाबा की भी तटस्थता टूटी. वे भी सक्रिय हो गए हैं. फफककर रोते माधव से उन्होंने कहा, “दुखी न होवो माधो. भगत सिंह जिंदा होएँगे.” उस रात बाबा ने खीर बनाई और निर्मल चाँदनी में माधव को भरपेट खिलाया. “बाबा का यहाँ शरीक होना युवकों को बड़ा बल दे रहा है.” चुनाव से पहले हुई जनसभा में माधव काका, मंगल, घिन्नू, घिन्नू की माई, ग्यारह साल का एक लड़का, बाबा …सभी ने भाषण दिया है. बाबा का भाषण बड़ा प्रभावशाली रहा. अभूतपूर्व यह हुआ कि इस जनसभा में जानकी भी सम्मिलित हो गई. गाँव अब परिवर्तन पथ पर है.
चार)
डॉ. आंबेडकर का मानना था कि सामाजिक परिवर्तन सभी घटकों के साझे प्रयत्न से ही संभव है. अखिलेश की कहानियाँ यही दर्शाती हैं. वे प्रेमचंदोत्तर दलित जीवन के मुकम्मल कथाकार हैं. हिंदी में दलित कहानीकारों की उल्लेखनीय उपस्थिति 1985 के बाद दिखती है. तब तक अखिलेश दलित जीवन, दलित चेतना और दलित प्रतिरोध के अनेक पहलुओं को अपनी कहानियों में चित्रित कर चुके थे. बाद की कहानियों में उन्होंने परिवर्तन की जटिलताओं व दुश्वारियों को धर्मसत्ता और राजसत्ता के बदले चेहरों और तेवरों के साथ दिखाते रहे हैं.
‘वज़ूद’ कहानी बताती है कि स्वतंत्रता, समता और न्याय की ख़ुशबू आकर्षित तो करती है पर वह जंगल में कहीं गुम है.
‘अँधेरा’ (2005) इश्क की दुश्वारियों का आख्यान है. ‘रोमियो स्क्वाड’ का पूर्वरूप इसमें देखा जा सकता है.
‘शृंखला’ (2011) साफ़-साफ़ बताती है कि सच लिखने और सच के गोपन से पर्दा हटाने वाले लेखकों, बुद्धिजीवियों, रचनाकारों की जान साँसत में है. हिंदी समाज ऐसे आगमजानी रचनाकार अखिलेश की अगली रचना की उत्सुक प्रतीक्षा करे, यह स्वाभाविक है.
बजरंग बिहारी तिवारी जाति और जनतंत्र : दलित उत्पीड़न पर केंद्रित (2015), दलित साहित्य: एक अंतर्यात्रा (2015), भारतीय दलित साहित्य: आंदोलन और चिंतन (2015) बांग्ला दलित साहित्य: सम्यक अनुशीलन (2016), केरल में सामाजिक आंदोलन और दलित साहित्य (2020), भक्ति कविता, किसानी और किसान आंदोलन (पुस्तिका, 2021) आदि पुस्तकें प्रकाशित. भारतीय साहित्य: एक परिचय (2005), यथास्थिति से टकराते हुए: दलित स्त्री से जुड़ी कहानियां (2012), यथास्थिति से टकराते हुए: दलित स्त्री जीवन से जुड़ी कविताएं (2013), यथास्थिति से टकराते हुए: दलित स्त्री जीवन से जुड़ी आलोचना (2015) आदि का संपादन bajrangbihari@gmail.com |
बजरंग बिहारी दलित चेतना और चिंतन के गहरे अन्वेषक हैं। हिंदी ही नहीं बल्कि भारतीय दलित साहित्य इनकी पैनी आलोचना की जद में रहा है। दलित साहित्य की सीमाओं और संभावनाओं पर बजरंग लगातार मुखर रहे हैं। अखिलेश की कहानियों का सुचिंतित विश्लेषण ने कहानियों के प्रति पाठकों को खास जिज्ञासु बनाया है। बजरंग कथ्य और शिल्प-संरचना के साथ अवधारणों और वैचारिकी पर फोकस करते हैं। लेकिन अखिलेश की कहानियों के संदर्भ में उन्होंने अपेक्षाकृत इस पक्ष पर कम ध्यान दिया है। बावजूद कहानी की सारी विशिष्टताएं उभर सामने आ ही गईं हैं।