बाघ और सुगना मुंडा की बेटी
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वंदना टेटे ने अपनी किताब ‘वाचिकता: आदिवासी दर्शन, साहित्य और सौंदर्यबोध’ में ‘वाचिकता’ के दस बिंदु चिन्हित किए हैं जिसमें- “गुफा चित्र(रॉक आर्ट), स्थापत्य और कला परंपराएँ, अनुष्ठानिक और परफॉर्मेंस स्थल, सामुदायिक परफॉर्मेंस, स्मृतिगीत, गाथाएँ, पुरखा कहावतें-साहित्य, अदृश्यता, वाचिक ज्ञान केंद्र(ओरल),आदिम गुरिल्ला प्रकृति, सृष्टि और भाषा” का विश्लेषण शामिल है.
इन दसों बिंदुओं के विश्लेषण से आदिवासी समाज के दो दर्शन केंद्र में आते हैं. पहला, उनके यहाँ उत्पादन की सांस्कृतिक और आर्थिक प्रणाली के जो भी तरीके हैं उसमें ‘सामुदायिकता’ है. उन्होंने लिपि के विकास से पहले अपने अनुभव,ज्ञान और कार्यप्रणाली का दस्तावेजीकरण ‘गुफा चित्रों’ में किया जो उनके सामुदायिक इतिहास का हिस्सा है,जिसे इतिहासकारों ने ‘आदिम’ कहकर इतिहास का स्रोत मानने से इनकार किया.
‘अखड़ा’ में जब आदिवासी नाचते, गाते और बजाते हैं तो वहाँ हर कोई सहभागी होता है. वहाँ हर सहभागी दर्शक है और हर दर्शक सहभागी है. वहाँ ‘गीत गाने के लिए नाचना जरूरी है, नाचने के लिए बजाना जरूरी है और इन सबके लिए प्रकृति का साहचर्य और सामूहिकता जरूरी है.’
उनके सामुदायिकता का सुंदर उदाहरण नामकरण में दिखाई देता है. आदिवासी खुद को ‘होड़’ कहते हैं. उनके गाँव और इलाके का नाम भी उसी अनुसार होता है. जैसे: ‘बिरहोड़’, ‘बीरभूम’, ‘जोजोहातु’. इनसब नामकरण में उनके सामुदायिक इतिहास की स्मृतियाँ हैं. यह सामुदायिकता उनके आर्थिक उत्पादन प्रणाली में भी लक्षित होता है. इस पर जयपाल सिंह मुंडा ने अपने एक भाषण(1947) में कहा है
“जीवित रहने के लिए समाज के हर व्यक्ति को अनिवार्यतः श्रम करना ही करना है. यदि किसी को अलग से काम के लिए रखा भी गया तो उसे परिवार का एक सदस्य ही माना जाता है. ‘नौकर’ जैसा कोई भेदभाव उसके साथ नहीं किया जाता. मोटे तौर पर एक परिवार उतनी ही जमीन अपने पास रखता है जितने की खेती और उसकी देखभाल वह खुद कर सकता है. जिस काम के लिए बहुत सारे श्रमिकों की आवश्यकता पड़ती है वहाँ पूरा समुदाय खड़ा रहता है. यही कारण है कि उसके पास अपरिभाषित आजादी और पर्याप्त अवकाश व मनोरंजन है. पहाड़ और जंगल उनके खेल के मैदान हैं और मैं जोर देकर कहूँगा कि आधुनिक सभ्यताओं के जीवन में जो असहनीय तनाव हैं,वे इससे पूरी तरह मुक्त हैं.”
यहाँ आर्थिक उत्पादन प्रणाली में जो सामुदायिकता है, जिसमें ‘सामूहिकता’ एकमेक है, श्रम यहाँ आनंद और एकता का स्रोत है. ‘मुनाफा’ की पूंजीवादी अवशेष तक यहाँ नहीं दिखाई देता है. यह महान विचार का मूल आदिवासी समाज के ‘वाचिक परंपरा’ में निहित है.
दूसरा, महत्वपूर्ण दर्शन है ‘सहजीविता’. इन दिनों समीक्षक इस शब्द को आदिवासी विमर्श के नाम पर बेहद चलताऊ तरीके से एक भौंडे नारे की तरह अकादमिक जगत में प्रयोग कर रहे हैं. इसे आदिवासी और प्रकृति से जोड़ते हुए ‘पर्यावरण’ के एक हिस्से तक सीमित कर देने का कुत्सित प्रयास हो रहा है. ‘सहजीविता’ का विस्तार आदिवासी समाज के भाषा, परिवेश, धार्मिक अनुष्ठानों और मिथकों तक है. रामदयाल मुंडा ने ‘आदि धरम’ में ‘ऋतुचक्र और अर्थतंत्र’ के सहजीवी संबंधों को रेखांकित करते हुए लिखा है
“आदिवासी के लिए वन उसकी शांति है, तो कृषि उसकी साँस है. मनुष्य ने वन के अंदर से ही कृषि का विकल्प खड़ा किया,क्योंकि इस प्रक्रिया में उसका आर्थिक जीवन वन्य(घुमंतू) जीवन के अपेक्षाकृत अधिक आश्वस्त था.”
आगे वह इस सहजीविता को ध्वस्त करने वाली विचारधारा से भी सावधान करते हुए लिखते हैं-
“औद्योगिक आर्थिक व्यवस्था,जिसके साथ ही व्यापार और पैसा भी जुड़ा हुआ है,आदिवासी की समझ में अभी ठीक से आई नहीं. इसे अपनाने में आदिवासी को अभी बहुत समय लगेगा. यही कारण है कि उसे वर्तमान व्यवस्था के ‘जमीन के बदले पैसा’ के द्वारा आदिवासियों के पुनर्वास का प्रस्ताव कोई अर्थ नहीं रखता. आदिवासी को उसकी जमीन से अलग कर देना उसकी साँस बन्द कर देना है.”
वंदना टेटे इसी को ‘आदिम गुरिल्ला प्रवृत्ति’ कहती हैं जिसका मतलब है ‘संसाधन का न्यूनतम उपयोग, बिना संग्रह वाला जीवनशैली.’ आर्थिक व्यवस्था में आदिवासी अपनी सहजीविता को प्रकृति के साथ दर्शन,मिथक और अनुष्ठान के स्तर पर समायोजित किए हुए हैं. पृथ्वी के निर्माण में केकड़े और मछलियों का योगदान है. सृष्टि कथा में ‘सिंगबोंगा और आदिमाता मछलियों से विनती करते हैं कि वो मिट्टी ऊपर लेकर आएँ और सृष्टि निर्माण में मदद करें.’
इसलिए जब सहजीविता की बात हो तो उसे हमें आदिवासी जीवन से जुड़े हरेक मूल्यों और जीवनशैली में खोजना चाहिए. सहजीविता उनके यहाँ ‘समानता और स्वतंत्रता’ का मूल उद्गम स्रोत भी है. अकारण नहीं है कि सिंगबोंगा और आदिमाता भी किसी काम के लिए आज्ञा नहीं देते बल्कि निवेदन करते हैं. उनकी सहजीविता का प्रमाण यह है कि वहाँ मनुष्य प्रकृति का संरक्षक है न कि लार्ड. इसी को घनश्याम ‘आदिवासी गणतंत्र’ (indigenous republic) के रूप में विश्लेषित करते हैं.
इसी तरह हमें यह भी ध्यान देना चाहिए कि आदिवासी समूह का जीवन ‘क्रियात्मकता'(performance) से जुड़ा हुआ है. इसलिए उनकी भाषा में नकारात्मक शब्दों का अभाव तो है ही साथ ही अभिव्यक्ति के भी बहुत सीमित शब्द हैं. वो अपनी भावनाएँ गाकर, बजाकर, नाचकर और उत्सव के रूप में प्रकट करने के अभ्यस्त हैं. इसलिए वे मितभाषी हैं.
इस मितभाषिकता को मुख्यधारा ने भाषा का अभाव कहा और आदिवासियों को ‘वॉइसलेस'(voiceless) कहा जाने लगा. भाषा और परफॉर्मेंस के सहजीवी संबंध को तथाकथित आधुनिक सभ्यता के सभ्य विद्वान समझ ही नहीं सके और उनपर अपना ज्ञान थोपते रहे. ‘सहजीविता’ का पूरा सिद्धांत आदिवासी वाचिकता के भीतर यात्रा करने का माध्यम तो है ही साथ ही यह आधुनिक गणतंत्र के कमियों की ओर ध्यान दिलाकर आधुनिक सभ्यता और राष्ट्र-राज्यों की सीमाओं की ओर विश्व नागरिक का ध्यान आकर्षित करता है.
दो)
अनुज लुगुन अपनी कविता ‘बाघ और सुगना मुंडा की बेटी’ में इसी विचार के साथ उपस्थित होते हैं. ‘सहजीविता की बात’ शीर्षक में जो कविता की पृष्ठभूमि पर चर्चा करते हुए उन्होंने लिखा भी है कि
“आज जब मैं अपने इतिहास की बात करता हूँ तो कुछ इतिहासकार मुझे वेदों की ओर लौटने की बात करते हैं. कुछ विद्वान मुझे गजेटियर्स खंगालने का सुझाव देते हैं. किसी ने नहीं कहा कि तुम अपनी भाषा की ओर लौटो. लौटो अपने जंगल के दरख़्तों की ओर बुरू के चरई की ओर लौटो.”
यहाँ कवि अपनी ‘भाषा और इतिहास’ में लौटने की बात करते हैं. भाषा में लौटते ही वो अपनी मिथकों की ओर लौटते हैं जिसमें इतिहास, इतिहास की स्मृतियाँ और पुरखों के उत्सव और बलिदान गीत से कवि को नई भाषा बनाने में मदद मिलती है. इसकी शुरुआत वह शीर्षक से ही करते हैं ‘बाघ और सुगना मुंडा की बेटी’. यहाँ ‘बाघ’ आदिवासी मिथक का हिस्सा है और ‘सुगना मुंडा की बेटी’ इतिहास का विषय है.
कवि ने मिथक और इतिहास को साथ लिया है. वह इतिहास लेखन की परंपरा से सवाल करते हैं कि आदिवासी अपने संघर्ष और उत्सव में लैंगिक विभेद नहीं करता है. सुगना मुंडा के बेटे का कोई इतिहास है (उसका भी एप्रोप्रिएशन ही किया गया है) तो बेटियों का क्यों नहीं है? यह आदिवासी मन स्वीकार करने को तैयार नहीं है. यहीं से कविता का शीर्षक भी बना और भाषिक तेवर(आक्रामक नहीं बल्कि ऐतिहासिक समझदारी के साथ)भी. ‘मिथक’ और ‘इतिहास’ को एक साथ कविता में रखने की जरूरत क्यों पड़ी? इसका जवाब एस्टेले कास्त्रो(Estelle Castro) ने रोमैन मोरटॉन(Romaine Moreton) की कविता का उद्धरण देते हुए लिखती हैं
“श्लेष उन आदिवासी इतिहास के रहस्यों को उद्घाटित करता है और उसे सही जगह देता है जो अबतक गलत लिखा गया है और सांस्कृतिक, नृतत्वशास्त्रीय और सौंदर्यशास्त्रीय दुविधाओं के बीच में फँसा हुआ है.”
यहाँ जो ‘श्लेष’ है उसी में मिथक और इतिहास का द्वंद्व उभर कर आता है. कवि जब लिखता है-
‘जंगल पहाड़ी के इस ओर है और
बाघ पहाड़ी के उस पार
पहाड़ी के उस पार राजधानी है’
यहाँ ‘बाघ’ आदिवासी समाज के मिथक और भारत के औपनिवेशिक और उत्तर-औपनिवेशिक इतिहास लेखन के पुनर्खोज का ‘श्लेष’ है. यह हिंदी कविता में प्रयोग होने वाला वह श्लेष नहीं है जो कविता को अलंकृत करके सह्रदय को भावविभोर कर देगा. यहाँ प्रयोग होने वाला ‘श्लेष’ पाठक को एक समूह के मिथक और इतिहास के साथ किए गए विकृतिकरण पर पुनर्विचार के लिए रोकता है.
कवि अपनी भाषिक प्रयोग से दो दुनिया की बात करता है एक जो जंगल के ‘इस ओर’ है और दूसरा जो जंगल के ‘उस ओर’ है. कवि को ‘उस ओर’ की दुनिया के मिथकों और इतिहास के समानांतर अपने मिथकों और इतिहास का पुनर्व्याख्या करना है. यही वह तरीका है जिससे उनके ‘सांस्कृतिक वर्चस्व’ को चुनौती दिया जा सकता है. चुनौती देने के लिए जरूरी है कि कवि ‘बाघ और बाघपन’ का विश्लेषण और साथ ही ‘इस ओर’ और ‘उस ओर’ की दुनिया के विस्तार और उसके स्वरूप को स्पष्ट करें.
‘बाघपन’ एक प्रवृत्ति है जिसका उभार होते ही मनुष्य सत्ता और संसाधनों की जमाखोरी करने लगता है. उसके व्यक्तित्व पर उसका व्यक्तिगत स्वार्थ इतना हावी हो जाता है कि ‘सामूहिकता’ उसे खटकता है. व्यक्तित्व का यह पतनशील रूपांतरण को मुंडा समाज ‘चानर-बानर’ या ‘कुनुईल’ के मिथक से अपने पीढ़ियों को अवगत कराते आया है. अपने मिथकों की दुनिया से कवि दो काम करता है. पहला, वह मुख्यधारा के नव-साम्राज्यवादी शक्तियों के विरुद्ध एक ‘वैकल्पिक आधुनिकता’ का प्रस्ताव रखता है जिसका स्रोत वाचिकता है. दूसरा, मिथकों की दुनिया के पुनर्खोज से वह आदिवासी दुनिया के अंतर्विरोधों, मुख्यधारा के प्रभाव में आए आदिवासी कुनुईलों और दिकुओं की पहचान करके अपने अस्मिता-अस्तित्व के लिए संघर्षरत भी है.
कवि जिस ‘बाघपन’ की बात कर रहा है वह खुद उसके भीतर भी हो सकता है क्योंकि खुद उसकी दुनिया मुख्यधारा से जुड़ा हुआ है. ऐसे में खुद को बाघपन से बचाए रखने के लिए हमेशा आत्मसंघर्ष करना पड़ता है.
‘सुगना मुंडा की बेटी’ उसी आत्मसंघर्ष की उत्पाद है. वह इतिहास और मिथक के द्वंद्व के बीच कवि की अभिव्यक्ति है जो कभी इतिहास की सुनती है और कभी मिथकों से संघर्ष की प्रेरणा पाती है. बाघपन से लड़ने के लिए जरूरी है कि कवि अपने मिथकों की दुनिया से आलोचनात्मक विवेक अर्जित करे. ‘मिथक हमारे सामूहिक अवचेतन का क्षेत्र होता है.’
कवि अपनी कविता में मिथकों को लोककथा की तरह भी प्रयोग कर सकता है. उसका समाज वाचिकता को जीने वाला रहा है, कथाजीवी रहा है और बोले हुए पर विश्वास करके संघर्ष के लिए तत्पर रहा है. इसलिए कविता में सुगना मुंडा और उसकी बेटी का संवाद लोक कथात्मक भी है और मिथकीय भी. दोनों के बीच जब संवाद होता है तो सुगना मुंडा अपनी वाचिक परंपरा का निर्वाह करते हुए उसे आने वाले खतरों से आगाह करता है कि
‘यह बाघ के हमले की साजिश है
वह समूह पर हमला नहीं कर सकता
इसके लिए वह पहले शिकार को खदेड़ कर अलग-अलग करता है’
यह जो विवेक है वह पूर्वजों से अर्जित किया हुआ है जो सुगना के पास अपने लोककथाओं, गाथाओं और ऑरेचर की परंपरा से चला आया है. हेलेन ओरोंगा अस्वनी मवाँजी (Helen Orongo Aswani Mwanzi) का लोककथाओं के बारे में मानना है कि
“समाज को बदलने में लोककथाओं का सबसे महत्वपूर्ण स्थान यह है कि लोककथाओं में लोगों की बौद्धिकता(wisdom)संग्रहित होती है, वह बौद्धिकता जो लोगों के पास कई वर्षों के आँधियों, दुखों के साथ-साथ आनंद से हासिल होता है.”
लोककथा मिथकीय कथाओं से भी कुछ तत्व ग्रहण करके अपना संस्करण बनाता चलता है. कविता भी लोककथाओं से प्रेरित होकर अपना आधुनिक और नया संस्करण रचती जाती है. यहाँ कविता में लोककथाओं से अर्जित बौद्धिकता ‘संस्कृतिकरण’ और ‘हिंदूकरण’ के प्रतिरोध में है.
‘बिरसी’ को ऐसे ही ‘उलटबग्घों'(यह सदानी शब्द है, मुंडाओं और सदानियों के सहजीवी होने का प्रमाण भी) की पहचान करना है. इसकी पहचान के लिए जरूरी है कि उसे इन शब्दावलियों का सही मतलब पता हो. संस्कृतिकरण एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें वर्चस्ववादी समूह कमजोर समूह को अपने वर्णाश्रम व्यवस्था में विलय करा लेता है और उसकी मूल पहचान को लगभग समाप्त कर देता है.
हिंदूकरण की प्रक्रिया में हिन्दू धर्म (वर्चस्व की संस्था के अर्थ में) का प्रभाव आदिवासी समुदाय के व्यक्तियों में लक्षित तो किया जा सकता है परंतु पूरी तरह उसके व्यक्तित्व और रीति-रिवाजों का विलय नहीं होता है. संस्कृतिकरण और हिंदूकरण को प्रायः एक ही मान कर विश्लेषित किया जाता है. वर्जिनियस खाखा का मानना है कि
“आदिवासी समुदाय पर हिंदूकरण का प्रभाव मानना चाहिए क्योंकि वह पूरी तरह वर्णाश्रम व्यवस्था के भीतर विलय नहीं हो पाते हैं.”
यह हिंदूकरण या धर्मांतरण एक तरह से संस्कृतिकरण से ज्यादा खतरनाक है आदिवासी समुदाय के लिए. इससे प्रभु वर्ग का काम आसान हो जाता है. वह उनके ही लोगों को सत्ता का दलाल बनाकर उनका दुरुपयोग करता है. बिरसी को इस पूरी प्रक्रिया को समझने के लिए सुगना मुंडा के बेटों के व्यक्तित्व रूपांतरण की प्रक्रिया का अवलोकन करना होगा जिन्हें इतना अधिक ‘दार्शनिक प्रलोभन’ दिया जा चुका है कि वह,
“आज वे उनकी भाषा को
अपनी भाषा में अनुदित करने लगे हैं
समसत्ता का पितृसत्तात्मक भाष्य ही
प्रस्तुत किया जाता रहा है उनके सामने
अनुदित भाषा के व्यवहार का ही प्रचलन किया जा रहा है उनमें.”
इन पंक्तियों को पढ़कर आज की तमाम सुगना मुंडा की बेटियों को जयपाल सिंह मुंडा के प्रसिद्ध लेख ‘बिरसा मुंडा की जय या क्षय?’ का याद हो आना स्वाभाविक है. यह लेख ‘द बिहार हेराल्ड’ में 23अप्रैल1940ई० को प्रकाशित हुआ था, जिसमें उन्होंने कहा था कि
“हमारी प्रमुख आपत्ति बिरसा को भगवान, धरती आबा और उन्हें अवतारी नायक बनाने पर है. उनमें अलौकिकता और भगवानपन जैसा कुछ नहीं है.”
हिंदूकरण के खतरों से जयपाल सिंह आज से अस्सी साल पहले ही अपने समाज को सावधान कर रहे थे. सुगना मुंडा और जयपाल सिंह मुंडा यहाँ एक ही बात कह रहे हैं. दोनों आदिवासी समाज के पूर्वज हैं. कविता में जो सुगना मुंडा हैं, इतिहास में वही जयपाल सिंह मुंडा हैं. बिरसी को यही मूल बात समझना है. एस्टेले कास्त्रो रोमैन मोरटॉन की कविता का विश्लेषण करते हुए लिखती हैं
“अश्वेत और आदिवासियों के प्रति जो नकरात्मकता है उसे केवल सकारात्मक और अप्रत्याशित रचनात्मक छवियों से जोड़कर और अपनी उन बची स्मृतियों के कलात्मक उपयोग के द्वारा बदला जा सकता है जिसका वर्तमान में कोई भूमिका हो.”
इस लंबी कविता में कवि के पास ऐसी स्मृतियों का एक भरापूरा संग्रह है जिसकी भूमिका वर्तमान में मुख्यधारा के साथ अपनी समाज के आंतरिक संक्रमण के सभ्यता समीक्षा की है. कवि बिरसी को रीडा और डोडो वैद्य से साक्षात्कार करवाता है. ये दोनों पूर्वज आदिवासी ज्ञान परंपरा के प्रतिनिधि हैं. इनसे बिरसी और उसके समकालीन पीढ़ी को वर्तमान की चुनौतियों का ज्ञान और उससे निपटने की योजनाओं का सूत्र प्राप्त होता है. रीडा ही अपने अनुभव से बताते हैं कि वर्तमान समय ज्यादा जटिल है और इससे संघर्ष करने के लिए केवल शारीरिक फुर्ती काफी नहीं है. इसके साथ चाहिए,
“थोड़ा और धैर्य
थोड़ा और चिंतन
और वैचारिकता भी चाहिए
इसके बिना कहीं सहयोग नहीं है
कहीं समर्थन नहीं है
हम अधूरे ही होंगे, हम बिखरे हुए होंगे”
वैचारिक परिपक्वता के लिए कवि वापस बिरसी को वाचिक परंपरा की संस्थाओं और उसके महत्वपूर्ण सिद्धांतों के पास ले जाता है. वह उसे वापस गीति: ओड़ा, धुमकुड़िया और घोटुल ले जाता है. ये वो संस्थाएँ हैं जहाँ अविवाहित युवक-युवती अपने भविष्य की योजनाएँ भी बनाते हैं और पुरखों के ज्ञान परंपरा को भी अर्जित करते हैं. यहीं वो ‘पड़हा’ की व्यवस्था से अवगत होते हैं जिसे आधुनिक लोकतंत्र में ग्राम सभा कहा जाता है.
‘पड़हा आदिवासियों की एक सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक व्यवस्था है जिसका काम पड़हा के क्षेत्र में होने वाले सभी विवादों को निपटाना, न्याय कायम करना, सामाजिक और सांस्कृतिक कार्यक्रमों को प्रोत्साहित करना और सालाना होने वाले कार्यक्रमों में नेतृत्व करना है.’
तीन)
बाघ और बाघपन के मजबूत होने का सबसे बड़ा कारण यही है कि उनके अपने समूह के लोग, उनकी पीढ़ियाँ इन संस्थाओं से दूर होती जा रही है और उनके दिमाग को पहाड़ी के ‘उस पार का बाघ’ हाईजैक कर ले रहा है. इसे वह विकास का नाम देता है. इस प्रक्रिया को वह और नरम शब्दवाली में ‘इनक्लूजन’ और ‘इंटीग्रेशन’ कहता है. यह इनक्लूजन और इंटीग्रेशन कब ‘एसिमिलेशन’ में बदल जाता है वह आदिवासियों को पता भी नहीं चलता है. पता इसलिए भी नहीं चलता है क्योंकि वो अपने जड़ों से कटे हुए हैं.
समावेश(जो था तो विलय)की यह प्रक्रिया औपनिवेशिक काल में शुरू हुई और उत्तर औपनिवेशिक काल आते-आते अब आदिवासियों को ‘एक्सक्लूजन के रूप में अपने जीविका और जीवन के ऊपर नियंत्रण से भी वंचित कर दिया गया है.’
कवि इस योजनाबद्ध हमले के वैचारिक प्रतिरोध के लिए वापस अपने पुरखों के पास लौटता है. वह लौटता है अपने गीतों की परंपरा के पास जहाँ वह पाता है डोडो कि,
“हमारे गणतंत्र के आधार गीत हैं
गीतों का ह्रास गणतंत्र का ह्रास है”
यह केवल डोडे वैद्य की नसीहत नहीं है. यह जयपाल सिंह मुंडा से होते हुए रामदयाल मुंडा तक आयी है. उनका गणतंत्र उत्सवधर्मी और श्रम को आनंद का विषय बनाती है. इसलिए तो रामदयाल मुंडा लिखते हैं,
“मैं धान-चावल नहीं खोजता
मैं अरखी-इली नहीं चाहता
मैं गीतों की मजदूरी करता हूँ.
बाजे की गूँज सुनकर मैं जोगी की तरह पहुँच गया.”
यहाँ ‘मजदूरी’ का एकता और सामूहिकता के साथ अनिवार्य संबंध है. तब सवाल यह है कि 21वीं सदी का, उत्तर-औपनिवेशिक समय का कवि अपनी आदिवासी अस्मिता और अस्तित्व के संघर्ष के लिए उत्तर-औपनिवेशिक सैद्धांतिकियों को अपने वैचारिक प्रतिरोध में क्यों नहीं शामिल करना चाहता है? इसका जवाब बोनिता लॉरेंस और ईनाक्षी दुआ के लेख से मिल जाता है.
‘उत्तर-औपनिवेशिक’ शब्दावली ही अपने आप में विवादस्पद पद है. उत्तर-औपनिवेशिक राष्ट्र-राज्य आदिवासियों के जमीन पर अपनी ‘संप्रभुता’ बनाए रखते हैं जो एक औपनिवेशिक विचार है.’
यह स्थिति भारत, कनाडा, अफ्रीका और ऑस्ट्रेलिया समेत लगभग उन सभी राष्ट्र-राज्यों में है जहाँ आदिवासी हैं. इसलिए ‘डिकोलोनाइजेशन’ का सिद्धांत ही भ्रामक है. उत्तर-औपनिवेशिक समय तब कहा जाता जब पूर्व के औपनिवेशिक राज्यों को नस्लवाद और स्टीरियोटाइप से मुक्ति मिल जाता. वह तो अभी भी अमेरिका जैसे तथाकथित सुपर पॉवर राज्य में मौजूद है. उत्तर-औपनिवेशिक समय में एक मजबूत सिद्धांत उभरा ‘प्रवासी इतिहास लेखन’ को लेकर जिसे ‘डायसपोरा’ के नाम से लोकप्रियता प्राप्त है. इस सिद्धांत ने कहा कि इतिहास लेखन को राष्ट्र-राज्य की सीमा से परे
“प्रवास, उत्प्रवास और शरणार्थियों तक का विस्तार दिया जाए,इसे इतिहास का विकेंद्रीकरण, डिसलोकेशन और रिलोकेशन कहा गया.”
इस सिद्धांत की सीमा यह है कि इसने ‘डिकोलोनाइजेशन’ को स्वीकार कर लिया. जो आदिवासी आज अपने जंगल(जो उनका सहजीवी है) से विस्थापित कर दिया गया है और मुख्यधारा के पूंजीवादी-औद्योगिक व्यवस्था में अपनी गरिमा को रोज दम तोड़ते देख रहा/रही है. उसे प्रवासी और शरणार्थी नहीं कहेंगे तो क्या कहेंगे? औपनिवेशिक सत्ता से मुक्त हुए राष्ट्र-राज्यों ने जो राष्ट्रवाद के सिद्धांत बनाए उसमें आदिवासी सदा से ‘प्रिमिटिव’ कहकर दुत्कार दिए गए. उसे सरकारों ने जबर्दस्ती अपने मानकों पर सभ्य बनाने की कोशिश किया. एक ‘व्हिटमैन बर्डन’ के बदले ‘आर्यन मोड ऑफ बर्डन’ थोपने की कोशिश किया गया. जयपाल सिंह मुंडा ने 1954ई०में ट्राइबल अफेयर्स कॉन्फ्रेंस में इसका विरोध करते हुए लिखा था कि
“मेरा पहला सुझाव है कि आपलोग आदिवासियों की मदद करें, जो लगातार स्वयं की बेहतरी के लिए प्रयासरत हैं. निश्चित रूप से यह ‘उत्थान’ या ‘सुधार’ नहीं है जो एक बहुत ही अपमानजनक और द्वेषपूर्ण अवधारणा है.”
जयपाल मसीहाई नजरिया का विरोध करते हुए ‘साहसी प्रतिबद्धता’ शब्द के प्रयोग पर जोर देते हैं.
“यह एक ऐसी भावना है जो बगैर अपने स्वार्थ के आपको उनके बीच जाकर रहने और उनके लिए काम करने के लिए प्रेरित करे.”
जो भी इस साहसी प्रतिबद्धता के साथ आदिवासियों के साथ आया उसे सरकारों ने जेल भेजा, देशद्रोह के मुकदमे दर्ज किए और गुमनाम बना दिया.
उत्तर-औपनिवेशिक समय में एक मजबूत विचार ‘सबाल्टर्न इतिहास लेखन’ का आया. इसने बहुत हद तक आदिवासियों के अस्मिता,उनके इतिहास और वाचिकता को समझा और इतिहास के स्रोतों का हिस्सा बनाया. लेकिन इसकी एक सीमा यह रही कि भारत जैसे राज्य में इसने मुख्य रूप से ‘जमीन’ के सवाल को ही उठाया. उसमें भी मुख्यधारा के ग्रामीण समाज और शहरों के निम्नवर्गीय मजदूर केंद्र में रहे. जो प्रवासी साहित्य लिखे गए उसमें भी केवल मुख्यधारा के ‘सबाल्टर्निटी’ की ही खोज की गई, आदिवासी समाज गौण ही रहा. यही कारण है कि जब कवि कविता लिखता है तो वह सचेत होकर अपने ‘गीतों’ की ओर वापस लौटता है. क्योंकि उसे पता है कि तथाकथित सभ्य दुनिया के जो सिद्धांत हैं वह अपनी श्रेष्ठताबोध से मुक्त नहीं हैं. वह अपने मध्यवर्गीय व्यक्तिवादी चेतना से मुक्त नहीं है. वह अपने स्वार्थ के अनुसार तर्क गढ़ता है. उसके लिखित कानून, सिद्धांत और संधियाँ दूसरे की अस्मिता और अस्तित्व को लील जाने का साधन है. कवि के लिए मुख्यधारा की पूरी सैद्धांतिक दुनिया ही ‘पुजारियों’ के आतंक से ग्रसित है. इसलिए जब भी कोई हुकनू अपनी धनुष लेकर उसके सामने खड़ा होता है तब,
“पुजारी ने कलम उठाया
और हुकनू का तीर पिघलकर
उसकी पोथी में समा गया”
कलम की इस सवर्णवादी और ग्लोबल पूँजीवादी लिखित ‘सोशल कॉन्ट्रैक्ट’ का तोड़ उसे अपने ‘अबोले सहमति’ वाले अलिखित,लिपिपूर्व पुरखा समय में मिलता है. कवि लिखित भाषा के हिंसा का साक्षी रहा है. उसके पूर्वजों को इसी लिखित भाषा के ‘बॉन्ड'(bond) ने ‘बंधुआ मजदूर'(bondage labour) बनाया और आज भी उनकी जमीनें इसी तरह छीने जा रहे हैं.
एक आदिवासी के लिए ‘शब्द’ वादे की तरह होता है जिसे निभाना ही उसकी आदिवासियत है. ‘आधुनिकता’ ने ‘वाचिकता’ का नाश किया. इससे हिंसा के तीन रूप बने.
“पहला, इसने वाचिकता की दुनिया को भ्रष्ट किया. इसे कानून में बदला और कानून ने और नई किस्म के हिंसा और भ्रष्टाचार को जन्म दिया. दूसरा, इसने प्रकृति का ‘आर्थिकिकरण'(economized) किया. इससे मिथकों के निर्माण अवरुद्ध हुए और कहानियों का संसार मरने लगा. तीसरी हिंसा यह हुई कि कहानियों के मरने से इतिहास केंद्र में आया. इतिहास का हिंसात्मक रूप पुलिस स्टेशन है. एक आदिवासी का आधुनिकता से पहला सामना इसी पुलिस स्टेशन से होता है.”
आदिवासी समाज को लिपिबद्ध दुनिया ने केवल हिंसा दिया है. आजादी के बाद भारतीय संविधान ने पाँचवीं और छठी अनुसूची के रूप में स्वायत्तता देने का लिखित वादा किया था. उस वादे में कहा गया था कि
“आदिवासी क्षेत्रों से संबंधित कोई भी संशोधन या कानून राज्यपाल आदिवासी ग्राम सभा के सहमति के बाद ही कर सकता है.”
इस लिखित वादे का यथार्थ रूप यह है कि 1951से 1990 के बीच विकास के विभिन्न परियोजनाओं में 21 मिलियन लोग विस्थापित हुए हैं. उस 21 मिलियन में 5.4 मिलियन का पुनर्वास हक़ जिसमें आदिवासियों की संख्या मात्र 2.12मिलियन है.”
ग्राम सभा के इसी लिखित अधिकार के लिए 2017 में जब आदिवासियों ने पत्थलगढ़ी आंदोलन चलाया तो गाँव के गाँव देशद्रोह के आरोप में समेट लिए गए. कवि आधुनिक राष्ट्र-राज्यों के लिखित भाषा के हिंसा को जानता है. उनके बनाए व्यवस्था चाहे वह औपनिवेशिक काल का हो या उत्तर-औपनिवेशिक काल का,उसमें मौजूद लैंगिक और नस्लीय हिंसा, असमानता और वर्चस्ववादी विचार को कवि ने महसूस किया है. इसलिए तो उसे अपने पड़हा पर ज्यादा विश्वास है. सफेद बाल के अनुभवी की अभिव्यक्ति में कवि का पक्ष इस प्रकार है,
“तुम जो बार-बार कागज
लहरा कर अपना दावा जता रहे हो
वह ‘कम्पनी तेलेंगा’ लोगों का बनाया हुआ है
उनके लिए बेटियों का मान कुछ भी नहीं था
मुंडा अपनी बेटियों का मान रखते हैं
पड़हा उस कागज को नहीं मानती
जिस पर बेटियों का कोई हक़ उद्धृत नहीं है”
संस्कृति संक्रमण(acculturation) के खतरे के खिलाफ कवि को ‘पड़हा’ से ज्यादा सशक्त प्रतीक और किसी विचारधारा में नहीं मिल पाता. इसलिए कवि अपनी ही वाचिक इतिहास की ओर लौटता है. इतिहास में निर्मित संस्थाओं की ओर लौटता है. जिसे मुख्यधारा आदिम समय का आदिम संस्था कहकर उपेक्षित करता है, कवि उसी से मुख्यधारा के आलोचना के ग्लोबल संस्करण तैयार करता है. वाचिक इतिहास की खास बात यह होती है कि इसका “पुनर्स्मरण, पुनर्खोज और पुनर्व्याख्या किया जा सकता है.”
इसी बात को मोनिका रेफ ह्यूल्सर (Monika Reif Huelser) दूसरे शब्दों में कहती हैं,
“कविता या उपन्यास में अतीत का पुनर्लेखन अतीत और वर्तमान के बीच कल्पनात्मक निरंतरता को रचती है जहाँ से साहित्यिक अभिव्यक्ति को बल मिलता है.”
कविता में अतीत से वर्तमान तक कि यह यात्रा औपनिवेशिक संघर्ष से वैश्विक ग्राम के दलालों तक कि यात्रा है. कविता में काल्पनिक निरंतरता का प्रतीक बनता है ‘रक्तबीज के फूल’. यह फूल
“आर्यों, कोलंबस,वास्कोडिगामा के आगमन पर 1764,1830,1855ई०में, उलगुलान, भूमकाल और मानगढ़ में खिलते रहे.” यह फूल,
“हर बार खिलते रहे कि
दुनिया पहले से ज्यादा सुंदर हो
हर बार सुगनी के जूड़े से ही
छीन लिया जाता रहा उसके हिस्से का फूल
उसकी देह से गंध और अखड़ा से गीत”
चार)
आज 21वीं सदी के दूसरे दशक में सुगनी के जूड़े से फूल छिनने में राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पूँजी ज्यादा व्यवस्थित तरीके से सक्रिय है. आज का समय सुगनी सुगना और उसके पीढ़ियों के लिए पहले से ज्यादा जटिल और खतरनाक है. अब वह सीधे-सीधे जमीन और जंगल पर हमला नहीं करता है. इसके लिए वह कुछ रिझावन शब्दवाली गढ़ता है जिसे वह विकास की परियोजना, भूमंडलीकरण, कल्याणकारी राज्य, यूनाइटेड नेशन का पर्यावरणीय योजना, अभ्यारण्य संरक्षण और जनजातीय विकास समिति इत्यादि. ऐसी तमाम अवधारणाओं के पीछे-पीछे एनजीओ,स्वयं सेवी संस्थाओं और आदिवासियत से रहित स्वयंभू एक्टिविस्टों का आगमन होता है जिसके जरिए मुनाफे और पूँजी का जाल बिछाया जाता है. अधकचरे रिपोर्ट तैयार किए जाते हैं जिसमें बताया जाता है कि जंगलों और वन्य जीवों को आदिवासियों से खतरा है. क्रोनी पूंजीवाद के इस युग में कवि को पता है कि,
“हर गाँव जो
‘वैश्विक ग्राम’ की
संधि-पत्रों से असहमत होगा
वह दंडकारण्य होगा
और जहाँ अरण्य होगा
वहाँ बाघ का हमला होगा”
कवि के लिए आज का ‘बाघ’ कई-कई रूपों में चुनौती पेश कर रहा है. वह उसके समाज के लोगों को ही संक्रमित नहीं कर रहा है बल्कि उनके इतिहास को भी संक्रमित (acculturation) कर रहा है. वह इतिहासकार बनकर उनके इतिहास को पितृसत्तात्मक, आलौकिक और ईश्वरीय बना रहा है. इसके जरिये वह समाज के स्त्री-पुरुष संबंधों, समाज और व्यक्ति के संबंधों में एक श्रेणीक्रम विभाजन बनाने का उपक्रम कर रहा है. ऐसा केवल भारत में नहीं है. यह दुनियाभर के आदिवासियों के साथ हो रहा है. दुनियाभर के आदिवासी रचनाकार इसके प्रतिरोध में रचनात्मक अभिव्यक्ति के लिए अपनी वाचिकता की ओर रुख कर रहे हैं. वैश्विक ‘बाघ’ और उसके दलालों के वैचारिकी आलोचना के लिए अपने मिथकों और कथाओं के बिंबों और प्रतीकों का सचेत चुनाव आदिवासी रचनाकारों की यह ‘वैचारिक रणनीति’ मानना चाहिए. क्रिस्टीना फैगन (Christina Fagan) ने इस रणनीति को समझने के चार सूत्र दिए हैं:
1.”रचनाकार केंद्रित पाठ जिसमें उसके लेखन शैली का अध्ययन हो.
२.स्थानीय परंपरा और आंदोलनों का सांस्कृतिक अध्ययन.
3.लेखक के भाषा और प्रभाव का अध्ययन जिससे वह उन पाठों के राजनीतिक और सौंदर्यशास्त्रीय अर्थों को अपने पुरखा विचारों से संबद्ध करते हैं.
4.पाठकों के पाठकीय विवेक का विश्लेषण करना जिससे सामान्य पाठक और आलोचक के मतों के अंतर स्पष्ट हो.”
रचनाकार को यदि इस लंबी कविता के केंद्र में रखते हैं तो उसकी पृष्ठभूमि और लेखन शैली दोनों को साथ रखकर विश्लेषित करना होगा. रचनाकार स्वयं आदिवासी हैं. वे आदिवासी होने के साथ मुख्यधारा के समाज का भी अभिन्न हिस्सा हैं. वो मुख्यधारा के वैचारिक दुनिया की सीमाओं और उनकी चालाकियों से परिचित हैं. उस चालाकियों में शामिल होने से बचना लेखक के लिए रोज-रोज की चुनौती है. कविता की ओर बार-बार लौट कर आने का एक कारण उन चुनौतियों से खुद को बचाने का सचेत प्रयास है. जब भी कविता की ओर कवि लौटता है तो प्रायः उसकी कविताएँ लंबी हो जाती हैं. लंबी कविता उसकी पहचान बन गयी है. आदिवासी की पहचान मितभाषी होने की रही है. फिर ऐसा क्यों है कि एक आदिवासी कवि लंबी कविताएँ लिख रहा है? इसका सीधा उत्तर है कि आदिवासी प्रकृति से गहरे जुड़ाव रखता है. उसके साथ होने में वह पारंपरिक रूप से कम शब्दों में गीत रचता रहा है. बाहरी हमलों से आदिवासी और प्रकृति दोनों को अलग-थलग हुए हैं. इससे जो तनाव, प्रतिरोध और अलगाव पैदा हुआ उसे पारंपरिक गीतात्मक शैली और कम शब्दों में रच पाने में कवि खुद को असमर्थ पाता है. उसके पहले के पीढ़ी में रामदयाल मुंडा भी इसे स्वीकार कर चुके हैं. याद कीजिये मुख्यधारा की हिंदी कविता आधुनिक काल में औद्योगिक विकास, शहरीकरण, प्रिंटिंग प्रेस, नगरीय जीवन शैली और आधुनिक लोकतंत्र के विफलताओं से प्रभावित होकर गद्यात्मक और लंबी होती गयी. यह कवि का समसामयिक समय है जो उसे लंबी कविता के लिए बाध्य कर रहा है.
पांच)
ध्यान देने योग्य बात यह है कि कवि अपनी लंबी कविता हिंदी भाषा में लिखता है जो उसकी मातृभाषा नहीं है. नगुगी वा थ्योंगों भाषा के बारे में कहते हैं कि
“भाषा संस्कृति की वाहक है और संस्कृति अपने मौखिक और लिखित साहित्य के जरिए मूल्यों के उस समूचे पुंज को लेकर चलती है जिसके जरिए हम स्वयं से साक्षात्कार करते हैं और विश्व में अपनी स्थिति का एहसास करते हैं.”
दूसरी भाषा में लिखने के खतरे यह हैं कि रचनाकार जाने-अनजाने उस भाषा के बिंबों, प्रतीकों और मिथकों का प्रयोग करने लगता है और धीरे-धीरे वह उनकी संस्कृति का वाहक बन जाता है. कवि को अपनी बात बड़े समूह तक संप्रेषित करना है. वह एक रणनीति के तहत हिंदी में लिखना चुनता है और कविता में हिंदी भाषा का ‘आदिवासीकरण’ करता है. यहाँ ‘आदिवासीकरण’ का अर्थ भाषा में अपने साहित्यिक पक्ष को प्रस्तुत करने से है. इस शब्द का ‘वर्चस्व’ के दिकुवादी अवधारणा से कोई रिश्ता नहीं है. कवि ने भाषा के जरिए विश्व में अपनी स्थिति को स्पष्ट करते हुए खुद को विश्व आदिवासी समुदाय से जोड़ता है.
उनका पक्ष है:-
“दंडकारण्य केवल दंडकारण्य नहीं है
अबूझमाड़ की ध्वनियाँ अबूझ नहीं हैं
वह एक गीत है, रूपक है, दर्शन है
वह डूम्बारी बुरु है, सेरेंगसिया है
वह मानगढ़ है, भूमकाल है
अमेजन है, सारंडा है”
यहाँ ‘अमेजन’ कवि का विश्व आदिवासी समुदाय और कविता में उसका साहित्यिक पक्ष है.
क्रिस्टीना ने जिस स्थानीय परंपरा के अध्ययन की बात कही है उसे इस लंबी कविता में लगभग हर पृष्ठ पर विश्लेषित किया जा सकता है. कवि ने हिंदी भाषा में मुंडारी भाषा के मिथकों,बिंबों और प्रतीकों का इतना रचनात्मक प्रयोग किया है कि लिपिबद्ध भाषा होते हुए भी एक ‘ऑरेचर’ सुनने का भ्रम होने लगता है. कवि स्थानीय परम्परा से गुड़ी, बंदई,घोटुल, जदुर, करम, देंवड़ा, दिकु, गुन्गू, बहिंगा, दई, बुनुम जैसे शब्द चुनता है और कविता में इससे प्रतिरोध की वैचारिकी निर्मित करता है.
कविता में अहद सिंग, डोडे वैद्य, लुटकुम हड़म, लुटकुम बूढ़ी, सोसोबोंगा, सात जन जैसे कई मिथकीय प्रतीक हैं. इन मिथकीय प्रतीकों के जरिए कवि अपने पुरखों के विचार संप्रेषण की भूमिका का निर्वहन तो कर ही रहा है साथ में कविता में दो हिस्सों में बँट चुकी दुनिया की सभ्यता समीक्षा भी प्रस्तुत कर रहा है. डोडो वैद्य और उनके साथ शिष्यों के आपसी संवाद में आधुनिक सभ्यता,उसके दम्भ भरे वैज्ञानिक उपलब्धियों और व्यक्तिवादी स्वार्थपरता का मुखर आलोचना है. डोडो वैद्य अपने शिष्य रुसू से कहते हैं,
“वह पहाड़ जिसकी पूजा से बसंत खिल उठता है
यदि उसे दफना दिया जाए तो
सूरज क्यों न अपनी दिशा खो दे?
सूरज क्यों न क्रोधित हो जाए?
यदि उसकी उस सीढ़ी को उसके
रास्ते से हटा दिया जाए तो
क्यों न वह आग उगलेगा?”
इन पंक्तियों में का वाचक मिथकीय पात्र हैं लेकिन घटनाएँ सब वर्तमान समय की है. वर्तमान और मिथक के बीच इस सहसंबंध से ही कवि आदिवासी कविता के राजनैतिक विचार और सौंदर्यशास्त्रीय मानक गढ़ रहा है. किसी कविता की सार्थकता इसमें है कि वह सामान्य पाठक को अपनी बात,कविता से अपने सरोकार और बिंबों-प्रतीकों से उसे उसकी दुनिया से उठाकर अपनी दुनिया में भ्रमण करवाए और स्थापित मूल्यों-संस्कारों पर पुनर्विचार के लिए प्रेरित करे. यह लंबी कविता अपनी पहली पंक्ति से अंतिम पंक्ति तक सामान्य पाठक को भी आदिवासी दुनिया में घट रहे घटनाओं का दर्शक बनाए रखती है. कविता खत्म होते ही पाठक महसूस करता है कि वह एक दुनिया से दूसरी दुनिया में आ गया है जिसके लिए आदिवासी समाज में ‘अहद सिंग’ के पौधे की मिथकीय कथा है. इस पौधे पर पैर रखने से व्यक्ति दूसरी दुनिया में चला जाता है. कवि का उद्देश्य सामान्य पाठक को अपनी दुनिया से जोड़ना है और दो दुनिया के बीच एक संबद्धता को बढ़ावा देना है जिससे सहजीविता मजबूत हो.
आलोचक को पाठ के साथ बनाए रखना और उसे मजबूर करना कि कविता के वैचारिक और सौन्दर्यमूलक विश्लेषण के लिए वह कविता के भीतर से ही मानकों को तय करे यह कठिन काम है. आलोचक प्रायः विश्लेषण में पाठान्तर हो जाते हैं. इससे कविता का मौलिक विश्लेषण अधूरा रह जाता है. इस लंबी कविता में जब कोई आलोचक पाठक के रूप में खुद शामिल करता है तो उसे तो कविता से पहले मिथकों की दुनिया को समझना पड़ता है. जैसे ही वह मिथकों की दुनिया में प्रवेश करता है वह उनके ऑरेचरी का हिस्सा बन जाता है. इस प्रक्रिया से बाहर आते ही फिर कविता का विचार उसे बांधने लगता है. ऐसे में वह चाहकर भी हिंदी कविता के मुख्यधारा के सौन्दर्यमूलक मानकों को इस कविता पर जबरन आरोपित करने में असमर्थ हो जाता है. अगर वह हठपूर्वक ऐसा करता/करती है तो कविता का अर्थ ही खुलकर नहीं आ पाएगा. एक अच्छा आलोचक स्वाभाविक है ऐसे हठ और कुपाठ से बचेगा/बचेगी. इस तरह यह कविता सामान्य पाठक और आलोचक दोनों का ‘आदिवासीकरण’ करने में सफल हो जाता है. इससे क्रिस्टीना जो आदिवासी पाठ के पढ़ने का चौथा सूत्र देती हैं वह सफल हो जाता है.
इस लंबी कविता के विश्लेषण को संक्षेप में प्रस्तुत करना हो तो यह कह सकते हैं कि आदिवासी रचनाकार पाठकों को अपने वाचिक परंपरा और सहजीवी जीवनशैली की ओर ध्यानाकर्षित करना चाहते हैं जिसे रोमैन मोरटॉन(Romaine Moreton) अपने शब्दों में “संबद्धता” (relationality) कहती हैं. यह ‘संबद्धता’ ‘बाघ और सुगना मुंडा की बेटी’ में दो तरह के विचार के साथ आता है. पहला, जो भी आदिवासियत के विचार को अपनाते हुए ‘साहसी प्रतिबद्धता’ के साथ आदिवासियों से जुड़ेगा वह उसका सहधर्मी होगा जिसके लिए कवि कहता है कि,
“हमें तादाद के लिए नहीं
सहजीविता के लिए
अपने सहधर्मियों की खोज करनी होगी”.
दूसरा विचार आदिवासी समूह के लिए है कि उन्हें अपने अस्मिता-अस्तित्व के लिए संघर्ष करना है तो सबको बिरसी की तरह बनना होगा और अपने पुरखों के ‘आदिवासी गणतंत्र’ में एकत्रित होकर नियमित संवाद करना होगा. कविता में कवि न्योता दे रहा है,
“सुनो रे हे टिरुंग
सुनो रे हे असकल
संगी सगोतियों को
न्योता देते जाओ.”
महेश कुमार |
ये बहुत दिलचस्प और उतना ही सारगर्भित आलेख है । इस आलेख में किसी अध्येता का बुद्धिविलास नहीं निर्मल सच्चाई है ।
तैयारी के साथ लिखा गया लेख
बधाई ही बधाई
आलोचना मुख्य-धारा है? यदि लेख मुख्यधारा के लिए लिखा गया है तो लेख में विस्तार या संदर्भ इत्यादि की गुंजाइश बनती है? मुझे समझ नहीं आया यह लेख. इस लेख को पढ़ने की क्या तैयारी करूँ?
बहुत सुन्दर
आदिवासी चिंतन और विचार का विलक्षण काव्यान्तरण है अनुज लुगुन की कविता। हिंदी भाषी समाज और साहित्य में आदिवासी मुद्दे और संस्कृति की सर्जनात्मक घुसपैठ है अनुज की कविता। इस तरह से हिंदी कविता भी समृद्ध हो रही है। महेश ने अत्यंत अकादमिक युक्ति से ‘बाघ और सुगना मुंडा की बेटी’ लंबी कविता का ‘भाष्य’ किया है। कई बार इस तरह की विद्वतापूर्ण आलोचना सहज कविता को भी असहज बना जाती है। कविता की सहजता, कविता की आत्मा और कविता का कवितापन आलोचना के केंद्र में होना चाहिए और विचार को पृष्ठभूमि में, तभी पाठक कविता का वाजिब लुत्फ़ उठा सकता है। जिस तरह गायन में वाद्ययंत्र गायकी को सपोर्ट करने के लिए होते हैं। आलोचना रचना को खोलती है, उसे पाठकों के समीप ले जाती है, उसे पाठकों का हमसफ़र बनाती है। महेश की आलोचना-दृष्टि संभावनाशील है। कवि अनुज और आलोचक महेश कुमार को बहुत बहुत बधाई।