जन्म शताब्दी वर्ष |
देव आनंद एक अभिनेता का ही नहीं, एक स्पिरिट, एक चेतना, एक भाव, एक मन:स्थिति का नाम है.
एक जवानी जो उम्र से ज़्यादा रूह की है. एक उत्साह जो समय के साथ मंद मंथर नहीं पड़ता. एक जीवन जो थकान और उदासी और मोहभंग की क्लान्ति को प्रवेश की इजाज़त ही नहीं देता. एक अप्रतिहत ऊर्जा पुंज जो सफलता असफलता से निरपेक्ष अपनी कसौटी स्वयं है.
देवआनंद हमारे भीतर के अदम्य और चिरन्तन रोमांस को साकार करते हैं. वे हमारी उस आवारगी को पर्दे पर मूर्त करते हैं जो हमारे अपने जीवन में छीजती चली जाती है. वे उस खिलंदड़पन की लापरवाह अदायगी करते हैं जो जीवन को एक ऊर्जस्वित नएपन से भर देता है.
संक्षेप में, देव आनंद अपनी छरहरी काया में हम सबके उस जीवन का चलता फिरता स्मारक रहे जिसे हम जीना चाहते हैं और जी नहीं पाते. दुनियादारी हमसे वह सब छीन लेती है जो देव आनंद ने अंतिम क्षणों तक सहेजे रखा: सपने देखने और उनसे आगे बढ़कर और सपने देखते रहने का साहस.
वे एक शैली थे. वे एक अदा थे. वे एक शरारत थे. वे एक मुस्कुराहट थे. वे एक हँसी थे. वे झूलते हाथों और हिलते हुए सिर और स्टाइलिश टोपियों और शर्ट के ऊपरी बन्द बटन और रंगीन या चौखाने की पतलूनों में एक चलती फिरती विद्युत तरंग थे.
ताज्जुब नहीं कि उनके साथ काम करने वाली अभिनेत्रियों को लगता रहा कि देव एक ऐसी एक्सप्रेस ट्रेन की तरह हैं जो रुकना जानती ही नहीं. 1946 में अपनी पहली फ़िल्म करने वाले देव आनंद ने महज़ तीन साल बाद अपनी प्रोडक्शन कम्पनी शुरू कर दी थी जो उनके अवसान तक चलती रही.
आनंद बन्धु (चेतन आनंद, देव आनंद और विजय आनंद) भी कपूरों की तरह हिंदी सिनेमा के पहले परिवारों में से हैं. देव के बड़े भाई चेतन आनंद लाहौर से ग्रेजुएट थे, पत्रकार और शिक्षक रहने के बाद, रंगमंच की तरफ़ आए और अंततः फ़िल्मों से जुड़े. वे इप्टा से सम्बद्ध थे और प्रयोगशील सिनेमा के पहले हस्ताक्षरों में से एक रहे. उनकी ‘नीचा नगर’ ने कान्स में 1946 में सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म का ख़िताब जीता था.
धर्मदेव आनंद ने, जिन्हें उनके साथी डीडी के नाम से पुकारते थे, भी अंग्रेजी साहित्य के साथ स्नातक उपाधि ली थी. अरमान तो स्वतंत्रता पूर्व के भारत की रॉयल इंडियन नेवी में जाने के थे लेकिन बात कुछ बनी नहीं और पिताजी की सलाह मान कर वे एक अकाउंटेंसी फ़र्म में पचासी रुपए महीने पर क्लर्क बन गए.
बड़े भाई की सफलता और फ़िल्मों का ग्लैमर देव को भी सिनेमा में खींच लाया और कुछ सफल फ़िल्में देने के बाद दोनों भाइयों ने 1949 में ‘नवकेतन’ की स्थापना की. इसके साल भर पहले ही राजकपूर ने ‘आर के फिल्म्स’ की स्थापना की थी. इन दोनों बैनरों ने लंबा सफ़र तय किया है. यह वह समय था जब ‘नवकेतन’ में गुरुदत्त, साहिर, बलराज साहनी और जयदेव जैसे गुणवंतों की चहलपहल थी. देव के शुरुआती चरित्र भी शहर के अंधेरे कोनों के बाशिंदे थे. बाद में जब देव की रूमानी रंगत को अधिक बड़ी पहचान मिली और दृश्य में विजय आनंद का प्रवेश हुआ, नवकेतन भी अंदरूनी बदलाव से गुज़रा. चेतन आनंद के असर से दूर होते हुए देव आनंद ने विजय आनंद के रोमांटिक थ्रिलर्स में ज़्यादा बड़ी व्यावसायिक सफलताएं हासिल कीं जिनसे उनके बाज़ार-कद में इज़ाफ़ा हुआ. तीनों भाइयों के बीच का यह समीकरण भी बड़ा दिलचस्प है जिसमें देव एक मध्यवर्ती उपस्थिति हैं जो इन दोनों भाइयों की अलग अलग दुनियाओं में हमें मिलते हैं.
चेतन ने ‘अफ़सर’, ‘आंधियां’, ‘टैक्सी ड्राइवर’, ‘फंटूश’, और फिर बहुत बाद में ‘जानेमन’ का निर्देशन किया.
विजय आनंद ने ‘नौ दो ग्यारह’, ‘काला बाज़ार’, ‘तेरे घर के सामने’, ‘गाइड’, ‘ज्वेलथीफ़’, ‘तेरे मेरे सपने’ और ‘बुलेट’ में देव को निर्देशित किया. इस तरह उनकी एक नयी छवि बनी और उसे पुख़्तगी मिली.
नवकेतन ने उनतालीस फ़िल्में बनाईं जो परिमाण में तो आर के फिल्म्स की बनाई फ़िल्मों से लगभग दुगनी हैं लेकिन ‘देस परदेस’ के बाद की फ़िल्मों में पटकथा की गुणवत्ता में क्षरण बहुत तीव्र गति से होता गया. इसकी वजह उनका सिर्फ़ अपनी बात सुनना, अपनी ही तेज़ रफ़्तार में रहना, कोई परवाह न करना, आसपास चेतन और विजय जैसे भाइयों की प्रेरक उत्तेजक मौजूदगी न रहना और बदलते समय के साथ उस धार को खो देना भी रहा होगा जो कभी उनमें रही थी.
बहरहाल, देवआनंद हिन्दी सिनेमा की महान त्रयी का वह विरल कोण हैं जो दिलीप कुमार के आत्मपीड़न और राजकपूर की आत्मदया से बिल्कुल अलग अपने हठीले रूमान में, अपने अलबेलेपन में, अपनी मस्ती में हर फ़िक्र को धुंए में उड़ाने वाले जानलेवा अंदाज़ में ज़िंदगी का साथ निभाते चले जाते हैं.
उनके समकालीन दिलीप कुमार को ऐसी कुछ भूमिकाएँ मिलीं जिन्होंने उन्हें अमर कर दिया. राज कपूर ने भी अपनी सक्षम टीम के बूते कम से कम श्वेत श्याम युग में एक बड़ी लकीर खींची. इनके मुकाबले देव आनंद के पास, ‘गाइड’ के अपवाद को छोड़ दें तो महत्त्वपूर्ण कहा जा सकने वाला सिनेमा प्रायः नहीं मिलेगा. देव आनंद का आकर्षण महानता और सफलता पर निर्भर नहीं है, वह उनका बहुत अनूठा और अबूझ व्यक्तिगत अर्जन है.
देव आनंद की ज़्यादातर भूमिकाओं पर गौर करें तो उनमें से ज़्यादातर में वे कुछ पता लगाना चाहते हैं. कुछ खोज रहे हैं. इन्वेस्टिगेशन कर रहे हैं. उन्हें निजी तौर पर देखें तो भी यही लगता है कि यह खोज उनके जीवन में हमेशा बनी रही. यह वह खोज नहीं, जो खोज लिए जाने के बाद ख़त्म हो जाती है. वे लगातार यात्रा में रहे जो मंज़िलों से आगे भी जारी रही. ऐसी सतत कर्मठता बहुत दुर्लभ है. ऐसी निस्संगता भी कि जिसे न सफलता, न ही असफलता किसी तरह आहत कर सके. देव आनंद सिनेमा को वास्तविक अर्थों में जीने वाली शख्सियत थे. एक व्यावसायिक क्षेत्र में, जहाँ नाकामयाबी अच्छे अच्छों के हौसले पस्त कर देती है, अपने अन्तिम दौर की फ़िल्मों की नाकामयाबी भी देव आनंद को रंच मात्र भी डगमगा न सकी.
वे बार-बार मुड़ कर देखते हुए, अतीत की लोकप्रियता और सफलता की स्मृति का उत्सव मनाते रहने वाले शख़्स नहीं थे. वे लगातार आगे बढ़ते रहने वाले, अपने को नया करते रहने वाले, अपनी प्रेरणाओं पर यक़ीन रखते हुए चलते रहने वाले, विकट जिजीविषा और अनाहत उत्साह में डूबे दुर्लभ और असाधारण व्यक्ति थे.
आपातकाल के बाद एक राजनीतिक दल के गठन जैसी हिम्मत उन्होंने दिखाई. यह बात और है कि वह टिपिकल देव आनंदाना तात्कालिक उत्साह की उपज थी जिसका न कुछ होना था, न हुआ. अटल जी की पाकिस्तान बस यात्रा के वे प्रमुख आकर्षण रहे. जो सम्मान देव आनंद ने फ़िल्म इंडस्ट्री में अर्जित किया उसकी बड़ी वजह यह रही है कि उन्होंने फ़िल्म इंडस्ट्री से जो कुछ हासिल किया, उसे भरसक अपनी क्षमतानुसार लौटाने का जज़्बा भी रखा. प्रतिभाओं को पहचाना, उन्हें अवसर दिए, उनकी क़िस्मत गढ़ी और अपने बैनर ‘नवकेतन’ को एक समय बुलंदियों पर पहुँचाया.
जीनत अमान, जैकी श्रॉफ, तब्बू, टीना मुनीम, जरीना वहाब आदि तब के अनेक नवागत अपने प्रथम या महत्त्वपूर्ण अवसर के लिए देवआनंद के शुक्रगुज़ार हैं.
किसी समय अपनी स्पोर्ट्स एक्शन फ़िल्म ‘अव्वल नम्बर’ में काम करने के लिए उन्होंने इमरान ख़ान को राजी करने की कोशिश भी की थी लेकिन इमरान माने नहीं और वह भूमिका आदित्य पंचोली ने की.
आरंभिक दौर में देवआनंद ज़्यादातर ऐसी दिलचस्प फ़िल्मों में नज़र आते थे जिनमें अपराध की पृष्ठभूमि हुआ करती थी. पचास और साठ के दशकों में वे एक रोमांटिक नायक बने जो अपनी नायिका से ऐसा डूब कर, मुसकुराता, शरारती प्यार करता था जैसा सिर्फ़ वही कर सकता था. देव का यही दौर भारतीय जनमानस में रचा बसा है.
कुतुब मीनार में नूतन के साथ ‘दिल का भंवर करे पुकार प्यार का राग सुनो’ गाते हुए देव हों या ‘तू कहाँ ये बता इस नशीली रात में’ की सांगीतिक पुकार लगाते हुए: ‘है अपना दिल तो आवारा न जाने किस पे आएगा’ गाते हुए ट्रेन में सहयात्री वहीदा रहमान से छेड़छाड़ हो या सत्तर के दशक में हेमा मालिनी के साथ असंख्य खिड़कियों में प्रकट होते हुए ‘पल भर के लिए कोई हमें प्यार कर ले, झूठा ही सही’ गाते हुए, देव नटखट रोमांस का ऐसा साकार हैं जिनसे पीढ़ियों का रिश्ता बनता है और जो पीढ़ियों के पार जाता है. चूंकि देव के पर्सोना में रूमान घुला हुआ है, क्या ताज्जुब कि हिन्दी सिनेमा के कुछ मधुरतम रोमांटिक गीत उन पर फ़िल्माए गए हैं. अभी न जाओ छोड़कर कि दिल अभी भरा नहीं, लिखा है तेरी आँखों में, गाता रहे मेरा दिल, आसमां के नीचे, ये दिल न होता बेचारा, ख़्वाब हो तुम या कोई हक़ीक़त, शोखियों में घोला जाए फूलों का शबाब, खोया खोया चाँद, छोड़ दो आँचल,फूलों के रंग से दिल की कलम से, आँखों में क्या जी, हम बेख़ुदी में तुमको पुकारे चले गए, अरे यार मेरी तुम भी हो ग़ज़ब, दिल आज शायर है….
यह सिर्फ़ गीत ही नहीं हैं; समय के आरपार रूमान का ऐसा आर्टिकुलेशन है जिसने इनकी फ़्रेम में देव आनंद की छवि को देश के मानस में सदा के लिए अंकित कर दिया है. देव के लिए रफ़ी ने बेशक कुछ यादगार गीत गाए हैं लेकिन उनके रोमांटिक और खिलंदड़ पर्सोना को किशोर कुमार के स्वर की वैसी ही युवता अधिक रास आई है. राजेश खन्ना के उदय से पहले देव आनंद, सचिनदेव बर्मन और किशोर कुमार की जो युति बनी, उसने किशोर कुमार को आने वाले समय के प्रमुखतम पार्श्वगायन स्वर के बतौर स्थापित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई.
यह जानना भी दिलचस्प है कि अलग स्वभावों के ये दो कलाकार- गुरुदत्त और देव आनंद अपनी नौजवानी में नज़दीक आए और उनमें गहरी मित्रता का सम्बन्ध रहा. देव आनंद की पहली फ़िल्म ‘हम एक हैं’ में गुरुदत्त सहायक निर्देशक थे. प्रभात स्टूडियो के दिनों में दोनों दोस्तों में समझदारी बनी कि अगर गुरुदत्त ने कोई फ़िल्म निर्देशित की तो देव उसमें अभिनय करेंगे और अगर देव कोई फ़िल्म बनाते हैं तो निर्देशन का जिम्मा गुरुदत्त को मिलेगा. देव जब स्टार बन गए तो उन्होंने गुरुदत्त को ‘बाज़ी’ का निर्देशन सौंपा जो बतौर स्वतंत्र निर्देशक उनकी पहली फ़िल्म रही. इसी तरह गुरुदत्त की ‘सीआईडी’ में देव हीरो थे. ‘बाज़ी’ कल्पना कार्तिक की भी पहली फ़िल्म थी. इसी फ़िल्म से शहरी अपराध कथाओं का एक सिलसिला चल पड़ा. इसी के गानों की रिकॉर्डिंग के दौरान गीता रॉय और गुरुदत्त करीब आए और बाद में विवाह सूत्र में बंधे.
यही फ़िल्म देव आनंद और कल्पना कार्तिक को साथ लाई, जो ‘टैक्सी ड्राइवर’ के निर्माण के दौरान जीवनसाथी बने. मोना सिंघा पंजाबी क्रिश्चियन थीं और शिमला से चेतन आनंद ने उन्हें खोजा था. उनका फ़िल्मी नाम कल्पना कार्तिक भी चेतन ने ही रखा. बाद में गुरुदत्त जहाँ इन क्राइम थ्रिलर्स से कॉमेडी और रोमांटिक फ़िल्मों से होते हुए ‘प्यासा’, ‘काग़ज़ के फूल’ और ‘साहब बीबी और गुलाम’ जैसी गहन गम्भीर फ़िल्मों की तरफ़ गए, देव आनंद रूमान और अपराध के अपने नशीले कॉकटेल पर लगभग कायम रहे.
कुछ अभिनेता अपने हुनर से आप में आश्चर्य और किंचित भयमिश्रित आदर उपजाते हैं लेकिन कुछ ऐसे अभिनेता होते हैं जिनकी देहभाषा, संवाद अदायगी और समूची शख्सियत से बहता बेलौस, बिंदास, ज़िद्दी, कुछ ऐबला अंदाज़ आपको उनके प्यार में डाल देता है. आपकी आलोचना भी उनकी दुर्निवार रूमानियत के आगे हथियार डाल देती है. देव आनंद ऐसे ही हीरो हैं. हम अंततः उनसे प्यार ही कर पाते हैं.
यह नहीं कि हर समर्थ अभिनेता की तरह देव आनंद ने अपनी इस छवि से अलग भूमिकाएँ नहीं कीं. ‘गाइड’ में एक चलते पुर्ज़े, गो-गेटर नायक के एक असफल दाम्पत्य से जूझती, कुंठित और अवसादग्रस्त स्त्री को वापिस जीवन की राह दिखाने वाले और फिर खुद भटक जाने की कथा है जिसे विडम्बना दूसरों के लिए जीवन होम कर देने तक ले जाती है.
‘गाइड’ देव आनंद का चिर स्मरणीय शाहकार है जिसमें चरित्र की एक समग्र यात्रा दिखाई देती है. लेकिन यह भी है कि अपवादों को छोड़कर सिनेप्रेमियों ने देव आनंद को बहुत गम्भीर भूमिकाओं में वैसा समर्थन नहीं दिया जैसा उनके समकालीनों- दिलीप कुमार और राज कपूर को दिया.
देव दिल में टीस नहीं, पुलक जगाते हैं. उनकी मुस्कुराहट, गर्दन का बाँकपन, अपने ख़ास अंदाज़ में तेज़ तेज़ लहरदार संवाद अदायगी, बालों के फुग्गे, खूबसूरत और खुशमिज़ाज व्यक्तित्व: ये सब मिल कर को दर्शकों के दिलोदिमाग़ में हमेशा के लिए नक्श कर देते हैं.
वे अपनी ‘निजी’ स्टारडम में, जिसके गिर्द उनकी स्टाइल का आभामंडल था, पूरी तरह अवस्थित हैं और उनमें असुरक्षाजन्य विचलन कभी नज़र नहीं आते. जहाँ उनके बाद आने वाले सुपरस्टार्स अपने व्यावसायिक मूल्य के उतार चढ़ाव में इस स्टारडम को बनाए-बचाए नहीं रख सके और समय के साथ श्रीहीन और लगभग दयनीय हो गए; देव आनंद अपनी निजी, विशिष्ट और अद्वितीय स्टारछवि में आजीवन कायम रहे क्योंकि यह उनके अभिनय की ही नहीं, जीवन की भी शैली थी. वे हमेशा विषयगत नएपन की खोज में रहे. यह नयापन किसी को रास आए या न आए. एक अनुमोदनाकांक्षी समाज में और एक ऐसी इंडस्ट्री में जहाँ सफलता अस्तित्व की अनिवार्य शर्त है, देव आनंद की यह निस्पृहता उनके निराले व्यक्तित्व की गवाही देती है. बावजूद इसके कि उनकी अंतिम फ़िल्में शायद ही देखी गई हों, देव आनंद कभी राइट ऑफ़ नहीं किए जा सके. वे दृश्य में हों या न हों, सन्दर्भों में हमेशा रहे. उम्र बढ़ने के साथ जब लोग अकेलेपन और अवसाद में घिरने लगते हैं क्योंकि उनके साथ के लोग जाने लगते हैं, समय बदल जाता है, उम्र की तकलीफ़ें थका और उकता देती हैं- देवआनंद सिर्फ़ खुद के साथ से ही सक्रिय रहने की तमाम ऊर्जा पाते रहे. उनके दिमाग़ में नए विचार और सूझें हमेशा खदबदाती रहीं.
बर्लिन फ़िल्म फेस्टिवल में पर्ल एस.बक और टैड डेनियलवस्की से हुई एक मुलाकात ने देव आनंद के भीतर अंतरराष्ट्रीय दृश्य पर उभरने की महत्त्वाकांक्षा का बीज रोपा था. किसी भारतीय लेखक के अंग्रेजी उपन्यास पर अमरीकी प्रोडक्शन में देव को लेकर फ़िल्म बनाने की बात हुई थी. आर के नारायण से ‘गाइड’ के अधिकार लिए गए जिन्हें फ़िल्म कभी जँची नहीं. अंग्रेजी में फ़िल्म पहले बनी किन्तु पश्चिम में कोई ख़ास पसन्द नहीं की गई. हिन्दी में विजय आनंद ने नए सिरे से पटकथा पर काम किया. संगीत तो शानदार था ही.
आज ‘गाइड’ हिन्दी में तो यादगार मानी जाती है किन्तु देव की अंतरराष्ट्रीय महत्त्वाकांक्षाएं अंग्रेजी ‘गाइड’ से पूरी नहीं हुईं. बाद में उन्होंने मनोहर मलगांवकार के उपन्यास ‘द प्रिंसेस’ (जो एक शाही परिवार की ऐतिहासिक कहानी है) के अधिकार हासिल कर ब्रिटिश अभिनेता एलेक गिनेस को राजा की भूमिका में लेते हुए यह फ़िल्म बनानी चाही किन्तु यह भी हो न सका.
1970 में ज़रूर देवानन्द ने एक अंग्रेजी फ़िल्म ‘द ईविल विदिन’ में सीक्रेट एजेंट की भूमिका की लेकिन यह फ़िल्म भारत में दिखाई नहीं गई. कुल मिला कर देव के ये सपने कभी फलीभूत नहीं हुए, लेकिन सपने देखते रहना उनके लिए साँस लेने की तरह था.
देव आनंद एक ऐसे बवण्डर की तरह रहे जिसने थमना जाना ही नहीं. सुरैया को, जिनके साथ उन्होंने सात फ़िल्में कीं और जिनसे उन्होंने पहला और गहरा प्रेम किया, जीवनसाथी बनाने में मिली असफलता ने भी उन्हें वक़्ती तौर पर मायूस तो किया होगा लेकिन ‘मूव ऑन’ उनका जीवनमंत्र रहा. सुरैया जहाँ आजीवन उसी मोड़ पर, और और अकेले होते हुए, अटकी रह गईं : देव कल्पना कार्तिक से शादी करके, उसके बाद और बावजूद, बहुतेरे रूमानी उलझावों में घिरते निकलते रहे. दोनों ने इस प्रेमप्रसंग पर कभी पर्दा नहीं डाला; देवआनंद ‘जो नहीं हुआ’ उससे आगे बढ़ गए. सुरैया ‘जो हो सकता था’ में स्थगित रह गईं.
वहीदा रहमान ने देवआनंद के साथ बहुत काम किया है और आज भी वे उस साथ को बहुत आत्मीयता से याद करती हैं. दो कलाकारों के बीच कम्फ़र्ट लेवल क्या और कैसा होता है, यह वह बार-बार रेखांकित करती रही हैं. शुरुआत में जब वे सीनियर होने के नाते उन्हें ‘देव साहब’ कहती थीं तो वे सिर्फ़ ‘देव’ बुलाने पर इसरार करते. वहीदा जी से फिर भी ऐसा हो नहीं पाता था. जब भी वे उन्हें देव साहब कहतीं देव ऐसे इधर उधर देखने लगते जैसे वहीदा किसी और से मुख़ातिब हों. आखिर यह झिझक टूटी. ‘गाइड’ में दोनों की यह केमिस्ट्री अपने चरम पर है.
फ़िल्म के अविस्मरणीय गीत ‘आज फिर जीने की तमन्ना है, आज फिर मरने का इरादा है’ में ट्रक का वह शॉट कमाल है जिसमें देव ट्रक में रखे पुआल पर बैठे हैं, पीछे खड़ीं वहीदा गाते हुए एक मिट्टी का घड़ा फेंकती हैं जिसके नीचे आने के साथ कैमरा भी नीचे आता है. सुरैया, नूतन, साधना, वैजयंतीमाला, मुमताज से लगा कर राखी, जीनत अमान और टीना मुनीम तक देवआनंद की प्रत्येक नायिका उनकी अद्भुत ऊर्जा से चमत्कृत और आविष्ट रही है.
‘ज्वेल थीफ़’ में उनके इर्दगिर्द वैजयंतीमाला, तनूजा, अंजू महेंद्रू, हेलन आदि अनेक अभिनेत्रियों का जमघट है जो विजय आनंद के शानदार निर्देशन में देव आनंद के सम्भावित हमशक्ल के रहस्य को गाढ़ा करता रहता है. इसके क्लाइमैक्स का गीत ‘होठों में ऐसी बात’ तो ऐतिहासिक है. इस अर्थ में भी कि यहाँ हीरो ने पृष्ठभूमि में रह कर नर्तकी अभिनेत्री को केन्द्र में रखा है.
देव आनंद हमारे स्वप्ननायक हैं. अपनी फ़िल्मों में वे बहुत भीषण संग्रामों में शूरता नहीं दिखाते. वे विकट त्रासदियों में नष्ट नहीं होते. वे किसी बहुत बड़ी बुराई के खिलाफ़ जंग नहीं लड़ते. वे सिर्फ़ प्यार करते हैं, इस तरह जैसे कोई और नहीं करता. वे अपनी बंकिमता में मोहते हैं. वे अपनी मुस्कुराहट में जीतते हैं. वे अपनी नायिका पर टूट कर फ़िदा होते हैं और हम उन पर. वे अपने गीतों में हमारे उपेक्षित, तिरस्कृत और कुचले हुए स्वप्नों को छू कर हमें नया स्फुरण देते हैं. वे हमें बताते हैं कि रसायन किसे कहते हैं और आवेगमयता क्या है. वे हमारी मधुरतम स्मृतियों को हरा कर देते हैं.
अट्ठासी बरस की उम्र में लंदन के वाशिंगटन मेफेयर होटल के कमरा नम्बर 207 में जब मृत्यु ने हृदयाघात के बहाने उन पर अंततः काबू पाया, उसके सिर्फ़ दो महीने पहले उन्होंने अपनी आखिरी फ़िल्म रिलीज़ की थी.
वे ‘हम दोनों’ के रंगीन संस्करण के रिलीज के मौके पर लंदन गए थे और साथ ही अपनी गिरती सेहत का इलाज करवाने भी. वहीं उनका अंतिम संस्कार हुआ.
उनका जाना जैसे ओझल ही रहा. उस शोक में उन्होंने किसी को शरीक होने का जैसे अवसर ही नहीं दिया. देव आनंद निरन्तर गति थे, मुसलसल रफ़्तार थे, एक लगातार हलचल थे: लोगों को वे कैसे ख़ामोश, निश्चेष्ट, निष्प्राण दिखाई दे सकते थे? वे जीवन से रोमांस करने वाले शख़्स रहे, मृत्यु के साथ इस नए रिश्ते में कैसे नज़र आ सकते थे? वे ऐसे गए जैसे मृत्यु उनका व्यक्तिगत मामला था. ठीक वैसे ही जैसे कभी ‘टैक्सी ड्राइवर’ के शूटिंग ब्रेक में वे कल्पना कार्तिक से शादी रचा कर लौट आए थे क्योंकि वह भी उनका व्यक्तिगत मामला था.
अपनी जीवनगाथा को आत्मकथा के रूप में दुनिया को सौंप कर भी अपने निजी आईने में प्राइवेट पर्सन की तरह खुद को देखते रहने वाले देव आनंद दुनिया से इसी तरह जा सकते थे.
अंत के समय क्या उन्हें ‘गाइड’ का अपना यह अंतिम संवाद याद आया होगा ?
‘मौत एक ख़याल है, जैसे ज़िंदगी एक ख़याल है.
न सुख है, न दुख है, न दीन है, न दुनिया. न इंसान, न भगवान.
सिर्फ़ मैं हूँ, मैं हूँ, मैं हूँ… मैं … सिर्फ़ मैं.
दूर पहाड़ पर पानी बरस रहा है. शरीर भीग गया. चलूँ. बदल लूँ.’
आशुतोष दुबे (1963)
कविता संग्रह : चोर दरवाज़े से, असम्भव सारांश, यक़ीन की आयतें, विदा लेना बाक़ी रहे, सिर्फ़ वसंत नहीं. |
बहुत ही उम्दा लिखा है। “देव आनंद हमारे स्वप्ननायक हैं।” यह बात कितनी सरलता से उनको सामने रख देती है। महान होने के लिए सामान्य, सरल और अबूझ होना कभी कसौटी नहीं रहा। वैसे देव साहब को सामान्य कहना तो पाप है मगर अपने समकालीनों में सबसे अधिक सामान्य और आम हाशिए के, अंधेरे के लोगों के नायकत्व भरी भूमिकाएँ करते हुए भी कितनी गहरी लकीर खींची।
आपने बहुत ही अच्छा लिखा है।
आभार यह लिखने के लिए।
देव आनंद को मैंने गुरुदत्त के बाद सबसे अधिक पसंद किया। वो मुझे सदैव सपनीले लगे ख़ासकर जो उनकी श्वेतश्याम फ़िल्में हैं उनमें। उनकी बहुत फ़िल्में मेरी देखी हुई हैं पुरानी से पुरानी भी। वो एक ऐसे नायक रहे जो शायद अपनी मृत्यु के दिन तक बूढ़ा नहीं हुआ। उनकी बायोग्राफी ‘romanticising with life’ उनका जीवंत दस्तावेज़ है जिसका शीर्षक उनकी हर अदा से मेल खाता है। अग्रज श्री आशुतोष दुबे से बहुत दिनों पहले से मेरा आग्रह रहा है कि वो हिंदी सिनेमा पर एक पुस्तक लिखें, इसका कारण उनकी इस विषय पर विपुल जानकारी और पकड़ है। सिनेमा पर लिखना सरल नहीं होता, ख़ासकर पुराना हिंदी सिनेमा जो संगीत और कला के क्षेत्र में इतना समृद्ध है कि उसके हर क़िरदार को उसके जीवन में उतरकर झाँकना होगा, उसके संगीत की हर धुन को सुनना होगा। वो सिनेमा हमारी आम जनमानस के दुःख सुख की रोचकताओं से भरपूर है, जहाँ हँसी की खनक के साथ झकझोर देता विलाप भी सुनाई दिखाई देता है। समालोचन, अग्रज और अरुण सर को बहुत बधाई 🙏🙏
कवि आशुतोष दुबे द्वारा देव आनंद के 100 वें स्मृति दिवस पर लिखा गया यह एक असाधारण लेख है क्योंकि देव साहब के बहाने आशुतोष जी ने करोड़ भारतीयों के सामूहिक अवचेतन में बैठी हुई रोमान की उस परिकल्पना को गंभीर अर्थों में परिभाषित करने का प्रयास किया है जो देव के व्यक्तित्व को आधी सदी तक एक नायक का व्यक्तित्व बनाती रही। यह विश्लेषण इसलिए भी बहत महत्वपूर्ण है क्योंकि हमारा उच्च – भ्रू किस्म का साहित्यिक मिजाज अक्सर इन विषयों और ऐसी चर्चाओं
हेय दृष्टि से देखता रहा है।
कवि आशुतोष दुबे देवानंद की जीवन गाथा और उनके फिल्मी सफर को काव्यात्मक भाषा में दर्ज करते हैं । देवानंद के जीवन, आत्म संघर्ष, उत्थान और उनके अंतिम दिनों का बहुत रोमांचक वर्णन इस लेख में है । देवानंद को लोगों ने उनकी अदाओं में जिया, उनके बालों के फुग्गे में जिया ,उनके बोलने के अंदाज में जिया ।यह सब कुछ समाहित किया है आशुतोष ने इस रोचक लेख में । बहुत-बहुत बधाई -शरद कोकास
शानदार लिखा है। सच, देव हमारे स्वप्न नायक हैं। देव की खासियत उनका रूमान तो है लेकिन अपनी शर्तों और अदा के साथ जीना ज्यादा है। दिलीप कुमार की क्लासिकी और राज कपूर की आम आदमी के साथ खड़ी फिल्मों से इतर देव में एक खिलंदड़पन है, उनका अपनी अदा में, अपनी फिल्मों के चयन से खुद को खास बना लेना अदभुत है। देव हमारी दुनिया के स्टाइल आइकन भी हैं। बेहतरीन लेख के लिए बधाई
आशुतोष जी ने कमाल का लिखा है।बिना किसी अतिरंजना के वे देव साहब के अभिनय और जीवन की बारीकियों को पकड़ते हैं।सूक्ष्म अंतर्दृष्टि और सिनेमा की गहन गंभीर जानकारी से लैस यह आलेख लंबे समय तक याद किया जाएगा।हिंदी सिनेमा के अन्य अभिनेत्ताओं/अभिनेत्रियों/कलाकारों पर भी उनकी नजर से देखने की इच्छा हिंदी के हम जैसे पाठकों की है।आभार आशुतोष जी और समालोचन।
ज़िन्दगी की मे कभी सोचा भी नही था की ऐसा सुनहरा मौका दुबारा मिलेगा..पुरानी फिल्मों को नए जमाने में दोबारा देखना जैसे ज़िन्दगी गी मे बहुत बड़ी लोटरी लगाने जैसा है.. मैंने कल ही 58 साल बाद थिएटर मे गोरेगांव ओबेरॉय मॉल मे कुछ आँसू भरी आँखों से और इसी फ़िल्म से जुडी बहुत सी यादों के साथ देखी.. शुक्रिया एनएफडीसी, एनएफएआई, फिल्म हेरिटेज फाउंडेशन और पीवीआर। ऐसे आयोजन होते रहेना चाहिए 🙏🌺
आशुतोष जी सचमुच देवानंद के जीवन पर आपने जो लेख लिखा वह देवानंद के जीवन की पुरी यात्रा का वर्णन है, और न सिर्फ देवानंद बल्कि उनके साथ-साथ उनसे जुड़े हुए हर व्यक्ति और व्यक्तित्व के बारे में आपने बहुत कुछ लिखा। देवानंद का जीवन चरित्र कहां से प्रारंभ होकर कहां पर उसका अंत हुआ संपूर्ण जीवन यात्रा का वृतांत आपने अपनी लेखनी में बताया है। बहुत कम जानकारी हम को थी लेकिन आपके लेख के बाद बहुत सी जानकारी हमको देवानंद के बारे में जानने को मिली है। आपने उनके जीवन के हर पहलुओं को छुआ है।
इस आलेख की काव्यात्मक गति मुझे प्रभावित करती है, उस अल्हड़ रवानगी के साथ जो देवानन्द में दिखाई देती है। खास न हो जाना ही देव साहब का खास हो जाना है। देव साहब सदा आत्ममुग्ध बने रहे हैं, अपने आप में अपनी पूरी दुनिया समेटे। और समेटते हुए अपनी इस दुनिया का आसपास।
इस आलेख में हम देव साहब को झाँकता हुआ देख पाते हैं।
आलेख से इतर एक बात, आशुतोष जी की आँखों में मुझे हमेशा देव साहब की आँखें मुसकुराती दिखाई देतीं है।
देव कलकल बहती नदी की तरह रहे, बस चलते रहना, कोई मुकाम, ठिकाना नहीं. किशोर, युवा वर्ग के अवचेतन मन में दुनिया रूमानी सी, बस प्यार. देव बस इस अवचेतन के प्रतिनधि रहे, भरपूर स्नेह पाया.
यह आलेख भी देव की अपनी ज़िन्दगी की रवानी सा, सहज, सरल, कोई दुराव छिपाव नहीं क्रिस्टल क्लियर सा, बधाई…
भाषा में देवानन्दी तरलता पाठक आजीवन जीता रहेगा। लेखक ने अपना धर्म अपना राग अपनी व्यसनप्रियता उसी तरह जी है जिस तरह देव साहब ने अभिनय कला में जी है। हिन्दी का यह वैभव यदि स्मृति की क्षीणता के चक्कर मे न आया तो यह आजीवन स्पंदित रहने वाली सामर्थ्य रखती है।
देव के बहाने आपने जीवन की कितनी गहरी विवेचना की ,वाह 🙏
आशुतोष दुबे की भाषा शैली और ख़ूबसूरत विशेषणों और क्रियाओं का उपयोग करते हुए यादगार लेख लिख दिया है । बधाई ।
मेरी पसंद का गाना- है कहाँ तू बता इस नशीली रात में माने न मेरा दिल दीवाना की याद करायी ।
बेहद सुंदर आलेख। देव साहब जैसे जीवंत हो उठे हैं इस लेख में। बधाई आशुतोष को!
आशुतोष जी सिनेमा के विषय पर रोचकता के साथ लिखते हैं। जानकारियां भी सनसनीखेज तरीके से नही रखते (जैसा अखबारी लेखों मे होता है)।
देव साहब को जिस तरह से यहाँ याद किया गया है उसमे उनके कार्यों की विवेचना नही है बल्कि उस ऑरा को दर्ज करने की कोशिश की गयी है जो देव साहब को देव बनाता था। उस ऑरा को डीकोड नही किया जा सकता और न ही ऐसी कोई मंशा आशुतोष जी ने दिखाई है। यह लेख उन्हे याद करने के लिए लिखा गया है और याद ऐसी कि देव जी का ऐसा फैन भी जो उनके समय के आस-पास का नही है (मै) , वह भी मुस्कुराये बिना नही रह पाता।
धन्यवाद आशुतोष सर और समालोचन
अरुण सर क्या बेहतरीन अंक चित्र बनाया है आपने, बहुत ही सुंदर और अद्भुत। आलेख को चार चाँद लगा दिया इसने.
देवानन्द पर आशुतोष का लेख हमारे जल को हिलकोर गया।हमारे भी सबसे प्रिय अभिनेता देवानन्द ही रहे और एक जमाने तक मैं उनकी नक़ल करता रहा जो टोपियों के शौक़ में आज भी पीछा कर रहा है।देवानन्द ने शहर के तलछट चरित्रों को अमरता दी।हम सब में एक देव है,एक आनन्द,देवानन्द ।
देव आनंद पर आशुतोष दुबे का यह एक कंपलीट और अच्छा लेख है. लेकिन कुछ हिस्सों पर मैं उनसे असहमत भी हूं. मसलन, उन्होंने लिखा है देव आनंद के हठीले रूमान में …. / रूमान का आर्टिकुलेशन …. / उनका खिलंदड़ परसोना. ….
रूमानियत — कभी भी हठीली नहीं हो सकती, वह कोई मुखौटा नहीं ओढ़ती और उससे कभी भी खिलंदड़पन नहीं टपकता. इसके उलट वह बहुत सहज, एकदम इनेट और गहरे सरोकार से भरी हुई रहती है.
देव आनंद के अभिनय का अलमस्त अंदाज़ राज कपूर और दिलीप कुमार के दौर में भी एक डिस्टिंक्ट फैशन आइकन बन कर 20 से 50 उम्र वाले सिने प्रेमियों के दिलों पर एक समान रूप से राज करने लगा. इतना ही नहीं, देव आनंद से बीस साल छोटे राजेश खन्ना की एक्टिंग में भी उसकी छाया देखी जाती रही.
पढ़कर यूँ लगा देवानंद ब्लैक सूट में अपनी मोहक बाँकी अदा के साथ सामने खड़े हैं। ऐसी ही तरल भाषा में बँध सकते थे वे। कहना चाहिए बह सकते थे वे। भाषा भी एक चोला ही है। कमाल की लिखत 😊💐💐
पढ़ा, मजा ले कर पढ़ा, मैंने बहुत बचपन में हम दोनों देखी थी, मेरी देखी देवानन्द की की वह पहली फिल्म थी, बड़ा आश्चर्य था भला डबल रोल कैसे फिल्माया गया होगा, खूब कयास लगाया जाता।
आपका लेख एक अलग खुशबू से भरा हुआ है। अरुण देव, समालोचन एवं आपको बधाई।
बेहतरीन आलेख
बहुत अच्छा लिखा है आपने। देव साहब के विराट व्यक्तित्व को शब्दों में बांधना इतना आसान नहीं था लेकिन आप सफल रहे। देव साहब का बेफिक्र अन्दाज़ ही उन्हें उनके समय के अन्य अभिनेताओं से अलग करता है।
गाइड में देवानंद अलग ही भूमिका में थे। आपने देवानंद की बहुमुखी भूमिका और उनके व्यक्तित्व पर बेहद खूबसूरत आलेख लिखा है इस लेख के माध्यम से मैं देवानंद को थोड़ा और अधिक जानने लगी।
इस लेख को लिखने के लिए आभार आपका🙏🙏
बहुत अच्छा लिखा आपने। गुरुदत्त साहब और फिर देवानंद मुझे बहुत पसंद हैं। उनकी फिल्में और उनका व्यक्तित्व बिल्कुल अलहदा अंदाज लिए हमारे सामने आता है। बढ़िया आलेख।
आशुतोष ने यह लेख देव साहब से खुद को अलग कर लिखा है। यह देव आनंद की महज़ फिल्मोग्राफी न होकर उनके कैरियर, मनुष्य,प्रेमी और प्रतिभा का एक क्रोनोलॉजिकल प्रामाणिक दस्तावेज है। देव साहब को जानने की एक प्रविधि।
बढ़िया लिखा।
चिरयुवा अभिनेता देवानंद के बारे में आपकी कलम से जानना बहुत ही अद्भुत है । एक शानदार आलेख । बहुत बहुत बधाई ।
सुंदर।
यह हमारी स्मृति के दरवाज़ों पर आत्मीय दस्तक है। किंचित रूमानियत के साथ। देवानंद हमारे सामूहिक चेतन-अवचेतन का हिस्सा भी हैं, यह पक्ष भी यहाँ रेखांकित हुआ है।
ग्रेगरी पेक का संदर्भ/स्मरण भी देवानंद से जुड़ता रहा है। जाहिर है देव साहब अधिक रोमांटिक और आकर्षक थे। एक पठनीय लेख।