कवि सत्यार्थी
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“मंच पर खड़ा वह कोई अलौकिक व्यक्ति लग रहा था, जिसका व्यक्तित्व किसी विचारक, कलंदर और कवि के व्यक्तित्व का समीकरण लग रहा था. वह अपनी कविता में भारत के विभिन्न प्रदेशों की चर्चा इतनी सहजता से कर रहा था कि श्रोता अपने आपको उन प्रदेशों में साँस लेते महसूस कर रहे थे. एक के बाद एक प्रदेश की जनता अपनी विशिष्ट संस्कृति की पृष्ठभूमि में, विशिष्ट वस्त्र धारण किए और विशिष्ट भाषा बोलती धीरे-धीरे उनकी आँखों के सामने उभरती और फिर क्षितिज के कोनों में गुम हो जाती. यह सफल चित्रण सत्यार्थी की वर्षों की साधना और भारत-भ्रमण का फल था. मुझे लगा कि भारत का कोई कवि, चाहे वह कितना ही बड़ा क्यों न हो, भारत की आत्मा का चित्र प्रस्तुत करने में सत्यार्थी की बराबरी नहीं कर सकता.”
(साहिर लुधियानवी, नीलयक्षिणी, पृ. 372)
बरसों पहले प्रीतनगर के वार्षिक सम्मेलन में सत्यार्थी जी ने ‘हिंदुस्तान’ शीर्षक कविता सुनाई थी. उस सम्मेलन में मौजूद साहिर लुधियानवी ने मंच पर कविता पढ़ रहे देवेंद्र सत्यार्थी का यह अनोखा शब्द-चित्र प्रस्तुत किया है, जिसे पढ़कर समझ में आता है कि उनकी कविताओं में कैसा खुलापन और जीवन का स्वच्छंद प्रवाह था, जो उन्हें आम जन से सीधे जोड़ता था और उनकी कविताओं की पुकार हवा में गूँज बनकर समा जाती थी.
यह वह समय था, जब अपनी लोक यात्राओं के बीच-बीच में तनिक विराम लेकर वे कविताएँ और कहानियां भी लिखने लगे थे और अपनी अनूठी सृजन-शैली और खुली अभिव्यक्ति के कारण वे एकाएक प्रसिद्धि के शिखर पर जा पहुँचे थे. खुद सत्यार्थी जी ने उन्मुक्त पंखों के साथ उड़ानें भरती अपनी काव्य-यात्रा के बारे में बहुत विस्तार से लिखा है, जिसने उनके भीतर एक नशा-सा भर दिया था-
“कविता और कहानी की ओर मैं एक साथ आकृष्ट हुआ, वह भी सन् 1940 में. आरंभ कविता से ही हुआ और वह भी पंजाबी में. बस यों ही गुनगुनाकर कुछ लिख डाला था. वह स्वयं मेरे लिए भी कुछ आश्चर्य का विषय नहीं था, पर मन पर एक नशा-सा छा गया. जब यह कविता एक प्रसिद्ध पंजाबी मासिक में प्रकाशित हुई तो एक आलोचक ने तो यहाँ तक कहा कि इसमें ध्वनि-संगीत का अछूता प्रयोग किया गया है. …मैंने सोचा, क्यों न कभी-कभी हिंदी माध्यम में भी लेखनी आजमाई जाए. ‘बंदनवार’ की ‘नर्तकी’ शीर्षक कविता इस प्रयास का सर्वप्रथम परिणाम है….सौभाग्यवश, कुछ दिनों बाद दिल्ली में श्री सुमित्रानंदन पंत से भेंट हुई. उनके सम्मुख भी मैंने बड़ी सरलता से कविता सुना डाली तो उनके मुख से अनायास ही ये शब्द निकल पड़े- नर्तकी कविता नहीं एक मूर्ति है, एक पूरी चट्टान को काटकर बनाई गई मूर्ति, कहीं कोई जोड़ तो है ही नहीं…!”
(बंदनवार, दृष्टिकोण, पृ. 9)
कविता-संकलन ‘बंदनवार’ की भूमिका के रूप में लिखी गई ये पंक्तियाँ कविता के लिए सत्यार्थी जी की दीवानगी की एक झलक पेश करती हैं. यों तो उन्होंने साहित्य की लगभग हर विधा में जमकर लिखा है और एक से एक स्मरणीय कृतियाँ दी हैं. पर सच तो यह है कि वे चाहे लोक साहित्य पर लेख लिखें या फिर कहानी, उपन्यास, संस्मरण, रेखाचित्र और यात्रा-वृत्तांत, पर हृदय से वे कवि हैं. वे पहले कवि हैं, फिर कुछ और. इसका इससे बड़ा प्रमाण और क्या होगा कि जो कुछ उन्होंने लिखा, उसमें उनका हृदय बोलता है और उनकी गद्य रचनाएँ तक कविताओं की तरह हृदय में गहरे धँसती हैं. इसलिए साहिर ने सत्यार्थी जी की कविताओं को हिंदी में अपने ढंग की सिरमौर कविताएँ कहा था.
इसी तरह मूर्धन्य कवि सुमित्रानंदन पंत उनके ‘बंदनवार’ संग्रह की कविताओं को पढ़कर अभिभूत हुए थे और बड़ा ही भावपूर्ण पत्र उन्होंने सत्यार्थी जी को लिखा था, जिसमें उनकी कई कविताओं की उन्होंने जी भरकर प्रशंसा की थी. बेशक सत्यार्थी जी की कविताओं में धरती बोलती है. वे जिंदगी के थपेड़ों से निकली ऐसी कविताएँ हैं, जो आम आदमी के दुख-दर्द और संघर्षों के साथ-साथ चलती हैं.
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सत्यार्थी जी ने अपनी सृजन-यात्रा की शुरुआत में कविताएँ अधिक लिखीं. और यह सिलसिला कोई छठे-सातवें दशक तक चलता रहा. उसके बाद कविताएँ कम लिखी गईं और सत्यार्थी जी मुख्य रूप से गद्य साहित्य में रम गए. हालाँकि सत्यार्थी जी की कविताओं की चर्चा बहुत हुई. बंगाल के अकाल पर लिखी गई ‘रेशम के कीड़े’ कविता बहुत मार्मिक है, जो प्रेमचंद के ‘हंस’ में छपी थी. इसमें कीड़ों सरीखे मजदूरों की जिंदगी का वह सच है जिसे अकसर भद्रजनों की आँख की ओट कर दिया जाता है. विषमता की पीड़ा बयान करती इस कविता की कुछ मार्मिक पंक्तियाँ हैं :
कलकत्ते के बाजारों में अब भी रेशम मिल सकता है
उसी तरह यह बिछता-सोता
चलता-फिरता
ब्याह रचाता
टैक्सी चढ़ता
सिनेमा जाता.
फुटपाथों की सभी युवतियाँ
सखियाँ सभी उदयशंकर की
आँख के आगे आ-आ नाचें.
एक से पूछा बिन पहचाने
कहो, मरे हैं कितने कीड़े
इस साड़ी की इक सिलवट में,
अँगिया के खूनी रेशम में…?
(बंदनवार, पृ. 53)
उन्हें कलकत्ते के बाजारों में चलते-फिरते, ब्याह रचाते, टैक्सी चढ़ते, सिनेमा जाते ‘रेशम’ का खयाल आता है, तो दूसरी ओर-
फुटपाथों पर भूखों का चीत्कार,
पिल्ले हैं, आदम के बेटे
रोटी के टुकड़े को तरसे.
और सोच-सोचकर शर्म आती है, कि कितने ही कवि इन कीड़ों की तरह ‘कविता-कामिनी’ के शृंगार में मर मिटे. मगर खुद सत्यार्थी जी उनमें नहीं है, न शामिल होना चाहते हैं.
एक दफा अंतरंग बातचीत में सत्यार्थी जी की ने इस कविता का जिक्र छिड़ने पर जो शब्द कहे, वे गौर करने लायक हैं, “ऐसी कविता मनु जी, मैं आज चाहूँ तो भी नहीं लिख सकता. इसलिए कि यह कविता मैंने लिखी नहीं, बंगाल का जो अकाल देखा था, उसने खुद-ब-खुद मुझसे लिखवा ली.”
(देवेंद्र सत्यार्थी : एक भव्य लोकयात्री, पृ. 176)
इसी तरह ‘एशिया’ और ‘हिंदुस्तान’ सत्यार्थी जी की बड़े केनवस की कविताएँ हैं, जिनके चित्रों में एक साथ विराटता और मोहकता है. इसलिए एशिया की बात चलते ही उन्हें सारे ऐश्वर्य लोक के बावजूद उसकी ‘फटी आस्तीन’ का खयाल आता है-
एशिया! तेरा दिल है क्यों गमगीं?
हर कलाकार के हाथ में
तूलिका अपना जादू दिखाती रही
जैसे आता है फूलों में रंग
जैसे आती शहद में मिठास
जैसे आती अतर में सुवास
जनकला में उभरती रही नंगी धरती की शान
खेत की नर्म माटी में उगता रहा प्रेम, उगता रहा जैसे धान
उगता रहा सारा सौंदर्य गेहूँ के खेतों में ही
एशिया, फिर भी तेरी फटी आस्तीन.
(बंदनवार, पृ. 58)
हालाँकि दूसरे छोर पर सामंती जनों के ऐश्वर्यलोक की नग्न लीलाएँ हैं, जिनसे शोषण की बू आती है. सत्यार्थी जी ने बड़ी कड़वाहट के साथ उसका जिक्र किया है–
तेरे महलों में सोने की मोहरें लुटीं
बादशाह मुसकराते रहे और पीते रहे जाम पै जाम
कनीजों गुलामों की किस्मत में लिखी थी साकीगरी.
फिर भी उम्मीद की किरण यह है कि लोग जाग रहे हैं और शिद्दत से महसूस कर रहे हैं कि उनके सुख और आशाओं के सवेरे को किसने कैद किया हुआ है. लोग जागेंगे तो यह तस्वीर बदलते देर नहीं लगेगी. और नया यथार्थ एक नई कौंध और जगमगाहट के साथ सामने आएगा-
एशिया! तेरी होती रही कैसी तौहीन
आज जनमत का सूरज उगा
आज तंदूर से गरम रोटी लपककर
भूखे की झोली में आकर गिरी…
अब न खेतों में उगते रहेंगे गुलाम
अब न सोने ढली बालियों में पकेंगी कनीजें
आज धरती ने लीं फिर से अँगड़ाइयाँ
अब बिछा अपने सपनों का कालीन, ओ एशिया-विश्व की नाजनीं!
(वही, पृ. 59)
ऐसे ही सत्यार्थी जी की बड़े कलेवर की और बड़ी पुकार लिए हुए एक कविता है, ‘हिंदुस्तान’. प्रीतलड़ी के मुशायरे में उन्होंने यही कविता पढ़ी थी, जिस पर साहिर लुधियानवी ने कहा था कि सत्यार्थी हिंदुस्तान को जितना समझता है, उतना शायद ही कोई समझता हो. (नीलयक्षिणी, पृ. 372) वहाँ उन्होंने पंजाबी में यह कविता सुनाई गई थी. बाद में उसका हिंदी उल्था भी उन्होंने स्वयं किया. यह कविता हिंदुस्तान की ऐसी भीतरी सच्चाइयों और अँधेरों में उतरती है कि लगता है, सत्यार्थी जी के शब्दों में सारे हिंदुस्तान का गहगहा चित्र उभर आया है-
ओ हिंदुस्तान, हल हैं तेरे लहूलुहान
ओ हिंदुस्तान!
पैरों में हैं टूटे जूते
कपड़े तेरे निरे चीथड़े
पेट कबर सदियों की,
ओ हिंदुस्तान!
मैं कालिदास से कहता
अब मेघदूत को छोड़ो,
विरह प्रथम या भूख
ओ हिंदुस्तान…! (बंदनवार, पृ. 55)
यह कविता खुद सत्यार्थी जी की गूँजदार आवाज में सुनने का सौभाग्य मुझे मिला है. कविता सुनाने के बाद सत्यार्थी जी ने बड़े पसीजे हुए स्वर में कहा था,
“आप देख लीजिए, जिस हिंदुस्तान का इसमें जिक्र है, आज का हिंदुस्तान उससे कोई खास बदला हुआ नहीं है. मैं इस बात पर खुश भी हो सकता था कि मैंने ऐसी कविता रच दी, पर नहीं, मेरा दिल तो अंदर ही अंदर रोता है.”
(मेरे साक्षात्कार : देवेंद्र सत्यार्थी, पृ. 179)
ऐसे हिंदुस्तान में कोई परदेसी ‘हातो’ (कश्मीरी मजदूर) अपनी हूरजादी लाडली के दुलहिन रूप की कल्पना करते ही यह सोचकर उदास हो जाता है कि आखिर उसकी संतान को भी तो इसी तरह हातो बनकर देश छोड़ना पड़ेगा. ऐसे ही कवि की हिम्मत है कि वह अपनी प्रेयसी का यह ऊबड़-खाबड़ चित्र आँकने में भी शर्मिंदगी न महसूस करें-
रे मेरी प्रेयसी की नाक
है कुछ-कुछ बेडौल
झाँक रहीं हड्डियाँ गले की
साधारण-सा रूप
मुख की रेखाएँ भी हैं बस
छिन्न-भिन्न-सी
फिर भी मेरा मन उमड़ा पड़ता है
श्यामल सघन कुंतलों की छाया में
जहाँ झाँकते नयन सलोने उन्मीलित मदमाते.
(बंदनवार, पृ. 106)
बड़ी ही सघन संवेदना के साथ लिखी गई इस आत्मपरक कविता में सत्यार्थी जी के पथिक रूप का भी चित्रण है. जिधर भी उनके पैर मुड़ते हैं, उनकी प्रिया थके होने के बावजूद अपने प्रिय की खुशी की खातिर बिना कोई शिकायत किए, पैरों की अभ्यस्त गति से साथ-साथ चल पड़ती है. प्रेम में सीझे हुए पति-पत्नी के दांपत्य की यह एक अकथ कथा है, जो सत्यार्थी जी के इन शब्दों में उतर आई है-
मैं हूँ पथिक
पैर में चक्कर
देश-देश के लंबे पथ-संदेश
नित सुनता है मेरा मन
रहती सदा एक ही धुन.
मेरी प्रेयसी पथ-पथ की अभ्यस्त
चल पड़ती है उधर जिधर मैं हो लेता हूँ
न हँसकर, न रोकर
नयनों में प्रिय नयन पिरोकर.
(वही, पृ. 106)
किसी सिद्धहस्त कलाकार की तरह कुछ ही रेखाओं में समूचा चित्र उतार देने में सत्यार्थी जी को कमाल का महारत हासिल है. इसीलिए ‘संथाल कुलवधू’ कविता में मातृत्व भार से दबी, किसी सुंदर संथाल कुलवधू का रूप उन्हें ऐसा मोहक और तृप्तिदायक लगता है-
ज्यों अंडा सेने से पहले
नेह हिलोरें खाकर,
मटमैली कबूतरी का जी थर्राया!
सच पूछिए तो दांपत्य संबंधों की मीठी छुअन और रागात्मकता सत्यार्थी जी की कई कविताओं में है. अद्भुत लयात्मकता में ढली सत्यार्थी जी की एक बहुचर्चित कविता ‘ब्याह के ढोल’ की उठान बड़े मधुर, अलसित वातावरण में होती है. एक हाथ में ठोड़ी टेके, एक हाथ से पर्दा थामे दुलहन से कवि मुखातिब है,
“लो बजे ब्याह के ढोल और गूँजी शहनाई अलसाई-सी
जरा रेडियो को ऊँचा कर दीजो, दुलहिन!”
लेकिन बाद में मशीनी मानव के मशीनी प्यार का खयाल आया तो-
छि: ये कागजी फूल और छि: वेणी सेंट से महकाई-सी
जरा रेडियो को ऊँचा कर दीजो दुलहिन.
ढोल उधर-और इधर मशीनी युग के मानव,
ढोल उधर-और इधर फौलादी युग के दानव,
प्रेम नया क्या होगा? यह वही कारबन कॉपी.
(वही, पृ. 44)
3
सत्यार्थी जी की कुछ कविताओं में प्रेम की बड़ी अछूती अभिव्यक्ति है. कुछ खुली-अधखुली सी, और मिसरी सरीखी मीठी. ‘शाल’ ऐसी ही एक सुंदर और कोमल कविता है जिसमें प्रेम की गहरी कशिश है, पर साथ ही भीतर एक द्वंद्व भी है. कविता में उनका मन दौड़-दौड़कर शाल भेंट करने वाली कश्मीरी युवती की ओर जाता है-
कहती थी-सँभालकर रखियो
आगे सरक न जाए शाल.
मैंने कहा-पड़े क्या अंतर?
इन हाथों का स्पर्श रहेगा.
बोली, शाल गँवा मत देना
मधुर स्नेह का चिर प्रतीक यह.
स्नेहमयी की हँसी बन गई
प्रश्नचिह्ना-सी.
(वही, पृ. 47)
तभी उनका फक्कड़ रूप जागता है-यह शाल किसी को दे दूँ तो? कोई-कोई तो फटे अँगोछे को भी तरसता है. शाल मिल जाए तो खुशी से नाच न उठेगा! मगर फिर वही तरल अनुरोध याद आता है–‘आगे सरक न जाए शाल’ और वे अपनी सोच की धारा को जबरन मोड़ देते हैं.
ऐसे ही एक नर्तकी पर मन की गहरी भावाकुलता के साथ लिखी गई सत्यार्थी जी की कविता सचमुच लाजवाब है. एकदम अलहदा सी भी. सत्यार्थी जी को मुजराघर के लाल फर्श पर नाचती ‘नर्तकी’ का खयाल आता है, तो कुछ ही देर में वह माँ की शक्ल ले लेती है और वे स्वयं को उसकी गोद में फूट-फूटकर रोता हुआ पाते हैं.
लंबी कविता ‘नर्तकी’ की शुरुआत में उसके विलास भरे रूप और हावभावों का वर्णन है, जो देखने वालों को व्याकुल और अधीर कर देता है और इस सुख-विलास की कीमत चुकाने के लिए खुली जेबों से सिक्के गिरने लगते हैं. हालाँकि कवि दूसरे छोर पर जाकर चीजों को देखता है, तो भीतर एक गहरी उथल-पुथल से भर जाता है. कविता का अंत मानो करुणा से भीगा हुआ सा है-
देखीं बिकती हुई नारियाँ
सब की सब घुन लगी हुई पीढ़ी की
ये पददलित बेटियाँ
सभी उर्वशी की वे बहनें
मूर्तिमान हो उठी शीघ्र
युग-युग की पीड़ा
पीडि़त यह नारीत्व
और इसकी यह प्रतिमा
बनी आज माँ मेरी
मेरी जननी यह नारी.
(वही, पृ. 116)
‘बंदनवार’ की बिल्कुल अलग लय-छंद वाली कविताओं में मणिपुरी लोरी भी है जिसे मानो स्नेह, वात्सल्य और ममता के तारों से जड़कर एक सुंदर, सपनीला कलेवर दिया गया है. सत्यार्थी जी अपनी लोक यात्राओं में बहुत बार मणिपुर भी गए, जहाँ का नैसर्गिक वातावरण और नए-नए रंगों में रँगी प्रकृति की अछूती छवियाँ उन्हें बार-बार अपनी ओर खींचती थीं.
मणिपुर पर लिखा गया सत्यार्थी जी का बड़ा ही जीवंत और भावनात्मक रेखाचित्र पढ़ने लायक है. पर मणिपुर की इस स्वर्गिक सौंदर्य आभा के बीच ही कहीं एक मणिपुरी माँ की ममतालु छवि भी उनके जेहन में अटकी रह गई, जो इस कविता में उतर आई है-
निद्रापथ पर विजयपताका फहराओ रे माँ बलिहार,
सो जा, सो जा, सो जा रे, सो जा मणिपुर राजकुमार!
ज्यों कपास की डोंड़ी में सोता है पैर पसार,
एक कीट नन्हा-सा, श्वेत, मृदुल सुकुमार
माँ के स्नेह-विकास, सो जा,
प्यार भरे इतिहास सो जा,
सौ-सौ हाथी रोज सिधाएँ हम निद्रापथ के इस पार,
कल जब तुम जागोगे सोते होंगे हाथी पैर पसार,
सो जा मणिपुर राजकुमार!
(वही, पृ. 95)
और दूसरे छोर पर, सभ्यता की गोद में पल रहे कॉफी हाउस के
‘ढलके-ढलके जूड़े
उभरे-उभरे सीने
फर्श चूमते आँचल’ की असलियत भी उनकी सतर्क नजरों से छिपी नहीं हैं. वहाँ चेहरों के भीतर चेहरे छिपाए लोग कहते कुछ और हैं, बोलते कुछ और-
“धरती का सीना लाल!”
“भूखा है बंगाल!”
“थोड़ा मेरी ओर सरक आओ-मिस पाल.”
(वही, पृ. 162)
4
सत्यार्थी जी ने पंजाबी में भी खूब कविताएँ लिखीं हैं और बहुत डूबकर लिखी हैं. इनमें कुछ कविताओं की वहाँ बार-बार चर्चा होती है. हिंदी में जो ‘प्रेयसी’ कविता है, वह पहले पंजाबी में ही लिखी गई थी. यह कविता उन्होंने पत्नी शांति सत्यार्थी पर लिखी थी, जिन्हें आखिरी दिनों में उन्होंने एक सुंदर सा नाम दिया था, ‘लोकमाता’.
इस कविता में सत्यार्थी जी ने अपनी चिरसंगिनी के चेहरे की उलझी-उलझी रेखाओं का इतना कमाल का पोर्ट्रेट उपस्थित कर दिया है कि बार-बार इसका जिक्र किया जाता है. अमृता प्रीतम ने ‘नागमणि’ के एक अंक में इसकी बहुत तारीफ की थी. गहरी आत्मीयता के रंगों में रँगी हुई इस कविता की कुछ पंक्तियाँ हैं-
मेरी नाजो नार
नहीं कोई हीर
न मैं हाँ राँझा,
फिर वी साडा प्यार
अते सुख-दुख है साँझा.
इश्क चनाब विच दूर तीकण
लंबी ताड़ी
काश, असीं वी ला सकदे,
ते ताँ गलबकड़ी पा सकदे
हे प्यारी!
भावें नक्क मेरी नाजो दा कुझ बेडौला
गल चों झाँके मुठ हड्डियाँ दी,
नख-शिख हौला,
बाकी वी मुख-मत्था सारा
मसाँ गुजारा…!
(यानी मेरी प्यारी पत्नी कोई हीर नहीं है और न मैं कोई
राँझा हूँ. फिर भी हमारा प्यार और सुख-दुख साझा है. काश, इश्क के चिनाब में हम भी दूर तक तैर सकते, और एक-दूसरे को उसी तरह बाँहों में बाँध पाते, हे मेरी प्यारी! भले ही मेरी पत्नी की नाक कुछ बेडौल है और गले से ढेर सारी हड्डियाँ झाँकती हैं, नख-शिख उसका बड़ा साधारण है और बाकी चेहरा भी बस कुछ ठीक-ठाक सा, गुजारे लायक ही…!)
यह कविता मानो हिंदुस्तानी दांपत्य के भीतरी राग और सौंदर्य की एक गहरी तान सरीखी है, जिसमें बाहरी रूखेपन में भीतर का सच्चा अनाविल सौंदर्य लिपटा-सा चला आया है. कविता सुनाने के बाद सत्यार्थी जी मानो इसी गहन सौंदर्य की थाह लेते हुए कहते हैं-
“जिस साथी के साथ आप रहते हैं, जिसके साथ जिंदगी की धूप-छाँह सहते हुए आगे बढ़ते हैं, उससे ज्यादा सुंदर दुनिया में कोई और नहीं होता. आपको सही बताऊँ, अपनी पूरी यात्रा में जितना साथ मुझे इनका मिला है, न मिला होता तो मैं दो कदम भी न चल पाता.”
(देवेंद्र सत्यार्थी : एक भव्य लोकयात्री, पृ. 177)
इसी तरह सत्यार्थी जी ने एक कविता बेटी पारुल पर भी लिखी थी जो अमृता प्रीतम को बहुत पसंद थी. उसमें भी उनका स्नेह और सौंदर्य बोध एक बिल्कुल नए और अद्भुत बिंब में ढल गया है-
पारुल मेरी बच्ची
नवें तुरे बेराँ दी हाण,
दुध दी दंदी कच्ची
बिस्कुट वाँगों भुर-भुर जांदी
पारुल दी मुसकान…!
(यानी पारुल-मेरी बेटी इस मौसम में बस अभी हाल में ही नए-नए आए बेरों सरीखी है. उसके दूध के कच्चे दाँत हैं. उसकी मुसकान बिस्कुट की तरह बिखर-बिखर जाती है…!)
इस पर खुद सत्यार्थी जी की टीप है-
“इस कविता में यह जो सिमली है, ‘बिस्कुट वांगों भुर-भुर जांदी पारुल दी मुसकान’ इसे बहुत पसंद किया गया था. अमृता प्रीतम का कहना था कि पूरे पंजाबी साहित्य में इस तरह की उपमा इससे पहले कहीं नहीं मिलती और ये पंक्तियाँ पढ़ते ही एक खिलखिलाती हुई लड़की सामने आ जाती है.”
(वही, पृ. 178)
सचमुच सत्यार्थी जी के पूरे कविता-संसार में ऐसी कोई दूसरी कविता नहीं है. इससे यह भी पता चलता है कि अपनी खानाबदोशी और अलमस्ती के बावजूद पारिवारिक स्नेह की भावनाएँ कितने गहरे तक उनके भीतर धँसी थीं. भले ही वे ‘दुनियादार’ नहीं हुए, पर ‘दुनिया’ से प्यार करना उन्हें आता था. और इस दुनिया में बेशक घर-परिवार की दुनिया भी शामिल थी.
सत्यार्थी जी का कवि मनमौजी कवि है, जो घर हो या बाहर, कहीं भी कुछ अलग-सा देखता है, तो वह खुद-ब-खुद उसके शब्दों में उतरने लगता है. ऐसी ही एक कविता उन्होंने चंडीगढ़ में रहते हुए चंडीगढ़ शहर के बारे में लिखी थी. हुआ यह कि एक बार चंडीगढ़ में उन्होंने एक मित्र के साथ रहते हुए काफी दिन गुजारे. उन्हीं दिनों एक मिस दास भी थीं उड़ीसा की, जो वहाँ उर्दू सीखने आई हुई थीं. सत्यार्थी जी के मन में एक अनूठा-सा बिंब बना और उन्होंने वहीं लॉन पर बैठकर कविता लिखी-
तू आप सोच मिस दास,
चंडीगढ़ दा की इतिहास?
मूर्ति विचकार त्रै बंदर-
कन्ना उत्ते, अक्खाँ उत्ते
बुल्लाँ उत्ते हत्थ उनाँ दे…
जेकर होंदा चौथा बंदर
उसदे हत्थ कित्थे हुंदे?
इस मौसम दा नाँ मधुमास,
तू आप सोच मिस दास,
चंडीगढ़ दा की इतिहास…?”
(यानी, ओ मिस दास, तुम खुद ही सोचो कि भला चंडीगढ़ का क्या इतिहास है! एक मूर्ति में तीन बंदर नजर आ रहे हैं. उनमें एक ने कानों पर हाथ रखा हुआ है, दूसरे ने आँखों पर, तीसरे ने मुँह पर. भला अगर चौथा बंदर भी होता, तो उसके हाथ कहाँ होते? इस मौसम का नाम मधुमास है. ओ मिस दास, तुम खुद ही सोचो कि चंडीगढ़ का क्या इतिहास है!)
यह कविता सुनाने के बाद बातों की रौ में बहते हुए सत्यार्थी जी ने बताया था, “चंडीगढ़ में लोग दीवाने थे इस कविता के.” (वही, पृ. 177)
5
सत्यार्थी जी ने पाब्लो नेरूदा की ‘स्पेन’ कविता समेत विश्व के अनेक प्रमुख कवियों की कविताओं का एकदम बहती हुई भाषा में अनुवाद किया है, जिसका एक झलक उनकी लिखी हुई ‘बंदनवार’ की लंबी भूमिका में मिल जाती है. विष्णु खरे ने एक बार सत्यार्थी जी द्वारा किए गए पाब्लो नेरूदा के अनुवाद की काफी सराहना करते हुए कहा था कि संभवतः देवेंद्र सत्यार्थी हिंदी में पाब्लो नेरूदा के पहले इतने सशक्त और अधिकारी अनुवादक हैं.
यों सत्यार्थी जी के ‘बंदनवार’ संग्रह में उनकी अनूदित कविताओं का एक खंड अलग से है. यही नहीं, सत्यार्थी जी आज के कवि के लिए विश्व कविता का गंभीर अध्येता होना जरूरी समझते हैं-
“आज के कवि के लिए सचमुच यह आवश्यक हो गया है कि वह विश्व की कविता का अध्ययन करे. इससे कवि के सम्मुख नए क्षितिज उभरते हैं, उसकी आँखें अधिक देख सकती हैं, मस्तिष्क अधिक सोच सकता है. हाँ, इसमें अनुकरण प्रवृति का खतरा अवश्य है जिससे एक जागरूक कवि हमेशा बच सकता है.”
(बंदनवार, दृष्टिकोण, पृ. 31)
यही नहीं, वे स्पष्ट रूप से आधुनिकता की नई शैलियों के साथ खड़े हैं और कविता की नई राहों के अन्वेषियों का खुली बाँहों से स्वागत करते हैं. यहाँ तक कि पुरातनवादियों को वे अपनी सीमाओं और जकड़न से मुक्त होकर खुली दृष्टि से नए बोध की कविता को देखने की सलाह देते हैं-
“मैं यह कहने की धृष्टता तो नहीं कर सकता कि पुरानी छंदोबद्ध शैली में आधुनिक युग के अनुरूप अच्छी कविता का सृजन असंभव है. हाँ, यह अवश्य कहूँगा कि जिस प्रकार पुरानी कविता में भी निरंतर विकास हुआ है, और प्रत्येक कवि की प्रत्येक कविता काव्य की कसौटी पर एक समान बहुमूल्य साबित नहीं होती, उसी प्रकार हो सकता है कि नई शैली की भी अनेक कविताओं का साहित्यिक मूल्य बहुत अधिक न हो, पर किसी को आज यह कहने का दुस्साहस तो हरगिज नहीं करना चाहिए कि नई शैली की कविता एकदम मिथ्या प्रलाप है-एकदम मस्तिष्क का षड्यंत्र, जिसमें हृदय की जरा भी परवाह नहीं की जाती.”
(वही, पृ. 12)
काश, सत्यार्थी जी की कविताओं को आज नए नजरिए से देखा-परखा जाए, तो ऐसे बहुत-से आबदार मोती हाथ आएंगे, जो उनकी कवि-शख्सियत को समझने में तो मदद देंगे ही, हिंदी कविता का भी एक अलग ‘इतिहास’ उससे सामने आएगा. सचमुच सत्यार्थी जी की कविताओं में जीवन की धड़कन और उसका संगीत एक नई लय में बह रहा है जिसमें नए और पुराने के बीच संवाद का एक नया पुल बनता नजर आता है.
आज जब कविता के अंत या फिर ठहराव की बात की जाती है, तो सत्यार्थी जी की कविता ‘एक नई संभावना’ के खिड़की-दरवाजे खोलती जान पड़ती है. संभवत: उससे हमें आगे की कुछ अलक्षित दिशाएँ हासिल हों. इस लिहाज से जीवन की ऊर्जा से भरपूर तथा नए बनते हिंदुस्तान की एक अलहदा पहचान लिए, सत्यार्थी जी की खुली और स्वच्छंद कविताएँ हमारे लिए किसी बहुमूल्य दस्तावेज सरीखी हैं.
प्रकाश मनु, |
देवेन्द्र सत्यार्थी के बारे में प्रकाश मनु का आलेख मन को भा गया । देवेन्द्र जी ने बंगाल के अकाल पर लिखी गयी पंक्तियाँ उनकी संवेदना व्यक्त करती हैं । कश्मीर की रेशम शाल पर इनकी ममत्व अनूठा है । हिन्दुस्तानी दांपत्य में राग और सौंदर्य मौजूद रहता है । लेकिन रूखापन बाहरी सतह पर । अपनी पुत्री पारुल पर देवेन्द्र सत्यार्थी का सारा स्नेह उमड़ आया है । बिस्कुट जैसी भुरने वाली मुस्कान 🙂 अद्वितीय उपमा है । हम पंजाबी हैं तो भुर हमारी बोली में शामिल है । मुझे एहसास हो रहा है कि मैं चाय पीते हुए बिस्कुट खा रहा हूँ । बिस्कुट को चाय में डुबोकर (हमारी बोली में बोड़ के) पीने की कल्पना कर रहा हूँ । हमेशा मुझे भय बना रहता है कि कहीं डुबोया हुआ बिस्कुट कप में या मेज़ पर न गिर जाये ।
मणिपुर के सौंदर्य से सभी वाक़िफ़ हैं । वहाँ की क़ुदरत, व्यक्तियों का सौंदर्य, कठिनाई में भी रहने के तरीक़े ढूँढने की कला, मेघाच्छादित आकाश इस समूची सुंदरता से कवि और कहानीकार तथा यायावर परिचित हैं ।
देवेंन्द्र सत्यार्थी ऋषि परम्परा के साहित्यकार थे ,उनकी लगातार उपेक्षा हुई है । उनके कवि रूप से मैं परिचित नही था ,प्रकाश मनु को इसके लिए आभार
पिछली शताब्दी के आठवें दशक में बस की प्रतीक्षा करते हुए बस स्टॉप पर खड़े मंडी हाउस में उन्हें दूर से देखा करता था। टैगोर जैसे प्रतीत होते। उनके लोकगीतों के संचयन की किताब बेला फूले आधी रात उनका महत्वपूर्ण कार्य है। मंटो ने उन पर एक बेहद दिलचस्प कहानी लिखी थी परमार्थीजी शीर्षक से। प्रकाश मनु का उनसे नजदीकी संबंध रहा है। सुंदर लेख के लिए उन्हें बधाई।
बेहतरीन। ये लोग किसी और दुनिया के लोग थे। बहुत अच्छी प्रस्तुति।
बहुत ख़ुशी हुई यह लेख पढ़ कर।
देवेंद्र सत्यार्थी जी पर बहुत ही सहज,हृदय को छूने वाला आत्मीय आलेख आपने लिखा है। इसे पढ़ते हुए उनकी अनेक छवियाँ मानस-पटल पर उभर आई।
उनकी कविताओं के विषय में भी अच्छा विश्लेषण किया है। वे जैसे सीधे-सरल थे, वैसी ही उनकी कविताएँ थी।
सत्यार्थी जी के कवि रूप और उनकी कविता के हर रंग को गहन आत्मीयता से आपने प्रस्तुत किया है। पढ़कर बहुत अच्छा लगा। उनकी कविता में उनके जीवन और समय की धड़कनों हम महसूस कर सकते हैं।…
आजकल मैं फिर से बस्ती आया हुआ हूँ। 8 जून को दिल्ली लौटूँगा।
देवेंद्र सत्यार्थी जी लोक में रचे बसे रचनाकार है। या यूं कहें कि उनका सृजनमयी हृदय मानवीय संवेदनाओं और सरोकारों से सराबोर है। साहिर लुधियानवी और सुमित्रानंदन पंत का मूल्यांकन इनके श्रेष्ठ वैचारिक कैनवस का प्रमाण है। सत्यार्थी जी की कविताओं में लोक मानस के सुख-दुख, संघर्ष और मिट्टी की सुगंध समायी है। रेशम के कीड़े, एशिया और हिंदुस्तान जैसी कविताएँ उद्दात वैचारिकता और रचनात्मक संवेदना को स्पष्ट करती हैं। प्रगतिशील चेतना की भाव भूमि पर आधारित कविताएँ कविताएँ नहीं मानवता का आख्यान है, जो केवल कागजी नहीं है बल्कि अनुभूति की प्रामाणिकता पर खड़ा है। इनकी कविताएँ भाव, भाषा और शैली की विविधताओं से भरी हैं। इनमें आत्मपरकता, प्रेम की अनुभूति, द्वन्द्व, संघर्ष और करुणा बहुत गहरे तक समायी है। मूल रूप से पंजाबी में लिखी कविताएँ ‘प्रेयसी’ अनुराग और सौंदर्य परिपूर्ण रचना है। वही अपनी बेटी पारुल पर बड़ी मृदुल भाषा में अनुपम उपमाएँ और बिम्ब प्रस्तुत करती हैं। मनु जी का यह लेख एक ऐतिहासिक दस्तावेज की तरह है। मनु जी इस भव्य लोक यात्री के हृदय को समझा है। इस उपेक्षित लोक कवि पर मनु जी का कार्य बहुत बड़ा और महत्वपूर्ण है। इसके लिए आदरणीय मनु जी को कोटि-कोटि बधाई और साधुवाद।।
डॉ. अशोक बैरागी