रामविलास शर्मा का कला-सौन्दर्य सम्बन्धी चिंतनरविभूषण |
रामविलास शर्मा (10.10.1912-30.5.2000) का अध्ययन-चिंतन-लेखन इतना व्यापक है कि उसे सम्पूर्णता में देखना असंभव नहीं, तो बहुत ही कठिन है. अपने लेखन के परवर्ती काल (दो दशक) में भारतीय चिंतन और दर्शन पर उन्होंने अधिक ध्यान दिया और ज्ञान की कई शाखाओं की ओर वे गये. प्राचीन भारत उनके अध्ययन के केन्द्र में ही नहीं, लेखन के केंद्र में भी रहा, जो कहीं से भी वर्तमान-विमुख नहीं है. केवल भाषा, समाज, साहित्य, संस्कृति, हिन्दी जाति, 1857 का स्वतंत्रता-संग्राम, हिन्दी नवजागरण आदि पर ही उन्होंने नहीं लिखा, अपितु राजनीति, समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र, दर्शन शास्त्र, इतिहास, नृतत्वशास्त्र आदि पर भी लिखा. वे किसी भी विषय अथवा ज्ञानानुशासन को एक दूसरे से सर्वथा विच्छिन्न कर स्वतंत्र रूप से उसके अध्ययन-विवेचन के पक्ष में नहीं थे. उनकी समग्र दृष्टि रेनेसां काल के महापुरुषों की याद दिलाती है. उनकी कुछ पुस्तकों पर कम विचार हुआ है. जिनमें एक ‘भारतीय सौन्दर्य-बोध और तुलसीदास’ (साहित्य अकादेमी, दिल्ली, 2001) है, जिसका प्रकाशन उनके निधन के पश्चात हुआ.
इस आलेख में उनकी इस पुस्तक में वर्णित एक पक्ष-विशेष पर ही ध्यान दिया गया है, जिस ओर अभी तक हिन्दी के गंभीर आलोचकों का ध्यान नहीं गया है. डॉ. शर्मा के कला-सौन्दर्य-चिंतन से जुड़े इस एक पक्ष पर फिलहाल ध्यान देने क जरूरत इसलिए है की उन्होंने शरीर शास्त्र पर भी विचार किया है. दो दशक पहले प्रकाशित ‘भारतीय सौन्दर्य-बोध और तुलसीदास’ छह अध्यायों- ‘वैदिक कवियों का सौन्दर्य-बोध’, ‘भारतीय दर्शन और सौन्दर्य-बोध’, ‘नगर-सभ्यता और कलाओं का विकास’, ‘कला-इतिहास’, ‘कलाओं के इतिहास की समस्याएँ’ और ‘तुलसीदास का सौन्दर्य-बोध’ में विभाजित है. डॉ. शर्मा सौन्दर्यशास्त्री नहीं है और न सौन्दर्य-शास्त्र पर डॉ. कुन्तल मेघ की तरह (‘अथातो सौन्दर्य जिज्ञासा’ और ‘साक्षी है सौन्दर्य प्राश्निक’) उनकी कोई स्वतंत्र-पुस्तक है. वे ‘कला के इतिहास’ पर ही नहीं, ‘कला के इतिहास की समस्याएँ’ और ‘कला और प्रौद्योगिकी’ पर भी विचार करते हैं. भारतीय सौन्दर्य शास्त्रियों के चिंतन-लेखन से उनका चिंतन-लेखन कई अर्थों में विशिष्ट है.
हमारे सौन्दर्य-बोध का संबंध रूप और अरूप, ऊर्जा और पदार्थ दोनों से है. इस बाह्य जगत से हमारा सौन्दर्य-बोध जुड़ा है. सौन्दर्य-बोध का संबंध इस दृश्यमान जगत से है. संसार में रहे बिना सौन्दर्य का बोध असम्भव है. नेत्रेन्द्रिय से हम रूप ग्रहण करते हैं और नासिका से हमें गंध का पता लगता है. रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और शब्द से मनुष्य और संसार जुड़ा है. हमारे सौन्दर्य-बोध में हमारी इन्द्रियों- नेत्रेन्द्रिय, श्रवणेन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, स्पर्शेन्द्रिय और स्वादेन्द्रिय की भूमिका है. हमारी पाँच ज्ञानेन्द्रियों- आँख, कान, नाक, जीभ और त्वचा का मस्तिष्क से संबंध है. ज्ञानेन्द्रियाँ प्रवेश इन्द्रियाँ हैं और पाँच कर्मेन्द्रियाँ – हाथ, पैर, मुँह, गुदा और लिंग निकास इन्द्रियाँ हैं. मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार चार अन्तःकरण है और केवल ‘मन’ अंतरिन्द्रिय है. हमारी इन्द्रियाँ हमारे दिमाग को नियंत्रित करती हैं.
काव्य-सृष्टि में इन्द्रियों के महत्व और उसकी भूमिका को लेकर हिन्दी में अब तक जितने कार्य होने चाहिए थे, नहीं हुए हैं. कुमार विमल ने ‘छायावाद का सौन्दर्य शास्त्रीय अध्ययन किया, पर उन्होंने भी विस्तार से इस पक्ष पर विशेष विचार नहीं किया है. रामविलास शर्मा ने ‘बुद्धि, इन्द्रियाँ और शरीर’ के सह-संबंध पर न केवल ध्यान दिया है, अपितु वे इस पर विचार करते हुए पाण्डुरंग वामन काणे (7.5.1880-18.4.1972), रामचन्द्र शुक्ल (4.10.1884-2.2.1941) और कपिला वात्स्यायन (25.12.1928-16.9.2020) का भी उल्लेख करते हैं. पाण्डुरंग वामन काणे ने ‘रस-सिद्धान्त का आधार अर्ध शारीरिक और अर्धमानसिक’ माना है (‘हिस्ट्री ऑफ संस्कृत पोएटिक्स’), रामचन्द्र शुक्ल ने ‘रस-मीमांसा’ में ‘भाव’ को ‘एक मानसिक शारीरिक विधान या व्यवस्था’ कहा है और कपिला वात्स्यायन ने भरत के नाटय-शास्त्र पर लिखे अपने ग्रन्थ ‘भरत द नाट्यशास्त्र’ (1996) में ‘शरीर की व्यवस्था, शारीरिक गठन, शारीरिक और मानसिक प्रक्रियाओं से अद्भुत और आश्चर्य-जनक परिचय’ देख कर ‘पूरे तंत्र को मानसिक-शारीरिक व्यवस्था’ (साइकोसोमेटिक सिस्टम) कहा है. नाट्य शास्त्र की अपनी शारीरिक पृष्ठभूमि है, पर नाट्येतर विधाओं में हमारे शरीर-शास्त्र का भी कुछ महत्व है, इस पर डॉ. शर्मा को छोड़ कर शायद ही किसी अन्य आलोचक-विचारक ने विचार किया है.
शरीर-शास्त्र (फिजिओलाजी) ‘शरीर के अंगों, उसकी बनावट एवं उसकी कार्यविधि आदि का विवेचन करने वाला शास्त्र है. साहित्यशास्त्र और शरीर शास्त्र को एक साथ रखकर विचार की जरूरत है या नहीं? हमारी आँखें इस दृश्य जगत को, रूपात्मक जगत को देखती हैं, नासिका से खुशबू और बदबू का पाता चलता है और स्पर्शानुभव का अपना महत्व है (‘स्पर्श से से लाज लगी’, निराला) श्रवणेन्द्रिय से बहुत सारी ध्वनियों का पता लगता है. इन सारी इन्द्रियों का हमारे शरीर से संबंध है और कविता में इसके गुण-धर्म सब मौजूद हैं. फिर शरीर-शास्त्र की उपेक्षा कर क्या काव्य-शास्त्र और कविता पर सम्यक् विचार संभव है? रामविलास शर्मा ने कुछ खिड़कियाँ खोल दी हैं.
चिकित्सा शास्त्र के अन्तर्गत अब शारीरिक रोग और मानसिक रोग, दोनों को एक दूसरे से सर्वथा अलग नहीं माना जाता. हमारा समय विशेषज्ञता का है, बहुज्ञता का नहीं. डॉ. शर्मा के यहाँ विशेषज्ञता नहीं, बहुज्ञता है. उनका ध्यान परस्पर सम्बद्धता पर है. मानसिक रोगों को पूर्णतया न सही, थोड़े ही रूप में कम करने में कलाओं की विशेषतः संगीत की निश्चित रूप से अपनी भूमिका है. संगीत का हमारे मन-मस्तिष्क पर सर्वाधिक प्रभाव पड़ता है और अब डॉक्टर चिकित्सा-पद्धति में, मरीजों को राहत देने, तनाव-मुक्त करने में संगीत को शामिल कर रहे हैं. डॉ. शर्मा ने भारत में चिकित्सा विज्ञान और नाट्यशास्त्र दोनों का निर्माण एक युग-विशेष में माना है. ‘‘जब कुटुम्ब संपत्ति का उद्भव हो गया, समाज में अन्तर्विरोध बढ़े, तब रोगों के उपचार के लिए चिकित्सा-विज्ञान का विकास हुआ और मनोविकारों के अध्ययन और परिष्कार के लिए नाट्य-शास्त्र का निर्माण हुआ.’’ (‘भारतीय सौन्दर्य-बोध और तुलसीदास’, 2001, पृष्ठ 154) एक समय विशेष में जिन कलाओं का जन्म होता है, ज्ञान के नये क्षेत्र एक-दूसरे से सर्वथा पृथक् नहीं होते. उन सबके बीच एक संबंध भी है. सम्बद्धता का जितना महत्व है, उतना असम्बद्धता का नहीं. किसी भी शास्त्र या विज्ञान को दूसरे शास्त्र या विज्ञान से सर्वथा अलग करके देखने की परिपाटी बहुत बाद की है. ‘नाट्यशास्त्र’, ‘चरक संहिता’ और कौटिल्य के ‘अर्थशास्त्र’ में डॉ. शर्मा एक युग विशेष की संस्कृति देखते हैं, जबकि ये तीनों तीन भिन्न विज्ञान से हैं. ‘‘नाट्य-शास्त्र’ में साहित्य-विज्ञान है, ‘चरक संहिता’ में शरीर-विज्ञान है और अर्थशास्त्र में समाज-विज्ञान है” (वही, पृष्ठ 156). डॉ शर्मा ‘शरीर-विज्ञान और मनोविज्ञान’, ‘शरीर-विज्ञान और नाट्य-शास्त्र’ और ‘समाज विज्ञान और नाट्यशास्त्र’ पर विचार करते हैं. उन्होंने भरत मुनि, चरक और कौटिल्य इन तीनों को ‘यथार्थवादी दर्शन, विशेष रूप से लोकायत से प्रभावित’ माना है. कौटिल्य ने ‘अर्थशास्त्र’ के आरम्भ में लोकायत दर्शन का उल्लेख भी किया है. ‘‘कौटिल्य का यथार्थवादी दर्शन राजनीतिशास्त्र और अर्थशास्त्र दोनों से जुड़ा है.’’
कलात्मक सृजन के लिए सौन्दर्य-बोध आवश्यक है, जिसमें इन्द्रियों की विशेष भूमिका है.
‘‘कलात्मक सौन्दर्य के सृजन के लिए शरीर और इन्द्रियों का महत्व असाधारण है. शरीर से ही नृत्य संभव होता है, शरीर से ही संगीत संभव होता है… जो लोग कलाओं का विवेचन करते हैं, उनके पास यदि शरीर और इन्द्रियों से संबंधित पुष्ट दार्शनिक आधार हो, तो वे विवेचन को वैज्ञानिक और तर्क संगत बना सकते हैं. साहित्य में जो भाव और विचार व्यक्त किये जाते हैं, वे चाहे जितने आध्यात्मिक हों, उनका भौतिक आधार है. मनुष्य भाषा के बिना साहित्य में भाव और विचार व्यक्त नहीं कर सकता. भाषा सबसे पहले बोली जाती है. बोली जाय और चाहे लिखी जाये, उसमें शरीर के अंगों का योगदान रहता है. इस तरह साहित्य-सृजन में भी शरीर का योगदान महत्वपूर्ण है.’’
(वही, पृष्ठ 120)
साहित्य-सृजन से शरीर-शास्त्र का संबंध स्थापित कर उस पर विचार करने वाले डॉ. शर्मा हिन्दी के अकेले आलोचक हैं. हमारे सौन्दर्य-बोध में हमारी इन्द्रियों की अपनी भूमिका है. पंच तत्वों से निर्मित मानव शरीर नाशवान है, पर तत्त्व नाशवान नहीं हैं. जल, अग्नि, आकाश, पृथ्वी और वायु पंच तत्त्व हैं. ये सब मनुष्य के शरीर की तुलना में अमरणशील हैं. हमारे सभी धर्मों-कर्मों का साधन हमारा शरीर है. न तो हम शरीर की उपेक्षा कर सकते हैं, न शरीर-शास्त्र की. ‘‘कला की साधना के लिए भी शरीर आवश्यक है.’’ यह शरीर ‘केवल भावों की अभिव्यक्ति का माध्यम’ ही नहीं, उन्हें ‘अनुभव करने का माध्यम’ भी है. अशरीरी भावों का संबंध अशरीर मन से नहीं होता.
साहित्य का, साहित्य शास्त्र का शरीर-शास्त्र और चिकित्सा-शास्त्र से भी कोई संबंध हो सकता है, अब तक यह हमारी सोच से परे रहा है. चिंतन के सीमित दायरे से डॉ. शर्मा हमें बाहर निकालते हैं. ऋग्वेद-संबंधी उनके अध्ययन-चिंतन पर काफी सवाल खड़े किये गये थे. संभव है, साहित्य-शास्त्र और शरीर-शास्त्र के उनके अध्ययन-विवेचन पर भी कुछ सवाल खड़े हों और चरक, सुश्रुत को लेकर भी सवाल किये जायें. ऐसे प्रश्नकर्ता न तो डॉ. शर्मा के गंभीर अध्येता हैं और न चरक-सुश्रुत के अवदान से परिचित हैं. ‘चरक संहिता’ और ‘सुश्रुत संहिता’ आयुर्वेद के दो आधारभूत ग्रन्थ हैं. पाश्चात्य चिकित्सा-शास्त्र का जनक हिपोक्रेटिस (ईसा पूर्व 460-370) को माना जाता है. चिकित्सा शास़्त्र के इतिहास पर विकास के क्रम में या तो यूनान की ओर देखा जाता है या फिर भारत की ओर. चरक को भारत में चिकित्सा का और सुश्रुत को शल्य चिकित्सा का जनक कहा गया है.
‘चरक संहिता’ चिकित्सा विज्ञान का ग्रन्थ है और नाट्य-शास्त्र नाट्य का ग्रन्थ है. इन दोनों ग्रन्थों में डॉ. शर्मा ‘अन्तर्वस्तु के विचार से अनेक समानताएँ’ देखते हैं. उन्होंने नाट्यशास्त्र और अथर्ववेद में भी एक संबंध देखा है. दोनों में ‘रस’ उपस्थित है. अथर्ववेद के रस का संबंध काव्य और नाट्य से नहीं है. ‘वह औषधियों, वनस्पतियों आदि का रस है’, जो शरीर को पुष्ट करता और रोग को दूर करता है. नाट्य-शास्त्र में यह बताया गया है कि ऋग्वेद से पाठ्य अंश, सामवेद से गीत वाला अंश, यजुर्वेद से अभिनय का अंश और अथर्ववेद से रस लिया गया है. हम सब अक्सर जिस ‘सरस’ और ‘नीरस’ शब्द का प्रयोग करते हैं, उसका संबंध व्यापक अर्थ में रस से है. कविता या तो सरस होती है या नीरस- ऐसी धारणा लम्बे समय तक कायम रही है. डॉ. शर्मा चरक संहिता और नाट्यशास्त्र में कई समानताएँ देख कर उन पर विचार करते हैं. इन दोनों ग्रन्थों में आत्रेय ऋषि का उल्लेख है. डॉ. शर्मा ने संभावना प्रकट की है- ‘‘संभव है कि ये दोनों आत्रेय एक ही गोत्र के रहे हों, और उनका संबंध चिकित्सा विज्ञान तथा नाट्यशास्त्र से रहा हो.’’ (वही, पृष्ठ 152)
‘चरक संहिता’ से कई उदाहरण देकर रामविलास शर्मा ने शरीर विज्ञान और मनोविज्ञान की परस्पर संबद्धता को स्पष्ट किया है. उनके सौन्दर्य-चिंतन में यह परस्पर सम्बद्धता विशेष महत्वपूर्ण है. अरस्तू के विरेचन-सिद्धान्त से हम परिचित हैं, पर ‘चरक संहिता’ में भी रेचन की बात कही गयी है, इससे हम कम परिचित हैं. वेगों से उत्पन्न होने वाले रोगों के उपचार के लिए रेचन आवश्यक माना गया है. डॉ. शर्मा का मत है कि भारत से यह सिद्धान्त यूनान पहुँचा अर्थात् चिकित्सा विज्ञान से यह सिद्धान्त काव्य-शास्त्र में आया. उन्होंने ‘कैथार्सिस’ के सिद्धान्त को चिकित्साशास्त्र से जोड़ा है और ज्ञान की एक विकसित परम्परा की ओर ध्यान खींचा है.
हिन्दी में ऐसे ‘आधुनिकों-उत्तर आधुनिकों’ की कमी नहीं है, जो चरक और चरक-संहिता का नाम सुनकर ही बिदक जाये और डॉ. शर्मा को पुनरुत्थानवादी मान लें. इन विद्वानों के लिए यह लिखना जरूरी है कि 1898 में जिन पाँच डॉक्टरों- चार्ल्स लूमिस दाना (25.3.1852-12.12.1935), जोसेफ कॉलिन्स (1866-1950), वार्ड एड्रयूज होल्डन (1866-1937), फ्रेडेरिक पेटर्सन (1.3.1859-9.7.1938) और बरर्नार्ड सैक्स (2.1.1858-8.2.1944) ने न्यूयार्क में ‘चरक क्लब’ की स्थापना की थी, उन सबका अपने-अपने क्षेत्र में महत्व है.
‘चरक क्लब’ को पहले ‘ऐतिहासिक-सामाजिक क्लब’ के रूप में जाना जाता था. 1900 में अमेरिकी स्नायु-विशेषज्ञ, तंत्रिका-विज्ञानी बर्नार्ड सैक्स ने हिन्दू चिकित्सा पर अपना एक ‘पेपर’ पढ़ा था, जिसमें उन्होंने चरक को ‘सबसे पुराना चिकित्सक’ कहा था. इसी के बाद ‘ऐतिहासिक-सामाजिक क्लब’ का नाम ‘द चरक क्लब’ पड़ा.
चार्ल्स लुमिस दाना कौरनेल मेडिकल कॉलेज में तंत्रिकीय एवं मानसिक रोग के प्रोफेसर थे. जोसेफ कॉलिन्स ने 1888 में न्यूयार्क यूनिवर्सिटी से एम.डी. किया था और वे 1907 में न्यूयार्क पोस्ट ग्रेजुएट मेडिकल कॉलेज में तन्त्रिका-विज्ञान (न्यूरोलाजी) के प्रोफेसर थे. फ्रेडेरिक पेटर्सन अमेरिकी तंत्रिका रोग विशेषज्ञ होने के साथ ही कवि भी थे. वे कोलम्बिया विश्वविद्यालय में मनोचिकित्सा के प्रोफेसर थे, जिनकी प्रसिद्धि कवि रूप में भी हैं. उनकी पुस्तक है- ‘पोयम्स एण्ड स्वीडिश ट्रांसलेशेंस’. बर्नर्ड सैक्स अमेरिकी तंत्रिका विज्ञानी थे. इन्होंने ‘जर्नल ऑफ नर्व्स एण्ड मेंटल डिजीज़ (1886-1911) का प्रकाशन किया था और दो बार 1894 और 1932 में वे ‘अमेरिकन न्यूरोलॉजिकल एसोसिएशन’ के अध्यक्ष रहे थे.
रामविलास शर्मा ने वैदिक कवियों द्वारा ‘मनुष्य के शरीर के वाह्य रूप’ और ‘शरीर की आन्तरिक संरचना पर ध्यान देने की बात कही है. वे इसे ‘सौन्दर्य-बोध के दार्शनिक आधार के लिए महत्वपूर्ण’ (वही, पृष्ठ 118) मानते हैं. उन्होंने ऋग्वेद के एक सूक्त (10.163.1-3) के अथर्ववेद में भी (2.35) थोड़े परिवर्तन से दोहराये जाने की बात कही है. ऋग्वेद में वैद्य ने रोगी से कहा-
‘‘मैं तुम्हारी आँखों से, नासिकाओं से, कानों से, ठोड़ी से, सिर से, मस्तिष्क से, जीभ से, गर्दन की नाड़ियों से, ऊपर की स्नायुओं से, हड्डियों से, संधि भागों से, कन्धों से, बाहुओं से, अंतर्भाग से, हाथों से, गुदा की नाड़ियों से, स्थूल आँत से, हृदय से, मूत्राशय से, यकृत से, भोजन पाचक माँस पिण्डों से रोग को दूर करता हूँ.’’ (वही, पृष्ठ 118)
नाड़ियों का उल्लेख ऋग्वेद, अथर्ववेद, प्रश्नोपनिषद, और छान्दोग्यपनिषद में है.
‘‘इस हृदय देश में 101 नाड़ियाँ हैं, उनमें से एक-एक की 100 शाखाएँ हैं और उनमें से प्रत्येक की 72-72 हजार प्रतिशाखा नाड़ियाँ हैं, इन सब में व्यान संचार करता है’’ (वही, उद्धृत)
डॉ. शर्मा कलाओं के विवेचन में शरीर-विज्ञान पर विस्तार से विचार करते हैं. पाँच तत्त्वों से पृथक् ‘चेतना’ के लिए जिस ‘आत्मा शब्द का व्यवहार होता है, वह उनकी दृष्टि में ‘लंबे सांस्कृतिक विकास का परिणाम’ है. हमारा भाव-बोध इन्द्रिय-बोध से जुड़ा है और इन दोनों में घनिष्ठता है.
तंत्रिका विज्ञान (न्यूरो साइंस) पर डॉ. शर्मा ने विचार नहीं किया है, पर संक्षेप में ही सही, यह लिखना जरूरी लग रहा है कि इसमें तन्त्र (न्यूरो) का अध्ययन किया जाता है. आरम्भ में यह जीव-विज्ञान की एक शाखा था, पर अब यह
‘‘रसायन-शास्त्र, संज्ञान-शास्त्र, कम्प्यूटर विज्ञान, अभियान्त्रिकी, भाषा-विज्ञान, गणित, आयुर्विज्ञान, आनुवंशिकी, दर्शन शास्त्र, भौतिकी और मनोविज्ञान जैसे विषयों के अन्तर-विषयक सहयोग द्वारा परिभाषित’’ है.
यह एक बहु विषयक विज्ञान है, जिसके कई प्रकार हैं- कम्प्यूटेशनल तंत्रिका-विज्ञान (सैद्धान्तिक तंत्रिका विज्ञान या गणितीय तंत्रिका विज्ञान), व्यावहारात्मक स्नायु-विज्ञान, (विहैवरियल न्यूरोसाइंस), सांस्कृतिक न्यूरोसाइंस, विकासात्मक या उन्नतिशील न्यूरोसाइंस (डेवलपमेंटल न्यूरोसाइंस), संज्ञानात्मक न्यूरोसाइंस (कौगनिटिव न्यूरो साइंस) आदि. इन सभी प्रकारों में संज्ञानात्मक तंत्रिका विज्ञान का भाषा, साहित्य आदि की दृष्टि से अधिक महत्व है. भाषा, विचार एवं स्मृति को मस्तिष्क, किस प्रकार निर्मित-नियंत्रित करता है, इसका अध्ययन यहाँ होता है. संज्ञानात्मक तंत्रिका विज्ञान के जनक ‘ब्रेन, विजन, मेमोरी: टेल्स इन द हिस्ट्री ऑफ न्यूरो साइन्स’ (1999) और ‘ए होल इन द हेड: मोर टेल्स इन द हिस्ट्री ऑफ न्यूरो साइन्स’(2009) के लेखक, प्रिंसटन यूनिवर्सिटी में 43 वर्ष अध्यापन एवं शोध में रहे चार्ल्स गार्डन ग्रास (29.2.1936-13.4.2019) थे. रचनाशीलता का संबंध हमारे मस्तिष्क, दिमाग और बुद्धि से है. जीव-विज्ञान में महत्वपूर्ण विकास बीसवीं शताब्दी के मध्य (1950 के दशक के अंत और 1960 के दशक के आरम्भ) से हुआ. जब न्यूरो साइंस एक विशेष विद्या अथवा अनुशासन के रूप में आया. कविता को मस्तिष्क के लिए संगीत भी कहा गया है.
कला और विज्ञान के बीच के अन्तराल को समझने के लिए नव्य मस्तिष्क इमेजिंग तकनीक सहायता कर रही है. कविता और गद्य से मस्तिष्क की प्रतिक्रिया के अनेक रूपों को ‘न्यू ब्रेन इमेजिंग टेक्नोलॉजी’ से समझा जा रहा हैं कविता और गद्य के पढ़े जाने पर मस्तिष्क की भिन्न प्रकार की सक्रियता पर शोध जारी है. ‘जर्नल आफॅ कांशसनेस स्टडीज’ (1994 से प्रकाशित) में कई शोध प्रकाशित हुए हैं. यूनिवर्सिटी ऑफ एक्सटर मेडिकल स्कूल के प्रोफेसर, तंत्रिका विज्ञानी, ‘ए पोट्रेट ऑफ द ब्रेन’ (2008) के लेखक ऐडम जेमन के कार्य चर्चित हैं कार्लेन मेलॉन यूनिवर्सिटी के चीनी-अमेरिकी बायो मेडिकल इंजीनियर पैंसठ वर्षीय बिन हे ने कुछ वर्ष पहले मस्तिष्क की एक इमेजिंग तकनीक ईजाद की है. मस्तिष्क के दो गोलार्धों – दायें और बायें में से रचनाशीलता का संबंध दायें गोलार्ध से माना जाता है. जिनमें तर्क या विश्लेषण-बुद्धि है, उन्हें ‘लेफ्ट ब्रेन थिंकर’ कहा जाता है और जो ‘इनोवेटिव’ हैं, उन्हें ‘राइट ब्रेन थिंकर’ कहा जाता है. ‘न्यूरो इमेज’ जर्नल में इस सबसे जुड़े नये अध्ययन एवं शोध प्रकाशित होते हैं.
रामविलास शर्मा के इस कथन से शायद ही किसी को आपत्ति होगी कि ‘‘काव्य और कलाओं का मूलाधार संवेदन है और ये मनुष्य, पशु-पक्षी ओर वनस्पतियों तक में व्यापे हुए हैं.’’ (वही, पृष्ठ 219)
वाल्मीकि, कालिदास, तुलसीदास, शेली की कविताओं को उद्धृत कर उन्होंने यह बताया है कि वसन्त-ऋतु के आगमन पर किस प्रकार ‘‘वनस्पति, कीट-पतंग और मनुष्य समान रूप से नये ऋतु के जगाये संवेदनों से स्पन्दित हैं.’’ (वही, पृष्ठ 221) चार्ल्स डार्विन (12.2.1809-19.4.1882) ने ‘द ओरिजिन ऑफ द स्पेसिस एण्ड द डिसेंट ऑफ मैन’ (1871) में पशु-पक्षियों के सैन्दर्य-बोध पर जो लिखा है, उसे उन्होंने उद्धृत किया है. रचनाशीलता का संबंध वाह्य-जगत से है, ऋतुओं से है. पूरी प्रकृति सृजनशील है. वर्षा ऋतु से संगीत और काव्य की संबद्धता वैदिक ऋषियों से निराला तक देखी जा सकती है. डॉ. शर्मा डच जीव विज्ञानी, आधुनिक आचार-विज्ञान (एथोलॉजी) और पशु-व्यवहार के ज्ञाता, नोबेल पुरस्कार से सम्मानित निको टिनवर्गन (15.4.1907-21.12.1988) का उल्लेख करते हैं, जिन्होंने पशुओं के व्यवहार का अध्ययन किया था. उनके अनुसार-
‘‘पशु-पक्षी अपनी इन्द्रियों से बाह्य संसार से संबंधित सूचनाएँ प्राप्त करते हैं.’’ (वही, पृष्ठ 230)
निको टिन वर्गन पशु-व्यवहार के सर्वाधिक गंभीर अध्येता और विद्वान हैं. उनकी कई पुस्तकों में से एक ‘सोशल बिहैवियर इन ऐनिमल्स’ (1953) है.
क्या मानव-दृष्टि और पशु-पक्षी दृष्टि में कोई समानता भी है?
‘‘मूलतः पक्षी की दृष्टि और नाट्य-शास्त्र में वर्णित मानव की दृष्टि एक ही भाव से प्रेरित है. निकोटिन वर्गर के वृत्तान्त में जिस तरह नर पक्षी अकड़ कर खड़ा होता है, उससे नाट्य-शास्त्र के ग्यारहवें अध्याय में वैष्णव स्थान की तुलना करनी चाहिए.’’
(वही, पृष्ठ 231)
क्या है यह वैष्णव स्थान?
‘‘यदि दोनों पैर अढ़ाई ताल के अंतर से रखे जाएँ, इन पैरों में एक पैर खड़ा समुपस्थित और दूसरा पैर टेढ़ा और बाजू में स्थित रखे, जंघा थोड़ी झुकी हुई या सिकुड़ी हुई अंचित हो तो यह वैष्णव स्थान कहलाता है.’’
(वही)
मनुष्य के हाथ पैरों की जो भी क्रियाएँ हैं, उसे डॉ. शर्मा ने ‘मनुष्य द्वारा पक्षियों की नृत्य कुशलता का कलात्मक विकास’ कहा है. ‘चरक संहिता’ आयुर्वेद का ग्रन्थ है, पर डॉ. शर्मा उसका प्रभाव और विकास दूसरे क्षेत्रों में भी देखते हैं. कई उदाहरणों से उन्होंने यह बताया है कि ‘चरक संहिता’ से ‘कलात्मक सृजन और विवेक का घनिष्ठ संबंध’ है.
प्लेटो (ईसा पूर्व 428/427 या 424/423 – 348/47) के अनुकरण सिद्धान्त में कला और काव्य को सत्य से तिहरी दूरी पर रखने के कारण उसका महत्त्व कम किया गया था. उनके शिष्य अरस्तु (ईसा पूर्व, 384-322) ने इस सिद्धान्त की पुनर्रचना की. उनके विचार को प्लेटो की प्रतिक्रिया में ही नहीं, उसके विकास के रूप में भी देखा गया है. डॉ. शर्मा कलाओं का जन्म अनुकृति से नहीं मानते. उनके अनुसार अनुकृति का महत्व मनुष्य की ज्ञान-प्रक्रिया में है. वे आश्चर्य-भाव को ‘सौन्दर्य-बोध का अभिन्न अंग’ मानते हैं. डार्विन ने यह आश्चर्य-भाव सभी पशुओं में देखा है- ‘ऑल एनिमल्स फील वंडर’. उन्होंने कुछ भावों को ‘बौद्धिक भाव’ (इंटेलेक्चुअल इमोशंस) कहा है, जिससे बुद्धि और भावों का निकट संबंध ज्ञात होता है.
डॉ. रामविलास शर्मा ने प्रायः सभी कलाओं पर विचार किया है. इस आलेख में संक्षेप में उनके कला-सौन्दर्य-संबंधी चिंतन और शरीर-शास्त्र से उसके संबंध पर थोड़ा प्रकाश डाला गया है.
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रविभूषण
१७ दिसम्बर 1946, मुजफ्फ़रपुर (बिहार)
वरिष्ठ आलोचक-विचारक
रामविलास शर्मा का महत्व’ तथा ‘वैकल्पिक भारत की तलाश’ किताबें आदि प्रकाशित.
साहित्यिक, सामाजिक और सांस्कृतिक विषयों पर प्रचुर लेखन
राँची विश्वविद्यालय के हिन्दी विभागाध्यक्ष पद से सेवा-निवृत्त.
ravibhushan1408@gmail.com
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रविभूषण जी हिंदी के सर्वाधिक संवेदनशील और विचारवान आलोचकों में से हैं. उनके लेखन में जिस तरह की तल्लीनता, व्यापकता और चिंता दिखाई देती है, वह इस दौर में दुर्लभ है. वे पाठ की गहराइयों में उतरने वाले आलोचक हैं. इस लेख में भी उन्होंने रामविलास शर्मा के लेखन का एक अलग बिंदु उठाया है. इसमें सौंदर्यशास्त्र, नृतत्व विज्ञान, इतिहास , नाडी विज्ञान और दर्शनशात्र शामिल है. इस तरह के लेखन को क्रिटिकल थ्योरी ने विकसित किया था. रामविलास जी इस अर्थ में हिंदी के अकेले आलोचक दिखाई देते हैं जो विभिन्न ज्ञान अनुशासनों को एक साथ रखकर विचार करते हैं. इस महत्वपूर्ण एवं विचारपरक लेख के लिए रविभूषण जी का बहुत बहुत आभार. अरुण देव भाई का भी आभार कि यह लेख हम तक पहुंचा.
आदरणीय प्रोफेसर रविभूषण जी का डॉ.रामविलास शर्मा के अवदान पर केंद्रित यह आलेख रामविलास जी के योगदान की व्याख्या के साथ ही उनकी विरासत को आगे बढाने में समर्थ तो है ही,यह हिंदी के गंभीर पाठकों को इस दिशा में कुछ और सोचने-विचारने की प्रेरणा देता है।
उन्हें साधुवाद और समालोचन सम्पादक अरुण जी तथा उनकी टीम को इसके प्रकाशन के लिए धन्यवाद।
मित्रों से पुनः:निवेदन है कि वे समालोचन के निरन्तर प्रकाशन के लिए समय-समय पर यथासंभव कुछ आर्थिक सहयोग किया करें।
आभार प्रो. रवि रंजन जी। आपका ध्यान इस सहयोग के प्रति हमेशा रहता है।
पिछले आलेख में रविभूषण जी ने प्रेम चंद के गोदान उपन्यास में स्पेकुलेशन के तत्व पर विस्तृत विवेचना की थी।इस बार रामविलास शर्मा के सौंदर्य बोध पर। मौलिक चिंतन और संवाद के लिए आमंत्रित करता सुविचारित, बहुआयामी, ज्ञान वर्धक आलेख।