गांधी में कौन से गांधी को हमें तलाशना हैराजेंद्र कुमार |
रिचर्ड ऐटेनबरो की फ़िल्म ‘गांधी’ की शुरुआत का एक दृश्य याद आ रहा है. गांधी के जीवन की आख़िरी शाम है. उमड़ता जनसमूह जिज्ञासु है- ‘गांधी कहाँ मिलेंगे ? ‘ एक आवाज़ उभरती है- ‘ प्रार्थना सभा में जाइए. जाइए,बापू वहीं मिलेंगे.’
आज हम किससे पूछें- गांधी कहाँ मिलेंगे? गांधी कहीं नहीं हैं. जाने, हमने उन्हें कहाँ खो जाने दिया है! उनकी सिर्फ़ मूर्तियाँ हैं, तस्वीरें हैं. उनकी गुमशुदगी के इश्तिहारों-सी.
कुछ जगहें हैं, वीरान आश्रमों की तरह, जो अब गांधी से संबंधित वस्तुओं का संग्रहालय मात्र बनकर रह गई हैं. कुछ संस्थान हैं, जो गांधी को सिर्फ़ बौद्धिकोपयोगी अध्ययन का विषय बनाकर रख देने में कृतार्थ हो रहे हैं. गांधी ने जिस सकर्मकता को अपने अस्तित्व की पहचान की तरह अर्जित किया था, वह मानो कुछ शिलाओं पर उकेरी गई इबारत भर समझ ली गई है,जिसे पढ़ने के लिए, मन करे तो इतिहास के खंडहरों में जाया जा सकता है.
कुछ ऐसे भी हैं, जिन्हें लगता है, गांधी का भूत उनका पीछा कर रहा है. इस भूत-बाधा से मुक्त होने के लिए वे ‘गोडसे-गोडसे’ का जाप करने लगते हैं. गांधी के साथ छाया-युद्ध करने को तबीयत मचलती है तो गांधी से ‘महात्मा’, ‘बापू’ और ‘राष्टृपिता’ जैसे संबोधनों की नोच-खसोट पर आमादा हो उठते हैं. वे भूल जाते हैं कि ये संबोधन कोई मेडल या बिल्ले नहीं थे कि उन्हें गांधी से छीन कर किसी नरेंद्र मोदी या मोहन भागवत को उनसे विभूषित कर दिया जाए. कुछ ऐसी विभूतियाँ भी है जो गांधी का नाम सुनते ही इतनी उद्विग्न हो उठती हैं कि सावरकरी मंत्रों से झाड़फूंक करने लग जाती हैं.
भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने का जो उत्साह आज ज़ोर मार रहा है,वह राष्टोंन्नायक है या राष्टृघाती ? गांधी होते तो इस प्रश्न पर गंभीरता से सोचने की ज़रूरत पर ज़रूर बल देते. भारत को ‘विश्वगुरु’ होने की अहम्मन्यता में ग़र्क होना है या ‘विश्वमानव’ की परिकल्पना का विनम्र प्रस्तावक बनकर गौरव पाना है- इसका फ़ैसला करने का धैर्य हमसे छिनता जा रहा है.
गांधी भी अपने को हिंदू कहने में लजाते नहीं थे. लेकिन ऐसा हिन्दू कहलाना उन्हें कभी स्वीकार्य नहीं था जो किसी दूसरे धर्म को अपने धर्म से हीन ठहराने में ही अपने हिंदू होने की प्रामाणिकता मानता हो. हालाँकि सन् 1920 के दशक तक गांधी के संपर्क में आने का उत्साह कुछ ऐसे लोगों में भी बना रहा, जिन्हें हिन्दू धर्म की रूढ़ियों को भी जनेऊ की तरह धारण किए रहने में अपनी श्रेष्ठता-ग्रंथि की तुष्टि का अनुभव होता था. ऐसे लोग भावना से सांप्रदायिक न होते हुए भी अक्सर ऐसे संगठनों या ऐसी संस्थाओं से जुड़ जाते थे, जो आगे चलकर सांप्रदायिक राजनीति के बहुत काम आईं और अब तो खुलकर काम आ रही हैं.
हिंदू महासभा जैसा सनातनी आस्था वाला संगठन हो या आर्य समाज जैसी सुधारवादी संस्था हो, दोनों में ऐसे लोग थे, जिनमें से कई बाक़ायदा कांग्रेस पार्टी में भी रहे और गांधी से भी जिन्होंने संबंध बनाए रखने में कोई गुरेज़ नहीं किया. सनातन धर्म में आस्था रखने वालों में हनुमान प्रसाद पोद्दार और जयदयाल गोएनका ने जब ‘कल्याण’ जैसा ‘धर्म, अध्यात्म और वैराग्य का मासिक’ पत्र निकाला तो गांधी से भी उसमें लिखवाया. आर्यसमाजियों में भी कई गांधी के सहयोगी बने. यह तथ्य आज विसंगतिपूर्ण लग सकता है कि जो गांधी आजीवन सांप्रदायिकता-विरोधी रहे, वह अपने समय के उन लोगों के लिए भी कैसे भरोसेमंद बने रह सके, जिनकी सक्रियताएँ जाने-अनजाने हिंदू सांप्रदायिकता को खाद-पानी देने के काम आती रहीं.
निश्चित ही इसके लिए गांधी के कुछ अपने अंतर्विरोध भी ज़िम्मेदार माने जा सकते हैं. आश्चर्य होता है यह देख कर कि आधुनिक सभ्यता की ‘सख़्त टीका’ की ज़रूरत तो उन्होंने 1909 में ही समझ ली थी और ‘हिंद स्वराज’ जैसी पुस्तक लिख डाली थी, लेकिन अपने समाज में प्रचलित धार्मिक संकीर्णताओं और रूढ़ियों की सख़्त टीका, जो कि ज़्यादा ज़रूरी थीं, उसके लिए उस तरह की कोई पहल तब तक उन्होंने क्यों नहीं की थी.
समाज में सबके लिए समानता के अवसर सुलभ होने को स्वराज की बुनियादी शर्त मानने वाले गांधी की क्या विवशता थी कि वर्णभेद-जनित व्यवस्था के विरोध में वह न बोल सके, पुनर्जन्म और कर्मफल के सिद्धांत में उनकी आस्था कैसे अविचलित बनी रही और आगे चलकर अंबेडकर से उनके गहरे मतभेद का वातावरण बनने की पीठिका क्योंकर बनती गई? ये प्रश्न आज भी विचारणीय हैं.
सन् 1920 का दशक एक ओर गांधी के नेतृत्व में राष्ट्रीय स्तर पर चलाए गए असहयोग आंदोलन का साक्षी बना, तो दूसरी ओर हिंदुत्ववादी शक्तियों की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं के उभार का भी. सन् 1923 में सावरकर ने ‘हिंदुत्व’ की अपनी अवधारणा प्रस्तुत की.
1925 में हिंदू महासभा के गर्भ से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जन्मा. 1926 में ‘गीता प्रेस’ जैसा प्रकाशन संस्थान स्थापित हुआ, जिसने हिंदूओं के धार्मिक ग्रंथों को सस्ते दामों पर घर-घर पहुँचा कर सनातनधर्मी आस्थाओं को पोषित और जड़ीभूत करने के अनियंत्रित अवसर उपलब्ध कराए.
सावरकर (जो हिन्दू महासभा के अध्यक्ष भी रहे थे) और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के गांधी से मतभेद तो पहले से ही स्पष्ट थे. लेकिन ‘गीताप्रेस’, जो धर्म की राजनीति से प्रत्यक्षतया संबंधित संस्था नहीं थी, उसके कर्ता-धर्ता हनुमान प्रसाद पोद्दार और जयदयाल गोएनका जैसों के लिए भी गांधी आँखों की किरकिरी बनने लगे.
गांधी ने जब मंदिरों में अछूतों के प्रवेश के समर्थन में आंदोलन आरंभ किया तो हनुमान प्रसाद पोद्दार जैसे महानुभावों का गांधी पर रहा-सहा भरोसा भी टूट गया. पोद्दार की दृष्टि में अछूतों को मंदिर-प्रवेश का अधिकार दिया जाना धर्म-विरुद्ध था. इतना ही नहीं, गांधी ने जब अपना यह संकल्प घोषित किया कि शादी-ब्याह में शामिल होने का निमंत्रण मिलने पर वह उसी शादी में जाएंगे, जिसमें वर-वधू में से कोई एक हरिजन हो, तो इसकी भी तीव्र भर्त्सना की गई.
कहा गया कि अछूत परिवार में जन्म लेना पिछले जन्म के कर्मों का दंड भोग है और सवर्णो के समान उन्हें अधिकार की कोई भी छूट देना ईश्वरीय न्याय की अवहेलना है. इस तरह, जो तथाकथित सदाशयी हिंदू के रूप में लोकप्रिय थे, उनमें भी गांधी के प्रति वितृष्णा का भाव इस कदर बढ़ने लगा कि ‘कल्याण’ जैसी पत्रिका, जिसमें गांधी से आग्रह करके लेख मांगे जाते थे, उन्हीं गांधी पर सन १९४० तक आते-आते ‘कल्याण’ का रुख आक्रामक होने लगा.
आज गांधी दोनों की निगाह में संदेह के पात्र हैं- अवैज्ञानिक सोच वालों की निगाह में भी और वैज्ञानिक सोच वालों की निगाह में भी. हिंदू राष्ट्र के हिमायती उन्हें हिंदू-विरोधी और मुस्लिम-तुष्टीकरण की नीति का प्रवर्तक मानते हैं.
धर्मनिरपेक्षता पर बल देने वालों की शिकायत है कि धर्म की जिस राजनीति का रोना आज हमें रोना पड़ रहा है, उसकी शुरुआत भी तो गांधी ने ही की थी.
गांधी के सत्तरवें जन्मदिन के अवसर पर कलकत्ता से प्रकाशित ‘विशाल भारत’ के गांधी विशेषांक (अक्तूबर,1938)में अखिल भारतीय किसान सभा के अध्यक्ष स्वामी सहजानंद सरस्वती का एक लेख छपा था-‘राजनीति और गांधीवाद’ उसमें स्वामी सहजानंद को भी यही शिकायत थी कि गांधी के राजनीतिक सिद्धांत का आधार मूलतः धर्म है. सहजानंद राजनीति में किसी भी तरह के प्रत्ययवाद या आदर्शवाद को तरज़ीह देना उचित नहीं मानते थे. उनका स्पष्ट मत था कि धर्म को अपनी भूमिका अध्यात्म और पारलौकिकता के क्षेत्र में ही सीमित रखनी चाहिए, उसे अपने रास्ते से भटककर राजनीति में नहीं आना चाहिए.
इसमें कोई शक नहीं कि गांधी गहरे और सच्चे अर्थों में एक आस्थावान धार्मिक व्यक्ति थे. लेकिन जिस तरह आज राजनीति में मंदिर-निर्माण, धार्मिक कर्मकांड, पूजा-स्थलों और तीर्थों के उद्धार आदि से संबंधित प्रदर्शनात्मक कार्यक्रमों के जरिए धर्म और पूंजी के समवेत उत्सवों का माहौल बनाया जा रहा है और धर्म भी आस्था से अधिक उपभोग का विषय बनता दिख रहा है, गांधी की धर्मप्रवणता का स्वरूप इस सबसे भिन्न था.
गांधी की दिनचर्या में तीर्थाटन, पूजापाठ, आरती-वंदन वग़ैरह के लिए कोई अवकाश नहीं था. और यह तब, जब उन्हें जन्म से ही जो पारिवारिक परिवेश मिला था, उसमें उन्होंने ख़ुद अपनी माँ के कर्मकांडी संस्कारों से विशेष प्रभावित होने का उल्लेख किया है. सार्वजनिक जीवन में उन्होंने रामधुन को अगर अपने जीवन का लक्ष्य बनाया और रामराज्य को अपनी स्वराज संबंधी परिकल्पना का रूपक माना तो इससे यह निष्कर्ष निकालना हड़बड़ी होगी कि यह सब कोई सोची-समझी या सुनियोजित राजनीति-प्रेरित कार्रवाई थी.
गांधी का मानना था कि कोई भी धर्म मानव-धर्म का दर्ज़ा तभी पा सकता है, जब वह अपनी आत्यंतिक संपूर्णता का दंभ न पाले. हर धर्म अपने-अपने अधूरेपन को समझते हुए, उससे उबरने की कोशिश में एक दूसरे से सहयोग ले, तो अपेक्षाकृत कम अधूरेपन की ओर अग्रसर होते जाने की दिशा पा सकता है और तब वह व्यापक अर्थ में मानव-धर्म कहलाने की पात्रता अर्जित कर सकेगा. एक सनातनी हिंदू परिवार में जन्म लेने के बावजूद अपने संस्कारों को उदात्ततर बनाते हुए गांधी जब इस स्वीकारोक्ति तक पहुंचते हैं कि ‘मैं हिंदू भी हूँ, मुसलमान भी, सिख भी, ईसाई भी’ , तो उनकी बताई गई अपनी इस अनूठी धार्मिक पहचान का निहितार्थ उपर्युक्त संदर्भ में ही उद्घाटित होते देखा जा सकता है.
कर्म फल और पुनर्जन्म जैसी अवधारणाओं में उनके विश्वास व्यक्त करने के प्रसंग भी गांधी के जीवन में मिलते हैं. इन प्रसंगों को गांधी के हिंदू मन में अवचेतनतया आसन जमाए संस्कारों की प्रेरणा भी मान लिया जाए तो भी उनके इस कथन का क्या आशय लिया जाए कि- ‘मेरा अगला जन्म हो तो मैं किसी हरिजन के यहाँ जनमूँ ‘.
क्या यह सिर्फ़ पुनर्जन्म की आस्था से जनमा उद्गार मात्र था? आज के दलित चिंतकों के यहाँ ‘स्वानुभूति’ बनाम ‘सहानुभूति’ के तर्क से कहा जाता है कि सवर्ण चिंतकों-लेखकों ने वह त्रास भोगा ही नहीं जो दलित समाज ने भोगा. इसलिए वे हमारी पीड़ा कैसे समझ सकते हैं? वे चाहे गांधी हों, चाहे प्रेमचंद. उनसें हमें जो कुछ मिलता है, वह कोरी सहानुभूति है- निष्क्रिय और अपरिवर्तनकारी.
इस संदर्भ में हम गांधी की किसी हरिजन के यहाँ जन्म लेने की कामना को समझने की कोशिश करें तो इसका एक दलित-चिंतन संगत अर्थ लिया जा सकता है. गांधी की इस कामना में इस बात की बेचैनी मिलेगी और स्वीकारोक्ति भी कि सवर्णो ने नीची समझी जाने वाली जातियों के प्रति जो त्रासद, अपमानजनक और अमानवीय व्यवहार किया, उसका यथार्थ अनुभव सचमुच उन्हें तभी हो सका होता, जब वे ख़ुद उन्हीं जातियों में से किसी में पैदा हुए होते.
गांधी के विचारों में सामाजिक परिवर्तन को गति देने वाले तत्त्व अधिक हैं या अवरोधक तत्त्व, इस पर लगातार बहस होती रही है. गांधी जब भारत के राजनीतिक परिदृश्य के केंद्र में आए, तो उस युग को विज्ञान का युग कहा जाता था. विज्ञान अपने साथ एक दर्शन लेकर आया था, जिसे आधुनिकता के दर्शन के रूप में स्वीकार किया जा रहा था. दर्शन की चिंता मानवजीवन में केवल बाहरी बदलाव लाने की ही नहीं होती, बल्कि उसकी चेतना में आंतरिक बदलाव (ऐसा बदलाव जो उदारता का आश्वासन दे) लाने की अधिक होती हैं. गांधी की किताब ‘हिंद स्वराज’ में ‘आधुनिक सभ्यता की जो टीका’ की गई थी, वह निश्चय ही बहुत सख़्त थी, लेकिन क्या उसे आधुनिकता के नाम लिखा गया निरा विरोध पत्र मान लिया जाए?
आधुनिकता के नाम पर औपनिवेशिक भारत में समाज को जिन वाह्य उपकरणों ( ‘भारत में सुख साज सबै अति भारी’) से होने वाले परिवर्तनों के दम पर आकृष्ट किया जा रहा था, गांधी उतने भर से संतुष्ट होने वालों में नहीं हो सकते थे. उन्हें आधुनिकता एक ऐसे वैकल्पिक दर्शन के रूप मे काम्य थी, जो पश्चिम से मिले ओवरकोट सी इस तरह न पहन ली जाए कि हमारी अपनी पहचान ही ढक जाए.
आज जिस युग में हमें गांधी को खोजना है, उसमें विज्ञान की अपने दर्शन पक्ष से विदाई होती दिख रही है. हम विज्ञान के उपभोग पक्ष अर्थात टेक्नोलॉजी की अनियंत्रित होने का सुख भोगने में इतने मगन हैं कि ख़ुद अपने ‘आत्म’ से विछिन्न होते जा रहे हैं.
टेक्नोलॉजी पर हमारा कोई नियंत्रण नहीं है, हम टेक्नोलॉजी के नियंत्रण में हैं. हमने यह भ्रम पाल लिया है कि टेक्नोलॉजी हमारे लिए है. अब वास्तविकता यह है कि हम टेक्नोलॉजी के लिए हैं. स्टीफेन हाकिंग जैसे वैज्ञानिक तक को यह कहना पड़ता है कि- ‘मनुष्य की तकनीकी उपलब्धियों ने उसके विवेक को क्षीण किया है’.
हमें यह भी ध्यान नहीं रह गया है कि इस प्रकृति जगत में सिर्फ हम ही नहीं हैं, अन्य प्राणी भी हैं. यह दुनिया सिर्फ हमारे ही लिए नहीं है. असंख्य जीव जंतुओं, पशु पक्षियों, वनस्पतियों के लिए भी है, जिनमें से बहुतों के तो नाम तक हमें पता नहीं. जिनके नाम हमें पता भी थे, उनमें से कितनों के नाम हम भूलते जा रहे हैं. हमें सिर्फ इतना भर याद रखने का अभ्यस्त बना दिया गया है कि इस ब्रह्मांड में जो कुछ भी है सब हमारे लिए है. सिर्फ हमारे लिए. यह विच्छिन्नता हमें प्रकृति से विच्छिन्न कर रही है. प्रकृति को विच्छिन्न कर रही है. यह विच्छिन्नता हमें अपने पर्यावरण में सांस लेने भर की हवा के लिए भी टेक्नोलॉजी का मोहताज बना दे, तो कुछ अजब नहीं.
गांधी के ‘हिंद स्वराज’ की बहुत सी बातें निस्संदेह आज अव्यावहारिक प्रतीत हो सकती हैं, लेकिन कुछ आगाह करने वाले इशारे उसमें अब भी संभावना की तरह विद्यमान हैं. और फिर यह भी कि आज अगर गांधी होते तो शायद वे अपनी मान्यताओं में कुछ परिवर्तन और परिष्करण भी करते. कौन जाने, हमारे युग की दर्शनविहान टेक्नोलॉजी की सख़्त टीका करते हुए नया ‘हिंद स्वराज’ भी लिखते.
गांधी का जीवन एक प्रयोगशाला जैसा रहा, जहां सत्य के साथ उनके प्रयोग निरंतर चलते रहे. वह मानते थे, सत्य ही ईश्वर है. पारंपरिक आस्तिकता वाली आस्था ‘ईश्वर ही सत्य है’ का गांधी द्वारा पाया गया यह आधुनिक भारतीय विकल्प था कि ‘सत्य ही ईश्वर है’. ईश्वर को उन्होंने पा लिया है, ऐसा उन्हें न कोई वहम रहा, न ऐसा कोई दावा उन्होंने कभी किया. सत्य को अपने किसी प्रयोग की अंतिम परिणति के तौर पर सर्व-स्वीकार्य मानने या मनवाने के बजाय वह सत्य के साथ अपनी प्रयोगात्मक प्रक्रिया के गतिमान बने रहने को महत्व देते थे. गांधी की तरफ़ से कोई रोक नहीं, कोई चाहे तो सत्य के साथ उनके प्रयोगों पर संदेह भी करे.
संदेह किए भी गए. उनके जीवन-काल में भी, और आज भी किए जा रहे हैं. संदेह स्वयं सत्य न भी हों, तो भी कम सार्थक नहीं होते यदि वे सत्य के प्रति हमें सचमुच जिज्ञासु बनाने में सक्षम बने रह सकें.
गांधी जो भी हों, जैसे भी हों, उनका होना हमारे इतिहास का सत्य है, इसलिए वांछित है कि हम, जितना बन पड़े, ख़ुद अपने प्रयोगों की प्रक्रिया में भी देखें कि गांधी को हम कैसी और कितनी संभावना के रूप में अब भी पा सकते हैं. गांधी के साथ अपने प्रयोगों में आलोचनात्मक सलूक के लिए भी यथोचित अवकाश बनाए रखते हुए तय करना चाहिए कि गांधी में से कौन से गांधी हमें तलाशने हैं.
ध्यान में यह सवाल भी रहे कि गांधी के प्रति आलोचनात्मक सलूक की सही तमीज़ हम किस से सीखें या कैसे अर्जित करें ? कम से कम किसी प्रज्ञा या किसी पुष्पेंद्र जैसे आत्ममुग्ध वाग्वीरों से तो नहीं ही सीखेंगे.
राजेन्द्र कुमार जन्म : 24 जुलाई, 1943; कानपुर प्रमुख कृतियाँ :‘ऋण गुणा ऋण तथा कुछ अन्य कविताएँ’, लोहा-लक्कड़ (कविता संग्रह), ‘हर कोशिश है एक बग़ावत’ (कविता-संग्रह), ‘आईना-द्रोह’ (लम्बी कविता) ‘अनन्तर तथा अन्य कहानियाँ’ (कहानी-संग्रह); ‘प्रतिबद्धता के बावजूद’ (निबन्ध-संग्रह); कविता का समय-असमय, इलाचंद्र जोशी, साहित्य में सृजन के आयाम और विज्ञानवादी दृष्टि (आलोचना) संपादन: मोब. 9336493924 |
बहुत सुचिंतित आलेख है बंधुवर राजेन्द्र कुमार जी का।अरसे बाद वे इस तरह सक्रिय दिखे।
बहुत बढ़िया आलेख। गांधी के आलोचकों को अगर इनकी बात समझ में आ जाए तो क्या बात होगी! लेकिन वे तो अलग ही मिट्टी के बने हुए हैं और हिंदुत्व के चक्कर में स्वधर्म को भूल चुके हैं।
प्रयोग शाला गाँधी जी की पाठशाला है.
आज के समय में हिन्दू की जो विकृत छवि बनाई गई और बनाई जा रही है, वह घृणास्पद है . गाँधी जी का हिन्दू और ये राष्ट्रपतन का हिन्दू दोनों को बरकस रख राजेंद्र जी गहराई से मथा है.
इस आलेख में कई प्रसंगों का पुनर्मूल्यांकन किया है , गांधी जी को कितनी -जितनी बार
मंथन कीजिए हर बार वैचारिक नवनीत निकलेगा ही. धार्मिकता से लेकर पुनर्जन्म और कितनी ही विविधताओं की खोज-पड़ताल कर राजेंद्र जी ने क्लिष्टता से परे सुगम भाषा में जो विचार प्रतिपादित किये हैं वे पठनीयता को और तीव्र करते हैं.
राजेंद्र जी और अरु ( णोदय) के धन्यवाद.
गाँधी को समग्रता में समझना आसान नहीं। इस आलेख की विशेषता यह है कि यह गाँधी को समझने में हमारी सहायता करता है। आज गाँधी को बदनाम करने की दूरगामी साजिश चल रही है। इस तरह का वैचारिक लेख गाँधी के नाम पर लेख चल रहे धूर्त षडयंत्र की खबर लेता है।
राजेंद्र कुमार जी जिस आलोचकीय विवेक और ऐतिहासिक दृष्टि के लिए जाने जाते हैं, वह यहाँ पर गाँधी के साथ स्पष्टता के साथ दिखता है। गाँधी के पूजा सामग्री में बदल देने अथवा चरमपंथियों द्वारा उन्हें घृणा का निवाला बनाए जाने के प्रयास रोज होता है। गाँधी का जीवन बोध इसे खारिज़ करता रहता है। यह लेख पाठकों को उसी दिशा का राही बनाता है।
राजेंद्र सर को साधुवाद।