गांधी और ब्रह्मचर्य: पुनरावलोकनरुबल से के. मंजरी श्रीवास्तव की बातचीत |
1. महात्मा गाँधी के ब्रह्मचर्य सम्बन्धी अवधारणा के विषय में आप क्या सोचतीं हैं?
महात्मा गांधी का जीवन-दर्शन विस्तृत है. सत्य, अहिंसा, स्वराज ऐसे कितने ही सूत्र हैं, जो गांधी को महात्मा बनाते हैं. गांधी के विचारों की गतिशीलता को पकड़ने के लिए इन्हें साथ-साथ समझना जरूरी है. ब्रह्मचर्य भी ऐसा ही एक सूत्र है. इसको गांधी अपने जीवन में अन्य सभी सूत्रों व मूल्यों की तरह साथ लेकर चलते रहे.
ब्रह्मचर्य पर बात सबसे कम की गयी है या उस पर ध्यान कम दिया गया है. माना जाता रहा है कि इसका सम्बन्ध गांधी के निजी जीवन से होने के कारण इसे दूसरे मूल्यों से अलग करके देखना ज्यादा बेहतर होगा. यह भी हो सकता है कि विद्वानों को गांधी के विशाल एवं नैतिक रूप से स्थापित महात्मा की छवि पर किसी भी आक्षेप का डर रहता हो. लेकिन हमें ब्रह्मचर्य का सामना करना तो होगा ही. इसे दोबारा और गंभीर परिप्रेक्ष्य में गांधी के साथ देखने की कोशिशें करनी होगी. यह जानते हुए कि प्रक्रिया का महत्व होता है निष्कर्ष का नहीं. हमें इस प्रक्रिया को एक बार फिर से शुरू करने का प्रयास करना होगा. गांधी के समय के साथ-साथ वर्तमान को भी जोड़ते हुए इसी सन्दर्भ में बात शुरू करनी होगी. देखना होगा कि क्यों ब्रह्मचर्य को गांधी के साथ जोड़कर देखने में हल्की और प्रोपेगेंडा के लक्ष्य से संचालित प्रवृत्तियां हावी होती दिखाई पड़ती हैं? क्यों गंभीरता और तार्किकता से इस विषय के भीतर जाने की कोशिशें नहीं की गयीं?
वास्तविकता यही है कि गांधी के जीवन से जुड़ी बारीक से बारीक बातों पर असंख्य पृष्ठ भरे जा चुके हैं, किन्तु ब्रह्मचर्य को एक सीमित अवधारणा मान अकेले छोड़ दिया गया है. मेरे सामने प्रश्न यह है कि ब्रह्मचर्य वास्तव में क्या है? कैसे इसे गांधी के जीवन दर्शन में आधुनिक बोध के साथ समझा जा सकता है? क्या वाकई में गांधी और ब्रह्मचर्य को एक साथ देखने में किसी अतिरिक्त सावधानी की आवश्यकता होती है? इसी क्रम में पूछा जा सकता है कि कैसे ब्रह्मचर्य पर बात करना नैतिकता पर बात करना हो जाता है?
गांधी को पढ़ने एवं समझने के क्रम में मैंने बार-बार यह पाया है कि ब्रह्मचर्य को गांधी के साथ देखने में विद्वान व चिन्तक थोड़े असहज हो जाते हैं, उसपर बात या विचार करने से बचते हैं. जो लेख या किताब इस विषय को उठाते भी हैं, वे या तो इसे गांधी के जीवन की नैतिक कुंजी मानकर, इसे गांधी के सन्दर्भ में अलग पायदान पर बिठा देते हैं, जहाँ से यह व्यावहारिक अर्थों की परिधि से बाहर आकर नैतिक मूल्यों के दार्शनिक सन्दर्भों में स्थापित हो जाता है. या इसे गांधी के दिमागी कसरतों में से बहुत सी अन्य परियोजनाओं की तरह उनके निजी जीवन की संपत्ति मान लेते हैं, जिसे गांधी भूलों, गलतियों, साथ लेने की इच्छा जैसी शब्दावलियों से बार-बार व्याख्यायित करते रहे हैं.
इस तरह के व्याख्यान में कई बार गंभीर से गंभीर लेखक चिन्तक भी गांधी के ब्रह्मचर्य को विषय वस्तु से हटाकर उसे बहुत हल्की दृष्टि से देखने लगते हैं.
उदाहरण के तौर पर गिरजा कुमार की किताब ‘Mahatma Gandhi’s Letters on Brahmacharya Sexuality and Love’ को लिया जा सकता है, जिसमें लेखक भूमिका में ही लिखते हैं कि प्रोफ़ेसर निर्मल कुमार बोस जोकि गांधी के साथ नोआखाली में गांधी के ब्रह्मचर्य के महायज्ञ में उनके साथ थे, गांधी के साथ असहमति के कारण उनसे अलग हो गए. इसके परिणामस्वरूप गिरजा कुमार लिखते हैं कि, बोस ने नोआखाली के दिनों को याद करते हुए कुछ संस्मरण लिखे हैं, इसे उन्होंने ‘sensational recollections Of The Noakhali Days’ कहकर संबोधित किया है.
पूछा जा सकता है कि क्या इस तरह के निर्णायक तत्वों से बचा जा सकता था? जब प्रक्रिया पर बात न होकर निष्कर्ष को सामने रखा जाता है तब किसी भी बात का कोई अर्थ नहीं रह जाता है. इस पूरे प्रकरण को जब आप ‘sensationa’ कहते हैं, तो आगे किसी भी बात को कहने से पहले ही आपअपनी स्थिति स्पष्ट कर देते हैं.
अब जबकि इन दोनों ही सन्दर्भों में गांधी के साथ ब्रह्मचर्य देखने-समझने की सीमाएं तय की जाती रही हैं. इन्हीं सीमाओं में से एक जरूरी प्रश्न भी सामने आता है कि क्या ब्रह्मचर्य इतना गम्भीर और महत्वपूर्ण विषय है, जो गांधी को महात्मा और महात्मा को गांधी बनाने में सक्षम हैं?
2. गांधी और ब्रह्मचर्य की समकालीन अर्थवत्ता क्या है?
आज के समय में अगर आप और मैं थोड़ा ठहर कर सोचें, तो अभी भी ये विषय थोड़ा असहज और अटपटा लग सकता है. आज भी ब्रह्मचर्य जैसे विषय पर बात करने में एक झिझक या उदासीनता जैसी भावना आती है. बात तब और भी गंभीर हो जाती है जब इसे आप उस व्यक्ति के सन्दर्भ में समझने देखने की कोशिश कर रहे हों, जिसकी नैतिकता की दार्शनिकता समाज के लिए एक महत्वपूर्ण मापदंड मानी जाती हो, जिसके मूल्यों, विचारों के साथ समाज का बड़ा हिस्सा आत्म सम्बद्ध होने का प्रयास करता रहा हो. आप अनुमान लगा सकते हैं कि जब इक्कीसवीं सदी में भी ब्रह्मचर्य जैसे विषय पर बातचीत इतनी कम और असहज करने वाली हो, तो कैसे गांधी के जीवन में इसको देखा गया होगा. क्या गांधी के जीवित रहते इसपर विचार विमर्श करना ज्यादा आसान रहा होगा ?
ऐसा तो नहीं है कि दिक्-काल की जटिलता, इस पूरे विमर्श को वर्तमान की अवधारणाओं तक सीमित कर देती हैं? क्या आज का समय गांधी को उनके सही परिप्रेक्ष्य में देखने की गुंजाइश देता है, वह भी उस मूल्य के साथ जिसे वर्षों से सावधानी पूर्वक बंद बक्सों में गांधी दर्शन की जटिल तहों में समेट कर छोड़ दिया गया है.
सही मायनों में मेरा यहाँ गांधी के ब्रह्मचर्य के अर्थ का विखंडन, सीमाएं, उसकी उपयोगिता, प्रासंगिकता या अप्रासंगिकता देखने का कोई प्रयास जैसा नहीं है. इसका कारण है यह है कि गांधी की वैचारिक प्रक्रिया में से किसी भी एक मूल्य या तत्व को देखने समझने का प्रयास उनके सम्पूर्ण दर्शन को एकायामी होकर देखने जैसा है. गांधी को उनकी सम्पूर्णता में ही खोजा जा सकता है.
मेरे लिए आधुनिक समय में गांधी के सन्दर्भ में सबसे महत्वपूर्ण सवाल यही लगता है कि क्या ब्रह्मचर्य को गांधी के साथ जोड़ कर देखने में स्वयं गांधी की नैतिकता पर प्रश्न लग सकता है ? हो सकता है कि समकालीन दृश्य में ब्रह्मचर्य परम्पराओं से निकला एक जिन्न हो. लेकिन एक समय यह गांधी के लिए सत्य और ईश्वर तक पहुँचने की कुंजियों में से एक महत्वपूर्ण कुंजी थी, जिसे गांधी ने अथक प्रयासों से अपने लिए साधा.
तो क्या इतना ही सरल है यह ?
क्या इस नैतिक उद्यम को राजनीतिक उद्देश्य के लिए नहीं परिष्कृत किया गया था? क्या व्यक्तिगत नैतिकता की दीवारों से बाहर ला इसे राजनीतिक नैतिकता या कहिये सामूहिक नैतिकता में तब्दील करने का गांधी का सपना नहीं था ?
यह प्रश्न ही एक तरह से वह मुख्य बिंदु हैं, जहां से ये विषय अपनी जड़ें खोजनी शुरू कर सकता है. निश्चित तौर पर यह शुचिता, शुद्धता, अस्मिता का भी आरंभिक बिंदु है जहाँ से इन्हें गांधी के सन्दर्भ के बहाने दोबारा देखने समझने की शुरुआत की जा सकती है. प्रयास तो किया ही जा सकता है.
ब्रह्मचर्य को गांधी बार-बार अपने लेखन व जीवन में इन्द्रिय-शुचिता के सन्दर्भ में व्याख्यायित करते रहे, जिसमें सिर्फ तन की ही नहीं मन और विचारों की भी शुद्धता हो. उदाहरण के तौर पर यंग इंडिया में एक मित्र के सवाल के जवाब में गांधी ब्रह्मचर्य को सभी समय, सभी स्थानों पर सभी इन्द्रियों के विचार, शब्द और कर्म में नियंत्रण बताते हैं.
प्रश्न यह है कि किस आधार पर इन्द्रियों के नियंत्रण का पैमाना तय होता है? कैसे नियंत्रण की सार्वजनिक भूमिका तय की जा सकती है साथ ही कैसे एक व्यक्ति द्वारा इन्द्रिय नियंत्रण किसी समाज की राजनीतिक दृष्टि बन सकती है ?
क्या इस तरह की दृष्टि में स्त्री और पुरुष दोनों ही समान भागीदारी निभाते हैं? क्या स्त्री पुरुष के संबंधों पर इसका एक समान प्रभाव पड़ता है ? क्या ब्रह्मचर्य एक आत्मगत तत्व है, जिसे सम्पूर्ण समाज पर विशुद्ध वस्तुगत रूप में आरोपित करने का प्रयास किया जाता है ?क्या गांधी इस प्रकार की दुविधाओं से परिचित थे, या उन्होंने इसे हम पर छोड़ दिया, जहाँ अनुभव और ज्ञान के रास्ते पर चलकर, इसे समझा जा सकता है. कहना मुश्किल है. कुछ ऐसे ही प्रश्न हैं जिनके उत्तर हमें समकालीनता और इतिहास की तहों में से निकालने के प्रयास करने हैं.
3. गांधी के साथ ब्रह्मचर्य को समझने के क्रम में आप किस विचार को सबसे जटिल मानती हैं?
गांधी के साथ ब्रह्मचर्य को समझने के क्रम में जिस जटिल तथ्य से सबसे पहले आपका सामना होता है वह यह है कि आप या मैं इस पूरे विषय को एक तीसरे व्यक्ति के तौर पर देख रहे हैं. यहाँ तीसरा कहने का अभिप्राय उसकी दूरी को लेकर है. यह दूरी मानसिक, भौगोलिक एवं इतिहास से वर्तमान की दूरी है. इस दूरी में रहते हुए यह तीसरा व्यक्ति कभी भी अपनी भूमिका, अपनी स्थिति स्पष्ट नहीं कर पाता कि वह क्यों लौट-लौट कर गांधी दर्शन एवं उसके कुछ तत्वों को समझना चाहता है.(हालाँकि ये जानना भी जरूरी है, कि क्यों हम बारंबार लौट कर गांधी तक जाते हैं.)
यहाँ ब्रह्मचर्य से सम्बंधित दो व्यक्ति वे हैं जो इससे सीधे तौर पर जुड़े हुए हैं. जिसमें से एक ने ब्रह्मचर्य का रास्ता अपनाया, तो दूसरे ने उसे सहमति या असहमति दी (ये अलग विषय है ).
अब एक तीसरा व्यक्ति, जो कि एक लेखक-पाठक है या सिर्फ दर्शक है, उसके लिए उस प्रथम व्यक्ति का महत्त्व है, जो ब्रह्मचर्य अपनाता है. क्या उसके लिए उतना ही महत्व वह दूसरा व्यक्ति भी रखता है जो उस प्रक्रिया का हिस्सा है ? (उस दूसरे व्यक्ति का भावनात्मक सम्बन्ध पहले व्यक्ति के साथ कई चरणों में विभाजित किया जा सकता है)
लेकिन ज्यादातर होता यह है कि एक लेखक या चिन्तक के तौर पर आप ब्रह्मचर्य के यथार्थ को प्रथम व्यक्ति के सन्दर्भ में ही समझने का प्रयास करते हैं, यहाँ उस दूसरे व्यक्ति को उतनी ही जगह दी जाती है (कभी-कभी तो वह भी नहीं) जिससे पहले व्यक्ति के संदर्भों की पड़ताल हो सके. लेकिन ऐसे में हम संबंधों की बारीकियों को नजर अंदाज कर जाते हैं और यह ब्रह्मचर्य को एकायामी प्रक्रिया मानने जैसा हो जाता है.
यह तो बात है ही कि किसी भी सामाजिक चिन्ह या मूल्य का असर सीमित रूप से नहीं रहता है. सामाजिकता के बोध में संबंधों का गहरा संसार है. ऐसे में जितना किसी विशिष्ट प्रक्रिया को आत्मसात करने वाले व्यक्ति का महत्व है, उतना ही उस व्यक्ति के सामाजिक बुनावट में स्थित अन्य सभी का. ये अन्य अपनी दूरी के हिसाब से पहले व्यक्ति के साथ इस पूरे विश्लेषण में बेहद अहम् भूमिका निभाते हैं. इसको समझना पूरे ब्रह्मचर्य में एक जटिल शुरुआत की तरह हैं.
दूसरी जटिलता उस लेखक के संज्ञान की है, जो मानता है कि वह इसे वस्तुगत दूरी के तहत ही परख रहा है. लेकिन वहां वस्तुगतता एक भ्रम है. असल में उसके वर्तमान की चिंताएं, चुनौतियाँ ये सब किसी भी प्रेषक को तटस्थ नहीं रहने दे सकती हैं. यहाँ लेखक के लिए गांधी के ब्रह्मचर्य को उन्हीं की सदी में, उन्हीं के अर्थ में, (उपयोगितावाद) और उन्हीं के संबंधों के प्रवाह में देखना एक मुश्किल कार्य है.
कभी-कभी इसीलिए कुछ ऐसे विश्लेषण किये जाते हैं जिनका abstract में अर्थ रह जाता है. उदाहरण के तौर पर विनोबा भावे ने एक बार गांधी के अंतिम दिनों को, कृष्ण लीला से संबोधित करते हुए कहा था कि यह एक रहस्य ही है जिसका खुलासा करने गांधीजी को हो सके तो दोबारा जन्म लेना होगा.
तीसरी जटिलता इस विषय वस्तु के सन्दर्भ में हैं. ब्रह्मचर्य को पढ़ने समझने के क्रम में उसे सार्वभौमिक प्रक्रिया के तौर पर देखने से शुरुआत की जाती है. ब्रह्म के लिए सबकुछ छोड़ देना, उसके संसार में खुद को जाने देना, या शाब्दिक अर्थों में ब्रह्म में जीना. ये ही इसकी शाब्दिक व साधारण अर्थों में व्याख्या है.
किन्तु ब्रह्म का आध्यात्मिक पक्ष, गांधी के लिए सार्वभौमिक अर्थों से बाहर था. इसकी पहचान गांधी ने अपने अनुसार की थी. तब कैसे इसे गांधी के सन्दर्भ में उनके आचरण से जोड़कर देखा जाये ?
गांधी के लिए ईश्वर वह है जो सत्य है, वह नहीं जिन्हें हम मंदिरों, मस्जिदों, और दूसरी इबादतगाह में खोजते हैं. उनका ईश्वर सत्य है, जिसमें उसकी भी जगह है जो किसी सत्ता को नहीं मानता. तब कैसे उस इनसान के सन्दर्भ में जिसने ईश्वर तक को अपने अनुभवों और तर्क से उनकी प्रचलित अवस्था से बाहर ला दिया ब्रह्मचर्य का रूप वैसा हो सकता है, जो धर्म परम्पराओं में आबद्ध है. कहने का अर्थ यह है कि गांधी का कोई भी विचार तटस्थ नहीं है, उसकी सार्वभौमिकता भी उसकी गतिशीलता में हैं.
इसीलिए ब्रह्मचर्य जैसे विचार को गांधी के विचारों की गतिशीलता में पकड़ना एक जटिल कार्य है. (यह जरूर अलग बात है कि गांधी ने गतिशीलता को कितना सार्वभौमिक बनाया). यहाँ ब्रह्मचर्य दिक् और काल से प्रभावित तो है ही, गांधी के विशिष्ट अनुभवों और प्रयोगों से भी अपनी गति पाता है. इस गतिशीलता में ही गांधी के जीवन दर्शन का मूल्याङ्कन संभव है. इससे विखंडित करके किसी भी सूत्र को समझना अपने आप में एक अधूरा कार्य होगा.
चौथा महत्वपूर्ण बिंदु, ब्रह्मचर्य पर दिक् और काल के प्रभाव को थोड़ी देर के लिए हटा भी दो तो उसपर विमर्श और बात करने के लिए मानसिक रचनावली के निर्मिति की गूढता है. इस मानसिक रचनावली से मेरा आशय इसे शब्दों के विखंडन से अलग कर इसके सामाजिक अर्थों में परिभाषा की सम्भावना से है.
इसको शब्द की तरह नहीं, इसके अर्थ को भी नहीं बल्कि उस अर्थ से आपके व मेरे चिंतन पर इसके प्रभाव को समझना स्वयं में एक अत्यधिक मुश्किल कार्य है. इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि बात ब्रह्मचर्य की हो रही है, या गांधी के ब्रह्मचर्य की, क्या ये दोनों एक ही अर्थ लिए हैं? क्या गांधी के साथ आप ब्रह्मचर्य का वही अर्थ ग्रहण करना चाहते हैं, जो परम्पराओं में अवस्थित है.
और अगर यह भिन्न है, तो किन मूल्यों से इनकी भिन्नता सामने आती हैं. किन विचारों के तहत इस भिन्नता का स्वरूप तय होता है ? क्या गांधी का ब्रह्मचर्य भारतीय अर्थों से संचालित है. तब क्या उसके चिंतन में भी वही गुण-दोष हैं जो भारतीय वर्ण आश्रम की पारिस्थितिकी में पाए जाते हैं?
अगर गांधी के ब्रह्मचर्य को आपका आधुनिक चिंतन परंपरा के बड़े फलक से अलग करके देखने का प्रयास करता है, तब क्यों इसे भारतीय मूल्यों से जोड़ कर देखने का आग्रह है ? क्यों गांधी के ब्रह्मचर्य पर बात करने पर भारतीय स्वयं की ऐतिहासिक नैतिकता पर प्रश्न लगाने जैसी स्थिति मानते हैं? क्यों ब्रह्मचर्य के मूल्य को नैतिक प्रमाणपत्र की तरह देखा समझा जाता है ?
इस तरह की दिक्कतें गांधी के साथ ब्रह्मचर्य को समझने के क्रम में आती हैं. इनको आप अनदेखा नहीं कर सकते.
4. क्या आपके अनुसार गांधी के मूल्यों में सत्य और अहिंसा ब्रह्मचर्य से अलग हैं?
मानव के जीवन के विकसित होने की प्रक्रिया में कुछ विशेषताएं उसके आधारभूत जीवन प्रणाली से जुड़ी हुई थीं, जैसे धीरे-धीरे जीभ के स्वाद तंतुओं को पके हुए खाद्य की आदत लगना. जैसे नाक जो पहले शिकार की खुशबू पहचानती थी, अब खाने की सुगंध में भेद बता सकती है.
ये गुण मानवीय विकास के क्रम में कुछ इस तरह रच बस गए कि आज इनके बारे में विशेष रूप से बात करना फिजूल लगता है इसका बड़ा कारण इनका मनुष्य के भीतरी समाज की बुनावट में बारीकी से जुड़ जाना है. लेकिन कुछ तत्वों को समाज और साथ ही मनुष्य भी सभ्यता के सांस्कृतिक तत्वों को और बेहतर और ऊँचा करने के लिए अपनाता है. उनमें मनुष्य के आत्मिक विकास का प्रश्न गहराई जुड़ा हुआ है.
सत्य और अहिंसा कुछ ऐसे ही आत्मिक गुण कहे जा सकते हैं, जिन्हें मनुष्य ने पशु से मनुष्य होने के दौरान नहीं अपनाया बल्कि मनुष्य से विद्वान या बेहतर मनुष्य बनने के लिए सहेजा है. ब्रह्मचर्य भी एक ऐसा ही गुण है, जिसे ब्रह्म की तलाश में इंद्रिय दबावों से प्राणी मात्र को स्वयं को बचने बचाने जैसी शैली के तहत अपनाया जाता है. कुछ हद तक सत्य और अहिंसा जैसा ही, ये भी जीवन के सौन्दर्य का ही गुण है. पर क्या वाकई में ब्रह्मचर्य सत्य और अहिंसा जैसे प्रतीकों की श्रेणी में अपने भाव और प्रकृति के साथ अवस्थित हो सकता है ? क्या जैविक व मनोगत का विभाजन करना यहां जरूरी नहीं है.
दूसरे शब्दों में कहें तो, ब्रह्मचर्य एक जैविक तत्व की क्रिया है जिसमें शरीर की इन्द्रियां सीधे-सीधे उपभोग और प्रभाव से जुड़ी हैं. वहीं सत्य और अहिंसा आत्म की जैविक अवस्था के साथ नहीं मनोगत अर्थ में जुड़े होते हैं.
ऐसे में क्या ये सभी साथ में किसी संधि में देखे जा सकते हैं ?
क्या ब्रह्मचर्य किसी ऐसे तत्व को अपने में समाहित कर सकता है जिससे सिर्फ मनुष्य के मस्तिष्क का ही सम्बन्ध रहा हो. उसके शरीर की प्राकृतिक अधिरचना पर जिसका कोई प्रभाव न हो?
यह बात जितनी सरल लग सकती है, उससे कहीं अधिक जटिल है. सत्य और अहिंसा दोनों ही व्यक्ति के जीवन के मूल्य हैं जो किसी खास स्थिति में या खास समय में उसके द्वारा अर्जित किये जा सकते हैं .इनसे व्यक्ति का आत्म समृद्ध हो सकता है, लेकिन ये आत्म का भौतिक विस्तार नहीं हैं. ये जीवन के वो गुण हैं जिन्हें मनुष्य ने अपने आत्म को बेहतर बनाने के क्रम में आत्मसात किया है. लेकिन ब्रह्मचर्य में मनुष्य के आत्म को समृद्ध करने के लिए जैविक और यौनिक दोनों को प्रभाव में लेना होता है, जो व्यक्ति के मनोगत जीवन से ज्यादा उसके शारीरिक, भौतिक पदार्थों से सम्बन्धित है. शायद इस तरह ब्रह्मचर्य को गांधी के उन मूल्यों के साथ देखना जिनमें भावपूर्ण और उदात्त होना आत्म की ऊँचाई के लिए आत्म का वायवीय संघर्ष है, सही नहीं होगा.
ब्रह्मचर्य एक भौतिक संघर्ष से उपजी आत्म की खोज हो सकती है, लेकिन इसे प्रकृति के विरुद्ध न भी कहें, तो भी उसके समायोजन में नहीं ही कहा जा सकता है.
इसीलिए गांधी के जीवन दर्शन के सबसे आधारभूत बिन्दुओं में से ब्रह्मचर्य को उसके भौतिक, इंद्रिय बोध की सीमा में देखने की जरूरत पैदा हो जाती है. इसे गांधी- दर्शन के दूसरे बिन्दुओं के विपरीत न भी कहें तो भी ये उनसे भिन्न तो हैं ही.
मेरा यह विचार (इसी भिन्नता के साथ) उसको आत्मसात करने वाले शरीर (यहाँ गांधी का ही उदाहरण रह जाता है) के द्वारा दूसरे अर्जित गुणों के साथ में और साथ ही उसे अलगा कर देखने का प्रयास करता है.
5. गांधी के ब्रह्मचर्य के सन्दर्भ में नैतिकता का क्या अर्थ है?
देखिए, ऐसा नहीं है कि गांधी कोई ऐसे महामानव थे जिनकी आलोचना नहीं की जा सकती है. गांधी पूरी तरह आलोचनात्मक दृष्टि के भीतर आते हैं, या यह कहिए कि औरो से ज्यादा वे आलोचना के शिकार होते आए हैं. इसका कारण उनका अपने जीवन को शब्दों में बांधना हैं. साथ ही उनके जीवन जीने का ढंग है जिसको हर क्षण वे सार्वजनिक करते रहे. इसकी एक विस्तृत व्याख्या हो सकती है और होती भी रही है कि क्यों गांधी निजी से इतना ज्यादा बचना चाहते थे.
अपने पूरे जीवन में वे शायद ही आत्म संशय से बाहर आ पाए हों. उनके यहाँ कभी कोई अंतिम बात की जगह नहीं थी. स्थिरता के न होने का भय नहीं था. उन्होंने हर एक वस्तु, भाव को प्रक्रिया की तहत लिया या कहिए उसे प्रक्रिया में तब्दील कर दिया. इसमें कोई दो राय होनी भी नहीं चाहिए कि प्रक्रिया एक बेहतर विकल्प है किसी भी निष्कर्ष पर पहुंचने की अपेक्षा. निष्कर्ष पर पहुंचकर अंत का स्वरूप निश्चित हो जाता है. प्रक्रिया अनंत की तरफ इशारा करती है, जहां अंत की हड़बड़ी नहीं. प्रक्रिया से गुजरने का अपना आनंद है. जहां कुछ सिद्ध करने की आकांक्षा नहीं. संगतता सिर्फ वहीं है, जहाँ ब्रह्म की तलाश है. इस ब्रह्म का स्वरूप कुछ भी हो सकता है. गांधी के ब्रह्मचर्य को समझने के लिए हम इसी प्रक्रिया में एक बार जाकर देख सकते हैं या कहिये प्रयत्न कर सकते हैं.
सोचिए, एक आदमी जो महात्मा बन चुका था, उन बातों के लिए परेशान था जो उसके जीवन के अबतक अर्जित मूल्यों को स्वाहा कर सकते थे. जो उसकी महात्मा की छवि को गंभीर रूप से प्रभावित कर सकते थे. उसके बावजूद भी वह वहां से हटा नहीं. और लिखता रहा- मैं ऐसा क्यों कर रहा हूं. क्या कारण हो सकता है, इसके पीछे ? क्या इसकी परख हम अपने बरसों की संरचित नैतिक चेतना के साथ कर सकते हैं ? संभवतः नहीं.
एक बार हम अपनी उसी नैतिकता को भूल जाने का प्रयास करते हैं.
वैसे भी नैतिकता कोई रूढ़ शब्द नहीं हैं. किसी भी समय और स्थान की नैतिकता एक निश्चित परिधि में आकार ग्रहण करती है, अनिवार्य रूप में रची गई उस समय की सीमाओं के साथ. समय की सीमा का अतिक्रमण अगर कोई मूल्य या चिंतन करता भी है,तो भी उसे गृहीत करने वाली चेतनाएं पुरानी से भिन्न होंगी ही होंगी. यहां गृहीत करने वाली चेतना का स्वरूप जानना बहुत आवश्यक है.
संस्कृति की गतिकी में, और मनुष्य की चेतना में कोई भी मूल्य, सबसे ज्यादा जिससे प्रभावित होकर अपने स्वरूप को पाता है, वह प्रकृति है. यह ही मनुष्य के बाहर की दुनिया है. इसी के साथ मनुष्य हमेशा संवाद में रहता है. यह संवाद कभी प्रकृति को हराने के लिए तो कभी उससे अपनी हार मानने जैसा है. लेकिन संवाद है तो रहेगा हमेशा द्विआयामी ही.
इसी संवाद के आपसी घर्षण और समझौते से मानवीय चेतना उस प्रकृति के बरक्स और एकात्म होकर संस्कृति का निर्माण करती है. मूल्यों का सामाजीकरण करती है. ये कुछ-कुछ मध्यम मार्ग अपनाने जैसा है. सबके बावजूद मनुष्य अपना हाथ ऊपर रख सके, ये इच्छा कभी नहीं खत्म होती.
इसी प्रक्रिया में स्त्री पुरुषों के संबंधों को प्रकृति के उसी बरक्स और सह के द्वैत में नैतिक अनैतिकता के सांचों में डाल दिया जाता है. यहां प्रकृति के अनुरूप नहीं ज्यादातर की तरह, न दिखते हुए उसके विरोध में मूल्य तय किये जाते हैं. ऐसा इसीलिए क्योंकि यहां मनुष्य को प्रकृति की ऐसी विभीषिका का कोई डर नहीं होता जो उसके अस्तित्व का विनाश कर दें. उसे यहाँ डर अस्तित्व का नहीं, बल्कि इस बात का रहता है कि कहीं कुछ ऐसा न हो जाये कि प्रकृति अपने अनिरुद्ध आवेग में किसी भी सम्बन्ध की सामाजिक अवस्था बदल दे और नैसर्गिक अवस्था में वापिस स्त्री पुरुष के संबंधों को तब्दील कर दे. इस संबंध में स्त्री और पुरुष उस शुचिता से मुक्त होंगे जहां उनके शरीर और यौनिक संबंधों को व्यंजनाओं में तब्दील कर दिया गया है. यहां किसी भी सामाजिक मूल्य का नीतिगत वह अर्थ नहीं होगा, जिसे आरोपित करते करते मनुष्य अपने प्रकृति के साथ संबंधों को ही भूल चुका है.
उसे अपनी सत्ता खोने का डर बना रहता है. इसी डर के कारण मनुष्य प्रकृति को रचने की फ़िराक में रहता है, जहाँ किसी भी मूल्य की अवधारणा प्राकृतिक न होकर सामाजिक रूप में होती दिखाई दे. वह चिंतन की प्रक्रिया में इस आरोपण को स्वत: ही व्य्ख्यायित करता जाता है,जैसे कुछ हो ही न इसमें प्रश्न करने के लायक.
सबसे गंभीर बात ये है कि इस आरोपण के नीतिगत कहे जाने वाले मंतव्य के पीछे जाने कितने तरह के मत और दृष्टियाँ हैं. जो किसी भी संभावित अतिक्रमण को अप्राकृतिक या अनैतिक घोषित करने में समय नहीं नष्ट करती है .
यह नैतिकता का एक ऐसा छद्म रूप हैं, जिसे हम बरसों से प्राकृतिक और सामाजिक मानते आए हैं। जब भी कोई इस रूप पर प्रश्न लगाने की कोशिश करता है ,उसे वही झेलना पड़ता है जो गांधी ने ब्रह्मचर्य के संदर्भ में झेला है ,और जिसके कारण हम आज भी इस विषय से जूझ रहे हैं और अंत में स्वयं की नैतिक बुनावट पर ही प्रश्न उठाने पर मजबूर हैं.
6. तो क्या आप गांधी के साथ स्त्रियों के बिना कपड़ों के सोने को नैतिकता का प्रश्न नहीं मानतीं?
अगर नैतिकता सिर्फ कपड़ों से ही व्याख्यायित होती हो, तब हमें वैकल्पिक नैतिकता की बात करनी होगी. मुझे आपके प्रश्नों के जवाब देने से पहले अपने प्रश्नों के जवाब ढूंढने होंगे कि स्त्री होने के नाते मैं गांधी के साथ एक स्त्री के बिन कपड़ों में सोने को लेकर क्या सोचती हूं.
गांधी को पढ़ने के दौरान सिर्फ एक बार नहीं कई-कई बार ऐसी उलझनें आती हैं. ये उलझन इस बात का प्रमाण भी है कि हमारा अनुकूलन किस तरह किया जाता है. बतौर लेखक मेरे लिए गांधी के ब्रह्मचर्य को पढ़ना आसान था मगर स्त्री के तौर पर पढ़ना कठिन. सवाल यह है कि कठिनाई कहां पर है ? क्या एक पुरुष लेखक अपने जेंडर से बाहर आकर गांधी और ब्रह्मचर्य का बेहतर विश्लेषण कर सकता है? क्या एक स्त्री जेंडर के अवरोधों से बाहर आ पाती है? इन प्रश्नों में ही वह कठिनाई विन्यस्त है. बहरहाल, हम गांधी के संदर्भ में थोड़ी देर के लिए अगर भूल जाएं कि नैतिकता क्या है, अस्मिता क्या है?
सिर्फ यह याद रखें कि पशु से मनुष्य बनने के कई वर्षों के बाद मनुष्य कपड़ों में आया. जिस तरह कपड़े पशु से मानव बनने के क्रम में नहीं, उसके मनुष्य से सामाजिक मनुष्य बनने के क्रम में आए, उसी तरह समाज में उन कपड़ों की शुचिता भी आरोपित हिस्सों में शामिल हुई.
हम याद रखें कि स्त्री पुरुष का संबंध सिर्फ विवाह से ही तय नहीं होता है. वे दोनों प्रेम भी कर सकते हैं. हम यह याद रखें कि किसी के साथ यौन संबंध बनाने से नैतिकता का ह्रास नहीं हो जाता. यह भूल जाएं कि कोई आपके शरीर को कपड़ों के आवरण से बाहर देख ले तो आप अपनी शुचिता खो सकते हैं. अब वापस लौटें. गांधी पर और उनके साथ नग्न सोने वाले प्रकरण पर. क्योंकि सोचना यहां असहज तो होगा ही. इस असहजता में थोड़ा इजाफा करके यह पूछा जाए कि क्या गांधी के कपड़े उतारने या नग्न होने पर हम वैसी ही बेचैनी, असुविधा महसूस करते हैं जैसी अमूमन किसी स्त्री के कपड़े उतारने पर?
गांधी न्यूनतम कपड़ों में जीवनपर्यंत रहें. एक लंगोट भर कपड़े में. क्या हम उस स्थिति में किसी स्त्री की कल्पना कर सकते हैं ? क्या गांधी की तरह किसी स्त्री का मन नहीं पसीजा होगा उस समय के भारत के दुख को देखकर. पर गांधी ने कपड़े उतार दिए उस दुख में. एक स्त्री का दुख उसके कपड़ों की नैतिकता से बंधा रहा. क्या यह बड़ी विडंबना नहीं?
गांधी ने पूरे समाज की नैतिकता को स्त्री के कपड़ों से जोड़ कर नहीं, उसकी चेतना की मुक्ति से व्याख्यायित किया. उनकी नैतिकता का मानदंड, सामाजिक नैतिकता के मानदंडों से भिन्न था. उनके लिए वह प्रकृति की तरह सहज और संतुलित था.
गांधी तो हमारी उस नैतिकता से कभी बंधे ही नहीं थे, जिससे भारतीय समाज बंधा था. जो स्त्री पुरुष संबंधों के व्याकरण में झलकता था. क्या गांधी किसी के साथ कपड़े उतार कर सोने में उस नैतिकता को लांघ नहीं रहे थे, जिसका उल्लंघन वे आरंभ से करते आए थे. उन्होंने ब्रह्मचर्य का व्रत लिया और प्राकृतिक सहज संबंधों से खुद को और कस्तूरबा को अलग कर लिया. उन्होंने विवाह के नैतिक बंधन को त्याग दिया. वे विवाह की किसी भी नैतिक पृष्ठभूमि से खुद को बाहर ले आए थे. वह आश्रम में रहने लगे. उन्होंने गृहस्थी का भार नहीं वहन किया. घर नहीं बनाया. बच्चों की जिम्मेदारी नहीं उठाई. दरअसल यह सब करते हुए क्या वे भारतीय समाज में व्याप्त नैतिकता की धज्जियां नहीं उड़ा रहे थे ?
गांधी ने पुरुषों को भी वैसे ही खत लिखे, जैसे स्त्रियों को. उनके पत्रों में पुरुषों के साथ भी वैसे ही प्रेम की चर्चा है, जैसे किसी नायक का अपनी नायिका के साथ हो. इस संदर्भ में गांधी के महत्वपूर्ण आलोचक गिरजा कुमार ने ‘Kallenbach-Gandhi syndrome’ की अवधारणा तक रख दी है. (kallenbach गांधी के मित्र थे).
सोच कर देखिए, एक पुरुष का दूसरे पुरुष के लिए इस प्रकार का प्यार, अनुराग क्या तथाकथित भारतीय समाज की नैतिकता की हार नहीं है ? अब जबकि इतनी बार नैतिकता का उल्लंघन होता है, इतनी बार गांधी हमारे वर्षों की बनाई जमीन को हिला कर चले जाते हैं तब भी हम लोग उनके ब्रह्मचर्य को ही सिर्फ नैतिकता की हार बताते हैं? क्या यह गांधी पर विचार करने का अनुचित और अधूरा तरीका नहीं है ? गांधी की नैतिकता वैसी नहीं थी जैसी हम अपने आरोपित ज्ञान के आधार पर समझते आए हैं. इस प्रश्न पर विचार करने की पृष्ठभूमि तैयार हो गयी है, अब प्रश्न पर लौटें. सोचें कि गांधी स्त्रियों के साथ बिना कपड़ों के सोते थे, क्यों?
हमने पहले बात की कि गांधी हमेशा एक कपड़े में रहते थे. अब अगर उन स्त्रियों की बात की जाए जो उनके साथ बिन कपड़ों के सोयीं, तब क्या कपड़े उतारने से किसी शरीर की शुचिता कम हो सकती है?
अगर ऐसा है तब तो पूरे कपड़े वालों को आजतक किसी ने बुरी दृष्टि से देखा नहीं होगा? किस तरह शरीर पर कपड़े अस्मिता का भार ढोते हैं. और ये भार पुरुषों पर नहीं स्त्रियों पर ही क्योंकर पड़ता है?
गांधी के साथ उन स्त्रियों ने कपड़े उतारे, जिन्हें गांधी जानते थे और जो गांधी को जानती थीं ये वो स्त्रियां थीं, जो उस आश्रम में अपनी नैतिकता की शब्दावली खुद बनाने का मानसिक यत्न कर रहीं थीं. उन्हें इस बात का एहसास था कि शरीर को लेकर कोई भी शुचिता और शुद्धता का पैमाना समाज में स्त्रियों को पीछे की तरफ ढकेलने के लिए बनाया जाता है.
सवाल यह है कि कम कपड़ों से गांधी की नैतिकता खंडित नहीं होती पर स्त्रियों की होती है, क्यों? क्या साथ दो लोगों का सोना एक सह क्रिया नहीं हैं. इस सह में अगर नैतिकता का पैमाना शरीर न हों, तो फिर तो ये बहुत साधारण सी क्रिया है. जिसमें दो लोग अगर मन से जुड़े हुए हों तो कैसे भी अगल-बगल लेट सकते हैं.
यहाँ गांधी के द्वारा संजोये गए सहजीवन में सह की तलाश है. एक ओर गांधी बिल्कुल उसी पुरुष के रूप में थे, जिस रूप में समाज पुरुषों को ताकत के रूप में सहेजता रहा है. वहां पुरुष नग्न लेटा था. लेकिन औरतों को नग्न किया नहीं गया, बल्कि उन्होंने स्वेच्छया से खुद के कपड़े उतारे.
गांधी ने पौरुषेय अवधारणा पर वार किया, जहां एक पुरुष का दम्भ उसके शरीर से ताकत पाता है पर एक स्त्री अपने उसी शरीर से अपमानित और सम्मानित होकर समाज में संकोच और शर्म के साथ रहती है. गांधी ने उसी सरलीकरण को तोड़ दिया. हम गांधी को कम कपड़ों में देखते रहे, लेकिन एक स्त्री का वस्त्र विहीन होना हमारी नैतिकता पर आक्रमण की तरह महसूस होता है. इसे ऐसे समझ सकते हैं-
एक नग्न आदमी जा रहा था और वस्त्रहीन स्त्री जा रही थीं. दोनों पर वस्त्र नहीं हैं. पर हम सबके लिए दोनों बातों का अर्थ बिल्कुल अलग है. वस्त्र-विहीनता महज़ शब्द नहीं है बल्कि एक पूरी की पूरी सामाजिक अभिव्यक्ति है, जिसका अर्थ तब तक कोई महत्व नहीं रखता जब तक वह समाज की पारिस्थितिकी से नहीं जुड़ता. यहाँ एक बात और जोड़ी जा सकती है कि इस पारिस्थितिकी का प्रभाव सिर्फ स्त्री-पुरुष संबंधों पर नहीं पड़ा बल्कि संबद्ध लोगों के अवचेतन पर भी पड़ा. मनु बहन की मनः स्थिति पर इसका प्रतिकूल असर पड़ा.
इस तथाकथित नैतिकता से संघर्ष करते हुए, उन्हें ‘Bapu, My Mother’ लिखनी ही पड़ी. माँ की जगह अगर वह कुछ और कहना चाहतीं या कुछ कहना ही नहीं चाहती, फिर क्या होता?
7. अगर आप से पूछा जाये कि गांधी के ब्रह्मचर्य को आप आधुनिक स्त्री-पुरुष के संबंधों की अवधारणा में कैसे देखती हैं, तो आप क्या कहेंगी ?
गांधी जो अपने जीवन दृष्टि में अत्यंत व्यावहारिक थे, वे इस मनोगत या अमूर्त अवधारणा की तरफ क्यों जाते हैं. इसका एक स्पष्ट कारण है कि उनके पूरे चिंतन के केंद्र में हर प्रकार के द्वैत या बाइनरी का विरोध है. अतः वे स्त्री-पुरुष द्वैत को मिटाते हुए स्वयं को ब्रह्म से जोड़ते हैं, और ब्रह्मचर्य की अवधारणा को रखते हैं. सहज भाषा में कहें तो गांधी के ब्रह्मचर्य की अवधारणा स्त्री-पुरुष संबंधों की वर्चस्ववादी परिकल्पना या परिधि से मुक्त होना है.
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उत्तराखंड के देहरादून में जन्मी रूबल हिंदी और अंग्रेजी में समान रूप से लिखती हैं. उनके लेखन के केंद्र में गांधी और साम्राज्यवाद है. इन दिनों वे गांधी के चिंतन में स्त्री दृष्टि की पड़ताल कर रही है. फिलिस्तीन पर इजरायली उपनिवेशवाद की प्रक्रिया विषय पर उन्होंने जेएनयू से पीएचडी की उपाधि प्राप्त की है. फिलहाल केरल के एक कस्बे में रहते हुए वे स्वतंत्र लेखन कर रही हैं. rubeljnu21@gmail.com mob- 9013286896. |
के. मंजरी श्रीवास्तव कला समीक्षक हैं. एनएसडी, जामिया और जनसत्ता जैसे संस्थानों के साथ काम कर चुकी हैं. ‘कलावीथी’ नामक साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्था की संस्थापक हैं जो ललित कलाओं के विकास एवं संरक्षण के साथ-साथ भारत के बुनकरों के विकास एवं संरक्षण का कार्य भी कर रही है. मंजरी ‘SAVE OUR WEAVERS’ नामक कैम्पेन भी चला रही हैं. कविताएँ भी लिखती हैं. प्रसिद्ध नाटककार रतन थियाम पर शोध कार्य किया है. manj.sriv@gmail.com |
विचारोतेजक विश्लेषण……
बहुत बधाइयाँ…..
रूबल गांधी पर पूरे मनोयोग और तार्किकता से काम कर रही हैं। गांधी पर लगातार काम करना और उसका समालोचन पर छपना यह भी रूबल की उपलब्धि है। गांधी के ब्रह्मचर्य को समझने के लिए रूबल कहीं और नहीं बल्कि गांधी के जीवन को ही चुनती है और फिर अपने तर्क और अध्ययन से यह साबित करती हैं कि उनका ब्रह्मचर्य कोई ढकोसला नहीं बल्कि सत्य था। यह विषय इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि इस पर एक स्त्री ने विचार किया है। रूबल के गांधी विषयक विचार और अध्ययन की यह विशेषता है कि वह पुरुषोत्तम अग्रवाल, सुधीर चंद्रा से आगे बढकर सोचती हैं।
गाँधी का पूरा जीवन एक खुली किताब है।युवावस्था के प्रारंभिक चरण में उनका यह आत्मस्वीकार है कि पिता को मृत्यु शैय्या पर छोड़कर वह पत्नी के साहचर्य में थे।मतलब सेक्स उन दिनों उनकी एक कमजोरी थी।लेकिन बाद में जब उनके जीवन में आध्यात्मिकता का प्रवेश होता है तब उनमें एक आमूलचूल बदलाव परिलक्षित होता है।द अफ्रिका के एक सुनसान रेलवे स्टेशन पर अंग्रेज अधिकारियों के हाथों समान सहित उन्हें बाहर फेक दिया जाता है। यहीं से गाँधी का एक नया जन्म होता है।भारतीय परंपरा में बह्मचर्य और सेक्स दोनों समादृत रहें हैं।प्राचीन भारतीय मंदिरों और गुफाओ की दीवारों पर उत्कीर्ण चित्र इसके प्रमाण हैं।काम कला पर ऋषियों ने ग्रन्थ लिखे हैं। इसलिए गाँधी के बह्मचर्य को उनकी आध्यात्मिक साधना की एक प्रक्रिया के रूप में भी देखा जा सकता है। आलेख पठनीय एवं विचारणीय है।
मंजरी श्रीवास्तव के सवालों का बहुत सुसंगत जवाब रूबल ने देने की कर चांद कोशिश की।वास्तव में आज के समय में कोई जन नेता अपने लिए लोगों में ऐसी स्वीकार्यता नही पाएगा जैसी महात्मा गांधी में थी।गांधी जी के सत्य,अहिंसा और ब्रह्मचर्य के प्रयोग जहां उनका खरापन दिखाते हैं वहीं यह भी जताते हैं कि गांधी दर्शन वायवी न होकर वास्तविक और व्यावहारिक विचार है।गांधी जी के विचारों ने विश्व की महान हस्तियों को प्रेरित और प्रभावित किया।उनमें विशिष्ट और विख्यात विदुषियां भी थीं।गांधी जी का ज्ञान सम्मोहन अपार था।इस साक्षात्कार में स्वस्थ विचार बिंदु उठे हैं
विचार उत्तेजक विश्लेषण.मेरी नज़र में ब्रह्म चर्य मूलतः आत्म नियंत्रण है जो इंद्रिय नियंत्रण से ही संभव है और चरम नियंत्रण के लिए ही गांधी जी ने इसे अपनाया था
1. जहाँ तक हम देख सकते हैं, प्रकृति में ब्रह्मचर्य नहीं है। यह मनुष्य द्वारा बनायी गयी अवधारणा है। यह उसके सोच की उपज है। जैसे प्रकृति ने उसे बनाया है और जैसे उसका विकास हुआ है, यौन क्रिया जीव के स्वभाव का हिस्सा है।
मनुष्यों में कुछ चिन्तक, धर्म गुरु इत्यादि हुए हैं जिन्होंने कुछ प्रकार के व्यक्तियों द्वारा ब्रह्मचर्य के पालन पर ज़ोर दिया है। हिन्दू धर्म में जीवन की पहली तथा अन्तिम अवस्थाओं (आश्रमों) में ब्रह्मचर्य अपनाने पर ज़ोर दिया गया। हिन्दू ग्रन्थों में यह भी कहा गया कि ब्रह्मचर्य के बिना आत्मा ब्रह्म को प्राप्त नहीं हो सकती यानी मुक्ति को प्राप्त नहीं हो सकती। बौद्ध और जैन धर्मों में भिक्षुओं और भिक्षुणियों को ब्रह्मचर्य का पालन करना होता है, क्योंकि ये दोनों धर्म भी मानते हैं कि यौन-इच्छा को जीते बिना “मुक्ति” सम्भव नहीं। ईसाई धर्म में भी कुछ किस्म के पादरियों तथा ननों को ब्रह्मचर्य अपनाना होता है। इत्यादि। परन्तु हम यह भी जानते हैं कि इतिहास में बहुत से ऋषि-मुनि भी ब्रह्मचर्य को नहीं अपनाते थे; वे शादी करते थे, बच्चे पैदा करते थे। हाल के इतिहास में गुरु नानक तथा गुरु गोबिन्द सिंह दोनों शादीशुदा थे और उनके बच्चे थे।
2. कुछ लोगों ने ब्रह्मचर्य को इसलिए अपनाया क्योंकि उन्हें लगा कि ऐसा करके वे अपने आत्मसंयम को सुदृढ़ कर सकते हैं। सम्भव है यह धारणा सही हो, परन्तु ऐसा चुपचाप भी किया जा सकता है, ज़रूरी नहीं कि ब्रह्मचर्य को प्रदर्शन की वस्तु बनाया जाये जैसे अपने जीवन के बाद के वर्षों में श्री गाँधी ने किया। मेरा अपना विचार यह है कि ब्रह्मचर्य का पालन किये बिना भी आत्मसंयम रखा जा सकता है, उसे सुदृढ़ किया जा सकता है।
3. मैं यह भी मानता हूँ कि ब्रह्मचर्य और नैतिकता (ethics) में भी कोई अनिवार्य सम्बन्ध नहीं। अपने व्यवहार में नैतिकता का पालन करना एक खास क़िस्म के सोच पर आधारित होता है और ब्रह्मचर्य की अवधारणा उस सोच का हिस्सा हो ही यह ज़रूरी नहीं।