राष्ट्रीय आंदोलन और उसके नेतृत्व का पितृसत्तात्मक चरित्र
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2012 में भी गांधी पर एक किताब आयी थी और उसे भी एक बड़े लेखक ने लिखा था. किताब का नाम था ‘मीरा एंड द महात्मा’. इस किताब पर लिखते हुए मकरंद परांजपे ने इंडिया टूडे में लिखा था कि यह किताब बेहद अच्छी है पर यह गांधी को बाहर से ही देख पाती है. यह गांधी की मज्जा, मन और आत्मा तक नहीं पहुँच पाती. यहां हम अपनी तरफ से यह कह सकते हैं कि सुधीर कक्कड़ का अंतर्मन मिस मेडेलीन उर्फ मीरा बहन के मन को सूत्रधार नवीन के माध्यम से बड़ी आत्मीयता से देख रहा था, शायद इसीलिए मीरा बहन के मन में प्रवेश कर पाना मुमकिन हो पाया होगा.
सुधीर कक्कड़ की किताब से गुजरते हुए एक आम पाठक आखिरी पन्नों तक पहुँचकर अपनी पसंद और सहानुभूति के तराजू पर गांधी को थोड़ा हल्का पाने लगता है. मिस मेडेलीन उर्फ मीरा बेन की दशा देखकर एक स्त्री पाठक यह जरूर सोच सकती है कि गांधी समय रहते इस आकर्षण को जोर पकड़ने से पहले रोक सकते थे. मीरा बेन गांधी के प्रेम में विक्षिप्त हो जाती हैं और जीवन के अंतिम समय में तो वो गांधी का नाम भी नहीं सुनना चाहतीं.
लगभग दस साल बाद 2023 की शुरूआत में भी हाथ में एक किताब है जिसे हिंदी की एक बड़ी लेखिका अलका सरावगी ने लिखा है. कुछ ऐतिहासिक तथ्यों को आधार बना गांधी और सरलादेवी चौधरी की कथा के कैनवास पर सृजनात्मक कल्पना की कूची उन्होंने जिस तरह से फेरी है पाठक यहां भी गांधी के व्यक्तित्व की सतह तक तो पहुँच पाता है पर सरलादेवी की तो मानो आत्मा में ही प्रवेश कर जाता है.
कहा जा सकता है कि यह उपन्यास सरला देवी के साथ गहरी सहानुभूति रखता है. यहां कथाकार को इतिहासकार की तरह संतुलन साधने या निरपेक्ष रहने की कोई कोशिश भी नहीं करनी है, यह उपन्यास सरलादेवी का पक्ष रखने के लिए ही लिखा गया है. साहित्य जगत की कई समर्थ लेखिकाओं की तरह अलका सरावगी भी अपने लेखन में स्त्री विमर्श की कोई उद्घोषणा नहीं करतीं.
स्त्री चेतना उनके लेखन में स्वभावतः अनुस्यूत है. ऊपरी तौर पर उनका यह उपन्यास भी गांधी और सरलादेवी के आत्यंतिक लगाव व प्रेम का आख्यान है पर अपनी भीतरी तहों में यह भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के स्त्रीवादी पक्ष को बखूबी उजागर करता है. वैसे उजागर करने का यह काम बहुत ही खूबसूरत, सधे और संतुलित ढंग से कनाडियन इतिहासकार जेरेल्डीन फोर्ब्स ने 2020 में ओरिएंट ब्लैकस्वान से छपी अपनी किताब ‘लॉस्ट लेटर्स एंड फेमिनिस्ट हिस्ट्री: द पॉलिटिकल फ्रेंडशिप ऑफ मोहनदास के. गाँधी एंड सरला देवी चौधुरानी’ में किया है.
जेरेल्डीन फोर्ब्स की यह किताब इसलिए भी मानीखेज है कि यह आजादी की लड़ाई में गांधी के आभामंडल में ओझल रह गयीं शख्सियतों, खासकर स्वतंत्रता संघर्ष में आहुति देने वाली महिला सेनानियों को नये सिरे से प्रदीप्त करती है. इस किताब को लिखने में जेरेल्डीन ने अद्भुत शोध संयम का परिचय दिया है. सरलादेवी को गांधी के लिखे उन्नासी पत्रों को पढ़ने के बाद गांधी और सरलादेवी की विलक्षण मित्रता को ‘पॉलिटिकल फ्रेंडशिप’ के दायरे में रखना शायद गांधी के इरादों की शिनाख्त है कि उनका व्यक्तिगत व सार्वजनिक सब कुछ एक बड़े लक्ष्य के संधान हेतु अभिप्रेरित था.
फोर्ब्स की किताब का मुख्य आधार वे पत्र हैं जो जेरेल्डीन फोर्ब्स को सरलादेवी चौधुरानी के बेटे दीपक दत्त चौधरी से प्राप्त हुए. यहाँ यह साझा करना बेहतर होगा कि जेरेल्डीन फोर्ब्स को मिले ये पत्र लंबे समय तक न तो गांधी वांग्मय में संकलित थे न ही गांधी के अनन्य सहयोगी महादेव भाई की डायरी में ही इनका कोई जिक्र था. सरलादेवी चौधरानी के पुत्र दीपक दत्त चौधरी ने फोर्ब्स को पत्रों की टाइप की गयीं प्रतियां पकड़ाई थीं क्योंकि मूल पत्र उन्होंने नियमानुसार भारत के राष्ट्रीय अभिलेखागार को सुपुर्द कर दिये थे. यहां इस बात का भी जिक्र किया जा सकता है कि सरला देवी की बांग्ला में लिखी आत्मकथा ‘जीवनेर झरा पत्ता’ का अंग्रेजी अनुवाद ‘द मेनी वर्ल्डस ऑफ सरला देवी अ डायरी’ भी सरला देवी जैसे महान व्यक्तित्व के बनने की प्रक्रिया के साथ ही टैगोर परिवार के बारे में भी काफी कुछ बताती है.
मुमकिन है अलका सरावगी ने भी किताब लिखने की तैयारी में ऊपर बतायी गयीं सारी किताबों को जरूर पढ़ा हो. यदि ऐसा है तो अलका सरावगी के लिए यह बहुत बड़ी चुनौती रही होगी कि जिन सूत्रों को पिरो कर वह कथा कहने जा रहीं हैं उसको कैसे नूतन ढंग से रचें ? या फिर गांधी का जीवन चरित ही ऐसा है कि वह अपने जादू से ही कलम का साथ पा पुनर्नवा हो जाता है.
अलका सरावगी के नये उपन्यास ‘गांधी और सरलादेवी चौधरानी: बारह अध्याय’ में चलती कथा अपने शुरूवाती अध्यायों में पाठकों के धैर्य का इम्तहान लेती है कि आप दो प्रौढ़ लोगों के बीच चल रहे किशोर वय के सतही प्रेम जैसे संवादों को झेल किताब बंद कर देंगे या आगे बढ़ेंगे. आजकल साहित्य में सबको समग्रता में देखने का आग्रह है तो आप ‘कलिकथा वाया बाइपास’, ‘तेजपाल जानकीदास मेंशन’ और ‘कुलभूषण का नाम दर्ज कीजिए’ जैसे उपन्यासों की रचनाकार के प्रति इतनी जल्दी कैसे जजमेंटल हो सकते हैं? ये गुस्ताखी की भी कैसे जा सकती है जब ‘गांधी: एक असंभव संभावना’ लिखने वाले और गांधी को समझने वाले इतिहासकार सुधीर चंद्रने इस किताब को‘बारीक, मार्मिक और संयत’ वर्णन वाली किताब कहा हो. देखा जाये तो सुधीर चंद्र अपने कथन में किताब में पैठने का सूत्र पकड़ा देते हैं और सचमुच उत्तरार्ध में यह किताब बांध लेती है. तथ्य तो हम सबके आस पास बिखरे पड़े हैं, पर उनको कथा में बुनने और रचने की सलाहियत सबके पास नहीं होती.
अलका सरावगी ने सरलादेवी के माध्यम से राष्ट्रीय आंदोलन व उसके नेतृत्व के पितृसत्तात्मक चरित्र को बेपर्दा कर दिया है. स्थिति ये है कि 1931 में सरला देवी चौधरानी को अलग से महिला कांग्रेस बनाने की मांग करनी पड़ी क्योंकि महिलाओं की मौजूदगी कांग्रेस में बस सहूलियत भर की ही थी. प्रखर, मेधावी व राजनीतिक रूप से जाग्रत सरलादेवी चौधरानी ने यह समझ लिया था कि देश की आजादी की बात में आधी आबादी की आजादी शामिल नहीं है.
महिलाओं की आवश्यकता गांधी को है वे चाहते हैं कि स्वदेशी व असहयोग आंदोलन में भारत की महिलाएं बढ़चढ़ कर हिस्सेदारी करें और देश में बदलाव का माध्यम बनें, पर यह बदलाव गाँधी की अपनी अवधारणा के अनुरूप हो. सरला देवी चौधरानी की ओजस्वी वक्तृता से प्रभावित हो गांधी उन्हें अपने साथ जनसभाओं में ले जाते हैं, अपने एजेंडें के अनुसार भाषण देने को निर्देशित भी करते हैं. गांधी को पता है कि रवींद्रनाथ टैगोर की भांजी और उच्च शिक्षा प्राप्त सरलादेवी चौधरानी यदि रेश्मी साड़ी छोड़, खादी की साड़ी पहनने का व्रत अपना लें तो उसका देश पर गहरा असर होगा. गांधी ने अपने स्वदेशी आंदोलन व विदेशी वस्तुओं विशेषकर वस्त्रों के बहिष्कार की मुहिम में सरलादेवी को एक युगप्रवर्तक की तरह देखा.
जाहिर है सरला को मोटा खद्दर पहनाने के लिए गांधी अपने प्रभाव का इस्तेमाल करते हैं. गांधी और सरलादेवी का सामीप्य महज एक साल का था पर यह एक साल गहरे प्रेम और दु्रनिर्वाण आकर्षण का रहा. गांधी कई जगह सरला को लिखे पत्रों में अपने संयम को टटोलते जान पड़ते हैं. गहन मित्रता और विश्वास की साझेदारी वाली इस अवधि में गांधी सरला देवी को लगभग रोज पत्र लिखते हैं, कई बार एक ही दिन में दो-दो चिट्ठियाँ लिख देते हैं. संबोधनों में आप से तुम, तुम से तू की तर्ज पर माय डियर सरला, माय डियरेस्ट सरला लिखकर अपनी भावनाएं साफगोई से व्यक्त करते हैं.
संयम और संबंधों की पारदर्शिता को जांचने परखने के आंतरिक झंझावात में वे सरला को सिस्टर भी लिख देते हैं पर बकौल उपन्यासकार वह ब्रह्मचर्य के व्रत के कारण कस्तूरबा को भी बहन समान बताते हैं. वे सरलादेवी के पति रामभज दत्त चौधरी के सामने ही सरलादेवी को चूम लेने की इच्छा भी व्यक्त करते हैं, यही नहीं वे रामभज दत्त चौधरी से ये अपेक्षा भी करते हैं कि वे इस संबंध को सहजता से लें और सरला को लिखे गये उनके पत्रों को पढ़ें, जबकि गांधी के कारण सरलादेवी चौधरानी और उनके पति रामभज दत्त चौधरी के दांपत्य में दरार आ चुकी है. किताब पढ़ते समय पाठकों को यह एहसास होता है कि सारी राष्ट्रीय समस्याओं के बीच गांधी सरलादेवी के साथ चांद का दीदार कर, सुबह की सैर की नरम हवा को महसूस कर पुलकित होते हैं. सरला जब उनके साथ नहीं होती हैं तब वह रातभर बिस्तर पर करवटें बदलते हैं और सरला को देखे बिना अन्यमनस्क से रहते हैं. सरलादेवी जैसी बहादुर और खुदमुख्तार महिला के चरित्र पर गांधी का गहरा असर दिखता है. विवाह से पूर्व अपनी अलग पहचान बना चुकीं सरलादेवी चौधरानी देश के लिए एक जाना माना नाम थीं. बंगाल के युवको में राष्ट्रवाद जगाने के लिए वह ‘भारती’ नाम की पत्रिका निकाला करती थीं. जिनके संपादकीय अपूर्व ओज व सामाजिक राजनीतिक विषयों पर उनके विश्लेषण को प्रभावशाली ढंग से अभिव्यक्त करते थे. वे बंगाल के युवकों की कोमल छवि वाली आम धारणा को नकारने के लिए उद्धत हैं और बंगाली नवयुवकों की शारीरिक क्षमता बढ़ाने के लिए लाठी भांजने, कुश्ती लड़ने के प्रशिक्षण की व्यवस्था अपने पैसों से करती हैं.
उपन्यास में इस बात का कहीं प्रकट रूप से उल्लेख नहीं है पर पाठक यह महसूस कर सकते हैं कि सरलादेवी चौधरानी अपने शुरूवाती दिनों में कहीं न कहीं से अभिनव भारत और अनुशीलन समिति की तरह ही सैन्य राष्ट्रवाद की तरफ झुकाव रखती हैं.
बंकिमचंद्र चैटर्जी के वंदेमातरम गीत को संगीत देने व लयबद्ध करने का श्रेय सरलादेवी चौधरानी को ही है. माना जाता है कि वंदेमातरम गीत की पहली पंक्ति को रवींद्र नाथ टैगोर ने कंपोज किया था और शेष के लिए उन्होंने अपनी प्रतिभाशाली भांजी सरलादेवी को कहा था. देश के लोगों में राष्ट्रीय चेतना का भाव जगाने के लिए सरलादेवी चौधरानी ने ‘प्रतापादित्य’ जैसा नाटक भी लिखा था जिस पर टैगोर ने आपत्ति की थी. वही सरला देवी चौधरानी, मोहनदास करमचंद गांधी के संपर्क में आने के बाद अहिंसा और चरखा के मूल्यों को समझने व अपनाने के दबाव में आ जाती है. गांधी सरलादेवी से हुई अपनी पहली ही मुलाकात के संबंध में लिखते हैं कि “सरला देवी मुझ पर हर तरह से प्रेम बरसा रहीं हैं.”
सरला देवी के पति रामभज दत्त चौधरी पंजाब के कांग्रेस के जाने माने नेता हैं जो जालियांवाला बाग हत्याकांड के विरोध के सिलसिले में जेल में हैं. उनके जेल में रहने के दौरान ही गांधी की लाहौर यात्रा होती है और वे सरलादेवी व रामभज दत्त चौधरी के घर पर रूकते हैं. सरला की शिक्षा, उनका सौंदर्य व उनका संगीत का ज्ञान गांधी को अभिभूत कर देता है.
“आपकी हंसी राष्ट्र की धरोहर है”
गांधी सरला से कहते हैं और ये सुनकर सरला के ह्रदय के तार बज उठते हैं. संभवत: गांधी ही वे शख्स हैं जिनकी उन्हें ताउम्र प्रतीक्षा थी. सरलादेवी चौधरानी अपने पति के लिए मन प्राण से समर्पित हैं और उनके सुदर्शन तथा देशभक्त व्यक्तित्व पर फिदा भी, पर गांधी से मिलने के बाद उनका जीवन बदल जाता है. वे भी गांधी के प्रति वही लगाव महसूस करती हैं जो गांधी उनके प्रति रखते हैं. गांधी के साथ न होने पर वह भी सदैव गांधी के पत्रों के इंतजार में रहती हैं और अपने मन के भाव भी उनको बताती रहती हैं. चूंकि सरला देवी ने गांधी को जो पत्र लिखे थे वे कालांतर में राजगोपालाचारी की पुत्री राधा द्वारा विनष्ट कर दिये गये, इसलिए उनके खतों के मजमून का सिर्फ अनुमान ही लगाया जा सकता है, अलका सरावगी के मुताबिक सरलादेवी गालिब की तरह जानती थीं कि
‘क़ासिद के आते आते ख़त एक और लिख रखूँ
मैं जानता हूँ जो वो लिखेंगे जवाब में’
(पृष्ठ 113)
‘गांधी और सरलादेवी चौधरानी : बारह अध्याय’ एक उपन्यास के रूप में तब महत्वपूर्ण हो उठता है जब सरला देवी गांधी को लेकर खुद से जिरह करतीं हैं. आखिर गांधी उन्हें ‘पूर्ण स्त्री’ बनाने के पीछे क्यों पड़े हैं? और पूर्ण स्त्री भी कैसी ? आप खुद पढ़ें कि गांधी सरला से क्या कहते हैं
“तुम महान हो, नेक हो, लेकिन जब तक तुममें घरेलू कामकाज करने की क्षमता नहीं आती, तब तक तुम एक ‘पूर्ण स्त्री’ नहीं हो सकती.”(पृष्ठ 129)
ध्यान देने की बात है कि सरला देवी चौधरानी की परवरिश पंडित द्वारका नाथ ठाकुर के समृद्ध परिवार में हुई थी जहाँ नौकरों चाकरों का विशाल हुजूम था. खुद सरला ने अपने बचपन में अपनी माँ ,मौसी या बुआ को कोई घरेलू काम करते नहीं देखा था. घरेलू काम तो दूर टैगोर परिवार की महिलाएं अपने बच्चे तक खुद से नहीं पालती थीं, बच्चे दूध भी सेविकाओं का ही पीते थे. सरलादेवी की माँ स्वर्णलता देवी बंगाल की पहली महिला उपन्यासकार थीं जो हर समय लिखने पढ़ने की गतिविधियों में संलग्न रहा करती थीं. ऐसे परिवेश में पली बढ़ी सरला का सारा ध्यान अपनी बौद्धिक उन्नति व सामाजिक सरोकार पर था ना कि घर के काम काज पर. अब गांधी के बारे में जो थोड़ा भी जानते हैं वे जानते हैं कि गांधी कैसे पति के रूप में कस्तूरबा पर अपनी हर इच्छा थोपने वाले हुए और कस्तूरबा अपनी सारी अनिच्छा और रोने बिसूरने के बाद उनकी इच्छाओं को पूरा करने वाली हुईं. गांधी ने जब सरलादेवी को अपनी आध्यात्मिक पत्नी की संज्ञा दी तो उनके वजूद को तब्दील करने की जिद्द भी ठान ली. गांधी का रवैया देखकर ही सरला सोचती हैं,
“गांधी लगातार उसे उपदेश देते रहे हैं, यह करो, वह मत करो. पुरुष कभी स्त्री को समान नहीं मान सकता, चाहे वह गांधी ही क्यों ना हो. भले ही गांधी ने स्त्रियों को जेल जाने की सलाह देकर उन्हें सार्वजनिक जीवन में उतारा, पर अंततः तो गांधी औरत की जगह घर में रहकर चरखा चलाने और बच्चे पालने में ही देख पाते हैं. उनके अनुसार,घर का काम खुद किये बिना सरला ‘पूर्ण स्त्री’ नहीं बन सकती. गांधी औरत को उन्हीं पुराने ढांचों में बंद रखना चाहते हैं. हां औरतों की भावुकता और सहनशीलता उनके आंदोलन में काम की हैं”
(पृष्ठ 203)
नीलिमा डालमिया की किताब ‘द सीक्रेट डायरी ऑफ कस्तूरबा’ में इस बात को रखा गया है कि गांधी ने एक दबंग पति की तरह कस्तूरबा पर अपनी मर्जी चलायी और एक तरफा फैसला कर ब्रह्मचर्य उन पर थोप दिया. हालांकि भारत के स्त्री विमर्श ने इस मुद्दे को बहुत पहले उठाया था, नीलिमा डालमिया ने इसे एक रचनात्मक जामा भर पहनाया है.
यह संयोग मात्र नहीं है कि जब सरला देवी मामूली महिलाओं को गांधी से प्रभावित होकर अपने गहने दान करते देखती हैं तो सोचती हैं कि क्या इससे महिलाओं को राजनीतिक समानता हासिल हो जायेगी? यदि बाद के दिनों की विशेषकर आजाद भारत की कुछ ऐतिहासिक घटनाओं का ढंग से विश्लेषण किया जाये तो पता चलेगा कि कैसे जमींदारी उन्मूलन या सीलींग के कानून में पुरुषों के नाम की जमीन तरकीब लगा कर बचाने की हर संभव कोशिश हुई, विनोबा के भूदान में बहुत लोगों ने बंजर जमीन दान कर पुण्य बटोरा पर हर पारिवारिक, सामाजिक या फिर देशहित की जरूरतों पर महिलाओं के लिए अपने गहने बचा पाना एक मुश्किल काम रहा. महिलाओं की आभूषण प्रियता को अक्सर कमी के रूप में देखना भी एक पुरूषवादी नजरिया ही है.
मीरा और महात्मा की मीरा की तरह ही सरला भी कालांतर में गांधी की उपेक्षा से खिन्न और परेशान होकर मोहभंग की अवस्था में पहुँच जाती हैं. गांधी भी राजगोपालाचारी जी को लिखे अपने एक पत्र में अपनी विशेष मित्र सरला को अब पहले जैसी जगह नहीं देने की बात लिखते हैं. बताते चलें कि राजगोपालाचारी जो आगे चलकर गांधी के समधी भी बने गांधी और सरला के संबंध के खिलाफ थे और गांधी ने जब उनसे सरला के प्रति अपने आकर्षण की बात साझा की थी तभी से वह गांधी से इस रिश्ते से बाहर आने के लिए कहते रहे थे.
गांधी संभवत: सरलादेवी के आकर्षण में ब्रह्मचर्य से च्युत होने की कगार पर पहुँच गये थे, शायद पश्चात्ताप के भाव ने ही उन्हें सरलादेवी से विरत किया होगा. सरलादेवी के लिए यह उपेक्षा संभवत: असहनीय रही होगी. प्रेम का खुमार उतरने के बाद ही वह नारियों की उपेक्षा के मसले पर गांधी व कांग्रेस की पूरी सोच को आलोचनात्मक नजरिए से देख पाने में कामयाब रहीं और खिन्न होकर 1935 में उन्होंने सक्रिय राजनीति से संन्यास ले लिया. यदि उनके कलकत्ता के 1931 के भाषण का हवाला दिया जाय तो वे साफ शब्दों में कहती हैं,
“स्त्रियां अनुभव करती हैं कि ‘इंडियन नेशनल कांग्रेस’ ने उनकी प्रतिभा, उनकी बुद्धिमता और कार्यकुशलता को अनदेखा कर उन्हें कौंसिंल-हॉल और कमिटियों से दूर रखा है. इन जगहों पर ऐसे पुरुष बैठाये गये हैं जो उन विशिष्ट औरतों से हर तरह से कमतर हैं. पंडित जवाहरलाल किसान और मजदूरों के अधिकारों के लिए संहिता बनाने के लिए खड़े हुए हैं. हमें एक पंडितानी की प्रतीक्षा है जो भारत की आधी जनता के अधिकारों की घोषणा की बात करे. कांग्रेस ने औरतों को कानून भंग करने के लिए आगे रखा है,पर कानून बनाने की जगह से उन्हें दूर रखा है. कांग्रेस औरतों को लॉ ब्रेकर के रूप में देखना चाहती है, लॉ मेकर के रूप में नहीं”
(पृष्ठ 214)
पाठकों को यहां ख्याल आता है कि एक जगह सरला देवी अछूतों द्वारा चलाये जा रहे मंदिर प्रवेश आंदोलन में मुस्लिमों को भी साथ लेने की बात कर रही हैं. अलका सरावगी ने सरला देवी की खिलाफत आंदोलन के नेता शौकत अली की हरी पोशाक और टोपी पर बने चंद्रमा का जिक्र भी नापसंदगी के साथ किया है.
गौरतलब है कि खिलाफत के धार्मिक आयाम से कई बड़े नेताओं को सख्त आपत्ति थी. अलका सरावगी की इस किताब में सरलादेवी एक स्वतंत्र सोच वाली महिला के रूप में सामने आती हैं, जिसके अंदर मुद्दों की समझ है और जिसमें नेतृत्व की असाधारण क्षमता है, जिसका भरपूर इस्तेमाल नहीं हो पाया. एक ख्याल है कि यदि सरला देवी चौधरानी की मुलाकात डॉ. अंबेडकर से हुई होती तो क्या वे स्त्री अधिकारों के मसलों पर उनकी राय जान बहुत प्रसन्न होतीं? यह बेवजह नहीं कि चेतना संपन्न स्त्रियों को अंबेडकर अपने पक्ष में खड़े मिलते हैं. वे बगैर कोई महान आदर्श थोपे या उनको गढ़ने की कोशिश किये बिना सिर्फ मनुष्य होने के कारण उन्हें सारे अधिकारों में बराबरी देते हैं. पूर्ण स्त्री बनाने की कुचेष्टा ने स्त्रियों से हमेशा उनकी अपनी इच्छा व चयन के हक को दरकिनार किया है.
किताब के शुरूवाती पन्नों में सरलादेवी एकाध जगह जैनेंद्र की सुनीता की याद दिलाती है जो संभवत: राष्ट्रीय आंदोलन में तब चल रहे ‘नयी औरत’ की संकल्पना से मेल खाने की वजह से लगा हो. अलका सरावगी जैसी स्थापित उपन्यासकार के इस नये उपन्यास पर हिंदी जगत की प्रतिक्रिया को देखना दिलचस्प होगा. फिलहाल उन्हें मुबारकबाद.
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प्रीति चौधरी ने उच्च शिक्षा जेएनयू से प्राप्त की है, अंतरराष्ट्रीय राजनीति, राजनय, भारतीय विदेश नीति, लोक नीति और महिला अध्ययन के क्षेत्र में सक्रिय हैं. लोकसभा की फेलोशिप के तहत विदेश नीति पर काम कर चुकी हैं. साहित्य में गहरी रुचि और गति है. कविताएँ और कुछ आलोचनात्मक लेख प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं.बुंदेलखंड में कर्ज के बोझ से आत्महत्या कर चुके किसानों के परिवार की महिलाओं को राहत पहुँचाने के उनके कार्यों की प्रशंसा हुई है.बाबासाहेब भीमराव अम्बेडकर विश्वविद्यालय, लखनऊ में राजनीति विज्ञान पढ़ाती हैं. preetychoudhari2009@gmail.com |
इतनी बेबाकी से लिखने के लिए साधुवाद
इस किताब के विभिन्न पहलुओं से अवगत हो, और गांधी जी के प्रति विचार समृद्ध होना एक विस्तृत प्रक्रिया जो चलती ही रहे शायद
किताब पढ़ने की उत्सुकता है
जानकारियों से परिपूर्ण विश्लेषणात्मक समीक्षा. उपन्यासकार और आलोचक दोनों को बधाई.
प्रीति चौधरी ने पुस्तक की गहन समीक्षा की है,परत-दर परत खोल कर रख दिया है। समस्या यह है की हम अपने आदर्श पुरुषों को आदर्श बनाए रखने के ही पक्षधर हैं। हम यह नहीं समझते कि अन्ततः वे भी कमजोरियों से मुक्त नहीं हैं। पुस्तक जरूर पढ़ने योग्य होगी और इस पर विस्तार से सोचा जा सकता है।
ललन चतुर्वेदी
इस अनछुए पहलू की बेबाक प्रस्तुति के लिए साधुवाद
समीक्षा के आरंभ में गांधी पर केंद्रित जितनी पुस्तकों का ज़िक्र है उनमें कुछ को पढ़ना संभव नहीं हो पाया था.सूचना के लिए समीक्षक को साधुवाद.
इस समीक्षा की एक बड़ी खूबी यह है कि यह पाठकों को मूल कृति की ओर उन्मुख करने में समर्थ है.
यह सही है कि उपन्यास के आरंभिक कुछ अध्याय पाठकों के धर्य की परीक्षा लेते हैं. किन्तु, आगे बढ़ने पर अलका सरावगी के कथाकार का जीनियस हमें प्रभावित करता है.
इस कृति के पूर्व गांधी पर केंद्रित गिरिराज किशोर का ‘पहला गिरमिटिया’ उपन्यास बहुचर्चित हुआ था.
अलका जी की यह कृति पढ़कर हिंदी पाठक गांधी के बाह्य व्यक्तित्व के साथ अन्तःव्यक्तित्व की जटिल संरचना को महसूस कर पाता है.इस दृष्टि से यह उपन्यास हिंदी एक उल्लेखनीय रचना है.
एक दो तीन चार, लगातार सांसों में पढ़ गई। बहुत अच्छा लिखा है आपने। व्यापक, निरपेक्ष और संवेदनशील दृष्टि है आपकी, लेकिन सबसे बढ़कर आपकी समक्षाओं में पलकों की नमी और पुतलियों के तेज का खेल बांध लेता है। और फिर अलका जी का यह उपन्यास तो भावना और स्वचेतना के द्वंद्व का भंवर है ही। आप दोनों को बधाई।
बेहद समृद्ध समीक्षा लिखने के लिए प्रीति जी को साधुवाद .उपन्यास मध्य में जाकर पाठक को अपनी ज़द में ले लेता है .इतिहास की पुनर्व्याख्या और आधी आबादी का इतिहास लिखने में इस तरह के शोध अपनी गहरी अर्थवत्ता सिद्ध करते हैं .भाषा -भंगी और कथ्य के नज़रिए से यह उपन्यास अलका सरावगी के पहले के उपन्यासों से अलहदा है .प्रीति जी ने इस जीवनीपरक उपन्यास की समीक्षा में जिन मूल स्रोतों को ग्रहण किया है ,वह आलोचकीय प्रतिभा और गहन परिश्रम का प्रमाण है .प्रीति चौधरी लेखिका को बधाई .
संबंधित ज्ञान का विस्तार करती और उपन्यास को पढने की जिज्ञासा जाग्रत करती समीक्षा
प्रीति जी, आपकी समीक्षा इतनी प्रभावशाली है कि ये एक पाठक को इतना ललचा रही है कि बिना पढ़े अब रहा नहीं जायेगा। पुस्तक मेले में जाकर सबसे पहले इस उपन्यास को ही खरीदना चाहूंगी मैं। शानदार समीक्षा के लिए हार्दिक साधुवाद।अलका जी को ढेर सारी शुभकामनाएं।
अलका सरावगी की यह क़िताब पढ़ना शेष है पर प्रीति जी की टिप्पणी ने इसके प्रति जिज्ञासा और इसे जल्दी पढ़ने की बेताबी जगा दी है. गांधी की कस्तूरबा के प्रति उपेक्षा और अपमान के कुछ क़िस्से गिरिराज किशोर की कस्तूरबा पर लिखी क़िताब ‘बा’ में भी पूरी बेबाकी से सामने आते हैं.लेकिन यह क़िताब शायद उससे आगे की बात कहती है.
बहुत ही जरूरी उपन्यास. इसे पढ़ना बेहद विचारोत्तेजक होगा.
सुचिंतित समीक्षा। सार्थक समीक्षा हुई है जो समीक्ष्य किताब पढ़ने की ललक पैदा कर दे। प्रीति जी को बहुत बहुत बधाई।
उस आभा मंडल के पीछे दृष्टि डालिए तो सरला देवी, मीरा ही नहीं नीला, प्रेमा, प्रभावती, मैडलिन, सुशीला, मार्गरेट स्पीगल, आभा आदि अनेक महिलाओं की सिसकियों की ध्वनि मिलेगी. हमें विश्वास करना चाहिए कि अब इनके विषय में भी और लिखा जाएगा, चर्चा होगी….
किसी भी उपन्यास के शिल्प को गढ़ने में समय और स्थान का महत्वपूर्ण योगदान होता है।ये थोड़ा और ज्यादा गंभीर और मुख्य हो जाता है जब उसमें ऐतिहासिक तथ्यों की भी सीमा होती है।इसे सीमा इसीलिए कहा गया है कि उपन्यास की कथावस्तु में कल्पना की उड़ान को यही तथ्य रोकने का भी काम करते रहते हैं।
ऐसे में किसी लेखक के लिए सबसे बड़ा चुनौती भरा काम है, कि वो उन तथ्यों के साथ उस पाठक के लिए अपना उपन्यास लिखे जिन्हें इतिहास के तथ्यों की कोई भी आकृति संदेह से देखने की आदत है।
ये संदेह ट्रुथ और पोस्ट ट्रुथ के बीच का हिस्सा है। जहां माना जा सकता है कि जिसे हम तथ्य मानकर उस लेखक के उपन्यास पर कुछ कहने के लिए अपना अधिकार मान रहे हैं वही अधिकार की जमीन उस तथ्य कहलाने वाले सत्य और उसे जीने वाले अनुभवों के सत्य के बीच की एक दलदली जमीन है।
अलका जी का उपन्यास ऐसे में कैसे उस दलदली जमीन से हमें बाहर ला पाता है ,ये ही इस उपन्यास की सबसे बड़ी चुनौती है।
बाकी पढ़ने के बाद।
बहुत रोचक है यह किताब । राष्ट्रीय आंदोलन के बीच प्रेम अपनी जगह खोज लेता है । प्रेम महापुरुषों को भी किशोर वय का प्रेमी बना देता है । अच्छा लगता है यह बचपना । प्रीति जी की समीक्षा अध्ययन के बाद लिखी गयी है,उसके स्रोतों की पड़ताल की गयी है ।
बेहद समृद्ध और विचारोतेजक समीक्षा के लिए प्रीति जी को धन्यवाद, और अलका जी को भी साधुवाद।
उपन्यास पढ़ने के लिए उत्सुकता पैदा करती समीक्षा।
समीक्षा बहुत अच्छी है – उत्तेजक भी आकर्षक भी। समीक्षक को कृति के अलावा भी इस विषय के बारे में जानकारी बहुत व्यापक है, जिससे यह समीक्षा काफ़ी समृद्ध हुई है, लेकिन इसी से विवेच्य कृति उतनी अच्छी तरह विवेचित नहीं हो सकी है, जितनी एक इतनी अच्छी समीक्षा से अपेक्षित होती है…। इसे विषय की बाबत व्यापक जानकारी का दिखावा तो नहीं कह सकते हैं, पर वह हावी जोक उपन्यास को उतना नहीं खोलतो दिखती, जितनी विषय को