‘आज कुछ भी अराजनीतिक नहीं है’ गगन गिल से विपिन चौधरी की बातचीत |
सामान्य जीवन में ‘ठिठकना’ शब्द सहज प्रवाह के प्रति व्यवधान का परिचायक है मगर गगन गिल अपनी कविताओं में इस ठिठकने या स्तब्धता के भाव को प्रतिरोध के सूत्र में पिरोने के लिए इस्तेमाल करती हैं. यही उनकी कविताओं का स्थायी भाव है. चूंकि कवयित्री का मन अज्ञात में अधिक रमता है इसलिए उन्हें अपने अवचेतन में उपस्थित रहना अधिक सुहाता है और ज़ाहिर है उनकी कविताओं का पता-ठिकाना भी यही है.
कविता के इस अनूठे शिल्प में पाठक को कल्पनाओं की ऊंची उड़ान भरने की सहूलियत तो नहीं है. हाँ, उनकी कविताओं का पाठ, पाठक के भीतर की आर्द्र ज़मीन के निकट सिमट आने की प्रज्ञा ज़रूर मुहैया करवा सकता है.
घनीभूत भावभूमियों पर रची गई उनकी कविताएं एक समृद्ध कहे जाने वाले जीवन में अनंतर्हित आघातों, संतापों और असमय मृत्यु की मर्मांतक स्मृतियों से गुज़रते हुए मनुष्य के भीतर गहराते हुए शून्य को महसूस करवाती हैं. यह शून्य ही पाठक को उनके भीतरी और बाहरी अंतर्विरोधों पर विचार करने की दृष्टि प्रदान करता है. यही पहलू इन कविताओं का हासिल है.
उनकी प्रेम कविताओं में स्त्री की संवेदनशीलता, उसकी आंतरिक बेचैनी, उसके तनाव, उत्कंठा, विरह, संदेह, आकांक्षा, शोक और विस्मृति के भाव परिलक्षित होते हैं. ये कविताएं परंपरागत स्त्री-कविता के कोष्ठक में नहीं बंधना चाहती. इन कविताओं में स्त्री अपनी व्यक्तिगत गरिमा को साथ लेकर उच्चतर सोपानों की यात्रा करने के लिए कृतसंकल्प दिखाई देती है.
उनकी कई कविताओं में बुद्ध का आविर्भाव दुख का कद और अधिक ऊंचा कर देता है. ऐसी कविताओं को सलीके से ग्रहण करने के बाद जैसे जीवन के अबूझ दुख को बूझना थोड़ा आसान और सहज लगने लगता है.
इन कविताओं में पाठक ऐसे विशिष्ट संसार को भी देख सकता है जहाँ परंपराएं और संस्कार, तथाकथित आधुनिकता पर भार नहीं बनते बल्कि आगे बढ़कर मनुष्य को सहारा दे रहे होते हैं.
गगन जी से लिया गया यह साक्षात्कार उनकी रचना-प्रक्रिया को जानने के साथ उनके निजत्व के उन दुर्गम इलाकों तक पहुँचने की एक कोशिश भी है जिनकी बदौलत उनका भावप्रवण साहित्य अस्तित्व में आ सका है. साहित्य के कोलाहल के बीच उनके अपराजेय एकांत का साक्षी बनना मेरे लिए वाकई सुखद था .
विपिन चौधरी
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गगन जी आपकी कविताएं एक सजग स्त्री की आत्मचेतना का व्यापक परिचय देती जान पड़ती हैं. एक स्त्री की चेतना के इस विकास-क्रम में आप अपने बचपन, परिवेश और अपनी परवरिश को किस तरह से देखती हैं?
शायद मेरी परवरिश बड़ी सुविधा सम्पन्न थी. एक बहुत पढ़े-लिखे परिवार में मेरा जन्म हुआ. साहित्यिक चर्चाएं, विमर्श हमारे घर के वातावरण में बसा था. मेरे माता-पिता दोनों अध्यवसायी थे. मम्मी कॉलेज में पढ़ाती थीं, दारजी संस्कृत के विद्वान थे. जब उनके सहयोगी मित्र हमारे घर आते तो ज़्यादातर हमारी ड्यूटी उन्हें पानी लाकर देने की होती थी. घर का सब कामकाज बाई जी सम्हालती थीं. यह परिवेश विशिष्ट है, इसके बारे में मैं कुछ नहीं जानती थी. मुझे लगता था, सबके घरों में ऐसा ही होता होगा! माता-पिता ग्रंथों की, साहित्य की, गुरुबानी की चर्चा करते होंगे. ऐसा इसलिए कि जब हम अपने मित्र परिवारों में जाते, तो वहाँ भी यही माहौल होता. गर्मी की छुट्टियों में मौसियाँ आतीं तो गानों के दौर होते, मामा-चाचा आते तो हंसी के फुहारे. बुआ आतीं तो बाल्टी वाली मशीन में आइसक्रीम बनती.
मुझे लगता है, ऊपर वाले ने आपको संवेदनशीलता दी हो, तब भी उसे बचा कर रखना पड़ता है. अगर आप बहुत संवेदनशील हैं तो वह आपके लिए विष भी बन सकती है. वह विष न बने, सिर्फ़ आपकी धार तेज करती रहे, आपको प्रश्नाकुल करती रहे, इसके लिए सावधान रहना पड़ता है. सावधानी हटी, दुर्घटना घटी!
मैंने अक्सर अपने को खतरे के निशान के पास देखा है. मेरा एक पैर खतरे की रेखा को बार-बार क्रॉस करता है, विधाता ने ऐसा ही मेरा मन बनाया है, लेकिन कुछ ऐसा होता है, मेरा दूसरा पैर रेखा पार नहीं करता. यह मेरे भीतर स्वयं को बचाने की, सेल्फ-कॉनसर्वेशन की, गहरी चेतना है. इसे मैं अपनी सर्जनात्मक शक्ति में लगाती हूँ. लिखना मेरे लिए अभ्यास की अभिव्यक्ति नहीं. हर बार मुझे नयी भाषा, नया फ़ॉर्म ढूँढना पड़ता है. ऐसा नहीं होता कि विषय तो नया टटोलूँ और लिखने में पुरानी भाषा, संरचना से काम चल जाए.
कई बार मुझे अपने जीवन की स्थितियों के कारण और शायद मेरे स्वभाव के कारण भी, गहरा डिप्रेशन हुआ है. दिनों दिन मैं एक ही जगह बैठी रह गई हूँ. मगर उस अवस्था में भी मैंने देखा है, मैं आख़िरी सीढ़ी नहीं उतरती. जैसे कोई डूबता हुआ आदमी सांस लेने के लिए ऊपर आ जाता है. कोई मुझसे कहता है, डूबना मत.
फिर बचने के लिए भले मुझे संगीत सुनना पड़े, दवा खानी पड़े, यात्रा करनी पड़े, कुछ भी करके मैं उस खतरे के निशान से ऊपर आ जाती हूँ. मेरे लिए एक मज़बूत और आत्मनिर्भर व्यक्ति होना, जीवित रहने की बुनियादी शर्त है. कई बरस पहले एक लेखक मित्र ने पूछा था, ऐसी तीव्रता के साथ आप जी कैसे लेती हैं, बच कैसे जाती हैं? मुझे लगता है, मुझमें ऐसी अति न होती, जिज्ञासा के लिए जोखिम उठाने का माद्दा न होता, तो मेरा लेखन अलग तरह का होता. जो हमें डुबोता है, वही हमें निकालता है.
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बीसवीं सदी में लिखी गई आपकी कविता लड़की द्वारा अपनी इच्छा से मुँह फेरकर पटरी पर बैठ जाने और तृष्णा से बचकर अपनी देह में रहने का जिक्र करती है. वहीं इक्कीसवीं सदी की स्त्री-कविता अपनी इच्छाओं का बेबाकी से उनका वर्णन करती है, अपनी यौनिक आज़ादी पर बेहिचक बात करती है. इस अंतराल में आए इस परिवर्तन और स्त्री कविता की मुखरता के बारे में क्या सोचती हैं?
यौनिक आज़ादी वाली चीज़ें तो पहले भी लिखी जाती थीं. कृष्णा सोबती ने ‘मित्रो मरजानी’ लिखा, इसी विषय पर, खूब खुला-खुला लिखा. लेकिन यौनिकता का भी एक सौन्दर्य होता है, एक मानवीय पक्ष, बल्कि मानव अधिकार वाला पक्ष होता है. मुझे लगता है, इन दिनों इस विषय पर जो चर्चाएं हो रही है उनमें ऐस्थेटिकली कुछ गड़बड़ है. कृष्णा जी ने बड़ी बारीकी से यह विषय उठाया था. अब यह ज़ोर शोर से उठाया जा रहा है. यह एक बुनियादी अंतर है.
कहीं हम साहित्य को उलटी दिशा में तो नहीं लेकर जा रहे? मुझे लगता है, यौनिक असंतुष्टि एक रचना का विषय तो हो सकती है, मगर साहित्य का केंद्रीय मुद्दा नहीं. अगर ध्यान से समझें तो यौनिक असंतोष देह के संताप से शुरू होकर मन तक पहुँचता है. क्या हम उसे उसकी पेचीदगी में कह रहे हैं?
कोई भी संताप, देह का हो या मन का, वह उस समय परेशान कर भी रहा हो, किसी आस्तित्विक उजाले की ओर जा रहा होता है. क्या हम अपने लेखन में उसके भिन्न आयाम पकड़ रहे हैं? आजकल ये शोर किस दशा में जा रहा है, मेरी समझ से परे है. मेरी दिलचस्पी यौनिकता का विषय समझने में तो है, इस शोर में नहीं है.
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आपकी एक कविता में स्त्री अपने दुखों को रात में छुपाने की बात कहती है क्योंकि उसे दिन में शिकारियों से डर लगता था. इस कविता के बारे में ज़रा विस्तार से बताएं?
मेरी इस कविता की पंक्तियाँ-
‘दिन के दुख अलग थे
रात के अलग
दिन में उन्हें छिपाना पड़ता था
रात में उनसे छिपना’
काफ़ी चर्चित हुईं. स्त्री-पुरुष दोनों तरह के पाठकों ने उसे दोहराया, पोस्टर बनाए. ज़ाहिर है, कोई बात उन्हें छूई. उसका उनके मनुष्य होने से वास्ता था, न कि स्त्री या पुरुष होने से.
कौन है जो अपना दुख नहीं छिपाता? सब मज़बूत दिखना चाहते हैं क्योंकि नहीं दिखेंगे तो उन पर घात लग सकता है. कविता की दूसरी पंक्ति थी कि रात में उनसे छिपना पड़ता था, इसलिए कि नींद की शिथिलता में कोई कवच नहीं बचता. हम दूसरों से तो अपने को छिपा सकते हैं मगर खुद से नहीं बच सकते. मुझे नहीं लगता, दुःख का कोई लिंग है, जाति है, वह स्त्री या पुरुष दुःख में विभक्त है.
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क्या ‘प्रेम’ मुक्ति का ज़रिया बन सकता है? आपकी कविता में लड़की कहती है, वह शोक से बचने के लिए प्रेम करती है. क्या प्रेम वाकई ऐसी सुरक्षित जगह है जिसके वृत में कोई लड़की महफ़ूज रह सकती है या फिर वह सिर्फ़ विस्मृति में ही सुरक्षित है? इस कविता की रचना-प्रक्रिया पर आपसे तफ़सील से जानना चाहूँगी.
यह कविता लगभग पैंतीस-चालीस साल पहले लिखी थी. अब इसकी रचना-प्रक्रिया के बारे में मुझे कुछ ध्यान नहीं कि कब और कैसे लिखी थी.
लेकिन जो आपके प्रश्न का दूसरा हिस्सा है- क्या प्रेम मुक्ति का ज़रिया बन सकता है? इसका उत्तर है, हाँ और ना, दोनों. यह निर्भर करता है कि वह प्रेम किस तरह का है, किस प्रकृति का? क्या वह प्रेम उस व्यक्ति या उस वस्तु तक जाकर खत्म हो जाता है या कि उसके पार भी जा सकता है?
इन दिनों मैं अक्का महादेवी की कविताओं पर काम कर रही हूँ. इस प्रश्न के उत्तर के लिए उनकी कविताएं बहुत सुंदर और सटीक उदाहरण प्रस्तुत करती हैं. उनकी कविता में शिव के लिए गहरा ऐंद्रिय प्रेम है मगर धीरे-धीरे शिव एक माया पुरुष की जगह संसार में फैली एक आभा बनते हैं. यह रूपांतरण ही प्रेम में अक्का महादेवी की मुक्ति है.
मुझे ठीक-ठीक नहीं मालूम, प्रेम में इसकी प्रक्रिया क्या होती होगी. निश्चित ही यह एक जटिल प्रक्रिया है. जिससे प्रेम किया जा रहा है, वह नहीं मुक्त करता. उसे प्रेम करने वाला दिल ही एक दिन हमें मुक्त करता है. ईश्वर चाहे भी तो वह आपको मुक्त नहीं कर सकता. अपने बंधन में आप अकेले हैं और मुक्ति में भी.
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आपके कविता-संग्रह को पढ़ने के बाद लगता है कि एक सजग स्त्री के रूप में आप निरंतर अपनी पहचान को पुष्ट करती रही हैं. साथ ही स्त्री होने मात्र से ही शोक के जो खटके हैं, जिनका सामना वह भविष्य में करेगी उस पर बार-बार बात करती हैं. तो क्या एक स्त्री के लिए उदासी तय है, क्या उसके जीवन में ऐसे दुख जरूरी हैं जिसमें अंधेरा हो, क्या स्त्री को कभी इन तय दुखों और शोक से मुक्ति मिल पाएगी?
मुझे दुःख है कि हमारा समाज उन्नत होने के बजाय समय के साथ और पतनशील हुआ है. आज से तीस साल पहले लड़कियाँ इतनी मुखर नहीं थीं, इशारे से बात कहती थीं, मगर क्या इस अंतराल में कुछ बदला? जिस वास्तविक संसार से हमारा और अब हमारी बेटियों का सामना होता है, वह क्रूर से क्रूरतर ही हुआ है.
आज से पैंतीस साल पहले मैं एक युवा लड़की फ़िल्म फ़ेस्टिवल कवर करके रात साढ़े नौ बजे घर लौट रही थी तो एक साइकिल सवार ने मेरा पीछा किया था. मेरे घर के निकट. मैं इतना डर गई थी कि उस घटना पर मैंने अपनी पत्रिका में लिखा था कि अभी वह आदमी अपने घर जाएगा, घर की औरतों की बीच बैठेगा, खाना माँगेगा. वे क्यों नहीं देखतीं यह आदमी कुछ देर पहले सड़क पर एक राहजाती लड़की से क्या कह कर आया है!
उस लेख की बड़ी चर्चा हुई थी. मगर आज पैंतीस साल बाद भी हम कहाँ पहुँचे? निर्भया से हुई दरिंदगी तक? संयोग से वह भी एक फ़िल्म देख कर लौट रही थी और उसके साथ उसका पुरुष मित्र भी था. आज हालत यह है कि दिन में भी कोई लड़की अकेले लौट रही हो तो हमें चिंता होने लगती है. पुरुष ने अपने पशु पर कुछ भी अंकुश नहीं लगाया? इतनी शिक्षा, घर-बाहर सब जगह महिलाओं की इस प्रताड़ना की चर्चा और असर कुछ भी नहीं? बल्कि यह कि घटना का विरोध करने वाले पर ही प्रहार कर दिया गया!
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आज के समय के पिता बीसवीं सदी के पिता से कितने उदार बन सके हैं? क्या लड़की का जन्म, उनकी परवरिश आज के समय के पिताओं के लिए भी किसी शोक का विषय बना हुआ है, आपको क्या लगता है?
अगर ऐसा हो तो आश्चर्य क्या! वे दिन कब के गए जब पहली संतान को लक्ष्मी माना जाता था. दूसरी हुई तो रुतबा कुछ कम हुआ. और अगर एक के बाद एक लड़कियाँ ही होती गईं तो कन्याएँ शायद लुटेरी दिखने लग गईं, कि अब इनके दहेज देने होंगे, इनकी रक्षा करनी होगी!
आज बेटी का पिता मेरे स्वर्गीय पिता के मुकाबले ज़्यादा चिंतित है तो यह पुरुषों के लिए धिक्कार है. पुरुषों ने ही समाज को इतना असुरक्षित बनाया है और असुरक्षित होने दिया है. आज जब हम स्त्री-विमर्श की बात करते हैं तो पूछना चाहिए, पुरुष इस समाज को सहनीय बनाने के लिए क्या योगदान दे रहे हैं?
कार्यस्थल, घर या बाहर, पुरुष की क्या भूमिका है, हमें देखना चाहिए. इस स्थिति में उनकी माँओं को धिक्कार है, जिन्होंने उन्हें ये नहीं सिखाया कि उन्हें लड़की का, बहन हो या प्रेमिका, उसकी मेहनत का, उसके प्रेम का आदर करना है. अभी तक वे समझते हैं, सब अच्छी चीजों पर उनका हक़ है, पत्नी की देह और तनख्वाह पर और बाक़ी हर चीज़ पर मगर इसके एवज़ में उन्हें कुछ नहीं करना.
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आपने अपनी एक कविता में कहा है, कविगण लड़कियों की कविताओं से डरते हैं. इस कविता को लिखने के पीछे आपकी क्या भावना रही थी?
यह मैंने एक ईर्ष्यालु सहयोगी कवि को लेकर लिखी थी. यह एक मासूम प्रतिवाद जैसा कुछ था. मैं उनकी हरकतों से क्षुब्ध थी. कमउम्र थी. आज सब विष्णु खरे की मेरी कविताओं पर कही अतिशयोक्ति का ज़िक्र करते हैं, मगर शायद ही किसी ने सोचा हो, उस अतिरेकी प्रशंसा ने छोटी उम्र से ही मेरे रास्ते में काँटे बिछा दिए. चौबीस वर्ष कोई उम्र नहीं होती इस सब को समझने की. मुझे अपने समय में सम्मान कम, ईर्ष्या और षड्यंत्र ज़्यादा मिले.
1984 में मुझे भारत भूषण पुरस्कार मिला और 84 में ही जेन्टलमैन नाम की एक अंग्रेजी साहित्यिक पत्रिका का विशेषांक निकला- लीडर्स ऑफ नेक्स्ट सेंचरी. खेल, राजनीति, विज्ञान, व्यवसाय, लेखन आदि कई विषयों पर पाँच पाँच युवा लोग नामित किए गए थे कि ये भविष्य के नाम होंगे. साहित्य में पहला नाम सलमान रश्दी, दूसरा नाम मेरा. मुझे आज भी याद है, जब जेंटलमैन पत्रिका की रिपोर्टर मेरे ऑफिस में मुझे इसकी सूचना देने आई तो मेरे चेहरे पर एक व्यंग्य भरी मुस्कान आई. उसने पूछा, आप ख़ुश नहीं? मैंने कहा, मैं अभी दो सप्ताह पहले ही दिल्ली के दंगों से बची हूँ. शायद आपको यहाँ बैठे हुए नहीं मिलती.
आज भी मेरा विश्वास है, जीवन के आरम्भ में ही इस तरह की स्वीकृति आपका भला नहीं, बहुत बुरा करती है. आप अपनी प्रतिभा के लिए नर्वस महसूस करने लगते हैं. आपको शर्म आने लगती है. आप लोगों से छिपने लगते हैं, अपने दुर्गुणों नहीं, अपनी दैवी प्रतिभा के कारण. आपको लगता है, सफलता शर्म की चीज़ है, क्योंकि आपके आसपास और किसी को तो यह मिली नहीं. आप दूसरों जैसे होना चाहते हैं, साधारण, अदृश्य.
अगर एक समाज अपनी युवा प्रतिभाओं के साथ ऐसा करता है तो कहीं कुछ बहुत गलत है.
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इधर के दशकों में भारतीय स्त्रियों की आर्थिक-सामाजिक स्थिति भले कुछ बेहतर हुई हो, उनके तनाव, उन्हें तरह-तरह से डराने के लिए विकसित किए गए भय आज भी वैसे ही बने हुए हैं. क्या ये तनाव स्त्री के विकास में बाधक हैं या आज की स्त्री इन तनावों से पार जा सकती है?
हर स्त्री का संघर्ष करने का अपना तरीका है. कोई लेखक इस बारे में क्या बता सकता है? मगर आर्थिक स्वतंत्रता मनुष्य की मूलभूत आवश्यकता है. आपकी समस्त मानवीय गरिमा आर्थिक स्वायत्तता से जुड़ी है, उससे अभिन्न है. मेरी माँ, मेरी दादी, मेरी बुआ और मौसियाँ सब आर्थिक रूप से स्वतंत्र थीं. मेरी तीनों बहनें भी. किसी ने नौकरी की, किसी ने स्वतंत्र काम. सबने अपनी घरेलू जिम्मेदारियाँ निभाईं और अपनी आर्थिक स्वतंत्रता को खूब सेलिब्रेट किया. मैंने भी, हालाँकि लेखन में वैसा धन नहीं है जैसा बंधी-बँधाई नौकरी में था. किसी दूसरे के धन से सुविधा मिल सकती है, गरिमा और स्वतंत्रता नहीं.
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आपका यात्रा-वृतांत अवाक एक अनूठा अन्तर्यात्रा-वृत्तान्त है जिसमें जीवन और मृत्यु के कितने ही आयाम खुलते हैं. इस किताब में एक जगह आपने लिखा है, तीर्थ यही करता है, दुनिया का दरवाज़ा भिड़ा देता है, ताकि आप अपने भीतर देख सकें. मुझे लगता है, आपकी सारी रचनाएं एकांत की साधना का ही परिणाम हैं. आपने जिस तरह दुनिया की तरफ़ से दरवाज़ा भिड़ा रखा है, उसने आपके व्यक्तित्व को एक विशिष्ट गरिमा प्रदान की है. साहित्यिक समाज से दूरी बनाए रहने को लेकर आपका क्या कहना है?
मैं ऐसी दूर भी नहीं रही हूँ. साहित्यिक सरगर्मियों में मैं हमेशा से काफ़ी सक्रिय रही हूँ. देश-विदेश के साहित्यिक कार्यक्रमों में शिरकत की है, अपने देश और अपनी भाषा की प्रतिनिधि रही हूँ. आज भी जहाँ जाना होता है मैं बड़े उत्साह से जाती हूँ, हालाँकि अब तभी जाती हूँ जब किसी नए अनुभव या नए स्थान का आकर्षण हो.
मेरे स्वभाव को एकांत पसंद है. अकेले रहकर मुझे ऊर्जा मिलती है. लोगों में रहकर बहुधा मेरी ऊर्जा चुक जाती है, हालाँकि जब कभी कोई नई बात समझने को मिलती है, दिनों तक उसका जादू बना रहता है. सूर्य से भी ज़्यादा प्रकाश किसी मनुष्य के मन से मिल सकता है, अगर आप भाग्यशाली हों तो. जीवन आश्चर्य से भरा है. उसे घटने देना हो तो सब्र से रहना चाहिए. सो मैं सब्र से रहती हूँ.
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किन कवियों ने आपको प्रभावित किया है?
अलग-अलग समय पर अलग-अलग कवि बुलाते हैं मगर सबसे ज़्यादा मुझे लोर्का, मारीना त्स्वेतायेवा, हरिभजन सिंह ने प्रभावित किया है. तीनों की दुनियाएं अलग-अलग हैं. लोर्का की दुनिया गीतात्मक है. बड़े डिस्टर्बिंग बिम्ब उनके यहाँ आते हैं. त्स्वेतायेवा की दुनिया बड़ी सघन है. वहाँ आप सामान्य मनःस्थिति में नहीं जा पाते. उनका समय भी बड़ा क्रूर समय था, रूसी क्रांति हो चुकी थी. वे लोग प्रवासी बनकर पेरिस चले गए थे. लौटकर आए तो रूस में बहुत भुखमरी थी. त्स्वेतायेवा की एक बच्ची तो अनाथ आश्रम में ही भूख से मरी. त्स्वेतायेवा ने जब आत्महत्या की, तब उनका लड़का चौदह साल का था. उस बच्चे ने शायद अपनी माँ की असमर्थता को लेकर कोई बात कही थी, कि माँ होकर वह उसके लिए खाना भी नहीं जुटा सकती. वह इतना दुखी हुईं कि फांसी लगा ली. उनका जीवन बड़ा संघर्षमय रहा. यदि वे कवि न होतीं तो शायद जीवित न रहतीं. मनुष्य इतना सह सकता है? ऐसा मैंने सबसे अधिक त्सवेतायेवा को लेकर सोचा है.
हरिभजन सिंह मेरी मातृभाषा पंजाबी के बड़े कवि हैं. वे आधुनिक हैं, मध्यकालीन भी. विडम्बना उनका प्रमुख स्वर है. मुझे अकसर लगता है, जैसे मेरे कई पुरखे उनकी कविता में छिपे बैठे हैं, मुझे देख रहे हैं, बुला रहे हैं.
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आपने कहीं अक्का महादेवी के बारे में भी कहा है कि उनके वचन मेरे ह्रदय को चीर देते हैं.
इतनी न्यूनतम मांग तो अच्छे साहित्य से हमारी होनी चाहिए कि वो हमारा कुंद पड़ा दिल जीवित कर दे, विशेषकर भक्ति साहित्य. जीवन एक विचित्र चुनौती है. जीने के लिए चेतना भोथरी करनी पड़ती है ताकि बार-बार एक ही जगह चोट न लगे. मगर गहराई से कुछ समझना हो तो इसी चेतना की धार तेज़ करनी पड़ती है.
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आपने देश विदेश की खूब यात्राएं की हैं, इन यात्राओं में आप क्या खोजती हैं. ?
पहले मैं इतिहास को समझने के लिए यात्राएं किया करती थी. तुर्की, जो अभी बीसवीं शती की शुरुआत तक ग्रीस हुआ करता था, उसके पुराने खंडहर देखने गई, बायजेंटाइन सभ्यता से जुड़ी हुई चीजें, आया सोफ़िया, इस्तांबुल, रूमी का शहर कोन्या, मदर मेरी का अंतिम स्थान एफिसस. कम्बोडिया के अंगकोर वाट. च्यांग माई के बौद्ध मंदिर. लाओस के बौद्ध हिंदू मंदिर. बाहरी दीवारों पर महाभारत- रामायण, भीतर महात्मा बुद्ध! बाली, बोरोबुदूर.
कितनी दूर तक हमारी सभ्यता ने संसार में अपनी छाप छोड़ी है. एक ही बुद्ध हैं मगर हर देश में कितने अलग दिखाई पड़ते हैं- तिब्बत, चीन, थाईलैंड, जापान, श्रीलंका. कभी तीखी नाक, कभी चपटी नाक. इसी तरह जीसस. बायजेंटाइन, रोमन, ग्रीक, रूसी ऑर्थोडॉक्स, आर्मिनीयन चर्च में सब जगह अलग.
इधर मेरा मन सिर्फ़ अलग-अलग लैंडस्केप देखने के लिए यात्राएं करना चाहता है. ईश्वर को मानती हूँ, और चकित रह जाती हूँ, इतना विविध यह संसार, इसकी तरह-तरह की चट्टानें, मिट्टियाँ. जॉरजिया में धरती के अन्दर बनी प्राकृतिक गुफाएँ देखीं, जैसे किसी ने चित्र उकेर रखे हों! उन्होंने रंगीन बल्ब लगा कर वहाँ रास्ता बना दिया है, जैसे आप किसी प्रागैतिहासिक नगर में से निकल रहे हों. मालूम नहीं, वह नगर है या समय है, मगर वहाँ ईश्वर है! उसकी उपस्थिति है. मनुष्य के बनाए मंदिरों में ईश्वर नहीं. प्रकृति ही ईश्वर है. ज़रा सी चिंगारी और मिट्टी में जीवन उग आया. कभी केंचुआ, कभी इंसान. कभी जड़, कभी पेड़. एक दिन उसी मिट्टी में मैं जा कर मिलूँगी. इस विचार में कैसी सांत्वना है. मुझे ईश्वर के दर्शन हों, न हों, मेरी मिट्टी को उसकी छुअन मिली थी, तभी मैं इस दुनिया को देख सकी.
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बौद्ध दर्शन में आपने अपनी करुण संवेदनाओं को व्यक्त किया है. सिख धर्म जैसे उदारवादी धर्म में जन्म लेने के बाद बौद्ध धर्म में आपकी आस्था कैसे जागृत हुयी?
कहना मुश्किल है. मेरा कोई प्रबल पूर्व संस्कार रहा होगा. बचपन से ही मैंने सिख धर्म में भी ऊँचे जीवन और साधना वाले संत देखे थे. मेरे माता-पिता गहरे आस्थावान थे मगर कुछ विचित्र रहा कि सिख धर्म मेरे लिए मेरे माता-पिता का धर्म रहा. उससे मेरा स्वतंत्र सम्बंध नहीं बना. जैसी ऊर्जा मैंने महात्मा बुद्ध, और बाद में अपने गुरु की उपस्थिति में अनुभव की, वह अनिर्वचनीय थी. मेरे मन में इन आस्थाओं के कोई खाँचे नहीं हैं. भारतीय मन ऐसा ही है.
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स्त्री लेखन और पुरुष लेखन के विभाजन के बारे में आपको क्या कहना है?
हमारा शारीरिक भेद प्रकृति ने बनाया तो है मगर केवल प्रजनन के उद्देश्य से. सिर्फ़ वहीं इस भेद का कोई औचित्य, कोई कारण समझ में आता है. इस भेद के कारण हमारे दिमाग की कार्य प्रणाली में, उसकी संवेदना में कोई मूलभूत अंतर हो जाता हो, ऐसा नहीं है. किसी पुरुष का दिल बहुत कोमल और स्त्री का दिल बहुत कठोर भी हम देखते ही हैं. क्यों कोई मनुष्य कोमल या कठोर हो जाता है, इसका उत्तर सीधा-सादा नहीं.
जब हम स्त्री-पुरुष लेखन में विभाजन करते हैं तो कुछ ऐसी ध्वनि आती है, जैसे स्त्री कुछ कमतर है और पुरुष कुछ अधिक, जबकि वास्तविकता इसके उलट है. स्त्री की गर्भाधान क्षमता ने उसे उच्चतर प्राणी बनाया है. उसकी देह की प्रक्रिया में जो घटता है, पुरुष उसकी कल्पना भी नहीं कर सकता, बस अनुमान लगा सकता है.
हम जो लिखते हैं, कहते हैं, उसमें एक ही समय कई चीज़ें सतह पर आती हैं, हमारा अनुभव, संवेदना की हमारी क्षमता, उसे शब्द देने का सामर्थ्य. स्त्री-पुरुष सिद्धांत प्रकृति की तरह लेखन में भी है, मगर उसका सम्बन्ध लेखक के स्त्री-पुरुष होने से कितना है, यह कहना मुश्किल है.
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आपकी कविताएं इंसान की जटिल आइडेंटिटी का पता देती हैं. कवि अक्सर अपनी कविताओं में आत्मिक, मानसिक और भावनअंतस को तो कुछ हद कर पहचान लेता है मगर क्या कविता उसकी सामाजिक, राजनीतिक स्थिति को भी स्पष्ट करने में सहायक सिद्ध हो सकती है?
बिलकुल. आज कुछ भी अराजनीतिक नहीं है. हमारी साहित्यिक आलोचना ने यह तथ्य अकाट्य स्थापित कर दिया है. पहले इस पक्ष पर हमारा ध्यान नहीं जाता था. हम केवल स्थूल बिंदु पकड़ते थे. अब हर रचना अपने अंतर्विरोधों, अपनी कही-अनकही की राजनीति में पकड़ी जा सकती है. इससे पाठक तो सचेत हुआ ही है, लेखक भी हुआ है. अब कोई मुखर हो कर सही पाले में नहीं जा सकता, न मौन हो कर बच सकता है. यह एक अच्छी पहल साहित्यिक आलोचना ने हमारी नागरिक चेतना जगाने में की है.
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आपके कविता-संग्रहों में सम्माहित कुछ प्रश्नों और जिज्ञासाओं का मर्म आपकी गद्य पुस्तकों में पकड़ में आ जाता है. हर विधा का अपना गुणधर्म होता है. आपने कविता, अनुवाद, निबंध पर काम किया है. हर विधा का आकर्षण और उसकी सीमाएं एक लेखक को कैसे प्रभावित करती हैं?
शायद विधा के आकर्षण से ज़्यादा ये विधाओं के लचीलेपन की बात है. इससे यह भी आभास मिलता है, बात ही केंद्रीय है, विधा नहीं. आप विधा खोज कर उसमें लिखने नहीं लग जाते, बल्कि जो बात आपको कहने के लिए उकसा रही है, वह स्वयं अपना खाँचा चुन लेती है. आपके भीतर एक वाक्य बनता है. एक बात बनती है. वह कविता है, या निबंध या अप्रत्याशित कोई बुनावट, यह उस वाक्य को लिख लेने के बाद ही स्पष्ट होता है. कुछ लेखक वाक्यों के पीछे जाते हैं, यह जानने के लिए, कि वह उन्हें किधर ले जा रहा है. कुछ स्वयं आगे-आगे रहते हैं, कथ्य की मजाल नहीं जो लेखक से रस्सा छुड़वा ले. दोनों तरह के लेखक आप पहचान लेते हैं. साधारण असाधारण और असाधारण साधारण कैसे बनता है, यह आप सहज पकड़ लेते हैं.
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आपकी कई कविताएं ऐसी बायोग्राफिकल पोएम्स भी लगती हैं जिसमें आप अपनी मानव सीमा के माध्यम से मानव बुद्धि को समझने के उपक्रम में हैं, प्रायश्चित करने में पीछे नहीं हैं, अपनी नैतिक परिधियों पर दृढ़ रह कर अपनी चेतना को लगातार सूक्ष्म से सूक्ष्मतर बना रही हैं. अपने एकांतिक स्वभाव के अनुरूप अपने आपको कविताओं में प्रदर्शित करना आपके लिए कितना सरल या कठिन रहा है?
सामाजिक स्तर पर तो मुश्किल नहीं रहा. अगर लिखा है तो पढ़े जाने के लिए ही लिखा है. उसे दिखाने में संकोच कैसा? मगर लिखने का पहला उद्देश्य तो स्वयं उस पहेली को समझने का उद्यम है, जो लिखे बिना पकड़ में नहीं आ रही थी. लिखने के उपक्रम में पहेली सुलझना शुरू करती है, कभी लिखने के बाद भी नहीं. किसी रचना में कभी हम कहीं पहुँच जाते हैं, कभी घूम कर वापस उसी जगह आ जाते हैं. पहुँचना क्षणिक है और लौटना भी. मगर इस प्रक्रिया में चीज़ें साफ़ ज़रूर हो जाती हैं. उत्तर भले न मिले, अपना प्रश्न अवश्य समझ में आ जाता है. अक्सर हम प्रश्न के सब आशय जाने बिना उत्तर पाने की हड़बड़ी में निकल पड़ते हैं.
लिखने का अर्थ यह नहीं कि लिखते ही वह रचना संसार में जाने के लिए तैयार हो गई है. मैं उन लेखकों में तो नहीं जो बहुत ड्राफ़्ट बनाते हैं, मगर मुझे अपने लिखे के प्रति आश्वस्त होने में समय लगता है. मुझे अपने लिखे को बहुत काटना-छाँटना तो नहीं पड़ता मगर वाक्यों को स्पेस देना पड़ता है. मेरे लेखन में शब्द कुछ ऐसे गूँथे हुए, सघन, बदहवास पहुँचते हैं कि मैं उन्हें बार-बार सुनती हूँ. वहाँ भीड़ न हो, दोहराव न हो, कुछ धूप कुछ छाँह हो, यह बार-बार ठोकने बजाने से कर पाती हूँ.
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अपनी पुख्ता धारणाओं और जीवन परिस्थितियों से उपजे परिणामों को कविता के शिल्प में ढालने का ऐसा हुनर निश्चित ही लंबे समय के भीतरी अभ्यास के बाद आया है. आपकी कविताओं में इस सधे हुए अभ्यास की झलक मिलती है. इस प्रक्रिया से किया गया आपका समृद्ध कविता-कर्म पाठकों के भीतर के शून्य को और अधिक गहरा करने का काम करता है. क्या कविता इस शून्य से बाहर आने में मदद भी करती हैं या इस शून्य को बरकरार रखना ही ऐसी कविताओं का ध्येय होता है?
इसका उत्तर तो कोई पाठक ही दे सकता है!
लिखते समय मैं केवल अपने आंतरिक शून्य को सम्बोधित होती हूँ. मेरा दिल और दिमाग़ दोनों उस परिस्थिति से सामना करने में सन्नद्ध होते हैं, जो उन पर आन पड़ी है. वह मुझ अकेली का वृत्त है. वहाँ दुःख, क्लेश, निराशा, एकालाप, प्रश्नाकुलता कई कुछ चलता है. अनर्गल भी. मुझे अपने ड्राफ़्ट को बार-बार पढ़ कर तय करना होता है, यह स्पष्ट तो है, इसमें अबूझ तो है? मुझे भाषा में स्पष्ट, आशय में गूढ़ चाहिए. जैसे हर कविता का एक स्वभाव नहीं, वैसे हर पाठक का भी नहीं.
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पहले कविता-संग्रह, ‘एक दिन लौटेगी लड़की’ की युवा लड़की के पास सुरक्षित जीवन और सुनहरे सपने तो हैं मगर उसे पूर्वानुमान हो गया है कि आने वाले समय में न ही वह ऐसे सपने देख सकेगी और न ही उसे वर्तमान में मिलने वाली सुरक्षा मिल सकेगी. यह आत्मनिर्भर युवा लड़की अपनी वल्नरेबिलिटी को अच्छे से पहचानती है. उसने मनुष्य होने की तमाम विडंबनाओं को जानने के अलावा उसने अपने भीतर के शून्य को भी अच्छे से पहचान लिया है. दूसरे कविता संग्रह, ‘अंधेरे में बुद्ध ‘में लड़की के संताप बुद्ध-दर्शन में सम्माहित हो जाते हैं. ‘यह आकांक्षा समय नहीं’ कविता-संग्रह तक आते-आते यह लड़की स्वयं के दुखों को दूर से देखने की स्थिति में पहुँच गई लगती है और थपक थपक दिल में अपने अव्यक्त दुखों को बेहतरीन शिल्प की तरह इस्तेमाल करना इसने सीख लिया है. पांचवें संग्रह जब तक मैं आई बाहर की कविता की ये पंक्तियाँ, मैं क्यों कहूँगी तुम से/ अब और नहीं/ सहा जाता/ मेरे ईश्वर स्वयं एक प्रौढ़ होती स्त्री की मनः स्थिति का परिचायक बनती दिखती है. आप इस कविता यात्रा के विभिन्न मुकामों को कैसे देखती हैं?
आपने सब कह ही दिया है. अभी इसमें कुछ और जोड़ने को मेरे पास कुछ नहीं. आप मेरा तय किया हुआ रास्ता देख रही हैं, मेरा लिखा हुआ, मैं आने वाला समय, जहाँ ख़ाली काग़ज़ है. मैं क्या लिखूँगी, किस पुकार के पीछे जाऊँगी, सही समय पर सही बात सुन पाऊँगी कि नहीं, कौन जानता है?
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क्या आपने कभी अपनी कविता के जरिए अपनी आत्मिक और मानसिक उन्नति की मीमांसा की है?
नहीं. कविता के ज़रिए तो कभी नहीं की. आपने पूछा है तो इस पर सोच रही हूँ. मुझे लगता है, अपनी उन्नति का पता हमें दूसरों से चलता है, अवनति का स्वयं से. यह बहुत रोचक है. नहीं?
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विषय-वस्तु और संवेदना के लिहाज़ से आपका हर कविता-संग्रह एक दूसरे से बिल्कुल अलग है. अपनी संवेदनात्मक उन्नति को आप कैसे देखती हैं और इसके विकास में किसके योगदान को रेखांकित करना चाहती हैं ?
ऐसा मेरे स्वभाव से सहज ही हुआ होगा. इसमें किसी के योगदान जैसी तो कोई बात नहीं. शायद विधाता ने मेरी बुद्धि की प्रकृति अलग बनाई हो. मुझे बुद्धि की चुनौती, उसका जोखिम उठाना, नए विषय, नई संरचना गढ़ने के लिए श्रम करना आकर्षित करता है. भाषा को खिलौने की तरह खोल कर भीतर झांकना भी. लिखना शायद यात्राएँ करने जैसा है. शुरू में आप आसान यात्राएँ करते हैं. फिर दूर निकलते हैं. उसके बाद दुर्गम.
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निश्चित ही कविता का यह लंबा सफ़र कई तरह की रचना प्रक्रिया के दबावों के बीच से होकर गुज़रा है. पहली बार कविता लिखने का दबाव आपने कब महसूस किया?
अब तो सब काफ़ी धुंधला गया है. मैं काफ़ी लायक़ मगर नर्वस, उदास युवा लड़की थी. मेरी माँ ने कभी कहा था, ऐसे चुप उदास बैठे हो, कोई कविता लिखो! तब मैं साढ़े पंद्रह की रही होऊँगी. कॉलेज में एडमिशन अभी होनी थी. मुझे कुछ मालूम न था, पूछा, मम्मी, कविता किस पर? उन्होंने कहा, सामने पेड़ पर. हमारे घर के सामने ही एक गुलमोहर का पेड़ था. बस, अच्छी बच्ची की तरह मैंने एक चार पंक्तियों की कविता लिख कर माँ को दिखाई. वह बड़ी खुश हुईं, मुझे शाबाश दिया. बस धीरे-धीरे शुरू हो गया. कॉलेज की कविता प्रतियोगिताओं में जाने लगी. अच्छी-बुरी कविता की समझ उन्हीं दिनों में बनी.
मेरा सौभाग्य है कि उन आरम्भिक वर्षों में मुझे अमृता प्रीतम जैसी शुभचिंतक मिलीं. उन्होंने मेरे लिखे को कभी सुधारा तो नहीं मगर उनकी प्रतिक्रिया से मैं यह समझ जाती थी, कहाँ बात बनी, कहाँ नहीं. हम कॉलेज में बचकानी प्रगतिशील कविताएँ लिखते थे. धीरे-धीरे अमृता जी की खामोशी से पता चलने लगा, वहाँ छद्म है, मेरी आवाज़ नहीं है. मेरे लिखने में बदलाव आने लगा. मैंने मर्म को समझना शुरू किया. उन दिनों मैं बहुत पढ़ती थी, सब उन्हें बताती थी. वह ध्यान से मेरी बात सुनतीं जैसे मैं कोई बहुत अक़्लमंदी की बात कह रही हूँ. आज मैं जो भी हूँ, उनके सान्निध्य में बिताए उन वर्षों के कारण हूँ. हालाँकि बाद में, जैसा अक्सर होता है, मेरा संसार अलग होता गया. मेरा जीवन मुझे दूर ले गया.
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आपके अवचेतन में मदर, कृष्णामूर्ति, रवीन्द्रनाथ टगौर, महात्मा बुद्ध के विचार गहरे तक सम्माहित हैं. मुझे लगता है आने वाले समय का पूर्वानुमान करने वाली आपकी कविताएं, आपकी आध्यात्मिक जीवंतता के कारण ही रची गई हैं. आप इस बारे में क्या सोचती हैं ?
मैं समझती हूँ मेरी आध्यात्मिक जीवंतता का सम्बन्ध मेरी निजी परिस्थितियों से भी अवश्य जुड़ा है. मैंने अकेलेपन को चुना नहीं, यह मेरे भाग्य में आया है. जब वह आ गया तो मैंने उसके संकेत समझने की कोशिश की. बस. मेरे वश में होता तो मैं एक भरा-पूरा ऊबड़-खाबड़ गृहस्थ जीवन ही चुनती. वैराग्य लेना मेरे वश का नहीं था. आज भी नहीं है. हालाँकि यह भी निश्चित है कि मैं देर सबेर इस दिशा में अवश्य मुड़ती. मेरा सारा परिवार, भाई-बहन इसी स्वभाव के हैं. गहरे आस्थावान.
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आपने दिल्ली महानगर के विकास के अनेक पहलू देखे, जिसमें 1984 में सिखों विरोधी हिंसा का काला दौर भी शामिल है. दिल्ली ने आपको किस तरह से गढ़ा है?
दिल्ली मेरा जन्मस्थान है, यहाँ मेरी नाल गड़ी है. मैंने इसका बियाबान समय देखा है, राजपुर रोड जहाँ मेरा स्कूल था, उसके रिज का जंगल. दिल्ली यूनिवर्सिटी का उजाड़, हिंदू कॉलेज के बाहर घंटों खड़े रहने पर भी जब बस नहीं आती थी, तो हताश पैदल कभी आर्ट्स फ़ैकल्टी के बस स्टॉप पर, कभी इसी तरह एक से दूसरे स्टॉप होते-होते मुखर्जी नगर. किंग्सवे कैम्प पर फ़ोर सीटर वाली फिटफ़िट मिलती थी मगर तब लगता, आधे से ज़्यादा तो चल ही लिया, थोड़ा और सही, दस पैसे बच जाएंगे! कभी उन पैसों से गन्ने का रस पीकर आगे फिर पैदल. नीम के पेड़ों के नीचे चलते हुए कब अपने घर पहुँच गई, पता भी न चलता था.
1984 के दंगों के बारे में मैं लिख चुकी हूँ. उसकी खरोंच मेरी आत्मा पर ज़रूर पड़ी है, मगर उससे मनुष्यता में मेरा विश्वास धूमिल नहीं पड़ा, बल्कि और बढ़ा है. उससे मुझे भारतीयता का सहिष्णु चरित्र और राजनीति की निरंकुशता को अलग-अलग करने की सीख मिली है. हमारा देश कोई एक दिन में बुद्ध और गांधी की धरती नहीं हो गया. किसी संस्कृति के महापुरुष समय के बीतने से अलोप नहीं हो जाते, बल्कि ऐसे विकट समय में वे ही रास्ता दिखाते हैं, आपको दलदल से बाहर निकालते हैं.
मैं काफ़ी दुनिया घूमी हूँ, अमेरिका के हॉर्वर्ड में एक साल रही हूँ, वहाँ इनकम टैक्स भरा है, मगर आज भी मेरे लिए दुनिया की कोई जगह दिल्ली जैसी अपनी नहीं. यहाँ मैं जन्मी हूँ, हर तरह का दुःख-सुख देखा है. अपने कितने ही प्रियजनों का अंतिम संस्कार होते देखा है. दिल्ली शहर की कोई जगह ऐसी नहीं, जहां से मैं गुज़रूँ और वह मुझे पुकारे नहीं. कभी सड़क पर सामने से पिता आते दिखाई पड़ते हैं, कभी मोड़ पर माँ. कहीं मैं फ़्रॉक पहने दिखती हूँ, कहीं सलवार-क़मीज़. बच्ची, लड़की, महिला, प्रौढ़- मैं ये सब यहीं हुई हूँ. दिल्ली के इसी आसमान के नीचे.
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आपके स्त्री संबंधित लेखन में स्त्री का आंतरिक पक्ष उजागर होता है जिसमें स्त्री अपने अवचेतन से रूबरू होती है, बार-बार अपने अवचेतन को छूती है. साहित्यिक निबंधों पर आपकी किताब देह की मुंडेर पर के एक निबंध में आपने लिखा है, किसी स्त्री के लिए प्रश्न और संशय ही वह थोड़ी सी ज़मीन है, जहाँ वह स्वतंत्र है. इस पर थोड़ा और प्रकाश डालें.
संदर्भ से इतर इस पर बात करना ठीक न होगा मगर ऐसा ज़रूर लगता है, अपने संशयों और प्रश्नों का सामना करके ही हम सुदृढ़ होते हैं. इस प्रक्रिया से गुजरने के बाद ही हमारे पैरों के नीचे ज़मीन स्थिर हो पाती है. स्वतंत्रता कोई इकाई नहीं, वह जीवन के कई पक्षों पर विजय पा लेने के बाद आपके जीवन में घटित होती है. छोटी-छोटी स्वायत्तताएँ मिल कर एक दिन आपको पूर्ण स्वतंत्रता प्रदान करती हैं.
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इसी पुस्तक के एक निबंध, इक्कीसवीं सदी में कविता में आपने लिखा है, “हम घूम-फिर कर यहीं आ जाते हैं. बीसवीं शताब्दी की आखिरी घड़ियों में. कविता के इतिहास की सबसे पीड़ित सदी में.” आपके इसी कथन के आलोक में अगर 1989 में प्रकाशित आपका पहला कविता संग्रह, एक दिन लौटेगी लड़की को पढ़ते हैं तो इसमें उस समय की पीड़ा साफ़ दिखती है. उस समय अपने सुनहरे भविष्य और क्रूर होते समय से आपने कैसे सामना किया. क्या तब कविता आपके लिए सबसे सुरक्षित आवास बन गया था?
वह आलेख काठमांडू में हुई एक कॉन्फ़्रेन्स के लिए लिखा गया था. उसमें मेरे व्यक्तिगत कविता संसार की बात नहीं थी. हमें बीसवीं सदी के परिप्रेक्ष्य में इक्कीसवीं सदी की कविता की बात करनी थी. नयी शताब्दी के उदयकाल पर वह संगोष्ठी रखी गई थी. ऐसे नाज़ुक समय में बीसवीं सदी के दुस्स्वप्न कौन भूल सकता था? मैंने बेशक बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में अपेक्षाकृत सुरक्षित समय में भारत में कविता लिखी थी, मगर बीसवीं शताब्दी की हिंसक परिस्थितियों में रूस, जर्मनी, फ़्रांस, स्पेन के कवियों ने जैसी फ़ासीवादी विभीषिका झेली थी, उससे अछूते हम कैसे रह सकते थे?
हमारे यहाँ इमरजेंसी का एक काला दौर ज़रूर गुज़रा था मगर उसमें किसी को कविता लिखने के लिए गोली मारी गई हो, मेरी जानकारी में नहीं. कविताएँ आत्मा के घाव हैं. हम उनसे सीखते भी इसीलिए हैं कि पीड़ा में सनी हो कर भी वे पीड़ा का अतिक्रमण करती हैं. एक विराट समय वहाँ हमेशा उपस्थित रहता है, जिसमें चीज़ें बदलने की सम्भावना छिपी रहती है. कविता शुरू से ही मनुष्यता की शरणस्थली रही है. इसमें आश्चर्य क्या!
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क्या लेखन सचमुच में एक यातना है?
नहीं. लेखन यातना से मुठभेड़ है. यातना का सामना किए बग़ैर उससे मुक्ति सम्भव नहीं.
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आपने फ़िल्म इंस्टिट्यूट पुणे से फ़िल्म एप्रीसिएशन का कोर्स किया है. अनुवाद और चित्रकला जैसे दूसरे कला-माध्यमों में भी आप दखल रखती हैं. क्या दूसरे कला माध्यम इस यातना से निकालने का माध्यम बन सकते हैं या फिर ये उनमें भी यातना किसी दूसरे शिल्प में आ धमकती है?
कलाओं के पास हम यातना से निकलने के लिए नहीं, जीवन को समझने के लिए जाते हैं. जीवन में सिर्फ़ दुःख नहीं, सुख को समझना भी उतना ही ज़रूरी है. कलाएँ दुःख और सुख के रंगों से बनी हुई बेशक हों, वे हमें किसी अतिमानवीय पक्ष के बारे में चेता रही होती हैं. वैसी चित्रकला और फ़िल्में देखने का क्या प्रयोजन जिनसे हमारी आंतरिकता का विस्तार न होता हो? कला के सान्निध्य में यदि आपकी या मेरी मनन प्रक्रिया गति नहीं पकड़ती तो कहीं कुछ चूक है, या कला में, या हमारी ग्रहण शक्ति में.
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परंपराओं को नकारने के चलन वाले दौर में आप अपनी कविताओं और गद्य में ऐसी स्त्री का अक्स गढ़ती हैं जिसे अपनी परंपराओं से बल मिलता है. आज जब परंपराओं को आउटडेटेड कहा जा रहा है तब ये कविताएं और अधिक प्रासंगिक हो जाती हैं. आपको क्या लगता है ?
परम्परा से अविच्छिन्न हम चाहें तो भी हो नहीं सकते, ऐसा मुझे लगता है. मैकाले ने अंग्रेज़ी शिक्षा हम पर थोपी, मगर आज डेढ़ सौ साल भी हमारी जातीय स्मृति बनी हुई है. विरूपण ज़रूर हुआ है, आत्मधिक्कार भी हम करते हैं, मगर इन सबसे भी यही संकेत मिलता है कि आदिम संस्कार को तोड़ कर फेंका नहीं जा सकता. दुखद यह है कि एक तरफ़ मैकाले का षड्यंत्र है, दूसरी ओर परम्परा को पुनर्स्थापित करने की अधकचरी समझ.
कोई कविता क्यों और कैसे प्रासंगिक बनती है, हम इसका सरलीकरण नहीं कर सकते. केवल पारम्परिक संदर्भ लेने से वह उल्लेखनीय नहीं हो जाती. प्रासंगिक होने से पहले एक कविता को अच्छी तो होना ही चाहिए. ज़ाहिर है, कविता अच्छी कैसे है, इसकी शर्तें भी प्रायः अमूर्त हैं. साहित्य के सिद्धांत शायद इसलिए बनाए जाते हैं कि हम उनका अतिक्रमण होता हुआ देख सकें, न कि उनकी कसौटी को घिसते बैठे रहें.
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आपने एक जगह लिखा है, ठिठकना ही इस सृष्टि को देखना है. आपके लेखन में यह ठिठकना कई बार आया है. ऐसा लगता है, हर बार उस ठिठकने ने पाठकों के लिए नई चीज़ प्रस्तुत की है. आपके द्वारा की जाने वाली यात्राएं भी इस स्तब्धता में और इज़ाफ़ा करती हैं. इस बारे में कुछ और बताएं?
क्या सचमुच ऐसा है? यदि हाँ, तो एक बहुत रोचक प्रस्थान बिंदु आपने पकड़ा है. मैं इसे नहीं पहचानती थी, न इसे लेकर सचेत थी.
आपके कहने के बाद मैं ठिठकने के क्षण पर रुक रही हूँ. हम जीवन में, लेखन में, पठन में कब रुकते हैं? हम अपनी रौ में जा रहे होते हैं कि कुछ होता है, हमें रोक देता है. कोई रोकता है, हम रुक जाते हैं. ये दोनों ओर से होता है.
मुझे बार-बार लगता है, यह संसार हमसे हर समय कुछ कह रहा होता है. बहुत कम बार ऐसा होता है, हम रुकते हैं. रुकने का मतलब है, देखना, सुनना, समझना. अगर हम कभी-कभी यह कर पाते हों, किसी रचना या यात्रा के बहाने, तो इससे सुंदर और क्या होगा!
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थपक थपक दिल थपक थपक कविता संग्रह में आपने शिल्प के प्रयोग का जो खतरा उठाया उसके लिए खासी हिम्मत चाहिए. खासकर हिन्दी साहित्य में इस तरह के जोखिम को अपनाते हुए कोई युवा कवि परहेज़ करता है. पहले पहल आलोचकों ने इस नए शिल्प के बारे में क्या कुछ लिखा?
उस संग्रह को मिली-जुली प्रतिक्रिया मिली. कभी बहुत अच्छी, कभी सिर के ऊपर से गुजर गई, ऐसी. उस संग्रह को लिखते समय मैंने कोई विशेष जोखिम उठाया था, ऐसा तो नहीं लगता. छंद में लिख कर देखने की इच्छा ज़रूर हुई थी. कुछ इसलिए भी कि हिंदी मेरी प्रथम भाषा नहीं. लेखक स्वयं को चुनौती देता रहता है. कभी वह सफल होता है, कभी नहीं. मुझे यदि चुनाव करना हो तो एक ही ढर्रे की कविताएँ लिखने की जगह मैं प्रयोग करना चाहूँगी. बिना यह चिंता किये कि उसका प्रभाव कैसा होगा. जब तक आप इस रास्ते से नहीं गुज़रते, आप वह जादू नहीं जान सकते, जो भाषा कभी भी आपके सामने खोल सकती है.
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आपकी कविताओं में प्रतिरोध किसी नारे या विमर्श की तरह से नहीं उभरता, उनका शिल्प अलहदा दिखता है. चेतना का आध्यात्मिक रूप, आत्मस्फूर्त अनुभवों का घनीभूत केंद्र बनी इन कविताओं में आपके अपने लेखन में आपके सेल्फ में विस्तार होता हुआ दिखाई देता है. ऐसा लगता है कि आप खुद के बारे में लिख रही हैं मगर अपने से दूर होकर लिख रही हैं. इस शिल्प के बारे में आप कुछ बताना चाहेंगी या यह किसी कवि की ऐसी यात्रा है जो भीतर ही भीतर घटती जाती है?
आपने स्वयं ही इसको बड़ी सूक्ष्मता से कह दिया है. मेरे पास इसमें जोड़ने को और कुछ नहीं.
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कथ्य को कहना भी और छुपाना भी, यह तकनीक मुझे हमेशा से आकर्षित करती है, मगर कहा जाता है, आज की कविता सपाटबयानी का शिकार हो चली है. दूसरी तरफ़ कहा जाता है कि कविता जितनी सरल हो उतनी अच्छी, इसपर आपकी क्या राय है?
सपाट और सरल बयानी में तो बहुत अंतर है! सपाट में अर्थ की छाया नहीं बनती, बात उसी क्षण मुरझाने लगती है. कविता का सरल होना तो बहुत बड़ा गुण है. कविता बनेगी ही तब जब उसमें कई अर्थ खुलेंगे. अगर वह सरलता से बोल रही है तो उसने तनी रस्सी पार कर ली और आपको पता भी नहीं चला! इससे बड़ा चमत्कार क्या होगा?
विपिन चौधरी प्रकाशित कृतियाँ- अंधेरे के मध्य, एक बार फिर, नीली आँखों में नक्षत्र (कविता संग्रह) रोज़ उदित होती हूँ (अश्वेत लेखिका माया एंजेलो की जीवनी) भूतों की कहानियाँ- रश्किन बॉन्ड-सस्ता साहित्य मण्डल, जिंदा दफन (सरदार अजित सिंह की जीवनी ( अनुवाद) रेतपथ, युद्धरत आम आदमी(स्त्री कविता विशेषांक) (अतिथि संपादन) आदि |
गगन गिल जी से विपिन चौधरी का यह साक्षात्कार न सिर्फ महत्वपूर्ण है अपितु सँजो कर रखने लायक है। कई स्थलों पर तो मैं भावुक हो गया। इतना संतुलन बहुत कम देखने को मिलता है।
Bahut ashaswast karnewali batcheet.
Gahre sawal aur vaise hi jawab.
Kai bar padhe jana darkar.
नए समय को पुराने समय के परिप्रेक्ष्य में समझने के लिए , स्त्री मन की व्यथाओं और उसकी अनुभूतियों को समझने के लिए और एक व्यापक विचार के लिए यह इंटरव्यू बहुत प्रेरक है ।
अच्छा साक्षात्कार।
अपने कथ्य में। प्रस्तुति में भी।
☘️
बहुत अच्छी बातचीत
विपिन आपके प्रश्न और गगन जी के उत्तर बेहद आत्मीय और सुंदर हैं
बहुत अच्छी बातचीत |
Congratulations to both Vipin Chawdhary n Gagan Gill for this interview.
It wins great admiration for Gagan Gill for her well-honed answers(representing her literary vision n acumen ) on one hand and high praise for Vipin Chawdhary for her insightful questions.
Thank you,Arun Deb ji,for presenting it.
यह एक अलग तरह का संवाद है । समय के विविध आयाम इसमें दर्ज़ हैं। शोर से भरे हमारे समय में ऐसे संवाद आलोचना का विवेक विकसित करते हैं।
साहित्य और साहित्य विवेक किसी समय में रहकर भी उस समय से मुक्त रहता है, उसकी चिंताएं सामायिक होकर भी सर्वकालिक होती हैं। यह संवाद समायिकता और सार्वकालिकता के द्वैत को रखता है। लेखक द्वै गगन गिल और विपिन चौधरी एवं समालोचन के प्रति आभार।
निःसंदेह उत्कृष्ट बातचीत…गगन जी का लेखन अपना एक विशिष्ट स्थान रखता है.
गगन गिल से विपिन चौधरी की बातचीत ने मुझे उनके नजदीक ला खड़ा किया। कभी उनसे बात नहीं की उनसे मैंने। देखा और दूर से ही अभिवादन। वे हमेशा अंतर्मुखी दिखाई दी , अपने में कुछ सोचते -विचारते हुए पाया। कविताएं उनकी ठीक लगती रहीं एक उनींदे। एक बार उनके सहविकास के आवास भी गया था- निर्मल जी से बातचीत बाबत। चाय निर्मल जी ने ही बनाकर पिलाई थी। चलते-चलते गगन जी को देखा था -शायद। मगर विपिन चौधरी की बातचीत में उन्हें ठीक से देखा और समझा। उन्होंने उन सभी वर्जनाओं को तोड़कर अपना रास्ता बनाया, जो स्त्री जीवन को उन्मुक्त नहीं रहने देते। गगन जी को मैंने हमेशा अन्य स्त्रियों से भिन्न पाया-लेखन, विचार और जीवन आचरण में। और आज भी वे सबसे अलग हैं। विपिन चौधरी ने भी कुछ जिस स्तर पर जाकर गगन जी के लिए सवाल प्रेम किए हैं, उसकी तारीफ की जानी चाहिए। अगर ऐसा न होता तो शायद गगन जी इतने अंतरंग होकर अपने हृदय की गिरहें खोल न पातीं। दोनों को मेरी हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं।
गगन जी से विपिन चौधरी का यह संवाद पढ़ना मेरे लिए एक सुखद घटना ही है। अनायास दिखा और एक ही बैठक में पढ़ता चला गया। विपिन ने गगन के अंतर्तम को समझकर भी कुछ और जानने की प्रशंसनीय चेष्टा की है। मेरे लिए यह एक प्रिय रचनाकार को गहराई से समझने का जरिया बना। इसके लिए साधुवाद।
बेहद खूबसूरत शब्द श्रंखलाओं के साथ गगन गिल जी और विपिन चौधरी जी की यह वार्तालाप हमें पढ़ने को मिली ।
बहुत ही सुंदर तरीके से सवाल जवाब देखने को मिले । कृष्णा सोबती जी जैसे महान कलमकारों के लेखन की चर्चा का विषय रही ।
ज्यादा न लिखते हुए मैं गगन गिल जी और विपिन चौधरी जी को धन्यवाद देना चाहता हूं । आशा है ऐसी ही सुंदर बातचीत हम भविष्य में पढ़कर लाभान्वित होते रहेंगे ।
– माहिया “समीर”
हिसार (हरियाणा)
94162-14088
गगन गिल को पढ़ने और जानने की हमेशा से एक तीव्र इच्छा रही, पर काफी समय तक उनकी किताबें शहर की दुकानों में नहीं मिलीं। आज भी नहीं हैं। हाल ही में कई जगहों पर देखकर पूछकर आई हूं पर नहीं मिलीं। ऑनलाइन कुछ सामग्री दिखाई पड़ी, कुछ ऑडियो साक्षात्कार, कुछ छिटपुट कविताएं, और अब ये विपिन चौधरी का साक्षात्कार । हमेशा सोचती थी कि क्यों वे गुमनाम सी हैं, पर संभवतः यह मेरी दृष्टि और पहुंच की सीमा ही है कि इतनी लंबी प्रतीक्षा रही।
इन दिनों मन में अनेक प्रश्न हैं, अनेक अनुभूतियां और संशय भी । इस दौर में गगन गिल से विपिन की यह बातचीत एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है मेरे लिए निजी तौर पर भी और एक रचनाकार के तौर पर भी, क्योंकि संशय दोनों ही स्तरों पर हैं, और प्रश्न भी ।
विपिन का साधुवाद इस प्रभावशाली साक्षात्कार के लिए । गगन गिल का अपार धन्यवाद कि अपने जीवन और यात्रा की कथा के माध्यम से उन्होंने न जाने कितने सिरे खोल दिए, कितनी उलझनें सुलझा दीं, कितने संशयों को साफ कर दिया । आप चारों का आभार, शुक्रिया- गगन गिल, विपिन चौधरी, अरुण देव और समालोचन पत्रिका ।
बहुत सुंदर साक्षात्कार। खोता चला गया कहीं। गुम हो गया। मुझे लगा जानता हूँ मैं वे सड़कें जिनपर से होकर गगन जी गुजरीं। गगन जी ने कविताएं लिखी ही नहीं। उन्हें खोला भी। उनकी संवेदनाओं से मेरी भी किसी कोने में बातचीत चलती रही। धन्यवाद नहीं दूंगा। कवि मन को छू जाए तो अपना हो जाता है। विपिन चौधरी नई का आभार! मन की कई परतें खुलीं। यह अवसर देने के लिए।
आदरणीया मुझे अभी आपकी कोई पुस्तक पढ़ने का सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ। आज डाक्टर जीतेन्द्र जीतू जी के द्वारा प्रेषित लिंक पर आपका साक्षात्कार पढ़ा जो आपके वृहद् व्यक्तित्व और कृतित्व को बेहद सुन्दरता से परिभाषित करता है। यौनिकता के संबंध में आपने एक प्रश्न का जवाब बड़ी ही बेबाकी से दिया है। विदेशी आक्रांताओं के पूर्व हमारी सनातन संस्कृति बेहद खुले विचारों वाली थी जहां आध्यात्म और स्वस्थ यौनिक अभिव्यक्ति शिक्षा के रूप में साथ साथ चलते थे। वर्तमान में यह अभिव्यक्ति पाश्चात्य अंधानुकरण में भौंडी हो कर रह गई है। अन्य विषयों पर आपके द्वारा दिए गए उत्तर पढ़ने वाले को आंदोलित करते हैं। आपकी विद्वता और सोच को प्रणाम और साक्षात्कार कर्ता को हार्दिक बधाई 💐
शुक्रिया विपिन, गगन जी से आपका संवाद उल्लेखनीय है।
शुक्रिया समालोचन, अरुण जी।
एक ऐसा संवाद जो सचमुच कृतिकार और उसकी कृतियों की तहों में जा कर ही संभव था☘️ विपिन जी ने बड़ी निष्ठापूर्वक गगन जी के साहित्य को गुना और उनसे मर्मभेदी प्रश्न पूछे हैं ☘️ गगन जी के जवाबों की स्पष्टता और विवेक उनके सतत मननशील जीवन की ही बानगी है☘️ दोनों का आभार☘️☘️☘️
और अरुण जी का भी☘️