गांधी अगर पाकिस्तान जाते तो क्या होता
असग़र वजाहत से के. मंजरी श्रीवास्तव की बातचीत |
1.
‘गोडसे@गांधी.कॉम’ और ‘पाकिस्तान में गांधी’ इन दोनों नाटक को लिखने का विचार कैसे आया?
साहित्य में एक तरीका है आभासी इतिहास को आधार बनाना, इसपर कहानी बुनना. मैंने भी इसी आभासी इतिहास को आधार बनाकर ये दो कहानियां बुनी हैं या यूँ कहिये कि दो नाटक लिखे हैं.
इन दोनों नाटकों को लिखने का विचार मेरे मन में तब आया जब मैं बहुत पहले वर्धा के विनोबा भावे आश्रम गया था. मैंने देखा कि वहां बहुत उदासी थी. जो लोग दिखे वे संसार से कटे हुए लोग थे. मेरे दिमाग में विचार आया कि क्या गांधीजी जीवित होते तो उनकी भी जीवनशैली क्या ऐसी ही होते? फिर मेरे मन ने ही उत्तर दिया- शायद नहीं क्योंकि गांधी अपना एजेंडा खुद तय करते थे. अपनी मृत्यु के पहले वे कांग्रेस को डिसॉल्व करना चाहते थे.
अतीत को भविष्य के साथ जोड़कर उन्होंने देश को राजनीतिक और सामाजिक रूप से सदा आगे बढ़ने का ही सोचा. तो निस्संदेह गांधी संसार से कटे हुए नहीं होते, उनकी जीवनशैली ऐसी नहीं होती. वह गोडसे से और जिन्ना से संवाद करना पसंद करते, दोनों देशों के बीच शांति और सद्भाव की बात करते. जैसे ही मेरे दिमाग में यह विचार कौंधा मुझे लगा कि यह विचार मुझसे कुछ तो लिखवाएगा. पर तब नहीं पता था कि यह विचार मुझे एक नहीं दो-दो नाटक लिखवा ले जायेगा.
वर्धा से और वहां से लौटने के बाद भी बहुत दिनों तक मेरे दिलो-दिमाग़, मेरे ज़ेहन को यह विचार आंदोलित करता रहा कि अगर गांधी ऐसा करते तो क्या होता, अगर गांधी वैसा करते तो क्या होता, अगर गांधी गोडसे में संवाद होता तो स्थितियां कैसी होतीं, अगर गांधी पाकिस्तान गए होते तो दोनों देशों के बीच के राजनीतिक और सामाजिक सम्बन्ध कैसे होते…. आदि-आदि और इसी अगर-मगर ने मुझसे ये दो नाटक लिखवा लिए.
‘गोडसे@गांधी.कॉम’ में मैंने यह दिखाने की कोशिश की है कि अगर नाथूराम गोडसे का गांधीजी से संवाद होता तो क्या होता…आप ही सोचिये क्या गोडसे का गांधी से संवाद हो जाता तो वह गांधीजी की हत्या कर पाता ? ….शायद नहीं…
वैसे ही मेरे दूसरे नाटक ‘पाकिस्तान में गांधी’ में मैंने यह दिखाया है कि गांधी जी पाकिस्तान जाना चाहते थे (वह सचमुच जाना चाहते थे यह मेरी कल्पना नहीं है). तो बस मैंने इसी थीम को उठाया और कल्पना की कि अगर वे चले गए होते तो क्या होता. गांधीजी पाकिस्तान जाना चाहते थे और जो अपील उन्होंने दिल्ली और नोआखाली में की थी शांति बनाये रखने की वही अपील करने वह पाकिस्तान जाना चाहते थे. गांधीजी की लोकप्रियता पाकिस्तान में भी उतनी ही थी. गांधी पाकिस्तान जाना चाहते थे यह सच है पर वह जा नहीं पाए. मेरी कल्पनाशीलता के हिसाब से अगर वह चले गए होते तो क्या होता .. यही दर्शाता है मेरा नाटक ‘पाकिस्तान में गांधी.’
2015 में ‘गोडसे @गाँधी.कॉम’ को ‘यदि’ नाम से टॉम आल्टर साहब ने मंचित किया था. गांधी की भूमिका में टॉम साहब खुद थे. चित्र सौजन्य- के. मंजरी श्रीवास्तव
२.
चूंकि अभी आपका यह नाटक प्रकाशनाधीन है इसलिए मैं आपकी ज़बानी यह जानना चाहूंगी कि आपकी कल्पनाशीलता का विस्तार क्या है? आपके हिसाब से यदि गांधी पाकिस्तान चले गए होते तो क्या होता ?
देखिये, अगर आप इतिहास पढ़ेंगी तो पाएंगी कि गांधी और जिन्ना में बहुत सारा संवाद हुआ था और दोनों गुजराती थे. दोनों के बीच व्यक्तिगत और राजनीतिक दोनों प्रकार के संबंध थे. पाकिस्तान बनने से पहले जिन्ना एक धर्मनिरपेक्ष प्रजातांत्रिक व्यक्ति और राजनेता हुआ करते थे. वह इस बात पर अडिग थे कि पाकिस्तान मुसलमानों का राज्य होगा पर धार्मिक नहीं होगा. ये गांधी और जिन्ना के कॉमन बिंदु थे. इस बात पर दोनों एकमत थे.
अब फ़र्ज़ कीजिये गांधी अगर पाकिस्तान जाते तो पहली बात वह अकेले नहीं जाते, ज़ाहिर है कुछ अपने सत्याग्रही लोगों के साथ जाते, लम्बे समय के लिए जाते, बिना पासपोर्ट वीज़ा के जाते तो यहाँ से जो लोग गांधी के साथ जाते उन सबकी अपनी-अपनी कहानियां होतीं, सब अपनी-अपनी कहानियों के साथ जाते.
गांधी के पाकिस्तान जाने से भले ही राजनीतिक सम्बन्ध बिगड़ते लेकिन सामाजिक सम्बन्ध सुधरते. सिखों की स्थिति में सुधार आता. गांधीजी की लोकप्रियता के आगे मुस्लिम कट्टरपंथी फ़ीके पड़ जाते.
इस नाटक का चरमोत्कर्ष मैंने यह दिखाया है कि जिन्ना का देहांत हो गया है और जिन्ना की शोक-सभा में गांधीजी भाषण देते हैं और उसी भाषण के दौरान उन्हें मुस्लिम कट्टरपंथियों द्वारा गोली मार दी जाती है. दरअसल मॉरल ऑफ़ द स्टोरी ये है कि हर धर्म का कट्टरपंथ एक-सा होता है. वह आपसे वैचारिक आदान-प्रदान नहीं करता है वह बन्दूक और गोली की ज़बान में बात करता है.
इस नाटक में मैंने एक और बात इंगित करने की कोशिश की है कि पाकिस्तान के भी वो लोग जो देश का विभाजन नहीं चाहते थे वे पाकिस्तान में गांधी के जाने पर बहुत प्रसन्न होते हैं और उनका समर्थन करते हैं क्योंकि गांधी शांति और सद्भाव की अपील लेकर वहां गए होते हैं और यही बात कट्टरपंथियों को नागवार गुज़रती है और वो गांधी की हत्या कर देते हैं.
एक और बात जो इस नाटक में मैंने दिखाने की कोशिश की है वह यह कि गांधीजी का पाकिस्तान जाना एक ऐसी प्रक्रिया होती जो दोनों देशों को नज़दीक लाती और उनके बीच दुश्मनी वाले सम्बन्ध नहीं रहते. कटुता को दूर करने के लिए गांधीजी पाकिस्तान की यात्रा करना चाहते थे जो वह नहीं कर पाए.
3.
इन दोनों नाटकों को लिखने के पीछे आपकी विचारधारा क्या रही ?
विचारधारा संवाद की रही. हमारे देश में संवाद नहीं होता, लोग एक दूसरे की आलोचना करते हैं. हर पार्टी एक-दूसरे की आलोचना में लगी है. देशहित में कोई बात नहीं करता. अधिकारी लोगों से बात नहीं करते, कर्मचारी अपने मातहतों से बात नहीं करते, हमारे राजनेता देशवासियों से बात नहीं करते. सब बात करने का ढोंग भर करते हैं बस. बाक़ी आदेश ये सबलोग तुग़लकी ही जारी करते हैं. उदाहरण के तौर पर हम ट्रैफिक पुलिस कमिश्नरों को ले सकते हैं. एक कमिश्नर ट्रैफिक कंट्रोल करने के लिए एक तरीका अपनाते हैं जबकि दूसरा उससे अलग. दोनों अपनी-अपनी सुविधाओं से तरीका अपनाते हैं. दोनों को जनता या सड़क पर चलनेवाले लोगों की सुविधा से कोई सरोकार नहीं, कोई मतलब नहीं.
अपने नाटक के द्वारा मैंने इस बात की ओर ध्यान खींचा है कि संवाद कितना ज़रूरी है. दो लोगों के बीच, दो मुल्कों के बीच. मेरे ये दोनों नाटक संवाद की बात, संवाद की वकालत करते हैं और संवाद की शैली में ही लिखे गए हैं.
‘गोडसे@गांधी.कॉम’ में गोडसे और गांधी के बीच संवाद है और ‘पाकिस्तान में गांधी’ में गांधी और जिन्ना के बीच संवाद है. हिंदुस्तान और पाकिस्तान के बीच का संवाद है. दोनों नाटकों का मुख्य उद्देश्य संवाद स्थापित करना है.
4.
क्या इन दोनों नाटकों को लिखने के लिए आपने शोध किया ?
देखिये, ये नाटक हैं तो आभासी इतिहास पर आधारित जैसा कि मैंने आपको पहले भी बताया है पर एक तरह से ये नाटक इतिहास से ही उठाये गए हैं और जब आप किसी ऐतिहासिक घटना पर काम करते हैं तो निस्संदेह शोध की ज़रूरत पड़ती ही है. मेरे ये नाटक आभासी इतिहास के बावजूद इतिहास का विस्तार हैं इसलिए मुझे भी वह ज़रूरत पड़ी और मैंने शोध किया. अगर हम गांधी जैसे किसी बड़े व्यक्तित्व से लोगों को मिलवा रहे हैं तो इतिहास में कहीं से भी तोड़-मरोड़ नहीं होना चाहिए.
मुझे शोध की ज़रूरत इसलिए पड़ी क्योंकि मुझे यह पता लगाना था कि उस ज़माने में लाहौर में वामपंथी लोग कौन थे और क्या सोच रहे थे. अभी भी लाहौर में कुछ वामपंथी लोग बचे हैं जिनकी उम्र ८०-९० के करीब है. उन्होंने कुछ उर्दू की पत्रिकाएं मुझे दीं , कुछ सामग्री भी दी जिससे बहुत सहायता मिली. परेशानियां तो बहुत आईं पर काम हो गया.
5.
आपको क्या लगता है कि आपके ये दोनों नाटक भारतीय समाज में सामंजस्य स्थापित कर पाने कामयाब हो पाएंगे या विवाद उत्पन्न होने की आशंका है.
देखिए जब आप संवाद करना चाहते हों और लोगों को संवाद की आदत न होकर विरोध की आदत हो तो लोग विवादास्पद बना ही डालेंगे. हमारे देश में कुछ हो न हो विरोध तो होता ही है हर बात का. मैंने जिन्ना और गोडसे को अपने नाटकों में कहीं भी खलनायक नहीं बनाया है लेकिन कुछ लोग ऐसे भी होंगे जो नाटकों को बिना पढ़े, बिना देखे, बिना उसके सम्पूर्ण रूप में समझे गांधी, गोडसे और जिन्ना के नाम को लेकर ही भड़क जायेंगे और जनमानस को भड़काना भी शुरू कर सकते हैं. यह भारत है यहाँ कुछ भी हो सकता है. सामंजस्य उत्पन्न हो न हो विवाद उत्पन्न होने की पूरी सम्भावना है.
पर मैंने ये दोनों नाटक विवाद में या सुर्ख़ियों में रहने के लिए नहीं लिखा. ये मेरी कल्पनाशीलता का विस्तार भर हैं …. मेरे ज़ेहन में किसी ज़माने में यह बात उठी कि यदि गोडसे का गांधी से संवाद होता और जिन्ना का गांधी से संवाद होता तो क्या स्थितियां कुछ अलग न होतीं और बस मैंने वही कलमबद्ध किया है.
6.
जब आपने अपनी कल्पनाशीलता की बात उठाई है तो कृपया यह बताएं कि आपकी कल्पनाशीलता कैसे कभी गोडसे का गांधी से संवाद कराती है और कभी गांधी को पाकिस्तान ले जाती है ? इतना साहसिक कदम उठाने का जोखिम कैसे लेते हैं आप ?
देखिये, जब आप गंभीरता से किसी विषय में प्रवेश करते हैं तो कथानक आपके भीतर ही उत्पन्न होकर आपके भीतर ही विकसित होता है. चिंतन से ये बातें निकलकर बाहर आती हैं. आजकल के बच्चे मुझसे पूछते हैं हम आपके जैसा कैसे सोचें तो मैं हमेशा उन्हें कहता हूँ कि मोबाइल और दोस्तों को छोड़कर कुछ समय खुद के लिए निकालो और अपने भीतर उतरने की कोशिश करो और जब एक बार अपने भीतर उतरने में सफल हो जाओ तो डूबकर गहराई से चिंतन करो.
रही बात जोखिम उठाने की तो मुझे अपने किसी काम को करते हुए जोखिम नहीं लगता क्योंकि मैं वह काम स्वान्तः सुखाय के लिए करता हूँ. और जैसा कि मैंने आपको पहले भी बताया मेरी मंशा किसी को खलनायक साबित करने की रहती ही नहीं इसलिए जोख़िम और डर का तो सवाल ही पैदा नहीं होता. दूसरे जैसा कि एक बात और मैं बता ही चुका हूँ कि मेरा लेखन मेरी कल्पनाशीलता का विस्तार है तो यह बिलकुल ऐसा है जैसे आप अपनी कल्पना से कोई रेखाचित्र बनाते हैं और उसमें अपने मनपसंद रंग भरते हैं तो अपना मनपसंद चित्र बनाते समय कोई डर या जोखिम या खतरे की अनुभूति नहीं होती है.
बाक़ी मैंने बताया ही कि हमारे यहाँ संवाद हो न हो, विवाद किसी भी विषय पर होने की पूरी संभावना रहती है. सोचिये जब मकबूल फिदा हुसैन ने चित्र बनाये होंगे, उनमें रंग भरा होगा तो क्या उन्हें डर लगा होगा, क्या उन्हें कोई ख़तरा महसूस हुआ होगा, क्या उन्हें कोई जोखिम महसूस हुआ होगा… नहीं न… पर बाद में कट्टरपंथियों ने उनके चित्रों को इतना विवादास्पद बना दिया कि उन्हें देश तक छोड़ना पड़ा. इसी प्रकार मैंने तो नाटक लिख दिया, मेरे लिए मेरे नाटक मेरा चित्र हैं अब आगे क्या होगा वह देखा जाएगा… उसकी परवाह मैं नहीं करता.
7.
इन नाटकों पर आपकी तरफ से कोई विशेष लेखकीय टिप्पणी करना चाहेंगे आप ?
मैं सिर्फ यह कहना चाहूंगा कि आभासी इतिहास पर केंद्रित बहुत से नाटक भारत में लिखे नहीं गए. ऐसे विषयों के ऊपर कम लिखा गया है पर ऐसे विषय बहुत रोचक होते हैं. इनसे आप इतिहास की पड़ताल तो करते ही हैं भविष्य की ओर भी संकेत करते हैं. इन नाटकों में अतीत, वर्तमान और भविष्य के बीच आवाजाही बनी रहती है.
एक और बात बताना चाहूंगा कि मेरे नाटक गोडसे@गांधी.कॉम पर मशहूर फिल्म निर्माता राजकुमार संतोषी ने एक फीचर फिल्म का निर्माण किया है जिसकी उद्घोषणा वे इस वर्ष करने जा रहे हैं. इस फिल्म में गोडसे की भूमिका में एक मराठी अभिनेता हैं और गांधी की भूमिका में एक गुजराती अभिनेता जो अपनी-अपनी भाषाओं के मंच के बड़े और मंजे हुए कलाकार हैं.
के. मंजरी श्रीवास्तव कला समीक्षक हैं. एनएसडी, जामिया और जनसत्ता जैसे संस्थानों के साथ काम कर चुकी हैं. ‘कलावीथी’ नामक साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्था की संस्थापक हैं जो ललित कलाओं के विकास एवं संरक्षण के साथ-साथ भारत के बुनकरों के विकास एवं संरक्षण का कार्य भी कर रही है. मंजरी ‘SAVE OUR WEAVERS’ नामक कैम्पेन भी चला रही हैं. कविताएँ भी लिखती हैं. प्रसिद्ध नाटककार रतन थियाम पर शोध कार्य किया है. manj.sriv@gmail.com |
इसे पढ़ना अपने प्रिय लेखक के साथ रचना प्रक्रिया की छोटे-सी यात्रा करना भी है। कुछ जानकारियाँ भी मिलीं।
इस कुल आयोजन का महत्व है, अरुण भाई।
आभासी इतिहास पर लिखी गई कृतियाँ संभाव्य के उन अघटित प्रसंगों की गाथा है जो वास्तविक न होकर भी हमारे स्वप्न के जरूरी हिस्से रहे हैं।इन्हें पढ़ना एक विरल सृजनात्मक सुख है।असगर जी को साधुवाद!
ज्ञानवर्धक इंटरव्यू है असग़र वज़ाहत साहब का..हम नाटक वालों को हमेशा इंतज़ार रहता है इनके नाटकों का ।खुशी की बात है कि नया नाटक ‘पाकिस्तान में गाँधी’ पढ़ने और करने को मिलेगा।असग़र वज़ाहत साहब का एक विस्तार से इंटरव्यू की उम्मीद है आपसे।
आभासी इतिहास पर नाट्यलेखन बढ़िया युक्ति है। एक समर्पित और प्रतिबद्ध लेखक इसका प्रयोग ज़रूर करता है।यह बात भी महत्वपूर्ण है कि संवाद का बेहद अभाव है। यह दोनों बातें बहुत से पूर्वाग्रहो का निराकरण करने में सक्षम है। एक बढ़िया साक्षात्कार के लिए आदरणीय असगर वजाहत साहब और मंजरी जी को बधाई
साक्षात्कार अच्छा है। इसकी शुरुआत में असग़र साहब ने कहा है कि वर्धा के विनोबा आश्रम में वे गए और वहाँ लोग समाज से कटे हुए हैं। यह धारणा उन्होंने कैसे बना ली? पवनार का ब्रह्म विद्या मंदिर और वहाँ के साधक आज भी देशभर में सामाजिक क्षेत्र में काम कर रहे हज़ारों कार्यकर्ताओं के लिए प्रेरणा और ऊर्जा का स्रोत है। हर साल नवंबर में वहाँ तीन दिन का मित्र मिलन होता है जिसमे देश भर के हज़ारों कार्यकर्ता जुटते हैं और विचारों का आदान-प्रदान करते हैं। मैत्री नामक एक पत्रिका भी वहाँ से नियमित रूप से प्रकाशित की जाती है।