
उधर सरलादेवी महात्मा को स्नेह करती थीं तथा उनके आराम का पूरा खयाल रखती थीं हालांकि आत्मकथा में उन्होंने विवाह के प्रसंग तक ही अपनी कथा लिखी, उन्होंने जो भी किया वह बृहत्तर अर्थ में राष्ट्र चिंता से प्रेरित था. उनके विवाह के बाद के प्रसंग किसी अन्य द्वारा परिशिष्ट के रूप में लिखे गए. उनकी ग़ैर-पारंपरिक जीवनशैली आलोचना का विषय भी बनती रही[xvi] सरलादेवी की वक्तृता का लोहा विवेकानंद भी मानते थे. वे चाहते थे देश और विदेश में सरलादेवी सार्वजनिक मंच से बोलें-
“तुम्हारी तरह मेधावी और बोल्ड स्त्री को तो इंग्लैण्ड जाकर उपदेश देने चाहियें. मुझे पूरा विश्वास है कि हजारों-हज़ार स्त्री -पुरुष भारत-भूमि के धर्म को स्वीकार कर लेंगें[xvii]
लेकिन सरलादेवी ने विवेकानंद का रास्ता नहीं अपनाया और वे मैसूर चलीं गयीं आत्मनिर्भर जीवन जीने के लिये.
गांधीजी जब भी लाहौर जाते सरलादेवी से अवश्य मिलते, हालाँकि सरलादेवी नवयुवकों के ‘विप्लवी’ चरित्र के पक्ष में थीं और वे लाठी–भाला चलाने के प्रशिक्षण की व्यवस्था भी किया करती थीं लेकिन उन्होंने कभी गांधीजी के आतिथ्य–सत्कार में कोई कमी नहीं रखी. मगनलाल गाँधी को लिखे पत्र में गांधीजी ने कहा था-
‘सरलादेवी हर तरह से मेरे ऊपर प्रेम बरसा रही है’. गांधी जब भी पंजाब जाते तो वे ‘नवजीवन के पाठकों के लिए पत्र लिखते. वे प्रेरणा देते सरलादेवी को ‘नवजीवन’ में लिखने की. पाठकों को ‘पंजाब की चिट्ठी में उन्होंने “कैसा चमत्कार ‘शीर्षक लेख में लिखा था –“अपने पति से दूर सरलादेवी ‘सिंहनी’ की भांति अकेली रहती थीं”. पंडित रामभज चौधरी के जेल से निकलने के बाद उन्होंने सरला देवी के चेहरे पर अनोखा ही तेज देखा था. गांधी ने लिखा कि वियोग- काल में भी सरलादेवी ने अपना तेज खोया नहीं था. राजमोहन गांधी ने भी गांधी और सरलादेवी के घनिष्ठ सम्बन्ध का ज़िक्र किया है.
बाद में चलकर गांधीजी और सरलादेवी के आपसी रिश्तों में खटास आ गयी थी. 1920 के अंत तक गांधीजी के करीबी रिश्तेदारों में इस सम्बन्ध को लेकर असंतोष बढ़ता जा रहा था. उनका पारस्परिक प्रेम कस्तूरबा के लिए भी तकलीफदेह साबित हो रहा था. राजगोपालाचारी ने इस बारे में महात्मा गांधी को समझाने के लिए कई पत्र भी लिखे और इस तरह के अन्तरंग सम्बन्ध को महात्मा की छवि के लिए नुकसानदेह बताया. गांधी जी सरलादेवी के साथ अपने संबंधों में खिंचाव भी महसूस कर रहे थे, उधर सरलादेवी के पत्रों का तीखापन और आक्रोश भी बढ़ता जा रहा था यहाँ तक कि सरलादेवी ने एक पत्र में उन्हें लिखा था- “आप तो महात्मा हैं और मैं पापी’. सरलादेवी का आत्मकथ्य ‘देश‘ पत्रिका में सन 1942 से 1943 के बीच धारावाहिक रूप में प्रकाशित हुआ. सन 35 के लगभग सरलादेवी ने राजनैतिक और सार्वजनिक जीवन से संन्यास ले लिया और गांधी के साथ उनके संपर्क भी तबतक ख़त्म हो चुके थे.
महादेव देसाई की निजी डायरी में सरलादेवी के पांच-छह पत्रों का ज़िक्र किया गया है. रामचंद्र गुहा ने विस्तार से सरलादेवी और गाँधी जी के आत्मीय संपर्क का ज़िक्र करते हुए लिखा है कि –गांधीजी सरलादेवी के साथ यात्राओं पर जाते थे. सिंहगढ़ के अपने प्रवास के दौरान वे सरला देवी को लिखते हैं –“अभी दो सपने देखकर उठा हूँ एक तुम्हारे बारे में और दूसरा खिलाफत का’[xviii] फिर अगले पत्र में वे लिखते हैं कि वे सरलादेवी का इंतजार कर रहे हैं, उन्हें आश्रम में आना चाहिए…गाँधी की इच्छा थी कि सरलादेवी अपने समूचे आकर्षण और शक्ति के साथ आश्रमिक जीवन ग्रहण कर लें, जबकि सरलादेवी अपने परिवार में ही रहती रहीं. उन्होंने खादी ज़रूर पहनी जिससे गांधीजी बहुत प्रसन्न हुए. गांधीजी ने हर्मन केलैनबैक को सरलादेवी के विषय में पत्र लिखते हुए कहा- ..” तुम देखोगे तो उसपर मुग्ध हो जाओगे .बात यह है कि मेरा बहुत घनिष्ठ संपर्क हो गया है. वह अक्सर यात्रा में मेरे साथ रहा करती है. उसके साथ मेरे संबंधों को किसी परिभाषा में नहीं बाँधा जा सकता. मैं उसे अपनी ‘आध्यात्मिक पत्नी‘ कहता हूँ. एक मित्र ने हमारे संबंधों को बौद्धिक विवाह कहा है. मैं चाहता हूँ तुम उससे मिलो…”[xix]
उधर सरलादेवी भी गाँधी जी का बहुत सम्मान करती थीं. ’कस्तूरबा ए सीक्रेट डायरी’ में नीलिमा डालमिया ने सरलादेवी के गांधीजी के साथ आत्मीय और बौद्धिक संपर्क का ज़िक्र किया है, जिसपर कस्तूरबा ने तीखी प्रतिक्रिया ज़ाहिर की थी, शीघ्र ही गांधीजी ने इस सम्बन्ध से स्वयं को अलग कर लिया था. एक जगह सरला देवी ने लिखा कि जब वह राजनैतिक तौर पर मुश्किल में थी तो महात्मा गांधी ने कहा ‘तुम्हारी हंसी राष्ट्रीय संपत्ति है, हमेशा हंसती रहो. यह आत्मीय रिश्ता अक्टूबर 1919 से दिसंबर 1920 तक चला, उसके बाद गांधीजी ने राजगोपालाचारी की सलाह पर ध्यान दिया, जिसके बारे में रामचंद्र गुहा का अनुमान है कि वे इस आध्यात्मिक संपर्क को सामाजिक स्वीकृति भी देना चाहते थे क्योंकि सरलादेवी में उन्हें एक आदर्श सहयोगी की छवि दिखाई देने लगी थी. लेकिन राजगोपालाचारी ने बड़ी कड़ाई से गांधीजी को इसके लिए मना किया क्योंकि इससे गांधीजी की पवित्रता, साधुत्व और समूचे भारत के लिए अनुकरणीय छवि को निश्चित रूप से धक्का पहुँचने की आशंका थी.[xx].
राजगोपालाचारी की संक्षिप्त मुलाकात सरलादेवी से हुई थी जिससे वे बिलकुल प्रभावित नहीं हुए थे और उन्होंने गांधी जी को लिखा था कि सरलादेवी हजारों साधारण औरतों में से एक है, शिक्षा ने जिसके व्यक्तित्व को थोड़ा आकर्षक बना दिया है. उन्होंने गांधी जी को इस सम्बन्ध को आगे ले जाने से रोका.[xxi]
गांधीजी ने राजाजी के सुझावों पर अमल किया और सार्वजनिक तौर पर ‘आध्यात्मिक पत्नी’ कहना बंद कर दिया. रामचंद्र गुहा ने बताया है कि सरलादेवी के लिखे पत्र हमें उपलब्ध नहीं हैं. वे गांधीजी से मिलने के लिए अक्टूबर 1920 में अहमदाबाद गयीं थीं लेकिन तबतक गांधीजी पदयात्रा पर निकल चुके थे .गांधीजी को अपने बारे में बताते हुए उन्होंने लिखा था कि वे खादी का साड़ी-ब्लाउज पहनती हैं और अहमदाबाद की स्त्री समिति में खादी के प्रयोग के लिए प्रेरणा देती हैं. उन्होंने यह भी लिखा कि –
“सिर्फ स्नानघर ही एक ऐसी जगह है जहाँ मेरी सिसकियाँ सुनी जाती हैं…जल्दी ही ये दिन भी ख़त्म हो जाएंगे.”
बाद में, प्रतीक्षा से थक कर वे लाहौर वापस चली गयीं, वहां से पत्र लिखकर उन्होंने आपसी गलतफहमियों के बारे में, गुस्से और अपनी जीवनशैली के विषय में स्वयं निर्णय करने की छूट न दिये जाने के लिए गांधी को ज़िम्मेदार बताया. सरला ने गांधी जी को चुनौती दी कि वे उसके साथ प्रेम को सीधे-सरल शब्दों में कहें. ;बताईये एक सीधी मर्मस्पर्शी भाषा में कि आप मुझे रोज़ याद करते हैं, कि सुबह से शाम मुझसे मिलने के लिए प्रतीक्षारत रहते हैं.’ सरलादेवी को लिखे गांधीजी के अधिकांश पत्र गाँधी वांग्मय में संगृहित हैं .लेकिन सरलादेवी की तरफ से लिखे पत्र गांधी परिवार द्वारा नष्ट कर दिए गए जिसके बारे में रामचंद्र गुहा ने लिखा[xxii] गांधी जी का अपनी इस मित्र से गहरा पर गैर-बराबरी का रिश्ता था .
गांधीजी सरलादेवी को उनकी वक्तृता और आकर्षण के कारण बहुत पसंद करते थे लेकिन उन्हें अपने सांचे में ढाल लेना चाहते थे. वे उनसे चाहते थे कि वे आश्रम में सभी कार्य अपने हाथों से करें जबकि सरला अपने घर में नौकरों के भरोसे थीं. उनका समय लिखने–पढ़ने और कला साहित्य के लिए था जबकि गाँधी उन्हें आदर्श आश्रमवासिनी के रूप में देखना चाहते थे. सरलादेवी भी गांधीजी के प्रति आकर्षित थीं, लेकिन वे अपने पति के प्रति ईमानदार थीं. लेकिन पति तो महात्मा नहीं थे वे एक छोटे प्रांतीय नेता थे जबकि गांधी सबसे बड़े राष्ट्रीय नेता बन चुके थे. उधर गांधीजी कस्तूरबा के प्रति ईमानदार थे, लेकिन वे कवि या लेखिका नहीं थीं. गांधीजी ने सरलादेवी के साथ अपने सम्बन्ध को कभी छिपाया नहीं, उनके पूरे चरित्र में मिथ्या–आचरण था ही नहीं इसीलिए तो उन्होंने उन्हें आश्रम जीवन बिताने के लिए खुलकर लिखा [xxiii], उनका जीवन और व्यवहार खुली किताब था और वे बंगाली भद्र–अभिजात्य स्त्री को अपने आदर्शों के अनुरूप ढाल लेना चाहते थे. जिस भारत में गांधीजी पले–बढ़े थे वहां स्त्री –पुरुष के बीच स्वच्छंद सम्बन्ध अकल्पनीय था.
विपरीत लिंगी से नैकट्य होने लिए उसे नजदीकी सम्बन्धी होना ज़रूरी था मसलन माता–बहन या पत्नी, जबकि विदेश-प्रवास में उन्होंने स्त्री –पुरुष दोनों से मित्रवत संपर्क बनाये. लैंगिक आधार पर जड़ मानसिकता में बदलाव के लिए उनकी शिक्षा और विदेशी मित्र उत्तरदायी रहे. भारत आने पर गांधी की पहली महिला मित्र सरलादेवी ही थीं जिसके साथ सम्बन्ध को दैहिक परिधि में नहीं बाँधा जा सकता. ये सम्बन्ध सेक्स पर आधारित नहीं था, लेकिन गाँधी के आसपास के लोगों ने इस मित्रता को ठीक उसी रूप में स्वीकार नहीं किया. सरलादेवी भी भरे –पूरे परिवार की स्त्री थीं, अपने पति के लिए पूर्णतः समर्पित. उन्होंने स्वयं को सक्रिय राजनीति से क्यों अलग कर लिया होगा इसके कारण और प्रमाण हमें नहीं मिलते. उनके जीवन और कृतित्व पर बहुत से कार्य हुए लेकिन उनमें गाँधी के साथ घनिष्ठ संपर्क का ज़िक्र हमें नहीं मिलता, वे स्वयं भी इस प्रसंग से बची हैं [xxiv]
औपनिवेशिक भारत में बीसवीं शताब्दी के प्रारंभिक दौर में लिखी गयी ये आत्मकथाएं रचनाकारों की राजनैतिक विचारधारा का पता बताने के साथ उनकी जीवन धारा के बारे में भी बताती हैं. सरलादेवी पढ़ी –लिखी बोल्ड स्त्री होने के बावजूद अपने विवाह के कारणों के बारे में चुप रहती हैं, गांधी के साथ अपने संपर्कों को भी सार्वजनिक चर्चा का विषय बनाने में अपनी तरफ से बचती हैं. मुरियल ने कहा था– सोचो तो क्या होगा जब कोई स्त्री अपने जीवन का पूरा सच बता देगी. हो सकता है पूरा विश्व टुकड़े टुकड़े हो जाए[xxv]
उधर इजाडोरा डंकन का मानना है कि किसी भी स्त्री ने अपने जीवन का पूरा सच कभी नहीं बताया, यह भी कि प्रसिद्ध स्त्रियों की आत्मकथाएं उनके बाह्य अस्तित्व, छिटपुट विवरणों,रोजनामचों से भरी हैं जिनमें उनके वास्तविक जीवन के आदर्श चित्र नहीं हैं ‘[xxvi]
यह बात भले ही डंकन ने पश्चिमी आत्मकथ्यों के सन्दर्भ में कही हो लेकिन सरलादेवी सरीखी कई स्त्रियों के प्रतिरोध की आवाजें इसलिए मर्मराहट बन कर रह गयीं क्योंकि उनमें सब कुछ खोलकर, सच–सच कहने का साहस नहीं था, जिसके कारण बहुत से थे. सामाजिक–सांस्कृतिक सेंसरशिप के दबाव स्त्री के आतंरिक जगत पर बने हुए थे, जिनमें बदलाव आसान नहीं था, न है. सरलादेवी के बरक्स शांतिसुधा किसी राजनैतिक पृष्ठभूमि से नहीं आई थीं, उनके छोटे भाई रुनु ‘तरुण दल‘ के सदस्य थे. कलकत्ता प्रवास के दौरान उन्होंने कलकत्ते की राजनैतिक उथल-पुथल को करीब से देखा था, उनपर गांधी का गहरा प्रभाव पड़ा था. इसी तरह मणिकुंतला के पास भी कोई भी राजनैतिक पृष्ठभूमि नहीं थी . वे कांग्रेस और गांधीजी के संपर्क में आयीं थीं और वहीं शान्तिसुधा से भी मिली थीं और क्रांतिकारी गुट ‘युगांतर‘ की सदस्य बनने की इच्छा उन्होंने ज़ाहिर की थी. शान्तिसुधा ने जेल के दिनों में कम्युनिस्ट साहित्य पढ़ा था और वह आजीवन कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्य भी रही. हालाँकि 1960 में कम्युनिस्ट पार्टी के विखंडन के बाद उन्होंने सक्रिय राजनीति से संन्यास ले लिया.
धन्यवाद अरुण जी ,लेख को समालोचन पर स्थान देने के लिए .इतनी कलात्मकता के साथ बहुत कम ही पटल, लेखों का प्रस्तुतीकरण करते हैं .बहुत बहुत आभार
बहुत महत्त्वपूर्ण लेख और उसकी सुरुचिपूर्ण प्रस्तुति ! गरिमा जी और आप को बधाई !
हमेशा की तरह गरिमाजी का यह आलेख भी उतना ही महत्वपूर्ण और संवेदनशील भी। उनका लेखन हमारे लिए नए क्षितिज खोलता है।
हर आत्मकथा अपने समय का एक जीवित इतिहास होती है। खासकर कोई जीवन अगर घटनाओं से भरा हो, तो उसे पढ़ते हुए मन पर फ्लैश बैक में दिखाई जा रही एक इतिवृत्तात्मक फिल्म जैसा प्रभाव महसूस होता है। भारतीय पुनर्जागरण में बंगाल के तत्कालीन समाज सुधार आंदोलन की ऐतिहासिक भूमिका रही है।इसका प्रभाव पूरे भारतीय समाज पर पड़ा।सदियों से दबी हुई स्त्री-चेतना में विद्रोह की सुगबुगाहट भी इसके बाद जगह-जगह से फूटती दिखायी पड़ी। बंगाल के सामंती समाज की स्त्रियों में तमाम रूढ़ मान्यताओं से मुक्ति की छटपटाहट इन आत्मकथाओं में देखी जा सकती है। सरला चौधरी की आत्मकथा में गाँधी जी के संस्मरण काफी रोचक हैं और अंतरंग भी।गरिमा जी एव समालोचन को बधाई !
स्त्रियों का अपना निज और अपना संघर्ष , जिसका लेखा जोखा प्रस्तुत करती है उक्त आलेख। जो दबी और ढंकी रही उसका दायित्व कुछ स्वयं इन स्त्री आत्मकथाकारों के कंधों पर रहा और कुछ पितृसत्तात्मक समाज की सोच के कारण। परंतु निज की अभिव्यक्ति के लिए जो मार्ग सरलादेवी एवं मणिकुंतला सेन जैसी राजनीतिक , सामाजिक कार्यकर्ताओं ने अपनाया वह आगे की पीढ़ी के लिए आज भी कारगर है, प्रासंगिक है। उन्होंने आनेवाली पीढ़ी के लिए सारी बाधाओं से भरे रास्ते से कांटें को चुनकर सरल और सुगम बनाया। यही क्या कम है कि इतिहास में उनके नाम हमें आज भी दर्ज मिलते हैं। यदि वे अपने निज को कहने में कहीं मौन हैं तो हम सब जानते हैं कि उस समय का समाज कैसा था , जहां स्त्री का बोलना ही किसी अपराध से कम नहीं। इस बात का खण्डन भी किया है आपने अपने इस लेख में। इस लेख से यह भी स्पष्ट है कि चाहे तब का समय हो या अब का, स्त्रियां कितनी ही शिक्षित और सशक्त हो जाएं आज भी उन्हें और उनके कामों को देखने के लिए पुरुषवादी चश्में का ही अधिक प्रयोग किया जाता है। बहुत ही महत्वपूर्ण और संवेदनशील विषय पर आधारित है उक्त लेख मैम। आपको बहुत– बहुत बधाई। आप ऐसे ही अपनी सक्रियता बनाएं रखें मैम।
मैंने इसे न सिर्फ पढ़ा बल्कि बहुत से मित्रों से भी पढ़ने को कहा। गरिमा श्रीवास्तव का यह एक शानदार काम है। यह पुस्तिका के रूप में भी आनी चाहिए। नई पीढ़ी के हिंदी आलोचकों में इतना परिश्रम, अध्ययन और दृष्टि अब कम ही दिखाई देता है।
गरिमा जी का बेहतरीन लेख पढ़ा । शोधपरक लंबे लेख की इतनी सुव्यवस्थित प्रस्तुति के समालोचना पत्रिका को साधुवाद ।