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समालोचन

Home » बांग्ला स्त्री-आत्मकथाएं: गरिमा श्रीवास्तव » Page 4

बांग्ला स्त्री-आत्मकथाएं: गरिमा श्रीवास्तव

ब्रिटिश काल में बंगाल राष्ट्रवाद के उदय और सामाजिक-धार्मिक सुधारों का महत्वपूर्ण स्रोत था, उसका गहरा असर हिंदी प्रदेशों पर भी पड़ा. ऐसे में उस समय की बांग्ला स्त्रियाँ किस तरह से इनमें अपनी सक्रियता दिखा रहीं थीं, हो रहे बदलावों से किस तरह अपने को जोड़ रहीं थीं और स्त्री मुद्दों पर उनकी क्या राय थी तथा उनके अंतर्मन में क्या चल रहा था आदि की विवेचना स्त्री-अध्ययन के लिए आवश्यक है. आलोचक प्रो. गरिमा श्रीवास्तव ने ज्योतिर्मयी देवी(आमार लेखार गोड़ार था), सरलादेवी चौधरानी (जीबनेर झरापाता), शांतिसुधा घोष(जिबोनेर रंगमंचे) तथा मणिकुंतला सेन(शे दिनेर कथा) की आत्मकथाओं की गहरी विवेचना की है और औपनिवेशिक काल के स्त्री प्रश्नों को यहाँ विवेचित किया है.

by arun dev
August 4, 2021
in आलेख
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शांतिसुधा घोष (1907 -1992) की आत्मकथा ‘जिबोनेर रंगमंचे’(1989) को भी  देखना महत्वपूर्ण है. वे अपने जीवन को रंगमंच कहती हैं जहाँ नाटक मंचित तो हुए पर उनका कोई दर्शक था या नहीं– मालूम नहीं. दरअसल नाटक महत्वपूर्ण है उसके दर्शक नहीं. शान्तिसुधा घोष ने अपने बारे में लिखकर ही जीवन–नाटक को सार्वजनिक किया है. शान्तिसुधा घोष अपने लेखकीय ‘स्व’ से स्वयं को अलग प्रस्तुत करती हैं . कहा गया है कि रचनाकार से भोक्ता की दूरी जितनी अधिक होगी, रचना उतनी ही श्रेष्ठ होगी. संभवतः शान्तिसुधा ने इसीलिए लेखकीय स्व से खुद को दूर किया होगा. आत्मकथा की रचना 82 वर्ष की अवस्था में करते हुए, जैसे वे अपना जीवन फिर से रचती हैं. जीवन के इस पुनर्रचित पाठ को बहुत सावधानी से पढ़ा जाना चाहिए क्योंकि इस तरह के टेक्स्ट में शब्दों के बीच के संवाद और दरारों के पाठ अनेकार्थी होते हैं और पाठक तथा आलोचक से विशेष मेधा की मांग करते हैं. शान्तिसुधा ने आत्मकथा में जिस जीवन का चित्रण किया है वह बहुत हद तक वैसा ही है– जैसा वह चाहती थीं. वास्तविक जिए गए जीवन और जैसा जीवन वे जीना चाहती थीं, उसमें अंतराल स्वाभाविक है लेकिन उसे काल्पनिक मानकर खारिज नहीं किया जा सकता ,बल्कि पाठक से उनकी अपेक्षा है कि जैसा उन्होंने लिखा है पाठक उसी को सच मानकर चले .

शान्तिसुधा घोष जैसी न जाने कितनी स्त्रियाँ हैं जिन्होंने लेखन में अपनी सीमाओं का अतिक्रमण किया, या यों कहें कि अपनी सीमाओं में रहते हुए अपने जीवन का निर्माण किया. यदि शांतिसुधा अपनी सीमाओं का अतिक्रमण करके अपने जीवन को किसी दूसरी दिशा में ले जाने का प्रयास भी करतीं तो भी वह तत्कालीन प्रचलन के अनुरूप ही होता क्योंकि स्त्रियों ने जेंडर की सीमाओं को चुनौती देना शुरू कर दिया था . शान्तिसुधा का पूरा जीवन शारीरिक रोगों से जूझते हुए बीता, इससे शिक्षा भी बाधित हुई लेकिन उन्होंने बाद में शिक्षा भी ग्रहण की और गांधीवादी आन्दोलन से भी जुड़ीं. जेल और निर्वासन की सजा भी उन्हें राष्ट्रवादी क्रियाकलापों से दूर नहीं कर सकी. वे ‘युगांतर’ जैसी क्रांतिकारी संस्था से जुड़ीं और संस्था की क्रांतिकारी गतिविधियों में बढ़–चढ़ कर शिरकत करती रहीं. बाद में चलकर ही गांधी से प्रभावित हुईं. बंगाल के नवजाग्रत माहौल में अन्य बहुत से अन्य लोगों की तरह नवजागरण की चेतना से प्रभावित होना शांतिसुधा के लिए अत्यंत स्वाभाविक ही था. अपने लेखन में वह कहीं भी क्रांति की चर्चा नहीं करती लेकिन उनकी जीवन शैली जिसका पता उनका आत्मकथ्य देता है वह ‘आत्म’के प्रति एक ज़बरदस्त चैतन्यता को बताते हैं. फिर भी हम मणिकुंतला सेन और शांतिसुधा घोष  के लेखन में जीवन की कई घटनाओं की ब्यौरेवार चर्चा पाते हैं- लेकिन वे स्वयं को किसी परिवर्तनकारी एजेंसी के रूप में स्थापित नहीं करती दीखतीं.

शान्तिसुधा घोष आजीवन अविवाहित रहीं और पूरा जीवन कर्तव्यशील पुत्री के रूप में जिया. वे निर्वासन के दौरान या 1941 में  जब गांधीजी से मिलने ढाका गयीं तब भी पिता के साथ  ही गयीं अकेली नहीं. आत्मकथ्य में दर्ज है कि बंग–भंग की घटना के बाद वे जी-जान से अपने माता–पिता की सेवा कर रही थीं. वे बारिशाल (पूर्वी बंगाल) में ही रहकर ‘जुगांतर’ संस्था के लिए काम करती रहीं और खूब पढ़ती रहीं. यहाँ तक कि छोटे भाई के अलावा उनका पूरा परिवार भारत आकर बस गया लेकिन शान्तिसुधा ने बारिशाल नहीं छोड़ा .वे सभा–समितियों का काम बारिशाल में रहकर ही करती रहीं, भाई के घर रहते हुए सभा करना संभव नहीं था क्योंकि पुरुष कार्यकर्ता भी सदस्य के रूप में शामिल होते .पुरुष सहकर्मियों के साथ बैठना, बात करना अनुचित और समाज –विरोधी माना जाता था. शान्तिसुधा को इन सब बाधाओं का सामना करना पड़ा होगा लेकिन इन स्थितियों के प्रति उनमें आक्रोश नहीं दिखायी देता ,बल्कि इस सारे प्रसंग को वे व्यंग्यात्मक लहजे में चित्रित करती हैं.

बतौर पाठक हम समझ सकते हैं कि ऐसी घटनाएँ कितनी अप्रिय रही होंगी. लेकिन वे मणिकुंतला की तर्ज़ पर ही ऐसी घटनाओं के विषय में निहायत ही तटस्थ भाव से ,लगभग ग़ैर-महत्वपूर्ण मानते हुए लिखती हैं. यहाँ तक कि शान्तिसुधा घोष अपने अविवाहित, एकाकी जीवन पर भी कोई टिप्पणी करती नहीं दिखाई देतीं. पाठक यह जानने से वंचित रह जाता है कि अविवाहित रहना शान्तिसुधा का निजी निर्णय था या माता–पिता द्वारा थोपा हुआ अथवा शान्तिसुधा की रोगी काया ने उन्हें विवाह का अवसर नहीं दिया. जिस दौरान शान्तिसुधा राजनैतिक सरगर्मियों से सम्बद्ध थीं उस दौरान ‘गोलोकधांधा’ शीर्षक उपन्यास भी लिखा जिसका टेक्स्ट बहुत जटिल है जिसमें प्रेम और यौनिकता के पारस्परिक संगुफन को जिस रूप में व्यक्त किया गया है वह अपने समय को देखते विशिष्ट है.’[xxvii]

इस उपन्यास में शांतिसुधा घोष ने स्त्री के अस्तित्व और स्व की अभिव्यक्ति से सम्बंधित प्रश्नों पर विचार किया है. नीत्शे ने कहा था कि ‘आत्म’ का निर्माण एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है वह कोई एक सुस्थिर ,स्थाई पहचान नहीं है ‘-शांता के चरित्र में आत्म के निर्माण की प्रक्रिया के नैरन्तर्य को देखा जा सकता है . शांता एक प्रगतिकामी चेतना से समन्वित चरित्र है जो ब्रिटिश शासित भारत में अपने परिवार के साथ रहती है ,पिता के मरने के बाद बहन के साथ चाचा के पास चली जाती है जो उसके व्यक्तिव के विकास में बाधा बनते हैं .वह थोपी नैतिकताओं और आचरण नियमों का अंध –पालन करने का विरोध करती है लेकिन उसकी बहन लोलिता नयी स्थितियों से समझौता कर लेती है जबकि शान्ता विवाह को जीवन की चरम परिणति के रूप में अस्वीकार कर देती है .इस उपन्यास को आत्मकथात्मक टेक्स्ट के रूप में पढ़ने से शांतिसुधा की वैचारिक और मानसिक संरचना को समझा जा सकता है ,लेकिन आत्मकथा में वे विवाह और यौनिकता सम्बन्धी मसलों पर मौन हैं.

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Tags: गरिमा श्रीवास्तवनारीवादबांग्ला स्त्री आत्मकथाएंराष्ट्रवाद
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Comments 7

  1. Garima Srivastava says:
    4 years ago

    धन्यवाद अरुण जी ,लेख को समालोचन पर स्थान देने के लिए .इतनी कलात्मकता के साथ बहुत कम ही पटल, लेखों का प्रस्तुतीकरण करते हैं .बहुत बहुत आभार

    Reply
  2. Madhav Hada says:
    4 years ago

    बहुत महत्त्वपूर्ण लेख और उसकी सुरुचिपूर्ण प्रस्तुति ! गरिमा जी और आप को बधाई !

    Reply
  3. अशोक अग्रवाल says:
    4 years ago

    हमेशा की तरह गरिमाजी का यह आलेख भी उतना ही महत्वपूर्ण और संवेदनशील भी। उनका लेखन हमारे लिए नए क्षितिज खोलता है।

    Reply
  4. Daya Shanker Sharan says:
    4 years ago

    हर आत्मकथा अपने समय का एक जीवित इतिहास होती है। खासकर कोई जीवन अगर घटनाओं से भरा हो, तो उसे पढ़ते हुए मन पर फ्लैश बैक में दिखाई जा रही एक इतिवृत्तात्मक फिल्म जैसा प्रभाव महसूस होता है। भारतीय पुनर्जागरण में बंगाल के तत्कालीन समाज सुधार आंदोलन की ऐतिहासिक भूमिका रही है।इसका प्रभाव पूरे भारतीय समाज पर पड़ा।सदियों से दबी हुई स्त्री-चेतना में विद्रोह की सुगबुगाहट भी इसके बाद जगह-जगह से फूटती दिखायी पड़ी। बंगाल के सामंती समाज की स्त्रियों में तमाम रूढ़ मान्यताओं से मुक्ति की छटपटाहट इन आत्मकथाओं में देखी जा सकती है। सरला चौधरी की आत्मकथा में गाँधी जी के संस्मरण काफी रोचक हैं और अंतरंग भी।गरिमा जी एव समालोचन को बधाई !

    Reply
  5. Dr.Chaitali sinha says:
    4 years ago

    स्त्रियों का अपना निज और अपना संघर्ष , जिसका लेखा जोखा प्रस्तुत करती है उक्त आलेख। जो दबी और ढंकी रही उसका दायित्व कुछ स्वयं इन स्त्री आत्मकथाकारों के कंधों पर रहा और कुछ पितृसत्तात्मक समाज की सोच के कारण। परंतु निज की अभिव्यक्ति के लिए जो मार्ग सरलादेवी एवं मणिकुंतला सेन जैसी राजनीतिक , सामाजिक कार्यकर्ताओं ने अपनाया वह आगे की पीढ़ी के लिए आज भी कारगर है, प्रासंगिक है। उन्होंने आनेवाली पीढ़ी के लिए सारी बाधाओं से भरे रास्ते से कांटें को चुनकर सरल और सुगम बनाया। यही क्या कम है कि इतिहास में उनके नाम हमें आज भी दर्ज मिलते हैं। यदि वे अपने निज को कहने में कहीं मौन हैं तो हम सब जानते हैं कि उस समय का समाज कैसा था , जहां स्त्री का बोलना ही किसी अपराध से कम नहीं। इस बात का खण्डन भी किया है आपने अपने इस लेख में। इस लेख से यह भी स्पष्ट है कि चाहे तब का समय हो या अब का, स्त्रियां कितनी ही शिक्षित और सशक्त हो जाएं आज भी उन्हें और उनके कामों को देखने के लिए पुरुषवादी चश्में का ही अधिक प्रयोग किया जाता है। बहुत ही महत्वपूर्ण और संवेदनशील विषय पर आधारित है उक्त लेख मैम। आपको बहुत– बहुत बधाई। आप ऐसे ही अपनी सक्रियता बनाएं रखें मैम।

    Reply
  6. Dinesh Shrinet says:
    4 years ago

    मैंने इसे न सिर्फ पढ़ा बल्कि बहुत से मित्रों से भी पढ़ने को कहा। गरिमा श्रीवास्तव का यह एक शानदार काम है। यह पुस्तिका के रूप में भी आनी चाहिए। नई पीढ़ी के हिंदी आलोचकों में इतना परिश्रम, अध्ययन और दृष्टि अब कम ही दिखाई देता है।

    Reply
  7. Neelima says:
    4 years ago

    गरिमा जी का बेहतरीन लेख पढ़ा । शोधपरक लंबे लेख की इतनी सुव्यवस्थित प्रस्तुति के समालोचना पत्रिका को साधुवाद ।

    Reply

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समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

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