मणिकुंतला सेन ‘(1911-1987) की आत्मकथा- ‘शे दिनेर कथा’[xxviii] अभिव्यक्ति और प्राक एवं उत्तर औपनिवेशिक बंगाल के कम्युनिस्ट आन्दोलन को समझने की दृष्टि से महत्वपूर्ण है. इसमें मणिकुंतला सेन ने आधुनिकता की अवधारणा को कम्युनिस्ट विचारधारा से जोड़कर देखने का प्रयास किया है .उन्होंने जीवन के प्रारंभ में ही पिता को खो दिया था .वह अपनी माँ के साथ बहन–बहनोई के अभिभावकत्व में रहीं .राष्ट्रीय आन्दोलन के संपर्क में आना उनके समय और माहौल को देखते हुए स्वाभाविक ही था. कम्युनिस्ट साहित्य में उसकी गहरी रूचि थी, नास्तिकता की अवधारणा ने उन्हें आकर्षित किया जबकि बहनोई उन्हें ईश्वर में आस्था रखने के लिए कहते थे. आत्मकथा में ऐसे अनेक प्रसंग हैं, जिन्हें वैचारिक टकराहटों के प्रमाणस्वरूप देखा जा सकता है. उन्हें परिवार की अपेक्षाओं पर खरा उतरना चाहिए या राष्ट्रीय आन्दोलन में शिरकत करनी चाहिए –यह द्वंद्व कई जगह व्यक्त हुआ है. विधवा माँ की आज्ञा से उन्होंने कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्यता ग्रहण की. माँ ने समझाया था कि मानवता के उद्धार के लिए कार्य करना भी धर्म ही है, इसलिए यदि मणिकुंतला ने कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्यता भी ग्रहण की तो वो भी एक तरह से धर्म-पथ पर ही अग्रसर होना था. लेकिन मणिकुंतला को अन्य परिवारजनों का असहयोग और आक्रोश झेलना पड़ा.
मणिकुंतला के लिए आधुनिक होने का अर्थ था सामाजिक समानता की ओर अग्रसर होना, जड़ रूढ़ियों का विरोध. इसके लिए वह नीची कही जाने वाली जातियों से जुड़े कार्यकर्ताओं के घर ठहरती हैं, पुरुष साथियों के साथ पूरे बंगाल का भ्रमण करती हैं. यद्यपि वैचारिक तौर पर कम्युनिस्ट होने के बावजूद वे पार्टी के सभी क्रियाकलापों से सहमत हो पाने में सक्षम नहीं हो पायी. अंतिम दिनों में वह बहुत बेज़ार थी, पार्टी के कुछ निर्णय उसे ज़बरदस्ती स्वीकार करने पड़े .वह आत्मकथा में यह ज़िक्र करती है कि उसे इस बात का अफ़सोस है कि उसे कई बार अपनी आत्मा की आवाज़ की उपेक्षा कर जबरन पार्टी की बात माननी पड़ी. पार्टी के भीतर के तापमान को लेकर मणिकुंतला की अवधारणाएं राजनीतिक नेतृत्व के क्षेत्र में जेंडर के सवालों को समझने में मददगार हो सकती है. वे नेत्रकोना में हुई एक खुली सभा का ज़िक्र करती हुई बताती हैं कि गाँव–गाँव जाकर आम आदमी के बीच काम करने के बावजूद स्त्री कार्यकर्ताओं की वैचारिक प्रतिबद्धता पर पी.सी.जोशी द्वारा उठाये सवाल इतने बेधक थे कि मणिकुंतला समेत कई स्त्री कार्यकर्ताओं ने अपने-आप को सार्वजनिक तौर पर बेहद अपमानित महसूस किया .वे इस बात का भी ज़िक्र करती हैं कि कैसे पार्टी के भीतर लैंगिक भेदभाव किये जाते थे और स्त्रियों को दोयम दर्जे का समझा जाता था’[xxix]
रेडिकल कही जाने वाली पार्टी के भीतर लैंगिक असमानता का प्रमाण मणिकुंतला की आत्मकथा देती है कि कैसे आधुनिकता ने उसे परिवार और सामाजिक संरचना पर टिप्पणी करने की छूट और क्षमता तो दी परन्तु पार्टी के फ्रेमवर्क में वह बाध्य थी और पार्टी के बारे में स्वतंत्र टिप्पणी करने की छूट उसे नहीं थी. हालाँकि आत्मकथा में मणिकुंतला ने विशिष्ट तौर पर स्त्रीवाद पर ज्यादा नहीं लिखा ,लेकिन जीवन के एक मोड़ पर उसे लगता है कि उसका किसी पार्टी से सम्बद्ध होना कई प्रश्न खड़े करता है और साथ ही इस वजह से उसके स्त्रीत्व को कई समझौते करने पड़े वो भी ऐसी संरचना में जो समानता और वर्गविहीन विचारधारा की उर्ध्वबाहु घोषणा करती है.
मणिकुंतला कई समझौते करती है जिनका ज़िक्र यह किताब करती है. 1952 के पहले आम चुनाव में कम्युनिस्ट पार्टी की ओर से एकमात्र महिला उम्मीदवार के तौर पर नामांकित की गयी ,जबकि पार्टी में बहुत सी अन्य योग्य महिला उम्मीदवार थीं. मणिकुंतला को इसलिए भी अवसर मिला कि उस संसदीय चुनाव क्षेत्र से कोई पुरुष उम्मीदवार खड़ा होने को तैयार नहीं था. मणिकुंतला यह भी कहती हैं कि स्त्रियों के लिए पूर्णकालिक कार्यकर्ता होना कितना कठिन होता है .हालाँकि इस प्रसंग पर आत्मकथा में वह मौन है परन्तु जो विवरण दिए गए हैं उनसे यह ज़ाहिर हो जाता है कि पार्टी अपनी महिला कार्यकर्ताओं की विशिष्ट समस्याओं को कोई तरजीह नहीं देती थी,पार्टी का समर्थन महिलाओं को इतना नहीं था जिससे वे पूर्णकालिक कार्यकर्ता बन सकें. मणिकुंतला ने बहुत दिनों तक विवाह नहीं किया और एक समर्पित कार्यकर्ता की तरह वह ‘कम्यून‘ में ही रहती रही .आगे चलकर एक कामरेड से उसने विवाह कर लिया. पति जौली कौल के साथ मिलने और विवाह के प्रसंग के चित्रण का अभाव आत्मकथा में है. तपन रायचौधरी का कहना है कि आत्मकथ्य में ऐसे किसी प्रसंग का अभाव दुर्भाग्यपूर्ण है .वे यह भी लिखते हैं कि –
“मणिकुंतला यह तो बताती हैं कि वह जौली कौल के साथ एक ही घर में रही और पार्टी से त्यागपत्र देने के बाद वह दिल्ली चली गयी. यह पुस्तक पढ़ते हुए आप यह अनुमान नहीं लगा सकते कि जौली कौल उसके पति थे [xxx]
मणिकुंतला की आत्मकथा पढ़कर यह लगता है कि संभवतः कम्युनिस्ट पार्टी के प्रति वैचारिक प्रतिबद्धता ने मणिकुंतला को यह अवकाश नहीं दिया कि वह पार्टी के भीतर स्त्री की स्थिति पर विस्तार से प्रकाश डाले. संभवत: इसीलिए संवेदनाओं और परिवार के प्रसंग उसके लिए इतने महत्वपूर्ण नहीं रहे. यह भी हो सकता है कि मणिकुंतला यह बताना चाहती है कि जहाँ आम बंगाली स्त्री के लिए परिवार, सम्बन्धी एवं निजी जीवन की घटनाएँ महत्वपूर्ण होती हैं वहां अपने- आप को विशिष्ट दिखाते हुए उसने परिवार, पति और निजी जीवन के ब्यौरों से आत्मकथा को बचाया और अपनी छवि एक राजनैतिक कार्यकर्ता के तौर पर प्रस्तुत करने का प्रयास किया. हालाँकि इस पुस्तक में कुछ चित्र भी हैं जिनमें मणिकुंतला जौली कौल के साथ हैं लेकिन वे इस पुस्तक का अविभाज्य अंग बनकर नहीं आते. संभवतः जौली कौल जिन्होंने पुस्तक के अंग्रेज़ी अनुवाद की प्रेरणा दी उन्होंने ये चित्र बाद में लगवा दिए हों. मणिकुंतला की आत्मकथा इस प्रसंग पर बिलकुल मौन है कि अपनी ही पार्टी के कार्यकर्ता और सहकर्मी को जीवनसाथी बनाने के अनुभव क्या होते हैं, बाद में चलकर उनके आपसी सम्बन्ध कैसे रहे और यह भी कि क्या ऐसे विवाह–सम्बन्ध को चलाये रखने के लिए मणिकुंतला को विशेष तौर पर प्रयास करने पड़े तथा उसके ससुराल पक्ष के सदस्यों का व्यवहार उसके साथ कैसा रहा.
पूरी आत्मकथा में माँ क्षीरोदबाला के साथ संबंधों की बात ही मिलती है जिन्होंने आजीवन मणिकुंतला का समर्थन किया चाहे वह राजनीतिक पार्टी की सदस्यता ग्रहण करने का मुद्दा हो या कष्टकर यात्राएं. क्षीरोदबाला ने अपनी बेटी को हमेशा बिना शर्त समर्थन दिया और इसके लिए मणिकुंतला अपनी माँ के प्रति कृतज्ञता भी दिखाती हैं .ध्यातव्य है कि सरलादेवी चौधरानी भी आत्मकथ्य में अपनी माता के प्रभाव और समर्थन का ज़िक्र बारम्बार करती हैं. माता का समर्थन और सहयोग इन स्त्रियों के व्यक्तित्व को मज़बूत बनाता है जो इस बात की ओर संकेत करता है कि बंगाली समाज में माता-पुत्री के पारस्परिक सम्बन्ध की मनोसामाजिकी और पुत्री की उन्नति में माता की सकारात्मक भूमिका अन्य पितृसत्तात्मक समाजों से अलग और जटिल थी.
इन तीनों स्त्रियों के राजनीतिक विश्वासों में परस्पर वैविध्य था, बावजूद इसके कि ये तीनों ही सुशिक्षित और प्रचंड जागरूक स्त्रियाँ थीं. लेकिन इन तीनों पर राजनीति,शिक्षा और समाज के अलग–अलग प्रभाव पड़े. सरलादेवी बंगाल के राष्ट्रवादी दौर की गवाह रही, कांग्रेस भी अभी शुरुआती दौर में अभिजात्यवादी पहचान के साथ राजनीति में अपनी पहचान बनाने के दौर में थी. सरलादेवी ‘भारती’ पत्रिका में युवा बंगाली पुरुषों को अपनी मानसिक और शारीरिक ताकत बढ़ाने का आह्वान कर रही थीं .आगे चलकर वे क्रान्तिकारी संगठनों के संपर्क में आयीं जिन्होंने युवाओं को आर्थिक ,भौतिक और नैतिक समर्थन दिया. सरलादेवी का परिवार प्रारंभ से ही कांग्रेस से जुड़ा था, बाद में सरलादेवी पर गांधीवाद का प्रभाव गहरा पड़ा. इसके बरअक्स शान्तिसुधा की कोई राजनीतिक पृष्ठभूमि नहीं थी. लेकिन शिक्षा ग्रहण करने के लिए कलकत्ता जाने पर उन्होंने कांग्रेस के अधिवेशन देखे ,क्रांतिकारियों से जुड़ीं और जेल भी गयीं.
वे शिक्षा से ही जुड़ी रहीं और बाद में चलकर गांधी से प्रभावित हुईं .उन्हीं की तरह मणिकुंतला भी राजनीतिक पृष्ठभूमि से नहीं आतीं थीं, पर उनपर कांग्रेस और गांधी के संपर्क का गहरा असर पड़ा. शान्तिसुधा के जेल जाने के बाद मणिकुंतला साम्यवादियों के संपर्क में भी आयीं और कम्युनिस्ट दल की सदस्य बनने को तैयार हो गयीं. वे जीवन के अंतिम समय तक साम्यवादी विचारधारा की पक्षधर रहीं हालाँकि उन्होंने सन 60 में कम्युनिस्ट दल के विखंडन के बाद सक्रिय राजनीति से संन्यास ले लिया था .
इन तीनों के लिए आधुनिकता के अर्थ अलग-अलग थे. सरलादेवी बहुत बोल्ड थीं और उन्होंने युवकों और युवतियों पर खूब प्रभाव डाला, आत्मकथा में उन्होंने बताया है कि उनके बहुत-से पुरुष मित्र थे, लेकिन वे सार्वजनिक तौर पर भाषण देने और साथ ही बाहरी लोगों के सामने आने से भी बचती थीं. आत्मकथा में उन्होंने गांधीवाद के प्रभाव में आने और गांधी जी के साथ सम्पर्क की चर्चा छोड़ दी है (आत्मकथा पूरी होने के पहले ही उनकी मृत्यु हो गयी थी). अपनी कथा में उन्होंने अपनी माँ स्वर्णकुमारी से पृथक अपना व्यक्तित्व रचने का प्रयास किया है.
’जीबनेर झरापाता’ में वे यह बताती हैं कि जन्म से ही परिवार में उनका कोई बहुत स्वागत नहीं हुआ था. वे स्वयं को अवांछित संतान के रूप में चित्रित करती हैं. वे रबीन्द्रनाथ ठाकुर को अपनी संगीत–प्रतिभा से चकित करती हैं और उनकी कोशिश यह रही है कि उनके माता–पिता उन्हें मेधावी और योग्य समझें. दूसरी तरफ वे अपने-आप को विद्रोहिणी के रूप में भी चित्रित करती हैं. आत्मकथ्य में वे इस बात पर बल देती हैं कि वे अपने माता–पिता से कभी निर्देशित नहीं हुईं फिर भी विवाह के मसले पर वे स्वर्णकुमारी देवी के निर्णय के समक्ष हथियार डाल देती हैं. कुल मिलाकर आत्मकथा में जो उनका व्यक्तित्व उभरता है वह परस्पर विरोधी तत्वों और खंडित आकाँक्षाओं से निर्मित हुआ है.
उधर शान्तिसुधा घोष भी सरलादेवी की तर्ज़ पर ही आत्मकथ्य को अपने संक्रमणकालीन समाज की घटनाओं और अपनी टकराहटों का प्रतिफलन मानती हैं. वे भूमिका में ही लिखती हैं कि
“यदि मैं यह आत्मकथा न लिखती तो मेरे जीवन–रंगमंच के तमाम रंग परदे के पीछे से निकल कर आत्म प्रकाशन का सुअवसर नहीं पाते“.
वे आत्मकथ्य को लेखकीय सृजन के रूप में कहती हैं या यों कहें एक ऐसे टेक्स्ट के रूप में ले आती हैं जिसका विवेचन एक कृति के रूप में किया जाना चाहिए .
मणिकुंतला देवी के आत्म कथ्य में भी हमें आत्मविश्वास की कमी दिखती है. वह पार्टी के जन-प्रसार कार्यक्रमों के संदर्भ में भी लिखती हैं कि ऐसी संस्थाओं में यदि पुरुष की दिलचस्पी होती थी तो संभवतः कुछ उपलब्धियां मिलती लेकिन अपनी स्त्रियोचित सीमाओं में हम औरतें कर ही क्या सकती हैं[xxxi]
याद रहे कि यह वही मणिकुंतला है जो पुरुषों के साथ बंगाल का दौरा करती है और कई बड़ी सभाओं को संबोधित करती है और ग्रामीण तथा औद्योगिक कामगारों को संबोधित करती है. उसे भारत के प्रतिनिधि के तौर पर कई देशों में जाने का अवसर भी मिला ऊपर से देखने पर ऐसा लगता है कि स्त्रियों ने सदियों से चले आते हुए संकोच और हीनता बोध त्याग दिया और पुरुषों ने समान अधिकार की मांग को स्वीकृति दे दी लेकिन यह दोनों ही बातें सच नहीं है. तीनों के अवचेतन में अपनी स्वयं की क्षमताओं के बारे में ही संदेह रहे कदम-कदम पर जिन्हें बलात हटना पड़ा. साथ ही पुरुष भी स्त्रियों को समान मनुष्य के रूप में स्वीकार करने के लिए उत्सुक नहीं थे यहां तक कि कम्युनिस्ट पार्टी में भी एक साधारण पार्टी-कार्यकर्ता की हैसियत से मणिकुंतला की स्थिति दोयम दर्जे की थी. मन में पार्टी को लेकर कुछ पूर्वाग्रह थे.
1952 के विधानसभा चुनाव में कम्युनिस्ट पार्टी की ओर से मणिकुंतला अकेली स्त्री प्रत्याशी थी जबकि पार्टी सीटों पर चुनाव लड़ी महिलाओं का प्रतिनिधित्व का मात्र 1% होने पर मणिकुंतला देवी का कहना था- क्या पार्टी को लगता है कि स्त्री कार्यकर्ता चुनाव लड़ने के योग्य नहीं है. कालीघाट सीट को लेकर एक लंबा विवाद चला और अन्य कोई उपयुक्त पात्र न मिलने के कारण मणिकुंतला देवी को कालीघाट की सीट मिली. पार्टी किसी भी अन्य स्त्री प्रत्याशी के विरोध में थी क्योंकि बाकी सब सीटों के लिए पुरुष प्रत्याशी थे [xxxii]
इससे इस बात की पुष्टि होती है कि स्त्रियों के बड़े पैमाने पर राजनीतिक क्रियाकलापों में हिस्सा लेने पर पुरुष के कंधे से कंधा मिलाकर चलने पर भी पुरुष ही सत्ता के केंद्र में थे.
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(यह आलेख विनोद तिवारी के संपादन में निकलने वाली ‘पक्षधर ‘ पत्रिका के अंक २९ में भी प्रकाशित है. )
[i] सीता राम सिंह ,नेशनलिज्म एंड सोशल रिफॉर्म्स इन इंडिया :1885 -1920 ,दिल्ली,पृष्ठ 206 एवं मेद्रिथ बोर्थविक ,द चेंजिंग रोल ऑफ़ वूमेन इन बंगाल ,1849-1905 ,प्रिंसटन यूनिवर्सिटीप्रेस ,1984,पृष्ठ341
[ii] मेद्रिथ बोर्थविक ,द चेंजिंग रोल ऑफ़ वूमेन इन बंगाल ,1849-1905 ,प्रिंसटन यूनिवर्सिटीप्रेस ,1984,पृष्ठ339
[iii] सुतनुका घोष ,एक्स्प्रेसिंग द सेल्फ इन बंगाली वूमन आटोबायोग्राफीज़ इन द ट्वेंटिएथ सेंचुरी,साऊथ एशिया रिसर्च www.sagepublications.com,खंड 30 (2)पृष्ठ 105-123
[iv] ज्योतिर्मयी देवी ,मेरे लेखन का प्रारंभ –चिरंतन नारी जिज्ञासा :सेकालीन दिनेर स्मृति ,अनन्या प्रकाशन ,कलकत्ता ,अंग्रेजी अनुवाद रिमली भट्टाचार्य ,1995
[v] सरलादेवी –जीबोनेर झरा पता,द मेनी वर्ल्डस ऑफ़ सरलादेवी : अ डायरी.अंग्रेज़ी में अनुवाद सुखेंदु राय, सोशल साइंस प्रेस, 2010
[vi] एम् .ई कुजिंस,ए इंडियन वूमन हुड टुडे ,किताबिस्तान 1947 ,पृष्ठ 56
[vii] सुमित सरकार,द स्वदेशी मूवमेंट इन बंगाल 1903 -8,पीपुल्स पब्लिशिंग हॉउस,दिल्ली ,पृष्ठ 305
[viii] द मेनी वर्ल्डस ऑफ़ सरलादेवी : अ डायरी. अंग्रेजी में अनुवाद सुखेंदु राय ,सोशल साइंस प्रेस, 2010,पृष्ठ.3
[ix] द मेनी वर्ल्डस ऑफ़ सरलादेवी :अ डायरी. अंग्रेज़ी में अनुवाद सुखेंदु राय, सोशल साइंस प्रेस, 2010,पृष्ठ.35
[x] जीबनस्मृति, रबीन्द्र रचनावली,खंड 10, बंगाल सरकार,1368,विक्रम संवत,पृष्ठ. 9,15
[xi] द मेनी वर्ल्डस ऑफ़ सरलादेवी : अ डायरी .अंग्रेजी में अनुवाद सुखेंदु राय ,सोशल साइंस प्रेस ,2010,पृष्ठ.36
[xii]व्हाटेवर हैपंड टू वैदिक दासी, उमा चक्रवर्ती ; रीकास्टिंग वीमेन, एसेज इन कोलोनियल हिस्ट्री संपादन–कुमकुम सांगरी और सुदेश वैद, जुबान प्रकाशन 1989,पृष्ठ. 82-83
[xiii] रामचंद्र गुहा , ‘गांधी- द इयर दैट चेंज्ड द वर्ल्ड’पृष्ठ 144
[xiv] सरलादेवी चौधरानी ,जीबोनेर झरापाता,देश पत्रिका में प्रकाशित,सन1944 -45
[xv] गांधी का पत्र –नवम्बर 1920 को ,गाँधी वांग्मय ,खंड 18 में संकलित
[xvi] व्हाटेवर हैपंड टू वैदिक दासी ,उमा चक्रवर्ती ;रीकास्टिंग वीमेन ,एसेज इन कोलोनियल हिस्ट्री संपादन ,कुमकुम सांगरी और सुदेश वैद ,जुबान प्रकाशन 1989,पृष्ठ 86)
[xvii] प्रवर्जिका आत्मप्रण ,सिस्टर निवेदिता ऑफ़ रामकृष्ण –विवेकानंद ,पहली बार प्रकाशित 1961,पुनर्मुद्रण कलकत्ता :रामकृष्ण शारदा मिशन 1992,पृष्ठ. 245
[xviii] गांधी का पत्र सरलादेवी को ,30.4.1920, गाँधी वांग्मय खंड17 पृष्ठ. 358-59, गांधी- द इयर दैट चेंज्ड द वर्ल्ड, रामचंद्र गुहा , पृष्ठ 162
[xix]गांधीजी का पत्र हर्मन कैलेनबैक को 10 अगस्त 1920 को ,गाँधी वांग्मय खंड 18, पृष्ठ. 142
इस पत्र में गांधीजी लिखते हैं –“..और अपने बारे में क्या लिखूं ?फिलहाल तो कुछ नहीं लिखूंगा .देवदास मेरे साथ है .वह हर दिशा में निरंतर प्रगति कर रहा है .अभी मैं देवदास और एक दूसरे विश्वस्त साथी के साथ यात्रा कर रहा हूँ .उसे देखोगे तो उसपर मुग्ध हो जाओगे .बात यह है कि इस महिला से मेरा बहुत घनिष्ठ संपर्क हो गया है .वह अक्सर यात्रा में मेरे साथ रहा करती है .उसके साथ मेरे संबंधों को किसी परिभाषा में नहीं बाँधा जा सकता.मैं उसे अपनी आध्यात्मिक पत्नी कहता हूं.एक मित्र ने हमारे संबंधों को बौद्धिक विवाह कहा है .मैं चाहता हूँ तुम उससे मिलो.मैं अपने लाहौर और पंजाब के निवास काल में कई महीने उसीके घर ठहरा था….
[xx] गांधी को राजगोपालाचारी का पत्र ,16 जून 1920, संकलित गोपालकृष्ण गांधी की पुस्तक माई डियर बापू, नयी दिल्ली पेंगुइन 2012,पृष्ठ. 37-39
[xxi] राजगोपालाचारी का पत्र गांधीजी को 16जून 1920 ,गोपालकृष्ण गाँधी द्वारा सम्पादित माई डिअर बापू ,नयी दिल्ली ,पेंगुइन 2012 ,पृष्ठ 37-39
[xxii] ‘गांधी- द इयर दैट चेंज्ड द वर्ल्ड’ पृष्ठ. 162 Almost all of Sarala’s own letters to Gandhi were destroyed by Gandhi’s family. But even from one side of the correspondence we can see how intimate the friendship was.
[xxiii] गाँधी का पत्र सरलादेवी को ,1.5.1920 को “..और अब तुमसे एक चीज़ मांगूंगा .मैं जानता हूँ तुमने मुझे बहुत कुछ दिया है .लेकिन जैसे जैसे प्राप्त होता गया है वैसे वैसे भूख बढ़ती गयी है .तुमने कहा कि आश्रम में काम करते हुए तुमको संकोच होता है .क्या तुम वहां घरेलू काम-काज करना शुरू करके इस संकोच भाव से छुटकारा पाने की कोशिश नहीं करोगी ?अगर सिर्फ मेरी ही खातिर तुम ऐसा करो तब भी कोई हर्ज़ नहीं.यहाँ हमारे दृष्टिकोण में परिवर्तन होने का सवाल का सवाल नहीं उठता .सवाल सिर्फ अपनी अनिच्छा पर काबू पाने का है .तुम महान हो नेक हो ,लेकिन जबतक तुममें घरेलू काम –काज करने की क्षमता नहीं आती ,तब तक तुम स्त्री के रूप में पूर्ण नहीं हो सकतीं.तुमने औरों को इसका उपदेश दिया है .अतः जब लोगों को यह मालूम होगा कि तुम्हारी उम्र और हैसियत की महिला भी घरेलू काम –काज करने में बुरा नहीं मानती तो तुम्हारे उपदेश का ज्यादा असर होगा .सस्नेह तुम्हारा विधि –प्रणेता (अंग्रेजी से)महादेव देसाई की हस्तलिखित डायरी से ,सौजन्य नारायण देसाई संकलित ,सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय , खंड 17,पृष्ठ 400 -401
[xxiv] भारती रे, अर्ली फेमिनिस्ट इन कोलोनियल इंडिया ,चित्रा देब, वूमेन आफ द टैगोर हाऊसहोल्ड –नयी दिल्ली पेंगुइन इंडिया 2016, सुनील गंगोपाध्याय का फर्स्ट लाइट, बंगाली से अंग्रेजी अनुवाद अरुणा चक्रवर्ती ,नयी दिल्ली पेंगुइन इंडिया 2001 cited on1.1.2021
[xxv] https://mainehumanities.org/lets-talk/the-journey-inward-womens-autobiography/cited on1.1.2021
[xxvi] इज़ाडोरा डंकन द जर्नी इनवार्ड,वूमन ऑटोबायो ग्राफी ,माय लाइफ https://mainehumanities.org/lets-talk/the-journey-inward-womens-autobiography/cited on1.1.2021
[xxvii] सुतनुका घोष : इमेजीनिंग लव इन अर्ली ट्वेंटिएथ सेंचुरी बंगाल ; गोलोकधांधा एंड साबित्री राय स. मेघना –पद्मा : इंटरनेशनल जर्नल ऑफ़ बंगाल स्टडीज ,वॉल्यूम ;२-3,2011-2012,पृष्ठ. 244-258
[xxviii] मणिकुंतला सेन ,शे दिनेर कथा,नबपत्र प्रकाशन,कोलकाता,1982
[xxix] मणिकुंतला सेन इन सर्च ऑफ़ फ्रीडम : एन अनफिनिश्ड जर्नी ,कलकत्ता; स्त्री2001,पृष्ठ 23
28.मणिकुंतला सेन इन सर्च ऑफ़ फ्रीडम :एन अनफिनिश्ड जर्नी ,कलकत्ता ;स्त्री -2001,पृष्ठ 120
[xxxi] मणिकुंतला सेन ,इन सर्च ऑफ़ फ्रीडम : एन अनफिनिश्ड जर्नी ,कलकत्ता; स्त्री -2001,पृष्ठ.
[xxxii] मणिकुंतला देवी,शेदिनेर कथा,पृष्ठ. संख्या 83
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गरिमा श्रीवास्तव
प्रोफ़ेसर,भारतीय भाषा केंद्र
जे एन यू, नई दिल्ली.
धन्यवाद अरुण जी ,लेख को समालोचन पर स्थान देने के लिए .इतनी कलात्मकता के साथ बहुत कम ही पटल, लेखों का प्रस्तुतीकरण करते हैं .बहुत बहुत आभार
बहुत महत्त्वपूर्ण लेख और उसकी सुरुचिपूर्ण प्रस्तुति ! गरिमा जी और आप को बधाई !
हमेशा की तरह गरिमाजी का यह आलेख भी उतना ही महत्वपूर्ण और संवेदनशील भी। उनका लेखन हमारे लिए नए क्षितिज खोलता है।
हर आत्मकथा अपने समय का एक जीवित इतिहास होती है। खासकर कोई जीवन अगर घटनाओं से भरा हो, तो उसे पढ़ते हुए मन पर फ्लैश बैक में दिखाई जा रही एक इतिवृत्तात्मक फिल्म जैसा प्रभाव महसूस होता है। भारतीय पुनर्जागरण में बंगाल के तत्कालीन समाज सुधार आंदोलन की ऐतिहासिक भूमिका रही है।इसका प्रभाव पूरे भारतीय समाज पर पड़ा।सदियों से दबी हुई स्त्री-चेतना में विद्रोह की सुगबुगाहट भी इसके बाद जगह-जगह से फूटती दिखायी पड़ी। बंगाल के सामंती समाज की स्त्रियों में तमाम रूढ़ मान्यताओं से मुक्ति की छटपटाहट इन आत्मकथाओं में देखी जा सकती है। सरला चौधरी की आत्मकथा में गाँधी जी के संस्मरण काफी रोचक हैं और अंतरंग भी।गरिमा जी एव समालोचन को बधाई !
स्त्रियों का अपना निज और अपना संघर्ष , जिसका लेखा जोखा प्रस्तुत करती है उक्त आलेख। जो दबी और ढंकी रही उसका दायित्व कुछ स्वयं इन स्त्री आत्मकथाकारों के कंधों पर रहा और कुछ पितृसत्तात्मक समाज की सोच के कारण। परंतु निज की अभिव्यक्ति के लिए जो मार्ग सरलादेवी एवं मणिकुंतला सेन जैसी राजनीतिक , सामाजिक कार्यकर्ताओं ने अपनाया वह आगे की पीढ़ी के लिए आज भी कारगर है, प्रासंगिक है। उन्होंने आनेवाली पीढ़ी के लिए सारी बाधाओं से भरे रास्ते से कांटें को चुनकर सरल और सुगम बनाया। यही क्या कम है कि इतिहास में उनके नाम हमें आज भी दर्ज मिलते हैं। यदि वे अपने निज को कहने में कहीं मौन हैं तो हम सब जानते हैं कि उस समय का समाज कैसा था , जहां स्त्री का बोलना ही किसी अपराध से कम नहीं। इस बात का खण्डन भी किया है आपने अपने इस लेख में। इस लेख से यह भी स्पष्ट है कि चाहे तब का समय हो या अब का, स्त्रियां कितनी ही शिक्षित और सशक्त हो जाएं आज भी उन्हें और उनके कामों को देखने के लिए पुरुषवादी चश्में का ही अधिक प्रयोग किया जाता है। बहुत ही महत्वपूर्ण और संवेदनशील विषय पर आधारित है उक्त लेख मैम। आपको बहुत– बहुत बधाई। आप ऐसे ही अपनी सक्रियता बनाएं रखें मैम।
मैंने इसे न सिर्फ पढ़ा बल्कि बहुत से मित्रों से भी पढ़ने को कहा। गरिमा श्रीवास्तव का यह एक शानदार काम है। यह पुस्तिका के रूप में भी आनी चाहिए। नई पीढ़ी के हिंदी आलोचकों में इतना परिश्रम, अध्ययन और दृष्टि अब कम ही दिखाई देता है।
गरिमा जी का बेहतरीन लेख पढ़ा । शोधपरक लंबे लेख की इतनी सुव्यवस्थित प्रस्तुति के समालोचना पत्रिका को साधुवाद ।