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Home » गोरखनाथ की ‘सबदी’ का कायांतरण : बोधिसत्व

गोरखनाथ की ‘सबदी’ का कायांतरण : बोधिसत्व

हिंदी कविता की जड़े देखनी हो तो सिद्धों-नाथों की कविताओं को पढ़ना चाहिए. गहरी और फैली हुईं. ख़ासकर गोरखनाथ को. यहीं से भक्तिकाल की ज़मीन तैयार हुई जिसमें कबीर जैसा वटवृक्ष तैयार हुआ. और बाद में यह आधुनिक हिंदी कविता के कवियों में फुनगी फेंकता रहा. कवि बोधिसत्व ने गोरखनाथ की कुछ कविताओं का कायांतरण किया है. इक्कीसवीं सदी में दसवीं शताब्दी की यह वाणी है. आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने भारत में गुरु गोरखनाथ को आदि शंकराचार्य के बाद दूसरा प्रभावशाली महापुरुष कहा है. बोधिसत्व ने इसे बड़े सलीके से संभव किया है. मूल अर्थ भी अक्षुण्ण है और समकालीन अर्थात भी समाने आता है. प्रस्तुत है यह ख़ास अंक.

by arun dev
December 20, 2023
in कविता
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गोरखनाथ की ‘सबदी’ का कायांतरण : बोधिसत्व
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गोरख सबद प्रबोध
गोरखनाथ की ‘सबदी’ का कायांतरण

बोधिसत्व 

1
सीषि साषि बिसाह्या बुरा। सुपिनै मैं धन पाया पड़ा ।
परषि परषि लै आगे धरा। नाथ कहै पूता षोटा न षरा॥
गोरखबानी, सबदी-7

सांसारिकता की शिक्षा दीक्षा लेकर
शिष्यों ने व्यापार बुरा किया
स्वप्न में पाए पराए धन को
अपनी कमाई समझा

उस स्वप्न के धन को जांच परख कर
संसार के आगे रखा
अपनी उपलब्धि के रूप में!

गोरखनाथ अपने शिष्यों से कहते हैं
बेटों यह स्वप्न धन ना खरा है ना खोटा है
यह तो मात्र स्वप्न है.

सांसारिकता का ज्ञान-धन भी
केवल स्वप्न है मात्र
जिसे अर्जित कर भ्रम में भटकना पड़ता है

ऐसे व्यर्थ अर्जन पर भी
शिष्यों को प्रतीत होता रहता है
कि जीवन में थोथी सीख सुफल है!

 

साधारण अर्थ :
सीख-साखकर बुराई पाकर स्वप्न देखने वाले ने परख-परखकर अपने पास धन बटोर लिया. परंतु नाथ कहते हैं, हे पूता (शिष्य)! वह धन खोटा है न खरा.

 

2
कै मन रहै आसा पास । कै मन रहै परम उदास।
कै मन रहै गुरु कै ओले। कै मन रहै कांमनी कै षोले।।
गोरखबानी, सबदी-172

मन की गति विचित्र है
कभी तो आशा से बँध कर उड़ता है अम्बर में
कभी उदास
यहाँ वहाँ भटकता रहता है.

तो कभी वह कामिनी के रूप वन में
छिप कर विश्राम करता है.

किंतु भूले भटके जब कभी वह
गुरु के यहाँ गिरवी हो
उसकी शरण में टिक जाता है
तो मन की गति परिवर्तित हो जाती है.

गुरु के यहाँ गिरवी होते ही
वह स्त्री के रूप वन
और उदासी के महा बंधन से मुक्त हो जाता है
और विरक्ति का परम लाभ
उसके जीवन में जुड़ जाता है.

 

साधारण अर्थ:
मन कभी तो आशा से बँधा रहता है, कभी विरक्त अवस्था में रहता है. कभी वह कामिनी में विश्राम लेता रहता है तो कभी गुरु की शरण में रहता है. गुरु की दया से वह परम विरक्ति लाभ प्राप्त करता है.

 

3
राति भई अब रात्रि गई बालक एक पुकारे ।
है कोई नगर में सूरा बालक का दुःख निबारे।।
गोरखबानी, सबदी-262

कभी लगता है रात हो गई है
सब कुछ अंधकार से घिर जाता है
फिर अचानक लगता है रात बीत गई है
अंजोर प्रतीत होता है आस-पास.

शिशु-दृष्टि से देखो तो
ऐसा ही दिखता है संसार
अंधकार की राख में प्रकाश लिपटा है
उजाले ने अंहियारे का जिरह-बख्तर पहन रखा है!

किसी अबोध को आत्म बोध कराने के लिए
संसार नगर में कोई महायोगी हो
तो मेटे द्वंद्व दुविधा

यह मन अबोध
कब तक अंधकार को प्रकाश
और प्रकाश को अंधकार समझता
बावले सा दुःख फंद में उरझा रहेगा.

 

साधारण अर्थ:
यह अज्ञानमयी रात्रि है. आधा समय बीत जाने पर अज्ञान में लिपटी शुद्ध आत्मा पुकार रही है कि अज्ञान के अंधकार से उबारने के लिए किसी समर्थ योगी गुरु के ज्ञान की आवश्यकता है.

 

4
गोरष कहै हमारा षरतर पंथ, जिभ्या इन्द्री दीजे बंध।
लोग जुगति में रहे समाय, ता जोगी को काल न षाय।।
गोरखबानी, सबदी-220

कठिन कठोर है अपना पंथ
सहज नहीं है इस पर पग धरना
खुरदरा उबड़-खाबड़ है रास्ता
तृष्णाओं की श्रोत वाणी को बांध कर रखना होगा
इन्द्रियों पर बाड़ लगानी होगी.

जो मेरे मार्ग पर चलने आए
शब्द और स्वाद के अनर्थ से बचे
योग की युक्ति में
समेट कर रखे स्वयं को.

महागुरु गोरख कहते हैं
युक्ति की ढाल से रक्षित योग-पथिक को
काल भी क्षरित नहीं कर सकता
सर्वभक्षी महाकाल भी
उसे खा-पचा नहीं सकता!

 

साधारण अर्थ:
गोरख कहते हैं-हमारा पंथ अत्यंत कठिन है. तृष्णा और वाणी और इंद्री को काबू में रखना चाहिए. जो लोग इस युक्ति से चलते हैं, उन्हें काल नहीं सताता!

 

5
जे आसा तो आपदा जे संसा तो सोग।
गुरमुषि बिना न भाजसी गोरष ये दून्यों बड़ रोग।।
गोरखबानी, सबदी-235

जहाँ से आशा है वहीं से आपदा है
या कहो कि आशा ही आपदा का स्रोत है
जिससे राग है उससे ही विराग की संभावना है
जहाँ संशय है वहाँ से ही शोक का सोता फूट सकता है.

आशा और दुविधा वाली सोच से
आफत और मातम जैसे बड़े रोग मिलते हैं
शोक और विपत्ति का कारण हैं
उम्मीद और वहम!

महागुरु से ज्ञान पूर्ण प्रकाश पाए बिना
ये दोनों विकट विकराल व्याधियाँ
दूर भागती नहीं हैं
गोरख का यही ज्ञान उपदेश है.

 

साधारण अर्थ:
आशा लगाने से आपदा आती है. द्वैत बुद्धि से शोक होता है. ये दोनों बहुत बड़े रोग हैं, जो गुरु की शिक्षा के बिना दूर (नष्ट) नहीं होते.

 

6
जोगी सो जे मन जोगवै, बिन बिलाइत राज भोगवै।
कनक कांमनीं त्यागें दोइ, सो जोगेस्वर निरभै होइ।।
गोरखबानी, सबदी -102

योग के स्नेह से संचित रखें मन
बचाए रखें संसार की दग्धता से उसे
जैसे दीपक की लौ
को तेज वायु से बचाया जाता है.

ऐसा योग जो स्वराज्य के साथ
पर राज्य में भी प्रभाव पाए
मान बढाए.

ऐसा करने से बिना विलुप्त हुए
बिना पाए भी बड़े राज्य का
सम्राट होकर राज्य करता है योगी
राज्य वह ब्रह्म रंध्र का
जो उजागर भी है और लुप्त भी!

करना सिर्फ इतना है
कनक और सुवर्ण कलेवर वाली काम संचारिणी
दोनों की छटा और आकर्षण से निर्लिप्त रहे
त्याग दे संपदा और काया संसर्ग का लोभ
वही योगी हो सकता है निर्भय योगेश्वर
इस असंभव संसार में सम्भव!

 

साधारण अर्थ:
जोगी वह जो मन की रक्षा करे. ब्रह्मरंध्र में बिना देश के ब्रह्मानुभूतिमय बड़े राज्य का उपभोग करे. जो कनक (सोना) और कामिनी को त्याग देता है. वह योगेश्वर हो जाता है.
विलाइत-विदेश. प्राचीन काल में जब लोगों को बाहर का ज्ञान कम था तब वे स्वराज्य को छोटा समझते थे और बाहर के राज्यों को बड़ा. इसी से प्रत्येक देश में विदेशियों का बड़ा आदर होता था.


7

जोगी हवै परनिंदा झषै। मद मांस अरु भांग न भषै।
इकोत्तरसै पुरिषा नरकहि जाई। सति सति भाषंत श्री गोरष राई ।।
गोरखबानी, सबदी-164

जो नहीं करना है वह करता है
जोग में रमने की जगह
पर का ध्यान धर कर
करता है उसकी निंदा!

जो निषिद्ध है उस
मदिरा, मांस से काया को जीवित रखता है
शक्ति के लिए योग की जगह
भांग के मद का आश्रय लेता है.

योगियों के योगी विचार कर कहते हैं
सत्य सत्य ऐसा कर्ता
नरक में जाता है
अपने इन्हीं यत्नों से
वह स्वयं के लिए नरक का मार्ग
निर्माण करता है!

 

साधारण अर्थ:
योगी होकर परनिंदा करता है. मद्य, मांस, भांग, धतूरा आदि नशे की चीजों का सेवन करता है. गोरख कहते हैं कि वह निश्चय ही नरकगामी होता है.

 

8
जोगी सो जो राषै जोग। जिभ्या यंद्री न करै भोग।
अंजन छोडि निरंजन रहै। ताकू गोरष जोगी कहै ।।
गोरखबानी, सबदी-230

जो योग की खेती को
इंद्रियों की लपट से जल जाने देता है
जो अपनी उपज की रक्षा नहीं करता
वह कैसा व्यर्थ का योगी.

योग की फसल को खा जाती है
तृष्णा और वाणी
अनियंत्रित इंद्रियाँ
उस फसल को स्वाहा कर देती हैं
जरा सी दुविधा से.

जो अंजन आँख से दिखती है वह माया ठगनी है
उससे दूर रहे जाग्रत रह कर
जो अलक्षित निरंजन ब्रह्म है उसमें लीन रहना
यही है गोरख योगी का योग
ऐसे यति को ही गोरख मानते हैं
सच्चा योगी!

 

साधारण अर्थ:
योगी वह है जो योग की रक्षा करता है. जिह्वा आदि इंद्रियों से भोग नहीं करता. जो माया (अंजन) को छोड़कर ब्रह्म (निरंजन) में लीन होकर रहता है, उसी को गोरख जोगी कहते हैं.

 

9
लाल बोलंती अम्हे पारि उतरिया, मूढ़ रहे उर वारं।
थिति बिहूणां झूठा जोगी, ना तस वार न पारं ।।
गोरखबानी, सबदी -104

जो योग्य पंथी हैं वे कहते हैं
हम पार उतर गए भव सागर के
अचल योग की नाव पर होकर सवार!

किंतु संसार की महिमा में मुग्ध
मूढ़ मति संसार को पार नहीं कर सके.

जो अस्थिर चित्त दिखावे का जोगी है
उसे दोनों किनारे नहीं मिलते
न वह उस पार मुक्ति का द्वार खोल पाता है
न इस पर संसार के संभार को भोग पाता है.

वह डूबता है दुविधा के बीच
माया जल की धार में
न लोक मिलता है न मोक्ष
न गृही बन पाता है
न योग सध पाता है ऐसे चंचल चित्त से!

 

साधारण अर्थ:
लाल कहते हैं-हम भवसागर से पार उतर गए किंतु मूढ़ (संसारी) लोग उसे पार नहीं कर सके. जो स्थिरता के बिना झूठा योगी है उसे न वह किनारा मिलता है, न यह किनारा मिलता है, वह मझधार में ही डूब जाता है. उसका यह लोक भी नष्ट हो जाता है और उसे मोक्ष भी नहीं मिल पाता है.

 

10
स्वामी काची बाई काचा जिंद’। काची काया काचा बिंद।
वयंकरि पाकै क्यूं कर सीझै। काची अगनि नीर न षीजै ।।
गोरखबानी, सबदी -156

जिसके तुम स्वामी हो वह वायु कच्ची है
वह जीवन कच्चा है
कच्ची है काया तेरी
कच्चा तेरा आत्म बीज!

वायु कच्ची होने से जो तेरी आत्मा का जो प्राण
संचार है वह विकृत है
तुम एक अर्ध पक्व अशुद्ध जीवन जी रहे हो
और तुम्हें पूरन पुरुख सिद्ध करने वाला
तुम्हारा बीज भी निष्फल होगा
क्योंकि वह भी अपरिपक्व है.

यह सब तभी कच्चे से पक्का होगा
जब तुम इसे योग की शुद्ध अग्नि में
सिझाओगे अपने कच्चे पन को
गीली और कच्ची आग से
नहीं पकता नीर भी!

महागुरु से ध्यान की आँच लेकर
अपने कच्चे पन को
बदलो समय रहते पक्के पन में!

 

साधारण अर्थ:
हे स्वामी! वायु कच्ची है, जीवन कच्चा है, शरीर कच्चा है और शुक्र भी कच्चा है. बिना योगाग्नि से सिद्ध हुए कच्ची अग्नि से नीर पक नहीं सकता.

 

11
आवति” पंच तत कूं मो है जाती छैल जगावै।
गोरथ पूछैं बाबा मछिंद्र या” न्यंद्रा कहाँ थै आवै ।।
गोरख-बानी, सबदी-175

जब वह आती है मोहिनी निद्रा
अंग शिथिल हो जाते हैं
लुप्त हो जाती है चेतना
पाँच के पाँच तत्व इंद्रिय के
नहीं सम्हाल पाते
उसके इंद्रजाल को
वह कर देती है मूर्छित
पराजित!

और वही जब त्याग कर दूर होती है
छैला सी जगाती जाती है
जैसे वही थी ही नहीं कहीं
आस-पास!

यह मायाविनी नींद
आती है कहाँ से है जाती कहाँ है
मद कारिणी

इसका रहस्य गोरख अपने गुरु मछींद्र से
जानने के लिए उत्सुक हैं!

 

साधारण अर्थः
गोरखनाथ मत्स्येन्द्रनाथ से पूछते हैं कि हे बाबा जो आती हुई पांचों तत्त्वों (शरीर) को मूर्छित कर संज्ञा शून्य कर देती है और जाती हुई चेतना (छैल, ‘रसिया) को जगा देती है, वह निद्रा आती कहाँ से है .

 

12
सांइ सहेली सुत भरतार सरब सिमट कौ एकौ द्वार।
पैसता पुरसि निकसता पूता ता कारणि गोरष अवधूता।।
गोरखबानी, सबदी-242

सभी को स्त्री ने जना!
क्या गुरु, क्या स्वामी, क्या सखी
क्या पुत्र क्या पति.

सब हैं एक स्त्री के जाए.
पुरुष का साथ पाए
प्रकृति उपजाए

किंतु स्त्री का साथ मिल भी जाए
तो भी पुरुष जन्म न दे पाए!

यह मात्र सत्य सूचना नहीं
गुरु गोरख के प्रकृति से
पराजित हो जाने का प्रमाण है.

योगी किसान है खेत नहीं स्वयं
किंतु नारी खेत है उर्वरता भरी
वहाँ उपजता है तम और अज्ञान भी.

अवधूत गोरख ने जब यह रहस्य जान लिया
तो हार मान कर योग की खेती के लिए
वैराग्य पथ पर चलना ठान लिया!

 

साधारण अर्थ:
सहेली, बेटा और पति सभी एक द्वार से (नारी से) निकलते हैं. पुरुष के प्रयासों से पुत्र का जन्म होता है (नारी उसको जन्म देती है). उसे मात मानकर अवधूत गोरख ने वैराग्य ले लिया.

 

13
सबद एक पूछिबा कहौ गुरु दयालं, बिरिधि थै क्यूं करि होइबा बालं।
फूल्या फूल कली क्यूं होई, पूछै कहै तौ गोरष सोई ।।
गोरखबानी, सबदी-86

एक रहस्य पूछता हूँ
एक शब्द जानना चाहता हूँ
गुरु ज्ञानी बताएँ सार-सत्व!

वृद्ध वय की केंचुली उतार कैसे
बालक पन में लौट आए
वह क्या मंतर है
जो बुढ़ापे की उलझन को
बालपन की सरल सुलझन में बदल दे?

पुष्प खिल कर अपनी सुगंध और रंग
भक्ति पराग सब खो चुका है
वह कैसे हो जाए अनखिला पुष्प
जैसे खिलने के पहले था मात्र कली?

इसका उत्तर दे सकते हैं
मात्र ज्ञानी गुरु गोरख
अज्ञान की जर्जर जीर्णता
वे ही धो कर हटा सकते हैं
बना सकते हैं योग की सुगंध और भव्यता युक्त
नव पुष्प नव कलिका
वृंत पर मुरझा रहे पुष्प को
वे ही कर सकते है नवल!
अनखिल!

 

साधारण अर्थ:
हे दयालु गुरु! हम आपसे एक प्रश्न पूछते हैं, इसका उत्तर दीजिए. वृद्ध से बालक कैसे हो सकते हैं? जो फूल खिल चुका है, वह कली कैसे हो सकता है? इसका जो कोई उत्तर दे, वही गोरखनाथ है.

 

14
सुणौ हो देवल तजौ जंजालं, अमिय पीवत तब होइना बालं।
ब्रह्म अगनि सींचत मूलं फूल्या फूल कली फिरि फूलं ।।
गोरखबानी, सबदी -87

सुनो!
छोड़ दो देवल को मंदिर को तज दो
जिसे देवल में स्थापित किया उस देव को तज दो
देव-देवालय-मूरत-थापन जंजाल है
इस फंदे से निकलो.
ज्ञानामृत पीकर मुक्त हो जाओ
जीर्ण वृद्धत्व से
पा जाओ सरल उत्फुल्ल बालापन
निर्मल मन
आत्मा के वृक्ष के शुष्क मूल को
ब्रह्म अग्नि जल से सिंचित करो.

काया कल्प होगा पुष्प का
वही योग पराग वही वैभव सुगंधि
वही कालिका का नव वैभव
वही ज्ञान योग निर्मली.

 

साधारण अर्थ:
हे नाथ! संसार के जंजाल को छोड़ो. योग की युक्ति से अमृत का पान करो तो बालक हो सकते हो. मूल को ब्रह्माग्नि से सींचने पर जो फूल खिल चुका है, वह कली हो सकता है.

 

15
अवधू बूझना ते भूलना नहीं अनबूझ मन हारै।
सूने जंगल भटकता फिरही, मारि लिहीं बटमारै।।
गोरखबानी, सबदी-150

हे अवधूत
जब एक बार बूझ लिया ब्रह्म का मर्म
तो हो जाता है पूर्ण प्रबुद्ध
ऐसा पंथी कभी भूलता नहीं सच्चा गुरुपथ.

जिसे उसके मुंड मेधा को बंधन में रखने वाले
अज्ञान केशों से मुक्त मुंडित कर बनाया गया है
शिष्य गूढ़ सीख देकर वह
ग्रहण करता है गुरु से गुण उचित.

जिसे नहीं मिलते
गूढ़ का बोध कराने वाले गुरुज्ञानी
वह भ्रमित भटकता रहता है
ग्रहण करता है त्याज्य भी उच्छीष्ट
मलिन अवगुण से भरता रहता है झोली.

सुपंथ छोड़ कर अनदेखा कर बैठता है
अलख पथ
और ठग बन कर गहरे गुरु
वध कर देते हैं ऐसे भटके
बौराए अविवेकी पंथी का.

 

साधारण अर्थः
हे अवधू! जिसने ब्रह्म को समझ लिया है, वह भूलता नहीं है. जिसे ने मूँडकर चेला बनाया है, वह गुण ग्रहण करता है. जिसने गुरु की शरण नहीं ली वह भ्रम में पड़ जाता है और अवगुण धारण कर लेता है. वे मार्ग भूल जाते हैं जहाँ ठग उन्हें मार डालते हैं.

 

16
अवधू नव घाटी रोकि ले बाट । बाई बणिजै चौसठि हाट।
काया पलटै विचल बिध’ । छाया बिबरजित निपजै सिध ॥
गोरखबानी, सबदी-50

अपने अंतर की शक्तियों को व्यर्थ
होने से रोको
क्षरण के जितने स्रोत हैं उनकी मुहेंड़ी बंद करो

ऐसा करते ही ज्ञान के सभी
जोड़ पर होने लगेगा लेन देन व्यापार
चौसठ संधियों पर होगा योग वायु का संचार

यह सब करेगा कायाकल्प
ऐसे कि शरीर स्वयं हो जाएगा प्रकाश
प्रकाश जिसकी अपनी परछाई नहीं होती

जो अपनी आत्मा और काया की
परछाई को समेट देता है
वही परम् जोगी होता है.

परछाई अर्थात् भ्रम की मिलती जुलती आकृति
जिसमें देखने और करने की दृष्टि नहीं होती
केवल कर सकती है नकल.

 

साधारण अर्थः
हे अवधूत! शरीर के नव द्वारों को बंद करके वायु के आने-जाने वाले मार्ग रोक लो. इससे चौंसठों संधियों में वायु का व्यापार होने लगेगा. इससे निश्चय ही कायाकल्प होगा. जिसकी छाया नहीं पड़ती, वह साधक सिद्ध हो जाएगा.

 

17
अवधू दंम कौं गहिबा उनमनि रहिबा ज्यूँ बाजबा अनहद तूरं ।
गगन मंडल मैं तेज चमंकै, चंद नहीं तहां सूरं ॥
गोरखबानी, सबदी -51

योग और प्राणायम से
प्राण के सारे आयाम नियंत्रित रखें
आयाम रहें नियंत्रित तो मन की उन्मन स्थिति
होती है सिद्ध.

मन के अंतर में निर्दोष अनाहत
की नाद गूँजने बजने लगती है
उस नाद का शब्द
सुनता है ब्रह्म भी निर्विघ्न.

और फिर वहाँ जहाँ रहता है तेरा ब्रह्म
वह प्रकाश से आभासित हो उठता है
जहाँ है ब्रह्म
वहाँ न रहे सूर्य चंद्र जैसे भौतिक प्रकाश प्रदाता
वास्तव में तेरा ब्रह्म ही है
सर्व प्रकाश निर्माता.

बताओ भला जब स्थान ही ब्रह्म के लिए है
तो अंधकार वहाँ कैसे रहेगा
वहाँ की प्राणवायु में ब्रह्म का तेज बहेगा
निरंतर अंतर उन्मन रहेगा.

 

साधारण अर्थः
हे अवधूत! प्राणायाम द्वारा प्राण को बस में करना चाहिए. इससे उन्मनावस्था सिद्ध होगी. अनाहत नाद रूपी तूरी बज उठेगी और ब्रह्मरंध्र में बिना सूर्य और चंद्रमा के ब्रह्म का प्रकाश चमक उठेगा.


18

जहां गोरष तहाँ ग्यान गरीबी दुंद बाद नहीं कोंई।
निसप्रेही निरदावै षेलै” गोरष कहीयै सोई ।।
गोरख-बानी, सबदी-195

जहाँ गुरु की छाया है
वहाँ ज्ञान और विपन्नता का निरंतर
रहता है अभाव.

वहाँ न कोई द्वंद्व न कोई दुविधा
न कोई वाद विवाद न कोई
माया जनित असुविधा.

गोरख जोगी है सच्चा
जिसकी न कोई कामना
न मोक्ष की तृष्णा न तप की सफलता का लोभ
जो खेले निर्लोभ
निस्पृह रहते हैं.

न बहाते हैं न बहते हैं जग-प्रवाह में
न डूबते हैं न डुबाते हैं योग-जल थाह में
न भूखे हैं न पूर्ण तृप्ति के सताए हैं.

निर्लिप्त रहना
निर्मल कहना.

 

साधारण अर्थः
जहाँ गोरख है, वहाँ ज्ञान और ज्ञानोद्भव दैन्य रहता है. वहां मायाकृत द्वैत भावना (द्वंद्व) नहीं होती और न वाद-विवाद ही होता है. गोरख अथवा परम योगी वह है जिसे कोई कामना (स्पृहा) न हो और जो बिना फल की इच्छा किये हुए निष्काम कर्म करे, (बिना दांव के खेले.

 

19
हिरदा का भाव हाथ मैं जाणिये, यहु कलि आई षोटी।
बदंत गोरष सुणिरे अवधू करवै होई सु निकसै टोटी।।
गोरखबानी, सबदी -122

 

कर्म हाथ करता है
लेकिन उसे करने का संकेत
हृदय देता है.

तुम्हारे कर्म हाथ से नहीं हृदय से संचालित होते हैं
यह कलियुग की सबसे बड़ी खोट है
वह कर्म को स्वतंत्र नहीं छोड़ती है
सब पर हृदय बुद्धि का पहरा रखता है.

अब जैसा होगा भाव विचार हृदय का
कर्म भी वैसे ही होंगे
अंतर में जैसा जो जल होगा
वैसा ही बिंदु निथरेगा बाहर.

तो हे योगी
अपने अंतर गेडुये-गगरी के जल का सम्हाल करो
वैसा ही जल घट अंतर भरो
जो रहे निर्मल विमल.

जो निथरे तो किसी
तप्त-क्षुब्ध को करे तृप्त सहल.

साधारण अर्थः
हाथ से किए हुए कर्म में हृदय का भाव निहित होता है. यही कलियुग
का खोट है. गोरख कहते हैं कि हे अवधूत! सुनो, जो कुछ गडुवे में होता है. वही तो टोटी से बाहर निकलेगा .

 

20
हबकि न बोलिबा, ठबकि न चलिबा, धीरै धरिबा पावं।
गरब न करिबा सहजै रहिबा भणत गोरष रावं ।।
गोरखबानी, सबदी-27

हड़बड़ाकर
उतावले पन से नहीं बोलना चाहिए
ऐसे में शब्द उलझते हैं
अनाहत नाद में आती है टूटन-घुटन.

योगी को ठुमक-मटक कर
पैर पटक कर नहीं चलना चाहिए
गति में नहीं रह जाती विराट मंथरता.

चलो धैर्य के साथ
सम्हल कर रखो पैर
निर अभिमान
गर्वहीन रहो सहज.

फटफटाकर चलने से कोई यात्रा नहीं होती पूरी
अभिमान का संयोग भी
घातक है योग के लिए.

गोरख कहते हैं योगी
सरल हो तुम्हारा व्यवहार
सहज हो तुम्हारा आचार
विमल हो तुम्हारा उठन-बैठन
सुविमल हो तुम्हारा चलन-बोलन.

 

साधारण अर्थः
योगी को सोच-समझकर बोलना चाहिए. फूँक-फूँककर धैर्य भाव से कदम रखना चाहिए. अर्थात् उसे फटफटाकर और धड़धड़ाकर चले जाना नहीं चाहिए. गर्व नहीं करना चाहिए. सहज स्वाभाविक स्थिति में रहना चाहिए. ऐसा गोरखनाथ का उपदेश है.

 

21
हंसिबा षेलिबा धरिबा ध्यान अहिनिसि कथिबा ब्रह्म गियांन।
हंसै षेलै न करै मन भंग। ते निहचल सदा नाथ’ के संग।।
गोरखबानी, सबदी-8

जीवन उदास रहने के लिए नहीं
जीवन के हर रंग में रहो
हँसते खेलते हुए
ध्यान रहे रात दिन हर पल उस एक ब्रह्म का
उस ब्रह्म और उसके ज्ञान को रखो स्मरण.

तुम यदि उसको मन नहीं हटाते हो
तो तुम्हारा हर खेल
हर हँसी उसका स्मरण है फिर.

संसार के जगमग में तुम्हारा
निश्चल लगाव
तुम्हें सदैव नाथ से साथ जोड़े रहता है.
तुम्हारी निर्लिप्त सांसारिकता से
नाथ तुम्हारा त्याग नहीं देते
वे तुम्हें अपने अंतः सूत्र से सम्हाले रखते हैं.

 

साधारण अर्थः
हँसते-खेलते हुए यदि रात-दिन ब्रह्म-ज्ञान की चर्चा करें और उससे चित की दृढ़ता पर कुप्रभाव न पड़े तो गाने-बजाने वाले आदमी से नाथ भी प्रसन्न होते हैं.

 

22
अवधू मनसा हमारी गेंद बोलिये, सुरति बोलिये चौगानं ।
अनहद ले षेलिबा लागा, तब गगन भया मैदानं ।।
गोरखबानी, सबदी -76

चंचल है मन जैसे गेंद
न कोई सिर न पैर
न अपने टिकने का कोई दृढ़ आधार
एक धक्का लगा
इधर उधर लुढ़कने लग जाता है.

अपने अस्तित्व की स्मृति चौगान है
वह नियंत्रित करती है मन को
इस आत्म के होने से खेलता है ब्रह्म
तेरे साथ अनहद खेल.

और जब अनहद खेलता है
शून्य अंतर का ब्रह्मरंध्र
हो जाता है गगन सा विस्तृत क्रीड़ांगन.

अनंत तक लुढ़कती है मनसा-गेंद
इस अनहद के खेल में.

 

साधारण अर्थः
हे अवधू! मनसा हमारी गेंद है और आत्म-स्मृति चौगान. अनहद को लेकर मैं खेलने लगा. इस प्रकार ब्रह्मरंध्र मेरे खेलने का मैदान हो गया.

मूल पाठ- गोरखबानी- डॉ. पीताम्बर दत्त बड्थवाल जी की किताब से है. जो साहित्य सम्मेलन इलाहाबाद से प्रकाशित है. साधारण अर्थ में बड़्थवाल जी के साथ डॉ. गोविंद रजनीश और डॉ. कमल सिंह की किताबें संदर्भ के काम आई हैं.

बोधिसत्व

11 दिसम्बर 1968 को उत्तर प्रदेश के भदोही जिले के सुरियावाँ थाने के एक गाँव भिखारी रामपुर में जन्म.  प्रकाशन- सिर्फ कवि नहीं (1991), हम जो नदियों का संगम हैं (2000), दुख तंत्र ( 2004), खत्म नहीं होती बात(2010) ये चार कविता संग्रह प्रकाशित हैं. लंबी कहानी वृषोत्सर्ग (2005) तारसप्तक कवियों के काव्य सिद्धांत ( शोध प्रबंध) ( 2016) महाभारत यथार्थ कथा नाम से महाभारत के आख्यानों का अध्ययन (2023)संपादन- गुरवै नम: (2002), भारत में अपहरण का इतिहास (2005) रचना समय के शमशेर जन्म शती विशेषांक का संपादन(2010).सम्मान- कविता के लिए भारत भूषण अग्रवाल सम्मान(1999), गिरिजा कुमार माथुर सम्मान (2001), संस्कृति सम्मान (2001), हेमंत स्मृति सम्मान (2002), फिराक गोरखपुरी सम्मान (2013) और शमशेर सम्मान (2014) प्राप्त है जिसे वापस कर दिया.ईमेल पता- abodham@gmail.com

Tags: 20232023 कविताएँगोरखनाथगोरखनाथ की कविता और उसकी व्याख्यागोरखनाथ की कविता का अर्थगोरखनाथ की सबदीबोधिसत्व
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Comments 5

  1. शिवयोगी says:
    1 year ago

    बहुत बहुत बधाई और शुभकामनाएं,

    Reply
  2. ज्ञान चन्द बागड़ी says:
    1 year ago

    बहुत महत्वपूर्ण आलेख। भक्तिकाल को नाथ – सिद्दा साहित्य के अतिरिक्त अपभ्रंश और प्राकृत साहित्य ने भी बहुत समृद्ध किया ह। वृक्ष हो या परंपराएं उनकी जड़ें बहुत मजबूत होती हैं। बोधिसत्व जी और समलोचन को बहुत बधाई।

    Reply
  3. moosa khan ashant says:
    1 year ago

    महत्वपूर्ण पुस्तक और आपकी समीक्षा बहुत ही शानदार पढ़कर गोरखनाथ जी के विषय में बहुत कुछ समझ सका

    Reply
  4. बोधिसत्व says:
    7 months ago

    समालोचन का आभार

    Reply
  5. चंद्रेश्वर says:
    7 months ago

    गोरखनाथ की सबदी का बोधिसत्व ने बहुत ही ख़ूबसूरत अनुवाद किया है । उनकी एक -एक सबदी में गहरे पैठकर उनके मर्म को उन्होंने सामने लाने की कोशिश की है । मैंने अपने महाविद्यालय के स्नातकोत्तर, प्रथम वर्ष के पाठ्यक्रम में गोरखनाथ को पढ़ाने का काम भी किया है।जब मैंने गोरखनाथ को पढ़ाना आरंभ किया तो महसूस किया कि वे बहुत ही असर पैदा करने वाले गहरे चिंतक हैं । बोधिसत्व हिन्दी की समकालीन कविता के एक सशक्त और उल्लेखनीय हस्ताक्षर हैं, इसलिए उनके पास एक गहरी समकालीन अंतर्दृष्टि भी है । उन्होंने गोरखनाथ की हज़ार साल पहले लिखी गई अपभ्रंशकालीन सबदियों को आज की हिन्दी में जब प्रस्तुत किया है तो उसका पाठ देखते बन रहा है । ऐसा लगता है मानो गोरखनाथ हमारे समय के कवि -चिंतक हों । कहना ही होगा कि बोधिसत्व ने गोरखनाथ को समकालीनता प्रदान करने की कोशिश की है । मैं अपने अनुभव और अध्ययन के आधार पर कह सकता हूं कि बोधिसत्व का अबतक का महत्वपूर्ण काव्य लेखन एक तरफ है तो दूसरी ओर गोरखनाथ का सरल-सहज और बोधगम्य अनुवाद एक तरफ । बोधिसत्व का यह भावानुवाद कहीं से भी गोरखनाथ की सबदी और दोहे के मूल भाव पर ज़रा- सी भी आंच नहीं आने देता है। वह उसके मूल भावार्थ की गरिमा और मर्यादा की रक्षा करते हुए अपना अनुवाद प्रस्तुत करता है । बोधिसत्व ने इस अनुवाद के ज़रिए यह साबित करने की भी कोशिश की है कि अनुवाद कला को भी सृजनात्मक माना जा सकता है । बोधिसत्व ने कहीं- कहीं जो विस्तार दिया है वह भी मूल भाव से पूरी तरह से संपृक्त है । बोधिसत्व का यह भावानुवाद का कार्य निश्चय ही श्लाघनीय और कालजयी भी है । एक और बात कि इस अनुवाद के ज़रिए नयी पीढ़ी जो अपभ्रंशकालीन सबदियों की भाषा से पूरी तरह से परिचित नहीं है,वह भी गोरखनाथ के महत्वपूर्ण लेखन और चिन्तन से जुड़ सकेगी । इस बेहद महत्वपूर्ण सृजनात्मक अनुवाद कार्य के लिए बोधिसत्व का साधुवाद । हमारी शुभकामनाएं उनके साथ हैं

    Reply

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