हंसा दीप से अपर्णा मनोज की बातचीत |
डॉ. हंसा दीप मेघनगर (जिला झाबुआ, मध्यप्रदेश) में जन्म. यूनिवर्सिटी ऑफ टोरंटो में लेक्चरार के पद पर कार्यरत. लोक साहित्य पर पुस्तक: सौंधवाड़ी लोक धरोहरउपन्यास: “बंद मुट्ठी”, “कुबेर”, “केसरिया बालम” एवं “काँच के घर”. उपन्यास “बंद मुट्ठी” गुजराती भाषा में अनूदित. 22 Farrell Av. |
आप टोरंटो विश्वविद्यालय में कब से हैं?
अपर्णा जी, मैं 2004 से यहाँ की विश्वविद्यालयी शिक्षा से जुड़ गयी थी. एक वर्ष मैंने यॉर्क यूनिवर्सिटी में पढ़ाया और उसके तुरंत बाद, 2005 से अब तक यूनिवर्सिटी ऑफ टोरंटो से जुड़ी हुई हूँ.
हिंदी के वैश्विक स्वरूप पर आप क्या कहना चाहेंगी?
मुझे गर्व है कि आज की तकनीकी उन्नति के साथ हिंदी कदम से कदम मिलाकर चल रही है. हिंदी अपने दिल को बड़ा करके हर ग्लोबल शब्द को जगह दे रही है. हिंदी के वैश्विक स्वरूप पर आए दिन वेबिनार हो रहे हैं. कोविड ने हम इंसानों से बहुत कुछ छीना मगर एक फायदा यह हुआ कि दुनिया को हर किसी की मेज पर लाकर खड़ा कर दिया. गूगलमीट, ज़ूम मीटिंग्स में हिंदी के तमाम दिग्गजों के व्याख्यान सुनकर, लुभावने कागजी आँकड़े प्रभावित करते हैं. साथ ही, जमीन से जुड़ी एक हकीकत यह भी है कि हिंदी बोलने वालों की संख्या चाहे लुभा ले लेकिन पढ़ने और लिखने वालों की संख्या लगातार कम हो रही है. हमारी पीढ़ी के बाद अगली पीढ़ी में सिर्फ रोमन लिपि में हिंदी लिखी जाने लगेगी इसका अंदेशा धीरे-धीरे सच बनकर सामने आ रहा है. आज का आम भारतीय हिंदी बोलना चाहता है, लिखना-पढ़ना नहीं चाहता. हिंदी पत्रिकाओं और पुस्तकों में सिमट कर रह गयी है. हिंदी को रोमन में लिखने की परंपरा बढ़ रही है. यहाँ तक कि हिंदी फिल्मों से करोड़ों की धनराशि कमाने वाले अभिनेताओं के लिए भी पटकथा रोमन लिपि में तैयार होती है. ये सारी चुनौतियाँ सिर्फ विदेशों में ही नहीं, भारत में भी मुंह बाए खड़ी हैं. भारत से या किसी भी देश से, अच्छी तरह हिंदी जानने वाले सोशल मीडिया पर नमस्ते को Namaste से शुरू करते हैं. kese ho से लेकर हर सवाल-जवाब को रोमन लिपि में लिखकर संदेश का ऐसा हाल करते हैं कि समझने में दिमाग का अच्छा-खासा व्यायाम हो जाता है. कई नगरों-महानगरों में जहाँ काफी मात्रा में हिंदी भाषी लोग रहते हैं, गली-मोहल्लों में साइनबोर्ड पर हिंदी तो है पर रोमन में लिखी हुई. ये हमें ग्लोबल वार्मिंग की तरह चेतावनी नहीं देते पर हाँ, सँभल जाने का आह्वान जरूर करते हैं. जीवन की भागमभाग में भाषा के सरलीकरण के बारे में सोचना एक सक्रिय प्रयास होगा. साथ ही साथ, युवाओं के करियर के साथ हिंदी जुड़ने लगे तो ही हम आशान्वित हो सकते हैं.
आपकी क्या चुनौतियां हैं? क्या कुछ शोध कार्य हो रहे हैं?
सच कहूँ तो हम हिंदी भाषियों के लिए चुनौतियाँ बहुत हैं, लगातार संघर्ष करके भी हम उनका सामना करने में अक्षम हो जाते हैं. न तो हम अंग्रेजी के वर्चस्व को स्वीकार कर पाते हैं, न ही अपनी भाषा को उसके समकक्ष लाने का प्रयास कर पाते हैं. हिंदी की वर्णमाला सीखने के प्रारंभिक दौर में ही कई छात्र अपने घुटने टेक देते हैं. प्रयास करके भी उनकी इस कठिनाई को दूर करने में सफलता नहीं मिलती. भाषा के बारे में हमारी कट्टरपंथी सोच हमें रचनात्मक दिशा में भाषा को लचीला बनाने से रोक देती है. अपने ही देश में अपनी क्षेत्रीय भाषाओं से टकराती हिंदी कुछ ही राज्यों में प्रमुखता से बोली-लिखी-पढ़ी जाती है. परिणामस्वरूप भारत से बाहर के विश्वविद्यालयों में अकसर पर्याप्त छात्र संख्या न होने के कारण हिंदी कोर्स निरस्त कर दिए जाते हैं जबकि उर्दू, पंजाबी और तमिल में पर्याप्त संख्या रहती है. कनाडा में पंजाबी, उर्दू, तमिल, गुजराती और बांग्ला भाषाओं से हिंदी बहुत पीछे है. इस स्थिति में हिन्दी फिल्मों से बहुत मदद मिलती है लेकिन वह भी सिर्फ बोलने और गीत गुनगुनाने तक ही सीमित है. शोधकार्य हो रहे हैं पर इक्का-दुक्का. हालाँकि कुछ वर्षों पहले तक इनकी संख्या ज्यादा थी. कोविड की वजह से इसमें काफी कमी आयी है. शोध छात्रों के लिए भारत आना-जाना और अपने शोध को जारी रखना मुश्किल होता जा रहा है.
प्रवासी साहित्य की क्या दिक्कतें हैं?
यह एक ऐसा विषय है जिस पर लगातार चर्चाएँ हो रही हैं. कोविड काल की वेब परिचर्चाओं में यह मुख्य मुद्दा बना रहा. हिंदी भाषा में लिखे जा रहे साहित्य को प्रवासी कहने के बजाय सिर्फ हिंदी साहित्य ही कहा जाना चाहिए. अंग्रेजी भाषा में कोई व्यक्ति किसी भी देश में रहकर लेखन कार्य करे, उसका लेखन कभी भी प्रवासी जैसे तमगे से सुशोभित नहीं किया जाता. प्रमुख हिंदी भाषी राज्यों से बाहर हिंदी में लिखा जाना प्रवासी नहीं है जबकि देश की सीमा पार होते ही वह प्रवासी हो जाता है. यहाँ तक तो ठीक है लेकिन भारत से बाहर रहकर जो लिखा जा रहा है उसे प्रवासी कहा जाए या नहीं, गिरमिटिया और प्रवासी में अंतर, जैसे भी कई बहस के मुद्दे हैं जिन पर हम आज तक कोई समाधान नहीं खोज पाए हैं. बहरहाल, इस बहस से दूर एक सच यह भी है कि कनाडा एक बहु-संस्कृति में बसा देश है. हर घर में एक नया देश बसा हुआ मिल जाता है. ऐसे में हर संस्कृति के लोग अपने लोगों से अधिक संपर्क में रहते हैं. ऐसी स्थिति में हिंदी लेखन पर भारतीय संस्कृति हावी रहना स्वाभाविक है. सबसे बड़ी दिक्कत यही है कि हिंदी का वृहत पाठक वर्ग भारत में है और यहाँ की परिस्थितियों से अनजान होने की वजह से वह रचना से जुड़ नहीं पाता. इसीलिए कोशिश होती है कि लेखन घटना प्रधान होने के बजाय मनोविज्ञान से जुड़ा हो, संवेदनाओं से जुड़ा हो ताकि पाठक की पृष्ठभूमि जो भी हो, वह लेखन को आत्मसात कर सके.
आप व्याख्याता होने के साथ लेखिका भी हैं. अपनी किसी कहानी पर बात कीजिए.
अपर्णा जी, एक शिक्षक के रूप में मुझे जो संतुष्टि मिलती है, वह मेरी आँखों के सामने छात्रों के चेहरों पर होती है. जब मैं कक्षा में होती हूँ तो मेरी दुनिया, मैं और मेरे छात्र ही होते हैं. हमारी कक्षाएँ दो से तीन घंटों की होती हैं. उस दौरान सीखने-सिखाने का एक आत्मीय माहौल होता है जिसमें मेरा अनुभव और उनका युवा नज़रिया मिलकर एक नयी संरचना करते हैं. उनके तकनीकी ज्ञान को पूरी तरह सराहते हुए मैं अपनी भाषा के सहज और सरल रूप से उन्हें परिचित करवाती हूँ. तब मेरा लेखिका होना उनकी समझ के साथ एकाकार होकर उस स्तर पर जाकर उनकी मदद करता है. उन्हें समझाने के लिए मैं ऐसे छोटे-छोटे वाक्य बनाती हूँ जिनसे व्याकरण की पेचीदा बातें आसान हो जाएँ. स्थानीय उदाहरणों के साथ, उनकी जीवन शैली से मैच करती मजेदार बातों के साथ, उनका मनोरंजन भी हो और सबक भी पूरा हो जाए.
अपर्णा जी, मुझे अपनी सारी कहानियां बहुत पसंद हैं, किसी एक को चुनना बहुत मुश्किल है. बहरहाल, मैं कहानी “हरा पत्ता-पीला पत्ता” की बात करती हूँ जिसमें एक वृद्ध और एक शिशु की खामोश बातचीत जीवन को नए आयाम देती है. यह कहानी उम्र से हारे हुए इंसान में ऊर्जा भर कर जीवन की नकारात्मकता को सकारात्मकता में बदलने की कोशिश करती है. शारीरिक विवशताएँ किस कदर जीवन को आंदोलित करती हैं, मगर एक रचनात्मक विचार आ जाए तो शिथिल शरीर में भी गति आ जाती है. शिशु का बचपन, वृद्ध की दुनिया में जीवंतता लौटा कर मुस्कानों का भंडार दे जाता है. एक छोटे-से बच्चे की हँसी जीवन की सारी तकलीफों को दूर कर सकती है. इस कहानी के पात्र किसी भी काल और किसी भी देश की सीमा से परे, उम्र की लकीरों को एक नया अर्थ देते हैं. यह कहानी उम्र के शिखर पर खड़े लोगों एवं उम्र की पहली पायदान पर खड़े लोगों की भावनाओं का सामंजस्य करने की कोशिश करती है.
भारत की राजनीतिक सरगर्मियां यहां के लेखक को किस तरह प्रभावित करती हैं?
हम लोग जो जीवन के 35-40 वर्ष भारत में रहने के बाद यहाँ आए हैं और रचना कर्म से जुड़े हैं, सुबह उठते ही सबसे पहले भारत की खबरें लगाते हैं. भारत में हो रही राजनीतिक उथल-पुथल से हम विचलित होते हैं. भारत की यात्रा के दौरान बदलती सामाजिक परिस्थितियों, गिरते नैतिक मूल्यों, भ्रष्टाचार आदि समस्याओं से भी हमारा सामना होता है. वहाँ से आने के बाद विकास की कई बातें सुकून देती हैं और कई चिंता का सबब भी बनती हैं. और ये ही बातें लेखन में कहीं न कहीं जगह पा लेती हैं. यही वजह है कि भारत से हमारा यह जुड़ाव लेखन पर अपना प्रभाव छोड़ता है. इसके उलट हमारे बच्चे जो सात से बारह की आयु के बीच हमारे साथ विदेश आए थे, वे अब धीरे-धीरे यहाँ अपने करियर में व्यस्त होकर यदा-कदा हमारे साथ भारत को याद करते हैं. और हमारे बच्चों के बच्चे, यानी तीसरी पीढ़ी के बच्चे, जो यहाँ पैदा हुए हैं उनके लिए भारत अन्य देशों की तरह एक देश है. वे घर में मनाए जा रहे कुछ त्योहारों के नाम से परिचित हैं. ये बच्चे पूरी तरह कैनेडियन हैं. भारतीय कपड़ों के प्रति, भारतीय भोजन के प्रति हमारी तरह लगाव बिल्कुल नहीं है. यह कटु सच है कि सिर्फ हमारी पीढ़ी को भारत में हो रही हर राजनीतिक सरगर्मी उद्वेलित करती है.
जिन दिनों देश में किसान आंदोलन अपने चरम पर था, खबरों में यदा कदा कनाडा का भी जिक्र आता था. लेखक की पैनी निगाहें अपने समय की पूरी खबर लेती हैं. आपका क्या कहना है?
कनाडा में लिटिल पंजाब है. निश्चित ही भारत से जुड़ा होना, वहाँ की समस्याओं से चिंतित होना और साथ ही मदद का हाथ बढ़ाना, ये सारे विचार अंतस से स्वतः ही आते हैं. विश्व के कई देशों से आए शरणार्थियों के लिए कनाडा एक स्वर्ग है. भारत से, खासतौर से पंजाब से यहाँ शरणार्थी के रूप में लोग आते रहे हैं. अपनी मेहनत से ये सब बहुत समृद्ध हैं और अपने देश से जुड़कर लोगों की सहायता करना अपना फर्ज समझते हैं. कभी-कभी अपवाद स्वरूप भलाई, बुराई में बदल जाती है. उन विसंगतियों पर कई बार लिखने का मन भी होता है, लेकिन हमारी सीमाएँ हमें रोक देती हैं. आलोचक कहते हैं-
“भारत की समस्याओं पर लिखने के लिए बहुत लोग हैं, आप वहाँ के बारे में लिखिए.”
जहाँ तक मैं सोचती हूँ मेरी कलम को ऐसा कोई बंधन स्वीकार्य नहीं. माँ हर देश में माँ ही होती है, सीमाओं से परे. संवेदनाएँ भी किन्हीं सीमाओं में नहीं बँधतीं. जो मुझे अच्छा लगता है और जो मुझे अच्छा नहीं लगता वह कागज पर उतर ही जाता है, चाहे फिर वह किसी भी देश से जुड़ा हो.
कनाडा में कई देश बसे दिखाई देते हैं. अंतः संवाद की क्या स्थिति है? नेटफ्लिक्स पर किम्स कन्विनिएंस देख रही थी. टोरंटो में कोरिया दिखाई देता है. देखिए, इसी तरह ‘वैडिंग सीज़न‘ फिल्म में अमरीका में भारत दिखाई देता है. यहां के कला-साहित्य में आपको भारत नज़र आता है?
कला और साहित्य में भारतीयों की सक्रिय उपस्थिति है, तो निःसंदेह भारत भी है. रॉयल ओंटेरियो म्यूज़ियम में पूरा एक हिस्सा भारतीय कला को दिया गया है. चित्रकला प्रदर्शनियों में भारतीय कलाकार प्रमुखता से हिस्सा लेते हैं. सिनेमागृहों में हिंदी फिल्मों का बोलबाला रहता है. दीवाली पर यहाँ के प्रधानमंत्री का बधाई संदेश मिलता है. कई कार्यक्रमों में सरकारी अधिकारियों, विधायकों की उपस्थिति रहती है. यहाँ की केंद्रीय सरकार और राज्य सरकारों में भारतीयों की उपस्थिति बेहद सम्मानजनक और गौरवमयी है. कला साहित्य में भागीदारी निश्चित रूप से है. भारतीय परिधानों व पकवानों की प्रचुर माँग है. पंद्रह अगस्त और छब्बीस जनवरी पर सीएन टावर पर तिरंगे के रंग शोभित होते हैं.
नायग्रा फॉल्स के पानी में तिरंगे के तीनों रंग झलकते हैं. कनाडा एक ऐसा देश है जहाँ सिर्फ भारत ही नहीं, हर देश की संस्कृति को सम्मान मिलता है. इस तथ्य से हर कोई परिचित है कि चिकित्सा के साथ, उच्च शिक्षा, आईटी, जैसे कई क्षेत्रों में भारतीय प्रतिभाओं की भरमार है. अमरीका जैसे देश में, हालीवुड जैसी प्रख्यात फिल्म इंडस्ट्री में हमारे देश के कलाकारों ने शीर्ष जगह बनायी है. विश्व की आर्थिक राजधानी न्यूयॉर्क शहर के कई नेम ब्रांड स्टोर्स में हमारी अभिनेत्रियों के फोटो असीमित आनंद देते हैं. भारत कहाँ नहीं है, दुनिया के हर कोने में भारत बसता है और यह संभव हुआ है हम भारतीयों की कड़ी मेहनत और लगन की वजह से.
स्त्री विमर्श के यहां मुख्य मुद्दे क्या हैं? भारतीय स्त्री यहां के विमर्श में क्या भूमिका निभा रही है?
मॉल्स और बिल्डिंग सिक्योरिटी में मैंने कई जगह भारतीय लड़कियों को काम करते देखा. यहां के आर्थिक ढांचे में भारतीय महिलाओं की सहकारिता और उनकी स्थिति पर प्रकाश डालिए.
स्त्री विमर्श, नारीवाद, स्त्री स्वतंत्रता, या भेद-विभेद इन सब बातों से मैं सहमत नहीं हो पाती हूँ. इसके कई कारण हैं जो मेरी बात को पुख़्ता आधार देते हैं. सबसे पहली बात यह है कि एक महिला ही दूसरी महिला को ज्यादा चोट पहुँचाती है. कई उदाहरण हैं जहाँ घर में, समाज में और देश में, नारी ने नारी को प्रताड़ित किया है, तो हमारा यह रोना-गाना बेमानी है. फिर चाहे पितृ-सत्तात्मकता की बात को लेकर हो या फिर पुरुषों के द्वारा किए जा रहे अत्याचारों को लेकर. मैं स्पष्ट कर दूँ कि मैं बलात्कार या यौन शोषण या फिर पति द्वारा की जा रही घरेलू हिंसा का समर्थन नहीं कर रही. नि:संदेह ये अपराध हैं और अपराधी पुरुषों को एक अलग श्रेणी में रखा जाना चाहिए.
कुछ अपवादों को छोड़ दें तो आज न तो हम बाल विवाह की समस्या से जूझ रहे हैं, न सती प्रथा से, न दहेज प्रथा से, न ही ऐसी किसी प्रथा से जहाँ मजबूरी में लड़की को वह करना पड़ता है जो वह नहीं करना चाहती.
विश्व के अत्यधिक गरीब और पिछड़े इलाके, मध्यप्रदेश के झाबुआ जिले से लेकर, विश्व के अत्यधिक धनी और विकसित इलाके, न्यूयॉर्क और टोरंटो में रहकर मैंने यह अनुभव किया है कि स्त्री बहुत शक्तिशाली है. ‘नो मीन्स नो’, ‘मीटू’ जैसे शब्दों ने तो हमें अब ताकत दी है लेकिन वर्षों पहले भी झाँसी की रानी थी, आज भी कोई कमी नहीं हैं झाँसी की रानियों की. फ़र्क सिर्फ इतना है कि लड़ने के लिये उनके सामने उनके अपने हैं और वे खुद्दारी से लड़ रही हैं. हम सब खुली आँखों से देख रहे हैं कि आज की महिलाएँ पुरुषों के कंधे से कंधा मिलाकर काम कर रही हैं.
भारतीय स्त्री और पश्चिमी स्त्री के संदर्भ में मैं एक ही बात कहना चाहती हूँ कि दोनों के क्षेत्र अलग हैं पर मूलभूत मानसिकता वही है. मसलन, आज के भारत की बात न करूँ तो भी आज से साठ साल पहले भी, जिस घर में मैंने जन्म लिया वहाँ भी पुरुष सत्ता तो थी पर सारे अधिकार तो जीजी (माँ) के पास ही थे. वे मना कर दें तो मजाल है कि कोई कदम उठा लिया जाए. घूँघट डालकर दुकान का काम संभालती थीं, बीच में जाकर दाल चढ़ा आती थीं, गल्ले पर बैठकर सब्जी सुधारती थीं और ग्राहक को भी निपटा देती थीं. जब मैं ससुराल गयी तो वहाँ बाईसा (सासूमाँ) थीं जिनसे “कौनसी कमीज पहनूँ” पूछकर ही ससुरजी कमीज़ पहनते थे, तो ज़ाहिर है कि शेष बड़े मुद्दों पर भी उन्हीं का दबदबा था. उनके पाँचों बेटे और एक बेटी उनके कहे को पत्थर की लकीर मानते थे. मान भी लें कि यह हमारे घरों में था पर यकीन मानिए कि एक आदिवासी युवती भी जो उस जमाने में हमारे घर काम करती थी, वह भीलनी दीतू भी आए दिन शराब पीए हुए अपने पति की पिटाई कर देती थी और फिर इसलिये रोती थी कि “वह ऐसा काम करता है कि मुझे उसे मारना पड़ता है.”
और फिर आज की बात करते हुए विदेश में पली अपनी दोनों बेटियों को देखती हूँ तब पचास-साठ साल पहले की भारतीय नारियाँ ‘जीजी’ और ‘बाईसा’ के साथ इन दो विदेशी नारियों की तुलना सहज ही एक खाका सामने रखती है. दोनों बेटियाँ अपने घर में किचन से लेकर कार के टायर बदलना हो या टैक्स बनाना हो या फिर हॉस्पीटल जाकर एक डॉक्टर और बैंकर की ड्यूटी भी पूरी करनी हो, सब कुछ विशेषज्ञता के साथ करती हैं. एक नहीं हज़ारों काम, यह सब वे कैसे कर पातीं अगर अपने साथी पति से उनकी आपसी समझ, साथ-साथ बढ़ने की नहीं होती. नारी-पुरुष की इस समानता के उदाहरण बहुलता से हमारे आसपास मिल जाएंगे. भारत में भी, कनाडा में भी और विश्व के किसी भी देश में. कनाडा में भारतीय स्त्रियाँ चहूँ ओर हैं. ऊँचे पदों पर, विभागों की जिम्मेदारियाँ सँभालते हुए, आई. टी. में, और व्यापार में भी. राजनीति से लेकर सरकार तक और सामाजिक संगठनों से लेकर धार्मिक स्वयंसेवी तक. बेशक, यह सब देखकर यह धारणा बलवती होती है कि किसी भी देश में और किसी भी परिवेश में, नारी अगर ठान ले, तो स्वयं को एक पिलर की तरह मजबूत बना लेती है, जैसे आपने, मैंने या हर उस महिला ने किया है जो अपने पैरों पर खड़ी है और रचनात्मक कार्यों से स्वयं को ऊर्जित कर रही है.
किताबों की प्रदर्शनियां तो होती होंगी. हिंदी की शेल्फ पर कुछ बताइए.
किताबों का महत्व यहाँ बहुत अधिक है. हर शैक्षणिक संस्थान के अपने पुस्तकालय हैं. साथ ही, हर मुख्य चौराहे के करीब एक सार्वजनिक पुस्तकालय है जहाँ से कई किताबें एक साथ, इक्कीस दिन के लिए ली जा सकती हैं. विदेशी भाषाओं के सेक्शन में हर भाषा का उपलब्ध साहित्य है. इन भाषाओं के साहित्य के लिए हर देश के साथ, किसी एक संस्था से संपर्क है जो इन पुस्तकालयों को उस भाषा विशेष की पुस्तकें उपलब्ध करवाती है. स्थानीय शास्त्री इंडो-कैनेडियन इंस्टीट्यूट उन प्रमुख संस्थाओं में से है जो हिंदी की पुस्तकें यहाँ बुलवाती है. विदेशों में हिंदी पुस्तकें खपाने की चयन प्रक्रिया, मापदंड, और किस तरह इसमें शामिल हुआ जा सकता है, आदि में पारदर्शिता का अभाव है.
हिंदी में बाल साहित्य बहुत कम है जबकि अंग्रेजी में बच्चों का साहित्य अति-समृद्ध. पुस्तकों की गुणवत्ता, साज-सजावट और आकार-प्रकार हर उम्र के बच्चों के लिए उनकी अपनी समझ के अनुसार उन्हें आकर्षित करते हैं. हर तरह के ऑडियो-वीडियो, अवकाश के दौरान कई मनोरंजक कक्षाएँ, अनेक शैक्षिक और ‘करके देखो’ गतिविधियाँ बड़े पैमाने पर आयोजित होती हैं जिनमें हमने अपने नाती-पोतों के साथ इनमें शिरकत की है. कई शिक्षण संस्थाएँ, एवं पुस्तकालय अपनी किताबों को मुफ्त में उपलब्ध करवाने के लिए कई बार ऐसे स्टाल लगाते हैं जहाँ से मनपसंद किताब को लिया जा सकता है.
हिंदी शेल्फ में प्रेमचंद एवं उनके समकक्ष कुछ साहित्यकारों की उपस्थिति है. कई नए लेखकों की किताबों से भी शेल्फ भरे हैं, जिनके प्रकाशक मार्केटिंग में निपुण हैं. नई प्रसिद्ध हिंदी किताबों से शेल्फ अपडेट नहीं होते. जीवन की आपा-धापी में हिंदी पाठक वर्ग न के बराबर है, ऐसे में कई किताबें शेल्फ में ही कुछ साल बिताती हैं. हालाँकि एकाध विश्वविद्यालय में प्रेमचंद को पढ़ाया जा रहा है, लेकिन हिंदी में नहीं अंग्रेजी में. ये कोर्स भाषा के तहत नहीं, कॉलोनियल स्टडीज़ आदि से जुड़े विषयों में समाहित किए जाते हैं.
अंतिम प्रश्न, क्या आप यहीं सैटल होंगी या भविष्य में कभी भारत लौटेंगी? कोई द्वंद्व तो रहता होगा?
अपर्णा जी, यह एक कमजोर बिंदु रहा है. एक ऐसा चक्रव्यूह जिससे शायद अब कहीं जाकर बाहर निकल पाई हूँ. कुछ वर्षों पहले तक यह द्वंद्व बहुत सताता था, जब तक बच्चियों की शादियाँ नहीं हुई थीं. अब पूरा परिवार यहाँ है. बच्चों के बच्चे भी बड़े हो रहे हैं. अब तो “जीना यहाँ, मरना यहाँ, इसके सिवा जाना कहाँ!” वाली स्थिति है. भारत में माता-पिता नहीं रहे, हालाँकि भाई-बहन सब हैं लेकिन सबके अपने परिवार हैं. ऐसे में एक बार घर छोड़कर गए इंसान के लिए, न घर का, न घाट का, वाली स्थिति टालने के लिए बेहतर यही है कि जहाँ भी रहें खुश रहें. मैंने भारत छोड़ा जरूर है लेकिन उसे अपने भीतर और ज्यादा समेटा है. मैं भारत में चाहे न रहूँ लेकिन भारत सदैव मुझमें रहेगा.
डॉ. अपर्णा मनोज |
प्रिय भाई अरुण जी,
पूरी बातचीत पढ़ गया हूं। एक अच्छी बातचीत आपने प्रकाशित की। हंसा जी ने खुलकर अपनी बातें कहीं। अपर्णा मनोज के सवाल भी अच्छे हैं। हंसा दीप के लिखे को पढ़कर उन्होंने कुरेदा होता, तो कुछ और भी रसपूर्ण हो जाती यह बातचीत। पर फिर भी बहुत कुछ इसमें है, जिसकी जानकारी विदेश में रह रहे हिंदी साहित्यकारों के जरिए ही हम तक आ पाती है।
हिंदी के लिए हंसा जी का राग मुग्ध करता है।
इस सुंदर बातचीत को पढ़वाने के लिए आपका और ‘समालोचन’ का आभार!
स्नेह,
प्रकाश मनु
डॉक्टर हंसादीप जी के साथ साक्षात्कार बहुत बढ़िया रहा। हंसा जी आज के दौर की एक सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनका हिंदी के प्रति अनुराग सराहनीय है।
पूरी बातचीत पढ़ी l सवाल और उनके जवाब दोनों ही रोचक, भावपूर्ण और ज्ञानवर्धक हैं l कनाडा में जो हिंदी की स्थिति है, वह स्पष्ट हुआ l यह जानकर अचरज हुआ कि वहाँ हिंदी पंजाबी,उर्दू ,तमिल,गुजराती और बांग्ला भाषाओं से पीछे है l हिंदी बोलने भले ही बढे हों लेकिन हिंदी पढ़ने और लिखने वालों की संख्या लगातार कम हो रही है l हिंदी को रोमन में लिखने की परम्परा बढ़ रही है l
उच्च मध्यमवर्ग में स्त्रियों को भले ही मर्दवादी सोच का शिकार न होना पड़ता हो लेकिन आज भी ऐसी घटनाएँ प्रकाश में आती ही रहती हैं जिनसे लगता है कि सामान्य और गरीब स्त्री को इस सोच का शिकार होना पड़ता है l मूल बात यह है कि स्त्री-पुरुष दोनों ही अत्याचारी हो सकते हैं l भले ही नारी के सम्मान, संवेदनशीलता और संस्कार का ढिंढोरा पीटा जाता रहा हो l
हंसा जी अच्छी लेखिका हैं l उनके जवाब संतुलित और मर्मस्पर्शी हैं l उन्होंने जवाब में कहा है कि वे भारत में रहें या न रहें लेकिन भारत उनमें हमेशा रहेगा l
बातचीत सार्थक रही l हार्दिक बधाई l
सादर
गोविन्द सेन