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Home » पहला मानव: प्रादुर्भाव और प्रसार: तरुण भटनागर

पहला मानव: प्रादुर्भाव और प्रसार: तरुण भटनागर

हिंदी के साहित्यकारों द्वारा साहित्य के इतर अन्य विषयों और अनुशासनों पर लिखने की परम्परा रही है. ख़ुद महावीरप्रसाद द्विवेदी ने वाणिज्य पर १९०७ में पुस्तक लिखी थी ‘सम्पत्ति-शास्त्र’ इसका कारण यह था कि हिंदी विषय विशेषज्ञों की हिंदी में लिखने की प्रतीक्षा नहीं कर सकती थी. आचार्य द्विवेदी ने अर्थशास्त्री होने का दावा नहीं किया था न आज उन्हें कोई इस रूप में याद करता है. महत्वपूर्ण बात यह है कि आज वाणिज्य की जो हिंदी शब्दावली है उसमें इस पुस्तक का बड़ा योगदान है. वैसे आज भी साहित्य के अतिरिक्त दूसरे अनुशासनों के अधिकारी विद्वान हिंदी में कम ही लिखते है. हिंदी में इतिहास लेखन की परम्परा द्विवेदी युग में यशस्वी इतिहासकार काशी प्रसाद जायसवाल ने शुरू कर दी थी उनके इतिहास के अतिरिक्त साहित्य लेखन पर सबलता के साथ डॉ. रतन लाल ने इधर ध्यान खींचा है. इतिहास के कुछ प्रश्न हमेशा अनसुलझे रहेंगे जैसे कि पहला मानव कहाँ हुआ, पहली सभ्यता कौन सी है आदि-आदि. प्रकृति पहले में विश्वास नहीं करती वह सामूहिकता में आगे बढ़ती है. खैर इतिहास इससे उलझता रहा है. तरुण भटनागर ने अनेक ग्रन्थों का अवगाहन करते हुए फिर इधर ध्यान खींचा है. प्रस्तुत है.

by arun dev
April 2, 2022
in इतिहास
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पहला मानव: प्रादुर्भाव और प्रसार: तरुण भटनागर
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पहला मानव: प्रादुर्भाव और प्रसार

तरुण भटनागर

भारतीय उपमहाद्वीप के मूल निवासी का प्रश्न मानव यानी  जीनस होमो में शामिल मानवों और इन मानवों के बाद धरती पर आये आधुनिक मानव यानी सैपियंस की उत्पत्ति और प्रवसन से जुडा है. यानी  यह सवाल उन पुरातन मानवों से भी जुडा है जिनकी स्पिशीज सैपियंस नहीं थी और उन आधुनिक मानवों से भी जिनकी स्पिशीज सैपियंस है. इसलिए इस सवाल का जवाब इन दोनों मानवों की उत्पत्ति और प्रसार से जुडा है. ऐसा इसलिए भी है क्योंकि जब तक धरती पर मानव के उद्विकास में स्पिशीज ‘सैपियंस’ का आना हुआ उससे लाखों साल पहले मानव की कई ऐसी स्पिशीज धरती पर आ चुकी थीं, जिनमें से कई को हम आज के मानव की पुरातनतम स्पिशीज के रुप में जानते हैं. यानी  जब हम भारत में आने वाले पुरातनतम मानव यानी  इस इलाके के सबसे पुराने मानव की बात करते हैं तो हम सैपियंस की बात नहीं कर रहे होते हैं.

वास्तव में भारत के पुरातनतम मानव को समझने के लिए सैपियंस एक भ्रामक शब्द है. न तो भारत के सबसे पुराने मानव की कहानी सैपियंस से शुरु होती है और न ही मानव की पुरातनतम सभ्यता का अध्ययन ही सैपियंस से शुरु होता है. यह ठीक है कि सैपियंस शब्द आधुनिक मानव यानी  उस मानव को तो बताता है जो आज धरती पर है और जिसे आज हम देख रहे हैं, पर यह शब्द उस मानव को नहीं बताता जो आज के मानव का पूर्वज था और जिसने न सिर्फ आज की सभ्यता की शुरुआत की, बल्कि धरती पर एक जगह से दूसरी जगह जाकर मानव की सभ्यता के प्रसार की शुरुआत भी की. न तो एक जगह से दूसरी जगह जाने वाला यानी माइग्रेट होने वाला पहला मानव सैपियंस था और न ही वह मानव ही जिसने आग की खोज की. इसलिए भारत ही नहीं बल्कि संसार में कहीं के भी मूल निवासी के प्रश्न को जानने के लिए इस शब्द यानी  ‘सैपियंस’ से बात नहीं बन पाती है. इस विषय पर लिखी किताबों में यह शब्द यानी  ‘सैपियंस’ इतना प्रचारित हुआ है कि लगता है मानो इंसान की कहानी सैपियंस से ही शुरु होती है. यह इस लिहाज से भी एक भ्रामक शब्द है क्योंकी सैपियंस के इतिहास या पुरा-इतिहास से मानव का इतिहास भी कुछ लाख सालों तक सीमित हो जाता है, जबकि यह कहीं ज्यादा और दसियों लाखों साल पुराना है.

आज के दौर के भारत में, यानी  उस भारत में जिसका नक्शा 1947 में बना, उसकी सीमाओं के भीतर पुरातन काल में आने वाला सबसे पहला मानव ‘सैपियंस’ नहीं था. यद्यपि यह भी है कि आज के नक्शे को लाखों साल पुराने समय पर डालकर देखना न्यायसंगत नहीं है, पर फिर भी किसी विशिष्ट भौगोलिक क्षेत्र को बताने के लिए ऐसा किया जाना जरूरी होता है और यह वहीं तक सीमित भी है. कहने का तात्पर्य यह है कि भारत के क्षेत्रों में सैपियंस से पहले भी मानव का निवास था, उसने अपनी सभ्यता के निशान इस जमीन पर छोड़े.

यहाँ यह भी जान लेना उचित ही है कि मानव का धरती पर उद्विकास यानी  सामान्य अर्थ में मानव का धरती पर विकास और प्रवसन यानी  उसका एक जगह से दूसरे जगह जाना साथ-साथ चलने वाली प्रक्रियाएं हैं. यानी  धरती पर मानव की उत्पत्ति के साथ-साथ उसका प्रवसन भी शुरु हो गया था और यह सब सैपियंस के आने से लाखों साल पहले से हो रहा था. यानी  लाखों साल पहले जब धरती पर आधुनिक मानव यानी  सैपियंस नहीं था बल्कि उसके पूर्वज मानव थे सैपियंस के वे पूर्वज मानव जिनके आज हमें फॉसिल मिलते हैं, उस समय से ही मानव का धरती पर एक जगह से दूसरे जगह आना-जाना शुरु हो गया था. इसलिए मानव के एक स्थान से दूसरे स्थान को जाने और वहाँ बस जाने का किस्सा एक बहुत पुराना किस्सा है. आधुनिक इतिहास से लाखों साल पहले का यह वक्त पुरा-इतिहास भी कहा जाता है.

होमो इरेक्टस के प्रसार को दिखाता विश्व मानचित्र, स्रोत : थेम्स और हडसन (Thames and Hudson) की किताब ‘ द ह्यूमन पास्ट : वर्ड प्रीहिस्ट्री एंड द डिवेलपमेंट आफ ह्यूमन सोसायटीज़’

मानव का धरती पर विकास आधुनिक अफ्रीका के दक्षिण-पूर्वी इलाकों में हुआ. सन 1924 में दक्षिण अफ्रीका के ताउंग (Taung) नामक स्थान की चूने की खदान में मजदूरों को मानव का एक फॉसिल मिला था. यह एक महत्वपूर्ण खोज थी. यह फॉसिल जो ताउंग चाइल्ड स्कल यानी ताउंग के बच्चे की खोपडी के नाम से जाना गया मानव के सबसे पुराने फॉसिल्स में से एक था. बाद में इस तरह के तमाम दूसरे फॉसिल्स दक्षिण, पूर्वी और उत्तर-पूर्वी अफ्रीका में मिलते रहे. इन फॉसिल्स को ऑस्ट्रेलोपिथिकस के नाम से जाना गया. ये मानव के सबसे पुराने फॉसिल्स हैं और अगर पैरान्थ्रोपस नामक फॉसिल को इसमें शामिल कर लिया जाये तो इनका समय 42 लाख साल पहले से लेकर 12 लाख साल पहले का बैठता है.1

इन्हें सबसे पहला मानव इसलिए कहा जाता है क्योंकि मानव के जीनस ‘होमो’ का विकास इन्हीं मानवों में हुआ था.2,3

मानव के जीनस के ये वाहक थे इसलिए ये सबसे पहले मानव कहलाये. मानव का विकास कपि यानी  ऐप से हुआ माना जाता है. इस विकास के जिस चरण में जीनस ‘होमो’ विकसित हुआ वहाँ से उस जीव को मानव कहा जाता है. यह जीनस लगभग 30 से 20 लाख साल पहले विकसित हुआ था.4

ऑस्ट्रेलोपिथिकस में एक मानव हुआ जिसे होमो हैबिलिस कहा जाता है. होमो हैबिलिस का मतलब होता है योग्य मानव या कामगार मानव. यह पहला ऐसा मानव था जिसका जीनस होमो था, यानी  आम भाषा में हम इसे धरती का पहला मानव कह सकते हैं. ऑस्ट्रेलोपिथिकस समूह में यह मानव लगभग 24 लाख साल से लेकर 15 लाख साल तक पुराना है. यह ऑस्ट्रेलोपिथिकस SRGAP2 से प्राप्त डुप्लिकेट जीन्स के तीन में से दो जीन्स का वाहक था. ऐसा माना गया है कि यही वह जीन्स था जिसने मानव के मस्तिष्क में न्यूरॉन्स के समुचित विकास का मार्ग प्रशस्त किया. यह विशेषता इस मानव ने 34 से 24 लाख साल पहले विकसित कर ली थी.5

मानव की उंगलियों खासकर अंगूठे के विकास की शुरुआत भी इसी दौर में लगभग 30 लाख साल पहले ऑस्ट्रेलोपिथिकस अफरेंसिस नामक जीव से हुई.6

इस प्रकार यह स्पष्ट है कि संसार के पहले मानव की उत्पत्ति आधुनिक अफ्रीका में हुई थी. इसलिए वे लोग जो अफ्रीका को मानव की उत्पत्ति की जगह मानते हैं, वे एकदम सही बात कह रहे होते हैं.

ऑस्ट्रेलोपिथिकस के समय तक मानव में दो पैरों से चलने की तकनीक का ठीक-ठाक विकास नहीं हो पाया था. उसकी रीढ की हड्डी में वे मोड विकसित न हुए थे जिससे वह सही तरह से खड़ा हो पाये. दरअसल यह मानव के विकास का एक ऐसा पड़ाव है जहाँ से भारतीय उपमहाद्वीप में मानव के आगमन का किस्सा शुरु होता है. हुआ यह था कि 1891 में एक डच सर्जन जिसका नाम यूजेन डुबॉयस था ने दक्षिण पूर्व एशिया के जावा द्वीप में एक महत्वपूर्ण खोज की. उस वक्त इण्डोनेशिया का यह इलाका डच लोगों का उपनिवेश था . अठारह साल का डुबॉयस चार्ल्स डार्विन से और उनके नैचुरल सलेक्सन के सिद्धांत से काफी प्रभावित था और इस सबकी वजह से वह जावा के उस इलाके में आधुनिक मानव के पूर्वजों को ढूँढ रहा था. यह वह वक्त था जब यह माना जाता था कि आधुनिक मानव का विकास अफ्रीका में नहीं बल्कि एशिया में हुआ है. इस वजह से इस विषय में काम करने वाले तमाम अनुसंधानकर्ता एशिया की ओर मुखातिब होते थे. इसी क्रम में डुबॉस ने जो ढूँढा वह एक स्कल का कैप यानी खोपडी का ऊपरी भाग और जाँघ की हड्डी जिसे फीमर कहा जाता है, थी. पॉपुलर प्रेस में यह मानव ‘जावा मानव’ के नाम से चर्चित हुआ. आज भी लोग इसे ‘जावा मानव’ ही कहते हैं.

बाद में अफ्रीका, एशिया, यूरोप और ओसेनिया में इस जावा मानव की तरह के मानवों के कई फॉसिल्स मिले. ये फॉसिल्स जावा मानव से मिलते जुलते थे. ये मानव अपने पूर्वज मानवों यानी  ऑस्ट्रेलोपिथिकस से ज्यादा विकसित थे. इस तरह मानव के उद्विकास में एक ज्यादा सक्षम और विकसित मानव का विकास हुआ था जो न सिर्फ दो पैरों से चल सकता था, बल्कि जिसकी रीढ की हड्डी भी काफी विकसित थी. दो पैरों से चल पाने के कारण यह भी हुआ कि इस मानव के दोनों हाथ चलने के काम से स्वतंत्र हो गये थे जिनका वह सक्षम प्रयोग कर सकता था. इन मानवों के तमाम फॉसिल्स को ‘इरेक्टस’ के नाम से जाना गया. आगे चलकर मानव के उद्विकास के इस चरण में विकसित हुए ये मानव इसी नाम से यानी  ‘इरेक्टस’ के नाम से जाने गये. जैसा कि इसके नाम ‘ इरेक्टस’ से ही स्पष्ट है कि यह सीधे खड़े होकर चलने की क्षमता रखता था. चूकीं दो पैरों से चलने की क्षमता का विकास इसने कर लिया था इसलिए यह लंबी यात्राएँ कर सकता था. ज्यादातर विद्वान यह मानते हैं कि इरेक्टस नाम के इस मानव का विकास अफ्रीका में हुआ था. पूर्वी अफ्रीका के क्षेत्रों में. दो पैरों से चल सकने की क्षमता के कारण यह पहला ऐसा मानव था जो अफ्रीका से अफ्रीका के बाहर माइग्रेट हुआ, यानी  लंबा सफर तय करके अफ्रीका से बाहर संसार के दूसरे इलाकों में गया. इरेक्टस के फॉसिल्स के अध्ययन बताते हैं कि अफ्रीका में उत्पत्ति के बाद यह उत्तर अफ्रीका की ओर फैला और फिर यूरेशिया की ओर और फिर उसके बाद दक्षिण-पश्चिम एशिया तक आया.

इस प्रकार इरेक्टस पहला ऐसा मानव हुआ जो अफ्रीका से माइग्रेट होकर संसार के दूसरे तमाम इलाकों में फैल पाया. लगभग 20 लाख से 10 लाख साल पहले तक इरेक्टस का यह प्रवसन पूर्वी अफ्रीका से दक्षिण अफ्रीका तक और लगभग 18 लाख साल पहले हॉर्न ऑफ अफ्रीका से यूरेशिया तक हुआ. लगभग 19 लाख साल पहले इनका प्रवसन सहारा के इलाके से एशिया और दक्षिण एशिया के रास्ते जावा द्वीपों तक हुआ. जावा द्वीपों तक जाने वाली श्रृंखला आधुनिक भारत के रास्ते दक्षिण-पूर्व एशिया तक फैली है जहाँ जैसा कि हम जानते हैं कि इनका एक फॉसिल जावा मानव जिसका जीव वैज्ञानिक नाम होमो इरेक्टस सिनान्थ्रोपस है मिलता है.7

जैसा कि है ही कि इन मानवों की यह स्पिशीज ‘इरेक्टस’ कहलाई और इनका जीव वैज्ञानिक नाम इनके जीनस यानी  ‘होमो’ और स्पिशीज ‘ इरेक्टस’ में इनकी सब-स्पिशीज को जोडकर बना जैसे होमो इरेक्टस पिथिकांथ्रोपस, होमो इरेक्टस सिनांनथ्रोपस और पहले अध्याय में वर्णित ‘नर्मदा मानव’ जिसका फॉसिल्स भारत में मिला था और शुरुआत में इसे दिया गया नाम था-होमो इरेक्टस नर्मदैंसिस. दुनिया में इरेक्टस की उपस्थिती की पहचान इरेक्टस की ओल्डुवान पाषाण संस्कृति से होती है जो पृथ्वी के उत्तरी गोलार्ध के 40 डिग्री अक्षांश तक फैली है. पुरातात्विक साक्ष्यों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि इरेक्टसों का यह फैलाव 13 लाख साल पहले तक हो चुका था.8

इरेक्टसों के इस विस्तार की कुछ प्रमुख जगहें पाकिस्तान के रेवात, लेवान्त में उबेदिया और कॉकेशस में द्मानिसि में पाई गई हैं.9

चीन के निहेवान बेसिन में लगभग 16 लाख साठ हजार साल पहले इरेक्ट्स बस चुके थे.10

चीन में इरेक्टस का एक महत्वपूर्ण फॉसिल मिला है जिसे ‘पीकिंग मानव’ के नाम से जाना जाता है. इस तरह यह है ही कि जावा में 17 लाख साल पहले तक इरेक्ट्स आ गये थे. चूकीं इस जगह वे भारत के रास्ते पहुँचे थे. संभवतः नर्मदा घाटी के रास्ते अतः 17 लाख साल तक भारत में उनका प्रवसन हो चुका था.11

रेने जी हेरेरा और राल्फ गार्सिया बर्टेण्ड की चर्चित किताब ‘एन्सेसटरल डी.एन.ए., ह्यूमेन ओरिजिन्स एण्ड माइग्रेशन्स’ के अनुसार भारत में इरेक्टस का यह प्रवसन लगभग दस लाख साल पहले तक अवश्य हो चुका था.12

यह किताब कुछ बेहद पुख्ता सबूतों के माध्यम से इसका काल निर्धारण करती है जो कि कम से कम दस लाख साल से पहले का समय है.

होमो इरेक्टस के माइग्रेट कर पाने की सबसे महत्वपूर्ण वजहों में से उसकी एनॉटॉमिकल, बौद्धिक और तकनीकी दक्षता थी जिसे होमो इरेक्टस ने अपने प्रारंभिक विकास में अर्जित किया था. इसके अलावा एक अन्य वजह उस समय के वातावरण में आये बदलाव भी थे जिसकी वजह से वे अंततः अफ्रीका के बाहर आकर संसार के विभिन्न हिस्सों में फैलते गये.13

विज्ञान में एक फिनॉमिना है जिसे सहारन पंप (Saharan pump) कहा गया है. इसके बहुत विस्तार में न जाते हुए सिर्फ इतना जान लेना पर्याप्त होगा कि इस फिनॉमिना में यह माना जाता है कि धरती के बीस हजार सालों का एक साईकिल यानी  चक्र है. इस चक्र की अवधि में धीरे-धीरे ऐसे परिवर्तन आते हैं जिसकी वजह से सहारा जैसा विशाल रेगिस्तान बना और इसके उलट चक्र के अगले क्रम में यही रेगिस्तान घने जंगलों में भी तबदील हो सकता है.14,15

इस फिनॉमिना के अनुसार धरती अभी इस बीस हजार साल के चक्र में से सात हजार साल पूरे कर चुकी है. इस तरह अपने लाखों साल के अफ्रीकी निवास के वक्त अत्यंत शुष्क और गीले वातावरण में बार-बार हो रहे परिवर्तन ने होमो इरेक्टस को अफ्रीका के बाहर फैलने पर मजबूर किया होगा. इसका प्रभाव कुछ इस तरह रहा होगा कि शुष्क जलवायु में इरेक्टस के ये समूह या तो सिकुड गये होंगे या फिर माइग्रेट हुए होंगे तथा आर्द्र वातावरण में वे दूसरी तमाम जगहों तक फैल पाये होंगे.16

आगे बढने से पहले एक और विषय पर बात कर लेना उचित है क्योंकि इसका प्रयोग आगे के अध्यायों में भी होता रहेगा. वह है पुराप्राणीशास्त्र और भूगोल में काल निर्धारण का तरीका. जिस तरह इतिहास और दूसरे विषयों में अलग-अलग समय को अलग-अलग कालों में विभाजित करके देखा जाता है वैसा भूगोल में भी है. भूगोल में पृथ्वी के विकास के विभिन्न कालों को अलग-अलग नामों से जाना जाता है और ये काल खण्ड हजारों साल तक लंबे हैं. इन्हीं में से एक काल खण्ड लोअर प्लाइस्टोसिन के नाम से जाना जाता है. मानव के पुरा इतिहास में इस काल का विशेष महत्व है.

यहाँ यह भी जान लेना ठीक है कि समय को कभी-कभी जिस तरह से एन्थ्रोपोलॉजी, भूगोल और पैलियेण्टालॉजी में दर्शाया जाता है वह इतिहास में BC या BCE या AD के बजाय KYA या MA के रुप में भी लिखा जाता है. चूकीं जिस समय या समयों की बात की जा रही होती है वह हजारों या लाखों सालों में होता है और ऐसी गणना में कुछ दषकों या तुलनात्मक रुप से कम अवधि के समय को दर्शित करने की जरुरत नहीं रह जाती है इसलिए BC या BCE या AD के बजाय Kya या MA का प्रयोग किया जाता है. Kya का मतलब हुआ हजार साल पहले यानी अगर 50 Kya है तो इसका मतलब है 50 हजार साल पहले तथा Ma का मतलब है मिलियन साल पहले और चूकीं एक मिलियन 10 लाख साल के बराबर होता है इसलिए अगर उदाहरण के तौर पर लिखा है 12 Ma तो इसका मतलब हुआ 1 करोड 20 लाख साल पहले. लोअर प्लाइस्टोसिनका समय भूगोल के काल निर्धारण का वह आखिरी हिस्सा है जो कि के.एम. कोहेन आदि के तैयार किये गये इण्टरनेशनल क्रोनोस्ट्रैटीग्राफी चार्ट के अनुसार 2.580 से 0.005 Ma यानी  25 लाख अस्सी हजार साल पहले से 5 हजार साल पहले तक का माना जाता है.

इस समय मानव की जिस संस्कृति का प्रसार संसार में देखा जाता है उसे प्रगैतिहास में पुरा पाषाण काल कहा गया है. इसका समय लगभग तीस लाख साल पूर्व से लेकर तीन लाख साल पूर्व तक का है. कुछ विद्वान इसका समय 25 लाख से 2 लाख साल पहले तक का बताते हैं. इस तरह भूगोल और पुरातत्व के इन दोनों समय में थोडा अंतर है क्योंकि ये अलग-अलग विषयों में अलग-अलग उद्देश्य के लिये हैं. पुरा पाषाण मुख्यतः लोअर प्लाइस्टोसिन में पड़ता है. इस समय की मानव संस्कृति को मुख्यतः उसके द्वारा निर्मित पत्थर के औजारों से पहचाना जाता है. पुरा पाषाण काल में मानव की जो संस्कृतियाँ आती हैं उनमें से ओल्डुवान से सुमेलित की जाने वाली संस्कृति सबसे पुरानी है जिसे मोड वन (mode1) भी कहा जाता है और इसके बाद एल्यूशियन संस्कृति का विकास हुआ जिसे मोड टू (mode2)कहा जाता है.

इस तरह यह माना जा सकता है कि लोअर प्लाइस्टोसिन का समय वह समय था जिसमें सबसे पहली बार मानव के बनाये पत्थर के औजार अस्तित्व में आये. पत्थरों के इन औजारों में से सबसे पुराने औजार होमो हैबिलिस नामक मानव के बनाये हुए थे. यह पता ही है कि होमो हैबिलिस इरेक्टस नहीं था पर पत्थर के पुरातनतम औजारों का श्रेय इसे दिया जाता है. प्रारंभ में इनका समय 28 लाख साल पहले का बताया गया था पर गत कुछ सालों के अनुसंधान इन्हें और भी पुराना बताते हैं.17

जैसा कि हम जानते हैं कि जीनस ‘होमो’ वाला पहला जीव होने के कारण होमो हैबिलिस को ज्यादातर विद्वानों ने पहला मानव माना है. यद्यपि इस पर अब भी डिबेट चल रही है. चूकीं यह डिबेट संसार के पहले मानव को तय करने की डिबेट है इसलिए आगे बढने से पहले इस पर थोडी बात लाजमी है.

लगभग 17 से 18 लाख साल पहले के पूर्वी अफ्रीका के मानवों के अध्ययन से यह पता चलता है कि कम से कम तीन स्पिशीज में होमो जीनस का लिनिएज यानी  इस जीनस के विकास का सांतत्य या कंटीन्यूयेशन दीखता है. ये तीन मानव होमो हैबिलिस, होमो रुडॉल्फेंसिस तथा होमो इरेक्टस हैं. पर इन्ही इलाकों में मिले कुछ सबूत और उनका मारफोलॉजिकल अध्ययन यह बताता रहा है कि होमो जीनस का होमो हैबिलिस और होमो रुडॉल्फेंसिस में विकसित होना 23 से 24 लाख साल पुरानी बात है. पर इसमें एक दिक्कत है. बीस से तीस लाख साल पुराने फॉसिल्स के रिकार्डस बताते हैं कि इन सैंपल्स के एनॉटॉमि, समय और स्थान के लिए जो काम हुआ वह इतना कमजोर था कि इससे इनकी टैक्सोनामिक विशेषता और आगे आने वाले होमो सैपियंस से इनके फाइलोजेनेटिक संबंधों को ठीक तरह से तय नहीं किया जा सकता था.18

इस तरह बाद में आये होमो सैपियंस में होमो हैबिलिस में विकसित जीनस होमो के सांतत्य में कुछ चीजें आज भी जानी समझी जा रही हैं. ज्यादातर विद्वान इस बात पर सहमत हैं कि होमो हैबिलिस जीनस ‘ होमो’ वाला पहला जीव था और इस लिहाज से धरती का पहला मानव भी. इस तरह धरती का पहला मानव होने की वजह से होमो हैबिलिस की संस्कृति धरती पर मानव की पहली संस्कृति थी. चूकीं ऑस्ट्रेलोपिथिकस समुदाय का यह सदस्य अफ्रीका में ही रहा और वहाँ से फैलकर बाहर नहीं गया इसलिए उसकी पुरा पाषाण संस्कृति अफ्रीका में ही सीमित है. जैसा कि बताया गया कि इसे ओल्डुवान या औल्डुवाय संस्कृति कहते हैं. एक टर्म मोड वन (mode 1) का प्रयोग भी इसके लिए किया जाता है.

भारत में इस सबसे पुराने मानव के प्रसार को जानने-समझने से पहले इस बात पर भी स्पष्टता जरूरी है कि प्रागैतिहासिक काल की इन अत्यंत प्राचीन संस्कृतियों को किस तरह से पहचाना जाता है. प्रागैतिहासिक काल के पत्थरों के औजारों को चार भागों में बाँटा गया है. जैसा कि उल्लेख किया गया कि सबसे पुराने पत्थर के औजार जिनका निर्माण होमो हैबिलिस ने किया था उन्हे मोड वन कहा जाता है, इसी तरह इसके बाद इरेक्टस के बनाये औजारों को मोड टू कहा जाता है. इसके बाद मोड थ्री और मोड फोर आते हैं. समय के साथ-साथ मानव ज्यादा बेहतर औजार बनाने लगा था. विकसित होते पत्थर के औजार अलग-अलग समय के अलग-अलग मानवों की संस्कृति के साक्ष्य होते हैं. कहने का तात्पर्य इरेक्टस के मोड टू वाले पत्थर के औजार जिन्हें एश्यूलियन संस्कृति के पत्थर के औजार कहा जाता है अपने से पुराने मोड वन वाले यानी  होमो हैबिलिस की एल्डुवान संस्कृति के पत्थर  के औजारों से ज्यादा विकसित हैं परन्तु अपने बाद मोड थ्री नाम के पत्थर के औजारों से कम विकसित हैं. मोड वन के पत्थर के औजार रफ चिप्पीनुमा होते थे जिन्हें होमो हैबिलिस और बाद के मानवों ने एक पत्थर को उपयुक्त किस्म के बड़े पत्थर से हिट कर-करके बनाया था. इस प्रक्रिया में पत्थर की जो चिप्पी उससे टूटकर अलग हो जाती थी उसके किनारों को शार्प करके प्रयोग किया जाता था. जिस पत्थर से ये चिप्पियाँ टूट कर अलग हो जाती थीं उस पत्थर का प्रयोग भी ये पुरातन मानव करते थे. इन चिप्पियों को रिटाउंच और मूल पत्थर को जो कि औजार की तरह प्रयुक्त होता था को कोर कहा गया है. यद्यपि यह विवादित है कि ये कोर प्रयोग किये जाते थे या सिर्फ अनुपयुक्त मानकर फेंक दिये गये थे.19

पुरापाषाण काल के कुछ एशुलियन औज़ार

बाद के एश्यूलियन औजारों में हैण्डैक्स, चॅापर, पॉलिहैड्रन, स्फेरियॉइड्स और कम मात्रा में क्लीवर्स और फ्लैक्स टूल्स मिलते हैं. इन औजारों में क्लीवर्स और फ्लैक्स टूल्स मिले हीं ऐसा जरूरी नहीं है. ये कहीं-कहीं मिलते हैं. इस तरह होमो हैबिलिस से लेकर इरेक्टस का समय आते- आते मानव ने पत्थर से पत्थर को हिट कर औजार बनाने की तकनीक को काफी विकसित कर लिया था. उन्हें धारदार बनाने के लिए वह हड्डी और लकडी का प्रयोग भी करने लगा था जिससे ये औजार अलग से पहचाने जा सकते हैं.

भारत में इस समय के मानव के किसी फॉसिल का न मिलना तथा दूसरे पैलियेण्टोलॉजिकल अवशेषों का न मिलना इरेक्टस के दौर के इन अध्ययनों को दुरूह बनाता है. जैसा कि पिछले अध्याय में यह बात आई कि नर्मदा मानव को पहले विकसित इरेक्टस माना गया था पर बाद में मानव के विकासक्रम में इसका स्थान और बाद का तय हुआ. आगे के अध्याय में इस पर विस्तार से है. पर इसका यह मतलब नहीं है कि आधुनिक भारत में इरेक्टस के होने के साक्ष्य नहीं मिलते. लगभग 10 लाख साल पहले आधुनिक भारत के इलाकों में आने वाले इस मानव ने अपने कई निशान छोड़े. संपूर्ण भारतीय उपमहाद्वीप में इरेक्टस की एश्यूलियन संस्कृति के अवशेष मिले हैं. इनका समय अलग-अलग है पर होमो इरेक्टस की इस संस्कृति के आधुनिक भारत में पाये जाने के ये महत्वपूर्ण सबूत हैं. सबसे नये एश्यूलियन औजार दो जगहों पर मिले हैं. गुजरात के उमरेठी में मिले पत्थर के औजार आज से एक लाख नब्बे हजार साल पुराने हैं तथा कर्नाटक के कलदेवनहल्ली की ट्रैवरटाइन तलछट चट्टानों में मिले औजारों का समय एक लाख छियासठ हजार से एक लाख चौहत्तर साल पहले का बताया गया है.20

इन औजारों का एक महत्वपूर्ण जमावडा कर्नाटक के तेग्गीहल्ली और सदब में मिला है. इन एश्यूलियन औजारों का समय दो लाख सत्तासी हजार से दो लाख निन्यान्बे हजार बताया गया है.21

तेग्गीहल्ली, नेवासा और येदुरवडी में तीन अलग-अलग भौगोलिक सन्दर्भों से यह बात निकलकर आती है कि इन जगहों पर मिले पत्थर के इन औजारों का समय तीन लाख पचास हजार साल पहले तक जाता है जो बताता है कि यह यूरेनियम सिरीज के तरीके से समय को तय करने के लिए निकाली गई मैग्जिमम समय सीमा से भी ज्यादा है.22

यानी  जितने पुराने बताये गये थे उससे भी कहीं ज्यादा पुराने हैं. यद्यपि यह भी है ही कि तलछटी चट्टानों के विभिन्न स्तरों के आधार पर समय को तय करना सदैव सही ही हो ऐसा नहीं माना जा सकता है. इस आधार पर कुछ विद्वानों ने इसके समय पर सवाल खड़े किये हैं. भारत में मिले एश्यूलियन स्थलों में दिदवान एक अपवाद है जिसमें एक रेत के टीले के नौ स्तरों में मिले एश्यूलियन संस्कृति के साक्ष्य एक लाख पचास हजार सालों से लेकर तीन लाख नब्बे हजार साल पहले तक के हैं.23

ऐसे कुछ और भी स्थल हैं जिनके काल निर्धारण को तय करने में काफी वक्त लगा था.

तमिलनाडु का अत्तिरमपक्कम जिसका समय एक लाख पाँच हजार साले पहले का बताया गया है होमो इरेक्टस की संस्कृति के काफी विस्तृत साक्ष्य उपलब्ध करवाता है.24

भारतीय उपमहाद्वीप के दक्षिण में बहने वाली कावेरी नदी के दक्षिण के भाग, उत्तर पूर्व के क्षेत्र जैसे मेघालय, असम, मणिपुर आदि तथा गंगा के मैदानी इलाके को छोडकर शेष लगभग सभी इलाकों में एश्यूलियन संस्कृति के साक्ष्य मिले हैं. शेष आधुनिक भारत के तमाम हिस्सों में अलग-अलग इकोलॉजी में एश्यूलियन और नॉन-एश्यूलियन पत्थरों के औजार मिलते रहे हैं. ये औजार मुख्य रुप से पहाडों के इलाकों में, पहाडी ढालों पर, जलोढ मिट्टी के जमावों में, तटीय मैदानों में और रॉक शैल्टर्स में पाये गये हैं. कुछ बेहतरीन ढंग से जाने-समझे गये एश्यूलियन औजार थार के मरुस्थल में भी पाये जाते हैं.25

सोन और बेलन घाटी के जमाव26, नर्मदा घाटी के पास मध्य प्रदेश के रायसेन जिले में भीम बैठिका27,28 महाराष्ट्र के विभिन्न इलाके29  और दक्षिण भारत30  के इलाकों में हुए उत्खनन और अनुसंधान बताते हैं कि इन क्षेत्रों में एश्यूलियन संस्कृति का काफी प्रसार था. सबसे उत्तर में एश्यूलियन संस्कृति के अवषेष लद्दाख के निकट मिलते हैं जहाँ महीन रेत के सैडिमेण्ट में दबे बोल्डर पत्थर के समूह के बीच से हैण्डैक्स, चॉपर्स, स्क्रैपर्स और फ्लैक्स मिले थे और जिनका बाद में अध्ययन किया गया.31

भारत में मिले इन एश्यूलियन औजारों के अध्ययन से यह पता चलता है कि होमो इरेक्टस के बनाये ये औजार इसी तरह के यूरोप और अफ्रीका में मिले औजारों से काफी मिलते जुलते हैं, पर वहीं अपने आकार, धार की शार्पनेस तथा तकनीकी विशेषताओं में इनसे काफी अलग भी हैं. इन पर हुए एक अध्ययन से यह भी पता चला है कि कुछ सुस्पष्ट तरीकों से आधुनिक भारत समेत समस्त दक्षिण एशियाई क्षेत्रों में मिले इन औजारों को अलग से तस्दीक किया जा सकता है.32

भारत में एश्यूलियन संस्कृति के पूर्व के पत्थर के औजारों का लगभग न मिलना एक ऐसी बात रही है जिससे अफ्रीका से होमो इरेक्टस के भारत आने के तर्क को पुष्ट किया जाता रहा है. यानी  इस बात के तर्क को इससे पहले कहीं कोई मानव भारत नहीं आया था, यह इसी बात के आधार पर बताया जाता है. वहीं यह भी हुआ कि विभिन्न संस्तरों में मिले औजारों में से कुछ को इन एल्यूशियन औजारों से ज्यादा पुराना बताया जाता रहा. प्रसिद्ध पुरातत्ववेत्ता वाकणकर ने भीम बैठिका के एक उत्खनिक शैल आश्रय यानी  पत्थरों के आश्रय रहवासों में एश्यूलियन से पहले के औजारों के मिलने को प्रस्तावित किया था. उनके अनुसार यह एक पेबल के ऐसे औजार के नीचे था जिसे संस्तर के रुप में प्रयुक्त किया गया था.33

बाद में व्ही.एन. मिश्रा द्वारा शैलाश्रय क्रमांक 3F-23 में फिर से किये गये उत्खनन से इस बात की कोई पुष्टि नहीं हुई कि इस जगह एश्यूलियन पूर्व के औजार भी मिलते हैं.34

कहने का तात्पर्य कि इरेक्टस से पूर्व के किसी मानव का कोई साक्ष्य नहीं है और इसकी कोई संभावना भी नहीं क्योंकि मानव के उद्विकास में इतनी स्पष्टता है ही कि इरेक्टस के पूर्व के मानव के भारत में प्रवसन के कोई साक्ष्य हो नहीं सकते.

यहाँ यह भी गौरतलब है कि आधुनिक भारत में कपि के पुरातन फॉसिल्स का पाया जाना एक ऐसी बात रही है जिसने मानव के विकास को समझने में कई तरह से मदद की. ये फॉसिल्स नर्मदा मानव से ज्यादा पुराने हैं. इनके बारे में इस बात पर स्पष्ट हो लेना चाहिए कि ये फॉसिल्स कपि के हैं यानी  एप्स के हैं न कि मानव के. भारत में इरेक्टस के आगमन और बसने को लेकर कई ऐसी बातें हैं जिनपर आज भी डिबेट हो रहे हैं. इण्डोनेशिया के जावा में मिले होमो इरेक्टस के समय के पुनः निर्धारण से जो कि अठारह लाख साल पूर्व तय किया गया था.35

होमो हैबिलिस याने धरती के पहले मानव का एक काल्पनिक चित्र

इस बात के संकेत मिले कि संभवतः आधुनिक भारत अफ्रीका और दक्षिण-पूर्व एशिया के बीच एक भैगोलिक कोरेडोर की तरह प्रयुक्त होता रहा हो. Did ancestors of the Pigmy or Hobbit ever lived in Indian heartland? नामक अनुसंधान जिसका जिक्र पिछले अध्याय में किया गया है उसके भी यही निष्कर्ष रहे हैं. पर दुर्भाग्य से वर्तमान में इस बात को प्रमाणित करने वाले पुरातात्विक साक्ष्य डिबेटेबल रहे हैं. इनमें अब भी कई स्पष्टताओं की जरुरत है. पर इससे यह तो पता चलता ही है कि पैलियेण्टोलॉजिकल और आर्कीयोलॉजिकल गैप अब भी हैं. ये गैप मध्य प्लाइस्टोसिन काल से पहले के हैं. इनमें से कुछ इस वजह से भी हैं कि औजारों के जो ढेर मिले हैं उनका समय अब तक तय नहीं हो सका है और यह भी लगता है कि इसकी एक वजह इस इलाके में बसने वाले लोगों की पुरा मध्य प्लाइस्टोसिन काल से पहले की डिस्कण्टीन्यूटी रही है.36

यद्यपि यह सही है कि एश्यूलियन संस्कृति के दर्जनों स्थल भारत में मिलते हैं जिनके अध्ययन से होमो इरेक्टस के भारत आगमन और उसकी सभ्यता के विकास के बारे में कई जानकारियाँ पता की जा सकती हैं. पर इन साक्ष्यों का एक मजबूत कालक्रम आज भी हमारे पास नहीं है. यह दिक्कत कुछ इस तरह है कि एश्यूलियन स्थलों के कालक्रम की जो पूर्ण श्रृंखला हमारे पास है वह मध्य प्लाइस्टोसिन से लगभग स्पष्ट और पृथक-पृथक है. इसमें लोअर, मध्य और अपर या नवीन पैलियोलिथिक या पाषाण काल के अलग-अलग समय को अलग-अलग कालानुक्रम में व्यवस्थित कर लिया गया है.37

परन्तु तकनीकी तरह से अपने-अपने कालानुक्रम में विन्यस्त इन समयों के बीच का संक्रमण पुरानी दुनिया के कुछ दूसरे इलाकों से प्राप्त सबूतों के आधार पर तय किया जाता रहा है. दक्षिण एशियाई साक्ष्यों के आधार पर इस शिफ्ट को अब भी सही तरीके से बताया नहीं जा सका है, जिसकी जरूरत है. यह जो वर्तमान में कमी है इसकी प्रमुख वजहें इन औजारों और इलाकों के सही समय का बहुत कम पता होना, सांस्कृतिक सातत्य वाले स्थलों के विस्तृत उत्खनन की जरूरत और उन साइट्स पर बेहद साफ और जीवाणु रहित संस्तरों का संरक्षण खासकर उन जगहों पर जहाँ इस तरह का सांस्कृतिक सांतत्य या कन्टीन्यूटी देखने को मिलती है, आदि हैं.38

किसी फॉसिल के प्राप्त न होने के बावजूद एश्यूलियन संस्कृति का प्रसार भारत में होमो इरेक्टस की मौजूदगी और प्रवसन का पुख्ता सबूत है. इस तरह उस क्षेत्र में जिसे आज हम भारत कहते हैं आने वाला पहला मानव अफ्रीका से आया था. उसकी उत्पत्ति अफ्रीका में हुई थी और कम से कम आज से दस लाख साल पहले वह भारत आ चुका था. दक्षिण पूर्व एशिया तक पुरातन मानवों के प्रसार में भारतीय उपमहाद्वीप की महत्वपूर्ण स्थिति थी. भारत उस समय से इन मानवों के लिए दक्षिण पूर्व एशिया तक प्रसार के रास्तों  (crossroads) की जगह रहा है, खासकर तब जब अफ्रीका में मानव के जीनस होमो का विकास (genesis) हुआ. यह भी गौर करने की बात है कि अफ्रीका के बाद भारतीय उपमहाद्वीप ही वह जगह है जहाँ संसार में सबसे ज्यादा जैनेटिक डायवर्सिटी पाई जाती है. जैनेटिक डायवर्सिटी के लिहाज से यह अफ्रीका के बाद दूसरा सबसे ज्यादा जैनेटिक डायवर्सिटी वाला इलाका है.39

भारत में इतनी प्रचुर मात्रा में जैनेटिक भिन्नताओं का मिलना इस बात को बताता है कि एनॉटॉमिकली आधुनिक मानव (AMHs) अफ्रीका से बाहर आने के बाद निकट पूर्व के रास्ते से माइग्रेट होकर भारत आये. यूरोप और पूर्वी एशिया में भिन्नता पूर्ण मानव जैनेटिक्स की आपूर्ति के लिए भारतीय उपमहाद्वीप की भूमिका एक किस्म के इन्क्यूबेटर या रिर्जवॉयार की तरह रही है. चूँकी इन पुरातन समयों में मानवों का प्रवसन एक जगह से दूसरी जगह होता रहा है और इस बात के पर्याप्त प्रमाण हैं कि भारत में और भारत से मानवों का प्रवसन एक अत्यंत प्राचीन बात रही है. इसी आधार पर कुछ वैज्ञानिक यह मानते रहे हैं कि दुनिया के तमाम इलाकों में विभिन्न दिशाओं से मानवों के क्लीनिकल प्रसार में इस इलाके यानी  भारतीय उपमहाद्वीप ने एक किस्म के एपीसेंण्टर की भूमिका निभाई. यह भी लगता है कि इतने उच्च स्तर की जैनेटिक विभिन्नताओं की एक वजह वह जनसंख्या विस्फोट रहा हो जिसे उस समय के एनॉटॉमिकली आधुनिक मानव (AMHs) ने संभव किया और जो अंतिम ग्लैशियल मैक्सिमम के बाद के आर्द्र और अनुकूल मौसम में तेजी से हुआ.40

इस तरह यह है कि संसार में सर्वाधिक जैनेटिक डायवर्सिटी वाला यह क्षेत्र जिसमें आज का भारत भी है और जिसका प्रसार संपूर्ण भारतीय उपमहाद्वीप में है मानवों के आवागमन के लिहाज से एक महत्वपूर्ण क्षेत्र रहा है.

उन्नीसवीं सदी के अंत में भारत के उत्तरी हिस्सों में एक फॉसिल्स मिला जिसे शिवापिथिकस कहा गया. बाद में कुछ अन्य जगहों से ऐसे ही फॉसिल्स मिले. नेपाल में काठमाण्डू के नेचर म्यूजियम में एक फॉसिल्स है जो 1932 में मिला था और जो रामापिथिकस के नाम से जाना गया है. बाद में रामापिथिकस के कुछ और नमूने मिले 1975-76 में. कुछ पुरानी अवधारणाओं के चलते यह मानने की भूल उस दौर में हो चुकी थी कि ये दोनों नमूने मानव के पुराने नमूने रहे होंगे पर इन दोनों फॉसिल्स पर हुए अनुसंधानों से इन पर दो तरह की स्पष्टताएँ बनीं. पहली तो यह कि ये दोनों प्रकार के नमूने यानी  शिवपिथिकस और रामपिथिकस कोई अलग-अलग नहीं हैं. बल्कि इन्हें इनके पुराने नाम यानी  शिवपिथिकस से ही जाना जाना चाहिए. एन. गिब्बन ने इसके अध्ययनों के आधार पर यह निष्कर्ष प्रस्तुत किया कि इन दोनों नमूनों में जो अंतर दिखता है उसकी वजह यह है कि शिवपिथिकस संभवतः किसी मादा का नमूना हो और रामापिथिकस किसी नर का.41

इरेकटस का काल्पनिक चित्र .

1982 में डैविड पिलबीम ने शिवपिथिकस पर एक अनुसंधान प्रस्तुत किया था जिसका लब्बोलुबाब यह है कि शिवपिथिकस उरांग उटन नामक कपि के काफी निकट था. इस अनुसंधान और बाद में हुए कुछ और अनुसंधानों से यह स्पष्ट होता गया कि ये दोनों प्रकार के नमूने मानव के नहीं बल्कि कपि के थे. इनका समय आज से लगभग 1 करोड 22 लाख साल पहले का है.42

एक बेहद रोचक बात यह है कि साल 2011 में गुजरात के कच्छ में शिवपिथिकस का एक नमूना मिला था. इस पर हुए अध्ययन बताते हैं कि यह लगभग 1 करोड 8 लाख साल पुराना है. इस नमूने से दक्षिण भारत में शिवपिथिकस के प्रसार के सबूत भी मिले हैं.43

इस प्रकार यह स्पष्ट है कि सबसे पुराने ये नमूने कपि के नमूने हैं न कि मानव के. इनका जीनस होमो नहीं है. अर्थात ये किसी भी लिहाज से मानव के फॉसिल्स नहीं हैं. इन पर बात करना इसलिए भी जरुरी है कि कई बार फॉसिल्स के इन नमूनों को भारतीय उपमहाद्वीप में मानव के नमूने के रुप में बताने की चेष्टा होती रही है, जो कि सही नहीं है. इसकी एक वजह यह भी है जैसा कि गिब्बन बताते हैं कि शिवपिथिकस का जबडा मानव से काफी कुछ मिलता जुलता था जिसके कारण प्रारंभिक मारफोलॉजिकल अध्ययनों में मानव से इसकी समानता सहज ही दीखती थी.44

इस तरह इस मामले में स्पष्ट हो लेना सही है कि रामापिथिकस और शिवपिथिकस मानव के नहीं बल्कि कपि के नमूने हैं और उन्हें भारतीय उप महाद्वीप में करोडों साल पहले मानव की उपस्थिति के रुप में देखना गलत है.

दरअसल जैसा कि है ही कि मानव का धरती पर आना धरती के इतिहास के लिहाज से एक नई घटना है. धरती के करोडों साल के इतिहास में कुछ लाख सालों का इतिहास एक बेहद नई घटना ही मानी जायेगी भले हमारी चेतना के अनुसार यह समय बेहद लंबा लगता हो. जैसा कि है ही कि पहला मानव यानी  वह मानव जिसका जीनस होमो था धरती पर किसी भी स्थिति में 24 लाख साल से ज्यादा पुराना नहीं है और जैसा कि है ही कि यह मानव अफ्रीका में ही रहा और माइग्रेट नहीं हुआ इसलिए इसके अवशेष न तो संसार में कहीं मिलते हैं और न ही इनके मिलने की कोई संभावना दिखती है. भारतीय उप महाद्वीप में पहले मानव की उपस्थिति को कम से कम दस लाख साल पहले तक का माना जाना चाहिए और जैसा कि है ही यह मानव मूलतः एक अफ्रीकी मानव था और माइग्रेट होकर भारतीय उपमहाद्वीप आया था.

एश्यूलियन संस्कृति और विशेष तौर पर इसके विकसित किये गये पत्थर के औजारों से भारतीय उपमहाद्वीप में इसकी उपस्थिति को तसदीक किया जा सकता है. पर इस मानव की स्पिशजी ‘सैपियंस’ न थी. यानी  यह वह मानव न था जो आज इस धरती पर है. भारतीय उपमहाद्वीप में सैपियंस के आने में अभी समय था. वास्तव में उस ही नहीं हुई थी. मानव के पुरा इतिहास में सैपियंस की उत्पत्ति एक बेहद बाद की और अत्यंत नवीन घटना है. भारतीय उपमहाद्वीप में इनका आना और भी नई बात रही है. भारत में सैपियंस का आना भौगोलिक समय की गणना में बहुत बाद का और बेहद नवीन वाकया रहा है. सैपियंस का आना इस लिहाज से भी महत्वपूर्ण है क्योंकि इन लोगों ने सिंधु घाटी की सभ्यता तक कुछ ऐसी संस्कृतियों का निर्माण भी किया जिन पर कई महत्वपूर्ण अध्ययन हुए हैं. दरअसल जिन संस्कृतियों को हम जानते समझते हैं और जो हमारी इतिहास की किताबों में हैं ही उनकी कई कहानियां इस सारे भू-भाग में सैपियंस के आने से ही संभव हुईं.

_______

संदर्भ सूची

  1. देखें, स्मिथसोनियन म्यूजियम ऑफ नेचुरल हिस्ट्री में प्रदर्षित विभिन्न मानव फॉसिल्स का समयावधी चार्ट.
  2. देखें, हाइले सेलासी वाई का अनुसंधान आलेख ‘फाइलोजेनी ऑफ अर्ली ऑस्ट्रेलोपिथिकस: न्यू फॉसिल एविडेन्स फ्रॉम द वोरॉनसो-मिले (सेन्टरल अफ्रीकन इथोपिया)
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  4. देखें, Kimbel, W.H.; Villmoare, B. का बायोलॉजिकल साइंसेस की ‘फ्रॉम ऑस्ट्रेलापिथिकस टू हामोः द ट्रांज़ीशन दैट वॉजेन्ट’ का पृष्ठ 371
  5. देखें, रियरडन और सारा का ‘न्यू साइंटिस्ट’ में प्रकाशित आलेख ‘द ह्यूमिनिटी स्विच: हाउ वन जीन मेड अस ब्रेनियर’
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  7. देखें, Kimbel, W.H.; Villmoare, B. बायोलॉजकल साइंसेस का अनुसंधान आलेख “From Australopithecus to Homo: the transition that wasn’t”.
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  10. देखें, R. Zhu et का आलेख New evidence on the earliest human presence at high northern latitudes in northeast Asia.
  11. देखें, Kimbel, W.H.; Villmoare, B.का बायोलॉजिकल साइंसेस का आलेख “From Australopithecus to Homo: the transition that wasn’t”.
  12. रेने जी हेरेरा और राल्फ गार्सिया बर्टेण्ड की एकेडेमिक प्रेस से प्रकाशित किताब ‘एन्सेसटरल डी.एन.ए., ह्यूमेन ओरिजिन्स एण्ड माइग्रेशन्स’ का पेज 56
  13. देखें, वही.
  14. देखें, वही.
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  16. देखें, रेने जी हेरेरा और राल्फ गार्सिया बर्टेण्ड की एकेडेमिक प्रेस से प्रकाशित किताब ‘एन्सेसटरल डी.एन.ए., ह्यूमेन ओरिजिन्स एण्ड माइग्रेशन्स’ का पेज 56-57
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  20. देखें, पार्थ आर. चौहान के आलेख ‘ ह्यूमैन ओरिजिन स्टडीज़ इन इण्डिया: पोज़ीशन,
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  22. देखें, Pappu, R.S. की डी.के. प्रिंटवर्ल्ड से प्रकाशित किताब Acheulian Culture in Peninsular India
  23. देखें, Raghavan, H., Rajaguru, S.N. तथा  Misra, V.N. का मैन एण्ड एन्वायरमेण्ट में प्रकाशित अनुसंधान आलेख  “Radiometric dating of a Quaternary dune section, Didwana, Rajasthan.”  का पृष्ठ 19-22
  24. देखें, जोस राफेल,10 अक्टूबर 2018, ‘सेंट्रल इण्डियन एश्यूलियन साइट्स’.
  25. देखें, Misra, V.N. का मैन एण्ड एन्वायरमेण्ट में प्रकाशित अनुसंधान आलेख  “Stone Age India: An ecological perspective.” का पृष्ठ 17-64
  26. देखें, Clark, J.D. और  M.A.J. Williams का मैन एण्ड एन्वायरमेण्ट XV (1) में प्रकाशित अनुसंधान आलेख “Prehistoric ecology, resource strategies and culture change in the Sun valley, northern Madhya Pradesh , Central India’’ पृष्ठ120-33
  27. देखें, Misra, V.N. की ऑक्सफोर्ड एण्ड IBH Publishing Co. से प्रकाशित The Acheulian succession at Bhimbetka.” In (V.N. Misra & P. Bellwood, Eds.) Recent Advances in Indo-Pacific Prehistory का पृष्ठ 35-47
  28. देखें, Jacobson, J. की ऑक्सफोर्ड एण्ड IBH Publishing Co. से प्रकाशित “Acheulian surface sites in Central India.” In (V.N. Misra & P. Bellwood, Eds.) Recent Advances in Indo-Pacific Prehistory. का पृष्ठ 49-57
  29. देखें, Corvinus, G. की A Survey of the Pravara River in Western Maharashtra , India . Vol. 1. The Stratigraphy and Geomorphology of the Pravara River System
  30. देखें, Paddayya, K., Blackwell, B.A.B., Jhaldiyal, R., Petraglia, M.D., Fevrier, S., Chaderton II, D.A., Blickstein, J.I.B. तथा Skinner, A.R. का ‘करेण्ट साइंस’ 83 (5) में प्रकाशित आलेख “ Recent findings on the Acheulian of the Hunsgi and Baichbal valleys, Karnataka, with special reference to the Isampur excavation and its dating”. पृष्ठ 641-647
  31. देखें, Sharma, K.K. का जियोलॉजिकल सोसाइटी ऑफ इण्डिया में प्रकाशित अनुसंधान आलेख  “Quaternary stratigraphy and prehistory of the Upper Indus Valley , Ladakh.” In (S. Wadia, R. Korisettar, & V.S. Kale, Eds.) Quaternary Environments and Geoarchaeology of India- Essays in Honour of Professor S.N. Rajaguru. Bangalore का पृष्ठ 98-108
  32. देखें, वही क्रमांक 22
  33. देखें, Wakanker, V.S. का जर्नल ऑफ इण्डियन हिस्ट्री में प्रकाशित “Bhim-betka Excavations.” का पृष्ठ23-33
  34. देखें, वही क्रमांक 27 का पृष्ठ 35-47
  35. देखें, Swisher C C III, Curtis G H, Jacob T, Getty A G, Suprijo A और Widiasmoro का साइंस पत्रिका 263 में प्रकाशित अनुसंधान आलेख Age of earliest known hominids in Java, Indonesia का पृष्ठ1118-1121
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  38. देखें, Chauhan P R त्तथा M Camps की स्प्रिंगर प्रेस की किताब The South Asian Paleolithic record and its potential for transitions studies dk in Sourcebook of paleolithic transitions: Methods, theories and interpretations का पृष्ठ 121-139
  39. देखें, रेने जी हेरेरा और राल्फ गार्सिया बर्टेण्ड की एकेडेमिक प्रेस से प्रकाशित किताब ‘एन्सेसटरल डी.एन.ए., ह्यूमेन ओरिजिन्स एण्ड माइग्रेशन्स’ का पेज 207
  40. वही.
  41. देखें, Gibbons, Ann की डबलडे से प्रकाशित किताब ‘द फर्स्ट ह्यूमैन’.
  42. देखें, R.S.Sharma की India’s Ancient Past का पृष्ठ 52
  43. देखें, Bhandari, Ansuya; Kay, Richard F.; Williams, Blythe A.; Tiwari, Brahma Nand; Bajpai, Sunil; Hieronymus, Tobin, Charles, Cyril आदि का विस्तृत अनुसंधान आलेख “First record of the Miocene hominoid Sivapithecus from Kutch, Gujarat state, western India”.
  44. देखें, वही क्रमांक 41.

तरुण भटनागर

तीन कहानी संग्रह, तीन उपन्यास प्रकाशित. कई सम्मानों से सम्मानित. इधर इतिहास को लेकर भी लेखन कार्य सामने आ रहा है.
भारतीय प्रशासनिक सेवा में कार्यरत
tarun.bhatnagar1996@gamil.com

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Comments 2

  1. Praveen k pandey says:
    3 years ago

    पुरातन इतिहास के सन्दर्भ में शोध परक तथ्यात्मक विवरण ! बहुत बहुत आभार

    Reply
  2. दया शंकर शरण says:
    3 years ago

    ऐसा माना जाता है कि पाँच लाख ईसा पूर्व से पच्चीस सौ ईपू का समय प्रागैतिहासिक काल है। हालाँकि उस काल का कोई लिखित साक्ष्य कहीं नहीं है।यह केवल उपलब्ध पुरातात्विक साक्ष्यों के आधार पर एक अनुमान है।उस काल के अंतर्गत पाषाण और ताम्र काल आते हैं।मनुष्य का जीवन पत्थरों पर निर्भर था।पत्थरों के औजार और पत्थर की गुफाओं में निवास। मैंने कहीं पढ़ा था कि भारत में पुरा पाषाण संस्कृति की खोज का श्रेय रॉबर्ट ब्रूस फ्रूट को दिया जाता है।1863 में इन्होंने महत्वपूर्ण खोज की। उस समय के मनुष्य नेग्रिटो नस्ल के थे। हालांकि इस विषय पर मेरी कोई ऑथोरिटी नहीं है और कई अलग-अलग मान्यताएं हैं।
    पुरा पाषाण काल में पत्थरों को रगड़ने से आग पैदा हुई।यह सभ्यता के इतिहास की पहली क्रांतिकारी घटना बनी।
    मनुष्य के ताम्रयुग में पहुँचने के साथ नदियों के किनारे नागर सभ्यता विकसित होने लगी।लिपि का आविष्कार इस युग की सबसे महान घटना है।

    Reply

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