इ बा र तें |
स्वीडन के निर्देशक इंगमार बर्गमैन की प्रसिद्ध फ़िल्म ‘Wild Strawberries’ का एक पात्र अपनी पत्नी से कहता है- “न ही कुछ उचित होता हैं, न ही कुछ अनुचित. हम सब अपनी जरूरतों के अनुसार अपना-अपना कर्म करते रहते हैं.”
अपने कॉलेज के दिनों में, अपने शहर की फ़िल्म सोसाइटी ‘सिने मोन्ताज़’ में इस फ़िल्म को पहली बार देखा था. बर्गमैन की ही कुछ और प्रसिद्ध फिल्मों को भी. उन बरसों में बर्गमैन, अन्तोनियोनी औऱ ब्रेसा की फिल्मों का नशा–सा जादू–सा छाया रहता था. तब शायद इन निर्देशकों और इनकी फिल्मों का न मर्म समझा होगा और न ही उनके फिल्मों की मार्मिकता, मानवीयता. और कविता.
बार-बार इनकी फिल्मों को देखने से इनके पास–पड़ोस और इनके बाद बनी फिल्मों से, इन लोगों के सिनेमा का महत्व कुछ–कुछ बहुत थोड़ा सा-ही, लेकिन समझने लगा हूँ. इन फिल्मों को अपने लिए समझता हूँ पर इन फिल्मों को किसी को समझा सकूं, यह मेरे बस की बात नहीं हैं.
‘Wild Strawberries’ की उस बात का ख्याल, आज शाम को चार्ली चैपलिन की एक फ़िल्म के उस पात्र की बात से आया, जिसमें वह नायिका से कह रहा हैं कि
“हम सब अपना जीवन मूल्यों को ध्यान में रखकर उतना नहीं, जितना अपने मोह और स्वार्थ से वशीभूत होकर जीते हैं.”
चार्ली चैपलिन और बर्गमैन में जमीन-आसमान का अंतर हैं. एक हास्य, व्यंग और विडंबना से घिरा हुआ, दूसरा अपने उदास वैभव में डूबा हुआ. पर इन दोनों से ही हमें जीने का आनंद मिला हैं, जीवन को देखने की जीवनदृष्टि और अंतर्दृष्टि भी.
न जाने इन दोनों की ही फिल्मों को कितनी–कितनी बार देखा है, लेकिन इनकी किसी भी फ़िल्म को देखकर न कभी ऊबा हूँ, न ही थका हूँ. दोनों की ही फिल्में अब भी मुझे जीवन का आनंद देती हैं, जीवन जीने के लिये अंतर्दृष्टि देती हैं. दोनों के ही पास कलात्मक अंतर्दृष्टि बनी भी रही, बढ़ती भी गयी.
इन दोनों को ही जीवन की तरफ देखना आता रहा, सिनेमा की तरफ देखना आता रहा. इन दोनों के लिए भी किसी की किसी एक और महान निर्देशक के लिए कही गई यह बात सच हो सकती है कि ये जहाँ देखते हैं, जिस चीज को देखते हैं, वहाँ से सिनेमा शुरू होता है.
2)
इस बरस की गर्मियाँ लौट गई. इस बरस की बारिश लौट आई. ऋतुओं के जन्म और मृत्यु का यह सिलसिला सदियों से चला आ रहा है. एक ऋतु का जाना होता है, उसकी एक जगह दूसरी ऋतु का आना पर इस सृष्टि में उतरती हर नयी ऋतु, मानवीय जीवन को भी नया बना जाती है, नवाचार से जोड़ती है, नएपन की याद दिला जाती है.
अब मेरे पास गर्मियों के दिनों की याद, गर्मियों के दिनों की राख की तरह फैली हुई है. दुपहरियों में सड़कों पर पसरा सन्नाटा.
घरों के बंद दरवाजे-खिड़कियां. घर–घर से आती कूलर के चलने की आवाज. शहरों की भयावह गर्मियों और उन के डेड-लैंडस्केप के बीच कहीं से सांत्वना आती है तो वे हमारे आसपास खड़े हुए पेड़ हैं. खासकर आम, गुलमोहर, अमलतास के पेड़ और उनकी छाया और उनकी सरसराहट से मालूम पड़ती हवा.
उन्नीस सौ सत्तर–इकहत्तर की, अपनी बचपन की गर्मियों की याद आती है. अपनी दुपहर अपने चचेरे भाई–बहनों के बीच बिताकर, शाम को कस्तूरबा लाइब्रेरी जाया करता था. वहाँ की बड़ी-सी, गोलाकार, लकड़ी की मेज पर सिर्फ बच्चों के लिए आती पत्रिकाएं और उनके पड़ोस में लकड़ी की अलमारियों में बच्चों के लिए लिखी गई किताबों की मौजूदगी.
उन पत्रिकाओं और किताबों में जलपरियों, परियों, सौदागरों, जादूगरों और राजकुमार–राजकुमारी का जीवन खड़ा रहता और उनके जीवन की नियति. शाम के समय किताबों–पत्रिकाओं में खोए-डूबे हुए मैं बाहर की गर्मियों की भयावहता, क्रूरता को भूल जाया करता. बचपन की उन गर्मियों के बाद आज तक गर्मियां चली आती हैं लेकिन याद नहीं आता कि किताबों में उस तरह से डूबना, वैसे डूबना कभी जरा–सा भी महसूस हुआ हो.
3)
बीसवीं सदी की अमेरिकी लेखक और पत्रकार कैथरीन पोर्टर की प्रसिद्ध कहानी ‘Flowering judas’ को दूसरी बार पढ़कर समाप्त किया .
जुडास, जीसस के बारह शिष्यों/देवदूतों में से एक रहे थे. उन्होंने जीसस के साथ विश्वासघात किया था. उसके बाद गहरे पछतावे के साथ उन्होंने एक पेड़ के तने से लटककर आत्महत्या की थी. उसी पेड़ को ‘जुडास ट्री’ के नाम से भी जाना जाता है.
कैथरीन पोर्टर की यह कहानी बाइबल के इस मिथक को अलग और नयी रोशनी में परिभाषित करती है. यही एक अच्छी कविता, एक अच्छी कहानी का धर्म भी बनता है कि वह परंपरा से चले आ रहे मिथकों, रूपकों, बिंबों को अपने समय और समाज के परिप्रेक्ष्य में, एकदम नये सिरे से आलोकित, परिभाषित करते रहे.
पिछले बरसों में इतालवी लेखक ‘राबर्टो कलासो’ की ऐसी किताबें हिंदी में आईं, जिससे हमारे मिथकों, देवी–देवताओं पर एकदम अलग ढंग से चिंतन–मनन किया गया है. इस इतालवी लेखक ने दुनिया भर के इन और ऐसे मिथकों को जानने की खातिर फ्रेंच, स्पेनिश, जर्मन, अंग्रेजी, ग्रीक, लैटिन भाषाओं के साथ–साथ संस्कृत भाषा भी अच्छी तरह से सीखी. इस सदी के पहले दशक में वे भारत भी आये.
उनके जीवन भर के काम के जानकार बताते हैं कि अस्सी की उम्र को छू रहे इस लेखक ने मिथकों और आधुनिक चेतना के अन्तर्संबंधो पर गहरा काम किया है.
4)
बरसों बाद, इस बार की बारिश में शरतचंद्र चटर्जी के कुछ उपन्यासों के अंग्रेजी अनुवादों को लगातार पढ़ता रहा. अपने आमला प्रवास के शुरुआती दिनों में, उन्नीस सौ बयासी की बारिश में उनके श्रीकांत, चरित्रहीन और शेष–प्रश्न शीर्षक से आये उपन्यासों के हिंदी अनुवाद पढ़े थे .
वे आमला में निरंतर, घनघोर और झड़ी लगी बारिश के दिन हुआ करते थे.
उन दिनों में तो नहीं, पर इस बार उनको पढ़ते वक्त जान रहा हूँ कि फ्रांस के प्रसिद्ध लेखक रोमा रोलां को लगा था कि ‘श्रीकांत’ एक ऐसी असाधारण कृति है जिसे नोबेल पुरस्कार दिया जाना चाहिए था. अभी-अभी शेष-प्रश्न पढ़ते हुए यह जाना कि बंगला में इसके पहले प्रकाशन के समय उनकी एक पाठक ने उन्हें पत्र में लिखा था कि अगर उसके पास धन रहता तो वह ‘शेष–प्रश्न’ को अपने खर्च पर छपवातीं और उसकी प्रति को घर–घर जाकर वैसे ही मुफ्त में बाँटती, जिस प्रकार ईसाई मिशनरी के लोग घर–घर में जाकर बाइबल की प्रति मुफ्त में देते हैं.
आलोचक शरतचंद्र की सरल, सीधी–सादी, स्पष्ट, सुबोध, ओजस्वी और गतिशील भाषा के प्रशंसक बने रहे. एक युग, एक समाज के पतन, अपने समय के समाज की पतनशीलता को अपने लेखन के केंद्र में रखने के कारण, शरतचंद्र को चार्ल्स डिकेंस के साथ रखा जरूर जाता है लेकिन शरतचंद्र अपने आप में एकदम विरल, विशिष्ट और दुनिया में अपनी किस्म के निराले लेखक रहे हैं.
उनके अपने मिट्टी से जुड़े होने, पूरी तरह देशज होने के कारण भी रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने उनके बारे में कहा था कि “शरत बाबू पूरी तरह से, हर तरह से अपने युग, अपने देश और समाज के लेखक बने रहे और यह कोई छोटी बात नहीं हैं”.
बोरिस पास्तरनाक के उपन्यास ‘डॉ. जीवागो’ पर इस सदी की शुरुआत में बनी फिल्म देखी. उपन्यास की तरह फ़िल्म का कैनवास भी बहुत बड़ा है. अपने देशकाल को विस्तृत रूप में व्यक्त करती हुयी इस फ़िल्म में बर्फ , जंगल, गांव और शहर के लैंडस्केप हैं. स्कूल के कमरे हैं और क्रांतिकारियों के प्रदर्शन हैं. लारा का विषाद है और यूरी की विडंबनाएं और विवशताएं हैं.
यूरोप के आदमी ने अपने क्रूर और बर्बर इतिहास को कितना ज्यादा सहा है. उसके लेखकों, कलाकारों ने इतिहास की अमानवीयता, अराजकता को कितने अच्छे ढंग से व्यक्त किया है!
क्या हमारी हिंदी भाषा की कृतियों के अपने इतिहास से रिश्तों पर कोई गहरा चिंतन–मनन उपलब्ध होगा?
5)
छोटी-सी नदी, उस पर खड़े हुए पुल को पार करने के दो किलोमीटर के बाद जंगल की शुरुआत में खड़ा यह डाकबंगला. इसके पास अंधेरा और सिर्फ अंधेरा. अंधेरे पर पसरा हुआ अंधेरा. चौकीदार के कमरे में जलती हुई लालटेन. नैसर्गिक आलोक के अलावा लालटेन से बाहर आती रोशनी.
जंगल की रात का यह गाढ़ा अंधेरा हमसे कितना कुछ कह जाता है.
सदियाँ बीत गईं लेकिन आदमी के लिए अंधेरा एक रहस्य, एक पहेली ही बना हुआ है.
आदमी ने अब तक प्रकृति के रहस्य और जादू को पूरी तरह से स्वीकार नही किया है. समूचा प्राणिजगत, वनस्पति का विशाल संसार सृष्टि को वैसा ही स्वीकार करता होगा, जैसी वह है.
अपनी खुद की अस्मिता, असाधारणता और अराजकता लिए. अपनी जिजीविषा, जिद और जादू में अकेली-सी लेकिन आदमी अब तक प्रकृति की अपनी चुनौतियों से जूझ रहा है, उसके अपने रहस्यों को समझना और बदलना चाह रहा है.
शायद इसी जंगल में ‘किपलिंग’ का नायक मोगली घूमा करता हो. अंग्रेज लेखक का वह छोटा-सा लड़का जिसके कारनामों से पीढ़ियां अभिभूत रहती रहीं.
यह जानना कितना अजीब लगता हैं कि लातिनी अमेरिकी लेखक ‘बोर्खेज़’ अपने बुढ़ापे में ‘किपलिंग’ की तरह की सीधी–सादी कहानियां लिखने की लालसा लिए हुए रह रहे थे.
6)
रात के उतरते–उतरते दिल्ली के ‘चाणक्यपुरी’ इलाके में खड़े यूथ होस्टल की डॉरमेट्री में लौट आया. यहाँ है एक छोटी–सी लाइब्रेरी. बरसों पुरानी और काले रंग की जिल्द की गई किताबें.
उन्नीसवीं और बीसवीं सदी का अंग्रेजी, फ्रेंच और रूसी साहित्य.
मैं रात के इस हिस्से और सुबह के लिए एक किताब चुनता हूँ.
किताबों को चुन पाने की स्वतंत्रता का अहसास, सुख देता है.
क्या हम इतनी और ऐसी सहजता लिए हुए अपने लिए कोई मित्र चुन सकते हैं ?
अपनी मर्जी से अपने मन मुताबिक किसी मानवीय रिश्ते को चुन सकना, इतना आसान नहीं होता.
यहाँ अपना मन ही नहीं, एक दूसरा मन भी शामिल होता है
एक दूसरा, अजनबी, अमूर्त मन और उसकी अपनी जटिलताएँ क्या आदमी के मन को मिला कोई अभिशाप है कि मन चाहे अपना हो या दूसरे का, हमेशा जटिल ही बना रहता हैं?
लेकिन यह भी कैसे कहा जा सकता है कि बिल्ली का अपना मन जटिल नहीं होता होगा!
या कि अमलतास के मन में उदासी नहीं उतरती होगी !
अमलतास से इन गर्मियों में अपना शहर याद आ जाता है.
याद आता हैं पीले फूलों से लदा हुआ सेमिनरी हिल्स में खड़ा हुआ अमलतास का पेड़.
हॉस्टल की डॉरमेट्री में नींद टूटती रहती है. आसपास विदेशी दूतावासों के दफ्तर, विशालकाय होटल की इमारतें और ट्रैफिक का शोर बना रहता है. हमारे रूम में दो लड़के नाइजीरिया के हैं. देर रात को लौटते हैं. एक को सोने से पहले पढ़ते रहने की आदत है- उसके पास का नाईट लैंप जलता रहता है. ऐसे में रात का समय किसी फंदे-सा लटकता हुआ महसूस होता है.
अभी–अभी पढ़े गये ‘वर्जीनिया वुल्फ’ के उपन्यास “मिसेज डैलोवे” के एक अंश का ख्याल आता है.
मिसेज डैलोवे के जटिल मन की याद. एक कवि की नहीं, एक उपन्यासकार की दुनिया. विस्तृत और विस्मयकारी. अपनी तरह का रहस्य और रस लिया हुआ संसार .
सोचता हूँ कि यह कितनी बड़ी सांत्वना है कि हमारी दुनिया में इतने उपन्यास, कहानियां और कविताएं मौजूद हैं, जिनसे मानवीय मन को देखा जा सकता है, समझा जा सकता है. हमारे देशी-विदेशी साहित्य ने कितनी स्वतंत्रता लिए, कितने सौंदर्य के साथ, कितनी गहरी समझ और संवेदनाएं लिए हुए, मानवीय मन को समझने–समझाने में हमारी इतनी मदद की है.
7)
रोज़मर्रा की जिंदगी में बराबर, निरंतर खड़ा हुआ बंजरपन दिल को उदास कर जाता है. कभी–कभार यह भी महसूस होता है कि हम अपनी ज़िंदगी को इतना ज़्यादा प्रेम कर रहे हैं और वह हमें धोखा देती जा रही है.
हम चाहते हैं कि हमारे जीवन में कुछ नये अर्थ खुलें.
हम उन अर्थों को संभाल सकें. उनकी प्रतिध्वनियों के साथ बने रहे लेकिन ऐसा कहाँ हो पाता है?
‘वर्जीनिया वुल्फ’ से जुड़ी एक बात की बरबस ही याद आती है- उनकी बहन वेनेसा एक चित्रकार थीं. वर्जीनिया अपनी बहन को कैनवास के सामने खड़े होकर घंटों अपने चित्रों पर काम करते हुए देखा करतीं. एक दिन उन्होंने सोचा कि चित्रकारों को अपना काम करते हुए, मानसिक स्तर पर ही नहीं , शारीरिक स्तर पर भी जूझना पड़ता है. अपने इस अहसास के बाद वे भी खड़े–खड़े एक ऊंची–सी डेस्क पर लिखने लगींl ऐसी डेस्क जो पोस्ट ऑफिस, रेलवे रिज़र्वेशन रूम या बैंक में रखी रहती हैं.
कभी “लंदन मैगज़ीन” के किसी अंक में उनकी इस तरह खड़े होकर लिखती ‘तस्वीर’ को देखा था.
अपने लिखे गये के लिए समर्पण, संघर्ष करने वाले लेखकों का ध्यान आता है, तब हमारी अपनी भाषा में काम करते रहे लोगों में ‘मुक्तिबोध’ , ‘निर्मल वर्मा’ जैसे लेखकों की याद आती है, जो अपने लिखे को न जाने कितनी बार काटते होंगे या छोड़ते रहे होंगे! बार–बार ड्राफ्ट बनाते रहे होंगे और इसके बाद भी अपने लिखे गये से असंतुष्ट ही बने रहे होंगे.
8 )
अंततः हर आदमी अपना जीवन जीने के लिए विवश हो जाता होगा. दूसरों के संग जीने, दूसरों के साथ एक ही छत के नीचे सालों–साल रहने की चुनौतियों से जब कोई बुरी तरह थक जाता होगा, तब ही वह अपने साथ, सिर्फ अपने संग रहने का कठिन फैसला लेता होगा .
कल शाम लाइब्रेरी की छत पर मिसेज रानाडे को सुनता रहा. आज शाम यह सब महसूस हो रहा है.
इन दिनों में लगभग पचहत्तर की उम्र के आसपास खड़ी हुई ये रानाडे मैडम- ये अपने भरे पूरे परिवार से अलग, दूसरी मंज़िल पर खड़े एक कमरे में पेइंग गेस्ट की हैसियत से रह रही हैं. कल उनकी कुछ किताबों को लौटाने उनके अपने घर गया. उनके पुराने घर के ड्राइवर ने उनका नया पता दिया.
कल शाम, रानाडे मैडम की बातों में से एक बात, अब भी, मेरे भीतर गूंज रही हैं- कि कोई भी इंसान अपना सारा जीवन खुद को जस्टीफाई करते हुए कैसे बिता सकता है!
9)
फ्रेंच मानवशास्त्री ‘लेवी स्त्रास’ का लिखा गया पढ़ता आया हूँ . ब्राज़ील प्रवास और वहाँ के जनजीवन के उनके संस्मरणों ने बहुत कुछ सिखाया है– समझाया है. उनकी निगाह से अपने देश के आदिवासियों के जीवन और जीवनदृष्टि को समझने में भी गहरी मदद मिली.
इन दिनों उनके मिथकों, उनके अर्थों आदि पर व्याख्यानों की छोटी सी किताब पढ़ रहा हूँ.
अपनी बौद्धिक सीमाओं के कारण उनके समूचे वक्तव्यों का थोड़ा-सा अंश ही समझ पाता हूँ
और वह भी धीरे–धीरे , बार–बार पढ़ने के बाद .
उनकी जो बात बारबार मेरा ध्यान आकर्षित करती है वह उनका यह कहना कि- कोई भी संस्कृति किसी अन्य, किसी दूसरी संस्कृति से संवाद बनाये बिना, संबंध रखे बिना, जीवित नहीं रह सकती. उनके अनुसार अपने में अलग–थलग, अकेली पड़ी हुई संस्कृति को संस्कृति कहा ही नहीं जा सकता.
‘गाँधी जी’ और ‘रवीन्द्रनाथ ठाकुर’ के जीवन, चिंतन–मनन का खयाल आता है. वे दोनों ही ‘लेवी स्त्रास’ की इस बात से अपनी सहमति जताते थे. उन दोनों के लिखे हुए और जिये गये में हमें यह बात हमेशा नजर आती है कि दोनों ही सभ्यताओं, अलग संस्कृतियों के बीच संबंधों के बने रहने, संवादों के जारी रहने के हिमायती रहे थे . अगर इन दोनों के पास भारतीय समझ, भारतीय संवेदना थी तो पश्चिम के लिए अपनी दृष्टि, अपनी अंतर्दृष्टि भी.
मैंने निर्मल वर्मा के निबंधों में भी ‘लेवी स्त्रास’ की इस बात का विस्तार विकास महसूस किया है.
“हर बारिश में” के उनके शुरुआती निबंधों से ही. निर्मल वर्मा के निबंधों की यह वह जगह भी है, जहाँ किसी लेखक की अपनी आधुनिक दृष्टि अपनी पारंपरिक दृष्टि से संवादरत नजर आती रहती है. परंपरा और आधुनिकता का संबंध और संवाद, जो ‘टी. एस. एलियट’ की भी चिंताओं के केंद्र में रहता आया है.
10)
नवम्बर के आखिरी दिनों की दुपहर का समय. गोआ में वास्को-डी-गामा के एक बीच पर हूँ.
शांत समुद्र कहीं दूर खड़े हुए जहाज, उतरती हुई धूप और उड़ते परिंदे
जो मैं यहाँ शाम होने तक रुकता, तब समुद्र के किनारे सैलानियों, नेटिव लोगों की बड़ी तादाद में उपस्थिति को महसूस कर पाता
पिछली बार इसी बीच पर अपने एक मित्र और उसकी मंगेतर के साथ कुछ शामें बिता पाया था.
अब दो घंटे बाद फ़्लाइट पकड़नी है.
हम्पी से यहाँ, ट्रेन में, आया था. यहाँ पर बीते कुछ बरसों पहले के दिनों की याद, मेरे भीतर एक किस्म के मौसमी विषाद को जन्म दे रही है.
उन बरसों के प्रेम का एक अमूर्त, अदृश्य–सा लैंडस्केप याद आ रहा है, जिसमें मेरा मित्र है और उसकी मंगेतर है और उन दोनों के बीच का पलता–बढ़ता प्रेम है.
दो व्यक्तियों का एक युवा प्रेम
मेरा वह दोस्त अब इस संसार में नहीं है. उसकी मंगेतर केरल के एक कॉलेज में अध्यापन करती है और अपने पति और दो बच्चों के साथ त्रिचूर में रहती है. मेरे इस मृत मित्र के साथ कभी मेरा घण्टों संवाद हुआ करता था. हम न जाने किन–किन विषयों पर, कितनी बातें किया करते. उसके जाने के बाद, वैसा मानवीय संवाद, संवाद का वैसा सुख, मेरे जीवन में फिर कभी उतरा ही नहीं.
हमारा जीवन हमारे भीतर किसी से कहने–सुनने के लिए, किसी से साझा करने के लिए कितनी सारी बातों को जन्म देता रहता है. लेकिन वह आदमी हमारे जीवन में कहाँ होता है, क्यों नहीं रहता, जिससे अपने मन की बातों को कहा जा सके, बिना किसी मायूसी, बिना किसी संकोच और संशय के, अपने आपको व्यक्त किया जा सके!
11)
वर्जीनिया वुल्फ अपने लेखन में बार–बार इस सवाल से टकराती हैं कि
‘जीवन का अर्थ क्या हैं?’
उनके प्रसिद्ध उपन्यास ‘To the lighthouse’ में उतरा यह सवाल उनकी डायरियों, पत्रों, निबंधों में, उनके अपने जीवन के आखिरी दिनों तक उतरता रहता है.
इस सवाल से जुड़ी उनकी व्याकुलता, प्रश्नाकुलता, को उनकी उन पंक्तियों में भी हम पढ़ सकते हैं जिन्हें उन्होंने आत्महत्या करने के पहले लिखी गयी अपनी चिट्ठियों में लिखा था.
वर्जीनिया वुल्फ ही क्यों!-
संसार के कितने ही कवियों–लेखकों ने सदियों से मानवीय अस्तित्व से जुड़े इस सवाल का अपने–अपने देशकाल और हालातों में सामना किया है
मैंने खुद इन प्रश्नों को- कि मैं किस बात के लिए जी रहा हूँ ?- क्यों जी रहा हूँ ?- मेरे अपने जीवन का सच क्या हैं?, ऐसे सवालों को अपने भीतर बीच–बीच में पाया है
आज सुबह कवि बायरन की इन पंक्तियों पर मेरी निगाह थमी रही कि-
‘ज़िंदगी के उद्देश्यों में से एक उद्देश्य अपने लिए अनुभूति, अनुभव, चेतना और संवेदना को अर्जित करना भी हो सकता है.’
यह महसूस करना कि हमारे पीड़ा के क्षणों में भी हमारा मानवीय अस्तित्व बना रहता है.
मेरे अपने लिए, ज़िंदगी का एक अर्थ ज़िंदगी को अर्थ देना भी रहा, जिसके लिए मैंने थोड़ी–सी कोशिश भी की.
12)
आज सुबह दोस्तोएव्स्की के उपन्यास ‘Crime And Punishment’ के आखिरी पन्नों को एक और बार पढ़ना हुआ.
दोस्तोएव्स्की विलक्षण लेखक रहे. याद नहीं आता कि उनके बारें में किसने यह लिखा था कि दोस्तोएव्स्की विचारों और भावनाओं को इस तरह महसूस करते थे जैसे कोई आदमी ठंड, गर्मी और दर्द को महसूस करता है.
उनके लेखन में रची–बसी देवदूतों-सी उदासी हम पाठकों के भीतर उतर आती है. उनका यह उपन्यास मेरे लिए हमेशा से एक Painful book रहता आया है.
मुझे लगता है कि डेढ़ सौ बरस के बाद भी अगर दोस्तोएव्स्की का लिखा हुआ, दुनिया में आज भी, इतनी प्रशंसा पा रहा है तो इसलिए कि उन्होंने हमारी दुनिया का हमेशा ध्यान रखा. हमारी यह दुनिया हमेशा उनके लेखन के केंद्र में बनी रही.
जयशंकर प्रकाशन: कुछ कहानियों के मराठी, बंगला, मलयालम, अंग्रेज़ी और पोलिश में अनुवाद प्रकाशित. सम्मान: ‘मरुस्थल’ पर विजय वर्मा कथा सम्मान, ‘बारिश, ईश्वर और मृत्यु’ पर श्रीकांत वर्मा स्मृति पुरस्कार, फ़िल्म सोसायटी मूवमेंट से संबद्ध. पता:
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यह मन की जो इबारतें हैं, एक ठहर से गये व्यक्ति को, कुछ न कर पाने की मनःस्थिति को, यानि बर्फ़ होते समय से उबारने में मदद करती सी जान पड़ती है. उन्हें पढना एक सुखद अनुभूति की तरह रहा है…
लेखक या कलाकार होना सतत मेहनत, जागरूकता और जिम्मेदारी की मांग करता है यह अहसास जयशंकर जी की इन डायरी अंशों को पढ़ कर और भी प्रगाढ़ हो जाता है। वे एक उत्सुक, आशावान विद्यार्थी की ऊर्जा लेकर दुनिया भर के साहित्य और कलाओं के पास जाते हैं और वहां से जीवन के सर्द मौसमों के लिए जैसे संसार भर की स्त्रियां बेरियां, अलूचे इकट्ठे कर, सुखा कर सहेज लेती हैं वैसे ही इन कृतियों के सार हम सब के लिए संग्रहीत कर लाते हैं☘️ जयशंकर जी व अरुण जी का हार्दिक आभार ☘️☘️☘️
सुबह सुबह जयशंकर जी की इस अद्भुत टिप्पणियों को पढते हुए आज का दिन सार्थक हो उठा है। गहन जीवन दृष्टि और मार्मिकता से भरपूर ये टिप्पणियां वास्तव में निधि हैं।
वाह! बहुत सुन्दर सम्वाद. धन्यवाद…
जयशंकर का यह गद्य भीतरी सतहों पर देखने-सुनने
के असरात से जन्मा गोया अनुभूत उदाहरण की तरह है।इसमें एक प्रकृत और मानवीय लय बहती है। एक
फिल्म या कोई रचना सहसा पंक्तियों में पुकारती है।समकालीन गद्य में कथेतर साहित्य का अपना निश्छल
स्थान है….जहां संयत और शालीन अभिव्यक्ति परंपरा
से आज तक चंद किरणों में रोशन है…किसी चित्र में लाइट सोर्स की मानिंद…..
स्मृतिवान होना कृतज्ञ होना है । जयशंकर अपनी स्मृतियों को बहुत प्रामाणिक तरीके से लिखते हैं – उनमें अतिरिक्त दार्शनिकता का पाखंड नहीं है , कोई मुद्रा नहीं है । कल ही एक फ्रांसीसी फिल्म देख रहा था जिसका एक पात्र कहता है कि मैं अतीत , वर्तमान और भविष्य तीनों में एक साथ रहता हूँ। स्मृति को कहने में सिर्फ नॉस्टैल्जिया ही नहीं होता है, उसमें वर्तमान को फिर से परिभाषित करने का और भविष्य की तरफ देखते रहने का तनाव होता है। जयशंकर के इन स्मृति खंडों में उस संश्लिष्ट अंतर्यात्रा की भावगम्य और वैचारिक बेचैनी अप्रकट नहीं रहती।
जयशंकर साहब ने काफ़ी साहित्य पढ़ा है । आइकॉनिक टिप्पणियों ने सराबोर कर दिया है । अँधेरे के रहस्य को समझना और सुलझाना चाहते हैं । ऋतुओं के बदलने से जीवन में नयी बहार आ जाती है । यह सिलसिला जीवनपर्यंत चलता है । रानाडे मैडम का नया पता ले आये हैं । गोवा में गर्मियों की छुट्टियों की याद आती है ।
ज़िंदगी अनसुलझी पहेली है । महिला जीवनसाथी अपने पियर से अलग होकर ससुराल में ज़िंदगी की क़लम रोपती हैं । उलझनों से सुलझने निकलती हैं ।
अनियमित रूप से ही सही परंतु इस वेबसाइट पर साहित्य, संस्कृति और कला पर पढ़ने का मौक़ा मिलता है ।
एक असाधारण डायरी के दर्जन भर टुकड़ों को समालोचन पर ऑडिबल विकल्प के साथ प्रकाशित रूप में सुनते हुए मेरा मन प्रफुल्लित हुआ है। यह नवाचारी प्रयोग समालोचन के पाठकों को रास आएगा। उपयोगी सिद्ध होगा, कि वे व्यस्तता के पलों में भी आपकी पत्रिका को सुनने के माध्यम से महत्वपूर्ण लेखों को सुन सकेंगे। इस पहल के लिए आप बधाई के पात्र हैं अरुण जी।
वरिष्ठ कथाकार जयशंकर जी की डायरी पढ़ते हुए हम कितना वृहद संसार देख पाते हैं! फिल्मों को, किताबों को ही नहीं उनके निर्देशकों और लेखकोंं के प्रति भी वे अपनी टिप्पणियां, एकांत के पलों में डायरी में दर्ज़ करते हैं। सहेजकर अगली पाठक पीढ़ी तक पहुंचाते सहेजते दिखते हैं। “गोधूलि की इबारतें” के आगे, लिखी जा रही इस विरल डायरी के इन अंशों को यहां वर्षों तक पढ़ा जाएगा। समालोचन पर उन्हें प्रकाशित होने की बधाई पहुंचे। धन्यवाद।
कुछ आत्मचिंतन, कुछ आत्मावलोकन जैसी हैं यह इबारतें। जयशंकर ने अब तक जो सिनेमा देखे और जितना साहित्य पढ़ा कुछ उसका निचोड़ इनमें है। लिखा बहुत अच्छा है। बायरन ने जो कहा उससे असहमति नहीं, यही जयशंकर भी अपने तरीके से कह रहे हैं।
अपनी अनुभूति और अनुभव का विस्तार ही तो साहित्य को प्रासंगिक बनाता है।
Bahut badhiya laga👌👌
आत्मीय और तरलता से पूर्ण गद्य. कला का बोध कैसे इन्द्रिय-अनुभव में बदलता है, इस बात को जानना हो तो इस गद्य को पढ़ा जाना चाहिये. जयशंकर जी अपनी कहानियों में भी यह काम बखूबी करते हैं. दृश्यात्मकता उनके लेखन की सबसे बड़ी खासियत है. यह बात यहाँ भी देखी जा सकती है. कला के रास्ते देखना किस तरह सामान्य निगाह से देखने से भिन्न है- उजागर होता है. दूसरी महत्वपूर्ण बात कलाओं के अन्तर्सम्बन्धों को लेकर भी उनके इस गद्य में एक चमक, एक कौंध दिखती है. एक विधा का ज्ञान दूसरे विधा के अनुभव में किस तरह भूमिका निभाता है- डायरी की ये टीपें इस बात को उजागर करती हैं.
विचारशीलता में विन्यस्त जिज्ञासा,
यह इस गद्य का हासिल है।
आंतरिकता और निरपेक्षता से जीवन और खुद को देखने समझने की कोशिश कितनी सुंदर हो सकती है, इसे पढ़कर जाना जा सकता है।
विरल गद्य जो कविता की तरह अपने अंत:करण का उत्खनन करता है।हाल ही में कुमार अंबुज के थलचर से भी ऐसा निभृत आनंद मिला था।जयशंकर की ये टिप्पणियों दोस्त बन जाती हैं।
कुछ ही लोग हैं जो कविता, कहानी, कथेतर गद्य तथा संस्मरण लिखने के अलावा विचार की सरणियो से गुजरते हुए जो अनुभव करते हैं उसे अपने भीतर-बाहर दर्ज भी करते हैं।
अनुभूति की तीव्रतता ही लिखने को विवश करती है। कभी-कभी आकाश में घुमड़ते बादलों की तरह ही घुमड़ते विचारों की परस्पर टकराहट होती है और फिर हवा के झोकों का स्पर्श पाकर जल वर्षा होने लगती है।
कथाकार और विचारक जयशंकर की इबारतें भी वैचारिक उद्वेलन का ही परिणाम है। विशेषतः: जब कोई व्यक्ति अध्ययन में होता है, तो उसके समानांतर उसका प्रतिसंसार भी निर्मित होता चलता है उसकी अनुभूतिजन्य अभिव्यक्ति हैं ये जयशंकर की इबारतें।
इनमें विचारों की गहनता तो है ही उनके भीतर वह प्रबल जिजीविषा भी काम कर रही होती जो जीवन के पल-छिनों की हलचल को दर्ज कर लेना चाहती है।
संयोग से जयशंकर का लेखन कथाकार निर्मल वर्मा के आंतरिक संसार से प्रभावित होकर सामने आता है। उनके सोचने और विचार करने के धरातल पर उनकी अपनी भी पकती रहती है, ये इबारतें लेखक के इस आत्मवृत्त का निदर्शन हैं। ्
“गोधुलि की इबारतें” लेखक का विरल वक्त चुपके से चला आया है। पंक्ति दर पंक्ति बहुत संज्ञान से भरा भरा बादल बरसता है। लेखक के मन की भावुकता जो विनम्रता की पनहीं पहने लेखक के साथ चलते हुए चौंकाती है। इस किताब को पढ़ते हुए न जाने कितनी कौंधें जो किसी अपने के द्वारा की अद्भुत कहने पर मन उत्पन्न होती हैं, होती रही। ये डायरी किसी साधारण लेखक की नहीं क्योंकि सरलता से लिखा गया विरल और बिरला गद्य है।
ये किताब प्रत्येक पाठक को कुछ सौंपती है। इसे पढ़कर बंद करने वाला निश्चित ही बदल जाता है, अपनी ही केंचुल में। लेखक के विचारों की गूंज बहुत देर तक मन की अंदरूनी सतह पर गूंजती रहती है। लेखक के विचार बर्ताव शब्द में विनम्र होकर पृष्ठों में दर्ज हो गया है। अनेक शुभकामनाएं!!