चीन के राष्ट्रगुरु और भारत प्रेमी: ची श्यैनलिनपंकज मोहन |
बात बीसवीं सदी के आरंभ के चीन के सान्दोंग प्रांत-स्थित एक छोटे-से गांव की है. गांव के बाहर सरपत से सराबोर एक तालाब था. तालाब के तट पर बेंत की तरह पतली और लोचदार टहनियों वाले विलो के कुछ पेड़ थे और कुछ दूरी पर एक खपरैल मकान था. इस मकान में दो भाई जिनके सर से माता-पिता का साया बचपन में ही उठ गया था और जिनके पास सम्पत्ति के नाम पर बस दो-तीन कट्ठा जमीन थी, मजदूरी कर अपना जीवन गुजार रहे थे. जब घर में एक वक्त चूल्हा जलता, तो दूसरे जून की चिंता होती. कभी-कभी दोनों भाई गांव के बाहर जमीन पर गिरे, सड़े-गले जंगली बेर खाकर पेट की आग बुझा लिया करते थे.
गांव में जब अभाव का दंश असह्य हो गया, दोनों भाई दो पैसे कमाने शहर चले गये जहां वे बोझ ढोते, कुली का काम करते , रिक्शा चलाते. एक दिन दोनों भाइयों ने निर्णय लिया कि बड़ा भाई गांव लौटकर खेतिहर मजदूर का काम करेगा और छोटा भाई शहर में ही रहेगा. एक बार शहर में छोटी-मोटी नौकरी कर रहे छोटे भाई को काम से हटा दिया गया. वह नौकरी की खोज में दर-दर भटकता रहा, लेकिन उसे निराशा ही हाथ लगी. अंत में उसने अपनी जेब में बचे आखिरी एक सिक्के से लाटरी का टिकट खरीदा और अकस्मात उसकी किस्मत का सितारा चमक उठा. उसे कई हजार चांदी के सिक्के मिले जिससे गांव में कुछ एकड़ जमीन खरीदी गयी. ईंट की किल्लत हुई, तो गांव में एलान किया गया कि ची परिवार दस गुना दाम पर ईंट खरीदने के लिए तैयार है. गांव के लोग अपने मकान के कमरों को तोड़कर धन की बहती गंगा में डुबकियाँ लगाने लगे.
ची परिवार का कई कोठरियों वाला एक आलीशान मकान बन गया. मुफ्त का पैसा हाथ में आया था, इसलिए बड़ा भाई खेती-बारी भूलकर शानो-शौकत की जिन्दगी जीने लगा. गाढे पसीने की कमाई तो थी नहीं, इसलिए वह पानी की तरह पैसे बहाने लगा. तोंद फुलाऊँ ‘दोस्तों‘ की महफिल भी जमने लगी. दूसरे गाँवों की यात्रा करते समय वह सारे गाँव को मयखाने में बुलाता और जी भर खाने-पीने का न्योता देता. वह ‘कफन’ का घीसू-माधव था. धीरे-धीरे सब कुछ बिक गया. पहले खेत बिका, फिर मकान के कुछ हिस्सों को तोड़कर ईंटों और खपरों को बेचा गया. जो सामान कुछ साल पहले सोने के भाव खरीदा गया था, अब कौड़ी के भाव बेचा जाने लगा. जायदाद के नाम पर बच गयी सिर्फ कुछ धुर जमीन और एक टूटा-फूटा छोटा-सा रैन बसेरा.
‘पुनर्मूसिको भव’ के गर्त में गिरने के कुछ साल बाद बड़े भाई जिनका नाम ची सलियैन था, ने एक अत्यन्त निर्धन चाओ कुल की कन्या के साथ विवाह किया. 6 अगस्त 1911 को उन्हें पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई. शिशु का नाम रखा गया ची श्यैनलिन. ची श्यैनलिन ने जब स्मृति के गवाक्ष से अपने बाल्यकाल पर दृष्टि डाली, मां की ममता दिखी और दिखी दुर्निवार विपन्नता तथा वेदना.
श्यैनलिन ने जब अपने जीवन के पांचवें वसंत में प्रवेश किया, उसे अपने पास-परोस के एक सम्पन्न रिश्तेदार की गाय के लिये घास काटने या सूखे पौधों के डंठल तोड़ने का काम मिला. इस मेहनत के एवज में उसे मकई की रोटी मिलती थी जिसे वह बहुत चाव से खाता था. गर्मी और शरद ऋतु में फसल की कटाई जब समाप्त हो जाती थी, यह बालक पास-परोस की ताई-दादी के साथ खेतों में बिखरे गेहूं की बालियों को बीनता था. कटनी के समय जमीन पर गिरे अनाज को उत्तर भारत में सीला कहते हैं.
भारत हो या चीन, गरीबी की मार से जिनकी कमर टूटी हुई है, जो भूख से बेहाल हैं, उनकी हालत एक जैसी है. पांच साल का नन्हा बच्चा श्यैनलिन जब गेहूं के खेत से सीला बीनकर आता था, उसे सफेद आटे का भोजन नसीब होता था. ऐसे अवसर पर वह खुशी से नाच उठता था. उसके लिये गेहूं का आटा अष्ट सिद्धि और नव निधि से अधिक मूल्यवान लगता था क्योंकि साल भर मोटा अनाज ही खाने को मिलता था. वसंतोत्सव और शरद पूर्णिमा पर्व (जो चीन की होली और दीवाली है) के मौके पर सीला के बदौलत ही पकवान बनता. एक बार शरद पूर्णिमा-पर्व (चीनी भाषा में चुंग छियु चिये, अर्थात मध्य शरद पर्व) के दिन मां ने पता नहीं कहाँ से अपने बेटे के लिये चन्द्र-केक (गुजिया-जैसा चीनी मिष्ठान्न) की व्यवस्था की जिसे उसने पलक झपकते ही उदरस्थ कर लिया मानो मुन-केक एक पकवान नहीं, उसके सपनों की फुनगी पर मंजरित प्राण हो.
उसने मन ही मन संकल्प लिया कि बड़ा होकर वह अपनी मां को जौ-बाजरे की यातना से मुक्त करेगा और उनकी थाली में गेहूं के आटे से बना भोजन ही परोसेगा. मां साल में चार-पांच बार बेटे को सफेद आटे की रोटी तो परोसती थी, लेकिन खुद जौ-बाजरे की रोटी ही खाती थी. प्रेमचंद की कहानी ‘ईदगाह’ के पात्र हामिद को संतोष था कि उसके उपहार को पाकर बूढी दादी की आंखों से खुशी के आंसू छलक उठे थे, लेकिन इस बालक के दिल की मुराद पूरी न हुयी. जब वह अपने पैरों पर खड़ा हुआ, मां के दुख-दर्द को मिटाने में समर्थ हुआ, उसकी ममतामयी माता असार-संसार से बिदा हो चुकी थी. जब तक वे जीवित रही, बस पिसती और घुटती रहीं.
जब श्यैनलिन की उम्र छह साल की हुई, उसके चाचा उसे सान्दोंग प्रांत की राजधानी चिनान जहां उन्हें एक छोटी-मोटी नौकरी मिल गयी थी, ले आये. उनके घर में एक ही संतान थी. वह श्येनलिन से उम्र में कुछ छोटी सुशील कन्या थी. उस समय भारत की तरह चीन में भी बेटी को पराया धन माना जाता था. कुल का नाम और प्रतिष्ठा बढ़ाने के लिये संतान के रूप में बेटे का होना बहुत आवश्यक माना जाता था. उन्होंने सोचा, अपना भतीजा श्यैनलिन गांव में बस गुल्ली डंडा खेलेगा, दूसरों के खेत-खलिहान में मजदूरी करके किसी तरह पेट भरेगा, लेकिन शहर में चूंकि अच्छे स्कूल-कालेज है, विद्वान शिक्षक हैं, समृद्ध पुस्तकालय हैं, संस्कृति और संस्कार को परिष्कृत करने वाला वातावरण है, आत्म-विकास के साधन हैं, उन्नति के अवसर हैं, इसलिये यहां वह पढ लिख लेगा, बड़ा आदमी बनेगा और ची वंश का नाम ऊंचा करेगा.
बालक श्यैनलिन की मां को साफ-साफ कुछ नहीं बताया गया, लेकिन पिता को मालूम था कि उनके भाई ने उनके बेटे को गोद ले लिया है और अब वह शहर में ही रहेगा. इकलौते बेटे से बिछड़कर मां खून के आंसू बहाती रही. उनका बेटा ही जीवन के मरुस्थल में उमंग का शाद्वल द्वीप था, नैराश्य के अंधेरे में आशा का निष्कंप दीप था. जब उन्हें मालूम हुआ कि उनका लाल, उनकी आंखों का तारा अब अपने चाचा का कुलदीपक बन चुका है, उन्होंने अपने एक पड़ोसी से कहा, अगर मैं जानती कि मेरे बेटे को हमेशा के लिये मुझसे छीना जा रहा है, मैं प्राण दे देती लेकिन उसे अपनी छाया से दूर न जाने देती. मैं हमेशा अपने लाल को सीने से सटाये रखती.
बेटे से पृथक होने के बाद उनके जीवन में सुख के सारे सोते सूख गए, लहलहाती हरियाली पर ओले की वृष्टि हो गयी. बाइस-तेइस साल के ची श्यैनलिन जब बीए के छात्र थे, उनकी मां जिनकी उम्र उस समय चालीस के आसपास थी, चिर-निद्रा में लीन हो गयीं. पिछले सोलह साल में उन्हें अपने लाडले बेटे को सिर्फ तीन बार ही देखने का मौका मिला था. अपने बेटे की राह देखते-देखते उनकी आंखें पथरा गयी होगी.
ची श्यैनलिन ने स्कूल की सभी परीक्षाओं में अव्वल स्थान प्राप्त किया. हाई स्कूल पास करने के बाद देश के दोनों शीर्षस्थ विश्वविद्यालय- बेइचिंग-स्थित पेकिंग विश्वविद्यालय और छिंगह्वा विश्वविद्यालय- ने छात्रवृति के साथ दाखिले के उनके आवेदन को स्वीकृत किया, लेकिन उन्होंने छिंगह्वा विश्वविद्यालय को चुना.
बीए के कोर्स में उन्होंने जर्मन भाषा और साहित्य, अंग्रेजी भाषा और साहित्य तथा इतिहास का अध्ययन किया. बीए पास करने के बाद उनकी नियुक्ति सान्दोंग के एक हाई स्कूल में चीनी भाषा और साहित्य के अध्यापक के रूप में हुई जहां उन्होंने दो वर्षों तक पढ़ाया. इस बीच उन्हें जर्मनी के गटिंगन विश्वविद्यालय में स्नातकोत्तर शिक्षा प्राप्त करने लिये छात्रवृति प्राप्त हुई. जर्मनी में 1936 से लेकर 1939 तक उन्होंने संस्कृत, पाली, बौद्ध साहित्य और भाषा विज्ञान का अध्ययन किया और पीएच.डी. की डिग्री प्राप्त की. चूंकि विश्वयुद्ध का समय था, वे स्वदेश लौटने में असमर्थ थे, इसलिए उन्होंने जर्मनी में रहकर चीनी भाषा का अध्यापन करते हुये बौद्ध सूत्रों की भाषा पर अपने शोधकार्य को आगे बढाया.
1946 में स्वदेश लौटने के बाद उनकी नियुक्ति पेकिंग विश्वविद्यालय में संस्कृत के अध्यापक और एशियाई भाषा विभाग के अध्यक्ष के रूप में हुई.
अपने निरभिमान व्यक्तित्व, इतिहास, भाषा विज्ञान, बौद्ध साहित्य आदि क्षेत्रों में तलस्पर्शी शोध, कालिदास की अनेक कृतियों और वाल्मीकि रामायण के चीनी अनुवाद और ललित निबंध के कारण ची श्यैनलिन लिन गत सदी के आठवें दशक तक यशोकीर्ति के शिखर पर पहुंच गये. रोबर्ट ब्राउजिंग ने शेली के बारे में जो लिखा है, वह बात ची श्यैनलिन पर भी चरितार्थ होती है.
‘क्या शेली को तुम देखे थे, क्या शेली ने रुककर तुमसे बात की थी और क्या फिर तुम्हारी उनसे बात हुई. कितना विस्मयकारी और कितना नया लगता है यह सब.’
जब मैं किसी चीनी से कहता हूं कि मुझे प्रोफ़ेसर ची श्यैनलिन के चरणों में बैठकर कुछ सीखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है, वे विस्मय-विस्फारित नेत्रों से ताकते रह जाते हैं.
1998 में पेकिंग विश्वविद्यालय के शताब्दी समारोह के अवसर पर चीन के राष्ट्रपति चियांग चमिन ने पेकिंग विश्वविद्यालय के परिसर में स्थित ची श्यैनलिन के आवास पर जाकर उनका दर्शन किया और कहा-
‘मैने आपके नाम का वज्रनाद तो बहुत पहले सुना था, लेकिन आज आपसे मिलकर मुझे वस्तुतः जिस हर्ष की अनुभूति हो रही है वह अनिर्वचनीय है, अमर्त्य है, अविस्मरणीय है.’
एक दशक बाद भारत के विदेश मंत्री श्री प्रणब मुखर्जी ने भारत के राष्ट्रपति के प्रतिनिधि के रूप में बेइचिंग-स्थित सैनिक अस्पताल में भर्ती प्रोफ़ेसर ची श्यैनलिन से मुलाकात की और उनके करकमलों में ‘पद्मभूषण’ का मानपत्र प्रदान किया.
इसके पूर्व 1992 में उन्हे संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय की मानद ‘विद्या-वारिधि’ उपाधि और 1996 में साहित्य अकादमी के ‘आनररी फेलो’ का सम्मान प्राप्त हो चुका था.
अगस्त 2008 में (उनके 97वें जन्मदिन के कुछ दिन पहले) चीन के प्रधानमंत्री वन चियापाओ ने सैनिक अस्पताल में जाकर उन्हें जन्म दिवस की अग्रिम बधाई दी और 2008 बेइचिंग ओलिम्पिक गेम्स के सांस्कृतिक सलाहकार की भूमिका निभाने के लिए उनके प्रति आभार व्यक्त किया.
प्रोफ़ेसर ची के सुझाव पर ही बेइचिंग ओलिम्पिक गेम्स के सांस्कृतिक कार्यक्रम के निर्देशक चौ इनमौ जिनकी गिनती विश्व के महान सिने निर्माताओं में होती है, ने उद्घाटन समारोह में चीनी सभ्यता के आधार स्तंभ कन्फ्यूशियसवाद को प्रमुख स्थान किया.
एक साल बाद जब जुलाई 2009 में उनका देहांत हुआ, चीन के नर-नारी शोक-सागर में डूब गये.
उनकी कर्मस्थली पैकिंग विश्वविद्यालय के वृहत सभागार में जहां उनके पार्थिव शरीर को रखा गया था, हजारों हजार लोग उन्हें श्रद्धांजलि देने के लिये लम्बी कतार में खड़े दिखे.
चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग, पूर्व राष्ट्रपति चियांग चमिन और हु चिनथाओ, राष्ट्रीय जनकांग्रेस(संसद) की स्थायी समिति के अध्यक्ष वु पांगगुओ ने फूल के गुलदस्ते भेजे, जबकि प्रधानमंत्री वन चियापाओ, चीनी जनता परामर्शदात्री कॉन्फ्रेंस की स्थायी समिति के अध्यक्ष चिया छिंगलिन, पोलितब्युरो की स्थाई समिति के अध्यक्ष ली छानछुन और उप प्रधानमंत्री ली खछियांग ने प्रोफ़ेसर ची के अंतिम संस्कार में उपस्थित होकर अपनी श्रद्धांजलि व्यक्त की. चीन के अख़बारों और टेलिविज़न चैनलों ने कई दिनों तक आधुनिक चीन के इस युग पुरुष के जीवन और कर्म पर विस्तार से चर्चा की.
तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री डाक्टर मनमोहन सिंह ने चीनी प्रधानमंत्री वन चियापाओ को लिखा, ‘प्रोफ़ेसर ची विश्व के महानतम भारतविद में पांक्त्येय हैं और विशेषकर बौद्ध धर्म तथा भारत-चीन के सांस्कृतिक सम्बन्ध पर जिन शोधग्रंथों का प्रणयन किया, उनका दुनिया में बहुत सम्मान है. प्रोफ़ेसर ची ने प्राचीन भारत के गौरवग्रंथों का चीनी में अनुवाद किया और चीन में भारतीय संस्कृति की समझ को नयी ऊंचाई दी.’ प्रधानमंत्री ने यह भी कहा कि प्रोफ़ेसर ची भारत के सच्चे मित्र थे और भारत-चीन के बीच हजारों वर्षों से अनवरत निर्मित हो रहे सम्बन्ध और समन्वय के पुरोधा थे.
प्रोफ़ेसर ची के देहावसान का समाचार तावयान, हांगकांग, सिंगापुर आदि सभी चीनीभाषी क्षेत्रों में समाचारपत्रों और टेलिविज़न द्वारा प्रचारित-प्रसारित हुआ. कोरिया जहाँ उनके जीवन के अंतिम दशक में उनकी तीन अनूदित पुस्तकों की काफी बिक्री हुयी, के सभी प्रमुख अखबारों ने उनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर विस्तार से प्रकाश डाला.
कोरिया के सर्वाधिक प्रभावशाली अखबार ‘तोंग-आ इलबो ‘ ने लिखा कि दशकों से राष्ट्रगुरु, देश रत्न और प्राच्य विद्या के अप्रतिम व्याख्याता के रूप में समादृत प्रोफ़ेसर ची की मृत्यु से चीनी जनता शोकाकुल है. वे सचमुच विनय की प्रतिमूर्ति थे, नैतिक शुचिता के निकष थे.
उनकी मृत्यु के सात साल बाद 2016 में जब सांस्कृतिक क्रांति (1966-1976) के समय पर प्रकाश डालने वाली उनकी संस्मरणात्मक पुस्तक का अंग्रेजी अनुवाद ‘The Cowshed: Memories of the Chinese Cultural Revolution’ प्रकाशित हुआ, न्यू यौर्क टाइम्स, शिकागो ट्रिब्यून, सियैट्ल टाइम्स, द अटलांटिक, फाइनैंशियल टाइम्स, नेशन, लंडन रिव्यू आफ बुक्स आदि पश्चिमी देशों के प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में इस पुस्तक की समीक्षाएं छपी और पश्चिमी समाज आधुनिक चीन के इस मूर्धन्य लेखक से परिचित हुआ.
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प्रोफ़ेसर ची से मेरी पहली मुलाक़ात मार्च 1978 में हुई जब उन्होंने वरिष्ठ राजनयिक वांग पिंगनान के नेतृत्व में चीनी सरकार द्वारा भेजे गये शिष्टमंडल के सदस्य के रूप में भारत की यात्रा की. उस समय मै जे.एन.यू. का छात्र था और जे.एन.यू. प्रशासन तथा जे.एन.यू. छात्रसंघ के तत्वावधान में चीनी शिष्टमंडल सम्मान अभिनंदन समारोह आयोजित हुआ था. उसके बाद 1992 में जब मुझे बेइचिंग-स्थित पेकिंग युनिवर्सिटी में शोध-प्रज्ञ के रूप में एक वर्ष तक रहने का मौका मिला, उन्हें जानने और उनकी विद्वता को समझने का मौका मिला.
कभी उनके घर पर या कभी युनिवर्सिटी कैम्पस की अनामिका झील के पास टहलते समय उनसे कुछ मुलाकातें हुईं और उन्होंने शोध-सम्बन्धी मेरी कुछ शंकाओं का समाधान किया.
रास्ते में टहलते वक्त कोई भी उन्हें रोककर कुछ पूछना चाहता था, तो वे रुककर प्रश्नकर्ता की जिज्ञासा को यथासंभव शांत करके ही आगे बढ़ते थे.
प्रोफ़ेसर ची बहुत सीधे-सादे इंसान थे. वे और हमेशा एक ही तरह का वस्त्र पहनते थे, माओ जैकेट. जब तक शरीर स्वस्थ रहा, दस-बीस मील की दूरी वे साइकिल पर ही तय करते थे. वे इतने सरल और विनम्र थे कि उनको देखने पर यह नहीं लगता था कि वे चीन के अप्रतिम बुद्धिजीवी हैं और अपने कन्धों पर करीब अस्सी संस्थाओं का कार्यभार संभाले हुए हैं. एक बार जब वे पेकिंग युनिवर्सिटी के डीन थे, एक विद्यार्थी दूर-देहात से बोरिया-बस्तर लेकर युनिवर्सिटी में दाखिला लेने आया और उन्हें एशियाई भाषा विभाग की बिल्डिंग के गेट पर खड़ा देखा. उसने कहां, ‘चौकीदार, ज़रा हमारा सामान देखना, मैं खाना खाकर आता हूँ‘. प्रोफ़ेसर ची कड़ी धूप में खड़े होकर उसके सामान को देखते रहे, और कुछ घंटे के बाद जब वह विद्यार्थी वापस लौटा, वे उसका सामान लौटाकर ही अपनी कुर्सी पर बैठे. उस छात्र ने जब दोपहर में ओरियेन्टेशन के समय उन्हें सभापति की कुर्सी पर बैठा पाया, तब वह बहुत शर्मिन्दा हुआ. प्रोफ़ेसर ची ने उस घटना को याद करते हुए कहा
‘उसने मुझपर यकीन कर अपनी अमानत मेरे हाथ सौंपी. मुझे एक मनुष्य के रूप में उसके विश्वास का ख़याल तो करना ही था, क्योंकि मैं इंसान पहले हूँ, प्रोफ़ेसर और डीन बाद में’.
वे 1930 के दशक से ही चीन और यूरोप में बिखरी पड़ी चीनी साहित्य, इतिहास और दर्शन से सम्बन्धित पुरानी पांडुलिपियों को जुटाने लगे थे. एक शोधछात्र को मालूम हुआ कि उसके शोधछात्र विषय से सम्बद्ध एक पांडुलिपि उनके निजी पुस्तकालय में उपलब्ध है. वह दुनिया की एकलौती प्रति थी. उसने प्रोफ़ेसर ची से अनुरोध किया ‘मुझे उस पांडुलिपि की बहुत जरूरत है. मैं उसे पढ़कर एक सप्ताह में लौटा दूंगा.’
इस अनुरोध को सुनकर प्रोफ़ेसर ची दुविधाग्रस्त हो गये. उन्होंने सोचा,
‘अगर थोड़ी-सी असावधानी हुई, तो अठारहवीं सदी में लिखी गयी यह अप्रकाशित पांडुलिपि क्षतिग्रस्त हो सकती है, इसका पन्ना फट सकता है. यह चीनी जनता की अमूल्य निधि है जिसे मुझे पेकिंग विश्वविद्यालय के पुस्तकालय को सौंपना है.’
उन्होंने उस छात्र से कहा, एक सप्ताह के बाद आना. एक सप्ताह के बाद जब वह छात्र आया, उन्होंने उसके हाथ में एक नोटबुक सौंपा. उस नोटबुक में उन्होंने उस पांडुलिपि को शब्दशः अपनी हस्तलिपि में उतार दिया था.
चीनी समाज उन्हें ‘राष्ट्रगुरु’ मानता था, और चीन के प्रधानमंत्री वन चियापाओ उनके जन्मदिन के अवसर पर उनके आवास पर या सैनिक अस्पताल में, जहां सरकार ने मृत्यु के कुछ साल पहले उन्हें भर्ती करवा दिया था, जरूर मिलने जाते थे. उनके प्रति सरकार के बर्ताव को चीनी बुद्धिजीवी वर्ग के प्रति सरकार के रुख का प्रतिबिम्ब माना जाता था.
एक बार मैं उनके साथ बैठा हुआ था, और उनके एक पुराने शिष्य, वांग शुइंग, ने मुझे बताया कि जब गुरु जी 1946 में जर्मनी से संस्कृत और बौद्ध साहित्य में पीएच.डी. की डिग्री हासिल कर चीन लौटे तो उन्हें सीधे फुल प्रोफ़ेसर और विभागाध्यक्ष बना दिया गया और एशियाई भाषा विभाग को अपने विजन के आधार पर शिल्पित करने का उत्तरदायित्व सौंपा गया.
उस समय पेकिंग विश्वविद्यालय के कुलपति थे हु स्र जिन्होने दर्शनशास्त्र में कोर्नेल से बी.ए. और कोलम्बिया से पीएच.डी. की पढ़ाई पूरी की थी. 1919 की चार मई की क्रांति के सांस्कृतिक सूत्रधार के रूप में क्लासिक चीनी भाषा के प्रभुत्व पर प्रहार कर बोल चाल की भाषा को साहित्यिक लेखन की भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने में उन्होंने अहम भूमिका निभाई.
हु स्र ने इतिहासकार छन इन-ख और फु शिनच्यांग की अनुशंसा पर उनकी नियुक्ति की थी. प्रोफ़ेसर थांग योंगथोंग जिन्होंने हार्वर्ड विश्वविद्यालय मे संस्कृत और बौद्ध दर्शन का अध्ययन किया था और चीन मे बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार और प्रभाव पर लिखी जिनकी पुस्तक आज भी कालजयी कृति के रूप मे सर्व सम्मान्य है, 1946 मे पेकिंग विश्वविद्यालय के कला संकाय के डीन थे. उन्होंने प्रोफ़ेसर ची की नियुक्ति संस्कृत के असोसियेट प्रोफ़ेसर के रूप मे की, लेकिन एक सप्ताह के बाद कुलपति ने अपने विशेषाधिकार का प्रयोग कर उन्हें फुल प्रोफ़ेसर का दर्जा दिया।1949 में जब चेयरमैन माओ के नेतृत्व में नये चीन का निर्माण हुआ, माओ के मुख्य सचिव हु छियाओमु जो छिंगह्वा यूनिवर्सिटी में उनके सहपाठी थे, ने प्रोफ़ेसर ची के कन्धे पर राष्ट्र-निर्माण के अनेक दायित्व सौंपे.
एक बार प्रोफ़ेसर ची ने मुझसे कहा कि उन्होंने अनेक दायित्वों का निर्वहन किया, लेकिन उन्हें सबसे अधिक सुख और संतोष भारत से सम्बंधित विषयों के पठन-पाठन से लब्ध हुआ. फिर उन्होंने कहा, चाहे व्यक्ति हो या राष्ट्र, सांस्कृतिक चेतना का विकास और ज्ञान-विज्ञान के क्षितिज का विस्तार दूसरी संस्कृति को आत्मसात किये बिना संभव नहीं है. चीन ने जब भारत से बौद्ध धर्म आयातित किया और भारत और चीन के भिक्षु सम्प्रदाय के बीच विचार-विनिमय और बौद्धिक समन्वय का सेतु स्थापित हुआ, चीन ने अध्यात्म ही नहीं, भाषा विज्ञान, साहित्य, खगोल विद्या, मिथक, चिकित्सा शास्त्र आदि क्षेत्रों में भी प्रगति की. उन्होंने कहा, संस्कृति का आदान-प्रदान ‘वन वे ट्रैफिक’ नहीं होता.
भारत ने भी चीन से बहुत कुछ आयातित किया, बहुत कुछ सीखा. चीन ने भारत से से ईख के रस से गुड़ बनाने की विधि सीखी, लेकिन चीनी लोगों ने इस अनुसन्धान को आगे बढ़ाकर सफेद चीनी का रूप दिया. पश्चिमी भाषाओं में चीनी के लिये जिन शब्दों (उदाहरण के लिए अंग्रेजी शब्द sugar या फ्रेंच शब्द sucre) का प्रयोग होता है, उनका उद्भव संस्कृत के शर्करा शब्द से हुआ है. यह सोचने की बात है कि अंग्रेज जिस वस्तु को सुगर कहते हैं, उसे भारत के लोग ‘चीनी’ कहते हैं.
उन्होंने यह भी कहा कि भारत के लोग कृतज्ञ होते हैं. 1955 में वे भारत सरकार के आमंत्रण पर भारत आये तो नेहरू जी ने उनके लिए सेना के विमान का प्रबंध कर दिया था ताकि वे सुविधापूर्वक बौद्ध धर्म के ऐतिहासिक स्थानों को देख पायें.
पचास के दशक में जब एक बार वे जब रेल से दिल्ली-कलकत्ता की यात्रा कर रहे थे, गाड़ी गाजियाबाद, अलीगढ़, इटावा, कानपुर , हर जगह दस-पन्द्रह मिनट के लिए रुकती थी, और वे कम्पार्टमेंट से बाहर निकल आते थे. और उस समय थर्ड क्लास के डिब्बे से एक-एक साधारण-सा आदमी भी अपने शिशु को गोद में लिए हुए उतरता था, उनके बगल में खड़ा हो जाता था, और चुपचाप उन्हें टुकुर-टुकुर निहारता था.
इलाहाबाद में प्रोफ़ेसर ची ने अंगरेजी में पूछा कि क्या उनसे कुछ सेवा की जरूरत है, तो उस साधारण आदमी ने कहा, ‘मुझे तो बहुत पीछे के स्टेशन पर ही उतरना था, लेकिन जब मुझे मालूम हुआ कि इस गाड़ी से चीन के शिष्टमंडल के सदस्य भी यात्रा कर रहें हैं, तो मैंने स्टेशन पर उतर-उतरकर अगले स्टेशन का टिकट खरीदा और आप लोगों का दर्शन कर लिया.
मेरा बेटा तीन साल का है, लेकिन जब वह बड़ा होगा तो कहूँगा कि तुम्हें नए चीन के सांस्कृतिक नेताओं का दर्शन सुलभ हुआ है. बस इसी सुख के लिए, और अपने बच्चे के सौभाग्य के लिए टिकट कटा-कटाकर इलाहाबाद तक आपके साथ पहुंच गया.
उनके मन में भारतीय संस्कृति के प्रति अपार श्रद्धा थी और भारत की जनता के प्रति प्यार था, इसलिए अगर कोई भारतीय विद्वान उनसे मिलना चाहता था, वे सहर्ष मुलाकात का समय देते थे. 1992 में मैं चीन में एक साल रहा, लेकिन उसके बाद भी मैंने कई बार चीन की यात्रा की. मैंने जब कभी उन्हें सूचित किया कि मैं बेइचिंग में हूं, वे मिलने का समय देते थे.
एक बार जब मेरे गुरु प्रोफ़ेसर थान चुंग जिन्हें भारत सरकार ने पद्म भूषण से नवाजा, पेकिंग विश्वविद्यालय के गेस्ट हाउस में टिके हुये थे, प्रोफ़ेसर ची साइकिल पर चढ़कर उनसे मिलने गेस्टहाउस गये. वे उस समय पेकिंग विश्वविद्यालय के उपकुलपति थे और प्रोफ़ेसर थान चुंग से इक्कीस साल बड़े थे.
उनके उपकुलपति (Vice-President) पद के कार्यकाल की ही बात है. उन्हें ज्ञात हुआ कि भारतीय विदुषी और उपन्यासकार मैत्रेयी देवी जो टैगोर की स्नेहभाजिनी थी, चीनी सरकार के अतिथि के रूप में बेइचिंग में हैं. वे होटल में जाकर उनसे मिले और उन्हें चीन के विदेशी भाषा प्रकाशन गृह में बंगला विभाग में विशेषज्ञ के रूप में कार्यरत श्री एन. सी. सेन के आवास पर ले गये. यह सब उन्होंने टैगोर और भारत के प्रति अपार श्रद्धा के कारण किया.
ध्यातव्य है कि गुरुदेव ने 1930 में सोलह वर्ष की मैत्रेयी देवी के कविता-संग्रह ‘उदिता’ की भूमिका लिखी थी और कालांतर में उन्हें एक कविता भी समर्पित की:
‘ई सीमंतिनी
नवपुष्प मंजरिता
तुमि वसंतिनी’
मैत्रेयी देवी दार्जीलिंग के समीप मंगपू नामक शहर में रहती थी जहां गुरुदेव ने 1938 और 1940 के बीच चार बार उनका आतिथ्य स्वीकार किया.
मैत्रेयी देवी ने एक रोचक किताब लिखी ‘মংপুতে রবীন্দ্রনাথ’ (मंगपु में रवीन्द्रनाथ) जिसे प्रोफ़ेसर ची ने 1986 में चीनी भाषा में अनूदित किया. 1924 में जब वे चिनान नगर में मिड्ल स्कूल के छात्र थे, उन्होंने एक सार्वजनिक अभिनंदन समारोह में गुरुदेव का दर्शन किया था. चीन की यात्रा से लौटकर मैत्रेयी देवी ने भी ‘अछेना चीन’ (अज्ञात चीन) पुस्तक लिखकर अपने चीनी मित्रों की याद की.
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1966 में चीन में जब सर्वहारा की सांस्कृतिक क्रांति का बिगुल बजा, प्रोफ़ेसर ची श्यैनलिन को नारकीय यातना झेलनी पड़ी जिसके बारे में यहाँ विस्तार से लिखना संभव नहीं है.
पेकिंग विश्वविद्यालय में लाल रक्षक की सरगना एक महिला थी निये च-युऐन जिसने बड़े अक्षरों में एक पोस्टर लिखा कि पेकिंग विश्वविद्यालय के नामचीन प्रोफ़ेसर अध्यक्ष माओ के क्रांतिकारी विचार से विमुख हैं और विश्वविद्यालय के छात्रों के मन में वे प्रतिक्रियावाद का जहर घोल रहे हैं. प्रोफ़ेसर ची ने इस सरदारनी का विरोध किया जिसके कारण उन्हें दस वर्षों तक अपार कष्ट झेलने पड़ा. सरदारनी जिसे माओ का वरद हस्त प्राप्त था, ने अपने पालतू लाल रक्षक या रेड गार्ड्स के झुंड को उनपर हुलका दिया था.
रेड गार्ड्स के अनुसार वे माओ के नेतृत्व में चलायी गई क्रांति के दुश्मन थे क्योंकि उन्होंने नात्सी जर्मनी में 1935-1946 के दौरान बौद्ध धर्म, संस्कृत, पाली और टोखारियन (मध्य एशिया की मृत भाषा) का अध्ययन किया था. माओ ने नारा दिया था कि पुरानी संस्कृति, पुरानी आदत, पुरानी परंपरा और पुराने विचार को नेस्तनाबूद कर दो. माओ के चीन में बुद्धिजीवी वर्ग को प्रतिक्रियावादी वाइरस का दुर्गंधपूर्ण संवाहक माना जाता था. लाल रक्षकों का तर्क था, प्रोफ़ेसर ची चीन के शत्रु भारत की प्राचीन संस्कृति के व्याख्याता थे, कालिदास की रचनाओं के यशस्वी अनुवादक थे, इसलिए वे चीनी साम्यवाद के समर्थक और चीनी क्रांति के रक्षक नहीं हो सकते.
सांस्कृतिक क्रान्ति के आरम्भिक वर्षों में माओ के लाल रक्षकों ने उन्हें प्रतिक्रांतिवादी और पूंजीवाद पथगामी करारकर मारा, पीटा और भीषण शारीरिक और मानसिक कष्ट दिया, लेकिन क्रांति की धू धू करती हुई लपटें जब कुछ शांत हुई, उन्हें होस्टल का चौकीदार बनाया गया. उस समय शोध संभव नहीं था, इसलिए रोज वे वाल्मीकि रामायण के श्लोक को कागज पर लिखकर जेब में रख लेते थे, और मौका मिलने पर कमरा बंद कर उसका चीनी में छन्दबद्ध अनुवाद करते थे.
उनका मानना था कि अगर हम उपयोगी काम नहीं कर सकते हैं, तो हाथ पर हाथ रखकर बेकार बैठने के बजाय अनुपयोगी कार्य में संलग्न रहना श्रेयस्कर है.
सांस्कृतिक क्रान्ति के दौरान चौकीदार का काम निपटाकर और दूसरों की नजर बचाकर संस्कृत महाकाव्य का चीनी अनुवाद करना एक “निरर्थक” कार्य ही तो था क्योंकि उस समय कौन जानता था कि शीघ्र ही माओ मार्क्स से मिलने ऊपर जायेंगे, सांस्कृतिक क्रांति का अंत होगा, वे पेकिंग विश्वविद्यालय के उपकुलपति बनेंगे और उनका अनूदित ग्रंथ प्रकाशित होगा?
जब सांस्कृतिक क्रान्ति समाप्त हुई, तो वे पेकिंग विश्वविद्यालय के कुलपति बने और वाल्मीकि रामायण का उनका श्रमसाध्य अनुवाद भी प्रकाशित हुआ. उन्हें प्रचुर यश मिला. पुस्तक प्रकाशित होने के पहले दिन अस्सी हजार प्रतियां बिक गयीं. एक चीनी सज्जन ने ची श्यैन लिन के संस्मरण को पढकर उन्हें पत्र लिखा-
‘मुझे जब मालूम हुआ कि सांस्कृतिक क्रान्ति का आपका संस्मरण प्रकाशित हो गया है, तो मैं दौड़े-दौड़े किताब की दुकान पर गया, जो मेरे घर से कुछ दूर है. एक ही रात में मैंने किताब पढ़ डाली. मैंने दूसरे दिन आपकी किताब की कुछ और प्रतियां खरीदीं, अपनी पत्नी को और अपने बच्चों को उपहार के रूप में देने के लिए. आपके संस्मरण को पढ़कर भावी पीढ़ी जान पायेगी कि सच और झूठ, पाप और पुण्य की विभाजन-रेखा क्या है. इस पुस्तक को पढ़कर लोग देश और जाति के यथार्थ को जानेंगे, और भविष्य में यदि कोई क्रान्ति का नेतृत्व या सूत्रपात करना चाहे, तो वह उतना आसान नहीं होगा.
‘मेरी दृष्टि में भी यह किताब सचमुच एक आईना है जिसमें माओ के चीन का सही चेहरा दिखता है.. आंसू, मुस्कान, सौंदर्य और कुरूपता, भला-बुरा अपने सही रूप में झलकता है.’
प्रोफ़ेसर ची की गणना आधुनिक चीन के श्रेष्ठतम निबंधकारों में भी होती है. अगले अंक में उनके शोध ग्रन्थों, संस्मरण और ललित निबन्धों का विश्लेषण किया जाएगा
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संदर्भ ग्रंथ
1.Ji Xianlin. Fojiao shiwuti (बौद्ध धर्म के पंद्रह विविध पक्ष)
Published by Zhonghua Book Company, 1991
२. Ji Xianlin. Niu Peng za yi (कांजी हौस की कुछ यादें) Published by Central Party School of CPC Press, 1998 (English translation: Cowshed: Memories of the Chinese Cultural Revolution
Published by New York Review Books, 2016)
3. Ji Xianlin. Ji Xianlin quanji (ची श्यैनलिन रचनावली, तीस खंड). Beijing: Foreign Language Teaching and Research Press, 2009
मृत्योपरांत प्रकाशित पुस्तकें
4. Ji Xianlin. Wo de xin shi yi mian jingzi (दर्पण है मेरा हृदय) आत्मकथा
Published by Beijing Institute of Technology Press, 2015
5. Ji Xianlin. A History of Sugar: Ji Xianlin
Published by New Star Press, Beijing, 2013
6. Ji Xianlin. Yisheng zizai (सहज, निर्बाध जीवन) निबंध संग्रह
Published by Jiangsu Phoenix Literature and Art Publishing, LTD, 2019
पंकज मोहन ने उत्तरी एशिया की भाषा और संस्कृति की पढ़ाई का आरम्भ 1976 में जे.एन.यू. मे किया, और तदुपरांत सेओल नैशनल यूनिवर्सिटी और आस्ट्रेलियन नेशनल यूनिवर्सिटी से इतिहास मे क्रमशः एम.ए. और पीएच.डी. डिग्री हासिल की. उन्होंने यूरोप, आस्ट्रेलिया और एशिया के कई विश्वविद्यालयों में तीस वर्षों तक उत्तरी एशिया के इतिहास का अध्यापन किया. जुलाई 2020 मे नालंदा विश्वविद्यालय, राजगीर के स्कूल ऑफ हिस्टोरिकल स्टडीज के प्रोफ़ेसर और डीन पद से सेवानिवृत्त होने के बाद वे आस्ट्रेलिया मे रहकर शोधकार्य में संलग्न हैं. उत्तर एशिया की संस्कृति पर हिन्दी, अंग्रेजी, कोरियाई और चीनी भाषाओं में लिखे उनके अनेक ग्रंथ तथा शोध आलेख प्रकाशित हो चुके हैं. pankajnmohan@gmail.com
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एक बड़े लेखक, विचारक से परिचय हुआ। जैसे एक साहित्यिक परंपरा और संस्कृति से। उनकी The cowshed किताब आर्डर की है।
Cultural Revolution पर पिछले दिनों एक अच्छी फ़िल्म भी देखी: Hibiscus Town. और AI Weiwei की आत्मकथा पढ़ी गई। इस पृष्ठभूमि में यह आलेख पढ़ना सुखद, विचारोत्तेजक रहा।
आगे की किश्त का इंतज़ार रहेगा।
बहुत ज्ञानवर्धक ।मार्मिक।ऐसे निबंध दो सभ्यताओं की दोस्ती बहाल और पुख्ता करते हैं।भारत और चीन की भौगोलिक सीमाएँ विवादित हो सकती हैं,लेकिन दोनों समाजों की संस्कृति असीम है।मेरा सौभाग्य है कि मैं प्रोफेसर मोहन को निजी तौर पर जानता हूँ।अगली किश्तों का इंतज़ार है।काउशेड का हिन्दी अनुवाद अगर वे कर सकें तो बड़ा काम होगा।उनको मेरा प्रणाम ।
मेरे लिए नई जानकारी थी, बड़े फसीह तरीके से पेश की गई। बहुत धन्यवाद।
अनेक अनेक धन्यवाद पंकज मोहनजी.एक महान विभूति से परिचित कराने के लिए…
JNU में पढ़ने का मौका मिला। इसे मैं अपना सौभाग्य मानता हूं। इससे भी बड़ा सौभाग्य प्रो. पंकज से मिलना है।
प्रो. ची के लिए उनका संस्मरण एक साहित्यिक धरोहर है।
इसे अपने देश की साहित्यिक पत्रिका में प्रकाशित करने की अनुमति दें। साहित्य प्रेमियों का भला होगा।
उनकी जीवनी का भी अनुवाद करें। बहुत बहुत शुक्रिया।
M P Roy जी आप किस देश में हैं।
अपने ही देश में! दिल्ली में हूं।