जितेंद्र भाटिया
कांक्रीट के जंगल में गुम होते शहर
रमेश अनुपम
हिंदी साहित्य में शहरों पर लिखा हुआ साहित्य लगभग नहीं के बराबर है. आत्मकथात्मक संस्मरण के साथ किसी शहर के खोए हुए अतीत और उसके साहित्यिक-सांस्कृतिक परिदृश्य की तलाश तथा वर्तमान के साथ उसे जोड़कर देखने की कोशिश भी हिंदी साहित्य में कम ही दिखाई देती है.
जितेंद्र भाटिया एक ऐसे लेखक के रूप में जाने जाते हैं जिन्होंने कहानी, उपन्यास के अतिरिक्त प्रचुर मात्रा में विदेशी कहानियों के अनुवाद किए हैं, इसके अलावा उनके द्वारा लिखे गए देश-विदेश के अनेक सुंदर और स्मरणीय यात्रा संस्मरणों के लिए भी उन्हें जाना जाता है.
इसलिए उनकी सद्य प्रकाशित कृति ’कांक्रीट के जंगल में गुम होते शहर’ जो एक तरह से केवल जितेंद्र भाटिया का आत्मकथात्मक संस्मरण ही नहीं है, अपितु पांच शहरों की आत्मकथा भी जिसमें गूंथी हुई है, यह अपने आप में एक दुर्लभ और महत्वपूर्ण कृति है. चेन्नई, लाहौर, मुंबई, कोलकाता और जयपुर जैसे शहरों को केंद्र में रखकर लिखे गए इस आत्मकथात्मक संस्मरण में इन शहरों को हम पहली बार एक नए रूप में देख पाते हैं.
इस किताब की भूमिका में जितेंद्र भाटिया ने लिखा है ’यह बेतरतीब किताब उन शहरों के बारे में है, जिनमें मेरा जीवन गुजरा है. एक नजरिए से यह मेरी और इन शहरों की संयुक्त आत्मकथा है. मेरे जीवन की सारी स्मृतियां इन्हीं शहरों के इर्द-गिर्द रची-बसी, बढ़ी और धूमिल हुई है. आप इसे इन शहरों का धारावाहिक शोकगीत या मर्सिया भी कह सकते हैं.’
लाहौर, चेन्नई, मुंबई, कोलकाता और जयपुर को केंद्र में रखकर रची गई यह कृति न धारावाहिक शोकगीत है और न ही मर्सिया. यह इन शहरों की धूसर आत्मा की तलछट में डूबकर एक संवेदनशील लेखक की उसमें गोता लगाने की कोशिश है, अपने अतीत को एक बार फिर से भरपूर जी लेने की अद्भुत उत्कंठा के साथ. इसलिए हम इस किताब के बहाने लाहौर, चेन्नई, मुंबई, कोलकाता और जयपुर की अब तक बनी बनाई छवि से इतर एक ऐसी छवि को देख पाते हैं जो इधर लगभग विस्मृत सी हैं.
जितेंद्र भाटिया इन शहरों की मुकम्मल पड़ताल करते हुए उन शहरों में बिताए गए अपने धूसर और रोशन दिनों को जिस तरह से उन शहरों के साथ एकाकार कर देते हैं, वह इस कृति को एक अलग दृष्टि से देखे जाने की मांग भी कर सकती है.
चेन्नई शहर पर लिखते हुए जितेंद्र भाटिया हिंदी सिनेमा में ए वी एम और जेमिनी फिल्मों के योगदान को, हर साल वहां आयोजित होने वाले चेन्नै फिल्म फेस्टिवल को, हिंदी के कथाकार इब्राहिम शरीफ को भी याद करना नहीं भूलते हैं.
चेन्नई शहर पर लिखते हुए वे यह रेखांकित करना भी नहीं भूलते हैं कि ’लेकिन असली चेन्नै या मद्रासपटनम आज भी उन बेजान छत्तों से दूर अल्वारपेट किलपॉक के पेड़ों और पुराने मद्रास की तंग गलियों में अलस्सुबह फैलती फिल्टर काफी की मादक खुशबू और बालाजी मंदिर से फूटती सहस्त्रनाम स्तुति की निरंतर ध्वनि में कुछ और सालों के लिए जिंदा है, प्रलय के अवश्यंभावी आखिरी दिनों तक.’
जितेंद्र भाटिया के लिए लाहौर उनके बीते हुए बचपन और विभाजन के दिनों की धूसर स्मृतियों का एक तरह से त्रासद कोलाज है. विभाजन की त्रासदी को जिस तरह से उनके परिवार और उनके साथ एक वृहद समुदाय ने झेला है, वह इस देश में कभी न भुलाया जाने वाला एक बेहद मार्मिक और करुण प्रसंग है.
इसलिए जितेंद्र भाटिया ने लाहौर को एक अलग दृष्टि से देखा है. अपने बचपन में बिताए हुए दिनों के बहाने वे लाहौर को जिस तरह से याद करते हैं वह एक तरह से नास्टैल्जिया ही है. लाहौर के विपरीत कोलकाता जितेंद्र भाटिया के लिए किसी हसीन प्रेमिका से कमतर नहीं है. कोलकाता की स्मृति बेइंतिहा प्यार की स्मृति है. इसलिए कोलकाता पर लिखे गए संस्मरण में लेखक कोलकाता के प्रति अपनी रागात्मकता को छिपा नहीं पाता है और गाहे-बगाहे इजहार करता हुआ चला जाता है.
यही कारण है कि चैदह अध्यायों में विभक्त इस कृति में छः अध्याय सिर्फ कोलकाता शहर पर ही केन्द्रित है. कोलकाता के समग्र भूगोल और इतिहास को ही नहीं, उसकी अनमोल साहित्यिक और सांस्कृतिक विरासत को भी जितेंद्र भाटिया ने बखूबी इन अध्यायों में एक अलग तरह से चित्रित और जीवंत कर दिया है.
कोलकाता के अतीत का पीछा करते हुए लेखक बहुत दूर तक निकल जाते हैं. इसलिए ईस्ट इंडिया कम्पनी के आगमन से पहले के कोलकाता को भी इतिहास के ग्रंथों से वे बाहर निकालकर ले आते हैं कि किस तरह इस शहर का अस्तित्व इससे पहले भी रहा है. अंग्रेजों के आगमन से पूर्व वे पुर्तगालियों के समय के कोलकाता को भी एक नजर देख लेना जरूरी समझते हैं.
सिराजुद्दौला और ईस्ट इंडिया कंपनी की कहानी ही नहीं बंगाल के खोए हुए इतिहास की तलाश भी इस किताब में दिखाई देती है. इस किताब की विशेषता यह है कि कोलकाता पर लिखते हुए लेखक स्वयं को केंद्र में न रखकर इस शहर के इतिहास और संस्कृति को केंद्र में जगह देते हैं.
बंगाल के नवजागरण के साथ वहां के थियेटर, सिनेमा, लोक संगीत, साहित्य की गंभीर पड़ताल करते हैं. इसलिए राजा राममोहन राय, ईश्वरचंद्र विद्यासागर, नटी विनोदिनी, गिरीशचंद्र घोष, रवींद्रनाथ ठाकुर, काजी नजरूल इस्लाम, पूर्ण दास, सत्यजीत राय, मृणाल सेन, ऋत्विक घटक, लालन फकीर, उत्पल दत्त जैसे बंगाल को एक नई गरिमा से दीप्त करने वाले उन उदात्त चरित्रों के साथ हावड़ा ब्रिज, विक्टोरिया मेमोरियल, ट्राम जो कोलकाता की अपनी पहचान है उसे भी लेखक ने अपनी इस कृति में प्रमुखता के साथ स्थान दिया है.
लेखक ने कोलकाता को एक शहर की तरह नहीं बल्कि एक सहचर की तरह देखा है. इसलिए यह शहर उनके लिए एक प्रेमिका की तरह है, उस प्रेमिका की तरह जो हमेशा प्रेमी की सांसों में बसी रहती है. यह अनायास नहीं है कि इस किताब में जितेंद्र भाटिया ने कोलकाता शहर को प्रमुखता के साथ रेखांकित किया है, छह अध्यायों और लगभग एक सौ चैदह पृष्ठों में कोलकाता पर लिखते हुए वे जगह-जगह इस शहर को लेकर अपने उत्कट प्रेम और चिंता को प्रकट करते हुए दिखाई देते हैं.
कोलकाता में बिताए हुए अपने बचपन के दिनों के बारे में लिखते हुए लेखक ने एक जगह लिखा है:
’मैंने पचास के दशक में अपना बचपन और फिर अस्सी-नब्बे के दशक में कोई पंद्रह वर्ष कोलकाता में गुजारे. आठ वर्ष की संवेदनशील उम्र में मैं यहां पहली बार आया था. यदि मुंबई मेरी युवावस्था या मेरी साहित्यिक संवेदना का शहर है तो कोलकाता बचपन का वह दौर जिसकी मोहक स्मृतियां हमेशा आपके साथ रहती हैं.’
आज के दौर के कोलकाता के बारे में उनका निष्कर्ष है कि ’पांचवें दशक का वह कोलकाता या कि बंगाल का जादू अब लगभग नहीं है. अंग्रेज कई शताब्दियों के शासनकाल में जिन चीजों को हिला तक नहीं पाए, उसे वैश्वीकरण के दो तीन दशकों ने पूरी तरह बदल कर रख दिया है.’ बावजूद इस सबके इस किताब में लेखक के मन में कोलकाता के प्रति प्रेम छिपाए नहीं छिपता है.
मुंबई को लेकर भी जितेंद्र भाटिया के मन में एक अलग तरह की आसक्ति है. मुंबई पर लिखे अपने पहले ही अध्याय की शुरुआत हिंदी के उस लोकप्रिय गीत की पंक्तियों से करते हैं जो किसी जमाने में बेहद मशहूर रहा है ’ए दिल है मुश्किल जीना यहां, जरा हट के, जरा बच के, ये है बॉम्बे मेरी जान’
मुंबई में बिताए हुए अपनी आधी सदी के जीवन को जितेंद्र भाटिया ने कई तरह से याद किया है. मुंबई के अतीत में झांकते हुए वे मुंबई के वर्तमान तक की यात्रा करते हैं. मुंबई के इसी अतीत को याद करते हुए जितेंद्र भाटिया एक जगह लिखते हैं कि ’मुझे आज भी लगता है कि बम्बई और मुंबई दो अलग-अलग शहर हैं. एक मुंबई वह जो सामने चलता फिरता दिखाई देता हैं और दूसरा बम्बई वह जो कभी था और जिसका कोई हिस्सा आज भी कभी कभार अपने भीतर मुझे किसी पुरानी किताब के पन्नों में दबाकर रखे गए पीपल के पत्ते की तरह दिखाई दे जाता है. वह पुराना बम्बई स्वभावतः अधिक लुभाना है क्योंकि उसमें मेरी चेतना, मेरा गुजरा वक्त, मेरी समूची संवेदना कैद है.’
दरअसल यह किताब शहर के बहाने खुद की तलाश और लेखक के अपने जीवनानुभवों की एक ऐसी सम्मोहक कथा है जो पाठकों को लेखक के जीवन और उन शहरों के साथ उनकी आशनाई को एक नई रोशनी में देखने और दिखाने की कोशिश करती है.
मुंबई की कथा कहते हुए लेखक चर्चगेट, मैरीन ड्राइव, नरीमन रोड, परेल, दादर, पवई जैसी जगहों के साथ-साथ मुंबई की फिल्मी दुनिया को भी अपनी इस किताब में गंभीरता के साथ दर्ज करते हैं.
मुंबई के सिनेमा पर इस किताब में दो अध्याय हैं ’मुंबई: हरिश्चंद्र की सिनेमा फैक्टरी’ और ’मुंबई: जब फिल्मों ने बोलना सीखा’. इन दोनों अध्यायों में जितेंद्र भाटिया ने जिस तरह सिनेमा के इतिहास की विवेचना की है, वह किसी गंभीर शोध की तरह है. वे सिनेमा के इतिहास पर लिखते हुए तथ्यों का सहारा लेते हैं, इतिहास की गुमनाम गलियों में भटकते हैं और अनेक ऐसे किस्सों को ढूंढ निकालते हैं जो हमारे लिए अब तक अपरिचित सा रहा है.
मुंबई पर लिखते हुए लेखक वहां के साहित्यकारों और रंगकर्मियों का भी स्मरण करते हैं. इसलिए इस किताब में ख्वाजा अहमद अब्बास, धर्मवीर भारती, कमलेश्वर, कृष्ण चंदर, सत्यदेव दुबे को भी लेखक ने शिद्दत से याद किया है.
इस किताब के अंतिम अध्याय में जितेंद्र भाटिया ने राजस्थान के गुलाबी शहर जयपुर पर लिखते हुए कहा है कि अपनी जिंदगी का तीन चैथाई हिस्सा मुंबई और कोलकाता में बीता देने के बाद जीवन के अंतिम पहर में इस शहर को आखिरकार मैंने क्यों चुना ?
जयपुर को याद करते हुए उन्होंने लिखा है कि ’दूसरे तमाम शहरों की तरह जयपुर भी अब वह नहीं रहा जैसा पहले था, हालांकि परकोटे के भीतर के पुराने शहर में तब्दीली की संभावना बहुत कम है. लेकिन जयपुर या कोई भी शहर तब तक ही जिंदा रह सकता है, जब तक हम उसे याद रखते हैं.’
अपने जयपुर वाले अध्याय में लेखक ने पिलानी में बिताए हुए अपने बचपन और परिवार के सदस्यों को भी याद किया है. जयपुर के विषय में लिखते हुए लेखक जयपुर रियासत की भी चर्चा करते हैं. महाराजा मानसिंह और महारानी गायत्री देवी पर लिखते हुए गायत्री देवी के अनिंद्य सौंदर्य को भी वे रेखांकित करना नहीं भूलते हैं. इस वैश्विक समय में जयपुर के बदलते मिजाज को भी लेखक अपनी इस कृति में दर्ज करते हैं.
’कांक्रीट के जंगल में गुम होते शहर’ के समापन में जितेंद्र भाटिया ने अपने अंतिम निष्कर्ष के रूप में लिखा है कि ’मेरी यह बेतरतीब श्रृंखला अपनी इसी सोच से बाहर निकलने की छोटी सी कोशिश है. एक संयुक्त आत्मकथा, इन शहरों और इनमें गुजरे मेरे जीवन की, जिसे इतिहास की निरंतर मौजूदगी के बावजूद दस्तावेज न समझा जाए तो बेहतर.’
इस किताब के पृष्ठों से गुजरने के बाद यह सहज ही निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि यह बेतरतीब श्रृंखला भी इस हद तक पठनीय और तरतीब में है कि यह हिंदी के कथेतर साहित्य की एक दुर्लभ कृति के रूप में शुमार किए जाने योग्य है.
जितेंद्र भाटिया ने अपनी इस कृति के माध्यम से न केवल इन शहरों में बिताए हुए अपने जीवन को एक तटस्थ दर्शक की तरह एक अलग रूप में याद किया है, अपितु पाठकों को इन शहरों को एक नए रूप में देखने का अवसर भी प्रदान किया है.
’कांक्रीट के जंगल में गुम होते शहर’ जितेंद्र भाटिया की आत्मकथात्मक और पांच शहरों को केंद्र में रख कर लिखी गई हिंदी की एक दुर्लभ और अपनी तरह की एक अलग कृति है. हिंदी साहित्य में यह एक बड़ी कमी को पूरा करती है और हिंदी की कथेतर गद्य की परंपरा को समृद्ध करती है.
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अच्छा लिखा है अनुपम जी ने
वैसी ही ये पुस्तक भी अनुपमेय लगती है।
अंतर्वस्तु और आकल्पन दोनो लिहाज से।
कभी उमाकांत मालवीय ने शहरीकरण को लक्ष्य करते हुए लिखा था
खोली दर खोली में घर गए उघर
रहने लायक नहीं रहे महानगर ।
कंक्रीट के जंगलों में गुम होते शहरों ने अपनी पहचान खो दी है ।सारी बस्तियां एक तरह से आबाद लगती हैं जैसे वे भट्टे से निकली हुई समरूप ईंटें हों।
उचित ही इस किताब पर बात हुई। रमेश अनुपम जी और समालोचन को धन्यवाद और बधाई।
बहुत बहुत बधाई । बहुत अच्छी समीक्षा रमेश अनुपम जी ने लिखी है यह समीक्षा पढ़कर ही इस पुस्तक को पढ़ने की इच्छा हो गई है ।वैसे भी जीतेंद्र भाटिया जी हमेशा से मेरे प्रिय रहे हैं ।उन्हें पढ़ना अच्छा लगता है ।ख़ासकर संस्मरण ।कुछ शहरों को लेकर उन्होंने यह लिखा है ऐसा ही छोटे छोटे अनेक शहर है जिसके बारे में लिखना ज़रूरी लगता है क्यों कि वहाँ की बातें आने वाले समय में स्मृतियाँ ही बन कर रह जाएंगी। समालोचन को साधुवाद