काग़ज़ के फूल तरुण काँती मिश्र अनुवाद आयशा आरफ़ीन |
तमाल (तेज़ पत्ता) और काठचंपा के पेड़ों की छाँव तले शाम का फैलता अँधेरा था और वीरानी पसरी थी. सीमेंट से बने पुराने बेंच के ऊपर कुछ सूखे पत्ते, थोड़े फूल और कुछ धूल थी. नौजवान ने धूल साफ़ की, और फूल-पत्तों को हटा कर बेंच पर बैठ गया.
पार्क के इस ओर लोग ज़्यादा आते-जाते न थे. इस तरफ़ कई झाड़ियाँ थीं, टूटे हुए बेंच थे और शाम का फैलता अँधेरा था. यहाँ से कहीं अच्छी थी, उस पार की रौशनी, ख़ूबसूरत रास्ता, कई तरह के फूल और सड़क पार की आइसक्रीम की दुकान.
स्वाती जब पहली बार यहाँ आई थी तो उसने कहा था, “मुझे ये जगह ठीक लग रही है. यहीं बैठेंगे! वाह! तमाल के फूलों की इतनी प्यारी महक!”
काठचंपा में भी एक महक थी, हल्की-सी, भीनी-भीनी ख़ुशबू- पुराने दिनों के यादों जैसी.
सुचित, ये बताओ, “तुम्हें कौन से फूल की ख़ुशबू सबसे ज़्यादा पसंद है?”
स्वाती ने किसी रोज़ इसी सीमेंट के बेंच पर बैठे, मुझ से यह सवाल किया था.
कई मुश्किल सवालों के आसान से जवाब अक्सर दूसरे सवालों में छुपे होते हैं. सुचित ने पूछा, “तुम्हें क्या पसंद है?”
स्वाती ने तुरंत जवाब दिया, “रजनीगंधा”. फिर कहा, “नहीं, मुझे जूही के फूल की ख़ुशबू ज़्यादा पसंद है. और तुम्हें?”
सुचित ने कुछ देर तक सोचा, फिर बोला, “मुझे सारे फूलों की ख़ुशबू पसन्द है. सब की अलग-अलग मुश्क होती है. जानती हो, काग़ज़ के फूलों में भी ज़रा-सी ख़ुशबू होती है.
मगर वह अगले दिन इंटरव्यू में यह नहीं बता पाया था कि धरती का सबसे बदबूदार फूल कौन-सा होता है. टेबल के उस तरफ़ बैठे एक सज्जन ने इस बीच उससे भारत की परमाणु नीति के बारे में, इथियोपिया में खाने की समस्या, मौर्य साम्राज्य के ख़ात्मे की वजह, स्पेस एलिवेटर, लिऊ ज़ियाओबो की अहिंसा नीति और भारत में फ़ुटबल का भविष्य पर सवाल कर लिए थे.
फिर एक साहब ने नाक को पोंछते हुए पूछा, “बताइए यंग मेन, दुनिया के सबसे बदबूदार फूल का नाम क्या है?”
सुचित को इस सवाल का जवाब मालूम न था. उस फूल का नाम उसे पता हो न हो, मगर उसे यह ज़रूर मालूम था कि उस फूल की बू इसी कमरे में जमी हुई है और यह कि इस बू से उसे छुटकारा चाहिए.
स्वाती ने उसे सामान्य ज्ञान की किताब में ढूँढने की हिदायत देते हुए कहा, उस फूल का नाम है अमोर्फोफ़ैलस टाईटेनम. इसमें से सड़ती हुई लाश की सी बू आती है.
जिन सवालों के जवाब सुचित को न आते, स्वाती बड़ी मेहनत से उन्हें किसी न किसी किताब से ढूँढ निकालती थी. मगर अब इंटरव्यू में यह सवाल कोई नहीं पूछता जैसे इन सवालों की कोई प्रासंगिकता ही न रही हो.
स्वाती को नौकरी के लिए उतनी मशक्क़त नहीं करनी पड़ी थी. एक ही बार इंटरव्यू दिया था और उसे एक मामूली सी नौकरी मिल गई थी, जो उसकी क़ाबिलीयत के हिसाब से इतनी मामूली भी न थी.
उसने बेंच से सूखे हुए पत्ते, धूल और वीरानी को पोंछा. हाथ में अटैची को थामे और पानी की बोतल को नीचे रख, वह फिर बेंच पर बैठ गया. पसीने से भीगी गर्दन से उसने अपनी नैक टाई को उतार कर अपनी गोद में रख लिया.
क्या नौकरी की तलाश को निकलते वक़्त वाक़ई इस नैकटाई की ज़रूरत होती है! पहले दो इंटरव्यू में उसने नैक टाई नहीं पहनी थी. उसे यह सब बचकाना लगता था. बड़े भाई ने तब गुस्से में कहा था, “नैक टाई पहनेंगे नहीं और चलें हैं साहब इंटरव्यू देने. इसी तरह करते रहे
तो तुम्हें सात जन्मों में भी नौकरी मिलने से रही.”
मगर फिर भी उसे नौकरी न मिल पाई. अब भी कुछ बाक़ी रह गया था.
स्वाती ने कहा था, “उन लोगों से बहस मत करना. अगर वह कहें कि तुम ग़लत हो तो चुपचाप सुन लेना भले ही तुम सही हो. एक बात मेरी ध्यान से सुन लो, तुम वहाँ डिबेट करने नहीं जा रहे, तुम्हें महज़ एक नौकरी चाहिए. बस.”
बस इतना ही नहीं और भी मसले हैं. फ़र्ज़ करो, उन्होंने पूछा, “अन्ना हज़ारे ने क्या संविधान को चैलेंज कर के सही किया?” इसका क्या जवाब होगा!
उसे इसका जवाब मालूम है, मगर क्या उसका जवाब इंटरव्यू के लिहाज़ से सही होगा?
सुचित ने अपनी घड़ी की ओर देखा. वक़्त अँधेरे में लुका-छुपी खेल रहा था.
बहुत देर से भूख लगी थी. सुबह घर से डबलरोटी और डालमा (दाल के साथ सब्ज़ियों को मिला कर बनाया जाने वाला एक व्यंजन जो कुछ-कुछ सांभर जैसा होता है) खा कर निकला था. कल रात का बचा हुआ डालमा और परसों की डबलरोटी. इतनी सुबह भाभी खाना जो तैयार नहीं कर पातीं.
माँ ने छुपा कर हाथ में दस रुपए थमा दिए थे. मगर उसने उसे ख़र्च नहीं किए. माँ का रुमा तेल (जोड़ों के दर्द का तेल) कल ख़त्म हो जाएगा. भैया हर बार की तरह नया लाना भूल जाएंगे और इसलिए रात को माँ सो नहीं पाएगी.
“नौकरी मिलने के बाद मैं माँ को अपने पास ले आऊँगा”. सुचित ने यह किसी रोज़ स्वाती से कहा था. स्वाती ने तब कहा, “हाँ, बिल्कुल
बशर्ते तुम्हें वह राउरकेला वाली नौकरी मिले. अगर कोरापुट की मिली तो क्या माँ वहाँ जा पाएगी?
“ऐसी सूरत में वह तुम्हारे साथ रहेगी.”
स्वाति ने सुचित को हैरानी से देखा. मगर कुछ कहा नहीं. सुचित भी चुप रहा. कितने ही पलों की चुप्पी तमाल के वन में लीन हो गई.
तीन साल बीत गए, एक ख़ामोश मंज़ूरी के शुभलगन के इंतज़ार में. मगर वह घड़ी अभी तक नहीं आई. बाबा ने कहा था, तुम जो ठीक समझो वह करो, मगर याद रखो तुमसे छोटी तीन बहनें हैं तुम्हारी. और मेरे रिटायरमेंट में अब चार साल से भी कम वक़्त रह गया है.
स्वाती को सुचित मुजरिम सा जान पड़ा. क्या वह सही कर रहा है! अपनी ख़ुशी ही उसके लिए सबसे अहम् है, अगले की भी कोई ख़्वाहिश है.
स्वाती के सवाल का जवाब सुचित के पास न था. उसने सोचा मुजरिम तो वह है ही.
तुम्हारे लिए एक अच्छी चीज़ लाई हूँ. देखोगे?
एक रंगीन पैकेट स्वाती ने उसकी तरफ़ उस दिन बढ़ाया था. उसके अन्दर एक बेहतरीन शर्ट और एक टाई थी.
इतने पैसे बेवजह क्यूँ बर्बाद किए? पहले महीने की पगार, अपने बाबा को देती तो वह ख़ुश होते!
“सबके लिए कुछ न कुछ लाई हूँ. मगर तुम्हारी बात कुछ और है.”
सुचित स्वाती को ताकता रहा. दिखने में लड़की इतनी भी हूर-परी नहीं है. साँवला रंग. क़द भी छोटा. नाक और नीचे का होंठ ज़रा और ख़ूबसूरत हो सकते थे. इसके बावजूद इस लड़की में ऐसा क्या है जो मुझे इसकी ओर खींचता है! लगता है, वक़्ती तौर पर ही सही, मेरे अन्दर कुछ और भी है जो मुझ से जुदा है. एक दिन वह मुझ में लौट आएगा और मुझे मुकम्मल कर देगा.
वो दिन जैसे कभी नहीं लौटने वाला था.
डॉक्टर ने कहा, और दो-तीन टेस्ट होने बाक़ी हैं. घर में और कौन हैं? क्या आप शादीशुदा हैं?
नहीं, उसकी शादी नहीं हुई है, और घर में भी ऐसा कोई नहीं है जिसकी राय ली जाए, उसने डॉक्टर से कहा. फिर पूछा कि और क्या-क्या
टेस्ट होने बाक़ी हैं और किस पैथोलोजिस्ट के पास जाना है.
रिपोर्ट आज मिली और डॉक्टर भी रिपोर्ट देख चुके हैं.
बहुत प्यास लगी थी. सुचित ने देखा बोतल में बहुत कम पानी बचा है. प्यास नहीं बुझेगी. पास में ज़रूर एक पानी का नल है और बाहर एक शरबत की दुकान भी.
सुचित दो घूँट में सारा पानी पी गया.
पेट में दर्द होता है, बहुत तकलीफ़ होती है मगर बाद में सब क़ुदरती जान पड़ता है.
“…एक तो बे-वक़्त खाते हो, फिर इधर-उधर की बकवास चीज़ें खाना जो जहाँ मिल जाए. ऐसे ज़्यादा दिन नहीं चलेगा, ज़रा ख़याल रखो अपना.” स्वाती ने सुचित की बात सुन कर यह कहा था.
डॉक्टर साहब मगर परेशान हो गए थे. एक-दो और सवाल पूछे, फिर बोले कि कुछ और टेस्ट करने ज़रूरी हैं.
माँ भी बेतहाशा रोने लगी. उनको रोते सुचित के सिवा और किसी ने नहीं देखा. दोपहर में इंटरव्यू दे कर लौटने के बाद, उसने देर से चावल खाए थे. घर के काम ख़त्म कर भाभी ज़रा सो रही थी इसलिए उसने ख़ुद चावल, दाल और भिन्डी की सब्ज़ी रसोई ने निकाल कर ले ली. माँ ने पूछा, “मछली?”
मछली न थी जैसे और दिनों में मशरूम, चिली पनीर या खजुरी खट्टा (टमाटर और खजूर मिश्रित एक स्वादिष्ट व्यंजन) नहीं होते थे.
माँ ने कुछ कहा नहीं क्योंकि उन्होंने बहुत पहले ही कुछ कहने का हक़ खो दिया था. उन्होंने बस अपने आँसू सुचित के माथे पर झर-झर बहा दिए.
मुझे आज बहुत देर हो गई. तुम कितनी देर से आए हुए हो? स्वाती हाँफ रही थी, रास्ते में आते-आते, उसने बेंच पर बैठ कर गहरी साँस ली, दुपट्टे से मुँह पोंछा. उसके पसीने में तमाल के फूलों की मुश्क मिल गई थी और अब एक अलग ही क़िस्म की मुश्क बन गई थी.
जल्दी-जल्दी, जैसे वक़्त की सुई चलती है, स्वाती एक काग़ज़ के रोल को खोलने लगी.
“चिकन रोल! दफ़्तर की कैंटीन से लाई हूँ, चखो ज़रा!”
एक बार शहर के किसी रेस्त्रां में सुचित ने स्वाती के साथ चिकन रोल खाया था. अब याद आ रहा है, उस दिन सुचित का जन्म दिन था. सुचित को रोल पसंद आया था मगर फिर उसने कहा, “ये भारी खाना है, मुश्किल से हज़म होगा.”
“लो, लाई थी तब गर्म था, मगर अब भी ठीक ही है.”
स्वाती ने काग़ज़ की एक प्लेट उसकी तरफ़ बढ़ा दी.
भारी खाना अब कुछ दिन मत खाना. मिर्च, तेल, मछली या गोश्त, ये सब कुछ दिनों तक न ही खाओ तो अच्छा है. साग-सब्ज़ी खाओ और ख़ूब पानी पीओ. डॉक्टर साहब ने आचार्य हरिहर इंस्टिट्यूट जाने के लिए कहा था, मगर सीधे टाटा मेमोरियल जाना ठीक रहेगा. बम्बई में कोई जान पहचान का है?
“अच्छा तो लग रहा है मगर क्या ज़रूरत थी इतना ख़र्च करने की?” रोल खाते हुए सुचित ने कहा.
“बेकार का ख़र्च कहाँ! तुम्हारे लिए कुछ भी खरीदूँ, बेकार नहीं है.”
स्वाति चिकन रोल को, अधमुंदी आँखों से, छोटे बच्चों की तरह पैर हिलाते-हिलाते, बड़े मज़े से खा रही थी.
दो जूस पैक में से एक सुचित की तरफ़ बढ़ाते हुए स्वाती बोली, “आज सुबह बाबा से हमारी शादी की बात की.”
“क्या कहा?”
स्वाति को सुचित के पूछने का तरीक़ा निराशाजनक मालूम हुआ.
स्वाति ने कहा, “बाबा को बताया कि तुम्हें नौकरी मिल गई है. बस ज्वाइन करना बाक़ी है. अब शादी की कोई भी तारीख़ मुकर्रर की जा सकती है. नवम्बर में शादी तय हुई है.”
मितु और छवी, दोनों की शादी एक साथ फ़रवरी में होगी.
नीम अँधेरे में स्वाति के नरम होंठों ने उसके कानों को छुआ. सुचित चौंक पड़ा. स्वाती पुराने ख़यालों की लड़की है, बहुत सलीक़े से कपड़े पहनने वाली, बातें नाप-तौल कर करने वाली. मगर सुचित के साथ उसका रवैया अलग होता है, कभी-कभी तो बच्चों की तरह पेश आती है!
अन्दर कहीं एक टीस उठी. अटैची के अन्दर अलग-अलग हस्ताक्षर किए हुए काग़ज़ों के गुच्छे थे मगर हर एक काग़ज़ में एक ही बात लिखी है, “देर हो चुकी है, और देर करना ठीक नहीं.”
कितनी देर? सुचित ने अपनी घड़ी की ओर देखा. वक़्त का अंदाज़ा अँधेरे में न हुआ.
स्वाती ने कहा, “किसी के रोने की आवाज़ आ रही है, उस बाँस के जंगल की ओर से.”
पीछे की तरफ़ बाँस के जंगल थे. उसकी साफ़-सफ़ाई का ज़िम्मा म्यूनिसिपैलिटी लेगी या वन विभाग के लोग, इसका फ़ैसला अभी तक
नहीं हो पाया था.
सुचित ने कहा, “कोई रो नहीं रहा है, हवा का शोर है. इंसान के रोने के लिए संसार में बहुत जगह पड़ी है.”
“कोई रोता है तो मुझे बहुत बुरा लगता है क्योंकि उस मामले में मैं कुछ भी कर नहीं पाती.” स्वाती ने कहा.
“मैं कल बम्बई जा रहा हूँ.” सुचित ने रोआँसी आवाज़ में कहा जैसे पहले से निर्धारित अंत के बारे में याद करके कह रहा हो.
“मुंबई? क्या बुलावा आ गया टाटा मेमोरियल से?”
सुचित हैरान रह गया, आख़िर स्वाती को टाटा मेमोरियल के बारे में कैसे पता चला.
“बुरा कुछ भी नहीं होता. कुछ भी कहो, टाटा कम्पनी का रेप्युटेशन अच्छा है.”
सुचित को याद आया उसने तीन महीने पहले टाटा मिनरल्स में नौकरी की एक अर्ज़ी दी थी. स्वाती को वह याद था.
“सुनो, तुम वहाँ ज्वाइन कर लो. मुम्बुई तो अच्छी जगह है…फिर कब आओगे?”
सुचित ने धीमे सुर में अनमने होकर कहा, “अभी कुछ कहना मुश्किल है. देखते हैं वह लोग मुझे कब छोड़ने को राज़ी होते हैं.”
स्वाती ने चुक्क-चुक्क करते हुए जूस के आख़री घूँट को पीने को कोशिश की.
नीम अँधेरे में दुनिया की सबसे आम-सी, मामूली सी दिखने वाली लड़की, ऐसी नज़र आ रही थी जिसका कहीं कोई मुक़ाबला नहीं.
सुचित ने उसकी तरफ़ कुछ देर तक देखा. फिर उसने स्वाती को गले लगा लिया, उसे चूमा और अब वह भूल गया था कि वह प्यास से परेशान था.
स्वाती की आँखों में उस वक़्त आँसू क्यों थे ये सवाल सुचित को कभी भी पूछने की ज़रूरत अब नहीं पड़ेगी.
ओडिया कथाकार, तरुण कांति मिश्र, का जन्म 1950 में ओडिशा के केंदुझर ज़िले में हुआ. स्नातक उत्कल विश्वविधालय से किया और परास्नातक यूके से. 1975 में भारतीय प्रशासनिक सेवा में चयनित हुए. 2010 से 2015 के दरमियान वह ओडिशा राज्य के चीफ़ सेक्रेटरी रहे. उन्होंने लगभग 250 कहानियां लिखीं और एक उपन्यास भी लिखा. उनके कहानी संग्रह “भास्वती” को 2019 में केंद्रीय साहित्य अकादमी पुरस्कार से नवाज़ा गया. ओडिया साहित्य में योगदान के लिए उन्हें 2001 में सारला सम्मान से सम्मानित किया गया. उन्हें महाराजा श्रीरामचंद्र भंज देव विश्वविद्यालय से डी. लिट की उपाधि भी प्राप्त है. |
आयशा आरफ़ीन
जे.एन.यू. , नई दिल्ली से समाजशास्त्र में एम्.ए, एम्.फ़िल और पीएच.डी. हिंदी की कई पत्रिकाओं में कहानियाँ प्रकाशित. हिंदी और अंग्रेजी पत्रिकाओं में लेख एवं अनुवाद प्रकाशित. |
टीस देने वाली कमबोलू कहानी। अनुवाद शानदार है। समालोचन को बहुत बधाई 💐
Bahut bhavuk
बिना किसी भटकाव के पूरी तरह कथ्य पर बनी रहने वाली कहानियाँ विरले ही लिखी जा रहीं हैं। यह कहानी बिना किसी अतिरिक्तता के साथ पूरी तरह स्वस्थ्य सुंदर बनी रहती है। आभार।
बहुत मर्मस्पर्शी कहानी है जो न्यूनतम शब्दों में युवा संघर्ष की त्रासदी बयान कर रही है।अनुवाद की सहजता भी काबिल ए गौर है।
एक बेहतरीन कहानी । मध्यम वर्गीय युवक की कुछ न कर पाने की लाचारी और उसके प्यार की करुण त्रासदी की मार्मिक अभिव्यक्ति।