• मुखपृष्ठ
  • समालोचन
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • वैधानिक
  • संपर्क और सहयोग
No Result
View All Result
समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
No Result
View All Result
समालोचन

Home » हिंदी की आदिवासी कविताओं में स्थानीयता के विभिन्न स्वर: महेश कुमार

हिंदी की आदिवासी कविताओं में स्थानीयता के विभिन्न स्वर: महेश कुमार

महेश कुमार इधर हिंदी की आदिवासी कविताओं पर कार्य कर रहें हैं. उनके आलेखों ने ध्यान खींचा है. उनकी दृष्टि और तैयारी दिखती है. संस्कृति और इतिहास के संदर्भ में स्थानीयता के अंतरों को यह आलेख बखूबी प्रकट करता है. पठनीय है. प्रस्तुत है.

by arun dev
March 2, 2024
in शोध
A A
हिंदी की आदिवासी कविताओं में स्थानीयता के विभिन्न स्वर: महेश कुमार
फेसबुक पर शेयर करेंट्वीटर पर शेयर करेंव्हाट्सएप्प पर भेजें

हिंदी की आदिवासी कविताओं में स्थानीयता के विभिन्न स्वर
(संस्कृति एवं इतिहास के संदर्भ में)

महेश कुमार 

 यहाँ ‘स्थानीयता’ के दो अर्थ हैं. पहला, क्षेत्र विशेष के आदिवासी कवियों द्वारा अपने वाचिक परम्परा जैसे लोकगीतों, आख्यानों और मिथकों में मौजूद इतिहास और संस्कृति के विभिन्न घटकों का कविताओं में रूपांतरण. उदाहरण के लिए, ग्रेस कुजूर ‘एक और जनी शिकार’ कविता में आदिवासी महिलाओं के शिकार पर जाने की परंपरा का जिक्र करती हैं. इतिहास यह बताता है कि रोहतास गढ़ के पास आदिवासी महिलाओं ने मुगल सैनिकों के साथ संघर्ष किया था.

‘स्थानीयता’ का दूसरा अर्थ व्यापक है. इसमें कवियों ने अपनी स्थानीयता (भौगोलिकता) को क्षेत्र विशेष की सीमा से मुक्त करके वैश्विकता की ओर वैचारिक हस्तक्षेप किया है. इसमें लोकतंत्र के प्रति विश्वास और बाद में मोहभंग, वैश्वीकरण से उपजे आर्थिक खतरे और विस्थापन तो है ही, इसके साथ साँस्कृतिक खतरे जिसमें स्थानीय संस्कृति को वर्चस्ववादी संस्कृतियाँ निगल जाना चाहती हैं, उसको दर्ज किया जा रहा है. जैसा कि अनुज लुगुन अपनी कविता ‘एक प्रेम यात्रा: राउरकेला’ में लिखते हैं,

“शंख नदी से गुज़रते हुए मुझे अब भी लगता है
प्रेम के कुछ शब्दों के साथ
धरती में कहीं भी राउरकेला हो सकता है
कहीं भी हो सकता है उड़हुल के सिंदूरी फूलों का शहर
कि नदी से बिछुड़े हुए लोगों को
एक बार उससे मिलने दिया जाए.”

इस कविता में आदिवासियों के प्राकृतिक साहचर्य के विछोह, विस्थापन और संस्कृति पर होने वाले हमले को दर्ज किया गया है. इसमें नदी और मनुष्य के आंगिक रिश्ते को मार्मिक ढंग से उकेरा गया है.  भारत के आदिवासी कवियों की कविताएँ आज अपनी स्थानीयता को ग्लोबल बनाते हुए खुद को रेड इंडियंस, लैटिन-अमेरिकन, अफ्रीकन और चियापास के आदिवासियों के साथ स्वर मिला रहा है. दुनियाभर के आदिवासियों का निवास स्थल जंगल है. जंगल में खनिज हैं. सबको वह चाहिए. दुनियाभर के आदिवासियों के मुद्दे और मान्यताएँ अलग होते हुए भी ‘जल-जंगल-जमीन’ के मसले पर लगभग एक हैं. वे भी अपनी कविताओं में वाचिकता और स्थानीयता का सहारा लेते हैं. इस तरह कविता में स्थानीयता ‘क्षेत्रवाद’ के संकीर्ण दायरे से लगभग मुक्त है.

हिंदी के युवा कवि अनुज लुगुन ‘स्थानीयता’ और ‘हिंदी की आदिवासी कविताओं’ के संबंध में अपने विचार रखते हुए कहते हैं कि

“कविता में केवल भाषा और बिम्ब के जरिये स्थानीयता की प्रस्तुति नहीं हो सकती है. यह एक मध्यवर्गीय और कूपमंडूक समझ है. इससे ‘स्थानीयता’ की स्वायत्तता और साँस्कृतिक पहलू का पता नहीं चलता है. आदिवासी कविता के पास तथाकथित सभ्य समाज की मध्यवर्गीय संस्कार नहीं है. वह उनकी बेचैनी और अपने सवालों की स्वाभाविक अभिव्यक्ति है.”[1]

हिंदी या अँग्रेजी भाषा में आज आदिवासी अपनी ‘स्थानीयता’ के ऐतिहासिक, मिथकीय और शोषण के खिलाफ संघर्षों के पक्ष को जनता के सामने रख रहे हैं. मुख्यधारा जिन भाषाओं को बहुसंख्यक और बहुमत की भाषा कहती है; आदिवासी कवि उस भाषा में अपना पक्ष रखकर अपनी स्थानीयता की ‘स्वायत्तता’ की माँग कर रहे हैं. कवि अनुज लुगुन का मानना है कि

“हिंदी में इसलिए लिख रहे हैं क्योंकि इतने दिनों तक उनकी आवाज़, स्वायत्तता, इतिहास और सँस्कृति को नजरअंदाज किया गया है. जनता के बहुसंख्यक और बहुमत वाले हिस्सों तक उनका पक्ष पहुँचे इसलिए हिंदी में लिखना जरूरी है. यह समाज बहुसंख्यक और बहुमत के हिसाब से चलता है.”[2]

भारत के किसी भी भौगोलिक क्षेत्र का कवि हिंदी में कविता लिख रहा/रही है तो उसमें दो बातें स्पष्ट रूप से दिखाई देती है. पहली, अपनी भाषा, शब्दावली, मुहावरों और मिथकीय चरित्रों का प्रयोग. दूसरी, केंद्रीय चिंता के रूप में ‘जल-जंगल-जमीन’ और ‘आदिवासियत’ को प्रमुखता से दर्ज करना. साहित्य की भी अपनी एक राजनीति होती है. आदिवासी कवियों द्वारा यह प्रयोग हिंदी भाषा के कविता के इतिहास में ‘कविता की राजनीति’ की तरह देखना चाहिए. ‘कविता की इस राजनीति’ में उनके इतिहास, मिथक, स्थानीयता, स्वायत्तता और जीवन दर्शन के विभिन्न पक्ष मुख्यधारा के कई वर्चस्ववादी विचारों को चुनौती देते हैं और पुनर्मूल्यांकन के लिए प्रेरित करते हैं.

हिंदी में आदिवासी कविता की स्थानीयता का विश्लेषण समाजशास्त्रीय पद्धति के साथ-साथ कविता के मनोविज्ञान को ध्यान में रखकर करना चाहिए. यह सोचना चाहिए कि हिंदी में कविता लिखने वाले अलग-अलग भौगोलिक क्षेत्रों के आदिवासी कवियों के केंद्रीय विचार में ‘आदिवासियत’ ही क्यों है? ‘आदिवासियत’ आदिवासियों की ज्ञान परंपरा है. यह ज्ञान परंपरा पूरे विश्व के आदिवासियों में लगभग एक सा है. वंदना टेटे के अनुसार इस ज्ञान परंपरा के पाँच बुनियादी तत्व हैं :

“सामूहिकता, सहअस्तित्व, सहजीविता, समानता और सामुदायिकता.”[3]

इस ज्ञान परंपरा के निम्नलिखित स्रोत हैं:

“प्रकृति, परंपरागत शिक्षण,  अनुभवजन्य पर्यवेक्षण, अन्वेषण और संगति.”[4]

अनुज लुगुन के इस विचार को विस्तार देते हुए कहते हैं कि

“स्थानीयता का महत्त्व तभी है जब उसकी अपनी एक विश्वदृष्टि हो. आदिवासियों की विश्व दृष्टि यह है कि उनके यहाँ ज्ञान की स्थितियाँ वर्चस्ववादी नहीं है. जिस समाज में ज्ञान की स्थितियाँ जितनी जटिल हैं; वहाँ वर्चस्व भी उतना ज्यादा है.”[5]

उदाहरण के लिए ‘सभ्य होना’ एक मिथ है. इस मिथ के कारण दुनियाभर में आदिवासियों का जनसंहार हुआ. आज भी लोग कुछ सालों तक आदिवासियों के बीच रहकर यह दावा करते हैं कि उन्होंने आदिवासियों के बीच रहकर बहुत काम किया और उन्हें सभ्य बना रहे हैं. कई संगठन और एनजीओ इस तरह के दावे करते हैं.

इसका जवाब देते हुए कवि-आलोचक महादेव टोप्पो ने एक वाक्य कहा,

‘सभ्यों के बीच आदिवासी.’[6]

यह वाक्य ‘सभ्य’ बनानेवाली वर्चस्ववादी विचार और भाषा का प्रतिरोध है. आदिवासी कविताओं में इस तरह के वाक्यों और शब्दों का प्रयोग चमत्कार और उक्ति वैचित्र्य के लिए नहीं किया गया है. इसका उद्देश्य अपने स्थानीयता की स्वायत्तता को लेकर सवाल करना है. बिना स्वायत्तता के स्थानीयता का कोई महत्व नहीं रहता है. उसकी मौलिकता खत्म हो जाती है. आदिवासी कविताओं में बार-बार इस स्वायत्तता के लिए बेचैनी दिखाई देती है. उदाहरण के लिए, यहाँ चार कविता संग्रहों के शीर्षकों को देखिए जो चार आदिवासी भाषाओं क्रमशः खड़िया, मुंडारी, गोंडी और कुड़ुख से लिए गए हैं:

‘कोनजोगा’ (वंदना टेटे, 2015),
‘पत्थलगड़ी’ (अनुज लुगुन, 2021),
‘मछलियाँ गाएँगी एक दिन पंडुमगीत’ (पूनम वासम, 2021,), और
‘फिर उगना’ (पार्वती तिर्की, 2023).

खड़िया भाषा में ‘कोनजोगा’ का अर्थ एक पहाड़ है जो उनकी साँस्कृतिक पहचान का हिस्सा है. ‘पत्थलगड़ी’ एक मुंडारी भाषा से आया है. यह मुंडाओं का साँस्कृतिक विधान है जो जन्म से मृत्यु तक चलता रहता है. बाद में यह जमीन के पट्टों और प्रतिरोध का प्रतीक बन गया. ‘पंडुमगीत’ गोंड भाषा का शब्द है. ‘पंडुम’ का अर्थ ‘उत्सव’ होता है. ‘फिर उगना’ कुड़ुख भाषा का शब्द ‘ख़ोरेन’ का हिंदी अनुवाद है. ‘जब किसी पेड़ की टहनी को काट दिया जाता है तो उसमें से फिर नई टहनियाँ उगती हैं. इस क्रिया को कुड़ुख में ख़ोरेन या नुजुगना कहते हैं.’[7]

ये सारे शब्द कवियों ने अपने वाचिक परंपरा से लिए हैं. कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, लैटिन अमेरिका और अफ्रीकन आदिवासी कवियों के यहाँ भी इस युक्ति का प्रयोग किया जाता है.  भाषिक संदर्भ में देखें तो यह स्थानीयता ‘भाषायी वैश्वीकरण’का प्रतिरोध है. गणेश. एन. देवी भाषिक वैश्वीकरण की परिभाषा इस तरह देते हैं,

“एकरूप या सजातीय भाषा, जो बाकी सभी स्थानीय भाषाओं और उसकी पहचान (विश्व दृष्टि) को मिटाकर बनती हो.”[8]

भाषा ही वह माध्यम है जिसके जरिये विचार का वर्चस्व स्थापित किया जाता है. इसे दो संदर्भों से समझा जा सकता है.  सुदूर महाद्वीपों के प्राचीन सभ्यता के निवासियों को औपनिवेशिक शक्तियों ने ‘बर्बर’ कहा. 18वीं सदी आते-आते जब उपनिवेश स्थापित होने लगे तब इनके लिए ‘बर्बर समूह’ इनके लिए उत्सुकता के विषय बनने लगे और बड़ी मात्रा में इन्होंने इनपर लिखना-पढ़ना शुरू किया. इसके कारण भारी मात्रा में लिखित सामग्री उपलब्ध हुई जो अपने स्वभाव में रोमांचक, भ्रामक और औपनिवेशिक दृष्टि से ग्रस्त थी.

दूसरा संदर्भ भारत का है. भारत में संस्कृत भाषा और उसका साहित्य हमेशा से प्रभावशाली रहा है. इस साहित्य में आदिवासी समूहों के लिए ‘असुर’ शब्दों का इस्तेमाल नकारात्मक छवि के रूप में हुआ है. बाद में कहानियों, फिल्मों और धारावाहिकों के जरिये मुख्यधारा की जनता ने भी असुरों का मतलब हिंसक, नरभक्षी और क्रूर मिथकीय चरित्र ही समझ लिया. इसके ठीक उलट सुषमा असुर जो असुर समुदाय से हैं और कविता लिखती हैं, उन्होंने बताया कि उनकी भाषा में ‘असुर’ का मतलब ‘आविष्कारक’ होता है. इस तथ्य को पुष्ट करने के लिए दो उदाहरण दिया जा सकता है.

पहला, रामदयाल मुंडा की किताब ‘आदि धरम’ में ‘असुर कथा’[9] में यह संदर्भ आता है कि असुरों ने इतना लोहा गलाया की वनस्पतियाँ सूखने लगी और धरती का तापमान बढ़ गया. दूसरा, सोलह महाजनपदों में ‘मगध’ का सबसे शक्तिशाली राज्य बनकर उभरना. इसका शक्तिशाली होने के विभिन्न कारणों में एक कारण यह था कि पहली बार यहाँ लोहे के फाल का उपयोग किया गया. इसके उपयोग से जमीन जोतना ज्यादा आसान हुआ और उत्पादन बढ़ गया. लोहे की खोज असुरों की देन थी. मगध उनका मुख्य निवास स्थान था. लोहा गलाने की कला में वे अग्रणी थे. इससे स्पष्ट होता है कि असुर सचमुच एक आविष्कारक समूह थे. यह सब भाषा में हुआ. भाषा एक साँस्कृतिक पूँजी होती है.  इसलिए जरूरी है कि उसका जवाब भी भाषा में ही दिया जाए. अबतक आदिवासियों को बर्बर, पिछड़ा, खत्म होता हुआ समाज और भाषा के स्तर पर अनगढ़ कहा गया. वंदना टेटे ने इस व्याख्या को बदलते हुए कहा कि,

“आदिवासियों के बारे में यह पूरी अवधारणा ‘संकट’ से उपजाई गयी है. अन्यथा जब हम संकट के बजाय वर्चस्व और हमले की बात करेंगे तो ऐसा कहना होगा:

  1. आदिवासी समाज एक समृद्ध आदिम समाज है जिसका सबकुछ लूट लिया गया है, लूटा जा रहा है.
  2. आदिवासी समाज एक लड़ाकू समाज है और पाँच हजार सालों के नस्लीय व साँस्कृतिक संघर्ष के बावजूद आज भी बचा हुआ है.
  1. भौतिकता और अधिभौतिकता, दोनों स्तरों पर आदिवासी समाज सृष्टि में एक ऐसा समाज है, जो प्राकृतिक संसाधनों का सबसे न्यूनतम उपयोगकर्ता है और जिसके पास लालच, द्वेष और युद्धरहित इंसानी मूल्य और जीवन दर्शन हैं.
  1. आदिवासियों की सुघड़ता तत्वों अथवा वस्तुओं में नहीं बल्कि सहजता, सरलता, निर्मलता और उसके सृजन के आनंद में है.
  1. आदिवासी समुदाय ध्वनियों के पहले संरक्षक और सर्जक हैं और वे एक बहुभाषी संसार हैं.”[10]

इसलिए जब आदिवासी कविताओं में इतिहास और सँस्कृति का संदर्भ खोजेंगे तो भाषा में निहित वर्चस्व के प्रतिरोध और उनके वाचिक परंपरा से आए हुए प्रतीकों, मिथकों और ऐतिहासिक पात्रों के उपस्थिति पर विचार करना होगा. आदिवासी कविताओं में तीन तरह के विचार मुखरता से आ रही हैं.

पहला, मुख्यधारा के ग्रंथों में चित्रित उनके पात्रों के समानांतर अपना प्रति-मिथक प्रस्तुत करना और उसकी व्याख्या करना.

दूसरा, औपनिवेशिक समय में उनके समूह के साथ हुए अत्याचारों को दर्ज करना, इतिहास लेखन में छूट गए अपने नायक/नायिकाओं को सामने लाना.

तीसरा, वैश्वीकरण के बाद की परिस्थितियों पर विचार करते हुए अपनी स्थानीयता और वाचिकता से आदिवासियों की विश्व दृष्टि को प्रस्ताव रखना. इसे अलग-अलग कविताओं के पंक्तियों के माध्यम से समझा जा सकता है.  अनुज लुगुन की कविता ‘बाघ और सुगना मुंडा की बेटी’ कविता में निम्नलिखित पंक्तियाँ हैं,

“सुनो ब्राह्मण पुजारी!
हम तुम्हारी वर्ण-व्यवस्था से बाहर हैं
देखो, मेरी मजबूत भुजाओं को
इन्हीं भुजाओं ने
तुम्हारे पुरुषोत्तम का उद्धार किया था
हमें कोल कहो, किरात कहो,
लेकिन ‘शुद्र’…???
कोई किसे कैसे शुद्र कह सकता है?
तुम मुझे अपनी साज़िश में फँसा नहीं सकते”[11]

आदिवासियों के खिलाफ लंबे समय से यह अभियान चलाया जा रहा है कि वे ‘हिन्दू’ हैं.  इसके पक्ष में वे प्रायः रामायण की कहानियों को उद्धृत करते हैं. कई हिंदूवादी साँस्कृतिक संगठन आदिवासियों को ‘वनवासी’ कहते हैं. ‘आदिवासी’ कहने से उनका यह वर्णवादी एजेंडा असफल हो सकता है. इस कविता में ‘सँस्कृतिकरण’ के इस एजेंडे के खिलाफ एक प्रति-मिथक की व्याख्या है. कवि यहाँ पूरे आत्मविश्वास के साथ कह रहा है कि हमारे समुदाय ने तुम्हारे नायक का उद्धार किया. अबतक यही कहा जाता रहा है कि भगवान राम ने निषादों, कोल, किरातों का उद्धार किया. यहाँ कवि ने व्याख्या बदल दी. वह कह रहा है कि तुमने नहीं हमने तुम्हारा उद्धार किया है.

हम एक अलग समाज हैं इसलिए अपने वर्णवादी व्यवस्था से हमें बाहर रखो. कवि उनके ‘सांस्कृतिक वर्चस्व’ को सिरे से इनकार करता है. यह आत्मविश्वास एक आदिवासी कवि को उसकी वाचिक परंपरा से प्राप्त हुआ है. जैसा कि वॉल्टर आँग कहते हैं,

“वाचिकता का ज्ञान संघर्ष के संदर्भ में निहित होता है. मुहावरे और लोकोक्तियाँ केवल ज्ञान को संरक्षित करने के लिए नहीं प्रयोग किया जाता है बल्कि, दूसरों को मौखिक और बौद्धिक रूप संघर्ष में शामिल करने के लिए किया जाता है जिससे सुनने वालों को यह बाध्य किया जाए कि वह इससे बेहतर मुहावरा या लोकोक्ति से उसे चुनौती दे.”[12]

जब भी कोई आदिवासी कवि प्रति-मिथक, मुहावरे और अपनी भाषा के शब्दार्थों से मुख्यधारा के वर्चस्ववादी विचारों को चुनौती देता है तो इसके पीछे यही वाचिक परंपरा का ज्ञान काम कर रहा होता है. इसके बिना आदिवासी अपनी मौलिकता नहीं बचा पाएँगे. उनके इतिहास और संस्कृति का अधिकांश हिस्सा उनके गीतों में है. गीत उनकी अपनी भाषा में है. इसलिए यह जरूरी हो जाता है कि हर आदिवासी कवि को अपनी मातृभाषा का ज्ञान हो मतलब वाचिक परंपरा का ज्ञान हो. अपनी भाषा और परंपरा से यदि कोई कवि दूर होगा तो उसके पास प्रतिरोध की अपनी कोई मौलिक समझ और अभिव्यक्ति नहीं होगी. इसके अभाव में स्थानीयता की स्वायत्तता अर्थात्, इतिहास, संस्कृति और विश्वदृष्टि की कोई अभिव्यक्ति मौलिक नहीं होगी. जैसा कि नोआम चोम्स्की कहते हैं,

“पढ़ने की परंपरा-मानव इतिहास का बहुत छोटा हिस्सा है. ज्ञान का ज्यादातर हिस्सा मौखिक परंपरा में है. यह एक कृषि की तरह है जो काफी जटिल, उत्पादक और सक्षम है. जिसे हम ‘वैज्ञानिक खेती’ कहते हैं जो खेती के मौखिक परंपरा को स्थानांतरित कर देती है, प्रायः देखने में आता है कि इससे उत्पादन में गिरावट आ जाती है. इसके बावजूद खेतिहर मजदूर खेती कर लेते हैं. उनका ज्ञान पाठ्यपुस्तक में नहीं है. वह उस औरत की दिमाग में है जो उसे पूर्वजों से मिला है और जिसे वह अपनी आने वाली पीढ़ियों को बताएगी.”[13]

आदिवासी कवियों के भाषा के साथ भी यही बात है. उनके ज्ञान और मौलिकता का स्रोत लिखित परंपरा की देन नहीं है. वे अपने वाचिक ज्ञान का बहुत छोटा हिस्सा अभी दर्ज कर पा रहे हैं. अपनी वाचिक स्मृतियों को दूसरे भाषा में दर्ज करने की इस युक्ति को सुसन जिंगेल (Susan Gingell) ‘पाठ्यपुस्तकीकृत वाचिकता/शाब्दिकता’ (textualized orality) कहती हैं. इस शब्द से उनका आशय है,

“मौखिक और लिखित का मिश्रण का ऐसा उत्पाद जो आदिम और आधुनिक होने के साथ नवोन्मेषी दृष्टियों से युक्त हो.”[14]

औपनिवेशिक शक्तियों ने आदिवासियों की जमीनों और जंगलों का खूब दोहन किया. इस प्रक्रिया में भारी मात्रा में आदिवासियों का जनसंहार हुआ. उनके भोलेपन और सरल स्वभाव का फायदा उठाते हुए उनकी जमीनें छीन ली गईं. इन सबका वर्णन आदिवासी भाषाओं के गीतों में मिलते हैं. अलग-अलग समुदायों से संबंध रखने वाले आदिवासी कवि/कवयित्री इसे हिंदी कविता में दर्ज कर रहे हैं. कुड़ुख समुदाय से संबंध रखने वाली कवयित्री पार्वती तिर्की की कविता ‘सोसो बंगला’ की इन पंक्तियों को जमीन की लूट के संदर्भ में पढ़ी जा सकती है:-

“पहाड़ की तराई में
जब लोगों ने गाँव बसाया…
वह गाँव के प्रमुख से मिला…
उससे कहा-
आप दयालु हैं,
मुझे रहने के लिए
मात्र ‘एक बैल भर की जमीन’ दीजिए
अगली सुबह जब वह आया
साथ अपने एक मोची लाया
वह मोची बैठ गया और
धागे की तरह काटने लगा..
एक बैल के माँस से
उसने पूरे सत्तर एकड़ की
जमीन मापी.”[15]

कुड़ुख आदिवासी अपने गीतों में बताते हैं कि

“छोटानागपुर में एक अंग्रेज आया था जिसने सोसो नामक आदिवासी गाँव के पास एक बड़ा बंगला बनवाया.”[16]

इस तरह की कहानियाँ आदिवासियों को अपनी ऐतिहासिक स्मृतियों को याद करने में सहयोग करती हैं. मुख्यधारा के इतिहास लेखन में ऐसी अनेक कहानियाँ दर्ज नहीं हो पाई. साहित्य लेखन में इस तरह के प्रसंग उपेक्षित रहे. शिक्षक संस्थानों में आदिवासियों की पहुँच नगण्य रहा है. अतः, उनके शोषण का इतिहास भी नगण्य रहा. ऐसी कविताओं का विश्लेषण आदिवासियों के विस्थापन, जनसंहार और आधुनिक राष्ट्र राज्यों के दमन की ओर ध्यान खींचता है. आदिवासियों की जमीन की लूट और हिंसा वैश्विक घटना है. दुनियाभर के आदिवासियों के साथ यह हुआ और हो रहा है. इस आधार पर इनकी स्थानीयता वैश्विक परिदृश्य में एक ही तरह का है. अपने इतिहास के साथ हुए उपेक्षा को दर्ज करने के लिए आदिवासी अपनी कविताओं के साथ आगे आ रहे हैं. लेकिन, इतना भर से काम नहीं चल सकता. यदि सरकारें और शैक्षणिक संस्थाएँ सचमुच आदिवासियों के प्रति संवेदनशील है तो उसे आदिवासी इतिहास के प्रति ज्यादा संवेदनशील होना होगा. इस मामले में जापटिस्ट विद्यालयों और शिक्षण संस्थानों से सीखा जा सकता है. जापटिस्ट शिक्षण संस्थानों में

“विद्यार्थी अपना पाठ्यपुस्तक स्वयं बनाते हैं खासकर, इतिहास विषय का. हर समूह अपने समुदाय के बुजुर्गों से मिलता है, फील्ड वर्क पर जाता है और स्थानीय से इतिहास संबंधित सामग्री ढूँढ़कर लाता है. इस तरह वे अपने स्कूल के पाठ्यपुस्तक का हिस्सा बनते हैं, अपनी शोधवृत्ति को पोषित करते हैं, अपने समुदाय को ज्ञान के हिस्सेदारी में भाग लेने के लिए मदद करते हैं. इस तरह समाज और शिक्षण संस्था के बीच जो दीवारें हैं उसे भी तोड़ने में मदद करते हैं.”[17]

इस संदर्भ में गोंड समुदाय से संबंध रखने वाली कवयित्री पूनम वासम की कविता ‘जंगल है हमारी पाठशाला’ की पंक्तियाँ पढ़ी जानी चाहिए,

“तीर के आखिरी छोर पर लगे खून के कुछ धब्बे
सुनाते हैं ‘ताड़-झोंकनी’ के दर्दनाक किस्से
बैलाडीला के पहाड़ सँभाले हुए हैं
अपने हथेलियों पर आदिम हो चुके
संस्कारों की एक पोटली
धरोहर के नाम पर पुचकारना, सहेजना, संभालना और तन कर खड़े रहना
सीखते हैं हम बस्तर की इन ऊँची पहाड़ियों से”[18]

‘ताड़-झोंकनी’ का संबंध ‘बस्तर का हल्बा विद्रोह’ से है.  “इसमें बस्तर के हल्बा विद्रोहियों की सजा यह थी कि ताड़ का एक पेड़ काटा जाएगा और जो विद्रोही अपने हाथों में पेड़ को थाम लेगा तथा गिरने नहीं देगा, उसे छोड़ दिया जाएगा. मौत हर हाल में होनी थी. हल्बा वीरों ने शान से मरना स्वीकार किया. पेड़ काटे जाते रहे और एक-एक करके विद्रोहियों की मौत हो गयी. इस दर्दनाक घटना को बस्तर में ताड़ झोंकनी कहते हैं.” [19]

इतिहास के इस क्रूर घटना को ‘ताड़-झोंकनी’ के अलावा ऐसा कोई दूसरा शब्द नहीं हो सकता है जो इस पीड़ा की तीव्रता, वीरों के प्रति अगाध अपनापन और संघर्ष के प्रति सघन अनुभूति को अभिव्यक्त करता. यह शब्द कवयित्री की अपनी भाषा की है. भाषा की प्रासंगिकता और महत्व इसी में निहित है. यह समझना बेहद जरूरी है कि आदिवासी कविता या साहित्य भावनाओं की सहज अभिव्यक्ति मात्र नहीं है. मातृभाषा की अभिव्यक्ति में एक उपचारात्मक शक्ति होती है, उसमें एक रागात्मकता होती है जो पुरखों के करीब लाती है. यह भूली हुई स्मृतियों को वापस लाती है और एकता का भाव पैदा करने के साथ अजनबीपन, अलगाव और ऐतिहासिक सदमों से बाहर निकालकर ‘सामूहिकता’ का भाव पैदा करती है. ‘इतिहास और सँस्कृति’ को  भाषा की स्थानीयता के साथ समझने का प्रयास करना चाहिए.

आदिवासी कवि अपनी कविताओं में उन प्रसंगों को उठाते रहे हैं जिसका संबंध भूमंडलीकरण और नव-उदारवाद से है. इसका संबंध वैश्विक स्तर पर आदिवासियों के शोषण और साहित्य में भाषा के प्रयोग से है. जैसा का नोआम चोम्स्की कहते हैं, ” नवउदारवाद का सीधा अर्थ है कि राज्य के शक्तियों का प्रयोग केंद्रीकृत आर्थिक शक्तियों के लाभ के लिए हो.”[20] वे कहते हैं, “यह मुक्त व्यापार नहीं है. यह वर्चस्व का एक रूप है.”[21] इस वर्चस्व का सबसे विभत्स रूप दुनियाभर के आदिवासी क्षेत्रों के खनन, जंगल, नदी के लूट के रूप में दिखाई दे रहा है. परिणाम में विस्थापन, हिंसात्मक संघर्ष, राज्यों द्वारा दमन, सुनियोजित हत्या, कठोर सैनिक कानून आदि है. वैश्विक पूँजीवाद को जब भी खनन के लिए (मुनाफे के लिए) जमीन की जरूरत पड़ती है, वह राज्य का सहारा लेती है. राज्य उसे ‘विकास की परियोजना’ का नाम देकर आदिवासियों की जान की कीमत पर पूँजीपतियों को जमीन उपलब्ध करा देती है. इस प्रक्रिया में संवैधानिक नियमों और आदिवासियों की स्वायत्तता, उनके जीवन की गरिमा को नजरअंदाज कर दिया जाता है. इन घटनाओं का रूप भारत, कनाडा, इक्वेडोर, अफ्रीका, लैटिन अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया आदि तमाम राज्यों में एक जैसा है. इसे अनुज लुगुन की कविता ‘बाघ और सुगना मुंडा की बेटी’ की निम्नलिखित पंक्तियों से समझ सकते हैं:-

“दंडकारण्य के गाँवों ने ‘वैश्विक ग्राम’
के संधि प्रस्ताव के विरुद्ध मतदान किया है
क्या उसी का परिणाम है यह कि
यहाँ मासूम, नाबालिगों तक की लाशें बिखरी हुई हैं?”[22]

जहाँ-जहाँ आदिवासी हैं वहाँ भूमंडलीकरण के तमाम बड़े खिलाड़ी उनकी जमीनें हड़पने के लिए राज्यों का इस्तेमाल करते हैं. ब्राजील, मेक्सिको, कनाडा, अफ्रीका का कांगो-जाइरे के जंगल हों या भारत में झारखंड, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड और उत्तर-पूर्वी राज्यों के जंगल हों सब जगह एक सी स्थिति मिलेगी. सब जगह सरकारों का तर्क भी एक जैसा कि आदिवासी नक्सल हैं, विकास विरोधी हैं और जंगलों में अवैध कब्ज़ा जमाए हुए हैं. इसकी पुष्टि अनुज लुगुन की कविता ‘पत्थलगड़ी’ की इन पंक्तियों से होती है,

“भाषा का यह फेर पुराना है
सरकार आदिवासियों की भाषा नहीं समझती है
वह उनपर अपनी भाषा थोपती है
आदिवासी पत्थलगड़ी करते हैं
और सरकार को लगता है वे बगावत कर रहे हैं”[23]

‘आदिवासियों के परंपरा के अनुसार मृतक के कब्र पर 4से 15 फीट तक का पत्थर गाड़ दिया जाता है और कुछ संदेश अंकित कर दिए जाते हैं.’[24]  

अंग्रेज काल में यह परंपरा जमीन बचाने और अंग्रेजों से संघर्ष करने का प्रतीक बन गया. बिरसा मुंडा द्वारा संचालित उलगुलान के दौरान अंग्रेजों ने समझ लिया कि आदिवासियों के साथ समझौता करना ही बेहतर है. जमीन की समस्या का समाधान हो जाएगा तब आदिवासी शायद उनका समर्थन कर देंगे. ‘1908 में छोटानागपुर टेनेंसी एक्ट लाया गया जिसके तहत आदिवासियों की जमीन को कोई भी दिकू खरीद नहीं सकता. 1949 में संथाल परगना टेनेंसी एक्ट आया. इसमें भी जमीन को ठोस प्रावधान किए गए.’[25]

धीरे-धीरे पत्थलगढ़ी की यह सांस्कृतिक परंपरा उनके राजनीतिक अधिकारों की गवाही के प्रतीक बनते गए. इसपर संवैधानिक अधिकार अंकित किए जाने लगे. “भूरिया कमिटी के संस्तुति पर जब 1996 ई० में पेशा एक्ट आया तबसे उनके ग्राम सभाओं को लोकतंत्र के भीतर एक गति मिली. आदिवासी इसके लिए संघर्ष करते रहे और पत्थरों पर पेशा एक्ट दर्ज किया जाने लगा. 2016 में झारखंड के तत्कालीन सरकार ने ‘लैंड बैंक पॉलिसी’ के नाम पर पेशा एक्ट में संशोधन करके विकास कार्य के नाम पर कम्पनियों को देने को योजना बनायी. आदिवासियों ने इसका विरोध किया. उनसे जमीन के पट्टे माँगे जाने लगे. इसके बाद ‘पत्थलगढ़ी आंदोलन’ खूंटी से शुरू होकर पूरे झारखंड, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, पश्चिम बंगाल और उड़ीसा तक फैल गयी. दिकूओं का आदिवासियों के गाँव में प्रवेश वर्जित कर दिया गया.”[26] सरकार ने फौज उतार दिया, राजद्रोह के मुकदमे चले और आंदोलन को नक्सल समर्थित बताया गया. यह आंदोलन आदिवासी अस्तित्व के संघर्ष के साथ संविधान को जमीन पर लागू करने का संगठित पहल था.

कविता में एक पक्ष भाषा का भी है. भाषा से स्थानीयता का भी रिश्ता है. ‘सरकार आदिवासियों की भाषा नहीं समझती’ में एक साजिश की तरफ इशारा है. दरअसल सरकारें आदिवासियों की भाषा समझना ही नहीं चाहती. इसमें उसका फायदा है. इस तरह सरकारें आसानी से उन्हें बगावती बताकर रास्ते से हटा सकती हैं. लेकिन कवि ने इसका तोड़ निकाल लिया है. वह अपने समुदाय का बौद्धिक प्रतिनिधि है जिसकी आवाजाही मुख्यधारा के समाज में है. इसलिए वह अब उसी भाषा में लिखकर अपनी बात कह रहा है जिसे सरकार समझती है. भूमंडलीकरण ने भाषायी एकरूपता, संपर्क भाषा के नाम पर लगातार आदिवासी भाषा को खत्म करने का प्रयास किया है. नव-उदारवाद केवल आर्थिक वर्चस्व ही नहीं स्थापित कर रहा है. वह भाषिक वर्चस्व को भी बढ़ावा दे रहा है.

गणेश. एन. देवी लिखते हैं,

“जो भाषा प्रिंट तकनीक में नहीं ढल पाई उसे कमतर मान लिया गया. आजादी के बाद जिन भाषाओं की अपनी लिपि थी और लिखित साहित्य था, उन्हें भारतीय संघ में अलग राज्य बनाने का मौका मिल गया. जिस भाषा के पास लिखित साहित्य नहीं था, भले ही उनकी वाचिक परंपरा कितनी भी समृद्ध रही हो उन्हें भाषा का ही दर्जा नहीं मिला.”[27]

आदिवासी कवियों ने इसका काट निकाल लिया. उन्होंने हिंदी और अँग्रेजी में अपने भाषा के शब्दों का इस्तेमाल करके ‘भाषाओं का आदिवासीकरण’ कर दिया. उदाहरण के लिए, ‘पत्थलगड़ी’ कविता में ही अनुज लुगुन लिखते हैं,

“कितनी अजीब बात है कि
हिंदी आदिवासियों की मातृभाषा नहीं है
न ही वे पत्थर फेंकने का मुहावरा जानते हैं
फिर भी वे पत्थर फेंकने के दोषी माने गए.”[28]

ये पँक्तियाँ हिंदी में हैं लेकिन मिजाज आदिवासियत का है. इसको ‘भाषाओं का आदिवासीकरण’ कहा जा सकता है. दूसरी भाषाओं के प्रयोग का खतरा यह है कि प्रायः उस भाषा के मिथकों, मुहावरों और मान्यताओं के शिकार होकर अपनी प्रतिरोध की क्षमता और मौलिकता खो देते हैं. लेकिन, आदिवासी कवि इस बात को समझते हुए बहुत सावधानी से अपनी भाषा के मुहावरों, प्रतीकों और मान्यताओं का प्रयोग करते हैं. यही काम विश्व के बाकी आदिवासी कवि भी कर रहे हैं. इस तरह ‘स्थानीयता का एक संकुल’ बनता है जो भूमंडलीकरण के भाषिक एकरूपता के विचार को चुनौती देते हुए अपने इतिहास और सँस्कृति का वैश्विक स्वरूप का निर्माण कर रहा है. जो-एन एपीसकेन्यू (Jo-Ann Episkenew) इस युक्ति का समर्थन करते हुए कनाडा के अँग्रेजी में लिखने वाले आदिवासी लेखकों को कहते हैं

“साहित्यिक रचनाओं की निर्मिति के लिए जिसका लक्ष्य एक जैसा है, जैसा कि वाचिक कहानियों का होता था, अपने लोगों के इतिहास को व्याख्यायित करने के लिए और साँस्कृतिक प्रयासों से दुनिया के साथ एक रिश्ता बनाने के लिए अँग्रेजी में लिखा जा सकता है. यह भाषा उन्हें ज्यादा से ज्यादा पाठकों तक पहुँचने में मदद करेगी जिसके जरिये वे अपने समकालीन कैनेडियन समाज को शिक्षित कर सकेंगे.”[29]

इसी बात को मारिया योलांडा तेरान (Maria yolanda Teran) कहती हैं कि,

“अपने विचारों को प्रस्तुत करने के लिए दूसरी भाषाओं का बुद्धिमत्तापूर्वक प्रयोग करना भी जरूरी है.”[30]

हिंदी के आदिवासी कवि भी यही कर रहे हैं. वे अपनी स्थानीयता, इतिहास और संस्कृति के विविध मुद्दों को एक वैश्विक दृष्टि के साथ विश्व आदिवासी समूह के बीच साझा कर रहे हैं.

 ___
सन्दर्भ:

[1] अनुज लुगुन, मौखिक साक्षात्कार, अप्रकाशित, तिथि: 01अगस्त 2023
[2] वही, 1अगस्त 2023
[3] वाचिकता:- आदिवासी दर्शन, साहित्य और सौंदर्यबोध, वंदना टेटे, राधाकृष्ण पेपरबैक, प्रथम संस्करण, 2020, पृष्ठ:- 74
[4] वही, पृष्ठ:- 74
[5] अनुज लुगुन, मौखिक साक्षात्कार, अप्रकाशित, तिथि:- 01अगस्त 2023
[6]  सभ्यों के बीच आदिवासी, महादेव टोप्पो, अनुज्ञा बुक्स, प्रथम संस्करण, 2018
[7] फिर उगना, पार्वती तिर्की, राधाकृष्ण पेपरबैक, प्रथम संस्करण, 2023, पृष्ठ:-99
[8] ओरलिटी एंड लैंग्वेज, संपादक:- गणेश.एन.देवी, जॉफरे वी. डेविस, रॉउटलेज, प्रथम दक्षिण एशियाई संस्करण, 2021, पृष्ठ:- 01
[9] आदि धरम, संपादन:- रामदयाल मुंडा, रतन सिंह मानकी, राजकमल प्रकाशन, चौथा संस्करण, 2020, पृष्ठ:- 83-150
[10] वाचिकता:- आदिवासी दर्शन, साहित्य और सौंदर्यबोध, वंदना टेटे, राधाकृष्ण पेपरबैक, प्रथम संस्करण, 2020, पृष्ठ:-91,92
[11] बाघ और सुगना मुंडा की बेटी, वाणी प्रकाशन, प्रथम संस्करण, 2017, पृष्ठ:-87
[12] ओरलिटी एंड लैंग्वेज, संपादक:- गणेश.एन.देवी, जॉफरे वी. डेविस, रॉउटलेज, प्रथम दक्षिण एशियाई संस्करण, 2021, पृष्ठ:- 85
[13] न्यू वर्ल्ड ऑफ इंडिजेनस रेजिस्टेंस:- नोआम चोम्स्की एंड वॉइसेस फ्रॉम नार्थ, साउथ एंड सेंट्रल अमेरिका, संपादक:- लोइस मायेर एंड बेंजामिन मालडोनाडो अल्वराडो, ओरिएंट ब्लैकस्वान, प्रथम संस्करण, 2011, पृष्ठ:-57-58
[14] ओरलिटी एंड लैंग्वेज, संपादक:- गणेश.एन.देवी, जॉफरे वी. डेविस, रॉउटलेज, प्रथम दक्षिण एशियाई संस्करण, 2021, पृष्ठ:- 118
[15] फिर उगना, पार्वती तिर्की, राधाकृष्ण पेपरबैक, प्रथम संस्करण, 2023, पृष्ठ:-77
[16] वही, पृष्ठ:-77
[17] न्यू वर्ल्ड ऑफ इंडिजेनस रेजिस्टेंस:- नोआम चोम्स्की एंड वॉइसेस फ्रॉम नार्थ, साउथ एंड सेंट्रल अमेरिका, संपादक:- लोइस मायेर एंड बेंजामिन मालडोनाडो अल्वराडो, ओरिएंट ब्लैकस्वान, प्रथम संस्करण, 2011, पृष्ठ:- 326
[18] मछलियाँ गाएँगी एक दिन पंडुमगीत, पूनम वासम, वाणी प्रकाशन, प्रथम संस्करण, 2021, पृष्ठ:- 65
[19] वही, पृष्ठ:-65
[20] न्यू वर्ल्ड ऑफ इंडिजेनस रेजिस्टेंस:- नोआम चोम्स्की एंड वॉइसेस फ्रॉम नार्थ, साउथ एंड सेंट्रल अमेरिका, संपादक:- लोइस मायेर एंड बेंजामिन मालडोनाडो अल्वराडो, ओरिएंट ब्लैकस्वान, प्रथम संस्करण, 2011, पृष्ठ:-66
[21] वही, पृष्ठ:-67
[22] बाघ और सुगना मुंडा की बेटी, वाणी प्रकाशन, प्रथम संस्करण, 2017, पृष्ठ:-47
[23] पत्थलगड़ी, अनुज लुगुन, वाणी प्रकाशन, प्रथम संस्करण, 2021, पृष्ठ:-56
[24]Economic and political weekly, ENGAGE,ISSN(online)-2349-8846, Jal Jangal Jameen:-The pathalgadhi movement and adiwasi rights.पृष्ठ संख्या:-01
[25] वही, पृष्ठ संख्या:-02
[26] वही, पृष्ठ संख्या:-03
[27] ओरलिटी एंड लैंग्वेज, संपादक:- गणेश.एन.देवी, जॉफरे वी. डेविस, रॉउटलेज, प्रथम दक्षिण एशियाई संस्करण, 2021, पृष्ठ:- 35-36
[28] पत्थलगड़ी, अनुज लुगुन, वाणी प्रकाशन, प्रथम संस्करण, 2021, पृष्ठ:-56
[29] ओरलिटी एंड लैंग्वेज, संपादक:- गणेश.एन.देवी, जॉफरे वी. डेविस, रॉउटलेज, प्रथम दक्षिण एशियाई संस्करण, 2021, पृष्ठ:- 119
[30] न्यू वर्ल्ड ऑफ इंडिजेनस रेजिस्टेंस:- नोआम चोम्स्की एंड वॉइसेस फ्रॉम नार्थ, साउथ एंड सेंट्रल अमेरिका, संपादक:- लोइस मायेर एंड बेंजामिन मालडोनाडो अल्वराडो, ओरिएंट ब्लैकस्वान, प्रथम संस्करण, 2011, पृष्ठ:-26

महेश कुमार
शोधार्थी(हिंदी), काशी हिंदू विश्वविद्यालय, बनारस
 manishpratima2599@gmail.com
Tags: 20242024 शोधमहेश कुमारहिंदी की आदिवासी कविता
ShareTweetSend
Previous Post

पाँच तुर्की कवि: अनुवाद: निशांत कौशिक

Next Post

काग़ज़ के फूल: अनुवाद: आयशा आरफ़ीन

Related Posts

मतलब हिन्दू : महेश कुमार
समीक्षा

मतलब हिन्दू : महेश कुमार

2024 : इस साल किताबें
आलेख

2024 : इस साल किताबें

2024 की लोकप्रिय पुस्तकें
आलेख

2024 की लोकप्रिय पुस्तकें

Comments 6

  1. यतीश कुमार says:
    1 year ago

    ‘कोनजोगा’ (वंदना टेटे, 2015),
    ‘पत्थलगड़ी’ (अनुज लुगुन, 2021),
    ‘मछलियाँ गाएँगी एक दिन पंडुमगीत’ (पूनम वासम, 2021,), और
    ‘फिर उगना’ (पार्वती तिर्की, 2023).
    बहुत सारे बिंदुओं को समेटे यह लेख समृद्ध करता है पाठक को l एक जरूरी लेख जिसमें अलग अलग आवाजों को सुर ताल में लयबद्ध करते हुए एक पूर्ण सुरीला गीत रचा गया है l बहुत-बहुत बधाई l Samalochan को विशेष बधाई इस महत्वपूर्ण लेख को अपने पटल पर जगह देने केलिए

    Reply
  2. पूनम वासम says:
    1 year ago

    अच्छा लिखा Mahesh Kumar जी आपने।बहुत शुक्रिया, इस विषय पर सार्थक लिखना व पढ़ना दोनों की जरूरत है।अरुण जी शुक्रिया इस आलेख को साझा करने के लिए।

    Reply
  3. नरेश गोस्वामी says:
    1 year ago

    साहित्य की समाजशास्त्रीय कल्पना के साथ लिखा गया विचारोत्तेजक लेख. मुझे दो बातें ख़ासी प्रभावशाली लगीं.
    एक, लेखक का कथ्य कविताओं व समाज-वैज्ञानिक अध्ययनों के संदर्भों तथा लेख के समग्र ध्येय के बीच बड़े स्वाभाविक ढंग से विकसित होता है. यह बात इसलिए महत्त्वपूर्ण है क्योंकि बहुत दफ़ा हमारे संदर्भों, विश्लेषण तथा निष्कर्षों के सूत्र एक-दूसरे से इतने अलग-थलग खड़े रहते हैं कि उनके बीच कोई अन्विति उभरती दिखाई नहीं देती.
    दो, महेश जी ने स्थानीयता और वैश्विकता के अंतर्संबंधों की जैसी पड़ताल की है उससे इस बात पर दुबारा ध्यान जाता है कि स्थानीयता केवल एक निश्चित भूगोल तक सीमित नहीं होती. महेश जी यह स्पष्ट करने में सफल रहे हैं कि अपने निर्णायक अर्थ में स्थानीयता बंद अवधारणा न होकर एक सांस्कृतिक बोध और जीवन-दृष्टि है जिसके सूत्र ग्लोब के इस सिरे से उस सिरे तक फैले हैं.

    Reply
  4. ऐश्वर्य मोहन गहराना says:
    1 year ago

    मेरे लिए यह समृद्ध करने वाला आलेख रहा। अब तक मैंने राजनैतिक और सामाजिक पहलू से आदिवासियों पर लिखे लेख अधिक पढ़े हैं। इस आलेख में आदिवासियों की काव्य चेतना के साथ उस सभी मुद्दों पर बात हुई है।

    Reply
  5. प्रत्यूष चन्द्र मिश्रा says:
    1 year ago

    महेश कुमार का यह आलेख हिंदी की आदिवासी कविता के बारे में एक जरुरी दस्तावेज की तरह है.वैश्विकरण ने अपने अबाध विस्तार के क्रम में वर्चस्व की जो रणनीति अपनाई हैं आदिवासी कविता उसका एक सांस्कृतिक प्रत्याख्यान रचती है .जिन कवियों की रचनाओं को इसमें शामिल किया गया है उनमें वैश्विक पूंजी के वर्चस्व का प्रतिरोध मुखर है साथ ही आदिवासी जीवन का सौन्दर्य भी बखूबी प्रकट होता है.हालाँकि मेरी समझ से जसिंता करकेट्टा की रचनाओं को भी इस आलेख में जगह मिलना चाहिय था.

    Reply
  6. Ajay vasave says:
    1 year ago

    बहूत ही अचा लिखा है हमारे आदिवासी के बारे में संस्कृती पुंजक , आदिवासी,जल जंगल जमीन 🌾 जय आदिवासी जय जोहार
    . धन्यवाद सर..

    Reply

Leave a Reply Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

समालोचन

समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

  • Privacy Policy
  • Disclaimer

सर्वाधिकार सुरक्षित © 2010-2023 समालोचन | powered by zwantum

No Result
View All Result
  • समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • आलोचना
    • आलेख
    • अनुवाद
    • समीक्षा
    • आत्म
  • कला
    • पेंटिंग
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • शिल्प
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • संपर्क और सहयोग
  • वैधानिक