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समालोचन

Home » काला पानी क्रॉसिंग: महेश कुमार

काला पानी क्रॉसिंग: महेश कुमार

औपनिवेशिक भारत में मज़दूर एग्रीमेंट पर ब्रिटिश उपनिवेशों पर भेजे जाते थे. यह एग्रीमेंट धीरे-धीरे गिरमिटिया शब्द में बदल गया. इस ‘प्रवास’ के इतिहास पर आशुतोष भारद्वाज और जूडिथ एम बराक के संपादन में यह किताब प्रकाशित हुई है- ‘Kala Pani Crossings: Revisiting 19th Century Migrations from India’s Perspective’. इस पुस्तक की बारीकी से चर्चा कर रहें हैं महेश कुमार. विषय की समझ यहाँ बनती दिख रही है.

by arun dev
July 20, 2022
in समीक्षा
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काला पानी क्रॉसिंग: महेश कुमार
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प्रवासी साहित्य और इतिहास को ‘प्रवास’ देने की प्रवृत्ति का नकार है ‘काला पानी क्रॉसिंग’

महेश कुमार

रूटलेज प्रकाशन से 2022ई० में एक किताब आयी है जिसका नाम है ‘काला पानी क्रॉसिंग’ (Kala Pani Crossings: Revisiting 19th Century Migrations from India’s Perspective.) संपादक हैं आशुतोष भारद्वाज और जूडिथ एम बराक. इस किताब की सबसे आकर्षक बात संपादन कला ही है. दोनों संपादकों ने तीन खण्डों में प्रवासी साहित्य और इतिहास से संबंधित जितने पक्ष हो सकते थे लगभग सबको  शामिल किया है.

‘काला पानी’ शब्द के इतिहास से शुरू होकर यह यात्रा साहित्य, साहित्येतिहास, इतिहास और इतिहास लेखन की परंपरा तक पहुँच कर वाचिक इतिहास, फ़िल्म और लोक स्मृतियों का विस्तृत मूल्यांकन इस किताब में शामिल है. इस विविधता से संपादकों के उद्देश्य का पता चलता है कि वो इस किताब के जरिए भारतीय अकादमिक वर्ग में प्रवासी साहित्य को ‘केंद्र’ में लाना चाहते हैं.

हिंदी साहित्य के विद्यार्थी होने के नाते मेरा यह अनुभव रहा कि हमलोग इसे वैकल्पिक विषय के रूप में एक सत्र के लिए चुन सकते थे. यह अभी भी हिंदी साहित्य के ‘केंद्र’ में नहीं है, जबकि इस साहित्य का इतिहास आधुनिक भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास जितना ही पुराना और महत्वपूर्ण है. यही हाल इतिहास के साथ भी है. आधुनिक काल के इतिहास को पढ़ते हुए यह महसूस किया जा सकता है कि इतिहास के पाठ्यक्रम में गिरमिटिया मजदूरों के इतिहास पर अलग से कोई अध्याय नहीं बनाया गया है. यहाँ तक कि जो सामग्री गौण रूप में मौजूद है उसे भी शिक्षक चलताऊ तरह से पढ़ाते हैं. इस तरह भारतीय प्रवासियों का संघर्ष साहित्य और इतिहास दोनों में ‘हाशिए’ पर रहा है. एक तरफ हम शिक्षा और शिक्षा व्यवस्था को ‘समावेशी’ (inclusive) बनाने पर जोर देते हैं दूसरी तरफ शिक्षा के विभिन्न अनुशासनों के भीतर ही समावेश की प्रक्रिया का घोर अभाव है. यह किताब अकादमिक बहस के साथ-साथ इस कमी की ओर पाठकों का और बौद्धिक समूह का ध्यानाकर्षित करती है.

विजय मिश्रा ने ‘कालापानी’ शब्द को बहुआयामी माना है. वे इसके अर्थविस्तार की संभावनाओं को सामाजिक, ऐतिहासिक और त्रासद स्मृतियों के संदर्भों में खोजने का प्रस्ताव रखते हैं. ‘कालापानी’ मतलब जाति और धर्म का भ्रष्ट होना तथा अंडमान के बीहड़ जेल में कैदी होना तो था ही, हिन्दू धर्म में काला अशुभ का प्रतीक है इस नाते कालापानी को ‘मृत्यु’ की तरह देखा गया. कालापानी की खास बात यह रही कि इसने पुराने सामाजिक अनुबंधों को कमजोर किया. ‘माटी-माटी अरकाटी’ (अरकाटी का अर्थ यहाँ ‘दलाल’ है) में ‘डिपो विवाह’ की चर्चा है. कुंती की शादी कोंता से करवा दी जाती है. कुंती ब्राह्मणी है और कोंता आदिवासी. कालापानी की यात्रा में दो तरह से जाति और धर्म की पहचान गौण हुई. एक तो उत्तर भारत के हिन्दू यह मानते थे कि समुद्र पार जाने से जाति और धर्म भ्रष्ट हो जाता है. दूसरा था डिपो विवाह जिसमें बिना जाति और धर्म पूछे किसी स्त्री-पुरुष को जोड़ा घोषित कर दिया जाता था. लेकिन यह भी ध्यान देना चाहिए कि इस जहाज यात्रा के दौरान जो वर्णाश्रम व्यवस्था में वैश्य या शूद्र माने जाते थे वो अपनी हीनभावना के ग्रंथि से उभरने के लिए स्वयं को ब्राह्मण या क्षत्रिय बताने लगे. ऐसा करके वो अपने जहाजी सहयात्रियों में स्वयं को श्रेष्ठ बनाए रखने की कोशिश करते. लेकिन, इन गिरमिटिया के मालिकों ने इनके जातिगत पेशा को बदलकर एक पहचान दिया ‘गिरमिटिया मजदूर’ (plantation labourers) का. इस पूरी प्रक्रिया पर जॉन केली कहते हैं कि

‘अंग्रेज गन्ने के लिए गिरमिटिया या कुली बहाल नहीं करते थे बल्कि वे कुली का निर्माण करते थे. यह एक नई दास प्रथा थी.’

अपने लेख में विजय मिश्रा गैउत्र बहादुर(gaiutra bahadur) और खल तोराबुली(khal torabully) की चर्चा करते हुए कालापानी के संदर्भों का और विस्तार करते हैं. वो कहते हैं कि

‘कालापानी और अरकाटी के बीच सहजीवी संबंध हैं. दोनों को एकदूसरे की जरूरत थी, इसके बिना गिरमिटिया मजदूर नहीं पैदा किए जा सकते थे.’

आज भारत में फैले ईंट भट्ठों और मेट्रो शहरों के बड़ी कम्पनियों में काम करने वाले मजदूरों और एजेंटों की व्यवस्था भी इसी तरह की है.

मानव तस्करी और वेश्यावृत्ति का पूरा नेटवर्क इसी पद्धति का उदाहरण है. एक तरह से यह ‘शोषण करने के लिए बनी सहजीविता’ का मॉडल था जो आज 21वीं सदी में ‘लोकल से ग्लोबल’ होकर ‘एजेंट एंड लेबर मैनेजमेंट’ बन चुका है.

बहादुर जी का मत है कि ‘कालापानी को जहाज और कलकत्ता डिपो के संदर्भ के साथ परिभाषित होना चाहिए.’ इसने ‘जहाजी भाई’ की एक बिरादरी का निर्माण करके कालांतर में मॉरीशस, त्रिनिदाद, रीयूनियन द्वीप और अन्य आधुनिक राष्ट्रों का निर्माण किया. इसी को खल तोराबुली ‘कुलीट्यूड'(coolitude) कहते हैं. वर्तमान समय में बिहार से चलने वाली ‘गरीबरथ’ एक्सप्रेस और मेट्रोपोलिटन शहरों को जाने वाली रेलगाड़ियों को भी इसी संदर्भ में समझना चाहिए. बिहार मजदूर सप्लाई करने वाला बड़ा राज्य है. यहाँ की बड़ी आबादी दिल्ली, मुम्बई, पंजाब,गुजरात,हैदराबाद में ‘बिहारी’ या ‘भईया’ की बिरादरी वाली पहचान रखते हैं. एक प्रवासी राष्ट्र तो आज के समय में स्वयं भारत में ही है.

यह लेख बताता है कि किसी भी नए राष्ट्र या राष्ट्र-राज्य बनने के पीछे शोषितों के अधिकार हनन का एक खूनी इतिहास छुपा होता है जिसे शोषक वर्ग गौण बनाए रखना चाहता है.

वर्ग संघर्ष और साम्राज्यवादी चरित्र की इस प्रवृत्ति को विस्तार से विश्लेषण किया है लेखिका नंदिनी धर ने. नंदिनी धर  मार्क्सवादी दृष्टि से ‘सी ऑफ पॉपी’ (sea of poppy) का पाठालोचना करती हैं. वह गिरमिटिया मजदूरों के प्रवास को पूर्वी भारत के ग्रामीण अर्थव्यवस्था के पतन से जोड़कर देखती हैं. उनका इस विश्लेषण को समझने के लिए अंग्रेजों के भू-राजस्व और भूमि व्यवस्था में लाए जा रहे बदलाव को समझना होगा. रैयतवाड़ी, स्थायी बंदोबस्ती, महालवारी, तीन कठिया प्रणाली और नगद खेती के दबाव को आर्थिक इतिहास के संदर्भ में विश्लेषण करके ही नंदिनी धर के लेख की समझ बन सकती है.

अमिताभ घोष के उपन्यास के बहाने वह इतिहास लेखन में ‘हिस्टोरिकल इमेजिनेशन’ और ‘अनुमान'(speculation) के सिद्धांत का साहित्यिक महत्व की तलाश करती हैं. जब इतिहासकार के पास किसी खास ऐतिहासिक समय के बारे में बहुत कम स्रोत सामग्री होता है तब वह उस काल के कई अन्य सभ्यता के बारे में ज्यादा से ज्यादा जानकारी जुटाकर उससे मिलती जुलती सभ्यताओं के स्रोत के आधार पर गैप को न्यूनतम करने की कोशिश करता/करती है. इस प्रक्रिया को ‘हिस्टोरिकल इमेजिनेशन’ कहा जाता है. इसमें इतिहासकार के ईमानदारी और अध्ययन के विस्तार का बहुत महत्व है. साहित्यकार अपनी कल्पना शक्ति से यह काम प्रायः करते हैं और ‘अनुमान’ के सिद्धांत का प्रयोग करते हुए ‘क्या हो सकता था’ पर भी विचार रखते हैं.

अश्विनी कुमार पंकज ने ‘माटी माटी अरकाटी’  उपन्यास को जॉन स्काबॉल के एक पैम्फलेट जो 1840ई. में प्रकाशित हुआ था उसके आधार पर लिखा है. इसमें उपर्युक्त दोनों सिद्धांतों का सफल प्रयोग पंकज जी ने किया है. नंदिनी धर ने एस्पिनेट रमाबाई और घोष के उपन्यास की तुलना करते हुए लिखा है ‘एस्पिनेट गिरमिटिया मजदूरों के इतिहास लेखन के कार्यप्रणाली या प्रविधि की असम्भवता की ओर इशारा करके रुक जाती हैं लेकिन घोष इससे आगे बढ़कर अनुमान और कल्पना के बीच द्वंद्वात्मक रचनात्मकता से एक सौन्दर्यमूलक और सांस्कृतिक उत्पादन करते हैं.’

उपन्यास में ‘दीति’ सभी प्रवासी देशों के गिरमिटिया मजदूरों के ऐतिहासिकता का एक रूपक है. नंदिनी धर इस पूरी प्रक्रिया को साम्राज्यवादी देशों द्वारा ‘पूँजी के बहाव’ की तरह देखती हैं. यहाँ हर गिरमिटिया मजदूर एक ‘पूँजी’ है जिसके श्रम से उसे ‘मुनाफा’ कमाना है. ऐतिहासिक प्रक्रिया में इसे ‘ड्रेन ऑफ ह्यूमन कैपिटल एंड लेबर’ कह लीजिए ठीक उसी प्रकार जैसे ‘ड्रेन ऑफ वेल्थ’ था. धर एक महत्वपूर्ण बात की ओर ध्यान दिलाती हैं यह उपन्यास ‘वर्ग संघर्ष के अंत’ जैसी अवधारणाओं को निरस्त करते हुए ‘वर्ग संघर्ष’ के व्याख्या को नई दिशा और संदर्भ में विश्लेषण करने की  माँग करता है.

इस किताब में लगभग सभी लेखों में ‘सी ऑफ पॉपी’ केंद्र में है. इसके विभिन्न पाठ विश्लेषण और तुलनात्मक विश्लेषण से ‘कालापानी और गिरमिटिया’ के इतिहास को समझने की कोशिश की गयी है. ऋतु त्यागी ने अपने लेख में संजय सुब्रमनियम के सिद्धांत ‘कनेक्टेड हिस्ट्री’ को केंद्र में रखकर घोष और अश्विनी कुमार पंकज के उपन्यास का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया है.

इतिहास में विभिन्न ‘वर्ग और समूह’ रहे हैं जिनका इतिहास राष्ट्र-राज्य के भौगोलिक सीमा को अतिक्रमण करता है. गिरमिटिया मजदूरों समूह और वर्ग का इतिहास भी उनमें एक है. इनके इतिहास को लिखने के लिए स्मृतियों, वाचिक परंपराओं, विभिन्न देशों में फैले इनके रिश्तों, प्रभावों और प्रवास की निरंतरता को संज्ञान में लेना अत्यावश्यक है. इसका सीधा मतलब है कि इतिहास की जो राष्ट्रीय धारा अपने भौगौलिक सीमा का अतिक्रमण नहीं करेगा वह अपने देश के सभी वर्ग और समूह के इतिहास के साथ न्याय नहीं कर सकता है. इतिहास और साहित्य में जितना विकेंद्रीकरण और भौगोलिक सीमा का अतिक्रमण होगा उसमें आम जनता के ‘प्रतिनिधित्व’ की संभावना उतनी प्रबल होगी. इतिहास लेखन में इसे ‘सबाल्टर्न पद्धति’ भी कहा गया जो 1980ई० के आसपास खूब प्रचलित हुआ. ऋतु त्यागी इसे हिंदी और अंग्रेजी साहित्य के संदर्भ में समझाया है कि जो काम घोष कर रहे हैं वही काम पंकज भी कर रहे हैं. फर्क यह है कि अंग्रेजी वाली ज्यादा चर्चित है और हिंदी वाली कम.

इतिहास लिखते हुए कोई अंतिम निष्कर्ष देना बड़ी जिम्मेदारी और जवाबदेही सुनिश्चित करने का काम है. एक चूक किसी वर्ग और समुदाय के वर्तमान और भविष्य को गर्त में धकेल सकता है. कंचना धर ने अपने लेख में इसी चूक की ओर ध्यान दिलाया है कि ‘क्या महिलाएँ स्वेच्छा से गिरमिटिया हुईं या उन्हें फँसाया गया?’

औपनिवेशिक इतिहासकार इसे ‘स्वेच्छा’ की श्रेणी में रखेंगे और ‘राष्ट्रवादी’ प्रायः राष्ट्रीय हित को ध्यान में रखते हुए ‘फँसाया गया’ कि श्रेणी में जगह देंगे ताकि उपनिवेशवाद की आलोचना में एक और कड़ी जुड़ जाए. कंचना धर ने यहाँ तथ्य और तत्कालीन सामाजिक परिवेश को ध्यान में रखकर पर्याप्त तटस्थता बरतती हुई यह बताती हैं कि उन्हें फँसाया भी गया और सामाजिक रूप से परित्यक्त स्त्रियाँ स्वेच्छया से गईं. इसमें गिरमिटिया मजदूरों की पत्नियाँ, विधवाएँ, घर से बहिष्कृत स्त्रियाँ और वेश्याएँ सामाजिक उत्पीड़न के कारण स्वेच्छया से गईं. ग्रामीण और आदिवासी इलाकों में अरकाटी (दलाल) अच्छी जिंदगी, पैसा और सोना का लोभ देकर महिलाओं को फँसाते थे. खेती बर्बाद होने से और जंगलों पर अंग्रेज अधिकारियों के हस्तक्षेप ने आदिवासी और ग्रामीण महिलाओं को दलालों द्वारा दिखाए गए स्वप्न में फँसना स्वाभाविक था. कंचना यह प्रस्ताव रखती हैं कि इसपर अभी इतिहास में बेहद कम सामग्री है. इस लेख को पढ़ते हुए यह आसानी से समझा जा सकता है कि ‘स्त्रियाँ हमेशा प्रवासी ही रहती हैं.’

अर्थशास्त्र की किताबों में प्रवास के जितने प्रकार हैं उनसब में स्त्रियाँ ऐसी प्रवासी हैं जो कभी अपने घर वापस स्थायी रूप से नहीं आती. मायके से ससुराल प्रवास. ससुराल से पति जहाँ काम करता है वहाँ प्रवास या खुद नौकरी कर रही है तो प्रवास. उनका जीवन प्रवास के चक्र में फँस कर रह जाता है. इसलिए जरूरी है कि इस मुद्दे पर शोध होने चाहिए और नई संभावनाओं को खोजना चाहिए. गिरमिटिया इतिहास में भी स्त्रियाँ उपेक्षित हैं. यह देखना सुखद है कि इस किताब में दो महत्वपूर्ण लेख स्त्रियों के मुद्दे पर भी है. दूसरा लेख रिद्धिमा तिवारी का ‘विदेसिया गीतों’ के संदर्भ में है.

लोकगीतों में रोपनी, जँतसार, बारहमासा इत्यादि में विरह वर्णन और प्रवासी पति के इंतजार का मार्मिक विवरण मिलता है. भिखारी ठाकुर ने विदेसिया को अमर बनाया. लेख में कृष्णदेव उपाध्याय के किताबों में संकलित भोजपुरी गीतों के विश्लेषण से बताया गया है कि प्रेमिका इंतजार करके उम्मीद खो देती है और घरवाले उसकी शादी करा देते हैं. कहीं पति बाहर से दूसरी पत्नी लेकर आ रहा है. गीतों में पति के अनुपस्थिति में देवर द्वारा किए गए यौनिक छेड़छाड़ और हिंसा का जिक्र है. लेखिका इस बात पर जोर देती हैं कि इंटरडिसिप्लिनरी पद्धति से महिलाओं का इतिहास लेखन हो जिससे स्त्रियों के विभिन्न मुद्दों का ऐतिहासिक विश्लेषण हो सके.

जब भारत से मजदूर गिरमिटिया बनकर समुद्र पार जा रहे थे तो अपने साथ वो सांस्कृतिक, धार्मिक और जाति की स्मृतियों को भी लेकर गए. इसने कालांतर में उन्हें संघर्ष करने में सहयोग भी किया और आजाद होने के बाद आपस में विभेद भी पैदा किया. इस संदर्भ में दो लेख है एक विजया राव की जिसमें वो तमिल की पिछड़ी जातियों में लोकप्रिय द्रौपदी पूजा का विश्लेषण है. दूसरा लेख जोशील के. अब्राहम का है, जिसमें नायपॉल के ब्राह्मणवादी और जातीय श्रेष्ठताबोध का विश्लेषण किया.

विजया राव ने द्रौपदी कल्ट को हिन्दू संस्कृति से अलग माना है. यह एक द्रविड़ संस्कृति का हिस्सा है. यह वहाँ के लोगों को अपने पूर्वजों की परंपरा और स्मृतियों से जोड़ता है. रीयूनियन द्वीप पर इसके बहाने उनसब के बीच एक सामान्य पहचान की स्थापना होती है. लेकिन, वो यह भी कहते हैं कि मालाबार रियूनियन की प्रवृत्ति मॉरीशस की तरह नहीं है. वो अपनी तमिल भाषा और उसकी द्रविड़ियन विचार भूल चुके हैं. इसका असर यह हुआ है कि वहाँ ‘प्रवासी दिवस’ के बहाने सुविधा देने की राजनीति शुरू हुई है जिसमें पीआईओ (person of indian origin) के नाम पर ‘हिंदुत्व’ का उदय हुआ है. जब कोई समूह अपनी जातीय परंपरा से विलग जाता है तो दूसरी कोई भी विचारधारा उसे हाईजैक आसानी से कर लेती है. दूसरी तरफ यह भी है कि जब व्यक्ति के भीतर अपनी परंपरा के ‘रूढ़िवादी और श्रेष्ठताबोध’ का विचार हावी होने लगता है तो उससे वर्ग विभेद और संघर्ष की स्थिति पैदा होती है.

जोशील अब्राहम का लेख नायपॉल के भीतर के इस्लामोफोबिक, जातीय श्रेष्ठता और दलितों के प्रति दुराग्रहों को पाठक के सामने लाता है. आरक्षण, बाबरी मस्जिद प्रकरण पर उनकी नकारात्मक टिप्पणी, आपस में भोजन बाँटकर खाने को असभ्य कहना और अफ्रीकी लोगों को बर्बर बताना यह सब उनके भीतर के ब्राह्मणवादी, औपनिवेशिक जातीय श्रेष्ठता का उदाहरण है. रेणु ने 1954 ई०में ही लिखा कि ‘जाति बड़ी चीज है. जात-पात न माननेवालों की भी जाति होती है.'(मैला आँचल)

इस लेख को पढ़ते हुए दो महत्वपूर्ण उपन्यासों के दृश्य उभरता है. ‘लाल पसीना’ में आंद्रेया विवेक को भड़काने के लिहाज से कहती है कि तुम उस जाति से आते हो जिसको भारत में लोग अछूत मानते हैं. यही कारण है कि बस्तीवाले तुम्हारे दोस्त मदन को अपना नेता बना रहे हैं तुम्हें नहीं. यहाँ विवेक उसकी बातों में नहीं फँसता, पर गौर करने वाली बात है कि ‘जाति’ यहाँ भी विभेद पैदा करने का काम कर रही है. ‘माटी माटी अरकाटी’ में रामनारायण ऊँची जाति का है और लम्पट है. वह स्त्रियों का बलात्कार करता है. वह कुंती के साथ भी जबरदस्ती करने की कोशिश करता है क्योंकि उसे लगता है कि वह ब्राह्मणी होकर एक आदिवासी के साथ रहकर उसके जाति का अपमान कर रही है. बाद में वह अधिकारियों से मिल जाता है, मंदिर बनवाता है, धन कमाता है और आजादी के बाद वहाँ के संसाधनों पर उसका वर्चस्व होता है. यहाँ ‘जहाजी भाई’ और ‘कुलीट्यूड’ का सिद्धांत कमजोर पड़ता है. ‘जाति’ एक ऐसी व्यवस्था है जो उभर कर जब साम्प्रदयिक और सत्ता के साथ गठजोड़ करती है तो साझा संघर्ष की ताकत को कमजोर करके आम जनता को हाशिए पर धकेल देती है. इस क्रम में उन्हें इतिहास में गौण बनाकर उनके योगदान को विकृत करके प्रस्तुत किया जाता है ताकि जब भी वे अधिकार की बात करें तो उनका अधिकतम ऊर्जा पहले बन चुके पूर्वाग्रहों का खंडन करने में ही चला जाए.

इतिहास में मिथक और अफवाह को ऐतिहासिक तथ्य के तौर पर स्थापित करने का रिवाज पुराना है. ज्यादा दुखद स्थिति तब होती है जब वर्तमान में ही मिथक गढ़कर किसी की अस्मिता को कुंठित करने का प्रयास किया जाए. इस संदर्भ में इस किताब में दो लेख हैं. सुपर्णा सेनगुप्ता ने ‘टेरर ऑफ कालापानी:अ कॉलोनियल मिथ’ के जरिए यह बताया है कि ‘समुद्र पार करने से जाति और धर्म भ्रष्ट होता है’ यह हिन्दू धर्मग्रंथों से ज्यादा एक औपनिवेशिक षड्यंत्र था. क्योंकि ऐसी मान्यता मुख्य रूप से उत्तर भारत में ही प्रचलित थी वह भी ब्राह्मणों में. वो एंग्लो-बर्मन युद्ध(1852-53) का तथ्य देती हैं कि उस समय अंग्रेज की सेना में 11,000 भारतीय सैनिक थे जो समुद्र पार जाकर लड़ रहे थे जबकि अंग्रेज सैनिक मात्र 2210 थे.

रणवीर चक्रवर्ती का संदर्भ देते हुए उन्होंने बताया है कि 16 वीं सदी में बड़ी संख्या में भारतीय व्यापारी समुद्र पार जाते थे. अंग्रेजों ने व्यापार को मजबूत करने के लिए, बंदरगाहों पर अपना दबदबा बनाने के लिए और समुद्री साम्राज्य स्थापित करने के लिए धर्मग्रंथों का कपटपूर्ण पाठ का प्रचार किया.

दूसरा लेख कुमारी इस्सर का है, जिसमें उन्होंने हिंदुस्तानी सिनेमा में मॉरीशस के चित्रण का विश्लेषण किया है. हिंदी सिनेमा में मॉरीशस डॉन, लुटेरों, नशेड़ियों, गैंगस्टर और वांटेड लोगों के छुपने और अय्याशी करने की जगह है. ‘संजू’ फ़िल्म में रणबीर कपूर मॉरीशस जाता है. ‘बीए पास’ फ़िल्म में पैसा चोरी करके मॉरीशस भाग जाता है. ‘शौकीन’ फ़िल्म में बुड्ढे अय्याशी करने वहीं जा रहे हैं. एक स्टीरियोटाइप गढ़ा जा रहा है. अभी से यह गढ़ा जा रहा है कल को यही ऐतिहासिक तथ्य होता जाएगा और वहाँ के लोगों की अस्मिता का विकृतिकरण होगा. फिर इसको ठीक करने के लिए उनको अकादमिक ऊर्जा खर्च करनी पड़ेगी. इस प्रवृत्ति पर अभी ही नियंत्रण किया जाना चाहिए.

यह संपादित किताब अपने मिजाज में प्रवासी इतिहास का पुनर्खोज है जिसमें साहित्य एक ‘सहियापन'(यह एक आदिवासी दर्शन का हिस्सा है जिसमें दो वयस्क सहमति से अपना मित्र चुनते हैं और मित्रता पक्की होने पर उन्हें सहिया कहा जाता है) के विचार के साथ उपस्थित है. इसमें मिथकों का खंडन है, इतिहास लेखन की गलतियों का पुनर्मूल्यांकन है और आम जनता को इतिहास में सम्मान और पहचान देने की उत्कंठा है.

संदर्भ ग्रँथ:

  1. ‘Kala Pani Crossings: Revisiting 19th Century Migrations from India’s Perspective, Editor:-Ashutosh bhardwaj, Judith Mishrahi Barak, Routledge,2022.
  2. लाल पसीना:- अभिमन्यु अनत, राजकमल प्रकाशन, द्वितीय संस्करण:-2017
  3.  माटी माटी अरकाटी, अश्विनी कुमार पंकज, राजकमल प्रकाशन, प्रथम संस्करण:-2016

 

 

महेश कुमार
शोधार्थी(हिंदी), काशी हिंदू विश्वविद्यालय, बनारस
 manishpratima2599@gmail.com

Tags: 20222022 समीक्षाkala pani crossingआशुतोष भारद्वाजप्रवासप्रवासी भारतीयप्रवासी लेखनमहेश कुमार
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Comments 4

  1. Anonymous says:
    3 years ago

    निश्चित रूप से यह एक महत्वपूर्ण किताब है जो पढ़े जाने योग्य है। महेश कुमार का श्रम इस आलेख से झांक रहा है। उन्हें अवश्य शुभकामना दूंगा।
    ललन चतुर्वेदी

    Reply
  2. राजेश सकलानी says:
    3 years ago

    आलेख बहुत अच्छा लिखा है। द्रोपदी को द्रविड़ सभ्यता से जोड़ना अतिरिक्त व्याख्या की मांग
    करता है।

    Reply
  3. श्रीविलास सिंह says:
    3 years ago

    बढ़िया लेख। पुस्तक के सम्बंध में जिज्ञासा उत्पन्न करता हुआ।

    Reply
  4. प्रभात मिलिंद says:
    3 years ago

    महेश कुमार जी का यह आलेख इस पुस्तक के महत्व और उपादेयता को व्याख्यायित करने के दृष्टि से एक बड़ा हस्तक्षेप है। मेरे जैसे जिज्ञासु व्यक्ति के लिए जिसने छात्र के रूप में इतिहास पढ़ा हो और साहित्य पढ़ने-लिखने में रुचि रखता हो, यह एक अनिवार्य किताब है। लेखन में पुस्तक के विशिष्ट ‘गलिम्प्सेज’ को बहुत सुंदरता से रेखांकित किया गया है। मेरी इस धारणा को कि लेखक को इतिहासबोध से संपन्न होना ही चाहिए, यह आलेख पुष्ट करता है। विषय गहन-गंभीर होने के बाद भी लेख की भाषा रोचक है। अरुण देव के ही सामर्थ्य की बात है कि वे इतनी निरंतरता के साथ सामग्री की स्तरीयता और उपलब्धता बनाये रखते है। इस तथ्यपरक सामग्री के लिए लेखक के साथ साथ वे भी बधाई के उत्तराधिकारी हैं।

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