
खैर, ‘संडे मेल’ के दफ्तर में खासे गहमागहमी वाले माहौल में सवालों और जवाबों का यह जो निरंतर सिलसिला चल रहा था, उसके बीच-बीच में फोन तथा दफ्तर के काम भी आ ही जाते थे. नंदन जी जब ऐसे कामों में लगते थे, तो उनमें भी पूरी तरह से लीन हो जाते थे. और फिर बगैर किसी खीज के, उसी तन्मयता से बातचीत की रौ में बहने लगते. ‘संडे मेल’ के संपादकीय के कुछ पन्ने टाइप होकर उनके सामने आए, तो बड़े मनोयोग से कलम उठाकर वे उन्हें दुरुस्त करते रहे. फिर उन्हें भेजने के बाद मुझसे मुखातिब हुए, “प्रकाश, मैंने भागते-भागते ही पत्रकारिता की है?”
“और शायद भागते-भागते ही जिंदगी जी है…?” मैंने उनके जवाब में एक टुकड़ा और जोड़ दिया, जो सवाल की तरह नत्थी हो गया था. नंदन जी को मेरा यह ढंग भा गया. थोड़े उल्लसित होकर बोले, “हाँ, लेकिन इस बारे में मेरी कोशिश यह रहती है कि अगर मैं किसी चीज को समूचा नहीं पा सकता और एक छोटा सा टुकड़ा ही मेरे सामने हैं, तो कम से कम उस टुकड़े को ही संपूर्णता से जिया जाए. अगर मेरे पास पाँच ही मिनट हैं तो मैं सोचूँगा कि उस पाँच मिनट में ही क्या अच्छे से अच्छा गाया-बजाया या जिया जा सकता है. पूरा राग नहीं तो उसका एक छोटा सा टुकड़ा ही सही! उस पाँच मिनट को इस तरह तो जिया ही सकता है कि उस समय मैं सब कुछ भूलकर उसी एक छोटे से टुकड़े या छोटे से काम में पूरी तरह लीन हो जाऊँ.”
बातचीत अच्छे और पुरलुत्फ अंदाज में चल रही थी. और नंदन जी के स्वभाव और पत्रकारी जीवन के पन्ने एक-एक कर खुल रहे थे. मुझे अच्छा लग रहा था. खासकर इसलिए कि नंदन जी पूरे मूड में थे और सवालों से टकराने का उनका अनौपचारिक अंदाज और बेबाकी मुझे लुभा रही थी.
अचानक एक शरारती सवाल कहीं से उड़ता हुआ आया और मेरे भीतर उछल-कूछ मचाने लगा. यह सवाल मेरा नहीं, मेरे एक कवि मित्र महाबीर सरवर का था. यहाँ यह बता दूँ कि महाबीर कबीरी साहस के साथ अपनी बात कहने वाले थोड़े खुद्दार किस्म के कवि-लेखक हैं, जिनका लेखकों और पत्रकारों को देखने-परखने का नजरिया कहीं ज्यादा सख्त और आलोचनात्मक है. उनकी सब बातें मुझे पसंद नहीं आतीं, पर बेशक वे खरे और ईमानदार लेखक हैं. लिहाजा उनकी बातें सुनना मुझे प्रिय है.
एक दिन यों ही बातों-बातों में महाबीर ने कहा था ‘नंदन जी ने एक लेखक के रूप में मुझे कभी प्रभावित नहीं किया. हाँ, वे हिंदी साहित्य के सबसे बढ़िया ‘क्रीजदार’ लेखकों में से एक हैं, उनके कॉलर की क्रीज और टाई को नॉट मुझे कभी गड़बड़ नहीं मिली.’
सो नंदन जी जब अपनी गुफ्तगू के पूरे अनौपचारिक रंग में थे, मैंने यह सवाल चुपके से उनके आगे सरकाया. पूछा, “मेरे मित्र की यह टिप्पणी आपको कैसी लगती है?”
सुनकर नंदन जी एक क्षण के लिए थोड़ा रुके. गुस्से की हलकी सी लाली उनके चेहरे पर आई, और आवाज में जरा सी तुर्शी आ गई. लेकिन फिर भी असहज वे नहीं हुए. बोले—
“प्रकाश, अपने मित्र से कह देना कि मैंने बहुत गरीबी देखी है, लेकिन अपनी गुरबत को कभी नहीं बेचा और जान-बूझकर दैन्य को कभी नहीं ओढ़ा. अगर मेरे पास एक ही कमीज होगी, तो उसे भी मैं रात में अच्छी तरह धोकर, लोटे से इस्तिरी करके, अगले दिन ठाट से पहनकर दफ्तर जाऊँगा. और किसी को अहसास नहीं होने दूँगा कि इस आदमी के पास एक ही कमीज है….”
फिर इसी संदर्भ में जिक्र छिड़ गया विष्णु प्रभाकर जी का. विष्णु जी ने किसी गोष्ठी में नंदन जी के देर से पहुँचने पर टिप्पणी की थी, “ये कारों वाले पत्रकार क्या जानें, हम लेखकों का समय कितना कीमती है!” इस पर नंदन जी का खुद्दारी से भरा जवाब था कि कोई जरूरी नहीं कि गरीबी और संघर्षों का ठेका आपने ही ले लिया हो. वे जो आज आपको खुश और मुसकराते दिख रहे हैं, वे किन हालात से निकलकर आज यहाँ तक आए हैं, इसका आपको क्या पता?
और फिर स्वाभाविक रूप से जिक्र इस बात का चल पड़ा कि नंदन जी के बचपन के हालात क्या थे, किस तरह वे पले, बढ़े और पढ़े. नंदन जी ने बताया कि हालत यह थी कि क्लास में नंबर सबसे अच्छे आते थे, लेकिन पिता के पास फीस देने के लिए पैसे नहीं होते थे. पढ़ाई बीच में रोक दी गई और कहीं किसी दुकान पर छोटा-मोटा मुनीमी का काम उन्हें करना पड़ा. उनके एक अध्यापक ने यह देखा, तो उन्हें दुख हुआ. उन्होंने नंदन जी के पिता के पास जाकर कहा, “आपका लड़का इतना होशियार है पढ़ाई में. उसे पढ़ाइए, फीस के पैसे मैं दूँगा.”
तो फीस का इंतजाम तो हो गया, लेकिन किताबें…? किताबें खरीदने के पैसे तक उनके पास नहीं थे. किसी तरह किताबें जुटीं और उन्होंने पढ़ाई आगे जारी रखी. गाँव से जिस पुरानी साइकिल पर बैठकर वे शहर जाते थे, उसका पैडल ढीला था और बार-बार निकल जाता था. तब उसके तकुए बार-बार टाँगों में चुभ जाते थे. “मेरी दोनों पिंडलियों पर उस तकुए के चुभने के लाल-लाल निशान अब भी है,” कहकर नंदन जी पैंट के पाँयचे थोड़े ऊपर सरकाकर मुझे वे निशान दिखाने लगते हैं.
मैं हिल उठता हूँ और सचमुच नंदन जी की आँखों का सामना करने में मुझे दिक्कत महसूस होने लगती है.



हम लोगों ने नंदन जी को लगभग भुला ही दिया है ।अच्छा लगा कि ’समालोचन’ ने प्रकाश मनु के बहाने उन्हें याद किया ।बधाई
बहुत सुन्दर प्रस्तुति
मनु भाई, नंदन जी पर आपका संस्मरण पूरा पढ़ डाला। आप जब भी लिखते हो एक पूरा दौर आंखों से गुज़र जाता है। नंदन जी से मुझे इसलिए ज्यादा लगाव था कि उन्होंने पराग में मुझे लगातार छापा। उनके कई चिट्ठियां मेरे पास थें पर वह सारी निधि दिल्ली में ही नष्ट हो गई। यह अफसोस मुझे रहेगा। पराग से मेरी एक बाल कविता ” हुई छुट्टियां अब पहाड़ों पर जाएं,झरनों की कलकल के संग गुनगुनाएं, धरती को छाया दिए जो खड़ा है, चलो उस गगन से निगाहें मिलाएं ” को स्वीकृत करते हुए लिखा था – आजकल तुमपर गीतों की बहार आ गई है।।। फिर उन्होंने दरियागंज वाले आफिस में भी बुलाया था जहां संयोग वश मेरी मुलाकात स्व. योगराज थानी और स्व. सर्वेश्वर दयाल सक्सेना से हो गई थी। योगराज थानी खेल संपादक थे इसलिए उनसे तो नही सर्वेश्वर जी से मिलके बहुत ही खुशी हुई थी। पर सबकुछ वक़्त की धार में बह गया। मनु भाई, आपके उम्दा संस्मरण की बात कर रहा था, अपने पे आ गया।मेरा तो जो कुछ है वह कुल मिलाकर आपका ही है। बस,अब सिर में दर्द हो रहा है फिर नार्मल हुआ, संपर्क करूँगा। एक अलग काम भी शुरू करने को था फोकस ऑन चिल्ड्रन child issues पर पत्रिका है छोटी सी, पर अस्वस्थता के कारण आगे टाल दी एकदो महीने को। फिलहाल मैडिटेशन में लग गया हूँ। नंदन जी पर संस्मरण दोबारा पढूंगा मन नहीं भरा। सादर, रमेश
ग़ालिब छूटी शराब में रविन्द्र कालिया ने अपने संस्मरण में धर्मयुग के दमघोंटू माहौल और बतौर संपादक भारती जी के आतंक पर भी बहुत कुछ लिखा है। मसलन,अन्य पत्रिकाओ के स्टाफ धर्मयुग के दफ़्तर को कैंसर वार्ड कहा करते थे। उसी प्रसंग में एक बार भारती जी ने कालिया जी से कहा कि मैनेजमेंट नंदन जी के कार्य से खुश नहीं है। अगर एक प्रतिवेदन तैयार करो कि मातहतों से उनका व्यवहार अच्छा नहीं ,सबको षड़यंत्र के लिए उकसाते हैं एवं अयोग्य हैं, तो मैं इसे आगे बढ़ा सकता हूँ ।लेकिन कालिया जी इसके लिए तैयार नहीं हुए।उन्होंने लिखा है कि नंदन जी में और कोई ऐब भले ही रहा हो पर ये आरोप निराधार थे। मुझे लगता है कि नंदन जी अत्यंत गरीबी से आये थे और पत्रकारिता ही उनकी रोजी-रोटी थी इसलिए उनमें एक असुरक्षा की भावना थी। उनका तेवर कभी विद्रोही नहीं रहा।