बहरहाल नंदन जी के व्यक्ति और पत्रकार के समूचे ग्राफ को समेटता हुआ यह इंटरव्यू तीन-चार मुलाकातों के बाद पूरा हुआ. मैंने टाइप कराकर उनके पास पहुँचाया तो उसी शाम को उनका फोन आया, “इंटरव्यू बहुत अच्छा है प्रकाश. मुझे आश्चर्य है, तुमने सारी बातें जस की तस कैसे लिख दीं, यहाँ तक कि बातचीत का मेरा अंदाज भी उसमें आ गया है.”
हालाँकि एकाध जगह उन्होंने कलम भी चलाई और कुछ जवाबों की तुर्शी को थोड़ा कम किया. जब आज की पत्रकारिता के सनसनी भरे दौर और सस्तेपन की ओर मैंने उनका ध्यान खींचा तो उन्होंने बदले हुए समय और पाठकों की बदली हुई रुचियों का वास्ता देकर कहा था, “आज अगर गणेशशंकर विद्यार्थी होते तो वे भी बदल गए होते.” लेकिन आश्चर्य, इस वाक्य को बाद में उन्होंने हटा दिया.
फिर एक-दो सवालों के जवाब ऐसे थे कि हमें लगा नंदन जी ने यहाँ ज्यादा ईमानदारी नहीं बरती और उनके साथ गहराई तक उतरने के बजाय, सिर्फ भाषिक चतुराई से उन्हें टाल देना चाहा. इनमें एक सवाल यह था कि ‘संडे मेल’ को हम महत्त्वपूर्ण अखबार क्यों मानें, वह तो बारह मसाले की चाट है? और नंदन जी का जवाब था कि यही तो उसकी खूबी है.
फिर एक सवाल यह था कि एक पत्रकार के रूप में उन्हें सबसे ज्यादा संतुष्टि किस पत्रिका में काम करते हुए मिली? यह सवाल पूछने के लिए मानव जी ने विशेष रूप से मुझसे आग्रह किया था. इसके जवाब में मैं और मानव दोनों ही अपेक्षा कर रहे थे कि नंदन जी ‘सारिका’ का नाम लेंगे, क्योंकि एक पत्रकार के रूप में वह उनकी सर्वोच्च उपलब्धि थी. लेकिन हमें हैरानी हुई कि उन्होंने ‘सारिका’ नहीं, ‘संडे मेल’ का नाम लिया. इसकी वजह शायद यह थी कि, वे उस समय ‘संडे मेल’ में काम कर रहे थे और ‘सारिका’ तो कब की छूट चुकी थी. मगर क्या ‘सारिका’ ‘संडे मेल’ से कमतर थी? भला कौन इस पर यकीन करेगा.
अलबत्ता बरसों पहले हुए उस इंटरव्यू के प्रसंग को इतना लंबा खींचने के पीछे मेरा आशय सिर्फ यह बताना ही था कि नंदन जी जिस चीज को जीते हैं, उसे पूरी जिंदादिली, खूबसूरती और तन्मयता से जीते हैं, लिहाजा वह चीज यादगार बन जाती है. अगर उन्होंने सवालों के कामचलाऊ या औपचारिक जवाब दिए होते या कुछ सवालों के जवाब देने के बाद घड़ी देखनी शुरू कर दी होती, तो न तो वह इंटरव्यू ऐसा होता कि उसका इतना लंबा जिक्र छिड़ता और न मैं नंदन जी के इतने निकट ही आ पाता.
हम लोगों ने नंदन जी को लगभग भुला ही दिया है ।अच्छा लगा कि ’समालोचन’ ने प्रकाश मनु के बहाने उन्हें याद किया ।बधाई
बहुत सुन्दर प्रस्तुति
मनु भाई, नंदन जी पर आपका संस्मरण पूरा पढ़ डाला। आप जब भी लिखते हो एक पूरा दौर आंखों से गुज़र जाता है। नंदन जी से मुझे इसलिए ज्यादा लगाव था कि उन्होंने पराग में मुझे लगातार छापा। उनके कई चिट्ठियां मेरे पास थें पर वह सारी निधि दिल्ली में ही नष्ट हो गई। यह अफसोस मुझे रहेगा। पराग से मेरी एक बाल कविता ” हुई छुट्टियां अब पहाड़ों पर जाएं,झरनों की कलकल के संग गुनगुनाएं, धरती को छाया दिए जो खड़ा है, चलो उस गगन से निगाहें मिलाएं ” को स्वीकृत करते हुए लिखा था – आजकल तुमपर गीतों की बहार आ गई है।।। फिर उन्होंने दरियागंज वाले आफिस में भी बुलाया था जहां संयोग वश मेरी मुलाकात स्व. योगराज थानी और स्व. सर्वेश्वर दयाल सक्सेना से हो गई थी। योगराज थानी खेल संपादक थे इसलिए उनसे तो नही सर्वेश्वर जी से मिलके बहुत ही खुशी हुई थी। पर सबकुछ वक़्त की धार में बह गया। मनु भाई, आपके उम्दा संस्मरण की बात कर रहा था, अपने पे आ गया।मेरा तो जो कुछ है वह कुल मिलाकर आपका ही है। बस,अब सिर में दर्द हो रहा है फिर नार्मल हुआ, संपर्क करूँगा। एक अलग काम भी शुरू करने को था फोकस ऑन चिल्ड्रन child issues पर पत्रिका है छोटी सी, पर अस्वस्थता के कारण आगे टाल दी एकदो महीने को। फिलहाल मैडिटेशन में लग गया हूँ। नंदन जी पर संस्मरण दोबारा पढूंगा मन नहीं भरा। सादर, रमेश
ग़ालिब छूटी शराब में रविन्द्र कालिया ने अपने संस्मरण में धर्मयुग के दमघोंटू माहौल और बतौर संपादक भारती जी के आतंक पर भी बहुत कुछ लिखा है। मसलन,अन्य पत्रिकाओ के स्टाफ धर्मयुग के दफ़्तर को कैंसर वार्ड कहा करते थे। उसी प्रसंग में एक बार भारती जी ने कालिया जी से कहा कि मैनेजमेंट नंदन जी के कार्य से खुश नहीं है। अगर एक प्रतिवेदन तैयार करो कि मातहतों से उनका व्यवहार अच्छा नहीं ,सबको षड़यंत्र के लिए उकसाते हैं एवं अयोग्य हैं, तो मैं इसे आगे बढ़ा सकता हूँ ।लेकिन कालिया जी इसके लिए तैयार नहीं हुए।उन्होंने लिखा है कि नंदन जी में और कोई ऐब भले ही रहा हो पर ये आरोप निराधार थे। मुझे लगता है कि नंदन जी अत्यंत गरीबी से आये थे और पत्रकारिता ही उनकी रोजी-रोटी थी इसलिए उनमें एक असुरक्षा की भावना थी। उनका तेवर कभी विद्रोही नहीं रहा।