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Home » खोई चीज़ों का शोक: राजाराम भादू

खोई चीज़ों का शोक: राजाराम भादू

‘खोई चीज़ों का शोक’ (2021) सविता सिंह का चौथा कविता-संग्रह है. 2001 में उनका पहला संग्रह ‘अपने जैसा जीवन’ प्रकाशित हुआ था. इन बीस वर्षों में उनकी कविता के साथ-साथ हिंदी कविता भी बदली है, आगे बढ़ी है. यह महत्वपूर्ण संग्रह है. इस संग्रह की चर्चा कर रहें हैं आलोचक राजाराम भादू.

by arun dev
May 11, 2022
in समीक्षा
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खोई चीज़ों का शोक: राजाराम भादू
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कि जाता हुआ वह आता-सा दिखे !

राजाराम भादू

गौतमी की कहानी तो सबने सुनी-पढ़ी है. बुद्ध के कहने पर जब वह भिक्षा मांगने गयी तो शोक की व्यापक व्याप्ति और मृत्यु की अनिवार्य परिघटना से उसका साक्षात्कार हुआ. उसने लौटकर बुद्ध से जो कहा वह तो ठीक है. लेकिन मैं सोचता हूँ कि मृत्यु-बोध के बाद उसने जीवन को कैसे देखा होगा ? क्या उसे समाज में फैले शोक के साथ किसी साझेपन का अनुभव हुआ होगा ? और वह सब जिसकी प्रतीति उसे बुद्ध कराना चाहते थे ? ऐसे और भी सवाल हो सकते हैं. सविता सिंह के चौथे कविता संकलन- खोई चीजों का शोक- हमें इस तरह के अनेक सवालों से सीधे रूबरू कराता है.

मृत्यु बड़ी विदारक परिघटना है. यह अहसास भी कि मृत्यु के अंधेरे में जीवन की लौ और तेज दिपदिपाती है. संकलन की कविताएँ जीवन की इसी लौ से उजासित हैं. इनमें अवसाद, दैन्य अथवा पलायन नहीं, बल्कि उदासी, विषाद और वीरानियों में जीवन- दर्शन की तलाश है.

सविता सिंह स्त्रीवाद की प्रखर विचारक हैं. स्त्रीवाद की परिधि बहुत व्यापक है जो जीवन के तमाम पहलुओं को अपने दायरे में शामिल करती हैं. साहित्य में स्त्री-विमर्श के रूप में इसकी प्रचलित छवि प्रायः आक्रामक, आक्रोश भरी और उच्च स्वर में अभिव्यक्ति वाली रचनाशीलता की रही है. अधिकतर स्त्री रचनाकार अक्सर अपने अनुभव व विचारों को ही अपनी रचना-विधाओं में अनूदित करने की कोशिश करती रही हैं. वस्तुतः इससे न तो विचार का कुछ भला होता है और न ही रचना ही प्रभावी हो पाती है. सविता सिंह इसे भली- भांति समझती हैं. उन्होंने स्त्रीवाद को वैश्विक और पश्चिम एशिया के विशेष परिप्रेक्ष्य में समझा है. उन्होंने पाया है कि यहां धर्म और जाति पितृसत्ता के महत्वपूर्ण कारक है. यहाँ स्त्री का अस्तित्व स्थितियों के निम्नतम स्तर की तरलता के अनुरूप आकार लेता है. इसी के हिसाब से उन्होंने अपनी बौद्धिक संलग्नता को निर्णीत किया है.

स्त्रीवादी हस्तक्षेप मूलतः दो स्तरों पर सक्रिय रहते हैं. एक ओर वे समूहों में व्यापक कार्यवाहियों के लिए लामबंद होते हैं. जाहिर है कि वहाँ इनका जोर सामाजिक-आर्थिक व राजनीतिक अघिरचना में स्त्रियों के मात्रात्मक प्रतिनिधित्व और सहभागिता पर होता है. इसके समानांतर स्त्री-मुद्दों पर सैद्धांतिकी विकसित करते हुए सांस्कृतिक क्षेत्र में हस्तक्षेप करना होता है. इसमें गुणात्मक स्तर पर सूक्ष्म कार्यवाहियां करनी होती हैं. सविता सिंह ने अपनी हस्तक्षेप के लिए यही दूसरा क्षेत्र चुना है जिसमें वे दो दशक से अधिक समय से सक्रिय हैं. उनका पहला कविता संकलन- अपने जैसा जीवन- 2001 में आया था. उसके बाद नींद थी और रात थी व स्वप्न समय संकलन क्रमशः 2005 और 2013 में प्रकाशित हुए.

पूर्व उल्लिखित चौथा संकलन पिछले वर्ष आया है. इन दो दशकों में उन्होंने हिन्दी के स्त्री साहित्य का विचारोत्तेजक प्रत्याख्यान शुरू किया है. साथ ही जेंड़र अध्ययनों में उनकी अकादमिक सक्रियता बरकरार है.

सविता सिंह ने कविता की विशिष्ट प्रकृति एवं उसकी विधागत स्वायत्तता को सदैव अहमियत दी है. उन्होंने महसूस किया कि हिन्दी की समकालीन काव्य- भाषा स्त्री की सम्पूर्ण अभिव्यक्ति के लिए पर्याप्त नहीं है. स्त्री-अभिव्यक्ति के लिए एक उपयुक्त भाषा और शैली का संधान उनकी रचना- प्रक्रिया का सतत कार्यभार रहा है. स्त्री-स्वातंत्र्य और उसकी स्वायत्त इयत्ता उनकी अन्तर्वस्तु के केन्द्र में है. वे चेतना ही नहीं स्त्री की आत्मा को भी अहमियत देती हैं. यह उनकी कविताओं में सतत विकासमान रूप में लक्षित किया जा सकता है.

स्त्री का आभ्यन्तर उसकी कामनाओं, स्वप्नों और अस्तिबोध से निर्मित होता है. उसमें चुप्पियां, भ्रंश और बहिष्करण हैं. इन्हें समूह के इतर एक व्यक्ति-स्त्री में देखना जरूरी है. उसकी स्वतंत्र इयत्ता और अस्मिता के बिना उसकी मुक्ति के प्रश्न नहीं सुलझाये जा सकते. इसलिए उनकी कविता में खुद को पाने की उत्कंठा है. स्त्री यहां पुरुष का विलोम नहीं, एक आत्म-परिभाषित प्रत्यय है. इसीलिए यहां बराबरी से स्वतंत्रता ज्यादा महत्वपूर्ण है. उसके लिए आभ्यन्तर का विस्तार और पंख चाहिए. ये सब चीजें एक नये सौंदर्यशास्त्रीय फ्रेमवर्क की मांग करती है जिसे सविता ने लगातार विकसित और समृद्ध किया है.

सविता सिंह ने कहने की अहमियत को ही प्रस्थापित नहीं किया बल्कि कहने के तरीके को लेकर भी जद्दोजहद की है-

सारी मुश्किलें तो कहने में ही हैं
सारी तकलीफ नहीं कह पाने में

वह एक भाषा है जिसमें मैं चली आई हूं चलती हुई

स्पष्ट है कि वे इस भाषा में अनायास नहीं, चलती हुई आयी है. उन्होंने अपनी कविता की शब्दावली, मुहावरे और विन्यास रचने के लिए आत्मसंघर्ष और दीर्घकालिक उत्खनन किया है. भाषा को लेकर सविता सिंह मानती हैं-

तुम चलती हो भीतर मेरे एक दीर्घ श्वास-सी

अकेले तुम ही हो यूं बाहर-भीतर मेरे
जैसे कोई देह प्रेम में किसी के

जाहिर है कि ऐसी भाषा अर्जित करना आसान नहीं था-

जो सुनी जाये ठीक से वैसे
जैसे वह कही गयी है

अंतत: कविताओं के घने वन में वे अनुभव करती हैं कि-

जैसे वे भी मिली हुई मुझमें
मेरी देह और रंग की हिस्सेदार
आलाप की तरह
स्मृति में बचे अभिसार की तरह

उन्होंने स्त्री की कुहरिल अनुभूति, उसके अवचेतन की निस्सीम दुनिया और सृजनेच्छा को व्यक्त करने के लिए सर्वथा नये प्रतीक, रूपक और बिम्ब प्रयुक्त किये हैं.

आज की रात
तारा एक बिंब है.

उनके रात, नींद और स्वप्नों में रुदन, विषाद और आनंद जगह पाते हैं. रंग और ध्वनियों के वहाँ सर्वथा नये आशय और अभिप्राय हैं. इस कास्मिक विराटता में करुणा, जिजीविषा और सौंदर्य- चेतना की अपनी भूमिका है.

स्त्रीवाद में प्रेम और विवाह समस्यामूलक प्रश्न हैं. अभी उन पर अधिक बात करने के लिए उपयुक्त समय नहीं है. इसका उल्लेख इसलिए जरूरी लगा कि शोक के नेपथ्य में प्रेम ही है. वैसे तो प्रेम एक केन्द्रीय भावोद्रक है. करुणा, दया, ममता, सहानुभूति- यहाँ तक की आक्रोश और क्रोध – इन सबके अन्त: स्थल में प्रेम विद्यमान हो तभी इन्हें सात्विक रूप मिलता है. प्रेम ही जीवन में राग तत्व का संचार करता है. इन कविताओं में मर्मर ध्वनि की तरह प्रवाहित शोक एक प्रिय के चले जाने का है. मृत्यु उसके विपर्यय की तरह उपस्थित है जिसका कोई गणित नहीं, इसलिए कविताओं में दर्शन आता है. जैसा कि कहा गया, कविताओं में दर्शन भी कुछ और तरह आता है. अपने प्रिय के विछोह को सहना सहज नहीं –

ऐ मृत्यु
मैं रहूंगी तुम्हें सहने के लिए

और-

मैं भर जाऊंगी खुद से

कविताएं ऐसे भावलोक की सृष्टि करती हैं जहां दुख खुद ही दीन-हीन हो जाते हैं. जहां प्रिय अपना ही इंतजार करता है. और यह प्रतीति कि, उसी की तरह मृत्यु मेरे भी साथ थी. मृत्यु की एक अनुभूति यह है- एक छाया अपनी ही छाया छोड़ जाती हुई. यह छूटी हुई छाया स्मृतियों से आच्छादित है-

ऊर्जा की तरह बाकी स्मृतियाँ हैं. चूंकि सब छायाभासों में अंतरित हो चुका है तो इसकी भावात्मक परिणति होती है-

वह स्पर्श भी महसूस नहीं होता
जो त्वचा से अधिक यादों में बचा रहा था

ऐसे में अस्ति और  नास्ति  के  बीच स्वाभाविक प्रश्न उठता है –

और वह रेत होता गया
अंधकार का मरु

तब सविता एक बुनियादी सवाल उठाती हैं- कौन किसे निर्मित करता है ? अस्ति- बोध एक वायवी दुनिया से टकराता मनोलोक की कई भावदशाओं से टकराता है. इस तत्व- मीमांसा के काव्यात्मक प्रतिफलन में भी वह दैन्य और सहानुभूति को स्वीकार नहीं करता- सहानुभूति से आपका बाहर-भीतर बदल जाता है.

लेकिन संतप्त आत्मा की उसे जरूर चिन्ता होती है. जैसा कि हमने कहा सविता की स्त्री आत्महीन नहीं है, उसका व्यक्तित्व चेतना और आत्मा दोनों के संयोग और उनकी स्वाधीनता से बनता है. ऐसे में उनका यह सवाल मायने रखता है कि क्या देह की तरह आत्मा के डाक्टर भी नहीं होने चाहिए ?

निर्मल वर्मा ने एक जगह कहा है कि हम अपने पूर्वजों और गुजरे हुए परिजनों के बीच रहते हैं. उन्हें अपने पर्व-त्यौहारों पारिवारिक आयोजनों में आमंत्रित- सम्मिलित करते हैं. इस संकलन की अनेक कविताओं में ऐसी छाया प्रतीतियां हैं, प्रेत-छाया नहीं, वे छवियां अपर्णा कौर की पेन्टिगों में दिखती स्वैर कल्पनाओं की याद दिलाती हैं. देखे-

एक छाया अपनी ही छाया छोड़ जाती हुई

ऊर्जा की तरह बाकी स्मृतियाँ हैं
उनका कुछ नहीं बिगड़ा

एक पत्ता डाल से लगा हुआ था किसी तरह
पतझड़ में आज वह भी गया

एक पत्ता जो चला गया था पतझड़ में
उड़ता हुआ आया है इधर स्मृति- सा

वह शून्य जिसमें विलीन होते हैं प्रिय

मृत्यु क्या सचमुच तुम कोई नींद हो
और यह जीवन एक स्वप्न

संदर्भ के साथ चीजों के रूप बदल जाते हैं-

अभी कितनी ही और चीजें मिलेंगी
जो दरअसल वे नहीं होंगी

और कई बार इतनी ब्लर हो जाती हैं –

जैसे नहीं-सा

इन कविताओं में शोक आत्मानुभूति और चिंतन का एक ठोस अनुष्ठान है-

भीतर के खर-पात देखूंगी

यहां रात से भी काली छाया से साक्षात्कार है जिसके बाद

खुद का खुद पर असर पता चलता है.

जिसके लिए सोचा था कि- क्या करूं कि जाता हुआ वह आता-सा दिखे ? वह अपने-भीतर ही बैठा मिला.

आगे की कविताओं में हम यह अहसास पाते है –

चीजें मिली रहती हैं- कुछ इस तरह
जीवन में मृत्यु ज्यों

और यह कि –

प्रेम में मरना सबसे अच्छी मृत्यु है.

हिन्दी में शोक कविताएँ ( ऐलेजी ) की कोई परंपरा नहीं दिखती- बस ले- देकर एक सरोज-स्मृति ही हमारे पास है. व्यक्तियों पर तो कविताएँ हैं, जैसे शमशेर ने मोहन राकेश और राजकमल चौधरी पर तथा अशोक वाजपेयी ने कुमार गंधर्व और अपने दूसरे मित्रों पर लिखी हैं. संकलन की शीर्षक कविता- खोई चीजों का शोक- अपने में कई पहलुओं से अभूतपूर्व है. पंकज सिंह की कविताएँ जिन्होंने पढ़ी हैं, वे इसे पढ़कर चकित हुए बिना नहीं रहेंगे- वही शैली, विन्यास, भाव-प्रवणता, संवेदन और सोच. सहसा यकीन नहीं होता कि कविता स‌विता सिंह ने लिखी है. लेकिन यकीन न करने की तो कोई वजह कहीं नहीं है. पंकज इस दुनिया से जा चुके हैं. कवि तृतीय पुरुष में जाकर खुद पर कविताएँ लिखते रहे हैं, उर्दू में इब्ने इंशा और हिन्दी में त्रिलोचन की ऐसी कुछ कविताएँ हैं. लेकिन एक कवि दूसरे की ओर से स्वयं को संबोधित ऐसे लिखे- यह शोक के लिए एक उदात्त सांत्वना गीत है. यह रचना की उस पारंपरिक प्रक्रिया से भी आगे का मामला है जिसे हम परकाया प्रवेश कहते रहे हैं. अपने प्रिय को जैसे-जैसे हम जानने-बूझने लगते हैं, चीजों, स्थितियों और घटनाओं पर उसकी प्रत्याशित प्रतिक्रियाओं का अनुमान हमें होने लगता है. किन्तु इस कविता के लिए इतना भर काफी नहीं है. वह संभवतः ऐसा है जिसे तादात्म्य जैसा कुछ कहा जाता है.

इसी कविता में मृत्यु का दूसरी स्त्री की तरह का रूपक है जो उन दोनों के साथ रहती है. मृत्यु को जीवन की सहचरी कहा भी गया है जो छाया की तरह आपके साथ लगी रहती है. दूसरी स्त्री की भूमिका को भी हम जानते हैं. तुम्हारी चिर परिचित प्रेमिका- मृत्यु… वह आपके प्रिय को लगातार आपसे दूर करने के लिए प्रयत्नशील होती है, उस पर अधिकार जताती है और कई बार उसके आपसे संबंध विच्छेद कराने में कामयाब भी हो जाती है. लेकिन मृत्यु दूसरी स्त्री से थोड़ी अलग है. वह आपके प्रिय को तो आपकी पहुँच से परे ले जाती है लेकिन आपका प्रिय से संबंध बना रहता है. बस उसका रंग बदल जाता है. सविता के लिए वह हरे की जगह नीला हो जाता है – कहें तो जीवंत की जगह अनंत. वे स्वयं से प्रश्न करती हैं- आखिर क्या जोड़े रखता है चले गये मनुष्य को ? सविता की गगन गिल पर लिखी कविता से शोक के इस साझे को बेहतर समझा जा सकता है.

जिसने वियोग को जाना
वह प्रेम भी जानेगी

प्रेम अपनी प्रकृति में ही द्वंद्वात्मक है, यहाँ द्वंद्वात्मकता के नाम से ही विदकने वाले लोगों से कहना है कि सभी संबंध वास्तव में द्वंद्वात्मक होते हैं. प्रेम में आप प्रिय पर पजेसिव भी होना चाहते हैं और उसकी स्वतंत्र इयत्ता का भी सम्मान करते हैं.

जहां प्रेम का मतलब
वासना का अनुकूलन नहीं
विस्तार है.

बहुत सारे लोग जो अपने बच्चों के प्रति ममता का दावा करते हैं, वे प्रायः उन्हें अपने प्रतिरूप बनाना चाहते हैं. वे अक्सर उन्हें अपने बेटे-बेटी के रूप में पहचानते हैं, जबकि उनके स्वतंत्र व्यक्तित्व को नकारते हैं. जैसा कि सविता व्यंग्य से कहती हैं-

तुम्हारे बच्चे तुम्हारी संपत्ति हैं
तुम उन्हें किसी और तरह से जानते भी नहीं
पत्नियों के स्वामी तो अनंतकाल से रहे हो तुम

इस द्वन्दात्मकता को जानने-समझने के लिए सविता सिंह की उनकी बेटियों पर लिखी कविताएँ पढें. एक बेटी मेघा रात को देर से घर लौटती है, घर आकर भी संगीत सुनती रहती है, काम में लगी रहती है. वह ढलती रात को सोती है और दिन चढ़े जागती है. कवि सविता उसकी इस उलट दैनिक चर्या को बाहरी समाज के पितृसत्तात्मक परिवेश के प्रतिकार के रूप में देखती है. हालांकि युवा पुत्री के प्रतिकार की इस प्रकृति के लिए वह चिंतित भी है. दूसरी बेटी दिव्या एक असंगत कला कृति को देखकर विचलित हो उठती है. हालांकि कृति में यथार्थ का विद्रूप ही उजागर हुआ है, लेकिन इससे उसकी किशोर संवेदना को आघात लगता है. कवि सविता को भी इससे दुख पहुंचता है किन्तु वह मानती हैं कि दिव्या को इस सबसे गुजरना ही होगा. उनके पिता भी इस द्वंद्व से दो- चार होते रहते थे कि बेटियों का व्यक्तित्व कैसे उनके सुरक्षित रहते हुए निड़र और ओजबान बने, ऐसे संदर्भ कविताओं में हैं. बाहर के भी अपने अन्तर्विरोध हैं. वहाँ हमारे मित्र- वर्ग हैं तो शत्रु भी, और दुर्भाग्य से पिछले दिनों में शत्रु और नृशंस व शक्तिशाली होते गये हैं.

क्या इतने वैयक्तिक पारिवारिक संदर्भ कविताओं में उचित हैं- यह सवाल स्वाभाविक है. देखना यह है कि क्या कवि अलगाव में है ? सविता अपनी निजता का निरंतर अतिक्रमण करती हैं. वे अपनी पारिवारिकता को समाज की सापेक्षता में प्रस्तुत करती हैं. उनकी व्यक्तिपरकता उनकी अनुभूतियों और अभिव्यक्तियों को प्रामाणिकता प्रदान करती है. इसी के चलते उनकी कविता निर्वैक्तिक अर्थवत्ता और वृहत्तर यथार्थ से संपृक्ति अर्जित करती है. वैसे भी सृजन अंतत: आत्मपरक क्रिया है. मुक्तिबोध कहते हैं, यदि कवि अपनी आत्मपरक कविता में अपनी व्यथा प्रकट नहीं करेगा तो फिर काहे में करेगा.

प्रेम जहां कहीं  भी है भला लगता है- ममत्व का भी एक सामाजिक संदर्भ है. ऋषि याज्ञवल्क्य गार्गी से कहते हैं कि पत्नी, पति या पुत्र को सब लोग संबंधों के कारण नहीं, आत्मभाव या ममत्व भाव के कारण ही प्यार करते हैं. यह ममत्व या रागात्मकता ही महत्वपूर्ण है. जहां यह रागात्मकता समाप्त हो जाती है, सारे संबंध मरी काठ हो जाते हैं. मनुष्य ममत्व के दायरे में ही रह सकता है, परत्व के नहीं. ममत्व मंत्र है परत्व यंत्रणा. मेरा देश, मेरा घर, मेरे लोग-जहां तक यह मेरापन है, वहीं तक हम रागात्मक हैं. मेरे लोग जो किन्हीं कारणों से पिछड़ गये हैं या मेरे वे लोग जो इतिहास के कारणों से मुख्यधारा से कट गये हैं. इस ममत्व का अनुभव करना होगा. आत्मभाव जितना जीवित होगा, समाज उतना ही सबल और समर्थ होगा और संस्कृति उतनी ही सकारात्मक. सामाजिक रस-प्रवाह उतना ही निर्बाध होगा. इस वृहत सामाजिक- राजनीतिक और सांस्कृतिक संदर्भ से जुड़ी कविताएं संकलन में मौजूद हैं. मैं आती हूं तुम चलो कविता इसी दायित्व के प्रति जैसे एवं संकल्प-पत्र हैं.

उनकी एक कविता मछलियों की आंखें की ये पंक्तियां पढ़वाने का बड़ा मन है –

हो सकता है हमें यह जगह ही छोड़नी पड़े
खाली करनी पड़े अपनी देह
वासनाओं के व्यक्तिगत इतिहास से
जाना पड़े समुद्र तल में
खोजने मछलियों की वे आंखें
जो गुम हुईं हमीं में कहीं.

________________________________

खोई चीज़ों का शोक : सविता सिंह, 2021/राधाकृष्ण प्रकाशन, नयी दिल्ली

यह किताब यहाँ से प्राप्त करें.

राजाराम भादू
24 दिसम्बर, 1959 भरतपुर (राजस्थान). ‘समकालीन जनसंघर्ष’, ‘दिशाबोध’, ‘महानगर’ पत्र-पत्रिकाओं का संपादन. ‘कविता के सन्दर्भ’ (आलोचना); ‘स्वयं के विरुद्ध’ (गद्य-कविता), ‘सृजन-प्रसंग’ (निबन्ध), धर्मसत्ता और प्रतिरोध की संस्कृति आदि कृतियाँ प्रकाशित.
rajar.bhadu@gmail.com
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Comments 5

  1. M P Haridev says:
    3 years ago

    भविष्य में मैं जब ‘खोई हुई चीज़ का शोक’ कविता संग्रह ख़रीदूँगा तब राजाराम भादू की इस संग्रह पर की गयी आलोचना कविताओं को समझने में मदद करेगी । मैं पढ़ रहा था और मुझे लगातार पंकज सिंह याद आ रहे थे । सविता सिंह ने कविताओं के माध्यम से स्त्री-विमर्श पर खुलकर चर्चा की है । राजाराम जी ने निर्मल वर्मा को उद्धृत किया है । हमारे पुरखे हमारी रचनाओं में उतर आते हैं ।
    राग से ऊपर उठकर प्रेम सदा साथ रहता है । दक्षिण एशिया पितृ सत्तात्मक है । यहाँ स्त्री पीड़िता है । उसे स्वतंत्रता चाहिये । सच यह है कि स्वतंत्रता सबका परम अधिकार है । यदि स्वतंत्रता को अवरुद्ध कर दिया गया तो व्यक्ति की आत्मा नहीं बचेगी
    सविता जी ने दो बेटियों का बिंब लिखकर स्वतंत्रता और समानता का पक्ष चुना है । सविता सिंह, सुमन केशरी और एक अन्य व्यक्ति हिसार में आये थे । तब इन्हें सुना था । इन्होंने अपनी प्रस्तावना में कहा था कि वह मार्क्सवादी विचारधारा की समर्थक हैं । बाद में कुछ कविताओं को पढ़ा । सुमन केसरी ने अपनी कविताएँ पढ़ीं । उनका उच्चारण शास्त्र सम्मत था ।
    प्रोफ़ेसर अरुण देव जी आपने मुझे यह प्रस्तुति पढ़ने का मौक़ा दिया । प्रफुल्लित हूँ । राजाराम भादू को साधुवाद । गाहे-बगाहे कुछ और मित्रों को भी आप टैग कर देते हैं । इनमें से एक दया शंकर सरन और नेहल शाह फ़ेसबुक पर मेरे दोस्त बन गये हैं । नेहल शाह निरंतर लिखती हैं और दया शंकर सरन की टिप्पणियों से प्रभावित होता हूँ ।

    Reply
  2. कृष्ण कल्पित says:
    3 years ago

    महत्वपूर्ण कविता संग्रह पर महत्वपूर्ण समीक्षा । सविता सिंह, राजाराम भादू और समालोचन का आभार ।

    Reply
  3. अशोक अग्रवाल says:
    3 years ago

    सविता सिंह की पंकज स्मृति में लिखी यह कविता जितनी मार्मिक और गहन आंतरिक अनुभूतियों को समेटती हुई हमें भी उसका सहभागी बनाती है, उसी तरह यह रचनात्मक समीक्षा भी उसके भीतर गुंथी अनेकानेक ध्वनियों को सुनने में सहायता करती है।

    Reply
  4. रवि रंजन says:
    3 years ago

    वाल्मीकि रामायण के बारे में लिखते हुए ध्वन्यालोककार आनन्दवर्धन ने कहा था कि कवि के हृदय में पैदा हुआ शोक ही यहाँ श्लोक बन गया है: ‘श्लोक: श्लोकत्वमागत:’
    यह बात एक हद तक ‘खोई हुई चीज़ों का शोक’ की कविताओं पर भी लागू होती प्रतीत होती है।
    कविता संग्रह पढ़े बग़ैर भी बंधुवर राजाराम भादू की आलोचना पढ़कर विवेच्य संग्रह की कविताओं का मर्म महसूस होने लगता है।यह श्रेष्ठ आलोचना का लक्षण है।
    साधुवाद।

    Reply
  5. दया शंकर शरण says:
    3 years ago

    सविता सिंह के नये काव्य संग्रह पर राजाराम भादू की समीक्षा अच्छी लगी। हर अच्छी समीक्षा कवि की रचना प्रक्रिया से होते हुए कविताओ की मूल आत्मा तक पहुँचना चाहती है। प्रेम में मरना सबसे अच्छी मृत्यु है-कविता की यह मूल्यवान पंक्ति मृत्यु की सार्थकता को और जिंदगी में प्रेम की अहमियत को अंकित करती है। अपने प्रियतम के गहन विछोह से कविता में निजता का अतिक्रमण होना स्वाभाविक है।यहाँ समीक्षा भी इसे आत्म निर्वासन नहीं मानती। इस संग्रह के लिए सविता जी को बधाई एवं समीक्षा के लिए राजाराम जी को साधुवाद !

    Reply

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समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

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