ये दिल है कि चोर दरवाज़ा सामाजिकता की टकराहटों की कहानियाँ बलवन्त कौर |
‘ये दिल है कि चोर दरवाज़ा’ किंशुक गुप्ता का पहला कहानी संग्रह है. संग्रह की भूमिका में किंशुक लिखते हैं,
“प्रेम-एक अनोखा, अबूझा, अनचीन्हा अहसास जो हमारे मन को तरबतर तो करता है, लेकिन तर्क के जाल में कुलबुलाती मछली की तरह नहीं फँसता. प्रेम हमारे निस्पन्द जीवन में जान फूँकता है, हमारे वजूद को विस्तार देता है, दृष्टि को स्वहित से परहित की ओर केन्द्रित करता है.”
प्रेम को परिभाषित करने के बाद किंशुक इसके साथ जुड़ी कुछ रूढ़ छवियों और इन छवियों को गढ़ने वाली राजनीति को ओर संकेत करते हुए लिखते हैं-
“तब ऐसा क्यों है कि ‘प्रेम’ शब्द केवल एक स्टीरियोटाइप बनकर रह गया है?……क्यों एक ही चित्र हमारे मन में उभरता है- आलिंगन में बँधे नायक और नायिका का चित्र. एक ढर्रे का प्रेम जिसमें आदमी और औरत हैं, एक ही धर्म के, एक ही जाति के, एक ही उम्र के, एक-दूसरे में रिले-मिले, जैसे चाबी और ताला, जैसे जूता और गीली मिट्टी में उससे छपे निशान.….”
दरअसल इस भूमिका के माध्यम से किंशुक पितृसत्तात्मक समाजों की सामाजिक-सांस्कृतिक बुनावट तथा उसमें प्रेम और यौनिकता आदि के सन्दर्भों की पूरी संरचना को रेखांकित कर देते हैं. किंशुक की कहानियाँ इन्हीं संरचनाओं के बीच जीते और लड़ते व्यक्तियों की कहानियाँ हैं.
नारीवादियों ने भी ७०-८० के दशक में प्रेम और यौनिकता के निर्माण में सामाजिक-सांस्कृतिक बुनावट की भूमिका को रेखांकित किया था. लेकिन यह विडम्बना है कि हिन्दी साहित्य में जब भी किसी रचना के माध्यम से इन गढ़ंतों की चर्चा हुई उसे या तो सनसनीखेज बना कर प्रस्तुत किया गया या फिर उसे विकृत मानसिकता का उदाहरण मान लेखक पर आरोप-प्रत्यारोपों का जाल बुन रचना को ही खारिज़ कर दिया गया, विशेष रूप से समलैंगिक सम्बन्धों आदि पर लिखी रचनाओं को.
पाण्डेय बेचन शर्मा उग्र की रचना ‘चाकलेट’ पर हुई बहस और उसके हश्र को इस सन्दर्भ में विशेष रूप से याद किया जा सकता है. इसी तरह से आज से लगभग १०-१२ साल पहले जब मैं समलैंगिक सम्बन्धों वाली कहानियों के अनुवाद और संकलन पर काम कर रही थी तब मुख्यधारा की उन सभी पत्रिकाओं ने ऐसी कहानियों के प्रकाशन से इनकार कर दिया था जिन्होंने आज न सिर्फ़ किंशुक की कहानियों को छापा है बल्कि खुले मन से सराहा भी है और वाणी जैसे बड़े प्रकाशक ने तो इसे प्रकाशित भी किया है. यह सराहनीय है कि हिन्दी साहित्य का परिदृश्य इस बीच बदला है.
‘ये दिल है कि चोर दरवाज़ा’ संग्रह में कुल आठ कहानियाँ हैं. रूप और वस्तु के स्तर पर ये कहानियाँ एकरेखीय नहीं हैं. सभी कहानियों का रूप विधान ऐसा है कि यहाँ अक्सर मुख्य कथा प्रस्थान बिन्दु की तरह होती है. उसके बाद वाचक की दृष्टि कैमरे की तरह कई अन्य बिन्दुओं पर फ़ोकस करती चलती है जैसे ‘बीमार शामों को जुगनुओं की तलाश’ में पिता की बीमारी और आर्थिक तंगी के बीच पुरुषों के देह शोषण तथा लेखक और प्रकाशक की दुनिया नज़र आती है. तो ‘बोलो जय, बोलो जय प्रभुदेव की’ कहानी में पति-पत्नी के टूटते सम्बन्ध की मुख्य कथा के साथ धर्म-गुरुओं का आश्रम और वहाँ की राजनीति मुख्य कथा के समानान्तर चलने लगती है. दरअसल संग्रह की प्रत्येक कहानी में मुख्य कथा के समानान्तर कई अन्य उपकथाएँ चलती रहती हैं. जो देखने पर अपने वस्तु विधान में स्वतंत्र होकर भी मुख्य कहानी की बुनावट में निहित सामाजिक, आर्थिक तथा सांस्कृतिक संरचना के कार्य-कारण सम्बन्धों तथा उनकी राजनीति को उभार देती है, जिसने न सिर्फ़ स्त्री-पुरुष के व्यवहार बल्कि उनकी यौनिकता को तय करने में भी अहम भूमिका निभाई है.
इस रूप में ये कहानियाँ परम्परागत सामाजिकता और नयी बन रही सामाजिकता के टकराहट की कहानियाँ हैं. ये कहानियाँ इसलिए भी महत्वपूर्ण हैं कि जो नया बन रहा है वह भी कैसे परम्परागत सामाजिक-सांस्कृतिक भूमिकाओं से मुक्त नहीं हो पाया है, उसको भी रेखांकित करने से परहेज़ नहीं करतीं.
इस सन्दर्भ में ‘मछली के काँटे’, ‘रहस्यों के खुरदुरे पठार’, तथा ‘सुशी गर्ल’ कहानियों को विशेष रूप से देखा जा सकता है. ये तीनों कहानियाँ समलैंगिक जीवन के द्वन्द्वों से जुड़ी कहानियाँ हैं जो अपने पात्रों की प्रेम, पीड़ा और विडम्बना को एक साथ अभिव्यक्त करती हैं.
‘मछली के काँटे’ कहानी का प्रारम्भ किसी भी सामान्य प्रेम कहानी की तरह बड़ी काव्यात्मक भाषा के साथ होता है लेकिन यहाँ दो विपरीत लिंगी नहीं बल्कि दो पुरुष प्रेम और देह के मिलन का एक नया अध्याय रच रहे हैं.
“बिस्तर पर लेटे, हम दोनों निस्तब्ध मौन को महसूसते, एक-दूसरे के बालों में अंगुलियाँ फिराते, तेज़ रफ़्तार से धड़कती घड़ी के दिल की टिक-टिक सुनते- जैसे नदी के तेज़ बहाव के बीच पड़े दो पत्थर. इच्छाएँ जैसे गर्म रेत के सूखे कण, हवा में गोल-गोल चक्कर लगाते, बवन्डर में घुलते, खोजते पानी की ठण्डी नीली सतह ….”
प्रेम में डूबे प्रेमियों की ऐसी काव्यात्मक अभिव्यक्ति लगभग सभी अच्छी प्रेम कहानियों में देखने को मिल जाती है. यह तो तय है कि समलैंगिकों के बीच हो या विषमलैंगिकों के बीच, प्रेम तो प्रेम ही होता है और उसकी अभिव्यक्ति में समानता भी होगी. यहीं यह सवाल भी खड़ा होता है कि अन्य प्रेम कहानियों से ये कहानियाँ किस तरह से भिन्न हैं. और अगर भिन्न नहीं हैं तो लेखक को इन्हें लिखने की ज़रूरत क्यों पड़ी? देह और मन के राग से जैसे-जैसे कहानी आगे बढ़ती जाती है , वैसे-वैसे ही इन कहानियों को लिखने का औचित्य भी स्वयं ही स्पष्ट होता जाता है. घटनाक्रम के विकास के साथ ही इस कहानी का ढाँचा मात्र प्रेम कहानियों वाला नहीं रह जाता बल्कि समलैंगिक सम्बन्धों के साथ जुड़े सामाजिक पूर्वाग्रह और उनकी राजनीति इस कहानी या इन कहानियों का मुख्य विषय बन जाती है. और यही वह बिन्दु है जिस पर किंशुक गुप्ता की कहानियाँ अपनी अलहदगी दर्ज करती हैं.
ऐसा समाज जहाँ स्त्री और पुरुष को ही जाति, धर्म के परे जाकर चुनाव करने की स्वतंत्रता न हो वहाँ दो समान लिंगी व्यक्तियों का एक-दूसरे को वरण करना सीधे-सीधे तय व्यवस्था को चुनौती देता है. इसलिए ऐसे सम्बन्ध किसी भी व्यवस्था-चाहे वह गाँव हो या शहर- में स्वीकार्य नहीं हो सकते.
सामान्यतः हाशिये के लोगों के बारे में हुए लेखन विशेष रूप से दलित और स्त्री लेखन में गाँव शोषण के प्रतीक रूप में दर्ज हुए हैं. और शहर को एक बड़ी सम्भावना का द्वार माना गया है लेकिन समलैंगिक सम्बन्धों की दुनिया में आधुनिकता के प्रतीक शहरों ने भी ‘मुखौटा’ पहन रखा है. अपने सम्बन्ध को लेकर डर और आशंकाएँ हर जगह मौजूद है. ‘मछली के काँटे’ कहानी का मुख्य पात्र अवधेश कहता है,
“ऐसी स्वच्छन्दता जो चाहकर भी हमारे हिस्से में नहीं. इतने बड़े शहर में जहाँ हमें कोई नहीं जानता, कोई नहीं पहचानता, वहाँ भी हम कितना डरकर रहते हैं. पहली तनख़्वाह मिली तो पर्दे ख़रीद कर लाए-मोटे, काले पर्दे कि रोशनी के सतरें भी आर-पार न होने पाएँ, आँखें अभ्यस्त हो सकती हैं अँधेरे के लिए, पर शरीर सच की मार कैसे सहन करेगा? कभी रविवार को हम दोनों घर पर होते हैं, तो बिना रौशनी के यह कमरा घर से ज़्यादा बिल लगता है- हम दो चपल चूहों के छिपने की खोह कभी लगती सेल्यूलर जेल की दस जमा छह की कोठरी, जिसमें हम न जाने कौन से जुर्म की सज़ा काट रहे हैं.”
समलैंगिक सम्बन्ध अपनी प्रकृति में सामाजिक व्यवस्था के लिए एक बड़ी चुनौती तो हैं लेकिन अपनी नियति में अन्ततः उसी व्यवस्था का ही हिस्सा बन जाते के लिए विवश होते हैं. ‘मछली के काँटे ‘कहानी में घरेलू कार्यों के बँटवारे से शुरू हुई यह प्रक्रिया अवधेश और सुशांत के पूरे व्यवहार में देखी जा सकती है. अपनी अभिव्यक्ति में उग्र, कलाकार, कमाऊ, जुझारू, न्याय के लिए लड़ने वाले सुशांत का पूरा आचरण अन्ततः मर्दवादी दायरे में क़ैद ही नज़र आता है जबकि इसके ठीक विपरीत अपनी अभिव्यक्ति में थोड़ा दब्बू, व्यावहारिक, खाना बनाने से लेकर घर के अन्य सारे कार्य में लगभग निपुण अवधेश. जिस पर सुशांत की तरफ़ से कभी भी कायर या डरपोक होने का ताना जड़ा जा सकता है. दरअसल सम्बन्धों का परम्परागत ढाँचा इस क़दर हमारी मानसिक संरचना का हिस्सा बना हुआ है कि नयी बन रही सामाजिकता में भी वह मौजूद रहता है. नयी तरह की सामाजिकता की तलाश सम्बन्धों की नयी संरचना की तलाश नहीं बन पा रही है. इसीलिए अकेलेपन की यातना और सुशांत से मिल रही उपेक्षा के चलते अवधेश का सुशांत की तरफ़ आकर्षण सुशान्त के भीतर असुरक्षा का भाव भर देता है.
कहानी में सिर्फ़ परम्परागत लिंग आधारित ढाँचे के ही चिन्ह नहीं मिलते बल्कि वर्गीय भेद भी समलैंगिक संरचना की सामाजिक स्वीकार्यता में अहम भूमिका निभाते दिखाई देते हैं. जब अवधेश मोहनीश से कहता है,
“तुम कहाँ अकेले हो? माँ-बाप के साथ एक आलीशान बँगले में रहते हो, जिन्हें तुम्हारी सेक्सुअलिटी से कोई एतराज़ नहीं..”
तो इस पर मोहनीश का जवाब कि –
“माँ-बाप से अलग रहना कितना अच्छा है… वो चाहते हैं कि मेरा पार्टनर भी किसी रईस ख़ानदान से हो.”
समलैंगिक सम्बन्धों की स्वीकार्यता भी कहीं न कहीं आर्थिक और वर्गीय समीकरण और राजनीति को भी उभार देता है.
संग्रह की ज़्यादातर कहानियाँ प्रथम पुरुष शैली में रचित हैं. चाहे ‘मिसेज़ रायज़ादा की कोरोना डायरी’ हो ‘सुशी गर्ल’ या फिर ‘हमारे हिस्से के आधे-अधूरे चाँद’ कहनी हो. जो यातना में है, जो पीड़ित है उसकी दृष्टि ही इन कहानियों में प्रधान है.
‘मछली के काँटे‘ कहानी भी अवधेश की निगाह से लिखी गई है. अवधेश का बचपन चाचा के यौन-शोषण का शिकार रहा है. चाचा के शोषण से बचने के लिए वह घर से पैसा लेकर भागा है . चाचा का शोषण और चोरी का अपराध बोध बार-बार उसके सपनों में आ उसे भयभीत करता रहता है.
समलैंगिकता को नैसर्गिक प्रवृत्ति माननेवाले और विकृत मानसिकता या किसी ग्रन्थि से उत्पन्न विकृति नहीं मानने वाले इस कहानी या इस संग्रह की एकाध और कहानी के सन्दर्भ में यह आरोप लगा सकते हैं कि अवधेश का बचपन से हो रहे शोषण के कारण सुशान्त के प्रति झुकाव या ‘रहस्यों के खुरदुरे पहाड़’ की मुख्य पात्र गौरी का पिता से मिली उपेक्षा के चलते समलैंगिक जीवन के प्रति झुकाव दिखाया गया है लेकिन ध्यान से पढ़ने पर देखा जा सकता है कि इस कहानी में और न ही पूरे संग्रह में कहीं भी समलैंगिकता को किसी विकृति या उपेक्षित ग्रन्थि से जुड़ा नहीं बताया गया है. बल्कि जिस अर्थ में समाज स्त्री-पुरुष सम्बन्ध को सहज और प्राकृतिक मानता है उसी अर्थ में या उससे ज़्यादा दो समलैंगिकों के प्रेम को यहाँ प्राकृतिक माना गया है. क्योंकि स्त्री-पुरुष के प्रेम और यौनिकता में तो फिर भी कहीं न कहीं परिवार, सन्तान तथा सम्पत्ति एक आयाम है. लेकिन समलैंगिकता में तो ऐसा भी नहीं है. इस अर्थ में समलैंगिकता विषमलिंगी यौनिकता के प्राकृतिक होने के दावे पर ही सवालिया निशान लगा देती है. ‘रहस्यों के खुरदुरे पठार’, ’सुशी गर्ल’, ‘मिसेज़ रायज़ादा की कोरोना डायरी’ आदि कहानियाँ भी समलैंगिक जीवन के अलग-अलग पक्षों से जुड़ी हुई हैं.
इन सभी कहानियों में अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करते समलैंगिक जोड़े देखे जा सकते हैं. जो परिवार और समाज के बीच अपने सम्बन्ध को बचाए रखने के लिए कभी व्योम और श्रेय की तरह अपनी ही दोस्त के साथ छल-छद्म का सहारा लेते हैं, तो कभी-कभी परिवार और रक्त सम्बन्धों को छोड़ने में ही अपने अस्तित्व की सार्थकता पाते हैं. लेकिन सच तो यह है कि अपनी नयी दुनिया में भी वे सम्बन्धों के समीकरण और वर्चस्व की राजनीति से बच नहीं पाते. अपने ही फ़ैसले और चुनाव के होते हुए भी गौरी शालिनी अलग-अलग होकर जीते हैं. सारी कड़वाहट के बावजूद गौरी तो फिर भी परिवार के साथ जुड़ जाती है लेकिन सब के पास लौटने के लिए परिवार नहीं होता.
‘मिसेज़ रायज़ादा की कोरोना डायरी’ में मिसेज़ रायज़ादा को यदि छोड़ दिया जाए तो समलैंगिक सम्बन्धों को परिवार में यदि किसी से भी थोड़ी सहानुभूति मिली है तो केवल माँ से. माँ लगभग सभी कहानियों में एक संवेदनशील व्यक्ति की तरह उपस्थित है. समलैंगिक जीवन का चुनाव करने के कारण अकेली हो गई गौरी से उसकी माँ कहती है,
“बिलकुल मुश्किल नहीं है, मेरी बच्ची. तुम्हारे साथ सब हैं. हम हैं. भैया-भाभी. और तुम्हारी सबसे बड़ी ताक़त शालिनी तो एकदम तुम्हारे साथ है.”
संग्रह की कहानियों का रूप विधान ऐसा है कि ये कहानियाँ और इनके पात्र जीवन की विडम्बनाओं और यातना की लम्बी प्रक्रिया से गुज़रते के बाद किसी न किसी निर्णय या परिणाम पर ज़रूर पहुँचते है. निर्णय के सही या ग़लत होने पर बहस हो सकती है जैसे ‘हमारे हिस्से के आधे-अधूरे चाँद’ में परिवार का ल्यूकेमिया से ग्रस्त बच्चे के इलाज न करने का मौन निर्णय बहस का विषय हो सकता है, लेकिन द्वन्द्व या अनिर्णय की स्थिति में ये कहानियाँ समाप्त नहीं होतीं.
’मिसेज़ रायज़ादा की कोरोना डायरी’ में मिसेज़ रायज़ादा, ’बीमार शामों को जुगनुओं की तलाश’ का सोमिल या ‘फिर रहस्यों के खुरदुरे पठार’ की नायिका गौरी ही क्यों न हो , यातना की लम्बी प्रक्रिया से गुज़रने के बाद ये पात्र अन्ततः अपनी दृष्टि और दिशा पाते हैं. इस रूप में ये कहानियाँ नई लैंगिक अस्मिताओं की कहानियाँ हैं. जो मनःस्थिति तथा परिस्थिति के बहुत सारे अन्धेरों की निशानदेही करती हैं लेकिन अन्धेरों के साथ ख़त्म नहीं होतीं.
यह कहानी संग्रह यहाँ से प्राप्त करें.
बलवन्त कौर ‘देहरि भई विदेस’ (लेखिकाओं के आत्मकथांश), ‘काश में राष्ट्र-द्रोही होता’ ( राजेन्द्र यादव के विचार लेख), ‘स्त्री विमर्श: अगला दौर’ आदि का का सम्पादन tobalwant@gmail.com |
समीक्षा ने किताब पढ़ने की इच्छा जगा दी है। समलैंगिकता पर फिल्में तो कई देखीं और उनपर लिखा भी पर हिन्दी में अब तक नजर से खास नहीं गुजरा है।
समलैंगिक पात्रों के जीवन का हिन्दी साहित्य में दर्शाया जाना दुर्लभ है। इस किताब का प्रकाशित होना एक मील का पत्थर है।
Jane mane tippnikaron ki tippni abhi tak nhien aie. Un ka rddey aml kya hota hai,ye dekhney ki baat hai.
किंशुक गुप्ता के कथा संग्रह ‘ये दिल है कि चोर दरवाजा’ की समीक्षा ने कहानी के प्रति जिज्ञासा उत्पन्न की है। बलवंत कौर की समीक्षा इसी अर्थ में सार्थक हुई है। समीक्षक की चिंता वाजिब है इस तरह की ‘ऑफ बिट’ कहानियां और आलोचना पढ़ते ही हिंदी पट्टी के अधिकांश पाठक इसे एक सिरे से खारिज कर देते हैं। वास्तव में ऐसी कहानियों के बारे में सुनते ही ‘ऊँची नाक’ वाले पाठकों की नसें अनावश्यक रूप से तन जातीं हैं। एक से एक अच्छी रचनाएँ इन्हीं ‘तनी नसों’ की भेंट चढ़ गईं। चॉकलेट के अतिरिक्त राजकमल चौधरी का लेसबियन संबंधों पर आधारित बेहतरीन उपन्यास ‘मछली मरी हुई’ (संयोगवश किंशुक जी की कहानी का नाम भी ‘मछली के कांटे ‘हैं) और पंकज बिष्ट का उपन्यास ‘पंखों वाली नाव’ जैसी न जाने कितनी रचनाएं इसी वजह से उपेक्षित रह गईं। साहित्य में जब यह हाल है तो समाज में समलैंगिकता के प्रति (दुर) भावना की कल्पना की जा सकती है। विश्वविद्यालय जैसा प्रबुद्ध संस्थान भी समलैंगिकता के प्रति घोर दुराग्रहपूर्ण और हिंसक हो जाया करता है। इसे एक सच्ची घटना पर आधारित मनोज बाजपेयी अभिनीति फिल्म ‘अलीगढ़’ से समझा जा सकता है।
लेकिन अब वह समय आ गया है जब इस तरह की कहानियों की सार्थकता को पाठकों ने समझना शुरू कर दिया है। इसलिए किंशुक गुप्ता की कहानियां अच्छी-खासी पढ़ी जाएंगी, ऐसा विश्वास है। क्योंकि किंशुक में कहानी लेखन की गहरी अंतर्दृष्टि मालूम होती है। ये बातें उक्त समीक्षा के बिना पर ही कही जा रहीं हैं। इनकी कहानियों में समलैंगिकता सिर्फ एक विषय के रूप में नहीं, सिर्फ समस्या के रूप में ही नहीं बल्कि सामाजिक- सांस्कृतिक ताने- बाने और इन संबंधों में विन्यस्त महीन जटिलताओं के रूप में दर्ज हुई हैं। उससे भी आगे बढ़कर कहानियों में न तो समलैंगिकता को महिमामंडित किया गया है न ही उसका विरोध, बल्कि समलैंगिक संबंधों में आंतरिक सत्तासूत्रों की तलाश की गई है। शायद ही लोगों को पता हो कि इस तरह के संबंधों में भी पुरुष प्रधान व्यवहार करने वाले (पुरुष) स्त्री प्रधान व्यवहार करने वाले (पुरुष) पर रोब जमाता है। समलैंगिक संबंधों में वर्ग वर्चस्व आदि की ओर लेखक का संकेत कहानी का महत्वपूर्ण पक्ष है। समीक्षक बलवंत के शब्दों में “दरअसल सम्बन्धों का परम्परागत ढाँचा इस क़दर हमारी मानसिक संरचना का हिस्सा बना हुआ है कि नयी बन रही सामाजिकता में भी वह मौजूद रहता है। नयी तरह की सामाजिकता की तलाश सम्बन्धों की नयी संरचना की तलाश नहीं बन पा रही है।” कहानीकार किंशुक गुप्ता और समीक्षक बलवंत कौर को बहुत बहुत बधाई।
इतनी उम्दा समीक्षा पढ़कर पुस्तक पढ़ने की इच्छा बलवती होना स्वाभाविक है । बलवंत की समीक्ष्य दृष्टि ने किंशुक के कहानी संग्रह के मध्यनज़र समलैंगिकता को एक नए नज़रिए से देखने की बात रखी है । जो वास्तव में विचारणीय है ।
समलैंगिक विषय पर कम ही लिखा गया है। हम चाहे कितना भी आधुनिक होने का दंभ भर लें लेकिन इस विषय पर चाह कर भी कोई स्पष्ट राय नहीं रख सकते। बलवंत जी की समीक्षा ने इस विषय को समझने के लिए एक नया नजरिया दिया है और किशंकु जी की पुस्तक पढ़ने की लालसा बढ़ा दी।