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Home » अच्छा आदमी था: किंशुक गुप्ता

अच्छा आदमी था: किंशुक गुप्ता

किंशुक गुप्ता के कहानी-संग्रह- ‘ये दिल है कि चोर दरवाज़ा’ के विषय में लेखिका बलवन्त कौर का मानना है कि ‘ये कहानियाँ नई लैंगिक अस्मिताओं की कहानियाँ हैं. जो मनःस्थिति तथा परिस्थिति के बहुत सारे अन्धेरों की निशानदेही करती हैं लेकिन अन्धेरों के साथ ख़त्म नहीं होतीं.’ ‘अच्छा आदमी था’ किंशुक गुप्ता की बिल्कुल नयी कहानी है जो यहाँ प्रकाशित हो रही है. इसमें समानांतर कथाएँ साथ-साथ चलती हैं. समलैंगिक जीवन की चुनौतियों के बीच जीवन का अर्थ और उसकी व्यर्थता उभर कर सामने आई है. कुछ प्रसंग विचलित करते हैं, ख़ासकर ‘प्रेम’ की हिंसा के. इस कहानी को लिखने के लिए हुनर के साथ-साथ साहस भी चाहिए. यह कहानी आपके मन में देर तक बनी रहेगी ऐसा मेरा विश्वास है.

by arun dev
July 26, 2023
in कथा
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अच्छा आदमी था: किंशुक गुप्ता
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अच्छा आदमी था
किंशुक गुप्ता

कार्तिक के सपने के बुद्ध प्रोफ़ेसर के कमरे वाले झक्क सफेद मार्बल वाले बुद्ध नहीं थे. चितकबरे थे. उनका सफेद गठीला बदन- मोटे, काले, दानेदार चकत्तों से भरा हुआ था. आँखों में सौम्यता नहीं, शांति नहीं, ज्ञान की चमत्कारिक आभा नहीं, बल्कि विद्रूपता- काई के रंग का हरापन था. हरापन- काला गाढ़ा होता जा रहा था और सफेद खत्म. जब झटके से उसकी आंख खुली, माथे की बाईं तरफ भीषण दर्द था. आँखें नींद से भरी हुई थीं. रात में ओढ़ी हुई नीली पोल्का डॉटेड रजाई का एक सिरा उसके पैरों पर था, दूसरा ज़मीन पर गुड़ी-मुड़ी पड़ा था. चार्जिंग पर लगा उसका फ़ोन घनघनाया.

‘चाची’, स्क्रीन पर लिखा था.

आज अचानक कैसे याद आ गई, लेकिन क्यों? खीझ हुई. उसने फ़ोन उलटा कर रख दिया.

जब दूसरी बार फोन घनघनाया तब उसने चिड़चिड़ाकर ‘हैलो’ कहा.

कुछ देर जब कोई आवाज़ नहीं आई, तब उसने काटने के इरादे से एक बार सख़्ती और रूखेपन से ‘हैलो, कौन है’, कहा.

काटने लगा था तो चाची की रेशमी धागे से महीन आवाज़ आई, “बाबाजी…चले गए”

“हैं…लेकिन कहाँ?” आवाज़ में बेरुखी बरकरार थी. फिर वह अचानक अचकचा गया. पिछले हफ़्ते घर पर हुई बातों के अनेक कतरे उसके कानों में तितर-बितर होने लगे. बाबाजी का चित्र- उनका चीड़ की लकड़ी-सा बदन, पीली छेद वाली बनियान, चुसे हुए आम-सा पोपला मुँह, जीभ पर अटकी कोई माँ-बहन की गाली, हाथ में तेज़ धार का चाकू—उसकी आँखों के सामने तैर गया. पर खड़ा नहीं, लेटा हुआ. आँखें बंद. नथुने रुई के फाहों से ऐसे बंद जैसे सोडा की बोतल पर कोर्क. वह बिस्तर पर धम्म से बैठ गया.

“कार्तिक, कार्तिक, बच्चे ठीक तो हो?” चाची रुंधे गले से बहुत कठिनाई से बोल पा रही थीं.

“इतना अचानक, पापा ने तो परसों कहा था बस लो सोडियम ही है” कार्तिक ने उद्विग्नता से पूछा.

“कल रात को हार्ट अटैक हुआ. मैंने तो पूछा भी था कि मैं आ जाता हूं. तेरा पापा कहाँ किसी की चलने देता है.” चाचा रौ में बोलते जा रहे थे.

“वह परेशान नहीं करना चाहते होंगे. यहाँ मैं कितने मरीजों को देखता हूं कि दो अटैक के बाद भी ठीक हो जाते हैं. उन्हें क्या पता था कि इतनी जल्दी…”

खून के गाढ़ेपन ने उससे खुद-ब-खुद वह सब बुलवा दिया था.

“चल बेटा, अब मेरे भाग में ही नहीं था पापा को आखिरी बार देखना, हम तेरे हॉस्टल के बाहर दस मिनट में पहुंच जाएंगे, जल्दी तैयार हो जा.”

कार्तिक ने एक गहरी सांस ली. यादें उसके मुंह से निकलते धुंए की तरह सब कुछ धुंधला करती चली गईं. जब छोटा था तो बाबाजी बस स्टॉप पर लेने आते थे. जुलाई की गर्मी में, जब सूरज सिर पर होता, तब भी अपनी ऊन की टोपी पहने, सेब की फांक चाकू से काटकर खाते हुए. कोई भी उसे छेड़ता या छेड़ने की कोशिश करता तो उसे चाकू दिखाकर धमकाते- मेरे कार्ती को किसी ने कुछ कहा तो कान काट दूंगा.

माँ अक्सर बताया करतीं कि जब छोटा था तो पांच बजे से चिल्लाने लगता था बाबजी, मैं आ गया. बाबजी मैं आ गया. और बाबाजी उसे कंधे पर बिठाकर पार्क ले जाते और देर तक घुमाते. झूला झुलाते, उसके साथ छुपन-छुपाई, पकड़म-पकड़ाई खेलते. एक डंडा पकड़े, दातुन करते, अपने परिवार की एकमात्र संपत्ति शुगर की बीमारी को सदाबहार के पत्ते चबाकर कम करने की कोशिश करते.

उसे लगा कि आंसुओं का सोता आँखों से कभी भी फूट पड़ेगा. पर कुछ हुआ नहीं. दुख उसकी छाती के बीचोबीच टीस बना उसे सालता रहा.

अगले ही क्षण उसे सामान की बात याद आई. गोदरेज की अलमारी खोली. बदहवासी के आलम में जो कपड़ा हाथ में आया, बेतरतीबी से ठूंसता गया. बाहर गाड़ी का हॉर्न बजा तो उसके कानों ने सुनाया और पैर चलते गए. दिमाग कहीं और खोया हुआ था.

 

2.

चाचा की गाड़ी में पेट्रोल की चिर पुरानी गंध थी. सामने सफेद चोगे में गुरु महाराज की सोने के फ्रेम में जड़ी तस्वीर. ड्राइवर ने उसके घुसते ही ब्लोअर चला दिया. चाचा ड्राइवर के साथ आगे बैठे थे. मेहंदी से रंगे बालों में सफेद और नारंगी बालों की कतरनें थीं. हाथों में गुरु महाराज का लॉकेट, गुरु जी के कहे अनुसार.

पैरों में चमड़े की जगह रेक्सीन के जूते. उसके नमस्ते की उन्होंने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी. चौकोर फ्रेम का चश्मा पहने चाची ने हल्की गर्दन हिलाई.

थोड़ी दूर जब गाड़ी आई. एस. बी. टी. पहुंच गई तो चाचा ने तुनक कर कहा, “कम से कम शर्ट तो बदल लेते.”

“क्या…मुझसे कुछ कहा…” खिड़की से बाहर देखते कार्तिक ने बेतकलुफ्फी से पूछा. “क्या हुआ?”

“मरे पर लाल नहीं पहनते बेटाजी!” रियर व्यू मिरर में देखता टैक्सी ड्राइवर की नीली पोशाक पहने ड्राइवर दांत दिखाते हुए बोला.

“घर घुसने से पहले शर्ट बदल लेना.” चाचा ने हुक्म दिया.

कार्तिक कुछ बोला नहीं. बस दाँत पीसता हुआ दोबारा खिड़की के बाहर देखने लगा.

हैरान था कि क्या दु:ख ने उन्हें इतना भी आप्लावित नहीं किया कि वे उसकी कमीज़ का रंग देखना नहीं भूले. पर टीस के पंजों की पकड़ तो उसकी छाती पर भी कमज़ोर पड़ने लगी थी. वह बड़ा होता गया था और उसकी नई पनपती जरूरतों के आगे बाबाजी बोनसाई की तरह बौने होते चले गए थे. जिनसे औपचारिक हाल-चाल पूछना ही संभव था. या दादी के किस भाई ने उनसे कौन-से सन के कौन-से महीने की कौन-सी तारीख़ को रुपए उधार लिए पर पत्राचार के बावजूद लौटाए नहीं. या फिर कौन-से नंबर की बुआ की कौन-से नंबर की बेटी जिसके माथे पर तिल था और जो कट स्लीव ब्लाउज़ पहनती थी (मेरी ही बुद्धि पर पत्थर पड़ गए थे, तभी समझ जाना चाहिए था इसके घर का चाल-चलन) घर के दामाद की खातिर में कालीन की तरह नहीं बिछ गई थी.

बात केवल ज़रूरत के अ-ज़रूरत होने की होती या उम्र के रूखे हाथों की रीढ़ की हड्डियाँ धसकाने की, तो वे ज्यादा से ज्यादा लिलिपुट हो जाते, पर दिखाई तो देते रहते. लेकिन बात थी तीचोद मादरचोद जैसी उन तमाम गालियों की जो वह दादी को तब से बकते आए थे, तब वह उतना छोटा था कि कुत्ता कहने को जघन्य अपराध समझता था. बात थी उन चिट्ठियों की जो उसे पिता की अलमारी के पिछले कोने में रखी मिली थीं जिन पर कुल्टा, बदचलन, रण्डी, अफेयर, अफेयर, अफेयर इतनी आराम से लिखा था जैसे भाष सीखते बच्चे द्वारा बार-बार दोहराए व्यंजन (जिसे पिता ने उसके हाथ से ऐसे छीना था जैसे भभकते कोयले.) बात थी सेकंड ईयर की सर्दियों की छुट्टियों की जब बाहर बैठीं, धूप सेंकती दादी को उन्होंने हाथ दिखाकर धमकाया था और उसका जी किया था कि वह पास पड़ा गमला उस आदमी के सिर पर दे मारे.

“अच्छा ही हुआ…” चाची कुछ बोलने को हुईं. फिर अचानक चुप हो गईं.

“क्या अच्छा हुआ…हम तो तैयार थे…यहाँ लाकर इलाज करवाते…जितना पैसा लगता उतना लग जाता.” चाचा बीच में ही बोल पड़े.

“हर बात पैसों की नहीं होती विघ्नेश…मरीज़ के दर्द की भी होती है…उम्मीद टूटने की थकान की भी होती है…अपने पापा के बाद तो मैंने यही सीखा है कि वेंटिलेटर पर सांसों का कोई मतलब नहीं…”

“सबके पापा भी तो एक ही होते हैं.”

गाड़ी में एक बार फिर मौन पसर गया. कार्तिक नहीं जानता किस तरह बाबाजी को याद करें. जब पहली बार यह ख़बर सुनी थी तब दुख बिल्ली का पंजा था जिसमें वह फड़फड़ाते कबूतर की तरह जकड़ता चला गया था. बाबाजी में जो सड़ा-गला था, उसका लेशमात्र भी उसे याद नहीं आया था. पर अब जैसे-जैसे समय बीत रहा है, और वह बाबाजी के नज़दीक पहुंचता जा रहा है, उसे वे सब कहानियां याद आ रही हैं जिनमें बाबाजी एक खूंखार पिता या पति की भूमिका में थे. हालांकि वे उसे बहुत प्यार करते रहे थे, वह कैसे भूल जाए कि जिन्हें वह बेहद प्यार करता है, उनके जीवन पर ग्रहण थे. उसे दादी की याद आती है. उन्हें फोन करने को होता है. नंबर मिलाता है. फिर काट देता है. नहीं समझ पाता कैसे उनका सामना करेगा.

क्या कहेगा—बुरा हुआ कि वे चले गए. या अच्छा हुआ कि वे इतने अच्छे से चले गए. खुश है कि दादी के जीवन का ग्रहण अंततः खत्म हुआ या दुखी कि मौत में भी, जीवन की तरह, उन्हें कोई तकलीफ़ नहीं हुई.

“बस एक हवन ही तो करवाएंगे?” थोड़ी देर की चुप्पी के बाद कार्तिक चाची से मुखातिब हुआ.

“जैसा तुम्हारा पापा कहेगा…मैंने तो कहा था गुरु महाराज का एक हवन कराओ…बाकी ताम-झाम का क्या करना है?” चाचा ने तपाक से जवाब दिया.

“गुरु जी का हवन…” कार्तिक ने भौंहें सिकोड़ लीं पर कुछ कहा नहीं.

बारह बजने को हुए और उसने सुबह से कुछ नहीं खाया. रात में भी कहाँ उससे खाना निगला गया था. उसने दाल-चावल से भरा चम्मच मुंह में डालना चाहा था जब प्रोफ़ेसर की जांघों से आती पेशाब और वीर्य की मिली-जुली सीली गंध से उसका माथा ठनका था, और एक धसके में उसके मुंह से सब कुछ बाहर आ गया था. प्रोफ़ेसर के साथ…नहीं…कुछ हुआ ही नहीं

…गलती तो उसकी ही है कि वो वहाँ गया…एक बार को उसका चूमना तो उसे भी अच्छा लगा था…जो होना था हो चुका…अब सोचने से क्या फायदा…

उसने आँखें बंद कर लीं. उसे पूरा विश्वास है कि कोई और उसे समझे या नहीं, उसके पिता और दादी में संवेदना की गहन अनुभूति है. वे उसे समझेंगे, उसके प्यार को, उसकी धड़कन की धड़-धड़ को. उसका हाथ कसकर पकड़ेंगे और कहेंगे कि यह केवल उम्र का पड़ाव है, बीस के शुरुआती पड़ाव ऐसे ही चक्करदार होते हैं, और उसे लगेगा कि आम-सा जीवन जीना उसके लिए भी मुमकिन है.

प्रोफ़ेसर के कमरे से वह हांफता हुआ निकला था तो लिजलिजेपन से भर गया था. उसे लगा था जैसे वह इंसान न होकर, सिर्फ एक शरीर है, एक जवान शरीर, एक जवान गर्म शरीर. वह तो प्रोफ़ेसर से केवल बात करने गया था. अपने को, अपने आकर्षण को समझने के लिए. कैसे वह प्रेम के बिना इतना लंबा जीवन अकेला काटेगा. पर जब तक वह कुछ कह पाता, तब तक पास बैठे प्रोफ़ेसर ने उसे चूमना शुरू कर दिया. ऐसा नहीं था कि प्रोफ़ेसर के मुलायम होंठों के स्पर्श से उसका शरीर झंकृत नहीं हुआ था. उसे लगा मानो किसी ने फफूंद लगे वीणा के तारों को अपनी सिद्धहस्त अंगुलियों से छू दिया हो. एकदम शांत बैठे रहो, मैं करूंगा जो भी करूंगा. तुम बस मज़े लो. प्रोफ़ेसर ने उसके कान में कहा था. कानों में हुई झुरझुरी पूरे शरीर में फैलने लगी थी. एक चक्रवात उसके शरीर में धीरे-धीरे पनप रहा था.

भूख के कारण उसके पेट में फिर गुड़गुड़ होने लगी. चाचा को कहना चाहता था कि गाड़ी किसी दुकान पर रुकवा दें, ताकि वह खाने के लिए कुछ चुटर-पुटर ही खरीद ले, लेकिन मृत्यु के विशाल अवसाद के सामने चाहे उसकी शर्ट के रंग या भूख की क्षुब्धता का कतई कुछ महत्व नहीं था.

 

3.

घर में भी वैसा ही मौन. मौन जो औपचारिक था, जिसमें समाज के तौर-तरीके थे, जिसमें उकताहट थी, जैसा चार घंटे गाड़ी में उसने महसूस किया था. सबके चेहरे झुके हुए, आँखों की कोरों में आंसू, आवाज़ में आत्म-प्रलाप. दादी के माथे पर लाल बिंदी नहीं, माँ के हाथों में कंगन नहीं.

ड्रॉइंग रूम के लाल सोफों को सफेद चादर से ढक कर कोने में सरका दिया गया था. बीच में ज़मीन पर गद्दे बिछे थे, सफेद के फूहड़पन से ढके हुए. उन पर मोहल्ले की औरतें, उसके पिता के दोस्त बैठे थे.

सबके बीच बैठी थीं दादी. घटनाओं का क्रम बतातीं. दोहरातीं. तिहरातीं हुईं-

कल रात में ठीक थे, बल्कि खुद चलकर अस्पताल गए, वहाँ जाकर अटैक हो गया, मुझे तो बब्बू ने सुबह ही बताया.

अच्छे आदमी थे; सूट-साड़ियों से लदीं, फूल काढ़े रूमाल हाथों में थामे, सैंडल की खट-खट करती औरतों का हर जत्था आता और उसी नाटकीयता से वही सवाल दोहराता- कल तो दिखे थे सैर करते, डोलू में दूध लेते, नुक्कड़ वाली चाय की दुकान पर, फिर अचानक, विश्वास नहीं होता. अच्छे आदमी थे.

दादी उनके कौतुक का जवाब उसी नाटकीयता से देतीं-विश्वास करना सचमुच मुश्किल है. कल अपनी दाल भी खुद बनाई. कभी नमक-मिर्च नहीं खाया. चीनी का एक दाना तक मुंह में नहीं रखा. कल रात तक बिल्कुल ठीक थे और फिर वही क्रम जिसके अंत में वही तकियाकलाम होता-अच्छे आदमी थे. लेकिन जब दादी पातीं कि सब औरतें उनकी दलील और आवाज़ की दयनीयता से खुश हैं, तब वे अपने आत्मविश्वास की खुरचन से सतर्कता से जोड़ना नहीं भूलतीं- अच्छे आदमी थे, अपने भाइयों, बच्चों और पोतों के लिए.

कार्तिक को चिढ़ हुई. इस फज़ूल के नाटक की क्या ज़रूरत? दुख कोई दूध की मीठी चाय थोड़ी है, कि प्याली हाथ में ली, और गट-गट अंदर; बल्कि दुख तो हलाहल का कसोरा है जिसे गले में अटकाए रखना होता है, क्योंकि गटकने के अलावा कोई विकल्प नहीं और खून से मिलकर धमनियों में बहने देने की इंसान में हिम्मत नहीं. ज्यादा ही शौक हो तो बाहर एक तख़्ती टांग दो कि मौत ऐसे हुई थी (पर अच्छा आदमी था लिखना नहीं भूलना) और बात खत्म. या उससे भी बेहतर एक व्हाट्सएप मैसेज सर्कुलेट करके सारी सूचना दे दो. ‘रिप’ और ‘ॐ शांति तो आजकल ट्रेंडिंग हैं हीं. काम झटपट होगा, बेकार की ऊर्जा नष्ट होने से बच जाएगी.

उसकी कल्पना की मौत अलग थी: एक जश्न जैसी, जहाँ वायलिन पर कोई दुख भरी सिंफनी बजती होगी, और केवल चार-पांच बहुत आत्मीय लोग मौजूद होंगे. पूरी स्वछंदता से जो रोना चाहेगा, वह रोएगा. जो हंसना चाहेगा, वह हंसेगा. जो चुपचाप बैठना चाहेगा, वह अडोल, निस्पंद बैठा रहेगा. निरापद मौन को महसूस करता. दुख की नीली तिलस्मी आभा से आलोकित. उसके धड़कते दिल से स्पंदित. और सब जाने वाले को याद करेंगे- पूरी तरह से, हर शेड में, एक इंसान के रूप में. उसी गहरी याद में दुख से निवृत्ति संभव होगी.

दादी ने बेबी पिंक सूट पहना था. वह औरतों की परवाह किए बिना उनके सामने जाकर खड़ा हो गया. उन्होंने तिरछी नज़र से उसकी भिंची मुट्ठियों को देखा, फिर आँखों के इशारे से अपने कमरे में जाने को कहा. वह वहीं खड़ा रहा तो औरतों के हुजूम में बतकहियों की एक लहर दौड़ गई, आजकल के बच्चे तो, बिल्कुल कोई लिहाज़ नहीं. डॉक्टर हैं तो क्या संस्कार-वंस्कार सब जाएँ तेल लेने, बाहर जाकर तुरंत हवा लग जाती है. देख रही हो कितने मज़े से इयरफोन लगाए. लाल शर्ट पहने, आजकल के बच्चे तो क्या.

दादी ने सख़्ती से कहा, “तुम कमरे में जाओ.”

अपमानित-सा वह वहीं खड़ा रहा.

उसे वहीं खड़ा देखकर दादी की आवाज़ में कांच का नुकीलापन भर उठा, “जाओ, मैंने कहा न.”

वह धक से रह गया. जिस छिछलेपन से वह दादी को बचाना चाहता था, वह तो शायद खुद ही उस गड्ढे से बाहर नहीं आना चाहतीं. या इतने सालों पहले कॉलेज की लड़कियों को पढ़ाया मुक्ति का पहाड़ा वे खुद भूलकर अंधेरे को ही जीवन का स्वरूप मानने लगी हैं?

4.

बिस्तर पर माँ हीटिंग बेल्ट पर बैठीं थीं. पैरों में क्रीम रंग की जुराबें. बॉयकट बाल. हस्पताल में आते मरीजों को फोन पर दवाइयां बताने में मशगूल. साथ ही यह भी कि वह अब एक हफ़्ते बाद ही ओ.पी.डी में बैठेंगी.

“एक हफ़्ता क्यों, मुझे तो लगा था बस हवन. जैसा शालिनी मौसी के यहाँ हुआ था.”

“वो यंग डेथ थी. वह भी बहू की. ऊपर से कैंसर से. उनके लिए हवन करके चुक जाना आसान था. पापा पूरा जीवन जी कर गए हैं. कोई नहीं मानेगा.”

“तब तो और भी अच्छा है न! अतृप्त आत्मा का भूत बनकर आगे की पीढ़ियों को सताने का भी कोई खतरा नहीं.” कार्तिक ने आवाज़ को लचड़ा कर कहा.

“नहीं बेटा, ऐसे क्यों कह रहे हो, तुम्हारा कितना सब करते थे, जब छोटे थे…”

“तो माँ इन पाखंडों से पंडितों का पेट और जेब भरने से ज्यादा कुछ नहीं होता.”

“गए हुए की आत्मा को शान्ति मिलती है.”

“जिसने जीते जी किसी की आत्मा को शान्ति नहीं मिलने दी, तुम्हें लगता है उसे इतनी आसानी से खुद शान्ति मिलेगी. कभी किसी को बख्शा इन्होंने, नीचे की नर्सों से लेकर ऊपर के काम करने वालों तक. यहाँ तक कि दादी का परिवार. तुम्हारा परिवार. हर त्योहार पर क्लेश. याद नहीं पिछली दिवाली पर.” कार्तिक की आवाज़ बहुत ऊंची हो गई थी.

“अब इल्जाम लगाने से क्या फायदा?”

“तुम इतनी आसानी से कह सकती हो क्योंकि तुम्हें कुछ भोगना नहीं पड़ा.”

“जिनको तुमने क्लीन चिट दे दी है, वो भी कभी कम नहीं रहीं. तुम नहीं जानते पर मैंने देखा है कैसे चढ़-चढ़ के बोलती थीं. पिछले एक हफ़्ते से जब से बाऊजी बीमार हैं कह रही हूं कि पापा के लिए कचौरी बना दें पर मजाल! ताली कभी एक हाथ से नहीं बजती.”

“तुम्हें समझ भी आ रहा है कि तुम क्या बोल रही हो?”

“तुम अभी छोटे हो, देखते नहीं मैं और तुम्हारे पापा कितनी बढ़िया तरह से कॉम्प्रोमाइज़ करते हैं, एक को गुस्सा आता है तो दूसरा एकदम चुप.”

“पापा कब तुम्हें या तुम्हारे परिवार को गाली देते हैं, कब तुम्हारा कैरेक्टर सर्टिफिकेट बांटते फिरते हैं?”

“सुई एक ही जगह अटकाए रखने से क्या फायदा. बातों पर मिट्टी डालनी चाहिए. माफ़ करके आगे बढ़ना चाहिए.”

“घायल लोगों के पास माफ़ी नहीं होती.”

माँ ने वही जुमला, जो मिडल क्लास माता-पिता कंठस्थ किए रहते हैं, दोहराया, “तुम अभी बच्चे हो, धीरे-धीरे समझ जाओगे.” फिर जोड़ दिया, “वैसे भी इन फिजूल की बातों में क्या रखा है? हर कोई अपने लिए चीज़ों का चुनाव खुद करता है. उनके परिणामों के साथ जीने के लिए भी उसे तैयार रहना चाहिए.”

“फिर परिवार किस लिए होता है?” कार्तिक ने पूछा पर अनसुना करती माँ फिर से अपने मोबाइल और मरीजों में मशगूल हो गईं.

तभी मटमैले रंग का ट्रैकसूट पहने पिता कमरे में आए. उसके ‘हाय पापा’ को नजर अंदाज़ करते हुए माँ पर खीझने लगे, “तुम बाहर थोड़ा ध्यान दो. इसकी चाची मेहमानों से बात कर रहीं हैं और तुम यहाँ बैठी हो.” माँ ने कानों से फोन हटाकर उनकी बात तो सुनी पर जैसे ही बात खत्म हुई, फोन में फिर से बिज़ी हो गईं.

जब पिता की माँ पर नहीं चली, तो पिता कार्तिक से मुखातिब हुए. उनकी आँखों में लाल धमनियों का जाल, माथे की सिलवटों पर पसीने की बूंदें, छीदे, छितराए बाल. अनक कर कहने लगे, “तुमने बाबाजी को देखा?”

“नहीं, मैं नहीं देख पाऊंगा.”

“हर चीज़ में तुम्हारी मनमर्जी थोड़ी चलेगी. जाओ देखो. उनका आशीर्वाद लो.”

“जिस आदमी ने किसी के लिए कुछ अच्छा नहीं किया, उससे क्या आशीर्वाद लिया जाए?” कार्तिक का गुस्सा चरम पर था.

“तुम सिर्फ़ दादी का पक्ष जानते हो. तुम जानते हो कि पापा ने हमारे हक की ज़मीन दे दी. पता है क्यों. क्योंकि उनके छोटे भाई को ज़रूरत थी. उनकी नौकरी छूट गई थी, बढ़ते हुए बच्चे थे. हमारे घर में तो दोनों कमाते थे.”

“इंटेंशन के हिसाब से सोचो तो रेपिस्ट की भी कोई गलती नहीं. घर पर नहीं मिल रहा तो बाहर ढूंढ ले. किसी को धर दबोचे.” अचानक कार्तिक को लगा कि वह अपनी बात करने लगा है. अचकचाकर चुप हो गया. थोड़ी देर रुक कर बोला, “इनके क्लेशों में आप जो डीएनबी कोर्स नहीं कर पाए, उसे कैसे जस्टिफाई करोगे?”

“क्या, डी.एन.बी, कब, बब्बू?” बाबा का झूलता लॉकेट गले में पहने चाचा भी कमरे में आ गए थे.

“गड़े मुर्दे उखाड़ने से क्या फायदा? और चलो मान लो डी. एन. बी. कर भी लेता. दिल्ली में सेटल हो भी जाता. उससे क्या फ़र्क पड़ता? सब कुछ लगभग वैसा ही रहता. सब मुकद्दर होता है.”

“भाग्यवादी सोच निराशावादी लोगों की होती है.” कार्तिक ने सोचा पर वह कुछ बोला नहीं.

“तुम समझना ही नहीं चाहते. तुम हक के नजरिए से सोचते हो. जबकि परिवार में ऐसा नहीं होता.”

“बेचारों ने भाइयों-बहनों के लिए इतना कुछ किया, उसके बावजूद कितना तिरस्कार सहते रहे. फोन पर भी मुझे कह रहे थे अपनी माँ को कहकर मेरे लिए कचौरियां बनवा.” चाचा ने गला खंखारते हुए कहा.

“अरे भैया, कितनी बार मैंने कहा, कितनी बार इन्होंने, पर मजाल है.”

माँ अपने नाटकीय अभिनय से बहस के बीच में कूद पड़ीं.

“जिस आदमी ने पूरा जीवन नर्क बना दिया, उसके लिए अब पूरियां-कचौरियां भी तली जाएं. वाह. वाह क्या न्याय है.”

कार्तिक पूरे वेग से चीखा.

“अगर इतना ही परेशान थीं तो पहले ही छोड़ देना चाहिए था. हमारी लाइफ में भी थोड़ा कम ड्रामा होता.”

माँ ने आँखें नचाईं.

“एकदम चुप हो जाओ.” पिता अचानक चीख पड़े जिससे कार्तिक का सारा शरीर कंपकंपा गया. “जब तुम्हें कुछ पता ही नहीं तो फालतू की कॉमेन्ट्री का क्या मतलब?” माँ भी नहले पर दहला देने को तैयार थीं लेकिन चाचा की आश्चर्य भरी आँखें देख दांत पीसकर रह गईं.

कार्तिक के मन में अक्सर सवाल रहा है कि दादी अलग क्यों नहीं हुईं. दादी उसे वही जवाब देती हैं, वही जो उस समय की कोई भी सामान्य मिडल क्लास औरत देती, कि उस समय चलन नहीं था. या बच्चे रुल जाते. या जब समझौता ही करना था तो किसी से भी कर लिया जाए क्या फर्क पड़ता है. पर दादी साधारण नहीं थीं— पढ़ी लिखी थीं, कॉलेज में नौकरी करती थीं, और कमाती थीं, वह भी बाबाजी से लगभग दुगुना. तब क्यों.

धीरे-धीरे वह सोचने लगा है वह प्रोफ़ेसर की बात किसी से नहीं कहेगा. क्या कहेगा जब अभी तक खुद ही नहीं समझ पाया कि किस क्षण उसे प्रोफ़ेसर का स्पर्श उत्तेजक से गिलगिला लगने लगा. जिस तरह से उसके पिता बाबाजी की तरफदारी कर रहें हैं, संभव नहीं कि वे भर्त्सना से भर उसी पर सवाल दाग दें कि वह वहाँ गया ही क्यों था, गलती उसी की है. शत प्रतिशत उसकी. कि अगर वह प्रोफ़ेसर को नहीं उकसाता तो उसे अधेड़ उम्र के बाल बच्चेदार आदमी को क्या पागल कुत्ते ने काटा था?

5.

कार्तिक किसी पच्चीस पैसे के सिक्के जैसा महसूस करता है. नगण्य और अदृश्य. डॉक्टर माँ-बाप के लिए वह तब ‘होता’ था जब राज्य या राष्ट्रीय स्तर की क्विज प्रतियोगिता में इनाम जीतता था. दोस्तों के लिए ‘होता’ था जब उन्हें उसकी ज़रूरत होती जैसे एग्ज़ाम में चीटिंग करनी होती या हॉलिडे होमवर्क की कॉपियां चाहिए होतीं. समाज के लिए ‘हुआ’ केवल एक बार—जब उसने प्रख्यात मेडिकल कॉलेज में दाखिला पाया.

जब स्कूल में अपनी छाती के बीचोबीच किताब दबाकर वह चलता और पीछे से लड़कों के झुंड— जो उससे कद में लंबे थे और जिनके बाल उससे घने थे— की हंसी के छल्ले उसके शरीर पर कोड़ों की तरह पड़ते वह फिटकरी की तरह गायब होना चाहता था. कोचिंग में जब अक्सर उसके सवालों पर उसके टीचर्स हंसते तो वह ज़मीन में धंस जाना चाहता था. कॉलेज में जब उसने दोस्तों के सामने मासूमियत से ‘गुच्ची’ को ‘गुस्सी’ बोल दिया था और जब लोग उसकी फूहड़ता पर ऐसे हंसे थे जैसे उसने कह दिया हो कि वह भारत की बजाए अमेरिका का बाशिंदा है, तब वह इनविज़िबल मैन हो जाना चाहता था.

फिर उसे सूझा कि जिन लोगों को, जिस समाज को वह खिसका हुआ पाता है, उससे अपने ‘होने’ के स्टैंपपेपर पर मुहर क्यों लगवाए? जब उसके दिमाग में यह सवाल आया तो वह अपने लिए थोड़ा ‘हो’ गया. हर साल समाज से दूर वह थोड़ा और ‘होता’ गया. जिस ‘होने’ को कल अचानक उस प्रोफ़ेसर ने हथौड़े की मार से दरका दिया. जिस पर आज उसके अपने, बिल्कुल अपने, छोटे-छोटे प्रहार कर एकदम नेस्तनाबूद कर देना चाहते हैं.

प्रोफ़ेसर के साथ हुई बातें उसे फिर याद आने लगीं. वार्ड के राउंड के बाद वह अपनी थीसिस खत्म करने के लिए बैठा था. सोचा था चार चैप्टर खत्म करके ही सोएगा. तभी उसके ग्राइंडर की टिंग बजी थी. उसने लपक कर फोन उठाया था. प्रोफाइल पिक्चर नहीं थी. न ही प्रोफाइल पर कुछ और लिखा था. उसके हाय के जवाब में ‘व्हाट्स अप’ लिखते ही दूसरी तरफ़ से मैसेज की झड़ी लग गई थी—

यू आर वेरी क्लोज

वाना हैव सम गुड टाइम

आर यू इंटरेस्टेड

टेल मी

रिप्लाई फास्ट

उसने एक बार तो फोन उलटा करके रख दिया. इतने डस्पेरेट लोग उसे कभी पसंद नहीं आते. फिर दनादन आते ‘रिप्लाई फास्ट’ मैसेज रुके ही नहीं.

उसका दिल जेनरेटर की घड़-घड़ से भी तेज़ चल रहा था. उसने लिख दिया- ऑनली कैज़ुअली

प्रोफ़ेसर ने कोई जवाब नहीं दिया. केवल अंगूठे का चिह्न बनाया. फिर तुरंत मैसेज आया- नाओ कम फास्ट

व्हेयर

तुरंत जवाब आया- एनेस्थीसिया ब्लॉक, रूम 418

कैंपस में? वो भी ऑफिस में? कहीं कोई स्कैम तो नहीं? कार्तिक दोबारा रुक गया.

उसने कुछ नहीं लिखा तो तुरंत प्रोफ़ेसर का मैसेज आया- इट्स सेफ

आउटसाइड?

ट्रस्ट मी

खेल में माहिर प्रोफ़ेसर जानता था किस तरह नन्हे शावकों को फंसाया जाता है. उसने फिर ट्रस्ट मी की झड़ी लगा दी. जब शरीर के सभी द्रव्य ठांठे मारते हों, इच्छाएं सांप की तरह फुफकारती हों, तब उसके पास और क्या विकल्प था. दिल पर हाथ रख आई एम कमिंग लिखा, और चल दिया प्रोफ़ेसर के रूम की ओर.

उसने प्रोफ़ेसर के कमरे का दरवाज़ा खटखटाया. सुनहरी पट्टे वाली काली नेमप्लेट पर नाम देखकर उसे कुछ याद आया. डॉ. अविरल रंजन. अरे ये तो वही प्रोफ़ेसर हैं जो सब रेजिडेंट्स के चहेते हैं. आए दिन किसी नए देश में न्यू मोड्स ऑफ़ पेन मैनेजमेंट पर कोई पेपर प्रेजेंट कर रहे होते हैं. अपने काम से काम रखने वाले. एकदम नो नॉनसेंस. बिलकुल टॉक्सिक्सिटी नहीं.

यह देखकर उसकी सांस में सांस आई. मन में हां-नहीं, हां-नहीं, हां-नहीं की अनवरत दलील शांत हुईं. तब तक दरवाज़ा खुल गया. फ्रेंच दाढ़ी में सामान्य से कम कद का प्रोफ़ेसर सामने खड़ा था. उनके शरीर से आती कस्तूरी की गंध. सामने की मेज़ पर सफेद गमले में रखा बेबी टीयर का पौधा जिसके मुलायम पत्तों को उसने पकड़ने की कोशिश की थी जब प्रोफ़ेसर ने अपने भारी शरीर से उसको टेबल पर औंधा लिटा दिया था. साथ रखे झक्क सफ़ेद मार्बल के बुद्ध जिसे उसने ज़मीन पर गिरा दिया था ताकि बाहर से निकलता कोई-न-कोई व्यक्ति आगाह हो जाए.

अचानक दरवाजे पर खटखटाने की आवाज़ हुई. बॉयकट बाल और बाटा की महरून चप्पल पहनने वाली उसकी मौसी थीं. उसकी नहीं, उसके पापा की, पर जिनके घर वह दादी के साथ गर्मियों की छुट्टियों में जाता था. उसने दरवाजा खोला, अनमने होकर उनके पैर भी छूए, पर जब दरवाजा बंद करने को था, मौसी हाथ नचा-नचाकर कहने लगीं, “कार्ती, तुम तो राजा बेटा हो. तुम्हें क्या हो गया. अपने दादाजी का चेहरा तक नहीं देखने चाहते?”

कार्तिक जब तक बच्चा बनकर कह पाता कि वह मौत से घबरा गया है तब तक कमर पर बेल्ट पहनने वाली बड़ी मामी वहाँ पहुंच गईं. उनके पीछे करीने से बालों की लट निकालने वाली छोटी मामी. हालांकि दोनों का जीवन विचारहीनता में कटा, लेकिन फिर भी आपस में विचार कभी नहीं मिले. सवालों के डंडे लेकर वो तैयार थीं, लाल शर्ट…बेटा क्या हुआ?

देखते ही देखते औरतें, जिनका पेट मृत्यु की नीरस कहानियों से नहीं भरा था, इकट्ठा होने लगीं. पीछे माँ की वो दोस्त भी आ गईं जो कहने को तो वोकल में पीएच.डी. थीं, लेकिन पास के गांव में हरियाणवी लड़कियों के कॉलेज में पढ़ाते-पढ़ाते भीमपलासी और बागेश्वरी या चैती और ठुमरी के बीच का फ़र्क भूल गईं थीं. चतुराई से कार्तिक का माथा सहलाकर कहने लगीं- बेटा, इतने दुखी नहीं होते, जो यहाँ आता है, उसे जाना होता है. जितना समय दादाजी के साथ मिल सकता है, उसे तो कम-से-कम ज़ाया मत करो.”

कार्तिक ने अपनी लाल शर्ट तुरंत उतार दी. उतारी क्या, उसके कांपते हाथ तत्परता से खुद ही चलने लगे.

यही नहीं डर से वशीभूत उसके पैर भी अपने आप चलने लगे और तब तक नहीं रुके जब तक उसने बाबाजी के पैर नहीं छू लिए.

कार्तिक यह कैसे भूल गया था कि मूर्ख का दिमाग कैसा भी हो, पुट्ठों और पसलियों में खूब ताकत होती है.

 

6.

कमरे के अंदर उसे बाबाजी के शरीर की रखवाली के लिए बिठा दिया गया. बॉय कट वाली मौसी जो लचक-लचक कर चलती थीं, और अंग्रेजी के छिटपुट रटे-रटाए वाक्यों से अपना दबदबा बनाना जानती थीं, उसके कानों में कहकर गईं— बॉडी को अकेला नहीं छोड़ते.

बॉडी, कितना लिजलिजा शब्द था. कार्तिक के रौंगटे खड़े हो गए. जैसे बाबाजी की मौत का सत्य एक नई रोशनी से भर उसके सामने झिलमिलाया था. क्या अब बाबाजी तीज-त्योहार पर पूरियों-कचौरियों की फ़रमाइश नहीं करेंगे? कभी अपने मैग्नीफाइंग लेंस को किसी आयुर्वेदिक दवाई की ख़बर पर रख उसे बाद में पढ़ने के लिए नहीं कहेंगे? कभी पांच बजे उठकर अपना गला खंखारने की आवाज़ से या कमोड में पेशाब फ्लश न करने की अपनी आदत से उसे नहीं खिजाएंगे?

उसने मेज़ पर रखी पन्नी के अंदर से बाबाजी की तुड़ी-मुड़ी तस्वीर निकाल ली. ओम प्रकाश अग्रवाल. वही ऊन की टोपी, मटमैली नेहरू जैकेट, आँखों में मोतिया. उसे देर तक वैसे ही पकड़े रहा जैसे कोई बेशकीमती नगीना हो. किसी के आने की आवाज़ सुनकर उसने तस्वीर तुरंत अपने सफेद कुर्ते की जेब में डाल ली.

भूरे फूलों वाले कंबल से ढके बाबाजी के चेहरे को लोग उघाड़ कर देखते (क्या?) तो कार्तिक को हर बार उनका चेहरा दिखता. पीला, पोपला, पपड़ाया हुआ. खुला मुंह, पिचके गाल. सफेद दाढ़ी की कतरनें. वह जितनी बार देखता, उतनी बार उसे दादा का चेहरा उनका न होकर, प्रोफ़ेसर का लगता. कभी आँखों का आकार. कभी नाक का तीखापन. कभी होंठ का एक तरफ़ झुका होना. अभी इतना अपना लगने वाला चेहरा अचानक अजनबी कैसे हो सकता है?

क्या जैसे लंबे समय तक प्यार करने वाले लोगों के चेहरे एक जैसे लगने लगते हैं, क्या उसी तरह घृणा भी चेहरे पर अपने निशान छोड़ जाती है? बाबाजी के अत्याचारों का पन्ना यदि गलती से खुल जाता, तो घर के सभी लोग मोम का पुतला हो जाते. खासकर उसके पिता. कार्तिक की अगर-मगर की कोंच से दादी थोड़ा-बहुत कभी बोलतीं. बातें सब वही, आदमी का औरत को गिलौटी कबाब समझना, केवल घटनाओं के क्रम अलग. ऊपर से दादी में प्रतिभा का विस्फोट और दुगुनी तनख़्वाह. आदमी के पास और क्या हथियार था- बदनामी, बदसलूकी, बदतमीजी के अलावा. यह सब सुनते कार्तिक का दिल ग्रेनेड की तरह फटने को तैयार रहता.

धमाका केवल इसलिए नहीं होता क्योंकि उसे तसल्ली थी कि इसमें कुछ भी शारीरिक नहीं. फिर दादी अस्फुट शब्दों में कुछ कहने लगतीं. पिता को चार सौ चालीस वोल्ट का झटका लगता. वह बिलबिला जाते. फिर पैर के नाखून से ज़मीन कुरेदने लगते. फिर अचानक हिम्मत बटोरकर आँखें तरेर कर कहने लगते, नहीं, नहीं, ऐसा कभी कुछ नहीं हुआ.

कार्तिक सोचता था की शरीर पर हुई हिंसा सबसे बड़ी होती है. तब उसे क्यों लगता है कि फ्रेंच दाढ़ी वाले प्रोफ़ेसर ने उसका रेप किया जबकि वह तो बच गया था. चाहे बाल-बाल ही. उसे प्रोफ़ेसर के पेट की हरकत अपनी कमर पर महसूस हुई थी. प्रोफ़ेसरने अपनी अंगुलियां उसके मुंह में डाले रखीं थीं. होंठों को कोनों से पकड़े दोनों तरफ इस तरह खींचा था जैसे वह कागज़ का टुकड़ा हो. उसके कानों के नजदीक जाकर वह घोड़े की तरह हिनहिनाया था. कार्तिक चीख सकता था. छटपटा सकता था. पर वह एक लाश की तरह पड़ा रहा था. गहरी सांस लेता हुआ. नियति के सामने घुटने टेकता हुआ.

वह अलग बात थी कि ठीक उसी समय लैंडलाइन बज गया था. उसकी पकड़ ढीली हो गई थी. लिंग से तनाव गायब हो गया था. कार्तिक भाग खड़ा हुआ था. भागता हुआ वह कोर्ट और समाज के कानून की नज़रों में जीत गया था. पर उसके दिल ने, दिमाग ने, हर एक नाड़ी-माँसपेशी ने उसके खिलाफ गवाही दी थी. वह हार गया था. बुरी तरह से.

7.

बदहवास पिता वहीं खड़े रहे. पहाड़ी आलू जैसे चेहरे वाले उनके ठिगने दोस्त ने आकर बताया कि उसकी जानकारी का पंडित पंद्रह हज़ार लेगा. लकड़ी, चंदन ‘हमारा’ रिबॉक की सैंडल वाले दूसरे ने सामान सहित बीस हज़ार का प्रस्ताव रखा. तीसरा दोस्त नहीं था, नीचे अस्पताल का कंपाउंडर था, पर उसकी डील सबसे सस्ती थी— डाक्टर साहब, इतनी रूपीए कित सु खराब करो हो. बारह हज़ार में तो सारा सौदा निबट जैगा.

पिता बीच में खड़े थे. चारों ओर खड़े लोगों की नज़रें उन पर केंद्रित. लॉलीपॉप खाते बच्चे से सहमे पिता ने तुरंत सबसे महंगा प्रस्ताव चुन लिया.

दस मिनट में पंडित वहाँ पहुंच गया. धोती और शिखा न होती, तो वह पूरा बॉडीबिल्डर लगता था. पच्चीस-छब्बीस साल का सफेद शर्ट के नीचे उभरी छातियां, कसी हुई बाजुएं जिन पर एक भी बाल नहीं.

वह कुछ बोला नहीं, चुपचाप परात में आटा गूंथकर बड़े आकार के गोले बनाने लगा. नैसर्गिक आकर्षण के चूहे ने कार्तिक को गुदगुदाया. मदद करने के बहाने से वह पंडित के पीछे जाकर खड़ा हो गया. जब भी आटा मसलते हुए पंडित की कोहनी उसके पेट को कहीं छूती, उसके मन में एक अनार फूटता. लगता कि वह एक कुलांचे भरता हिरण है. जीप की पीली रोशनी से आकर्षित होता जिसमें उसके शिकारी हैं. पर फिर भी वह रुकता नहीं. प्रोफ़ेसर के साथ हुए वाकए के बावजूद. बल्कि उलटा उसे लगता कि वह थोड़ा और लंबा होता तो यह छुअन उसकी टांगों के और करीब होती. तब एक की बजाए हज़ार अनार एक साथ फूटते.

पंडित बांस की खपचियों को रस्सी से बांधकर अर्थी बनाने लगा. तब तक बाबाजी की बहनें इकट्ठी हो गईं थीं. लॉबी में दरी पर बैठी हूं-हूं कर देर तक बिसूरती रही थीं जब थक कर चुप हो गई थीं. अर्थी को देख अचानक सबसे छोटी बहन जो कद में भी सबसे छोटी थी और जिसकी आवाज़ बस के हॉर्न जैसी थी, भैं-भैं कर रोने लगी. हाय, बीर जी चले गए. बीर जी हमेशा के लिए चले गए. रुलाई की आवाज़ छींक की तरह सबको संक्रमित कर गई. दोनों बड़ी बहनें, फिर कार्तिक की माँ, फिर पिता, जैसे बाबाजी से अपनी करीबी ज़ाहिर करने के लिए इस फूहड़ प्रदर्शन में शामिल होना ज़रूरी हो.

कुछ लोगों ने दादी को अपेक्षा भरी नज़रों से निहारा, जैसे सर्कस में हर बंदर से नकल करने की उम्मीद रखी जाती है, पर दादी तब तक किसी काम के बहाने कमरे के अंदर चली गईं थीं.

पिता को रोते हुए उसने पहली बार देखा था. करीब जाकर उसने उनका हाथ पकड़ लिया. उसे लगा जैसे पिता और ज़ोर से रोने लगे हैं. पर जैसे ही आस-पड़ोस के कुछ आदमी पिता को घूरने लगे वैसे ही पिता ने हिम्मत का नकाब दोबारा ओढ़ लिया और कार्तिक को दूर धकेल दिया.

पंडित ने बाबाजी को नहलाने के लिए कहा. सारे ऐरे-गैरे नत्थूखैरे आदमी कमरे में इकट्ठे हो गए. पंडित ने पहले गंगाजल की बूंदें कमरे के चारों कोनों में छिड़कीं. पिता ने सबसे पहले मटमैले रंग का कुर्ता निकाल दिया. बाबाजी के हाथ ठंडे पड़ने लगे थे. थोड़ी अकड़न भी आ चुकी थी. कार्तिक को निस्टन रूल याद आया. बारह घंटे में रायगर पूरी तरह आ जाएगा. तब शरीर लोहे की तरह कड़क हो जाएगा.

चाचा ने नाड़ा खोल पजामा सरका दिया. फिर कच्छा भी निकालने लगे तो कार्तिक को लगा कि सबको बाहर निकाल दे. इमरजेंसी में फॉलीस डालने के लिए जब वह टांगें चौड़ी करवाता, या साथ वालों को नाड़ा ढीला करने के लिए कहता, तब बेहोश मरीज़ भी अपने जननांग पर होते अनैच्छिक अतिक्रमण को रोकने के लिए हाथ-पांव मारते. कितने आराम से, सबके सामने, उसके बाबाजी को नंगा किया जा रहा था. मॉर्चरी में शरीर के साथ होती हिंसा से यह सब कितना ही अलग था- बस यही कि यहाँ कपड़े काटे या फाड़े नहीं गए, बल्कि उतार दिए गए और उतारने वाले अपने थे, नशे में धुत्त अटेंडेंट नहीं.

दरियाई घोड़े-सा बाबाजी का लिंग देख उसे प्रोफ़ेसर की याद आई. जब प्रोफ़ेसर चूमकर थक गया था तब उसने अपनी बेल्ट खोल दी थी. एक हाथ से उसके मुंह को अपने लिंग के पास लेकर गया था. कार्तिक चाहता तो वहीं रुक जाता. अपने होंठ कसकर भींच लेता. पर वह रुका नहीं था (या उससे रुका नहीं गया था). मुंह में लिंग डालते ही पेशाब की कसैली गंध, त्वचा का बकबका स्वाद, सतह पर खून से थर्राती धमनियों से आती पिच-पिच की आवाज़ से उसे कितना अजीब लगा था. तब वह रुकना चाहता था. पर प्रोफ़ेसर का उसके सिर पर रखा हाथ, उसकी ओर एक निश्चित ताल में आता लिंग, उसे छूटने ही नहीं दे रहे थे जैसे वह कोई सिलिकॉन सेक्स टॉय हो जिसे जिस तरह चाहे उपयोग किया जा सकता हो.

उसने साथ में खड़े पंडित को घूर कर देखा जिसकी बाजू पर शिव का टैटू बना हुआ था. जटाधारी. गले में सांप पहने नीले शिव. वह उसके पास खिसकते जाना चाहता. उसके लिंग को छूना चाहता. शर्ट से झांकते कसे उरोजों पर अपने होंठ रखना चाहता. बगलों के गंदले पसीने को जीभ से चाटना चाहता. यह जानते हुए भी कि ऐसा कर लेने पर उसे यह अपनी सबसे बड़ी गलती लगेगी. अपने शरीर से घृणा होगी. अपनी इच्छाओं की उच्छृंखलता पर अफसोस होगा. एक सच तुरंत जामा बदलकर झूठ हो जाएगा. पर यह सब तब होगा जब वह उस क्षण को भोग चुका होगा. नहीं भोगने पर क्या न भोगने का पश्चाताप उसे चैन से जीने देगा?

उसे बायोकेमिस्ट्री में पीएच.डी. कर रहे रघु की बात याद आई जिससे वह डी.एन.ए. लैब में मिला था. कार्तिक ने उससे यही पूछा था, “मैं ग्राइंडर पर नहीं जाना चाहता. अपने-आप को बहुत कंट्रोल करता हूं. लेकिन गलती से भी अगर ऐप खुल जाए और कोई हॉट लड़का दिख जाए तो मैं पागल हो जाता हूं.”

“इन सब चीजों में कुछ नहीं रखा. यह आकर्षण क्षणिक होता है. माचिस की तीली की तरह जल जाता है. फीलिंग्स का ज्यादा सोचोगे तो बंदर की तरह हमेशा उछलते रहोगे.”

“आप क्यों…?” कार्तिक ने अनायास पूछा था लेकिन रघु ने हाथ के इशारे से उसे धीरे बोलने के लिए कहा. “आप क्यों नहीं छोड़ पाते?” उसने फुसफुसाकर पूछा था.

“मुझे देखो और मेरी उम्र के बाकी लोगों को देखो. कंपेयर करोगे तो फ़र्क तुम्हें खुद ही समझ आ जाएगा.”

“क्या?” उसने एक छोटे बच्चे की मासूमियत से पूछा.

“अरे भाई, देख, सब स्टेबल हैं. सबके पास घर है, बीवी है. कुछ के तो बच्चे भी हैं. और मुझे देखो… “रघु ने अपने सैंपल सेंट्रीफ्यूज़ मशीन में डाले थे जो घर्र-घर्र करती गोल-गोल चलने लगी थी.

उसके बाद वह क्या सवाल करता. स्टेबल तो उसके माँ-बाप भी हैं. चाचा-चाची भी हैं. वह प्रोफ़ेसर और उसकी बीवी भी होंगे. उसने अपने माँ-बाप को रूममेट के तौर पर ही देखा है. नपा-तुला बोलना. जैसे ही बात हाथ से निकलने लगे तो झूठ की शरण में जाना. ज्यादा से ज्यादा फ्रेंड्स विद बेनेफिट्स. शाब्दिक अर्थ वाले फ्रेंड्स नहीं बल्कि प्रचलित अर्थों वाले जो ट्रॉमा-ट्रॉमा चिल्लाते हैं और हैशटैग फ्रेंडशिप गोल्स लिखकर हर रोज़ इंस्टाग्राम पर स्टोरी डालना नहीं भूलते.

 

8.

नहलाकर बाबाजी को अर्थी पर रखा गया. चादर चढ़ाने की रस्म शुरू हुई. सबसे पहले लचकने वाली मौसी ने चादर चढ़ाई. हाथ जोड़े. फिर दादी के दोनों भाइयों ने. छोटे वाले तो इतनी देर हाथ जोड़े खड़े रहे मानो कोई प्रतियोगिता चल रही हो. फिर कार्तिक के माता-पिता ने. चाची, जो पेशे से इलेक्ट्रॉनिक इंजीनियर थीं, और जिनकी उपलब्धियों की बहुतायत से कोई भी आराम से दांतों तले अंगुली दबा सकता था, भीड़ का हिस्सा होने के कारण तब तक महफूज़ थीं. चाचा के बढ़े पेट को जिस पर उनकी नीली चेक वाली शर्ट खिंच रही थी को भी तब तक विशेष तवज्जोह नहीं मिली थी. जब उनके नाम की ताकीद की गई, तब सबकी आँखों की स्पॉटलाइट उन पर केंद्रित हुई. चादर लाना वह भूल गए थे. दोनों सामने आए, जैसे मुजरिम की कोर्ट में पेशी हो. और वैसे ही खड़े रहे. दादी ने सब कुछ भांपा. तुरंत कहने लगीं, “हमारे घर कोई अलग थोड़ी हैं. ऊपर वाली चादर पर हाथ लगाकर ही आशीर्वाद ले लो.”

लचकने वाली मौसी के एंटीना अचानक हरकत में आ गए, “दीदी आपकी छूट का ही नतीजा है. रस्में नहीं आएंगी तो जब हम नहीं रहेंगे तो क्या करेंगे?”

“ये फालतू नौटंकी खत्म हो जाएगी. और क्या?” कार्तिक का मन हुआ कि बोल दे पर राजा बेटे के खिताब का चुंबकीय आकर्षण इतना था कि वह चुप रह गया. उलटा उसने एक भोले बच्चे की शक्ल में उनसे सवाल किया, “मौसी जी, ये सफ़ेद चादर चढ़ाने का मतलब क्या होता है?”

जैसा वह जानता ही था, मौसी की सिट्टीपिट्टी गुम. बेचारी ऊं… आं करके चुप हो गईं..सबका कीमती समय जाया करने में मशहूर मौसी ने समय की दुहाई दी. जल्दी करना चाहिए हमें बेटा, श्मशान का डेढ़ बजे का समय है.

ठिगनी बुआ ने रुलाई का एक और राउंड पूरा किया. केवल आवाज़, जैसे गले में सीटी अटक गई हो, आँसू की एक भी बूंद नहीं. इस नाटकीयता से निजात पाने का तरीका पिता सीख चुके थे. कायदे से बाबाजी को अंतिम दर्शन के लिए हॉल में रखा जाना था, लेकिन पिता ने अर्थी को कंधों से उतारा ही नहीं. तुरंत सीढ़ियों से नीचे उतरने लगे.

वैन में केवल तीन लोगों की जगह थी. पिता तो आगे बैठ गए. साथ बैठने को आतुर दोस्त आगे आए जिससे कार्तिक और चाचा पीछे छिप गए. कार्तिक ने चाहा कि कम-से-कम चाचा तो वैन में साथ जाएं.

वह उस हीन भावना को जानता है जो उसके घर आकर चाचा को घेर लेती है. पहले अक्सर सवाल करता था कि वह उन्हें चाचा क्यों कहे जबकि उसके पिता और वे तो जुड़वा थे. उसके मन में चाचा का मतलब केवल उम्र में छोटा होना नहीं था. कद में छोटा होना था. दाएं की जगह बाया हाथ होना. पढ़ने के दिनों में जब कार्तिक कभी सुबह देर से उठता तो दादी उसे फटकार कर कहतीं कि वह चाचा जैसा होता जा रहा है.

जब पढ़ने का समय था तब वह भी पड़ा सोता रहा. चाचा जैसा होना उसे गाली लगता. वह तुरंत उठकर पढ़ने में जुट जाता. उसे चाचा की तरह प्राइवेट कॉलेज से पढ़ाई नहीं करनी. बल्कि पापा की तरह गवर्नमेंट कॉलेज चाहिए.

रिबॉक सैंडल पहने कंपाउंडर, जो किसी को भी ‘आप’ कहकर सम्बोधित नहीं करता था, दौड़ता हुआ उनके पास आया और ज़रूरत से दुगुनी तेज़ आवाज़ में कहने लगा, “डाक्टर साब तुम दोनों को बुला रहे हैं.”

कार्तिक सातवें आसमान पर. वह आगे खड़े दोस्तों से जानबूझकर टकराता हुआ वैन के पास पहुंच गया. पिता ने अपनी हाथ की घड़ी देखते हुए सख़्ती से कहा, “कार्ती, जल्दी बैठ. वहाँ डेढ़ बजे पहुंचना है.” वैन में बैठते हुए उसने उन सब लोगों को देखा, बल्कि घूरा, और तंज भरी मुस्कान उसके होंठों पर फैल गई.

चाचा चढ़ने लगे तो पापा का खीझा हुआ सवाल, “कहाँ खोया रहता है?”

चाचा ने कोई जवाब नहीं दिया. वैन चलने लगी. चाचा एकटक बाबाजी को देखते रहे. उन्होंने बाबाजी का चेहरा एक शिशुवत कोमलता के साथ अपने दोनों हाथों में पकड़ लिया.

अचानक चिल्लाने लगे. बब्बू, बब्बू पापा चले गए. पापा गए. डर से फैली पुतलियां. पनीली आँखें. खुला मुंह. बाबाजी का हाथ पकड़ मसलने लगे, कार्ती हाथ मसल, कितने ठंडे पड़ते जा रहे हैं.

पिता ने पीछे मुड़कर चाचा के हाथ पर अपना हाथ रख दिया. पीछे मुड़कर देखा नहीं. कार्तिक ने शीशे में देखा उनकी आँखें एकदम सुर्ख़ लाल हो गईं थीं. पिता रुमाल निकालने लगे लेकिन ड्राइवर ने जैसे ही उन्हें घूरा वे उसी मुद्रा में फ्रीज़ हो गए. बस हाथों के माध्यम से अपनी सारी शक्ति चाचा में आरोपित करते रहे.

उन्हें देखकर कार्तिक की आँखों से टप-टप आंसू बहने लगे. कुछ क्षणों के लिए ही चाहे वह परिवार था. वह शोक था. ग्रीविंग. अपने को खोने की मर्मांन्तक पीड़ा.

 

9.

श्मशान घाट के बाहर लोगों का तांता लगा हुआ था. सौ-डेढ़ सौ लोग तो कम से कम होंगे. स्कूटी, एक्टिवा, पल्सर की बाइकों के तमाम लंबी कतारें. ऑल्टो से लेकर फॉर्च्यूनर तक छोटी-बड़ी, सस्ती-महँगी लाल, काली, ग्रे गाड़ियों का जमघट. इतने सारे लोग? कार्तिक हैरान था.

वे वैन से उतर भी नहीं पाए थे कि अर्थी उठाने के लिए ढेरों कंधे तैयार थे. पिता की बात याद आई- समाज में रहते हैं तो उसके साथ तो चलना ही होगा. हारी-बीमारी, मरने-जीने में यही काम आते हैं.

तब कार्तिक ने उनसे नाक फुलाते हुए कहा था- मौत से मिडल क्लास इतना डरती है कि दुश्मन भी तुरंत आ जाएं.

उन्हें देखकर कार्तिक सोच में पड़ गया. उसके शरीर को उठाने वाला कौन होगा. उसे अकेले मरना होगा.

जिस प्रेम को वह जीना चाहता है, और उसे भोगते हुए जिस जीवन से स्पंदित होना चाहता है, वह क्षणों में घटकर चुक जाएगा. बिल्कुल उस एक्सपेरिमेंट की तरह जिसमें बिल्ली को बेलजार में बंद कर मोमबत्ती जला दी जाती है. शादी में स्थिरता है. समाज है. सुनने वाले कान हैं. सांत्वना भरी आँखें हैं. गर्म देह का आराम है. स्टेबिलिटी है. सेटेलमेंट है. क्या इतना सब कुछ छोड़ने की हिम्मत उसमें है?

अर्थी को चार लोगों ने मिलकर उठा लिया. कार्तिक के हाथ में मिट्टी का मटका दिया गया जो पानी से लबालब भरा था. आगे-आगे चलता पंडित हिदायतें देता जा रहा था. अंदर पहुंचे तो कुछ और लोग इंतज़ार कर रहे थे. अर्थी को देखते ही उन्होंने पास पड़े लकड़ी के गट्ठर से एक-एक लकड़ी उठाकर कुंड में रखनी शुरू कर दी.

अर्थी को लकड़ियों की सेज पर रखा गया. एक और पंडित, जिसके बालों में सफेदी नुमाया हो चुकी थी, वहाँ पहुंच गया. उसने पहले पूजा करवाई. पिता के माथे पर टीका लगाया. कुंड में चारों ओर हवन सामग्री डाली गई. बाबाजी के मुंह में घी डाला गया. जवान पंडित पूरा समय मंत्र उच्चारता रहा था.

आड़ी-तिरछी कर लड़कियों का जाल बाबाजी के ऊपर बनाया गया. पिता के हाथ में मटका दिया गया और चिता के चारों ओर चक्कर लगाने के लिए कहा गया. पर फोड़ने की बजाए चक्कर पूरा कर एक कोने में रख दिया गया. एक लकड़ी को घी में डुबाकर उस पर आग लगा दी गई. चाचा ने पिता के कंधे पर और उसने चाचा के कंधे पर हाथ रख एक कड़ी बना ली. पहले चक्कर में सिर की तरफ़ से पिता ने आग लगाई. फिर पंडित ने चारों तरफ से आग लगा दी.

लपट-दर-लपट आग तीव्र होती गई. कुछ देर तक वे सब वहीं खड़े रहे. चटक-चटक की आवाज होती रही. धुंए के उड़ते काले बादल, बिखरते सूट के टुकड़े.

कार्तिक ने चारों ओर नज़र घुमाई. वहाँ दादी नहीं थीं. पर दादी तो जिन मामा की गाड़ी में आने वाली थीं, वह तो आए हुए थे. तब क्या वह बाहर हैं? बुला लाए? क्या वे आएंगी? नहीं आएंगी तो खींचकर लेकर आएगा. तब क्या उसकी अच्छे बच्चे की छवि पर पलीता नहीं लग जाएगा?

उन्हें देखनी चाहिए आग की यह हिंसा. उस आदमी के शरीर पर होता आग की लपटों का तांडव. उनके उद्विग्न मन को शायद शान्ति मिले. आज़ाद होने का डोपामिन रश.

वह भागते हुए बाहर आया. बाहर एक सीले कमरे में समाज की प्रहरी औरतें अपने पर्स और फोन को हथियार की तरह पकड़े दादी के इर्दगिर्द बैठी थीं. वह मार्वल सुपरहीरो की तरह भागता हुआ अंदर पहुंचा. दादी का हाथ पकड़ उन्हें बाहर खींचने लगा.

“कहाँ ले जा रहा है?” दादी सकपका गईं.

“अंदर चलो, सब कुछ अपनी आँखों से देखो.”

“अंदर…नहीं. नहीं.” जैसा अनुमान था सबसे पहले लचकने वाली मौसी बोलीं.

“चलो दादी. उस धधकती आग को देखकर आपको सुकून मिलेगा.”

कार्तिक को लगा था कि दादी कुर्सी से उठने को हुईं थीं जब भेड़ों का रेवड़ अपनी भेड़-बुद्धि से कोई-कोई तर्क देता रिरियाने लगा. दादी अचानक कुर्सी से चिपक कर बैठ गईं. पहले से ज्यादा ताकत से. उन्होंने कार्तिक को आँखों के इशारे से कुछ कहना चाहा जिसे कार्तिक ने अनसुना कर दिया. कार्तिक को घूरती सभी भेड़ें खुश थीं, एक दिन के लिए उन्होंने कितने मोर्चे बखूबी संभाल लिए थे.

कार्तिक का होना अचानक न-होना में बदल गया. जब वह प्रोफ़ेसर के कमरे से भाग रहा था, उसने दादी को याद किया था. उनके ख्याल भर ने उसे हिम्मत दी थी. जब अपना कमरा बंद कर वह तकिए में सिर गड़ाए रोने लगा था, उसे लगा था वह उसके दादी के नर्म हाथ हैं. वह जैसे दादी को जानता था, वह अचानक झूठ हो गया.

कार्तिक का रोने का मन हुआ. वह चुपचाप वापिस लौट आया. तब तक भीड़ में हलचल बढ़ने लगी थी. कोई घड़ी देख रहा था, कोई व्हाट्सएप पर मैसेज. उसके पास खड़े पिता के दोस्त ने उससे कुछ पूछना चाहा था.

बाबाजी इतनी आसानी से खत्म हो रहे थे कि वह विश्वास नहीं कर पा रहा था. वह उनकी चिता के एकदम करीब जाकर खड़ा हो गया. आग इतनी तीव्र कि उसका चेहरा सुर्ख लाल हो गया था. दरकती लकड़ियों के कारण हज़ारों अंगारे उसकी आँखों में झिलमिलाए.

उसे बेचैनी हुई. अजीब-सी घुटन. क्या वह भी? उसका शरीर भी? इसी तरह…अचानक…भक्क. जीवन भर है, मृत्यु. रहस्यमयी ऊर्जा का प्रवाह उसने अपनी शिराओं में महसूस किया. उसे महसूस हुआ जैसे वह ‘है.’ पूरा-का-पूरा. अखंडित. वह उस जवान पंडित के आगे जाकर खड़ा हो गया. उसने गर्दन पर पंडित की गर्म सांसें महसूस की. वह फिर पीछे खिसकने लगा. जिन झूठे कर्मकांडों में उसकी दादी फंसी रहीं, वह उनमें नहीं फंसेगा. वह सच जीएगा. अपना सच. अपना खालिस सच.

किंशुक गुप्ता

मौलाना आज़ाद मेडिकल कॉलेज में पढ़ाई के साथ-साथ लेखन से कई वर्षों से जुड़े हुए हैं. अंग्रेज़ी के प्रमुख अखबारों जैसे द हिंदु, द हिंदु बिज़नेस लाइन, द हिंदुस्तान टाइम्स, न्यू इंडियन एक्सप्रेस, द डेक्कन हेराल्ड, टाइम्स ऑफ इंडिया, द क्विंट, स्क्रॉल, आउटलुक, लाइव मिंट, द कारवाँ के लिए स्वतंत्र लेखन. यूनिवर्सिटी ऑफ पेनिस्लीवेनिया, स्पॉल्डिंग यूनिवर्सिटी केंटकी की पत्रिकाओं में प्रकाशित. रैटल, द इंकलैट, द पेन रिव्यू, हंस, पाखी इत्यादि में प्रकाशित. बेस्ट एशियन पोएट्री 2021 के लिए दो कविताएँ चयनित. हाइकु के लिए रेड मून एंथोलॉजी और टचस्टोन अवार्ड्स के लिए मनोनीत. डॉक्टर अनामिका पोएट्री प्राइज़ (2021), रवि प्रभाकर स्मृति लघुकथा सम्मान (2022), निशा गुप्ता अखिल भारतीय युवा कहानी प्रतियोगिता (2022) से पुरस्कृत. जैगरी लिट और द मिथिला रिव्यू के कविता संपादक और उसावा लिटरेरी रिव्यू के सहायक संपादक के तौर पर कार्यरत.

‘ये दिल है कि चोर दरवाज़ा’ कहानी संग्रह 2023 में वाणी से प्रकाशित.

Tags: 2023२०२३ कहानीअच्छा आदमी थाकिंशुक गुप्तानयी सदी की हिंदी कहानी
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Comments 14

  1. उषा किरण खान says:
    2 years ago

    किंशुक गुप्ता की कहानी कमोबेश कमलेश्वर की कुछ कहानियों की याद दिलाती है। अपना अपना अनुभव , अपनी अनुभूतियाँ ही लेखन की दिशा तय करती हैं।

    Reply
  2. Anonymous says:
    2 years ago

    निजी दुखों और सामाजिक यथार्थ को वर्तमान परिवेश में बिना लिजलिजी भावुकता को प्रस्तुत करते हुए , पठनीय कहानी।

    Reply
  3. हम्माद फ़ारूक़ी says:
    2 years ago

    निजी, मनोगत जटिलताओं,सामाजिक यथार्थ, आधुनिक परिवेश की सुगठित अभिव्यक्ति। पठनीय कहानी।

    Reply
  4. ब्रह्म दत्त शर्मा says:
    2 years ago

    समलैंगिकता पर मैंने वर्षों पहले लंबी बहसें टीवी पर सुनी हैं, कोई फिल्म भी देखी है, लेकिन इतनी बोल्ड कहानी संभवतः पहली बार पढ़ी है। दादा जी की मृत्यु के माध्यम से आपने समाज के पुराने व घिसे पिटे रिवाजों, रिश्तों के खोखलेपन, आडंबर इत्यादि जैसे कई विषयों को भी कहानी में बखूबी उठाया है। मूल विषय से सीधा कोई संबंध न होते हुए भी ये कहानी में पूरी तरह घुल मिल गए हैं और जो आप कहना चाहते हैं, इस पृष्ठभूमि के साथ और भी उभरकर सामने आया है। हमेशा एक दुविधा और ग्लानि में जीना ही इंसान की नियति है। एक परिपक्व लेखक ही ऐसी कहानी बुन सकता है। आपकी भाषा, विषय की समझ और कहानी कला अद्भुत है। आपके लेखन में अपार संभावनाएं हैं।

    शुभकामनाएं।

    Reply
  5. जितेन्द्र विसारिया says:
    2 years ago

    कहानी अच्छी है। लेखक कहानी के शिल्प से अच्छी तरह वाकिफ़ है। भाषा भी मंझी हुई है। परिवेश की पकड़ भी कमाल है। बस वह समलैंगिकता को गौण विषय के रूप में उठाता है। वह अपनी बहुत सारी बोल्डनेस के बावज़ूद दूसरा ही रह जाता है। कुछ फॉल्ट हैं कहानी में। जब कार्तिक का ओरियंटेशन ‘गे’ का है। वह ग्राइंडर चलाता है। अपनी मर्ज़ी से प्रोफ़ेसर के पास जाता है। अमूमन ऐसी मुलाकातों में सेक्स डिज़ायर ही प्रमुख होती। मिलने वाले ज्यादातर चीजें मिलने से पहले ही तय कर लेते रहते, ऐसे में कार्तिक की प्रोफ़ेसर के प्रति अतिरिक्त घृणा समझ नहीं पड़ती। कोई निर्णायक स्थिति नहीं कार्तिक के पास। हाँ उसके व्यवहार से लगता कि उसे प्रोफ़ेसर से बेहतर चाहिए। जो उसे पंडित में नज़र आता है। वह अंत में आजन्म समलैंगिक रहने का निर्णय जैसा भी कुछ लेता है। वह भी सब अव्यक्त है। इस रूप में यह कहानी अपने विषय और वितान में कोई बड़ी विद्रोही कहानी नहीं। हाँ लेखक ने समलैंगिकता से जुड़े पात्र का परिवेश और मनोदशा को अवश्य ही साहस और ईमानदारी से रचा है, उसके लिए वह प्रशंसा का पात्र है।

    Reply
  6. योगेंद्र आहूजा says:
    2 years ago

    आपकी कहानी ‘अच्छा आदमी था’ पढ़ ली. अच्छी लगी. यह एक समर्थ हाथ से लिखी गयी सशक्त कहानी है जिसमें भाषा, ब्यौरों, संवाद और परिवेश … कहीं भी कोई चूक नहीं है. कहानी एक साथ दो स्तरों पर चलती है, एक सामाजिक-पारिवारिक-परिवेशगत स्तर और दूसरा वाचक के भीतर मनोवैज्ञानिक स्तर पर. अनेक अंश ( जैसे यह, और अन्य भी ) बहुत मार्मिक हैं और बार-बार पढने को बाध्य करते हैं :

    ‘दुख कोई दूध की मीठी चाय थोड़ी है, कि प्याली हाथ में ली, और गट-गट अंदर. दुख तो हलाहल का कसोरा है जिसे गले में अटकाए रखना होता है, क्योंकि गटकने के अलावा कोई विकल्प नहीं और खून से मिलकर धमनियों में बहने देने की इंसान में हिम्मत नहीं। ज्यादा ही शौक हो तो बाहर एक तख्ती टांग दो कि मौत ऐसे हुई थी ( पर अच्छा आदमी था लिखना नहीं भूलना) और बात खत्म। या उससे भी बेहतर एक व्हाट्सएप मैसेज सर्कुलेट करके सारी सूचना दे दो। ‘रिप’ और ‘ॐ शांति तो आजकल ट्रेंडिंग हैं हीं । काम झटपट होगा, बेकार की ऊर्जा नष्ट होने से बच जाएगी।‘ ‘उसकी कल्पना की मौत अलग थी: एक जश्न जैसी, जहां वायलिन पर कोई दुख भरी सिंफनी बजती होगी’ ।

    लेकिन एक सफल कहानी संभवतः वह होती है जिसके अलग-अलग घटना प्रसंग और संकेत-सूत्र अंत में एकान्वित होकर एक सारगर्भी विचार बन सकें. इस कहानी में उस आंतरिक एकता का अभाव महसूस हुआ. काश ऐसा होता … तब यह और महत्वपूर्ण होती. कुछ विवरण और इशारे मेरे लिए अस्पष्ट बने रहे. कहानी का अंतिम वाक्य है – “जिसे दादी कभी महसूस नहीं कर पायी, उस आत्मविश्वास से वह एक बार आप्लावित होना चाहता है’. कहानी के ब्यौरों के अनुसार बाबा से लगातार मिली मनोवैज्ञानिक हिंसा (अपमान, इल्जाम, लांछनों ) ने दादी को कितना ही तोड़ा हो, कितनी ही पीड़ा दी हो, उनमें ‘आत्मविश्वास छीजने’ का संकेत तो नहीं है. वे सुशिक्षित हैं, कालेज में नौकरी करती हैं और बाबा से अधिक कमाती हैं. घरवालों के दबाव के बावजूद कचौड़ी बनाने से और दादा की बॉडी के सामने विनत होने का नाट्य करने से इंकार करती हैं. यह बताता है कि दादा के प्रति एक जिद्दी विरोधभाव उनमें हमेशा मौजूद रहा, जिसे वे अंतिम समय में भी त्यागने को तैयार नहीं. यह उनमें ‘आत्मविश्वास की कमी’ नहीं दिखाता. गर्दन पर पंडित की साँसें महसूस करने से वाचक को अपना ‘होना’ महसूस होता है लेकिन यह दादी की पीड़ा से किस प्रकार जुड़ता है या यहाँ ‘आत्मविश्वास’ का क्या गुह्यार्थ है – मेरे विचार में इसे और स्पष्ट होना चाहिए था.

    यह देखना मुझे ख़ुशी दे रहा है कि अपनी खूब व्यस्त रखने वाली डॉक्टरी जिम्मेदारियों के बावजूद आप लगातार सशक्त कहानियां लिख रहे हैं. मेरी समस्त शुभकामनायें

    Reply
  7. Sapana Singh says:
    2 years ago

    इस कहानी को पढ़ना,एक अनुभव है। वर्षों पहले किरण सिंह की कहानी ‘संझा ‘ पढ़ते हुए लगा था ये एक अनुभव है। बिल्कुल वैसा ही लगा।
    अलग विषय पर बेहद सशक्त और संवेदनशील कहानी है ये।‌

    Reply
  8. अंजलि देशपांडे says:
    2 years ago

    कई कमेंट्स आये हैं इस कहानी पर समलोचन् में। इधर के कई सालों में छपी कहानियों में यह सर्वोत्कृष्ट कहानियों में एक है। इसे इसलिए मैं सर्वोत्कृष्ट नहीं कह रही कि संभव है कि कुछ और भी रहीं हों जो मेरी नज़र से छूट गई हो।

    Reply
  9. Anupam says:
    2 years ago

    अच्छी कहानी।

    Reply
  10. पूनम मनु says:
    2 years ago

    कहानी, भाषा और शिल्प की दृष्टि से बढ़िया कहानी है।कहानी के सिरे अंत में नहीं मिलते तो कहानी समझ नहीं आती। मेरा उपन्यास द ब्लैंक पेपर समलैंगिक संबंधों पर आधारित है।जो सामयिक प्रकाशन से 2022 में आया है। उसी विषय पर मुझे एक कहानी पढ़ने को मिली तो लगा, कि क्या कुछ अलग है, पढ़कर देखते हैं। कुछ भिन्न तो है।मेरे उपन्यास का पात्र खुद को गे कहने से घबराता नहीं है। बल्कि अपने हक के लिए लड़ता है। यहां इस कहानी में बस क्रियाएं ही बोल्ड हैं। कहानी उस तरह से खुलती नहीं, जिस तरह से खुलनी चाहिए थी। एक डॉक्टर, किंशुक गुप्ता की पकड़ जिस तरह से हिंदी कहानी पर है वह आश्वस्त करती है कि हिंदी साहित्य में अच्छे लेखक हैं।और आने वाले समय में इसका फलक और विस्तृत होगा।अलग अलग कार्य क्षेत्रों के कई भाषाओं पर पकड़ रखने वाले लेखकों का हिंदी में उतनी ही सहजता से लेखन उम्मीद बांधता है।

    Reply
  11. मूलचंद्र गौतम says:
    2 years ago

    फैशनी कहानी जिसका बहुमुखी पैशन शिल्प के चमत्कार से ज्यादा कुछ नहीं ।इस्मत चुगताई का विलोम पैदा करने की कोशिश ।

    Reply
  12. Savita Pathak says:
    2 years ago

    कहानी दो यात्रा एक साथ करती है। बने बनाये ढांचे में स्वीकार्यता है,सुरक्षा और सहूलियत है। कार्तिक ये जानता है वह आगे के जीवन के अकेलेपन से भी वाकिफ है जहाँ प्रोफेसर जैसे लोग एक टेम्परेरी टेम्पटेशन की तरह आते हैं लेकिन वो सिर्फ एक रिक्तता और पछतावा ही भरते हैं। कार्तिक अपनी बायेलोजिकल जरूरत से वाकिफ है, वह अपने हार्मोन्स के उतार चढाव को जानता है लेकिन ऐसे लगा कि वह अपनी मनोवैज्ञानिक जरूरत को भूल रहा है। या कहें कि प्रोफेसर के साथ यही नहीं है।
    फिर एक आवेग जिसमें एक तरह का विद्रोह है वह पंडित की ओर झुकता है। ..समलैंगिक संबंध में एक दूसरे का साथ और गर्माहट की, जरूरत खत्म नहीं होती और ये खालीपन कार्तिक में दिखा। शारीरिक और मनोवैज्ञानिक जरूरत के लिए एक साथ कोई स्पेस नहीं। ये दरार दिखती है। परिवार और समाज के ढकोसले और रूलाई के नाटक का चित्रण देवदास के एक दृश्य की याद दिलाता है।
    दादी जलती चिता को देखने के लिए उठती हैं लेकिन बैठ या बिठा दी जाती हैं। कार्तिक के भीतर उसकी दादी हैं वह बदनामी के डर से टहरता नहीं । किंशुक जी को इस कहानी के लिए खूब बधाई।

    Reply
  13. दिनेश कर्नाटक says:
    2 years ago

    कहानी एक साथ तीन रास्तों पर चलती है। दादा की मृत्यु, समलैंगिकता को लेकर नैरेटर के उधेड़बुन और दादा के अतीत को लेकर नाराजगी। नैरेटर की बेचैनी, दुविधा, नाराजगी कहानी को सार्थकता की ओर ले जाती है। वर्तमान से सतत असन्तुष्टि तथा फंसे होने का एहसास आज के जीवन की नियति है। इस नियति को कहानी सशक्त तरीके से उभारने में सफल रही है।

    Reply
  14. सुजीत कुमार सिंह says:
    2 years ago

    बेहतरीन।

    (आड़ी-तिरछी कर लड़कियों का जाल बाबाजी के ऊपर बनाया गया.)

    [लड़कियों का जाल नहीं, लकड़ियों का जाल।]

    Reply

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