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Home » किसान आंदोलन और दलित कविता: बजरंग बिहारी तिवारी

किसान आंदोलन और दलित कविता: बजरंग बिहारी तिवारी

बुद्धिजीवी की एक विशेषता यह भी होती है कि वह समकालीन समस्याओं को अतीत से जोड़ कर समझने का प्रयास करता है और भविष्य के लिए रास्ता निकालता है. जब अभूतपूर्व किसान आंदोलन की शुरुआत हुई बजरंग बिहारी तिवारी ने उसे भक्ति काल की कविताई और किसानी से जोड़ कर देखा. यह आलेख इतना सार्थक था कि कई भारतीय भाषाओं में इसके अनुवाद हुए और यह स्वतंत्र पुस्तिका के रूप में भी उपलब्ध है इसे समालोचन ने सर्वप्रथम प्रकाशित किया था. कहना न होगा कि यह आंदोलन अब सिर्फ़ किसानों का नहीं रहकर ‘मुक्ति की पारस्परिकता का आंदोलन हो गया है. ख़ासकर दलित कविता से इसका जुड़ाव उभरकर सामने आया है. किसान आंदोलन से दलित कविता को जोड़कर देखता हुआ बजरंग बिहारी तिवारी का यह आलेख प्रस्तुत है.

by arun dev
August 19, 2021
in आलोचना
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किसान आंदोलन और दलित कविता:  बजरंग बिहारी तिवारी
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मुक्ति आंदोलनों की पारस्परिकता
किसान आंदोलन और दलित कविता

बजरंग बिहारी तिवारी

क्रांतिकारी आह्वान ‘दुनिया के मजदूरों एक हो’ जब भारत पहुँचा तो इसका महत्त्व पहले उन लोगों ने समझा जो मजदूरों के शोषण पर फल-फूल रहे थे. महत्त्व उन्होंने भी समझा जो इस शोषण का अंत करना चाहते थे. भारत में मजदूरों की पहली राजनीतिक पार्टी ‘स्वतंत्र मजदूर दल’ (इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी) डॉ. भीमराव आंबेडकर ने 1936 में बनाई. डॉ. आंबेडकर आम श्रमिकों के मुद्दों को लेकर चुनाव मैदान में आए और उनके दल को अच्छी सफलता भी मिली. यह सिलसिला आगे बढ़ता तो परिदृश्य कुछ और ही होता. इसे रोकने के लिए सारी ताकतें एक हो गईं. थोड़े ही अंतराल बाद मार्च 1942 में क्रिप्स मिशन भारत आया. स्टेफोर्ड क्रिप्स के नेतृत्व वाला यह कैबिनेट मिशन मात्र धार्मिक या जातीय प्रतिनिधियों को ही मान्यता दे रहा था. यह उन्हीं से बात करने को अधिकृत था. ‘मजदूर’ तो एक आर्थिक-राजनीतिक श्रेणी है लिहाजा स्वतंत्र मजदूर दल के प्रतिनिधि के रूप में डॉ. आंबेडकर इस मिशन से नहीं मिल सकते थे. नतीजतन, उन्हें शिड्यूल कास्ट फेडरेशन बनाना पड़ा. वे ‘अछूतों’ के प्रतिनिधि के रूप में ही औपनिवेशिक सत्ता को स्वीकार्य हुए.

इस तथ्य की तरफ डॉ. आंबेडकर ने एकाधिक बार इशारा किया था कि भारत में सभी मजदूर एक जैसे नहीं हैं. उनमें कई तरह के भेद-प्रभेद हैं. जाति के आधार पर भेदभाव प्रमुख है. इसके बावजूद उन्होंने मजदूरों को एक श्रेणी में रखा और किसिम-किसिम की सामाजिक पृष्ठभूमि वाले मजदूरों के हितों के साझेपन को समझा. क्या मजदूर-मजदूर में फर्क की बात दुनिया के मजदूरों को एक होने का नारा देने वाले नहीं जानते थे? उन्हें यह भी मालूम था कि दुनिया के पूँजीपति भी एक जैसे नहीं हैं लेकिन वे अपने साझे हितों को समझते हैं और अपने बीच मजबूत एकता बनाए रखते हैं. इस एका से उनका वर्चस्व कायम रहता है. इस वर्चस्व को तोड़ना है तो मजदूर अपनी एकता की शक्ति को, संगठित होकर किए जाने वाले आंदोलन के नतीजों को पहचानें.

एकता से वर्चस्ववाद को डर

वर्चस्ववादियों के लिए मजदूरों की संभावित एकता जीवन-मरण का प्रश्न बन गई. उन्होंने श्रमिकों के हितों के साझेपन को धुंधला करने की भरसक कोशिश की. उनके बीच के अंतर को रंगरोगन लगाकर, खूब चटक बनाकर पेश किया. बनती हुई एकता को तोड़ने में जातितंत्र ने भरसक योगदान दिया. डॉ. आंबेडकर ने मजदूरों से और श्रम से जुड़े मुद्दों पर राजनीति करने वाले वामपंथ से सदैव संवाद बनाए रखा. उनके बाद दरार चौड़ी होती चली गई. जाति की राजनीति और वर्गाधारित आंदोलन करने वालों में यद्यपि मैत्रीपूर्ण संवाद बनाए रखने हेतु कॉ. आर.बी. मोरे, अन्ना भाऊ साठे, अमर शेख जैसे कई विचारकों/आंदोलनकर्मियों ने सराहनीय प्रयास किया लेकिन दोनों के मध्य बढ़ती कटुता समाप्त या कम नहीं की जा सकी. स्वतंत्र भारत की सरकारें, दक्षिणपंथी ताकतें, देशी पूँजीपति और कैपिटलिज्म के वैश्विक सत्तातंत्र ने एकता की इस संभावना को तोड़ने में अनवरत काम किया. दोनों की बेध्यानी और आत्ममुग्धता ने एकता के विरोधियों की मंशा को बहुत दूर तक सफल होने दिया.

रिपब्लिकन पार्टी के नेतृत्व ने वामपंथ को निशाने पर रखा और 1984 में बनी बसपा ने उसे पहले नंबर का शत्रु माना. बीच में उभरे दलित पैंथर आंदोलन ने बेशक दोनों के बीच पुल बनाने की चेष्टा की लेकिन जल्दी ही वहाँ भी वामविरोधी गुट प्रबल हुआ और पारस्परिकता के पक्षधर हाशिए पर ठेल दिए गए. आज हालत देखिए. दलित राजनीति करने वाले आरपीआइ, लोजपा और बसपा कहाँ हैं! उधर दलितों पर होने वाली हिंसा का ग्राफ कितना ऊपर गया है! हिंसा करने वाले कितनी आसानी से बच जा रहे हैं! मेहनतकश तबकों, खासकर दलित समुदाय की आर्थिक बदहाली किस सूचकांक पर टिमटिमा रही है! इस दुर्दिन से कैसे छुटकारा मिलेगा? जो अस्मितावादी कल तक राष्ट्रीय परिसंपत्तियों को निजी हाथों में दिए जाने की पैरोकारी कर रहे थे वे क्या आज (जबकि अधिकांश सार्वजनिक उपक्रम या तो बिक चुके हैं या बेचे जाने की कगार पर हैं) अपनी राय बदलने को तैयार हैं?

साझे मोर्चे के पक्ष में नई पहल

वाम और दलित साहित्यकारों, संस्कृतिकर्मियों का एक दूरंदेशी समूह हमेशा साझे मोर्चे के पक्ष में रहा. सत्ता, समाज और शासन पर दक्षिणपंथ की पकड़ मजबूत होते जाने के साथ इस साझे मोर्चे का महत्त्व समझ में आता गया. नरेंद्र अच्युत दाभोलकर (1945-2013) और गोविंद पानसरे (1933-2015) की हत्याओं ने जिस जरूरत का अहसास घना किया उसे डॉ. एम.एम. कलबुर्गी (1938-2015) की हत्या ने अपरिहार्य बना दिया. डॉ. कलबुर्गी की हत्या का विरोध-प्रदर्शन संयुक्त रूप से हुआ. 2015 में एक साझा मोर्चा बना जिसमें वाम और दलित लेखक संगठन थे.

रोहित वेमुला (1989-2016) की सांस्थानिक हत्या (आत्महत्या) ने पूरे देश में विक्षोभ पैदा किया. छात्रों ने साझेपन की जबर्दस्त पैरोकारी की. विश्वविद्यालय परिसरों से न्याय की, प्रेम की और आततायी सत्ता के विरुद्ध एकजुट होने की बुलंद आवाज उठी. इसके बाद प्रगतिशील पत्रकार व लेखिका गौरी लंकेश (1962-2017) की हत्या के खिलाफ प्रगतिवादियों और आंबेडकरवादियों का साझा मंच किंचित अधिक मजबूती से आगे बढ़ा. इस दौरान साझेपन की जरूरत को समझने और उसके वैचारिक आधार को मजबूती देने के लिए जनवादी लेखक संघ ने तीन-तीन दिनी तीन कार्यशालाएं आयोजित कीं- बाँदा कार्यशाला (2015), इलाहाबाद कार्यशाला (2016) तथा जयपुर कार्यशाला (2018). इनमें क्रमशः आंबेडकरवाद और मार्क्सवाद की पारस्परिकता, जाति, वर्ग और जेंडर का अंतस्संबंध व रचना-प्रक्रिया तथा विचारधारा पर विमर्श हुआ.

संगठनों के साझे मोर्चे जिसमें जसम, दलेस, जलेस और प्रलेस के संयुक्त कार्यक्रम होने आरंभ हुए. ये कार्यक्रम प्रतिरोध सभाओं, परिसंवादों व विचार-गोष्ठियों के रूप में दिखाई पड़े. ‘देशप्रेम के मायने’ नामक गोष्ठी-सीरीज बड़ी सफल रही. ‘प्रगतिशील आंदोलन की विरासत’, ‘दलित आंदोलन: साहित्य और कलाएं’ तथा ‘हम देखेंगे’ जैसे चर्चित कार्यक्रम संयुक्त बैनर के तले हुए. इप्टा, प्रतिरोध का सिनेमा तथा अन्य समान सोच वाले संगठन समय-समय पर संयुक्त मोर्चे में शामिल होते रहे. ‘प्रगतिशील आंदोलन की विरासत’ कार्यक्रम से न्यू सोशलिस्ट इनिशिएटिव और उसके बाद हाथरस बलात्कार-हत्याकांड पर हुए प्रतिरोध कार्यक्रम से अखिल भारतीय दलित लेखिका मंच संयुक्त मोर्चे में मजबूती से शामिल हुए. नवंबर-दिसंबर 2020 से संयुक्त मोर्चा किसान आंदोलन से जुड़कर कार्यक्रम कर रहा है.

अपने लेखों और व्याख्यानों में डॉ. तुलसीराम इस बात पर ध्यान दिलाते रहे कि जाति के आधार पर राजनीति करने वाले तथा क्षेत्राधारित राजनीतिक दल संविधान विरोधी साम्प्रदायिक बाढ़ को रोक नहीं सकेंगे और अंततः हिंदुत्व के सहयोगी बनेंगे. समय ने उनकी बात को सच साबित किया. अपनी नई किताब ‘आरएसएस और बहुजन चिंतन’ (फॉरवर्ड प्रेस, नई दिल्ली, 2019) में कँवल भारती ने संघ के दलित प्रेम और आंबेडकर अनुराग का दस्तावेजी खुलासा करते हुए यह भी लिखा है कि संघ की असल दुश्मनी किससे है-

“आरएसएस मूलतः कम्युनिस्ट विरोधी है. उसकी मुख्य शत्रुता अगर किसी से है तो वह कम्युनिज्म से ही है.” (पृ.198)

दक्षिणपंथ की ओर झुकी हुई जाति आधारित राजनीति को नकारते हुए उक्त किताब के अंतिम अनुच्छेद में वे लिखते हैं-

“बौद्ध धर्म में उनके (बाबा साहब डॉ. आंबेडकर के) धर्मांतरण के बाद भी स्थितियां बदली नहीं हैं. वे आज जीवित होते तो इस बात को जरूर अनुभव करते कि बौद्ध भारत में भी जाति, गरीबी और शोषण के सवाल बने हुए हैं और समाजवादी शक्तियां भी इन सवालों की उपेक्षा करके जातिवाद और धर्म की ही पूँजीवादी राजनीति कर रही हैं. इसलिए, भारत को आरएसएस और धर्म की जोंकों से निजात दिलाने का कम्युनिज्म के सिवाय कोई रास्ता नहीं है.” (पृ.199)

 

साझे मोर्चे पर दलित कवि

कवियों में जय प्रकाश लीलवान ने साझेपन का महत्त्व सबसे पहले और सबसे ज्यादा समझा. ‘नए क्षितिजों की ओर’ (भारतीय दलित अध्ययन संस्थान, नई दिल्ली, 2009) संग्रह में उन्होंने संविधान और लोकतंत्र पर मंडरा रहे खतरे को पहचाना. इशारों-इशारों में उन्होंने कहा कि ‘क़त्ल होते रहे कामरेडों’ को देखकर

‘एक नए इंकलाब की शक्ल
तुम्हें ही
तराशनी होगी’ (पृ. 71).

इसे और भी स्पष्ट करते हुए उन्होंने लिखा,

‘समय
अब कभी भी
ले सकता है
हमारे
संगठित युद्ध के
लाल सलाम..’ (पृ. 97).

उसी वर्ष प्रकाशित अपने अगले संग्रह ‘समय की आदमखोर धुन’ (भारतीय दलित अध्ययन संस्थान, नई दिल्ली, 2009) में लीलवान ने शत्रु की ताकत और तैयारी का मापन करते हुए संयुक्त मोर्चा बनाने के लिए खुला आह्वान किया-

‘आओ कॉमरेड
कि हम आज
शत्रु के
उत्तेजित संवादों का सधा हुआ प्रत्युत्तर देने को
अपनी ऐतिहासिक
अटूट एकता के
संगठन में ढल जाएँ..’

कवि को उन दुश्वारियों का ज्ञान है जो इस एकता को न महसूस होने देंगी और न संभव होने देंगी. निजीकरण से मालामाल होने जा रही शक्तियाँ अपने निवेश का एक हिस्सा इस एकता को तोड़ने में लगाना तय कर चुकी थीं. वे कम्युनिस्टों को ‘हरी घास में हरा साँप’ साबित करवाने में जुटी हुई थीं. जो कम्युनिज्म का जितना विरोधी वह कॉर्पोरेट का उतना ही निकट सहयोगी और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का उतना अंतरंग मददगार. तर्क दिया गया कि जब राष्ट्रीय परिसंपत्तियों का निजीकरण हो जाएगा तब पारंपरिक जाति वर्चस्व भी टूट जाएगा और दलित खुली हवा में सांस लेने लगेंगे. रचनाकार शरण कुमार लिंबाले से लेकर विमर्शकार चंद्रभान प्रसाद तक सब इस तर्क के मुरीद हो गए और इसका प्रचार करने में जुट गए. यह वही समय था जब लोकतंत्र के चौथे खंभे पर कॉर्पोरेट ने कब्ज़ा किया और उसे ‘न्यू नॉर्मल’ निर्मित करने की जिम्मेदारी सौंप दी. इस तरह कॉर्पोरेट-चाकर सरकार की अगवानी का पुख्ता इंतज़ाम किया गया. जनता के एक हिस्से को राष्ट्रवादी धुन में सराबोर किया जाने लगा और एक हिस्से को जातितंत्र तोड़ने के कॉर्पोरेटी फ़ॉर्मूले में यक़ीन दिलाया जाने लगा. इस शोर में सावधान करने वाली विवेकशील जनपक्षधर आवाजें दब गईं या दबा दी गईं. अब ऊँची आवाज़ में बोलने का वक्त था. जय प्रकाश लीलवान ने ऐसे समय अत्यंत महत्त्वपूर्ण सुदीर्घ कविता लिखी- ‘समय की आदमखोर धुन’. यह कविता संकट को समग्रता में पहचानती हुई मौकापरस्त, समझौतापरस्त ‘अपने’ राजनेताओं से मिली नाउम्मीदियों का उल्लेख करती है-

समय अब
हमारे साथ नहीं चलता – कॉमरेड
शायद इसलिए
कि हमारे हो सकने वाले
रहनुमा भी
आजकल अमीरों के आयोजनों में
बची रह गई
जूठन खाने के लिए
सरे आम आने-जाने लग गए हैं
और इसीलिए
पतन के इस पुष्प का नज़ारा
हमारे इस
सबसे प्यारे देश की
आँखों की बीमारी बढ़ा रहा है.. (पृ.67-8)

दावेदार रहनुमाओं से मिल रहा धोखा यह संकेत दे रहा था कि वर्चस्ववादियों, वेदवादियों और भेदवादियों की तैयारी कैसी है और उनका शिकंजा कितना तगड़ा है. जबकि ‘अपने’ नेताओं के प्रति अस्मितावादी कविजन सिरे से अनालोचनात्मक बने हुए थे, लीलवान जैसे कवि उनकी शिफ्टिंग को देख रहे थे, आलोचना कर रहे थे और व्यापक जनता व उनके हितचिंतकों को आगाह कर रहे थे-

कॉमरेड, हमारे देश के लोग
आज के ग्लोब में
एशिया की पूँछ से बाँधकर
हिंदू-महासागर में
लटका दिए गए हैं
और जिनके होने की खबर
केवल उनके
रोने से ही पता चलती है
ऐसे में
इन डूबते मस्तूलों को
तुम्हारे सिवाय
और कौन संभालने आएगा – कॉमरेड.. (पृ. 69)

यह कहते हुए तकलीफ हो रही है कि समय रहते न लीलवान की कविताओं पर ढंग की चर्चा हुई और न उनके भरोसे की ठीक से जाँच-परख की गई. उनका विश्लेषण अनदेखा रह गया.

पूँजीवाद और ब्राह्मणवाद के गठजोड़ को समय से देख सकने वाले दूसरे कवि हैं आर.डी. आनंद. आर.डी. आनंद की वैचारिकी और रचनाधर्मिता पर भी प्रायः चुप्पी साधी गई है. अस्मितावादी टिप्पणीकार ऐसे कवियों को ‘अपना’ नहीं मानते और प्रगतिवादी समीक्षक मात्र जाति-विमर्श करने वाले रचनाकारों को प्राथमिकता में ऊपर रखते हैं. परिणाम यह निकलता है कि मुक्ति का संश्लिष्ट विमर्श रचने वाले रचनाकार चर्चा के केंद्र में नहीं आ पाते. आर.डी. आनंद के कविता संग्रह ‘फूल जरूर खिलेंगे’ (विचारभूमि प्रकाशन, बेनीगंज, फैज़ाबाद, 2015) में उनकी प्रारंभिक दौर 1985-87 के मध्य लिखी गई कविताएं शामिल हैं. संग्रह की पहली कविता (जो आनंद की पहली कविता भी है) ‘मुक्ति मार्ग’ का आरंभ इन पंक्तियों से होता है-

यही एक रास्ता होगा
जो यथार्थों को आगे बढ़ायेगा
और आगे बढ़ा तो
इसी रास्ते पर
जो है तुम्हारा अपना
साम्यवाद
मार्क्स का रास्ता
जो सपनों को संजोयेगा
दुपहरी में
फूल खिलेंगे
अगर तुम चेतना से
अपना रास्ता संभालोगे
यही एक अच्छा कदम होगा. (पृ.35)

आनंद ने यह कविता 20-21 वर्ष की उम्र में लिखी थी. दलित पृष्ठभूमि से एक उदीयमान कवि की दिशा इस तरह तय हो रही थी. ‘फूल जरूर खिलेंगे’ संग्रह की कविताएं कवि के व्यापक सरोकारों की साक्षी हैं. संग्रह की सुविस्तृत भूमिका में कवि ने आत्मवृत्त के रूप में अपने निर्माण का ब्योरा दिया है. संग्रह की कविताओं में मजदूरों, बटाईदारों, हरवाहों, किसानों, स्त्रियों और दलितों की जिंदगी की विविध छवियाँ दिखाई देती हैं. कविताओं की बुनावट में हड़बड़ी या कच्चापन है जो बाद के संग्रहों में क्रमशः कम होता गया है. आनंद का ताज़ा संग्रह ‘सुनो भूदेव’ (परिकल्पना, लक्ष्मीनगर, दिल्ली, 2019) दलित कविता को समादृत कवि मलखान सिंह (सितंबर 1948 – अगस्त 2019) के बहुचर्चित संग्रह ‘सुनो ब्राह्मण’ (1996) से आगे ले जाता है. संग्रह की भूमिका में दलितवाद और मार्क्सवाद दोनों की कड़ाई से परीक्षा की गई है और उनके सरोकारों के साझेपन को रेखांकित किया गया है. विषमता में जीने का आदी समाज साम्यवाद को लेकर भांति-भांति की आशंकाएं पाले, उससे डरे, यह स्वाभाविक है. जो अस्वाभाविक है उसकी तरफ ध्यान दिलाते हुए आनंद ने भूमिका में लिखा है-

“साम्यवाद एक भूत है जो भारतीय जातिवादियों की नींद उड़ा दे रहा है. मजेदार यह है कि ब्राह्मणवादी तो साम्यवाद का कड़ा विरोध करता है, साथ ही साथ ब्राह्मणवाद का विरोध करने वाले दलितवादी भी साम्यवाद और मार्क्सवाद का जमकर विरोध करते हैं. दोनों एक स्तर पर मित्र हो गए हैं. मुझे यह मित्रता समझ में नहीं आती है…” (पृ. 26)

विश्व पूँजीवाद अथवा कॉर्पोरेट जगत से समर्थित हिंदुत्व की ताकत और पिछली एक शताब्दी में निर्मित उनके व्यापक व मजबूत नेटवर्क का ज्ञान कवि को है. वह इसीलिए प्रतिरोध की ऊर्जा को पूरी मितव्ययिता से बरतने की सलाह देता है. उसकी यह सलाह भी गौरतलब है-

दोस्ती करना सीखो
क्रांतिकारी विमर्श करो
जो अपने जाति-धर्म के विरुद्ध खड़ा होगा
वही सच्चा क्रांतिकारी है
वही तुम्हारा दोस्त है
अपनी जाति को मजबूत कर
सिर्फ ब्राह्मणवाद को मजबूत करोगे (पृ. 31)

हिंसक दमन को अपने भीतर समोए नवउदारवाद ने प्रत्येक देश के दक्षिणपंथ से हाथ मिलाया है. भारत में तो उसे बड़ा मजबूत ढांचा हासिल हुआ. यहाँ के जनसंचार को काबू करने में भी उसे बहुत कठिनाई न हुई. असहमत आवाजों को नेस्तनाबूद करने का सिलसिला तेज हुआ. विवेकशीलता और विज्ञान पर आस्था की आरी चलने लगी-

विज्ञान संदेह, तर्क और जिज्ञासा
की बदौलत
पैदा होता है
मगर…
भारत में आस्था के व्यापारियों ने
…दाभोलकर
पानसारे
और कलबुर्गी की हत्या करवा दी
विज्ञान के पैदा होने की
सारी संभावनाएं ही
ख़त्म की जा रही हैं (पृ.48)

समकाल का बड़ा गहरा दबाव ‘सुनो भूदेव’ पर है. उनके पिछले संग्रहों में विविध विषयों पर कविताएं थीं, प्रेम और सौंदर्यानुभूति की अभिव्यक्तियाँ थीं, जल-थल-प्रकृति-मौसम-पुष्प-पक्षी-सांझ-समीर को देखती रस-सिक्त निगाहें थीं. वे सब जैसे नए संग्रह में रीत गई हैं. अप्रासंगिक होकर कहीं पीछे छूट गई हैं. आतताई शासन कविकर्म पर इस तरह भी असर डालता है! मात्र चेताने वाली, आक्रोश से भरी, स्थिति का चिंतातुर विश्लेषण करती, बचाव और प्रत्याक्रमण की तरकीबें तलाशती कविताएं कालांतर में एकरस समझी जाने का जोखिम भी उठाती हैं. काव्यशास्त्रीय शब्दावली के सहारे समझना चाहें तो इस संग्रह के मुख्य स्वर को सुहृदसम्मित उपदेश की कविताएं कह सकते हैं. सलाह दोनों को दी गई है- वे जो जाति की राजनीति करते हैं, और जो वर्ग की लड़ाई लड़ते हैं. अगर वर्ग की लड़ाई लड़ने वाले जाति के प्रश्न पर ‘मकैनिकल एप्रोच’ से काम करेंगे तो-

‘क्रांतिकारी शक्तियाँ
दूर होती चली जाएंगी
और क्रांति के विरुद्ध खड़ी मिलेंगी’ (पृ. 53)

इसलिए जरूरत है जाति के सवाल को संवेदनशीलता से समझने की, ‘डी-कास्ट’ होने की, आंबेडकर की (‘जातिप्रथा उन्मूलन’, ‘राज्य और अल्पसंख्यक’) और दलित साहित्य की ‘प्रतिनिधि पुस्तकें’ पढ़ने की.

‘सुनो ब्राह्मण’ से ‘सुनो भूदेव’ का अंतर समझना दलित विमर्श की विकासयात्रा से रूबरू होना है. इनके कई अंतरों में एक अंतर यह है कि आनंद ने ‘कल्चरल कैपिटल’ से आगे जाकर संसाधनों पर कब्जे को सवर्णों के चिरकालिक वर्चस्व का प्रमुख कारण माना है. ‘सुनो ब्राह्मण’ में विचार-प्रधान कविताएँ हैं जबकि ‘सुनो भूदेव’ में विश्लेषण-प्रधान. यहाँ विचार विश्लेषण के पीछे-पीछे चलता है. पहले संग्रह में व्यक्ति-वाचक संज्ञाओं वाली कविताएं नहीं हैं जबकि दूसरे में व्यक्ति और स्थान दोनों नाम के साथ आए हैं और उनकी पहचान की जा सकती है. ‘सुनो भूदेव’ में आख्यानमूलक कविताएं हैं, ‘सुनो ब्राह्मण’ में अर्जित निष्कर्षों वाली कविताएं. आख्यानमूलक कविताओं में ‘नीम गवाह’, ‘दादी की आत्मकथा’, ‘गुरूजी पैर नहीं छूते’, ‘कथावाचक’, ‘पड़ताइन बुआ’, और ‘पंडित पुरवा’ उल्लेखनीय हैं. ईश्वर को संबोधित या संदर्भित कविताएं दोनों संग्रहों में प्रमुखता से हैं. आत्मालोचन दोनों कवि करते हैं लेकिन आर.डी. आनंद का आत्मालोचन अस्मितावाद को नहीं बख्शता.

मलखान सिंह के दूसरे और अंतिम संग्रह ‘ज्वालामुखी के मुहाने’ (शब्दारंभ प्रकाशन, दिल्ली, 2016) तक परिस्थितियाँ बहुत बदल गई हैं लेकिन कवि की ओजस्वी वाणी पूर्ववत् है. आनंद अपने कवि को निरंतर अपडेट करते चलते हैं इसीलिए उनके यहाँ संकट की पहचान सटीक और गहरी होती गई है. वे जेंडर का मुद्दा भी संजीदगी से उठाते हैं और जाति, वर्ग व जेंडर की राजनीति करने वाली पृथक-पृथक आंदोलनधाराओं को साझे मंच पर आने की शिद्दत भरी सलाह देते हैं. उनकी इच्छा है कि साझेपन की किसी भी ईमानदार पहल या प्रस्ताव को दलित समुदाय यथोचित समर्थन दे-

यह समय प्रतिरोध का है
और तुम बहुत अकेले हो
क्योंकि तुमने उनको भी शत्रु समझ रखा है
जो तुम्हारे बहुत करीब हैं
तुम उन्हें आस्तीन का साँप कहते हो
तुम उन्हें पुरातन नस्लवादियों से भी खतरनाक कहते हो
और तुम्हारे अन्दर के अठावले और पासवान
मुँह चिढ़ा रहे हैं
…
यह बताओ
प्रतिक्रियावादियों से लड़ने के लिए
तुम्हारे पास कौन है?

 

किसान आंदोलन और दलित कविता

अस्मितावाद अपने आरंभिक दौर में इतना उद्देश्य-केंद्रित था कि उसे अन्य मुक्ति आंदोलनों को समझने, उनसे संवाद करने और उनमें हिस्सेदारी करने का अवकाश न था. अवकाश निकल सकता था लेकिन तब अस्मितावाद की प्रकृति कड़क अपवर्जी थी. फिर स्थितियां बदलीं, सोच में परिवर्तन आना शुरू हुआ. प्रो. तुलसीराम जैसे चिंतकों और जयप्रकाश लीलवान जैसे रचनाकारों ने वर्चस्ववादियों-वर्णवादियों-हिन्दुत्ववादियों की विकट घेरेबंदी और सर्वग्रासी तंत्र को समझते हुए मुक्तिकामी विचारों वाले संगठनों और व्यक्तियों में एका की ज़ोरदार पैरोकारी की. परवर्ती पीढ़ी ने इसकी ज़रूरत महसूस की. इसी का नतीज़ा है कि जब तीन नए कृषि कानूनों के विरोध में किसानों का आंदोलन शुरू हुआ तो दलित रचनाकारों ने उसे मुखर समर्थन दिया. यह दलित अस्मिता-विमर्श के इतिहास में पहला मौका था जब किसी ‘अन्य’ आंदोलन के पक्ष में इस त्वरा के साथ लिखा गया. किसान आंदोलन के हक में बोलते हुए दलित एक्टिविस्टों, रचनाकारों ने यह बराबर याद रखा कि गाँवों में, कृषि संबंधों में जाति की जकड़बंदी बनी हुई है. इस सावधानी ने उनके स्वर को अनालोचनात्मक न होने दिया. दिल्ली के सिंघू बॉर्डर, गाजीपुर बॉर्डर जहाँ किसान पिछले कई महीनों से विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं वहाँ दलित रचनाकार पूर्वोल्लिखित साझे मंच के सहभागी के रूप में जा रहे हैं और सभी संभव तरीकों से अपना समर्थन जाहिर कर रहे हैं.

किसान आंदोलन के समर्थन में कुछ प्रमुख दलित कवियों की कविताएं ‘कथादेश’ (दिल्ली) पत्रिका के जनवरी 2021 अंक में छपी हैं. इनमें शामिल वरिष्ठ रचनाकार जगदीश पंकज तीखे व्यंग्यात्मक तेवर में कहते हैं कि सत्ता के समक्ष नतमस्तक न होने वाले, तमाम सरकारी सद्भावनाओं को खारिज करने वाले, सरकार की आँख में आँख डालकर बात करने वाले इन आंदोलनकारियों को सरकार तथा उन्हें समर्थन देने वाला खाया-अघाया मध्यवर्ग किसान ही मानने से इनकार कर रहा है-

नहीं समझ रहे किसान
सत्ता की सद्भावना को.

किसान नहीं समझ रहे कि
सत्ता कितनी चिंतित है
उनके समृद्ध भविष्य के लिए
किसान के हितों को
सुरक्षित करने के लिए
सौंपकर कार्पोरेटों को
जैसे सुरक्षित किये जा रही है
देश के भविष्य को
बेचकर सरकारी उपक्रमों और
लाभकारी विभागों की परिसम्पत्तियां.

इसीलिए संदेह हो रहा है कि
सीना तानकर
आँखें मिलाकर
सत्ता को ललकारने वाले
क्या वाकई में किसान हैं?

तेजतर्रार कवि टेकचंद किसानों की व्यथा और वंचना को इन शब्दों में रखते हैं-

हम किसान हैं
औने-पौने में बिकती फसल हमारी
मंडी के खेल में सदा हारती फसल हमारी
फिर भी हम उपजाते हैं
अपना फर्ज निभाते हैं
सीमा पर लड़ने वालों से ज्यादा
खेतों में शहीद हो जाते हैं
हम किसान हैं

सरहदों पर बैठे किसानों में स्त्री किसान भी हैं. वे नारे लगा रही हैं और मंच पर व्याख्यान दे रही हैं. संसद के समांतर जंतर मंतर पर चल रहे किसान संसद में 26 जुलाई और 9 अगस्त को महिला किसान सांसदों का सत्र चला और बहुत सार्थक रहा. आंदोलन में महिलाओं की यह भागीदारी सामाजिक तानेबाने पर, पितृसत्तात्मक शक्ति-संबंधों पर दूरगामी और सकारात्मक असर डालेगी. रानी कुमारी उन स्त्रियों की आवाज़ बनती हैं जो आंदोलनकर्मी पुरुषों की अनुपस्थिति में खेत और घर दोनों संभाल रही हैं-

बढ़ती शहादतों का आँकड़ा
अंदर ही अंदर सुखा रहा है
डर है कि
बढ़ता ही जा रहा है
आंगन की चहल-पहल
अब दिल्ली में है…

घर-आंगन खेत-खलिहानों को
संभाल रही हैं औरतें
जब तुम लौटो
तो देखो कि
एक मोर्चा तुम जीत कर आए हो
और
एक हम ने जीता है
तुम्हारी ग़ैर-हाज़िरी में…

अपनी कविता ‘फौलादी इरादे’ में कवि-रंगकर्मी राजेन्द्र कुमार मदांध सत्ता को चेताते हैं कि उनका पाला जिन आंदोलनकारियों से पड़ा है वे न झुकने वाले किसान हैं. उनके इरादे फौलादी हैं और उनकी एकता अटूट है. राजेन्द्र की कविता का आंदोलनकर्मी किसान सरकार की हुक्म पर घेरे खड़े, लाठियां बरसाते, सर्द मौसम में पानी की धार छोड़ते पुलिसकर्मियों से संवाद करता है. वह बताना चाहता है दोनों के हित परस्पर विरोधी नहीं हैं. यह भी कि पुलिसकर्मी जो अन्न खाते हैं, जिन वस्तुओं का इस्तेमाल करते हैं वे किसानों की, मजदूरों की मेहनत का नतीजा हैं-

ये जो हमारे जिस्म पे
टूटते हैं बिजली से बांस और
प्लास्टिक के डंडे,
ये हमारे इरादों ने मजबूत किये हैं.

हमारे फूटे हुए सरों से बहता लहू,
बह रहा है तुम्हारी भी रगों में,
हमे मिटाने का जोश आया है,
हमारे उगाये हुये अन्न को खाने से.

खेतों और कारखानों में खपा दी,
हमने अपनी सारी साँसे,
ताकि पहन सको ये वर्दी,
जिसके भीतर सड़ रही है तुम्हारी आत्मा,
जिसकी बदबू दबाना चाहती है,
हक और हुक़ूको की खुशबू को.

उतार कर सत्ता का बख्तर,
शामिल क्यों नहीं हो जाते
हमारे काफिले में
दुनिया को शोषण मुक्त बनाने के
हमारे संघर्ष में।
अरे सुनो ये वर्दी ही तो है
कोई कफ़न नहीं है.

कवि-संस्कृतिकर्मी हेमलता महिश्वर ‘किसान का मतलब’ किसान से ही पूछती हैं. सरकार ने किसानों से उनका किसानीपन, उनकी किसान-पहचान छीनने की हर संभव कोशिश की. उन्हें कभी देशद्रोही कहा, कभी खालिस्तानी; कभी आतंकवादी कहा, कभी भाड़े के लोग; कभी भ्रमित जमात कहा और कभी मवाली. किसान आंदोलन इन आरोपित अभिधानों, कुत्सित नामकरणों को विफल करता आगे बढ़ता गया. उसने लोकमानस में बद्ध उस रूढ़ छवि को भी तोड़ा कि किसान ‘गोदान’ के होरी या ‘सवा सेर गेहूँ’ के शंकर की तरह हुआ करता है. आंदोलनधर्मी किसान नंगे पाँव सिर झुकाकर नहीं चलता. वह क़ानून समझता है, क़ानून की भाषा में छिपा मूलार्थ समझता है और क़ानून बनाए जाने की प्रक्रिया में हुआ खेल जानता है. उसने सरकार द्वारा समय-समय पर अपनाए गए साम, दाम, दंड, भेद का डटकर मुकाबला किया है और भांति-भांति के नए हमलों को निष्फल करता जा रहा है. उसे पता है कि मंडी व्यवस्था की समाप्ति, ठेके पर खेती की शुरुआत, आवश्यक वस्तु संशोधन अधिनियम में बदलाव, न्यूनतम समर्थन मूल्य पर क़ानून न बनने देने आदि से किसका भला होने जा रह है और यह सरकार किनके हितों की रक्षा में आंदोलनकारी किसानों पर कहर बरपा रही है-

तुम्हारी आवाज़ संसद तक न पहुँचे
इसलिए सरकार ने सड़कों में
खोद दिए हैं बड़े-बड़े गड्ढे
पर हवा में तैरती आवाज़ें
पूरे विश्व तक पहुँच गईं
और विश्व की आवाज़
तुममें शामिल हो गई
याद है ना
दंगों के दौरान सरकारी संपत्ति को जो नुक़सान हुआ था
उसका हर्ज़ाना कुछ ख़ास वेशभूषावालों पर लगाया गया था
अब सरकार यह हर्ज़ाना किससे वसूल करेगी
सरकार किसे दंडित करेगी जबकि
तुमने सरकारी भोजन करने से भी इंकार कर दिया
तुम ऐसे तनकर कैसे खड़े हो गए?

डॉ. पूनम तुषामड़ किसानों के महत्त्व का रेखांकन करते हुए कहती हैं कि यह समुदाय तो खामोश रहकर समूचे समाज के लिए अन्न उपजाता रहा है. उसने आज अपनी जुबान खोली है और आंदोलन में उतरा है तो उसकी दृढ़ता को कम करके नहीं आंका जाना चाहिए-

अभी तलक खामोशी से
जो हल जोतते आये थे।
वही आज अपने हिस्से का
हक मांगने आये हैं।

खुद को भूखा रखकर जिसने
पेट भरा है दुनियां का
दिल्ली की छाती पर चढ़ कर
तुम्हे चेताने आये हैं.

कवि-मूर्तिकार हीरालाल राजस्थानी अपनी ‘जिंदाबाद किसान’ कविता में इसी भाव को आगे बढ़ाते हैं. वे कहते हैं कि किसानों की यह जागृति सार्थक परिणाम देगी. बंजर बनाने के तमाम सरकारी प्रयासों के बावजूद आंदोलन की उर्वरा भूमि पर किसानों के हक-हुकूक की फसल लहलहाएगी-

उन्होंने जला दी है पराली के साथ
आश्वासनों की खरपतवार भी
वे लाठियों की बौछारों में
बो चुके हैं
अपने मजबूत इरादों के बीज
जो जल्द ही फूटेंगे
धूसर धरती के गर्भ से
हक़ों की लहलहाती फसलें बनकर.

वी.के. शेखर अपनी नई ग़ज़ल में किसान आंदोलन के संदर्भ से कुछ मौजूं मुद्दे उठाते हैं और किसानों को सावधान करते हुए व्यापक समाज व सत्ताधारी वर्ग को इन शब्दों में चेताते हैं-

बढ़ते ही जा रहे, जो फसल नष्ट कर रहे
ऊँचा करो मचान, बहुत वक़्त हो गया .
… … …
रोटी न मिल सकेगी, ग़रीबों को दोस्तों
जो मर गया किसान, बहुत वक़्त हो गया.

चिंतक-कवि महेंद्र सिंह बेनीवाल किसान को साभ्यतिक विकास की रीढ़ के रूप में देखते हुए आदिम बर्बर युग से क्रमिक परिवर्तन की यात्रा कराते हैं. किसान हुआ तो अन्न उपजा, चूल्हा बना, मानव और मानवेतर दोनों को नवजीवन मिला, दोनों की जुगलबंदी हुई, संस्कृतियां फली-फूलीं-

जोट सिर्फ बैलों की ही नहीं
किसान और बैल की भी थी
किसान के क़दमों से कदम मिलाकर
खेतों में वे अरबों खरबों मील चले
वे खेत में जुतते थे एक साथ

अकारण ही नहीं हो गए हैं
पशु पूजनीय
उसके पीछे भावनाओं की दुनिया है
रोटी की महक है
और पसीने का इतिहास है.

खेती पर कॉर्पोरेट के कब्जे की ठोस आशंकाओं के बीच किसान की व्यथा को महसूसते हुए एक अन्य कविता (‘किसान’) में बेनीवाल यह दुहरा रूपक रचते हैं-

खेत में सांड़ के पैर रखते ही
फसलें ऐसे सहम जाती हैं
सहमी हुई हो जैसे कोई लड़की
जो जबरन उठाकर
लाई गई हो खेत में

किसान करने लगता है चीत्कार
एक पिता की तरह
उसके ही सम्मुख जैसे
किया जा रहा हो
उसकी बेटी पर अत्याचार

ग्रामीण जीवन की अच्छी समझ रखने वाले रचनाकार अमित धर्मसिंह किसानों की तरफ से सत्ता से संवाद करते हैं. उनके संवाद निरुत्तरित कर देने वाले प्रश्नों से निर्मित होते हैं. वे शासक वर्ग से कहते हैं कि जिससे जीवन संभव होता है उसे कीमत देकर नहीं खरीदा जा सकता. हवा, पानी और अन्न ऐसी ही चीजें हैं. इन्हें कृतज्ञता में सिर झुकाकर लेना चाहिए. किसान और मजदूर अन्न उपजाते हैं. वे समाज की प्राणधारा हैं. उन्हें बेबस और लाचार बनाने वालों को सांघातिक मानना चाहिए. कवि की चेतावनी है-

अपनी भूख को इतना मत बढ़ाओ
कि तुम अनाज की जगह
किसान को खाने लगो,
कि तुम भी नहीं बचोगे
गर नहीं बचे किसान.

धरती और किसान के बीच मां-बेटे का रिश्ता है. दावा तो वे भी करते हैं जो धरती के सगे नहीं हैं. उनकी हकीकत से कवि वाकिफ है इसलिए वह बताना जरूरी समझता है-

तुम मां के मुंहबोले बेटे हो
मुंहबोले ही रहो
किसान और मां के सगे रिश्ते में न आओ,
लौट जाओ अपने कंक्रीट के महलों में
अपनी हठधर्मिता से तुम
मां और किसान से कुछ भी न पा सकोगे.

पुरोगामी राजनीतिक चेतना वाले रचनाकार रवि निर्मला सिंह किसान आंदोलन की शक्ति का स्मरण कराते हुए वर्चस्ववादियों से कहते हैं कि तुमने आंदोलनकारियों को तरह-तरह के नामों से लांछित करना चाहा मगर सफल न हुए. उलटे किसान आंदोलन की साख और स्वीकृति बढ़ती गई. चौबीस गुणे सात वाला मीडिया भी सत्ता के झूठ को अनावृत्त होने से रोक न पाया. शाहीन बाग में मिली औचक सफलता दुहराई न जा सकी-

शाहीन बाग़ की आवाजों को
खामोश कर
बड़े इत्मीनान से थे तुम
जीत लिया तुमने
ध्वनि और शब्दों का संसार
बसने का अधिकार, छीनने की अहमकी
तुम्हें पेट भरने के अधिकार के विरुद्ध भी ले आई
तुम जीवनदायिनी धरती में
उद्योगों का कचरा उगाना चाहते हो
अब यह सब मुमकिन नहीं

दलित कविता के सरोकारों में यह विस्तार भरोसा उपजाता है. तमाम मुक्तिकामी विमर्शों में अभी जैसी एका बन रही है वह हाशियाकृत समाज के लिए भले आश्वस्तिकर हो, पारंपरिक सत्ताधारियों के लिए भयकारी है. यह सोचना निराधार नहीं है कि सत्ताधारी अपने संसाधनों को झोंक देंगे और किसी भी तरह इस एकता को तोड़ना, विकृत करना चाहेंगे. ऐसे में आंदोलनकारियों, रचनाकारों, बौद्धिकों की बहुमुखी जागरूकता आवश्यक है, निर्णायक है.

_________________________

बजरंग बिहारी तिवारी
जन्म 1 मार्च 1972, पूर्वी उत्तर प्रदेश के एक गाँव नियावां (जिला गोंडा) के पारंपरिक किसान परिवार में.

वर्ष 2004 से दिल्ली से प्रकाशित हिंदी मासिक ‘कथादेश’ में दलित प्रश्न शीर्षक स्तंभ लेखन.,‘कथादेश’ दलित साहित्य विशेषांक (सितंबर, 2019) के अतिथि संपादक. ‘रचना प्रक्रिया और विचारधारा’ पर केंद्रित ‘नया पथ’ पत्रिका (जनवरी-जून, 2019) का अतिथि संपादन.

पुस्तकें-
जाति और जनतंत्र : दलित उत्पीड़न पर केंद्रित (2015), दलित साहित्य: एक अंतर्यात्रा (2015), भारतीय दलित साहित्य: आंदोलन और चिंतन (2015)
बांग्ला दलित साहित्य: सम्यक अनुशीलन (2016), केरल में सामाजिक आंदोलन और दलित साहित्य (2020), भक्ति कविता, किसानी और किसान आंदोलन (पुस्तिका, 2021), दलित स्त्रीवाद: लेखन और आंदोलन (शीघ्र प्रकाश्य), कविता की भाव यात्रा (शीघ्र प्रकाश्य)

संपादित पुस्तकें-
भारतीय साहित्य: एक परिचय (2005), यथास्थिति से टकराते हुए: दलित स्त्री से जुड़ी कहानियां (2012), यथास्थिति से टकराते हुए: दलित स्त्री जीवन से जुड़ी कविताएं (2013), यथास्थिति से टकराते हुए: दलित स्त्री जीवन से जुड़ी आलोचना (2015).

दिल्ली विश्वविद्यालय के अंतर्गत देशबंधु महाविद्यालय में हिंदी के प्रोफेसर.
संपर्क -9818575440
E-mail – bajrangbihari@gmail.com

Tags: कविताकिसान आंदोलनदलित साहित्य
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Comments 7

  1. Sushil Manav says:
    4 years ago

    बजरंग भाई लगातार अपने आलेखों से सामूहिक ऐतिहासिक चेतना का विकास कर रहे हैं। वो लगातार दलित आंदोलनों और मजदूर आंदोलनों के परिप्रेक्ष्य में साहित्य का विश्लेषण करते आ रहे हैं, किसान आंदोलन के संदर्भ को लेकर उनके दोनों ही लेख बहुत महत्वपूर्ण है.

    Reply
  2. Amit Dharmsingh says:
    4 years ago

    आपकी लेखनी को सलाम है सर। आपने किसान आंदोलन का सारगर्भित और जीवंत दस्तावेज तैयार किया है। आभार सहित बधाई आपको।💐🙏

    Reply
  3. नरेश गोस्वामी says:
    4 years ago

    अस्मितावादी राजनीति की सीमाओं और उससे पैदा हुए विपर्यय की गहराई से तफ़्तीश करता लेख। आज पिछले तीन दशकों की इस अस्मितामूलक राजनीति को पलट कर देखना वितृष्‍णा से भर देता है। नवें दशक में इस राजनीति को लेकर कैसे-कैसे दावे किए जा रहे थे! रजनी कोठारी इसे सामाजिक न्‍याय और सेकुलरवाद की विजय बता रहे थे; क्रिस्‍तॉफ़ जैफ्रलो इसे मौन क्रांति कह रहे थे तो योगेंद्र यादव को इसमें लोकतंत्र की दूसरी लहर नज़र आ रही थी। जबकि सच यह था कि यह महज़ सत्‍ता-प्राप्ति की मुहिम थी जिसका सामाजिक-आर्थिक सत्‍ता के पुनर्वितरण या उसके स्‍थायी आधारों के पुनर्संयोजन से कोई सरोकार नहीं था। तब कोई यह देखने को तैयार नहीं था कि बड़े जाति-समूहों की गोलबंदी पर आधारित इस राजनीति को वित्‍तीय साधन कौन मुहैया करा रहा था। सच्‍चाई यह थी कि नव्‍य उदार पूंजी/कॉरपोरेट के सूटकेस इन दलों के पास भी पहुंच चुके थे। और यह सत्‍ता के मौजूदा तंत्र को अपदस्‍थ कर उसका पुनर्निर्माण करने के बजाय अपनी-अपनी हिस्‍सेदारी तय करने का खेल ज़्यादा था।
    बजरंग जी ने अस्मितावादी राजनीति के तर्कों की भ्रामकता का बड़ा सधा हुआ विश्लेषण किया है। इस मायने में यह लेख बाक़ी लोगों के लिए एक स्रोत का काम करेगा।
    लेख के परवर्ती भाग में दलित कवियों के उद्धरणों से निश्‍चय ही एक नये वैचारिक मंथन का सुराग़ मिलता है, लेकिन एक-दो अपवादों को छोड़ दें तो अधिकांश उद्धरण पुराने नारों और सिद्धांतों का ‘रीमिक्‍स‘ ज़्यादा दिखाई पड़ते हैं। ऐसे में ‘साझे मोर्चे के पक्ष में’ इस ‘नयी पहल’ से आश्‍वस्‍त होने के बजाय यह देखना ज्‍़यादा ज़रूरी होगा कि वह जनता के दैनिक मुहावरे तक कब पहुँचती है।

    Reply
  4. आर डी आनंद says:
    4 years ago

    डॉ. बजरंग बिहारी तिवारी ने जहाँ पौराणिक आख्यानों और व्याख्याओं के निहितार्थ को समझा और उससे आगाह किया है, वहीं उन्होंने समकालीन साहित्य पर विशेष ध्यान दिया है। कविता-कहानी की प्रवृत्ति से अधिक जरूरी समकालीन जरूरतों और साहित्यकारों के सामाजिक और राजनैतिक उद्देश्य की समझ की मीमांसात्मक परख करना है। जब यह दौर पूँजीवाद का विकृत और जातिवाद के नए प्रयोग का दौर है, तो आधुनिक सहित्यकारों और क्रांतिकारियों की समझ व्यवस्था और व्यवस्था के गठजोड़ को व्यापक रूप से समझने और चिन्हित करने का होना ही चाहिए। दलित एक ऐसा वर्ग है जो दोनों रूप से शोषित व उत्पीड़ित है। क्रांति इस वर्ग की जरूरत है। इस जरूरत की जरूरत के दौर में संभावित मित्रों को तलाशते हुए उन्हें संगठित करने की नितांत आवश्यकता है। यदि दलित अपने मीमांसा में इस महत्व को नजरअंदाज करता है तथा मित्र शक्तियों को खोजने और उन्हें संगठित करने में फेल होता है तो निश्चित ही वह अनजाने में शत्रु शक्तियों को मजबूत होने में मदद करता है। इन अनेक परिस्थितियों को डॉ. बजरंग बिहारी तिवारी बहुत चैतन्य प्रहरी की तरह नोट करते हैं और समकालीन साहित्य में विभिन्न पहलुओं को रेखांकित करने की ईमानदार कोशिश करते हैं। ‘सुनो ब्राह्मण’ और ‘सुनो भूदेव’ के भौतिक परिस्थितियों का मूल्यांकन करते हुए बिल्कुल उचित ही कहा है कि “‘सुनो ब्राह्मण’ से ‘सुनो भूदेव’ का अंतर समझना दलित विमर्श की विकासयात्रा से रूबरू होना है. इनके कई अंतरों में एक अंतर यह है कि आनंद ने ‘कल्चरल कैपिटल’ से आगे जाकर संसाधनों पर कब्जे को सवर्णों के चिरकालिक वर्चस्व का प्रमुख कारण माना है. ‘सुनो ब्राह्मण’ में विचार-प्रधान कविताएँ हैं जबकि ‘सुनो भूदेव’ में विश्लेषण-प्रधान. यहाँ विचार विश्लेषण के पीछे-पीछे चलता है. पहले संग्रह में व्यक्ति-वाचक संज्ञाओं वाली कविताएं नहीं हैं जबकि दूसरे में व्यक्ति और स्थान दोनों नाम के साथ आए हैं और उनकी पहचान की जा सकती है. ‘सुनो भूदेव’ में आख्यानमूलक कविताएं हैं, ‘सुनो ब्राह्मण’ में अर्जित निष्कर्षों वाली कविताएं.” इन बारीक विश्लेषणों में गए बिना साहित्यकार राजनीति के आगे-आगे मशाल दिखाने वाले योग्यतम क्रांतिकारी नहीं बन पाएँगे। शुक्रिया सर डॉ. बजरंग बिहारी तिवारी जी।

    Reply
  5. अटल तिवारी says:
    4 years ago

    पुरजोर तैयारी के साथ लिखा गया लेख। शुरू किया तो पढ़ता ही चला गया। लेखक बजरंग सर को खूब बधाई।

    Reply
  6. Anonymous says:
    4 years ago

    पहले के लेखों की तरह मेहनत से लिखा गया लेख।

    Reply
  7. Anonymous says:
    4 years ago

    विगत का सुन्दर और दृष्टिपूर्ण विवेचन कर वर्तमान में उस मोर्चे का महत्व बखूबी बताया गया जहाँ दलित रचनाधर्मिता अपने को जेनुइन बना रही है। यह जेनुइननेस निजीकरण के भारत-ग्रासी संकट के विरुद्ध साझे संघर्ष की सहभागी हो, यह वक्त की शायद सबसे बड़ी जरूरत है। लेख ने आरंभ से अंत तक बाँधे रखा। हार्दिक आभार।

    Reply

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